Book Title: Agam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्व. पूज्य गुरुदेव श्री जोरावरमलजीमहाराज की स्मृति में आयोजित संयोजक एवं प्रधान सम्पादक युवाचार्य श्री मधुकर मुनि जीवाजीवाभिगमसूत्र ( मूल-अनुवाद-विवेचन-टिप्पण-परिशिष्ट-युक्त ) Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऊँ अहं जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थांक-३० [परम श्रद्धेय गुरुदेव पूज्य श्री जोरावरमलजी महाराज की पुण्यस्मृति में आयोजित] श्रुतस्थविरप्रणीत-उपाङ्गसूत्र जीवाजीवाभिगमसूत्र [प्रथम खण्ड] [मूलपाठ, प्रस्तावना, अर्थ, विवेचन तथा परिशिष्ट आदि युक्त] सन्निधि उपप्रवर्तक शासनसेवी स्व० स्वामी श्री ब्रजलालजी महाराज आद्य संयोजक तथा प्रधान सम्पादक - (स्व० ) युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी महाराज मधुकर .. सम्पादक. श्री राजेन्द्रमुनिजी, एम. ए., साहित्यमहोपाध्याय मुख्य सम्पादक पं.शोभाचन्द्र भारिल्ल प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागम-ग्रन्थमाला : ग्रन्थाङ्ग ३० - निर्देशन साध्वी श्री उमरावकुंवर 'अर्चना' ० सम्पादकमण्डल अनुयोगप्रवर्तक मुनिश्री कन्हैयालाल 'कमल' उपाचार्य श्री देवेन्दमुनि शास्त्री श्री रतनमुनि पण्डित श्री शोभाचन्द्र भारिल्ल' • सम्प्रेरक मुनिश्री विनयकुमार 'भीम' 0 संशोधन श्री देवकुमार जैन 0 प्रकाशन तिथि तृतीय संस्करण वीर निर्वाण सं० २५२८ वि. सं. २०५८ ई. सन् २००२ अप्रैल - प्रकाशक श्री आगमप्रकाशन समिति वृज-मधुकर स्मृति भवन, पीपलिया बाजार, ब्यावर (राजस्थान) - मुद्रक श्रीमति विमलेश जैन अजन्ता पेपर्स कन्वर्टस लक्ष्मी चौक, अजमेर-3050010:420120 . कम्प्यूटर टाइप सैटिंग बृज कम्प्यूटर्स माली मौहल्ला, कृष्ण गंज, अजमेर - 305006 0:626669 D मूल्य :७५ रुपया Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Published at the Holy Remembrance occasion of . Rev. Guru Shri Joravarmalji Maharaj JIVAJIVABHIGAMA SUTRA [Part-1 [ Original Text, Hindi Version, Introduction and Appendices etc.) Inspiring Soul (Late) Up-pravartaka Shasansevi Rev. Swami Sri Brijlalji Maharaj Convener & Founder Editor (Late) Yuvacharya Sri Mishrimalji Maharaj ‘Madhukar Editor Shri Rajendra Muni, M. A. Sahityamahopadhyay Chief Editor Pt. Shobhachandra Bharilla Publishers Shri Agam Prakashan Samiti Beawar (Raj.) Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Jinagam Granthmala Publication No. 30 Direction Sandhwi Shri Umravkunwar 'Archana' Board of Editors Anuyoga-pravartaka Muni Shri Kanhaiyalal 'Kamal' Upachrya Sri Devendramuni Shastri Sri Ratan Muni Pt. Shobhachandra Bharilla Promotor Muni Sri Vinayakumar 'Bhima' Correction and Supervision shri Dev Kumar Jain Date of Publication Third Edition Vir-nirvana Samvat 2528 Vikram Samvat 2058; April, 2002 Publishers Sri Agam Prakashan Samiti, Brij-Madhukar Smriti-Bhawan, Pipalia Bazar, Beawar (Raj.) Pin 305 901 Printer Smt. Vimlesh Jain Ajanta Paper Converters, Laxmi Chowk, Ajmer-305001 : 420120 Computer Type Setting By Brij Computers Mali Mohalla, Krishan Ganj, Ajmer-305001 : 626669 Price Rs. 75/ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशकीय श्री जिनागम ग्रंथमाला के तीसवें ग्रन्थांक जीवाजीवाभिगम सूत्र (प्रथम खण्ड) का यह तृतीय संस्करण आगम पाठी पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए आनन्द का अनुभद हो रहा है। साथ ही गौरव की अनुभूति हो रही है कि समिति आगम साहित्य के प्रचार प्रसार करने में सफल हुई है। ___ व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र और प्रज्ञापना सूत्र के समान ही यह जीवाजीवाभिगम सूत्र भी जैन दर्शन के सैद्धान्तिक पक्ष की विशद् व्याख्या करता है और उसमें भी जीवतत्त्व के प्रत्येक पक्ष का वर्णन किया गया है। जिन्हें सैद्धान्तिक दृष्टि से जीवतत्त्व का सर्वांगीण वर्णन समझना है उन्हें इस आगम का अध्ययन करना अनिवार्य, आवश्यक है। उपर्युक्त संकेत से यह स्पष्ट हो गया है कि जीवाजीवाभिगम सूत्र तत्त्व विवेचक आगम ग्रन्थ है। तात्विक होने से इसके अनुवाद में सैद्धान्तिक पक्ष को स्पष्ट करने के लिए विस्तृत व्याख्या की आवश्यकता है।ऐसा किये बिना जिजास पाठकों को पर्णरूपेण सन्तोष नहीं हो सकता है। इस बात को ध्यान में रखकर अनुवादक विवेचक विद्वान मुनि श्री ने वर्ण्य विषय से संबंधित ग्रन्थान्तरों का सहयोग लेकर विषय इतना सुगम बना दिया कि पाठकों को अपनी प्रत्येक जिज्ञासा का उत्तर प्राप्त होता है। विवेचन के विस्तार से सूत्र के हार्द को समझने में पाठकों को सुविधा हो गयी लेकिन पृष्ठ संख्या की वृद्धि होते जाने से समस्त ग्रन्थ को एक ही जिल्द में समायोजित करना संभव नहीं हो सका इसलिए शेष भाग द्वितीय खण्ड में प्रकाशित किया गया है। विज्ञ मुनिश्री ने अपनी योग्यता को पूर्ण रूपेण नियोजित कर ग्रन्थ को सर्वोच्च स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया है, एतदर्थ हम मुनिश्री जी का हार्दिक अभिनन्दन करते है और अपेक्षा है कि अपनी विद्वत्ता का उपयोग सरस्वती भण्डार की श्रीवृद्धि के लिए नियोजित करेंगे। अन्त में हम स्व. युवाचार्य श्री मधुकरमुनिजी म. सा. को श्रद्धांजलि समर्पित करते हैं कि जिनके द्वारा बोया गया बीज दिनानुदिन वृद्धिंगत होता हुआ विशाल वटवृक्ष के रूप में प्रवर्धमान है और हमें अपना योग देने का सुअवसर प्राप्त हुआ। जिन-जिन महानुभावों का इस महान कार्य में सहयोग प्राप्त हुआ और हो रहा है उन सभी का आभार मानते है। सागरमल बैताला अध्यक्ष रतनचन्द मोदी कार्याध्यक्ष सायरमल चोरडिया महामन्त्री ज्ञानचन्द विनायकिया मन्त्री श्री आगम-प्रकाशन समिति, ब्यावर (राजस्थान) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय वक्तव्य सर्वज्ञ-सर्वदर्शी वीतराग परमात्मा जिनेश्वर देवों की सुधास्यन्दिनी आगम-वाणी न केवल विश्व के धार्मिक साहित्य की अनमोल निधि है अपितु वह जगज्जीवों के जीवन का संरक्षण करने वाली संजीवनी है। अर्हन्तों द्वारा उपदिष्ट यह प्रवचन वह अमृत-कलश है जो सब विष-विकारों को दूर कर विश्व के समस्त प्राणियों को नव जीवन प्रदान करता है। जैनागमों का उद्भव ही जगत् के जीवों के रक्षण रूप दया के लिए हुआ है। अहिंसा, दया, करुणा, स्नेह, मैत्री ही इसका सार है। अतएव विश्व के जीवों के लिए यह सर्वाधिक हितंकर, संरक्षक एवं उपकारक है। यह जैन प्रवचन जगज्जीवों के लिए त्राणरूप है, शरणरूप है, गतिरूप है और आधारभूत है। पूर्वाचार्यों ने इस आगम-वाणी को सागर की उपमा से उपमित किया है। उन्होने कहा 'यह जैनागम महान् सागर के समान है। यह ज्ञान से अगाध है, श्रेष्ठ पद-समुदाय रूपी जल से लबालब भरा हुआ है, अहिंसा की अनन्त ऊर्मियों-लहरों से तरंगित होने से यह अपार विस्तार वाला है, चूला रूपी ज्वार इसमें उठ रहा है, गुरु की कृपा से प्राप्त होने वाली मणियों से यह भरा हुआ है, इसका पार पाना कठिन है । यह परम सार रूप और मंग र मंगल रूप है। ऐसे महावीर परमात्मा के आगमरूपी समुद्र की भक्तिपूर्वक आराधना करनी चाहिए।' सचमुच जैनागम महासागर की तरह विस्तृत और गंभीर है। तथापि गुरुकृपा और प्रयत्न से इसमें अवगाहन करके सारभूत रत्नों को प्राप्त किया जा सकता है। जैन प्रवचन का सार अहिंसा और समता है। जैसाकि सूत्रकृतांग सूत्र में कहा है-सब प्राणियों को आत्मवत् समझ कर उनकी हिंसा न करना, यही धर्म का सार है, आत्मकल्याण का मार्ग है। जैन सिद्धान्त अहिंसा से ओतप्रोत है और आज के हिंसा के दावानल में सुलगते विश्व के लिए अहिंसा की अजस्र जलधारा ही हितावह है। अत: जैन सिद्धान्तों का पठन-पाठन, अनुशीलन एवं उनका व्यापक प्रचारप्रसार आज के युग की प्राथमिक आवश्यकता है। अहिंसा के अनुशीलन से ही विश्व-शान्ति की सम्भावना है, अतएव अहिंसा से ओत-प्रोत जैनागमों का अध्ययन एवं अनुशीलन परम आवश्यक है। __ जैनागम द्वादशांगी गणिपिटक रूप है। अरिहंत तीर्थंकर परमात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति होने के पश्चात् अर्थरूप से प्रवचन का प्ररूपण करते हैं और उनके चतुर्दश पूर्वधर विपुल बुद्धिनिधान गणधर उन्हें सूत्ररूप में निबद्ध -प्रश्नव्याकरण सूत्र १. २. सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए भगवया पावयणं कहियं । बोधागाधं सुपदपदवी नीरपूराभिरामं, जीवाहिंसाऽविरललहरी संगमागाहदेहं । चूलावेलं गुरुगममणिसंकुलं दूरचारं । सारं वीरागमजलनिधि सादरं साधु सेवे॥ अहिंसा समयं चेव एयावंतं विजाणिया। ३. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। इस तरह प्रवचन की परम्परा चलती रहती है। अतएव अर्थरूप आगम के प्रणेता श्री तीर्थंकर परमात्मा है और शब्दरूप आगम के प्रणेता गणधर हैं। अनन्तकाल से अर्हन्त और उनके गणधरों की परम्परा चलती आ रही है। अतएव उनके उपदेश रूप आगम की परम्परा भी अनादि काल से चलती आ रही है। इसीलिए ऐसा कहा जाता है कि यह द्वादशांगी ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है,सदाकाल से है, यह कभी नहीं थी, ऐसा नहीं, यह कभी नहीं हैऐसा नहीं, यह कभी नहीं होगी.....ऐसा भी नहीं है। यह सदा थी, है और सदा रहेगी। भावों की अपेक्षा यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है। द्वादशांगी में बारह अंगों का समावेश है। आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग व्याख्या-प्रज्ञप्ति, ज्ञाताधर्मकथा, उपासकदशा, अन्तकृद्दशा, अनुत्तरौपपातिक, प्रश्नव्याकरण, विपाकसूत्र और दृष्टिवाद। ये बारह अंग हैं। यही द्वादशांगी गणिपिटक है जो साक्षात् तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट है। यह अंगप्रविष्ट आगम कहा जाता है। इसके अतिरिक्त अनंगप्रविष्ट-अंगबाह्य आगम वे हैं जो तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध रूप में प्रज्ञातिशयसम्पन्न स्थविर भगवंतों द्वारा रचे गये हैं। इस प्रकार जैनागम दो भागों में विभक्त है-अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट (अंगबाह्य)। प्रस्तुत जीवाभिगम शास्त्र अनंगप्रविष्ट आगम है। दूसरी विवक्षा से बारह अंगों के बारह उपांग भी कहे गये हैं। तदनुसार औपपातिक आदि को उपांग संज्ञा दी जाती है। आचार्य मलयगिरि ने, जिन्होंने जीवाभिगम पर विस्तृत वृत्ति लिखी है-इसे तृतीय अंग-स्थानांग का उपांग कहा है। . प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम सूत्र की आदि में स्थविर भगवंतों को इस अध्ययन के प्ररूपक के रूप में प्रतिपादित किया गया है। यह पाठ इस प्रकार है 'इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं, जिणाणुलोमं जिणप्पणीयं जिणप्परूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिण्णं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुवीइय तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा थेरा भगवंता जीवाजीवाभिगमणामज्झयणं पण्णवइंसु।' -'समस्त जिनेश्वरों द्वारा अनुमत, जिनानुलोम, जिनप्रणीत, जिनप्ररूपित, जिनाख्यात, जिनानुचीर्ण जिनप्रज्ञप्त और जिनदेशित इस प्रशस्त जिनमत का चिन्तन करके, उस पर श्रद्धा-विश्वास एवं रुचि करके स्थविर भगवन्तों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन की प्ररूपणा की।' उक्त कथन द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि प्रस्तुत सूत्र की रचना स्थविर भगवन्तों ने की है। वे स्थविर · भगवंत तीर्थंकरों के प्रवचन के सम्यक् ज्ञाता थे। उनके वचनों पर श्रद्धा-विश्वास और रुचि रखने वाले थे। इससे यह ध्वनित किया गया है कि ऐसे स्थविरों द्वारा प्ररूपित आगम भी उसी प्रकार प्रमाणरूप है जिस प्रकार सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थकर परमात्मा द्वारा प्ररूपित आगम प्रमाणरूप हैं। क्योंकि स्थविरों की यह रचना तीर्थंकरों के वचनों से अविरुद्ध है। प्रस्तुत पाठ में आये हुए जिनमत के विशेषणों का स्पष्टीकरण उक्त मूलपाठ के विवेचन में किया गया है। प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है परन्तु मुख्य रूप से जीव का प्रतिपादन होने से अथवा संक्षेप दृष्टि से यह सूत्र जीवाभिगम के नाम से भी जाना जाता है। १. एयं दुवालसंगं गणिपिटगंण कयावि नासि. न कयाविन भवइ, न कयावि न भविस्सह, धुवं णिच्वं सासयं। -नन्दीसूत्र। [७] Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन तत्त्वज्ञान प्रधानतया आत्मवादी है। जीव या आत्मा इसका केन्द्रबिन्दु है। वैसे तो जैन सिद्धान्त ने नौ तत्त्व माने हैं अथवा पुण्य-पाप को आस्रव बन्ध तत्त्व में सम्मिलित करने से सात तत्त्व माने हैं परन्तु वे सब जीव और अजीव कर्म-द्रव्य के सम्बन्ध या वियोग की विभिन्न अवस्थारूप ही हैं। अजीव तत्त्व की प्ररूपणा जीव तत्त्व के स्वरूप को विशेष स्पष्ट करने तथा उससे उसके भिन्न स्वरूप को बताने के लिए है। पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष तत्त्व जीव और कर्म के संयोग-वियोग से होने वाली अवस्थाएँ हैं। अतएव यह कहा जा सकता है कि जैन तत्त्वज्ञान का मूल आत्मद्रव्य (जीव) है। उसका आरम्भ ही आत्मविचार से होता है तथा मोक्ष उसकी अन्तिम परिणति है। प्रस्तुत सूत्र में उसी आत्मद्रव्य की अर्थात् जीव की विस्तार के साथ चर्चा की गई है। अतएव यह जीवाभिगम कहा जाता है। अभिगम का अर्थ है ज्ञान। जिसके द्वारा जीव अजीव का ज्ञान-विज्ञान हो वह 'जीवाभिगम' है। अजीव तत्त्व के भेदों का सामान्य रूप से उल्लेख करने के उपरान्त प्रस्तुत सूत्र का सारा अभिधेय जीव तत्त्व को लेकर ही है। जीव के दो भेद - सिद्ध और संसारसमापन्नक के रूप में बताये गये हैं । तदुपरान्त संसारसमापन्नक जीवों के विभिन्न विवक्षाओं को लेकर किये गये भेदों के विषय में नौ प्रतिपत्तियोंमन्तव्यों का विस्तार से वर्णन किया गया है। ये नौ ही प्रतिपत्तियां भिन्न भिन्न अपेक्षाओं को लेकर प्रतिपादित हैं अतएव भिन्न भिन्न होने के बावजूद ये परस्पर अविरोधी हैं और तथ्यपरक हैं। राग-द्वेषादि विभाव परिणतियों से परिणत यह जीव संसार में कैसी कैसी अवस्थाओं का, किन किन रूपों का, किन किन योनियों में जन्म-मरण आदि का अनुभव करता है, आदि विषयों का उल्लेख इन नौ प्रतिपत्तियों में किया गया है। त्रस - स्थावर के रूप में, स्त्री-पुरुष नपुंसक के रूप में, नारक - तिर्यञ्च मनुष्य और देव के रूप में, एकेन्द्रिय से पंचेन्द्रिय के रूप में, पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय के रूप में तथा अन्य अपेक्षाओं से अन्य - अन्य रूपों में जन्म-मरण करता हुआ वह जीवात्मा जिन जिन स्थितियों का अनुभव करता है, उनका सूक्ष्म वर्णन किया गया है। द्विविध प्रतिपत्ति में त्रस - स्थावर के रूप में जीवों के भेद बताकर १ शरीर, २ अवगाहना, ३ संहनन, ४ संस्थान, ५ कषाय, ६ संज्ञा, ७ लेश्या, ८ इन्द्रिय, ९ समुद्घात, १० संज्ञी असंज्ञी, ११ वेद, १२ पर्याप्ति - अपर्याप्ति, १३ दृष्टि, १४ दर्शन, १५ ज्ञान, १६ योग, १७ उपयोग, १८ आहार, १९ उपपात, २० स्थिति, २१ समवहत - असमवहत, २२ च्यवन और २३ गति - आगति- इन २३ द्वारों से उनका निरूपण किया गया है। इसी प्रकार आगे की प्रतिपत्तियों में भी जीव के विभिन्न द्वारों को घटित किया गया है। स्थिति, संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर और अल्पबहुत्व द्वारों का यथासंभव सर्वत्र उल्लेख किया गया है। अन्तिम प्रतिपत्ति में सिद्ध संसारी भेदों की विविक्षा न करते हुए सर्वजीव के भेदों की प्ररूपणा की गई है। प्रस्तुत सूत्र में नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देवों के प्रसंग में अधोलोक, तिर्यक्लोक और ऊर्ध्वलोक का निरूपण किया गया है। तिर्यक्लोक के निरूपण में द्वीप समुद्रों की वक्तव्यता, कर्मभूमि अकर्मभूमि की वक्तव्यता, वहाँ की भौगोलिक और सांस्कृतिक स्थितियों का विशद विवेचन भी किया गया है जो विविध दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है इस प्रकार यह सूत्र और इसकी विषय-वस्तु जीव के सम्बन्ध में विस्तृत जानकारी देती है, अतएव इसका जीवभिगम नाम सार्थक है। यह आगम जैन तत्त्वज्ञान का महत्त्वपूर्ण अंग है । प्रस्तुत सूत्र का मूल प्रमाण ४७५० (चार हजार सात सौ पचास) ग्रन्थाग्र है । इस पर आचार्य मलयगिरि ने १४००० (चौदह हजार) ग्रन्थाग्र प्रमाण वृत्ति लिखकर इस गम्भीर आगम के मर्म को प्रकट किया है । वृत्तिकार ने अपने बुद्धि-वैभव से आगम के मर्म को हम साधारण लोगों के लिए उजागर कर हमें बहुत उपकृत किया है। [८] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादन के विषय में - प्रस्तुत संस्करण के मूल पाठ का मुख्यतः आधार सेठ श्री देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड सूरत से प्रकाशित वृत्तिसहित जीवाभिगम सूत्र का मूल पाठ है परन्तु अनेक स्थलों पर उस संस्करण में प्रकाशित मूलपाठ में वृत्तिकार द्वारा मान्य पाठ में अन्तर भी है। कई स्थानों में पाये जाने वाले इस भेद से ऐसा लगता है कि वृत्तिकार के सामने कोई अन्य प्रति (आदर्श) रही है। अतएव अनेक स्थलों पर हमने वृत्तिकार-सम्मत पाठ अधिक संगत लगने से उसे मूलपाठ में स्थान दिया है। ऐसे पाठान्तरों का उल्लेख स्थान-स्थान पर फुटनोट (टिप्पण) में किया गया है। स्वयं वृत्तिकार ने इस बात का उल्लेख किया है कि इस आगम के सूत्रपाठों में कई स्थानों पर भिन्नता दृष्टिगोचर होती है। यह स्मरण रखने योग्य है कि यह भिन्नता शब्दों को लेकर है। तात्पर्य में कोई अन्तर नहीं है। तात्त्विक अन्तर न होकर वर्णनात्मक स्थलों से शब्दों का और उनके क्रम का अन्तर दृष्टिगोचर होता है। ऐसे स्थलों पर हमने टीकाकारसम्मत पाठ को मूल में स्थान दिया है। प्रस्तुत आगम के अनुवाद और विवेचन में भी मुख्य आधार आचार्य श्री मलयगिरि की वृत्ति ही रही है। हमने अधिक से अधिक यह प्रयास किया है कि इस तात्त्विक आगम की सैद्धान्तिक विषय-वस्तु को अधिक से अधिक स्पष्ट रूप में जिज्ञासुओं के समक्ष प्रस्तुत किया जाय। अतएव वृत्ति में स्पष्ट की गई प्रायः सभी मुख्य बातें हमने विवेचन में दे दी हैं ताकि संस्कृत भाषा को न समझने वाले जिज्ञासुजन भी उनसे लाभान्वित हो सकें। मैं समझता हूं कि इस प्रयास से हिन्दी भाषी जिज्ञासुओं को वे सब तात्त्विक बातें समझने को मिल सकेंगी जो वृत्ति में संस्कृत भाषा में समझाई गई हैं। इस दृष्टि से इस संस्करण की उपयोगिता बहुत बढ़ जाती है। जिज्ञासु जन यदि इससे लाभान्वित होंगे तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समशृंगा। अन्त में, मैं स्वयं को धन्य मानता हूं कि मुझे इस संस्करण को तैयार करने का सु-अवसर मिला। आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर की ओर से मुझे प्रस्तुत जीवाभिगम सूत्र का सम्पादन करने का दायित्व सौंपा गया। सूत्र की गंभीरता को देखते हुए मुझे अपनी योग्यता के विषय में संकोच अवश्य पैदा हुआ परन्तु श्रुतभक्ति से प्रेरित होकर मैंने यह दायित्व स्वीकार कर लिया और उसके निष्पादन में निष्ठा के साथ जुट गया। जैसा भी मुझ से बन पड़ा, वह इस रूप में पाठकों के सन्मुख प्रस्तुत है। कृतज्ञता-ज्ञापन श्रुत-सेवा के मेरे इस प्रयास में श्रद्धेय गुरुवर्य श्री पुष्करमुनिजी म. एवं श्रमणसंघ के उपाचार्य साहित्यमनीषी सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री देवेन्दमुनिजी म. का मार्गदर्शन एवं दिशानिर्देश प्राप्त हुआ है, जिसके फलस्वरूप मैं यह भागीरथ-कार्य सम्पन्न करने में सफल हो सका हूं। इन पूज्य गुरुवर्यों का जितना आभार मानूं उतना कम ही है। श्रद्धेय उपाचार्य श्री ने तो इस आगम की विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना लिखने की महती अनुकम्पा की है। इससे इस संस्करण की उपयोगिता में चार चांद लग गये हैं। प्रस्तुत आगम का सम्पादन करते समय मुझे जैन समाज के विश्रुत विद्वान् पं. श्री बसन्तीलालजी नलवाया रतलाम का महत्त्वपूर्ण सहयोग मिला। उनके विद्वत्तापूर्ण एवं श्रमनिष्ठ सहयोग के लिए कृतज्ञता व्यक्त करना मैं नहीं भूल सकता । सेठ देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धार फण्ड, सूरत का मुख्य रूप से आभारी हूं। जिसके द्वारा प्रकाशित संस्करण का उपयोग इसमें किया गया है। आगम प्रकाशन समिति ब्यावर एवं अन्य सब प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष - [९] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सहयोगियों का कृतज्ञतापूर्वक आभार व्यक्त करता हूं। ___ यदि मेरे इस प्रयास से जिज्ञासु आगम-रसिकों को तात्त्विक सात्विक लाभ पहुंचेगा तो मैं अपने प्रयास को सार्थक समझूगा। अन्त में मैं यह शुभकामना करता हूं कि जिनेश्वर देवों द्वारा प्ररूपित तत्त्वों के प्रति जन-जन के मन में श्रद्धा, विश्वास और रुचि उत्पन्न हो ताकि वे ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रय की आराधना करके मुक्ति-पथ के पथिक बन सकें। जैनं जयति शासनम्। श्री तारक गुरु जैन ग्रन्थालय -राजेन्द्र मुनि एम. ए. उदयपुर-(राज.) साहित्यमहोपाध्याय ११ मई १९८९ [१०] Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना जीवाजीवाभिगम : एक समीक्षात्मक अध्ययन जैनागम विश्व-वाङ्मय की अनमोल मणि-मंजूषा है। यदि विश्व के धार्मिक और दार्शनिक साहित्य की दृष्टि से सोचें तो उसका स्थान और भी अधिक गरिमा और महिमा से मण्डित हो उठता है। धार्मिक एवं दार्शनिक साहित्य के असीम अन्तरिक्ष में जैनागमों और जैन साहित्य का वही स्थान है जो असंख्य टिमटिमाते ग्रह-नक्षत्र एवं तारकमालिकाओं के बीच चन्द्र और सूर्य का है। जैनसाहित्य के बिना विश्व-साहित्य की ज्योति फीकी और निस्तेज है। डॉ..हर्मन जेकोबी, डॉ. शुबिंग प्रभृति पाश्चात्य विचारक भी यह सत्य-तथ्य एक स्वर से स्वीकार करते हैं कि जैनागमों में दर्शन और जीवन का, आचार और विचार का, भावना और कर्तव्य का जैसा सुन्दर समन्वय हुआ है वैसा अन्य साहित्य में दुर्लभ है। जैनागम ज्ञान-विज्ञान का अक्षय कोष है। अक्षर-देह से वह जितना विशाल है उससे भी अधिक उसका सूक्ष्म एवं गम्भीर चिंतन विशद एवं महान् है। जैनागमों ने आत्मा की शाश्वत सत्ता का उद्घोष किया है और उसकी सर्वोच्च विशुद्धि का पथ प्रदर्शित किया है। साथ ही उसके साधन के रूप में सम्वग् ज्ञान, सम्यक् श्रद्धान और सम्यग् आचरण के पावन त्रिवेणी-संगम का प्रतिवादन किया है। त्याग, वैराग्य और संयम की आराधना के द्वारा जीवन के चरम और परम उत्कर्ष को प्राप्त करने की प्रेरणा प्रदान की है। जीवन के चिरन्तन सत्य को उन्होंने उद्घाटित किया है। न केवल उद्घाटित ही किया है अपितु उसे आचरण में उतारने योग्य एवं व्यवहार्य बनाया है। अपनी साधना के बल से जैनागमों के पुरस्कर्ताओं ने प्रथम स्वयं ने सत्य को पहचाना, यथार्थ को जाना, तदनन्तर उन्होंने सत्य का प्ररूपण किया। अतएव उनके चिन्तन में अनुभूति का पुट है। वह कल्पनाओं की उड़ान नहीं है अपितु अनुभूतिमूलक यथार्थ चिन्तन है। यथार्थदर्शी एवं वीतराग जिनेश्वरों ने सत्य तत्त्व का साक्षात्कार किया और जगत् के जीवों के कल्याण के लिए उसका प्ररूपण किया। यह प्ररूपण और निरूपण ही जैनागम है। यथार्थदृष्टा और यथार्थवक्ता द्वारा प्ररूपित होने से यह सत्य है, निश्शंक है और आप्त वचन होने से आगम है। जिन्होनें रागद्वेष को जीत लिया है वह जिन, तीर्थकर, सर्वज्ञ भगवान् आप्त हैं और उनका उपदेश एवं वाणी ही जैनागम है। क्योंकि उनमें वक्ता के यथार्थ दर्शन एवं वीतरागता के कारण दोष की सम्भावना नहीं होती और न पूर्वापर विरोध तथा युक्तिबाध ही होता है। जैनागमों का उद्भव जैनागमों के उद्भव के विषय में आवश्यकनियुक्ति में श्री भद्रबाहुस्वामी ने तथा विशेषावश्यकभाष्य में श्री जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने कहा है 'तप, नियम तथा ज्ञानरूपी वृक्ष पर आरूढ अनन्त ज्ञान-सम्पन्न केवलज्ञानी भव्य जनों को उद्बोधित करने -प्रश्नव्याकरण, संवरद्वार १. सव्वजगजीवरक्खणदयट्ठयाए पावयणं भगवया सुकहियं। २. तमेव सच्चं णिस्संकंजंजिणेहिं पवेइयं। ३. आप्तवचनादाविर्भूतमर्थसंवेदनमागमः। -प्रमाणनयतत्त्वालोक Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेतु ज्ञान - पुष्पों की वृष्टि करते हैं। गणधर उसे बुद्धिरूपी पट में ग्रहण कर उसका प्रवचन के निमित्त ग्रथन करते है । " 'अर्हन्त अर्थरूप से उपदेश देते हैं और गणधर निपुणतापूर्वक उसको सूत्र के रूप में गूंथते हैं। इस प्रकार धर्मशासन के हितार्थ सूत्र प्रवर्तित होते हैं। ' २ अर्थात्मक ग्रन्थ के प्रणेता तीर्थंकर हैं। आचार्य देववाचक ने इसीलिए आगमों को तीर्थंकरप्रणीत कहा है। प्रबुद्ध पाठकों को यह स्मरण रखना होगा कि आगम साहित्य की प्रामाणिकता केवल गणधरकृत होने से ही नहीं किन्तु अर्थ के प्ररूपक तीर्थंकर की वीतरागता और सर्वज्ञता के कारण है। गणधर केवल द्वादशांगी की रचना करते हैं। अंगबाह्य आगमों की रचना स्थविर करते हैं। आचार्य मलयगिरि आदि का अभिमत है कि गणधर तीर्थंकर के सन्मुख यह जिज्ञासा व्यक्त करते हैं कि तत्त्व क्या है ? उत्तर में तीर्थंकर 'उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा' इस त्रिपदी का उच्चारण करते हैं। इस त्रिपदी को मातृका - पद कहा जाता है, क्योंकि इसके आधार पर ही गणधर द्वादशांगी की रचना करते हैं। यह द्वादशांगी रूप आगम- साहित्य अंगप्रविष्ट के रूप में विश्रुत होता है। अवशेष जितनी भी रचनाएँ हैं वे सब अंगबाह्य हैं। द्वादशांगी त्रिपदी से उद्भूत है, इसलिए वह गणधरकृत है। यहाँ यह भी स्मरण रखना चाहिए कि गणधरकृत होने से सभी रचनाएं अंग नहीं होतीं, त्रिपदी के अभाव में मुक्त व्याकरण से जो रचनाएं की जाती हैं, भले ही उन रचनाओं के निर्माता गणधर हों अथवा स्थविर हों, वे अंगबाह्य ही कहलाएंगी। स्थविर के दो भेद हैं- चतुर्दशपूर्वी और दशपूर्वी । वे सूत्र और अर्थ की दृष्टि से अंग साहित्य के पूर्ण ज्ञाता होते हैं। वे जो भी रचना करते हैं या कहते हैं, उसमें किंचित् मात्र भी विरोध नहीं होता । आचार्य संघदास गणी का अभिमत है कि जो बात तीर्थंकर कह सकते हैं, उसको श्रुतकेवली भी उसी रूप में कह सकते हैं। दोनों में इतना ही अन्तर है कि केवलज्ञानी सम्पूर्ण तत्त्व को प्रत्यक्ष रूप से जानते हैं तो श्रुतकेवली श्रुतज्ञान के द्वारा परोक्ष रूप से जानते हैं। उनके वचन इसलिए भी प्रामाणिक होते हैं कि वे नियमतः सम्यग्दृष्टि होते हैं। वे सदा निर्ग्रन्थ-प्रवचन को आगे करके ही चलते हैं। उनका उद्घोष होता है कि यह निर्ग्रन्थ प्रवचन ही सत्य है, नि:शंक है, यही अर्थ है, परमार्थ है, शेष अनर्थ है। अतएव उनके द्वारा रचित ग्रन्थों में द्वादशांगी से विरुद्ध की सम्भावना नहीं होती। उनका कथन द्वादशांगी से अविरुद्ध होता है। अतः उनके द्वारा रचित ग्रन्थों को भी आगम के समान प्रामाणिक माना गया है। १. २. ३. ४. तो तवणियमणाणरुवखं आरूढो केवली अमियनाणी । मुयइ नाणवुद्धिं भवियजणविवोहणट्ठाए ॥ तं बुद्धिमण पडेण गणहरा गिहिउं णिरवसेसं । तित्त्थयरभासियाई गंथंति तओ पवयणट्ठा ॥ अत्यंभास अरहा सुतं गंथंति गणहरा णिउणं । सासणस्स हियट्ठाए तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ बृहत्कल्पभाष्य गाथा ९५३ से ९६६ बृहत्कल्पभाष्य गाथा १३२ [१२] - आवश्यक निर्युक्ति गा. ८९-९० - विशेषावश्यक भाष्य गा. १११९ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व और अंग जैनागमों का प्राचीनतम वर्गीकरण पूर्व और अंग के रूप में समवायांग सूत्र में मिलता है। वहाँ पूर्वो की संख्या चौदह और अंगों की संख्या बारह बताई गई है। जैन वाङ्मय में ज्ञानियों की दो प्रकार की परम्पराएँ उपलब्ध हैं-पूर्वधर और द्वादशांगवेत्ता। पूर्वधरों का ज्ञान की दृष्टि से उच्च स्थान रहा है। जो श्रमण चौदह पूर्वो का ज्ञान धारण करते थे उन्हें श्रुतकेवली कहा जाता था। पूर्वो में समस्त वस्तु-विषयों का विस्तृत विवेचन था अतएव उनका विस्तार एवं प्रमाण बहुत विशाल था एवं गहन भी था। पूर्वो की परिधि से कोई भी सत् पदार्थ अछूता नहीं था। पूर्वो की रचना के विषय में विज्ञों के विभिन्न मत हैं। आचार्य अभयदेव आदि के अभिमतानुसार द्वादशांगी से पहले पूर्वसाहित्य रचा गया था। इसी से उसका नाम पूर्व रखा गया है। कुछ चिन्तकों का मत है कि पूर्व भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा की श्रुतराशि है। ___पूर्वगत विषय अति गंभीर दुरूह और दुर्गम होने के कारण विशिष्ट क्षयोपशमधारियों के लिए ही वह उपयोगी हुआ। सामान्य जनों के लिए भी वह विषय उपयोगी बने, इस हेतु से अंगों की रचना की गई। जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य में कहा है-'यद्यपि भूतवाद या दृष्टिवाद में समग्र ज्ञान का अवतरण है परन्तु अल्पबुद्धि वाले लोगों के उपकार हेतु उससे शेष श्रुत का निर्वृहण हुआ, उसके आधार पर सारे वाङ्मय का सर्जन हुआ। वर्तमान में पूर्व द्वादशांगी से पृथक् नहीं माने जाते हैं । दृष्टिवाद बारहवां अंग है। जब तक आचारांग आदि अंगसाहित्य का निर्माण नहीं हुआ था तब तक समस्त श्रुतराशि पूर्व के नाम से या दृष्टिवाद के नाम से पहचानी जाती थी। जब अंगों का निर्माण हो गया तो आचारांगादि ग्यारह अंगों के बाद दृष्टिवाद को बारहवें अंग के रूप में स्थान दे दिया गया। आगम साहित्य में द्वादश अंगों को पढ़ने वाले और चौदह पूर्व पढ़ने वाले दोनों प्रकार के श्रमणों का वर्णन मिलता है किन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है। चतुर्दशपूर्वी होते थे वे द्वादशांगवित् भी होते थे क्योंकि बारहवें अंग में चौदह पूर्व हैं ही। आगमों का दूसरा वर्गीकरण अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य के रूप में किया गया है। अंगप्रविष्ट : अंगबाह्य आचार्य जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य का विश्लेषण करते हुए कहा है १. चउद्दसपुव्वा पण्णत्ता तं जहा- उप्पायपुव्व....................तह बिंदुसरं च। दुवालस गणिपिडगे प.तं-आयारे जाव दिविवाए। (क) प्रथमं पूर्व तस्य सर्वप्रवचनात् पूर्व क्रियमाणत्वात् -समवायांग वृत्ति। (ख) सर्वश्रुतात् पूर्व क्रियते इति पूर्वाणि, उत्पादपूर्वादीनि चतुर्दश। -स्थानांग वृत्ति। (ग) जम्हा तित्थकरो तित्थपवत्तणकाले गणधराणं सव्वसुत्ताधारत्तणतो पुव्वं पुवगतसुत्तत्थं भासति तम्हा पुव्वं ति भणिता। -नंदी चूर्णि जइविय भूयावाए सव्वस्स य आगमस्स ओयारो। निज्जूहणा तहा विहु दुम्मेहे पप्प इत्थी य। -विशेषावश्यक भाष्य गाथा,५५१ ३. [१३] Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अंगप्रविष्ट श्रुत वह है (१) जो गणधर के द्वारा सूत्ररूप में बनाया हुआ हो, (२) जो गणधर द्वारा प्रश्न करने पर तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित हो, (३) जो शाश्वत सत्यों से संबंधित होने के कारण ध्रुव एवं सुदीर्घकालीन हो। इसी अपेक्षा से ऐसा कहा जाता है कि - यह द्वादशांगी रूप गणिपिटक कभी नहीं था, ऐसा नहीं है, कभी नहीं है और कभी नहीं होगा, ऐसा भी नहीं है। यह था, है, और होगा। यह ध्रुव है, नियत है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है । अंगबाह्य श्रुत वह है– (१) जो स्थविरकृत होता है, (२) जो बिना प्रश्न किये ही तीर्थंकरों द्वारा प्रतिपादित होता हैं, (३) जो अध्रुव हो अर्थात् सब तीर्थंकरों के तीर्थ में अवश्य हो, ऐसा नहीं हैं, जैसे तन्दुलवैचारिक आदि प्रकरण । दसूत्र के टीकाकार आचार्य मलयगिरि ने अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य की व्याख्या करते हुए लिखा है कि—'सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धि-सम्पन्न गणधर रचित मूलभूत सूत्र जो सर्वथा नियत हैं, ऐसे आचारांगादि अंगप्रविष्ट श्रुत हैं। उनके अतिरिक्त अन्य श्रुत स्थविरों द्वारा रचित श्रुत अंगबाह्य श्रुत है।' अंगबाह्य श्रुत दो प्रकार का है - आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यकव्यतिरिक्त श्रुत दो प्रकार का है - (१) कालिक और (२) उत्कालिक । जो श्रुत रात तथा दिन के प्रथम और अन्तिम प्रहर में पढ़ा जाता है वह कालिक श्रुत है तथा जो काल वेला को वर्जित कर सब समय पढ़ा जा सकता है, वह उत्कालिक सूत्र है । नन्दीसूत्र में कालिक और उत्कालिक सूत्रों के नामों का निर्देश किया गया है। अंग, उपांग, मूल और छेद आगमों का सबसे उत्तरवर्ती वर्गीकरण है - अंग, उपांग, मूल और छेद । नंदीसूत्र में न उपांग शब्द का प्रयोग है और न ही मूल और छेद का उल्लेख। वहाँ उपांग के अर्थ में अंगबाह्य शब्द आया है। आचार्य श्रीचन्द ने, जिनका समय ई. १११२ से पूर्व माना जाता है, सुखबोधा समाचारी की रचना की । उसमें उन्होंने आगम के स्वाध्याय की तपोविधि का वर्णन करते हुए अंगबाह्य के अर्थ में 'उपांग' का प्रयोग किया है । चूर्णि साहित्य में भी उपांग शब्द का प्रयोग हुआ है। मूल और छेद सूत्रों का विभाग कब हुआ, यह निश्चित रूप नहीं कहा जा सकता। विक्रम संवत् १३३४ में निर्मित प्रभावकचरित में सर्वप्रथम अंग, उपांग, मूल और छेद का विभाग मिलता है। फलितार्थ यह है कि उक्त विभाग तेरहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हो चुका था । मूल और छेद सूत्रों की संख्या और नामों के विषय में भी मतैक्य नहीं है। अंग- साहित्य की संख्या के संबंध में श्वेताम्बर और दिगम्बर सब एक मत हैं। सब बारह अंग मानते हैं । किन्तु अंगबाह्य आगमों की संख्या में विभिन्न मत हैं। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक ४५ आगम मानते हैं, स्थानकवासी और तेरापंथी बत्तीस आगम मानते हैं । ११ अंग, १२ उपांग, ६ मूल सूत्र, छह छेद सूत्र और दस पन्ना - यों पैंतालीस आगम श्वेताम्बर - मूर्तिपूजक समुदाय प्रमाणभूत मानता है । स्थानकवासी और तेरापंथ के अनुसार ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूल सूत्र, ४ छेद आवश्यक सूत्र यों बत्तीस वर्तमान में प्रमाणभूत माने जाते हैं । सूत्र, १ जीवाजीवाभिगम - प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम उक्त वर्गीकरण के अनुसार उपांग श्रुत और कालिक सूत्रों में १. गणहर-थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा । धुव- चलविसेसओ वा अंगाणंगेसु णाणत्तं ॥ - विशेषावश्यक भाष्य गा. ५५० [१४] Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसका उल्लेख है। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि ने इसे तृतीय अंग स्थानांग का उपांग कहा है। इस आगम की महत्ता बताते हुए वे कहते हैं कि यह जीवाजीवाभिगम नामक उपांग राग रूपी विष को उतारने के लिए श्रेष्ठ मंत्र के समान है। द्वेष रूपी आग को शान्त करने हेतु जलपूर के समान है। अज्ञान-तिमिर को नष्ट करने के लिये सूर्य के समान है। संसाररूपी समुद्र को तिरने के लिए सेतु के समान है। बहुत प्रयत्न द्वारा ज्ञेय है एवं मोक्ष को प्राप्त कराने की अमोघ शक्ति से युक्त है। वृत्तिकार के उक्त विशेषणों से प्रस्तुत आगम का महत्त्व स्पष्ट हो जाता है। प्रस्तुत आगम के प्रथम सुत्र में इसके प्रज्ञापक के रूप में स्थविर भगवंतों का उल्लेख करते हुए कहा गया है-'उन स्थविर भगवंतों ने तीर्थंकर प्ररूपित तत्त्वों का अपनी विशिष्ट प्रज्ञा द्वारा पर्यालोचन करके, उस पर अपनी प्रगाढ श्रद्धा, प्रीति, रुचि, प्रतीति एवं गहरा विश्वास करके जीव और अजीव सम्बन्धी अध्ययन का प्ररूपण किया उक्त कथन द्वारा यह अभिव्यक्त किया गया है कि प्रस्तुत आगम के प्रणेता स्थविर भगवंत हैं। उन स्थविरों ने जो कुछ कहा है वह जिनेश्वर देवों द्वारा कहा गया ही है, उनके द्वारा अनुमत है, उनके द्वारा प्रणीत है, उनके द्वारा प्ररूपित है, उनके द्वारा आख्यात है, उनके द्वारा आचीर्ण है, उनके द्वारा प्रज्ञप्त है, उनके द्वारा उपदिष्ट है, यह पथ्यान्न की तरह प्रशस्त और हितावह है तथा परम्परा से जिनत्व की प्राप्ति कराने वाला है। यह आगम शब्दरूप से स्थविर भगवंतों द्वारा कथित है किन्तु अर्थरूप से तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट होने से द्वादशांगी की तरह ही प्रमाणभूत है। इस प्रकार प्रस्तुत आगम की प्रामाणिकता प्रकट की गई है। अंगश्रुतों के अनुकूल होने से ही उपांगश्रुतों की प्रमाणिकता श्रुत की पुरुष के रूप में कल्पना की गई। जिस प्रकार पुरुष के अंग-उपांग होते हैं, उसी तरह श्रुत-पुरुष के भी बारह अंग और बारह उपांगों की कल्पना को स्वीकार किया गया। पुरुष के दो पाँव, दो जंघा, दो उरु, देह का अग्रवर्ती तथा पृष्ठवर्ती भाग (छाती और पीठ), दो बाह, ग्रीवा और मस्तक-ये बारह अंग माने गये हैं। इसी तरह श्रुत-पुरुष, के आचारांग आदि बारह अंग हैं । अंगों के सहायक के रूप में उपांग होते हैं, उसी तरह अंगश्रुत के सहायक-पूरक के रूप में उपांग श्रुत की प्रतिष्ठापना की गई। बारह अंगों के बारह उपांग मान्य किये गये। वैदिक परम्परा में भी वेदों के सहायक या पूरक के रूप में वेदांगों एवं उपांगों को मान्यता दी गई है जो शिक्षा, व्याकरण, छन्द, निरुक्त, ज्योतिष तथा कल्प के नाम से प्रसिद्ध हैं, पुराण, न्याय, मीमांसा तथा धर्मशास्त्रों की उपांग के रूप में स्वीकृति हुई। अंगों और उपांगों के विषय-निरूपण में सामंजस्य अपेक्षित है जो स्पष्टतः प्रतीत नहीं होता है। यह विषय विज्ञों के लिए अवश्य विचारणीय है। नामकरण एवं परिचय प्रस्तुत सूत्र का नाम जीवाजीवाभिगम है परन्तु अजीव का संक्षेप दृष्टि से तथा जीव का विस्तृत रूप से प्रतिपादन होने के कारण यह 'जीवाभिगम नाम से प्रसिद्ध है। इसमें भगवान् महावीर और गणधर गौतम के प्रश्नोत्तर १. अतो यदस्ति स्थाननाम्नो रागविषपरममंत्ररूपं द्वेषानलसलिलपूरोपमं तिमिरादित्यभूतं भवाब्धिपरमसेतुर्महाप्रयत्नगम्यं निःश्रेयसावाप्यवन्ध्यशक्तिकं जीवाजीवाभिगमनामकमुपाङ्गम्। -मलयगिरि वृत्ति . २. इह खलु जिणमयं जिणाणुमयं, जिणाणुलोमं जिणप्पणीयं जिणपरूवियं जिणक्खायं जिणाणुचिण्णं जिणपण्णत्तं जिणदेसियं जिणपसत्थं अणुव्वीइय तं सद्दहमाणा तं पत्तियमाणा तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणामण्झयणं पण्णवइंस। -जीवा. सूत्र १ [१५] Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में रूप जीव और अजीव के भेद और प्रभेदों की चर्चा है। परम्परा की दृष्टि से प्रस्तुत आगम में २० उद्देशक थे और बीसवें उद्देशक की व्याख्या श्री शालिभद्रसूरि के शिष्य श्री चन्द्रसूरि ने की थी। श्री अभयदेव ने इसके तृतीय पद पर संग्रहणी लिखी थी। परन्तु वर्तमान में जो इसका स्वरूप है उसमें केवल नौ प्रतिपत्तियां (प्रकरण) हैं जो २७२ सूत्रों में विभक्त हैं। संभव है इस आगम का महत्त्वपूर्ण भाग लुप्त हो जाने से शेष बचे हुए भाग को नौ प्रतिपत्तियों के रूप में संकलित कर दिया गया हो। उपलब्ध संस्करण में ९ प्रतिपत्तियां, एक अध्ययन, १८ उद्देशक, ४७५० श्लोक प्रमाण पाठ है। २७२ गद्यसूत्र और ८१ पद्य (गाथाएँ) हैं। प्रसिद्ध वृत्तिकार श्री मलयगिरि ने इस पर वृत्ति लिखी है। उन्होंने अपनी वृत्ति में अनेक स्थलों पर वाचनाभेद का उल्लेख किया है। आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित जीवाभिगम के संस्करण में जो मूल पाठ दिया गया है उसकी पाण्डुलिपि से वृत्तिकार के सामने रही हुई पाण्डुलिपि में स्थान-स्थान पर भेद है, जिसका उल्लेख स्वयं वृत्तिकार ने विभिन्न स्थानों पर किया है। प्रस्तुत संस्करण के विवेचन और टिप्पण में ऐसे पाठभेदों का स्थान-स्थान पर उल्लेख करने का प्रयत्न किया गया है। यहाँ यह स्मरणीय है कि शाब्दिक भेद होते हुए भी प्रायः तात्पर्य में भेद नहीं है। यहाँ एक महत्त्वपूर्ण विचारणीय विषय यह है कि नन्दीसूत्र आदि श्रुतग्रन्थों में श्रुतसाहित्य का जो विवरण दिया गया है तदनुरूप श्रुतसाहित्य वर्तमान में उपलब्ध नहीं है। उसमें उल्लिखित विशाल श्रुतसाहित्य में से बहुत कुछ तो लुप्त हो गया और बहुत-सा परिवर्तित भी हो गया। भगवान् महावीर के समय जो श्रुत का स्वरूप और परिमाण था वह धीरे धीरे दुर्भिक्ष आदि के कारण तथा कालदोष से एवं प्रज्ञा-प्रतिभा की क्षीणता से घटता चला गया। समय समय पर शेष रहे हुए श्रुत की रक्षा हेतु आगमों की वाचनाएं हुई हैं। उनका संक्षिप्त विवरण यहाँ दिया जाना अप्रासंगिक नहीं होगा। वाचनाएँ श्रमण भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के पश्चात् आगम-संकलन हेतु पांच वाचनाएँ हुई हैं। प्रथम वाचना-वीरनिर्वाण के १६० वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में द्वादशवर्षीय भीषण दुष्काल पड़ने के कारण श्रमणसंघ छिन्न-भिन्न हो गया। अनेक बहुश्रुतधर श्रमण क्रूर काल के गाल में समा गये। अनेक अन्य विघ्नबाधाओं ने भी यथावस्थित सूत्रपरावर्तन में बाधाएँ उपस्थित कीं। आगम ज्ञान की कड़ियां-लड़ियां विशृंखलित हो गईं। दुर्भिक्ष समाप्त होने पर विशिष्ट आचार्य, जो उस समय विद्यमान थे, पाटलिपुत्र में एकत्रित हुए। ग्यारह अंगों का व्यवस्थित संकलन किया गया। बारहवें दृष्टिवाद के एकमात्र ज्ञाता भद्रबाहु स्वामी उस समय नेपाल में महाप्राणध्यान की साधना कर रहे थे। संघ की प्रार्थना से उन्होंने बारहवें अंग की वाचना देने की स्वीकृति दी। मुनि स्थूलभद्र ने दस पूर्व तक अर्थसहित वाचना ग्रहण की। ग्यारहवें पूर्व की वाचना चल रही थी तभी स्थूलभद्र मुनि ने सिंह का रूप बनाकर बहिनों को चमत्कार दिखलाया । जिसके कारण भद्रबाहु ने आगे वाचना देना बंद कर दिया। तत्पश्चात् संघ एवं स्थूलभद्र के अत्यधिक अनुनय-विनय करने पर भद्रबाहु ने मूलरूप से अन्तिम चार पूर्वो की वाचना दी, अर्थ की दृष्टि से नहीं। शाब्दिक दृष्टि से स्थूलभद्र चौदह पूर्वी हुए किन्तु अर्थ की दृष्टि से दसपूर्वी ही रहे। ३ १. इह भूयान् पुस्तकेषु वाचनाभेदो गलितानि च सूत्राणि बहुषु पुस्तकेषु, यथावस्थितषाचनाभेदप्रतिपत्त्यर्थ गलितसूत्रोद्धारणार्थ चैव । सुगमत्यपि बिवियन्ते। जीवा. वृत्ति ३,३७६ तेण चिंतियं भगिणीणं इडिंढ दरिसेमित्ति सीहरूवं विउव्वइ।-आवश्य. वृत्ति तित्थोगालिय पइण्णय ७४२।। आवश्यकचूर्णि पृ. १८७ परिशिष्ट पर्व सर्ग १. [१६] Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय वाचना-आगम-संकलन का द्वितीय प्रयास ईस्वी पूर्व द्वितीय शताब्दी के मध्य में हुआ। सम्राट खारवेल जैनधर्म के परम उपासक थे। उनके सुप्रसिद्ध 'हाथीगुफा' अभिलेख से यह सिद्ध हो चुका है कि उन्होंने उड़ीसा के कुमारी पर्वत पर जैनमुनियों का एक संघ बुलाया और मौर्यकाल में जो अंग विस्मृत हो गये थे, उनका पुनः उद्धार कराया था। ' हिमवंत थेरावली नामक संस्कृत प्राकृत मिश्रित पट्टावली में भी स्पष्ट उल्लेख है कि महाराजा खारवेल ने प्रवचन का उद्धार करवाया था। तृतीय वाचना-आगमों को संकलित करने का प्रयास वीरनिर्वाण ८२७ से ८४० के मध्य हुआ। उस समय द्वादशवर्षीय भयंकर दुष्काल से श्रमणों को भिक्षा मिलना कठिन हो गया था। श्रमणसंघ की स्थिति गंभीर हो गई थी। विशुद्ध आहार की अन्वेषणा-गवेषणा के लिए युवक मुनि दूर-दूर देशों की ओर चल पड़े। अनेक वृद्ध एवं बहुश्रुत मुनि आहार के अभाव में आयु पूर्ण कर गये। क्षुधा परीषह से संत्रस्त मुनि अध्ययन, अध्याफ्न, धारण और प्रत्यावर्तन कैसे करते ? सब कार्य अवरुद्ध हो गये। शनैः शनैः श्रुत का ह्रास होने लगा। अतिशायी श्रुत नष्ट हुआ। अंग और उपांग साहित्य का भी अर्थ की दृष्टि से बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया। दुर्भिक्ष की समाप्ति पर श्रमणसंघ मथुरा में स्कन्दिलाचार्य के नेतृत्व में एकत्रित हुआ। जिन श्रमणों को जितना जितना अंश स्मरण था उसका अनुसंधान कर कालिक श्रुत और पूर्वगत श्रुत के कुछ अंश का संकलन हुआ। यह वाचना मथुरा में सम्पन्न होने के कारण माथुरी वाचना के रूप में विश्रुत हुई। उस संकलित श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि आचार्य स्कन्दिल ने दी थी अतः उस अनुयोग को स्कन्दिली वाचना भी कहा जाने लगा। नंदीसूत्र की चूर्णि और वृत्ति के अनुसार माना जाता है कि दुर्भिक्ष के कारण किंचिन्मात्र भी श्रुतज्ञान तो नष्ट नहीं हुआ किन्तु केवल आचार्य स्कन्दिल को छोड़कर शेष अनुयोगधर मुनि स्वर्गवासी हो चुके थे। एतदर्थ आचार्य स्कन्दिल ने पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया जिससे प्रस्तुत वाचना को माथुरी वाचना कहा गया और सम्पूर्ण अनुयोग स्कन्दिल संबंधी माना गया।' चतुर्थ वाचना-जिस समय उत्तर पूर्व और मध्यभारत में विचरण करने वाले श्रमणों का सम्मेलन मथुरा में हुआ था उसी समय दक्षिण और पश्चिम में विचरण करने वाले श्रमणों की एक वाचना (वीर निर्वाण सं.८२७८४०) वल्लभी (सौराष्ट्र) में आचार्य नागार्जुन की अध्यक्षता में हुई। किन्तु वहाँ जो श्रमण एकत्रित हुए थे उन्हें बहुत कुछ श्रुत विस्मृत हो चुका था। जो कुछ उनके स्मरण में था, उसे ही संकलित किया गया। यह वाचना वल्लभी वाचना या नागार्जुनीय वाचना के नाम से अभिहित है।' पंचम वाचना-वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी ( ९८० या ९९३ ई. सन् ४५४-४६६ ) में देवर्द्धिगणी श्रमाश्रमण की अध्यक्षता में पुनः श्रमणसंघ वल्लभी में एकत्रित हुआ। देवर्द्धिगणी ११ अंग और एक पूर्व से भी जर्नल ऑफ दी बिहार एण्ड उड़ीसा रिसर्च सोसायटी भा. १३ पृ. ३३६ २. जैनसाहित्य का वृहद् इतिहास भा. १ पृ. ८२ ३. आवश्यक चूर्णि। ___ मंदी चूर्णि पृ.८, नन्दी गाथा ३३, मलयगिरि वृत्ति । कहावली। जिनवचनं च दुष्षमाकालवशात् उच्छिन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भि-नागार्जुनस्कन्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । -योगशास्त्र, प्र३, पृ. २०७ [१७] Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक सूत्र के ज्ञाता थे। स्मृति की दुर्बलता, परावर्तन की न्यूनता, धृति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छिति आदि अनेक कारणों से श्रुतसाहित्य का अधिकांश भाग नष्ट हो गया था। विस्मृत श्रुत को संकलित व संग्रहीत करने का प्रयास किया गया। देवर्द्धिगणी ने अपनी प्रखर प्रतिभा से उसको संकलित कर पुस्तकारूढ किया। पहले जो माथुरी और वल्लभी वाचनाएं हुई थी, उन दोनों वाचनाओं का समन्वय कर उनमें एकरूपता लाने का प्रयास किया गया। जिन स्थलों पर मतभेद की अधिकता रही वहाँ माथुरी वाचना को मूल में स्थान देकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया। यही कारण है कि आगमों के व्याख्याग्रन्थों में यत्र तत्र 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' इस प्रकार निर्देश मिलता है। ____ आगमों को पुस्तकारूढ करते समय देवर्द्धिगणी ने कुछ मुख्य बातें ध्यान में रखी। आगमों में जहाँ-जहाँ समान पाठ आये हैं उनकी वहाँ पुनरावृत्ति न करते हुए उनके लिए विशेष ग्रन्थ या स्थल का निर्देश किया गया जैसे-'जहा उववाइए, जहा पण्णवणाए'। एक ही आगम में एक बात अनेक बार आने पर जाव शब्द का प्रयोग करके उसका अन्तिम शब्द सूचित कर दिया है जैसे 'णागकुमारा जाव विहरंति' तेणं कालेणं जाव परिसा णिग्गया। इसके अतिरिक्त भगवान् महावीर के पश्चात् की कुछ मुख्य-मुख्य घटनाओं को भी आगमों में स्थान दिया। यह वाचना वल्लभी में होने के कारण 'वल्लभी वाचना' कही गई। इसके पश्चात आगमों की फिर कोई सर्वमान्य वाचना नहीं हुई। वीरनिर्वाण की दसवीं शताब्दी के पश्चात् पूर्वज्ञान की परम्परा विच्छिन्न हो गई। उक्त रीति से आगम-साहित्य का बहुतसा भाग लुप्त होने पर भी आगमों का कुछ मौलिक भाग आज भी सुरक्षित है। ... प्रश्न हो सकता है कि वैदिक वाङ्मय की तरह जैन आगम साहित्य पूर्णरूप से उपलब्ध क्यों नहीं है ? वह विच्छिन्न क्यों हो गया ? इसका मूल कारण यह है कि देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के पूर्व आगम साहित्य लिखा नहीं गया। वह श्रुतिरूप में ही चलता रहा। प्रतिभासम्पन्न योग्य शिष्य के अभाव में गुरु ने वह ज्ञान शिष्य को नहीं बताया जिसके कारण श्रुत-साहित्य धीरे-धीरे विस्मृत होता गया। यह सब होते हुए भी वर्तमान में उपलब्ध जो श्रुतसाहित्य है वह भी बहुत महत्त्वपूर्ण है। उसमें प्रभु महावीर की वाणी अपने बहुत कुछ अंशों में अब भी प्राप्त होती है। यह कुछ कम गौरव की बात नहीं है। जीवाभिगम की विषय-वस्तु प्रस्तुत आगम में नौ प्रतिपत्तियाँ (प्रकरण) हैं। प्रथम प्रतिपत्ति में जीवाभिगम और अजीवाभिगम का निरूपण किया गया है। अभिगम शब्द का अर्थ परिच्छेद अथवा ज्ञान है। आत्मतत्त्व-इस अनन्त लोकाकाश में या अखिल ब्रह्माण्ड में जो भी चराचर या दृश्य-अदृश्य पदार्थ या सद्रूप वस्तु-विशेष है वह सब जीव या अजीव-इन दो पदों में समाविष्ट है। मूलभूत तत्त्व जीव और अजीव है। शेष पुण्य-पाप आत्रव-संवर निर्जरा बंध और मोक्ष-ये सब इन दो तत्त्वों के सम्मिलन और वियोग की परिणतिमात्र हैं। अन्य आस्तिक दर्शनों ने भी इसी प्रकार दो मूलभूत तत्त्वों को स्वीकार किया है । वेदान्त ने ब्रह्म और माया के रूप में इन्हें माना है। सांख्यों ने पुरुष और प्रकृति के रूप में, बौद्धों ने विज्ञानघन और वासना के रूप में, वैदिकदर्शन १. वल्लहिपुरम्मि नयरे देवढिपमुहेण समणसंघेण। पुत्थइ आगमो लिहिओ नवसयअसीआओ ववीराओ॥ जदित्य णं लोगे तं सव्वं दुपदोआरं,तं जहा-जीवच्चेव अजीवच्चेव। २. -स्थानांग द्वितीय स्थान [१८] Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने आत्मतत्त्व और भौतिकतत्त्व के रूप में इसी बात को मान्यता प्रदान की है। संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि आस्तिक दर्शनों की भित्ति आत्मवाद है। विशेषकर जैनधर्म ने आत्मतत्त्व का बहुत ही सूक्ष्मता के साथ विस्तृत विवेचन किया है। जैन चिन्तन की धारा का उद्गम आत्मा से होता है और अन्त मोक्ष में । आचारांग सूत्र का आरम्भ ही आत्म-जिज्ञासा से हुआ है। उसके आदि वाक्य में ही कहा गया है-'इस संसार में कई जीवों को यह ज्ञान और भान नहीं होता कि उनकी आत्मा किस दिशा से आई है और कहाँ जाएगी? वे यह भी नहीं जानते कि उनकी आत्मा जन्मान्तर में संचरण करने वाली है या नहीं ? मैं पूर्व जन्म में कौन था और यहां से मर कर दूसरे जन्म में क्या होऊंगा-यह भी वे नहीं जानते। इस आत्मजिज्ञासा से ही धर्म और दर्शन का उद्गम है । वेदान्त दर्शन का आरम्भ भी ब्रह्मसूत्र के 'अथातो ब्रह्मजिज्ञासा' से हुआ है । यद्यपि वेदों में भौतिक समृद्धि हेतु यज्ञादि के विधान और इन्द्रादि देवों की स्तुति की बहुलता है किन्तु उत्तरवर्ती उपनिषदों और आरण्यकों में आत्मतत्त्व का गहन चिन्तन एवं निरूपण हुआ है। उपनिषद् के ऋषियों का स्वर निकला-'आत्मा हि दर्शनीय, श्रवणीय मननीय और ध्यान किए जाने योग्य है।' २ आत्मजिज्ञासा से आरम्भ हुआ यह चिन्तन-प्रवाह क्रमशः विकसित होता हुआ, सहस्रधाराओं में प्रवाहित होता हुआ अन्ततः अमृतत्त्व-मोक्ष के महासागर में विलीन हो जाता है। उपनिषद् में मैत्रेयी याज्ञवल्क्य से कहती है-'जिससे मैं अमृत नहीं बनती उसे लेकर क्या करूं ! जो अमृतत्त्व का साधन हो वही मुझे बताइए।' ३ जैन चिन्तकों के अनुसार प्रत्येक आत्मा की अन्तिम मंजिल मुक्ति है । मुक्ति की प्राप्ति के लिए ही समस्त साधनाएँ और आराधनाएँ हैं । समस्त आत्मसाधकों का लक्ष्य मोक्ष प्राप्त करना है अतएव वे साधक मुमुक्षु कहलाते हैं। आत्मा की प्रतीति से लगाकर मोक्ष की प्राप्ति पर्यन्त पुरुषार्थ में ही आत्मा की कृतार्थता और सार्थकता है एवं यह सिद्धि है। अत: जैन सिद्धान्त द्वारा मान्य नवतत्त्वों में पहला तत्त्व जीव है और अन्तिम तत्त्व मोक्ष है। बीच के तत्त्व आत्मा की विभाव परिणति से बंधने वाले अजीव कर्मदलिकों की विभिन्न प्रक्रियाओं से सम्बन्धित हैं। सुख देने वाला पुद्गल-समूह पुण्यतत्त्व है। दुःख देने वाला और ज्ञानादि को रोकने वाला तत्त्व पाप है । आत्मा की मलिन प्रवृत्ति आस्रव है। इस मलिन प्रवृत्ति को रोकना संवर है। कर्म के आवरणों का आंशिक क्षीण होना निर्जरा है। कर्मपुद्गलों का आत्मा के साथ बंधना बंध तत्त्व है। कर्म के आवरणों का सर्वथा क्षीण हो जाना मोक्ष है। जीवात्मा जब तक विभाव दशा में रहता है तब तक वह अजीव पुद्गलात्मक कर्मवर्गणाओं से आबद्ध हो जाता. है। फलस्वरूप उसे शरीर के बन्धन में बंधना पड़ता है। एक शरीर से दूसरे शरीर में जाना पड़ता है। इस प्रकार शरीर धारण करने और छोड़ने की परम्परा चलती रहती है। यह परम्परा ही जन्म-मरण है। इस जन्म-मरण के चक्र में विभावदशापन आत्मा परिभ्रमण करता रहता है। यही संसार है। इस जन्म-मरण की परम्परा को तोड़ने के लिए ही भव्यात्माओं के सारे धार्मिक और आध्यात्मिक प्रयास होते हैं। स्वसंवेदनप्रत्यक्ष एवं अनुमान-आगम आदि प्रमाणों से आत्मा की सिद्धि होती है। प्राणिमात्र को 'मैं हूं' ऐसा स्वसंवेदन होता है। किसी भी व्यक्ति को अपने अस्तित्व में शंका नहीं होती। 'मैं सुखी हूं' अथवा 'मैं दुःखी हूं' इहमेगेसिं नो सण्णा हवइ कम्हाओ दिसाओ वा आगओ अहमंसि अस्थि मे आया उववाइए णत्थि मे आया उववाइए ? के वा अहमंसि? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि। -आचारांग १-१ २. आत्मा वै दृष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यः। -बृहदारण्योपनिषद् २-४-५॥ ३. येनाहं नामृता स्यां किं तेन कुर्याम् । यदेव भगवानवेद तदेव मे हि ॥ -बृहदारण्योपनिषद् [१९] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्यादि प्रतीति में जो 'मैं' है वही आत्मा की प्रत्यक्षता का प्रमाण है। यह 'अहं प्रत्यय' ही आत्मा के अस्तित्व का सूचक है। आत्मा प्रत्यक्ष है क्योंकि उसका ज्ञानगुण स्वसंवेदन - सिद्ध है । घटपटादि भी उनके गुण-रूप आदि का प्रत्यक्ष होने से ही प्रत्यक्ष कहे जाते हैं। इसी तरह आत्मा के ज्ञान गुण का प्रत्यक्ष होने से आत्मा भी प्रत्यक्ष - सिद्ध होती है। आत्मा का अस्तित्व है क्योंकि उसका असाधारण गुण चैतन्य देखा जाता है। जिसका असाधारण गुण देखा जाता है उसका अस्तित्व अवश्य होता है जैसे चक्षु । चक्षु सूक्ष्म होने से साक्षात् दिखाई नहीं देती लेकिन अन्य इन्द्रियों से न होने वाले रूप विज्ञान को उत्पन्न करने की शक्ति से उसका अनुमान होता है। इसी तरह आत्मा का भी भूतों में न पाये जाने वाले चैतन्यगुण को देखकर अनुमान किया जाता है। भगवती सूत्र में कहा गया है कि- 'गौतम ! जीव नहीं होता तो कौन उत्थान करता ? कौन कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम करता ? यह कर्म, बल, वीर्य और पुरुषकार - पराक्रम जीव की सत्ता का प्रदर्शन है। कौन ज्ञानपूर्वक क्रिया में प्रवृत्त होता ? ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति और निवृत्ति भी जीव की सत्ता का प्रदर्शन है। पुद्गल के कार्यों को बताने वाला भगवती सूत्र का पाठ भी बहुत मननीय है। ' वहां कहा गया है - गौतम ! पुद्गल नहीं होता तो शरीर किससे बनता ? विभूतियों का निमित्त कौन होता ? वैक्रिय शरीर किससे बनता ? कौन तेज, पाचन और दीपन करता ? सुख-दुःख की अनुभूति और व्यामोह का साधन कौन बनता ? शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और इनके द्वार कान, आँख, नाक, , जीभ और चर्म कैसे बनते ? मन, वाणी और स्पन्दन का निमित्त कौन श्वास और उच्छ्वास किसका होता ? अन्धकार और प्रकाश नहीं होते, आहार और विहार नहीं होते धूप और छांह नहीं होती। कौन छोटा होता, कौन बड़ा होता ? कौन लम्बा होता, कौन चौड़ा ? त्रिकोण और चतुष्कोण नहीं होते । वर्तुल और परिमंडल भी नहीं होते। संयोग और वियोग नहीं होते ? सुख और दुःख, जीवन और मरण नहीं होते। यह विश्व अदृश्य ही होता ?" बनता भक्तीसूत्र के उक्त उद्धरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि विभावदशापन्न संसारी आत्मा कर्मपुद्गलों के साथ क्षीर-नीर की तरह सम्बद्ध है। आत्मा और शरीर का गाढ़ सम्बन्ध हो रहा है। इस संयोग से ही विविध प्रवृत्तियां होती हैं। आहार, श्वासोच्छ्वास, इन्द्रियां, भाषा और मन -ये न आत्मा के धर्म हैं और न पुद्गल के । ये संयोगज हैं - आत्मा और शरीर दोनों के संयोग से उत्पन्न होते हैं। भूख न आत्मा को लगती है और न आत्मरहित शरीर को । भोगोपभोग की इच्छा न आत्मा में होती है न आत्मरहित शरीर में आत्मा और शरीर का योग ही सांसारिक जीवन है । कर्मों के विविध परिणामों के फलस्वरूप संसारापन्न जीव विभिन्न स्वरूपों को प्राप्त करता है। वह कभी स्थावर रूप में जन्म लेता है, कभी त्रसरूप में। कभी वह एकेन्द्रिय बनता है, कभी द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और कभी पंचेन्द्रिय बनता है। कभी वह स्त्री रूप में जन्म लेता है, कभी पुरुषरूप में तो कभी नपुंसकरूप में। कभी वह नरक में उत्पन्न होता है, कभी पशु-पक्षी के रूप में जन्म लेता है, कभी मनुष्य बनता है तो कभी देवलोक में पैदा होता । चौरासी लाख जीवयोनियों और कुलकोडियों में वह जन्म-मरण करता है और विविध परिस्थितियों १. २. भगवती शतक १३ उ. ४, सू. २ – १० । भगवती शतक १३ उ. ४ । [२०] Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से गुजरता है। जीव की उन विभिन्न स्थितियों का जैनशास्त्रकारों ने बहुत ही सूक्ष्म और विस्तृत चिन्तन विविध आयामों से किया है। विविध दृष्टिकोणों से विविध प्रकार का वर्गीकरण करके आत्मतत्त्व के विषय में विपुल जानकारी शास्त्रकारों ने प्रदान की है। वही जीवाभिगम की नौ प्रतिपत्तियों में संकलित है। प्रथम प्रतिपत्ति-इस प्रतिपत्ति की प्रस्तावना में कहा गया है कि सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा के प्रवचन के अनुसार ही स्थविर भगवंतों ने जीवाभिगम और अजीवाभिगम की प्रज्ञापना की है। आल्पवक्तव्यता होने से पहले अजीवाभिगम का कथन करते हुए बताया गया है कि अजीवाभिगम दो प्रकार का है-रूपी अजीवाभिगम और अरूपी अजीवाभिगम। अरूपी अजीवाभिगम के दस भेद बताये हैं-धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश, अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश, आकाशस्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अद्धासमय (काल)। धर्मास्तिकायादि का अस्तित्व जैनसिद्धान्तानुसार धर्म गति-सहायक तत्त्व है और अधर्म स्थिति-सहायक तत्त्व। आकाश और काल को अन्य दर्शनकारों ने भी माना है परन्तु धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय को जैनसिद्धान्त के सिवाय किसी ने भी नहीं माना है। जैन सिद्धान्त की यह सर्वथा मौलिक अवधारणा है। इस मौलिक अवधारणा के पीछे प्रमाण और युक्ति का सुदृढ़ आधार है। जैनाचार्यों ने युक्तियों के आधार से सिद्ध किया है कि लोक और अलोक की व्यवस्था के लिए कोई नियामक तत्त्व होना ही चाहिए। जीव और पुद्गल जो गतिशील हैं उनकी गति लोक में ही होती है, अलोक में नहीं होती। इसका नियामक कोई तत्त्व अवश्य होना चाहिए। अन्यथा जीव और पुद्गलों की अनन्त 'अलोकाकाश में भी गति होती तो अनवस्थिति का प्रसंग उपस्थित हो जाता और सारी लोकव्यवस्था छिन्नभिन्न हो जाती अतएव जैन तार्किक चिन्तकों ने गतिनियामक तत्त्व के रूप में धर्म की और स्थितिनियामक तत्त्व के रूप में अधर्म की सत्ता को स्वीकार किया है। आधुनिक विज्ञान ने भी गतिसहायक तत्त्व को (Medium of Motion) स्वीकार किया है। न्यूटन और आइंस्टीन ने गति तत्त्व स्थापित किया है। वैज्ञानिकों द्वारा सम्मत ईथर (Ether) गति तत्त्व का ही दूसरा नाम है । लोक परिमित है। लोक के परे अलोक अपरिमित है। लोक के परिमित होने का कारण यह है कि द्रव्य अथवा शक्ति लोक के बाहर नहीं जा सकती। लोक के बाहर उस शक्ति का अभाव है जो गति में सहायक होती है। प्रभु महावीर ने कहा है कि जितने भी स्पन्दन हैं वे सब धर्म की सहायता से होते हैं। यदि धर्मतत्त्व न होता तो कौन आता? कौन जाता ? शब्द की तरंगे कैसे फैलतीं? आंखें कैसे खुलती ? कौन मनन करता ? कौन बोलता ? कौन हिलताडुलता? यह विश्व अचल ही होता। जो चल हैं उन सबका निमित्त गति सहायक तत्त्व धर्म ही है। इसी तरह स्थिति का सहायक अधर्म तत्त्व न होता तो कौन चलते-चलते हो ठहर पाता? कौन बैठता ? सोना कैसे होता? कौन निस्पन्द बनता ? निमेष कैसे होता? यह विश्व सदा चल ही बना होता जो गतिपूर्वक स्थिर हैं उन सबका आलम्बन स्थिति सहायक तत्त्व अधर्म-अधर्मास्तिकाय है। उक्त रीति से धर्म-अधर्म के रूप मे जैन चिन्तकों ने सर्वथा मौलिक अवधारणा प्रस्तुत की है। आकाश की सत्ता तो सब दार्शनिकों ने मानी है। आकाश नहीं होता तो जीव और पुद्गल कहाँ रहते ? धर्मस्तिकाय अधर्मास्तिकाय कहाँ व्याप्त होते ? काल कहाँ वरतता ? पुद्गल का रंगमंच कहाँ बनता ? यह विश्व निराधार ही होता। ___ काल औपचारिक द्रव्य है। निश्चयनय की दृष्टि से काल जीव और अजीव की पर्याय है। किन्तु व्यवहार नय की दृष्टि से वह द्रव्य है। क्योंकि वर्तना आदि उसके उपकार हैं। जो उपकारक है वह द्रव्य है। पदार्थों की स्थितिमर्यादा आदि के लिए जिसका व्यवहार होता है वह आवलिकादि रूप काल जीव-अजीव की पर्याय होने से [२१] Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनसे भिन्न नहीं है। रूपी अजीवाभिगम चार प्रकार का है-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणु पुद्गल । यह पुद्गल द्रव्य मूर्तिक है। यह अखण्ड द्रव्य नहीं है। इसका सबसे छोटा रूप एक परमाणु है तो सबसे बड़ा रूप है अचित्त महास्कन्ध । इसमें संयोग-विभाग, छोटा-बड़ा, हल्का-भारी, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श, संस्थान पाये जाते हैं। जैन सिद्धान्त ने प्रकाश, अन्धकार, छाया, आतप तथा शब्द को पौद्गलिक माना है। शब्द को पौद्गलिक मानना जैन तत्त्वज्ञान की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। न्याय-वैशेषिक दर्शन ने शब्द को आकाश का गुण माना है। आज के विज्ञान ने शब्द की पौद्गलिकता को स्पष्ट कर दिया है। जिस युग में आधुनिक वैज्ञानिक उपकरण उपलब्ध नहीं थे तब जैन चिन्तकों ने शब्द को पौद्गलिक कहा और यह भी कहा कि हमारा शब्द क्षण मात्र में लोकव्यापी बन जाता है। तार का सम्बन्ध न होते हुए भी सुघोषा घंटा का स्वर असंख्य योजन दूरी पर रही हुई घण्टाओं में प्रतिध्वनित होता हैयह उस समय का विवेचन है जब रेडियो-वायरलेस आदि का अनुसंधान नहीं हुआ था। उक्त रीति से अजीवाभिगम का निरूपण करने के पश्चात् जीवाभिगम का कथन आता है। आत्मा का शुद्धाशुद्ध स्वरूप जीवाभिगम के दो भेद किये गये हैं-संसारसमापनक जीव और असंसारसमापन्नक जीव। जो जीव अपनी ज्ञान-दर्शन-चारित्र की उत्कृष्ट आराधना कर अपने विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त कर चुके हैं वे जीव असंसारसमापनक हैं। वे फिर संसार में नहीं आते। जैनसिद्धान्त की मान्यता है कि-जैसे बीज के दग्ध होने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकते उसी तरह कर्मरूपी बीज के दग्ध होने पर फिर भवरूपी अंकुर प्रस्फुटित नहीं हो सकते। बौद्धदर्शन या वैदिकदर्शन की तरह जैनदर्शन अवतारवाद में विश्वास नहीं करता। वह उत्तारवादी दर्शन है। संसारवर्ती आत्मा ही विकास करता हुआ सिद्धस्वरूप बन जाता है फिर वह संसार में नहीं आता। __संसार-समापन्नक जीव वे हैं जो विभावदशापन्न होकर कर्मबन्ध की विचित्रता को लेकर नानाप्रकार की सांसारिक शरीर, इन्द्रिय, योग, उपयोग, लेश्या, वेद आदि स्थितियों को प्राप्त करते हैं। यह आत्मा की अशुद्ध दशा है। सिद्ध अवस्था आत्मा की शुद्ध अवस्था है और संसारवर्ती सशरीर दशा आत्मा की अशुद्ध अवस्था है। ___ आत्मा अपने मौलिकरूप में शुद्ध है किन्तु वह कब अशुद्ध बना, यह नहीं कहा जा सकता। जैसे अण्डा और मुर्गी का सन्तति-प्रवाह अनादिकालीन है, यह नहीं कहा जा सकता कि अण्डा पहले था या मुर्गी पहले ? वैसे ही संसारवर्ती आत्मा कब अशुद्ध बना यह नहीं कहा जा सकता। अनादिकाल से आत्मा और कर्म का सम्बन्ध चला आ रहा है अतएव अनादिकाल से आत्मा अशुद्ध दशा को प्राप्त है। इस अशुद्ध दशा से शुद्ध दशा को प्राप्त करना ही उसका लक्ष्य है और उसी के लिए सब साधनाएँ और आराधनाएँ हैं। ___ सांख्यदर्शन का मन्तव्य है कि आत्मा शुद्ध ही है। वह अशुद्ध नहीं होती। वह न बंधती है और न मुक्त होती है। बंध और मोक्ष प्रकृति का होता है, पुरुष-आत्मा नित्य है, अकर्ता है, निर्गुण है। जैसे नर्तकी रंगमंच पर अपना नृत्य बताकर निवृत्त हो जाती है वैसे ही प्रकृति अपना कार्य पूरा कर निवृत्त हो जाती है-यह पुरुष और प्रकृति का वियोग ही मुक्ति है। सांख्यदर्शन की यह मान्यता एकांगी और अपूर्ण है। यदि आत्मा शुद्ध और शाश्वत है तो फिर साधना और आराधना का क्या प्रयोजन रह जाता है ? साधना की आवश्यकता तभी होती है जब आत्मा अशुद्ध हो। जैनदृष्टि से शरीरमुक्त आत्मा शुद्ध आत्मा है और शरीरयुक्त आत्मा अशुद्ध। शरीरयुक्त आत्मा में आत्मा और कर्मपुद्गल का [२२] Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योग है। इस योग के कारण ही आत्मा की अशुद्ध पर्यायें हैं। इन अशुद्ध पर्यायों के कारण ही जैनसिद्धान्त ने आत्मा को परिणमनशील कहा है। वह न एकान्ततः नित्य है और न एकान्ततः अनित्य है अपितु द्रव्यरूप से नित्य होते हुए भी पर्याय रूप से अनित्य है। नित्यानित्यत्व बौद्धदर्शन आत्मा को एकान्ततः अनित्य कहता है। यह मन्तव्य भी एकांगी और अपूर्ण है। आत्मा को एकान्त क्षणभंगुर मानने पर बन्ध-मोक्ष घटित नहीं हो सकते। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा मान्य कर्मवाद और पुनर्जन्मवाद भी घटित नहीं होते। बौद्धदर्शन आत्मा के विषय में वस्तुतः अस्पष्ट है । एक ओर वह निरात्मवादी है तो दूसरी ओर पुनर्जन्म और कर्मवाद को मानता है। जैनदर्शन आत्मा के सम्बन्ध में बहुत स्पष्ट है। वह आत्मा को अनेकान्तदृष्टि से नित्यानित्य रूप मानता है, उसका बंध और मोक्ष होना मानता है। यहाँ तक कि वह आत्मा को अमूर्त मानता हुआ भी सांसारिक आत्मा को कथंचित् मूर्त भी मानता है। संसारी आत्मा शरीर धारण करती है, इन्द्रियों के माध्यम से वह वस्तु को ग्रहण करती है, आहार, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनयुक्त होती है। ये सब परिणतियां होने के कारण आत्मा को कथंचित् मूर्त भी माना गया है। सांसारिक जीवों की सारी प्रवृत्तियां आत्मा और शरीर के योग से होती हैं अतएव वे यौगिक हैं। अकेली आत्मा में ये क्रियाएँ नहीं हो सकती हैं और अकेले शरीर में भी ये क्रियाएँ सम्भव नहीं हैं। नवविध मन्तव्य __. संसारसमापनक जीव के भेदों को बताने के लिए नौ प्रकार की मान्यताओं का उल्लेख किया गया है। प्रथम प्रत्तिपत्ति (मान्यता) के अनुसार संसारी जीव के दो भेद किय गये हैं-त्रस और स्थावर। दूसरी प्रतिपत्ति के अनुसार तीन प्रकार कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। तीसरी प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के चार भेद कहे गये हैं-नैरयिक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव. चौथी प्रतिपत्ति के अनुसार पांच भेद कहे गये हैं-एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । पंचम प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के छह भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। छठी प्रतिपत्ति के अनुसार संसारी जीव के सात भेद कहे गये हैं-नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यञ्चिनी, मनुष्य, मानुषी, देव और देवी। सप्तम प्रतिपत्ति में संसारी जीव के आठ भेद प्ररूपित हैं-प्रथम समयवर्ती नैरयिक, अप्रथम समयवर्ती नैरयिक, एवं प्रथम समय तिर्यंच अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव और अप्रथम समय देव। अष्टम प्रतिपत्ति में सांसारिक जीव के नौ भेद प्ररूपित हैं-पृथ्वीकायिक, अपकायिक, तेजस्कायिक, वायुकयिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। ___ नवम प्रतिपत्ति में संसारी जीव के दस प्रकार बताये हैं-प्रथम समय एकेन्द्रिय से प्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से अप्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच; कुल मिलाकर दस प्रकार के संसारी जीव बनाये गये है। ___ उक्त सब प्रतिपत्तियाँ दिखने में पृथक्-पृथक् सी प्रतीत होती हैं परन्तु तात्त्विक दृष्टि से उनमें कोई विरोध नहीं है। अलग-अलग दृष्टिकोण से एक ही वस्तु का स्वरूप अलग-अलग प्रतीत होता है किन्तु उनमें विरोध नहीं होता। वर्गीकरण की भिन्नता को लेकर अलग-अलग प्ररूपणा है परन्तु उक्त सब प्रतिपत्तियाँ अविरोधिनी हैं। अनेकान्त दृष्टि की यही विशेषता है। [२३] Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रसत्व और स्थावरत्व प्रथम प्रतिपत्ति मे अनुसार संसारवर्ती जीव के दो भेद हैं-त्रस और स्थावर । स्थावर के तीन भेद किये गये हैं-पृथ्वीकायिक, अप्कायिक और वनस्पतिकायिक । त्रस के भी तीन भेद बताये हैं-तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार त्रस। ___ जैन तीर्थंकरों ने अपने विमल एवं निर्मल केवलज्ञान के आलोक में जगत् के जीवों का सूक्ष्म निरीक्षण एवं परीक्षण किया है। अतएव वे 'सव्व जगजीवजोणिवियाणक' हैं जगत् के जीवों की सर्वयोनियों के विज्ञाता हैं। उन तीर्थंकरों ने न केवल चलते-फिरते दिखाई देने वाले जीवों के अस्तित्व को स्वीकार किया है अपितु पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति में भी जीवों का सद्भाव जाना है और प्ररूपित किया है। जैन सिद्धान्त के अतिरिक्त अन्यत्र कहीं भी ऐसा निरूपण एवं प्रज्ञापन दृष्टिगोचर नहीं होता। जैन तत्त्व चिन्तकों का स्पष्ट निर्देश है कि पृथ्वी आदि में भी जीव हैं और अहिंसक साधक को इन सक्ष्म जीवों की भी वैसी ही रक्षा का प्रयास करना चाहिए जैसे स्थूल प्राणियों की रक्षा का। केवल मनुष्य या पशुओं की रक्षा में अहिंसा देवी की आराधना समाप्त नहीं होती परन्तु पृथ्वी, अप्, तेज वायु और वनस्पति के अव्यक्त चेतना वाले जीवों की भी अहिंसा का पूर्ण लक्ष्य रखना चाहिए। पृथ्वीकायादि में जीवास्तित्व का प्रतिपादन करते हुए नियुक्तिकार ने कहा है कि उपयोग, योग, अध्यवसाय, मतिश्रुतज्ञान, अचक्षुदर्शन, अष्ट प्रकार के कर्मों का उदय और बंध लेश्या, संज्ञा, श्वासोच्छ्वास और कषाय-ये जीव में पाये जावे वाले गुण पृथ्वीकाय आदि में भी पाये जाते हैं । अतः मनुष्यादि की तरह पृथ्वीकायादि को भी सचित्त-जीवात्मक समझना चाहिए। यद्यपि पृथ्वीकायादिक में उपर्युक्त लक्षण अव्यक्त हैं तदपि अव्यक्त होने से उनका निषेध नहीं किया जा सकता। इसे स्पष्ट करने के लिए उदाहरण दिया गया है-किसी पुरुष के अत्यन्त मादक मदिरा का पान अत्यधिक मात्रा में किया हो और ऐसा करने से व बेजान एवं मूर्छित हो गया हो तब उसकी चेतना अव्यक्त हो जाती है लेकिन इतने मात्र से उसे अचेतन नहीं कहा जा सकता। ठीक इसी तरह पृथ्वीकायादिक में चेतना-शक्ति अव्यक्त है परन्तु उसका निषेध नहीं किया जा सकता है। पृथ्वीकायादिक एकेन्द्रिय जीवों के कान, नेत्र, नाक, जीभ, वाणी और मन नहीं होते हैं तो वे दुःख का वेदन किस प्रकार करते हैं, यह प्रश्न सहज ही उठाया जा सकता है। इसका समाधान आचारांग सूत्र में एक उदाहरण द्वारा किया गया है। जैसे कोई जन्म के अंधे, बहरे, लूले-लंगड़े तथा अवयवहीन किसी व्यक्ति के भाला आदि शस्त्र से पांव, टकने, पिण्डी, घुटने, जंघा, कमर, नाभि, पेट, पांसली, पीठ, छाती, हृदय, स्तन, कंधा, भुजा, हाथ, अंगुलि नख, गर्दन, दाढी, होठ, दांत, जीभ, तालु, गाल, कान, नाक, आंख, भौंह, ललाट, मस्तक आदि-अवयवों को छेदे-भेदे तो उसे वेदना होती है किन्तु वह उस वेदना को व्यक्त नहीं कर सकता। इसी प्रकार एकेन्द्रिय पृथ्वीकायादिक जीवों को अव्यक्त वेदना होती है। जैसे मूर्छित अवस्था में कोई किसी को पीड़ा दे तो उसे पीड़ा होती है वैसे ही पृथ्वीकायादिक जीवों की वेदना को समझना चाहिए। महामनीषी आचार्यों ने विविध युक्तियों से एकेन्द्रिय जीवों में संचेतनता सिद्ध की है। वनस्पति की संचेतनता तो अधिक स्पष्टरूप में प्रतीत होती है। विशेषावश्यक भाष्य आदि ग्रन्थों में पुष्ट एवं प्रबल आधारों से प्रमाणित किया गया है कि उनमें स्पष्ट चेतना है। नारी शरीर के साथ वनस्पति की समानता प्रतिपादित करते हुए आचारांग सूत्र में कहा गया है कि-नर-नारी के शरीर की तरह वनस्पति जाति (जन्म) स्वभाववाली है, वृद्धिस्वभाववाली है, सचित्त है, काटने पर म्लान होने वाली है। इसे भी आहार की अपेक्षा रहती है, इसमें भी विकार होते हैं। अत: नर-नारी के शरीर की तरह वनस्पति भी संचेतन है। [२४] Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधुनिक विज्ञान ने भी वनस्पति की सचेतनता सिद्ध कर दी है। वैज्ञानिक साधनों द्वारा यह प्रत्यक्ष करा दिया गया है कि वनस्पति में क्रोध, प्रसन्नता, हास्य, राग आदि भाव पाये जाते हैं। उनकी प्रशंसा करने से वे हास्य प्रकट करती हुई और निन्दा करने से क्रोध करती हुई दिखाई दी हैं। प्रस्तुत प्रतिपत्ति में संसारी जीव के त्रस और स्थावर-ये दो भेद किये गये हैं। त्रस की व्युत्पत्ति करते हुए वृत्ति में कहा गया है कि-उष्णादि से अभितप्त होकर जो जीव उस स्थान से अन्य स्थान पर छायादि हेतु जाते हैं, त्रस हैं । इस व्युत्पत्ति के अनुसार त्रस नामकर्म के उदय वाले जीवों की ही त्रसत्व में परिगणना होती है, शेष की नहीं। परन्तु यहाँ स्थावर नामकर्म के उदय वाले तेजस्काय और वायुकाय को भी त्रस कहा गया है। अतएव यहाँ त्रसत्व की व्युत्पत्ति इस प्रकार करनी चाहिए-जो अभिसंधिपूर्वक या अनभिसंधिपूर्वक भी ऊर्ध्व, अधः, तिर्यक् चलते हैं वे त्रस हैं, जैसे तेजस्काय, वायुकाय और द्वीन्द्रिय आदि। उष्णादि अभिताप के होने पर भी जो उस स्थान को नहीं छोड़ सकते हैं, वहीं रहते हैं वे स्थावर जीव हैं, जैसे पृथ्वी, जल और वनस्पति। प्रायः स्थावर के रूप में पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु और वनस्पति-ये पांचों गिने जाते हैं । आचारांग में यही कथन हैं । किन्तु यहाँ गति को लक्ष्य में रखकर तेजस् और वायु को त्रस कहा गया है। क्योंकि अग्नि का ऊर्ध्वगमन और वायु का तिर्यग्गमन प्रसिद्ध है। दोनों कथनों का समंजस्य स्थापित करते हुए कहा गया है कि त्रस जीव दो प्रकार के हैं-गतित्रस और लब्धित्रस। तेजस् और वायु केवल गतित्रस हैं, लब्धित्रस नहीं हैं। जिनके त्रस नामकर्म रूपी लब्धि का उदय है वे ही लब्धित्रस हैं-जैसे द्वीन्द्रिय आदि उदार त्रस, तेजस् और वायु में यह लब्धि न होने से वे लब्धित्रस न होकर स्थावर में परिगणित होते हैं। केवल गति की अपेक्षा से ही उन्हें यहाँ त्रस के रूप में परिगणित किया गया है। पृथ्वीकाय के दो भेद किये गये हैं-सूक्ष्म पृथ्वीकाय और बादर पृथ्वीकाय। सूक्ष्म पृथ्वीकाय के दो भेद बताये हैं-पर्याप्तक और अपर्याप्तक । तदनन्तर सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों की विशेष जानकारी देने के लिए २३ द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। वे २३ द्वार हैं-शरीर, अवगाहना, संहनन, संस्थान, कषाय, संज्ञा, लेश्या, इन्द्रियां, समुद्घात, संज्ञी-असंज्ञी, वेद, पर्याप्ति-अपर्याप्ति, दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, योग, उपयोग, आहार, उपपात, स्थिति, समुद्घात करके मरण, च्यवन, गति और आगति। ' प्रश्न के रूप में पूछा गया है कि भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के शरीर कितने होते हैं ? उत्तर में कहा गया है कि उनके तीन शरीर होते हैं यथा-औदारिक, तैजस् और कार्मण। इस तरह शेष द्वारों को लेकर भी प्रश्नोत्तर किये गये हैं। १. तत्र त्रसन्ति-उष्णाधभितप्ताः सन्तो विवक्षितस्थानादुद्विजन्ति गच्छन्ति च छायाधासेवनार्थ स्थानान्तरमिति त्रसाः, अनया च व्युत्पत्त्या त्रसास्त्रसनामकर्मोदयवर्तिनः एव परिगृह्यन्ते, न शेषाः, अथ शेषैरपीह प्रयोजनं, तेषामप्यग्रे वक्ष्यमाणत्वात्, तत एवं व्युत्पत्तिः-त्रसन्ति अभिसन्धिपूर्वकमनभिसन्धिपूर्वक वा ऊर्ध्वमस्तिर्यक् चलन्तीति त्रसा:-तेजोवायवो द्वीन्द्रियादयश्र। उष्णाधभितापेऽपि तत्स्थानपरिहारासमर्थाः सन्तस्तिष्ठन्ती त्येवं शीलाः स्थावरा:-पृथिव्यादयः। -मलयगिरि वृत्तिः २. सरीरोगाहण संघयण संठाणकसाय तह य हुंति सन्नाओ। लेसिंदियसमुग्धाए सन्नी वेए य पज्जत्ती ॥१॥ दिट्ठी दंसणनाणे जोगुवओगे तहा किमाहारे। उववाय ठिई समुग्धाय चवणगइरागई चेव ॥२॥ [२५] Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इसी तरह बादर पृथ्वीकाय के भी दो भेद बताये हैं-श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकाय और खरबादर पृथ्वीकाय। श्लक्ष्ण पृथ्वीकाय के सात भेद और खरबादर पृथ्वीकाय के अनेक भेद बताये हैं। फिर इनके पर्याप्त और अपर्याप्त भेद करके पूर्वोक्त २३ द्वार घटाये हैं। ___ तदनन्तर अप्काय के सूक्ष्म और बादर तथा पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद किये गये हैं और पूर्वोक्त २३ द्वारों से उनका निरूपण किया है। ____तत्पश्चात् वनस्पतिकाय के सूक्ष्म और बादर पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद करके पूर्वोक्त द्वार घटित किये हैं। तदनन्तर बादर वनस्पति के प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति और साधारणशरीर बादर वनस्पति-ये दो भेद करके उनके भेद-प्रभेद बताये हैं। प्रत्येकशरीर बादर वनस्पति के १२ भेद वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि, जलरुह, और कुहण बताये गये है। तदनन्तर साधारणशरीर बादर वनस्पति के अनेक प्रकार बताये हैं। इन सब भेदों में उक्त २३ द्वार घटाये गये हैं। त्रस जीवों के तेजस्काय, वायुकाय और उदारत्रस ये तीन भेद किये हैं। तेजस्काय और वायुकाय के सूक्ष्म और बादर फिर बादर के अनेक भेद बताये हैं। उदारत्रस के द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय रूप से चार प्रकार बताये हैं। पंचेन्द्रिय के नारक, तिर्यंच, मनुष्य और देव-ये चार भेद किये हैं। नारक में रत्नप्रभादि पृथ्वियों के आधार से सात भेद, तिर्यंच के जलचर, स्थलचर और खेचर-ये तीन भेद करके फिर एक-एक के अनेक भेद किये हैं। मनुष्य के संमूर्छिम और गर्भोत्पन्न भेद किये हैं। देव के भवनपति, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक के रूप में चार प्रकार बताये हैं । उक्त सब जीव के भेद-प्रभेदों में उपर्युक्त तेवीस द्वार घटित किये गये हैं। उपर्युक्त सब द्वारों की परिभाषा और व्याख्या विद्वान् अनुवादक और विवेचक मुनिश्री ने यथास्थान की है जो जिज्ञासुओं के लिए बहुत उपयोगी है। जिज्ञासु जन वहाँ देखें । यहाँ उनका उल्लेख करना पुनरावृत्ति रूप ही होगा, अतएव विषय का निर्देश मात्र ही किया गया है। द्वितीय प्रतिपत्ति प्रस्तुत सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में समस्त संसारी जीवों को वेद की अपेक्षा से तीन विभागों में विभक्त किया गया है। वे विभाग हैं-स्त्री, पुरुष और नपुसंक। स्त्रियों के तीन प्रकार कहे गये हैं-१.तिर्यग्योनिक स्त्रियाँ, मानुषी स्त्रियाँ और देवस्त्रियाँ । नारक जीव नपुंसक वेद वाले ही होते हैं अतः उनमें स्त्री या पुरुष वेद नहीं होता। तिर्यग्योनिक स्त्रियों के तीन भेद हैं-जलचरी, स्थलचरी और खेचरी। फिर उनमें उत्तर भेदों का कथन किया गया है। मानुषी स्त्रियों के तीन प्रकार कहे गये हैं-कर्मभूमि में उत्पन्न होने वाली, अकर्मभूमि में उत्पन्न होने वाली और अन्तीपों में उत्पन्न होने वाली। अन्तर्दीपिका स्त्रियों के २८ प्रकार, अकर्मभूमिका स्त्रियों के तीस प्रकार और कर्मभूमिका स्त्रियों के १५ प्रकार कहे गये हैं। देवस्त्रियों के चार प्रकार कहे हैं-भवनवासी देवस्त्रियाँ, वानव्यन्तर देवस्त्रियाँ, ज्योतिष्क देवस्त्रियाँ और वैमानिक देवस्त्रियाँ । तदनन्तर इनके उत्तर भेदों का कथन है। वैमानिक देवस्त्रियाँ केवल दो देवलोक-सौधर्म और ईशान में ही है। आगे के देवलोकों में स्त्रियां-देवियां नहीं होती हैं। स्त्रियों के भेद निरूपण के पश्चात् उनकी स्थिति बताई गई है। पहले सामान्यरूप से जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का कथन है फिर उत्तर भेदों को लेकर प्रत्येक की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। मूलग्रन्थ और अनुवाद से स्थिति का प्रमाण जानना चाहिए। स्थितिनिरूपण के पश्चात् स्त्री का संचिट्ठणाकाल बताया गया है। संचिट्ठणाकाल का तात्पर्य यह है कि स्त्री [२६] Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निरन्तररूप से (स्त्रीत्व को छोड़े बिना) कितने काल तक स्त्रीरूप में ही रह सकती है ? सामान्य स्त्री की अपेक्षा संचिट्ठणाकाल बताने के पश्चात् प्रत्येक उत्तर भेद की संचिट्ठणा बताई गई है। वह भी मूलपाठ और अनुवाद से जानना चाहिए। संचिट्ठणाकाल के अनन्तर अन्तर का निरूपण किया गया है। अन्तर से तात्पर्य है कि कोई स्त्री, स्त्रीत्व से छूटने के बाद फिर कितने काल के पश्चात् पुनः स्त्री होती है ? सामान्यस्त्री और उत्तर भेद वाली प्रत्येक स्त्री का अन्तरकाल प्रकट किया गया है। अन्तरद्वार के पश्चात् अल्पबहुत्व द्वार का प्ररूपण है। अल्पबहुत्व का अर्थ है अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक का प्रमाण बताना। यह अल्पबहुत्व कई अपेक्षाओं से बताया गया है। जैसे तिर्यस्त्रियों, मनुष्यस्त्रियों और देवस्त्रियों में कौन किससे अल्प है, बहुत है, तुल्य है या विशेषाधिक है? सबसे कम मनुष्यस्त्रियां हैं, तिर्यस्त्रियां उनसे असंख्यात गुणी हैं और देवस्त्रियां उनसे भी असंख्यात गुणी है। तदनन्तर उत्तर भेदों को लेकर अल्पबहुत्व का निर्देश किया गया है। इसके पश्चात् स्त्रीवेद नामक कर्म की बंधस्थिति बताते हुए कहा है कि जघन्यतः पल्योपमासंख्येय भाग न्यून एक सागरोपम का सार्ध सप्तभाग और उत्कर्षतः पन्द्रह कोटाकोटि सागरोपम है । पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल है और अबाधाकाल रहित कर्मस्थिति उसका कर्मनिषेक (अनुभवनकाल) काल है। जितने समय तक कर्म बन्ध के पश्चात् उदय में नहीं आता है उस काल को अबाधा काल कहते हैं। कर्मदलिक का उदयावलि में प्रविष्ट होने का काल कर्मनिषेक काल कहलाता है। तत्पश्चात् स्त्रीवेद की उपमा फुम्फुम अग्नि से दी गई है । फुम्फुम का अर्थ कारीषाग्नि (कंडे की अग्नि) है। जैसे कंडे की अग्नि धीरे धीरे जलती हुई बहुत देर तक बनी रहती है इसी तरह स्त्रीवेद का अनुभव धीरे धीरे और बहुत देर तक होता रहता है। स्त्रीवेद के कथन के अनन्तर पुरुषवेद का निरूपण है। पुरुष के भेद-प्रभेदों का वर्णन करके उनकी स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का प्रतिपादन किया गया है। तदनन्तर पुरुषवेद की बंधस्थिति, अबाधाकाल और कर्मनिषेक बताकर पुरुषवेद को दावाग्नि ज्वाला के समान निरूपित किया है। . नपुंसक वेद के निरूपण में कहा गया है कि नपुंसक तीन प्रकार के हैं-नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्ययोनिक नपुंसक। देव नपुंसक नहीं होते हैं। तदनन्तर इनके भेद-प्रभेद निरूपित किये हैं। तत्पश्चात् पूर्ववत् स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर, अल्पबहुत्व, बंधस्थिति अबाधाकाल और कर्मनिषेक प्रतिपादित हैं। नपुंसक वेद को महानगरदाह के समान बताया गया है। __तत्पश्चात् आठ प्रकार से वेदों का अल्पबहुत्व निर्देशित किया गया है। तदनन्तर कहा गया है कि पुरुष सबसे थोड़े हैं, उनसे स्त्रियां संख्येयगुणी हैं, उनसे नपुंसक अनन्त गुण हैं। तिर्यक्योनिक पुरुषों की अपेक्षा तिर्यक्योनिक स्त्रियां तिगुनी अधिक हैं। मनुष्य पुरुषों की अपेक्षा मनुष्य-स्त्रियां सत्तावीस गुणी हैं और देवों से देवियां बत्तीस गुनी अधिक हैं।' १ तिगुणा तिरूव अहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्या। सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव ॥१॥ बत्तीस गुणा बत्तीसरूव अहिया उ होंति देवाणं । देवाओ पण्णत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहिं ॥२॥ -संग्रहणिगाथा [२७] Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति नारक-वर्णन यदि संसारवर्ती जीवों को चार भागों में विभक्त किया जाय तो उनका विभाजन इस प्रकार होता हैनैरयिक, तिर्यक्योनिक मनुष्य और देव । नैरयिक जीव सात प्रकार के नरकों में रहते है। ये नरक मध्यलोक के नीचे हैं। ये नरकपृथ्वियां कही जाती हैं। उनके नाम घम्मा, वंसा, सेला, अंजना, रिष्टा, मघा और मघावती हैं। इनके रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, घूमप्रभा, तमःप्रभा और तमस्तमः प्रभा-ये सात गोत्र हैं । रत्नप्रभा पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन है, शर्कराप्रभा की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन, बालुकाप्रभा की एक लाख अट्ठाबीस हजार योजन, पंकप्रभा की एक लाख बीस हजार, धूमप्रभा की एक लाख अठारह हजार, तमःप्रभा की एक लाख सोलह हजार और तमस्तमःप्रभा की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन विभाग (काण्ड) हैं-खर काण्ड जिसे रत्न काण्ड भी कहते हैं, पंक काण्ड और अपबहुल काण्ड । केवल रत्नप्रभा पृथ्वी के ही काण्ड हैं शेष पृथ्वियों के काण्ड नहीं हैं-वे एकाकार है । रत्नप्रभा पृथ्वी के एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में से ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन भाग को छोड़कर शेष क्षेत्र में ऊपर भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवन हैं तथा नीचे नारकियों के तीस लाख नारकावास हैं। दूसरी नरकपृथ्वी के ऊपर-नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष भाग में २५ लाख नारकावास है। इसी तरह तीसरी पृथ्वी में १५ लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं में पांच नारकावास हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी से नीचे असंख्यात योजन के अन्तराल के बाद दूसरी शर्करा पृथ्वी है। इसके असंख्यात हजार योजन नीचे बालुका पृथ्वी है। इस तीसरी पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से दो राजु प्रमाण नीचा है। तीसरी पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर चौथी पंकप्रभा पृथ्वी है। इस पृथ्वी का तल भाग मध्यलोक से तीन राजु नीचा है। इससे असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर पांचवीं धूमप्रभा पृथ्वी है । इसका तल भाग मध्यलोक से. चार राजु नीचे है। पांचवीं पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर छठी तमःप्रभा पृथ्वी है। इसका तल भाग मध्यलोक से पांच राजु नीचे है। छठी पृथ्वी से असंख्यात हजार योजन नीचे जाने पर सातवीं तमस्तमःप्रभा पृथ्वी है। इसका तल भाग मध्यलोक से छह राजु नीचा है । सातवीं पृथ्वी के नीचे एक राजु प्रमाण मोटा और सात राजु विस्तृत क्षेत्र हैं वहाँ केवल एकेन्द्रिय जीव ही रहते हैं। ये रत्नप्रभा आदि पृथ्वियाँ घनोदधि, घनवात, और तनुवात पर आधारित हैं। इनके नीचे अवकाशान्तर (पोलार) है। सात नरकों और उनके अवकाशान्तर में पुद्गलद्रव्यों की व्यापक स्थिति है । रत्नप्रभा से लेकर समस्त तमस्तमःप्रभा पृथ्वी तक सबका आकार झालर के समान बताया है। तदनन्तर सात नरकों से चारों दिशाओं में लोकान्त का अन्तर बताया गया है। रत्नप्रभादि सातों नरकों में सब जीव कालक्रम से उत्पन्न हुए हैं और निकले हैं क्योंकि संसार अनादि है। रत्नप्रभादि कथंचित् शाश्वत हैं और कथंचिद् अशाश्वत हैं द्रव्यापेक्षया शाश्वत और पर्यायापेक्षया अशाश्वत हैं। ___ नरकावासों के संस्थान, आयाम-विष्कंभ, परिधि, वर्ण, गंध और स्पर्श का वर्णन करते हुए उनकी अशुभता बताई है। चार गतियों की अपेक्षा गति-आगति, उनके श्वासोच्छवास के पुद्गल, आहार के पुद्गल, लेश्याएँ, ज्ञान, अज्ञान, उपयोग, अवधिज्ञान का प्रमाण, समुद्घात, सात नरकों में क्षुधा-पिपासा आदि की वेदना, [२८] Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शीतोष्ण वेदना, मानवलोक की उष्णता से नारकीय उष्णता की तुलना, नैरयिकों के अनिष्ट पुद्गलपरिणमन का वर्णन किया गया है। तदनन्तर नारकों की स्थिति, उद्वर्तना और व्युत्क्रान्ति (उत्पत्ति) का वर्णन है। नारक उद्देशक का उपसंहार करते हुए कहा गया है-नारक जीव अत्यन्त अनिष्ट एवं अशुभ पुद्गल परिणाण का अनुभव करते हैं। उनकी वेदना, लेश्या, नाम, गोत्र, अरति, भय, शोक, भूख-प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, अनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ, आहार, भय, मैथुन-परिग्रहादि संज्ञा ये सब अशुभ एवं अनिष्ट होते हैं। प्रायः महारम्भ महापरिग्रह वाले वासुदेव, माण्डलिक राजा, चक्रवर्ती. तन्दुल मस्त्यादि जलचर कालसौकरिक आदि कौटुम्बिक (महारंभ-महापरिग्रह एवं क्रूर परिणामों से) नरकगति में जाते हैं। नरक में नारकियों को अक्षिनिमीलन मात्र के लिए भी सुख नहीं है। वहाँ दुःख ही दुःख है। वहीं अति शीत, अति उष्ण, अति तृष्णा, अति क्षुधा और अति भय है । नारक जीवों को निरन्तर असाता का ही अनुभव करना पड़ता है। .. तिर्यञ्चाधिकार तिर्यग्योनिक जीवों के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि पांच प्रकार बताये हैं। एकेन्द्रिय के पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु वनस्पति रूप से पांच प्रकार कहे है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद बताये गये हैं। पंचेन्द्रिय जलचर, स्थलचर और खेचर के दो-दो भेद सम्मूर्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक के रूप में कहे हैं। खेचर आदि पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक के तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है-अंडज, पोतज और संमूर्छिम। अंडज और पोतज तीनों वेद वाले होते हैं। संमूर्छिम नपुंसक ही होते हैं । इन जीवों का लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, आगति, गति, स्थिति समुद्घात आदि द्वारो से वर्णन किया गया है। तदनन्तर जाति, कुलकोडी का कथन किया गया है। द्वितीय उद्देशक में छह प्रकार के संसारवर्ती जीव कहे हैं-पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय। इनके भेद-प्रभेद किये हैं। इनकी स्थिति, संचिट्ठणा और निर्लेपना का कथन है। प्रसंगोपात्त विशुद्ध अविशुद्ध लेश्या वाले अनगार के विशुद्ध-अविशुद्ध लेश्या वाले देव-देवी को जानने संबंधी प्रश्नोत्तर हैं। मनुष्याधिकार ___ मनुष्य दो प्रकार के हैं-संमूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रांतिक मनुष्य। सम्मूर्छिम मनुष्य क्षेत्र के चौदह अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैंकर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तर्वीपक। अन्तीपक-हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सौ योजन लवणसमुद्र के भीतर जाने पर चार अन्तर्वीप हैं । इसी प्रकार लवणसमुद्र के भीतर चार सौ, पांच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ और नौ सौ योजन आगे जाने पर भी चारों विविशाओं में चार-चार अन्तर्वीप हैं । इस प्रकार चुल्ल हिमवान के ७४४-२८ अन्तर्वीप हैं। इन अन्तर्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपक कहलाते हैं। इन अन्तर्वीपकों के २८ नाम हैं-१. एकोरुक, २. आभाविक, ३. वैषाणिक, ४. नांगोलिक, ५. हयकर्ण, ६. गजकर्ण, ७. गोकर्ण, ८. शष्कुलकर्ण, ९. आदर्शमुख, १०. मेण्ढमुख, ११. अयोमुख, १२. गोमुख, १३. अश्वमुख, १४. हस्तिमुख, १५. सिंहमुख, १६. [२९] Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याघ्रमुख, १७. अश्वकर्ण, १८. सिंहकर्ण, १९. अकर्ण, २०. कर्णप्रावरण, २१. उल्कामुख, २२. मेघमुख, २३. विद्युद्दन्त, २४. विद्युज्जिह्वा २५. घनदन्त, २६. लष्टदन्त, २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त । इसी प्रकार शिखरी पर्वत की लवणसमुद्रगत दाढाओं पर भी २८ अन्तर्वीप हैं। दोनों ओर के मिलाकर ५६ अन्तर्वीप हो जाते हैं। एकोरुक द्वीप का आयाम-विष्कंभ तीन सौ योजन और परिधि नौ सौ उनपचास योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। इस द्वीप का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। वहाँ बहुत सारे द्रुम, वृक्ष, वन, लता, गुल्म आदि हैं जो नित्य कुसुमित रहते हैं। वहाँ बहुत सी हरी भरी वनराजियां हैं। वहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं जिनसे वहाँ के निवासियों का जीवन-निर्वाह होता है। (१) मत्तांग नामक कल्पवृक्ष से उन्हें विविध पेयपदार्थों की प्राप्ति होती है। (२) भृत्तांग नामक कल्पवृक्ष से बर्तनों की पूर्ति होती है। (३) त्रुटितांग कल्पवृक्ष से वाद्यों की पूर्ति (४) दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष से प्रकाश की पूर्ति होती है। (५) ज्योति-अंग नामक कल्पवक्ष से सर्य की तरह प्रकाश और सहावनी धप प्राप्त होती है। (६) चित्रांग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के चित्र एवं विविध मालाएँ प्रदान करते हैं। (७) चित्तरसा नामक कल्पवृक्ष विविध रसयुक्त भोजन प्रदान करते हैं। (८) मण्यंग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के मणिमय आभूषण प्रदान करते हैं। (९) गेहागार नाम के कल्पवृक्ष विविध प्रकार के आवास प्रदान करते हैं और (१०) अणिग्न नाम के कल्पवृक्ष उन्हें विविध प्रकार के वस्त्र प्रदान करते हैं। एकोरुक द्वीप के मनुष्य और स्त्रियां सुन्दर अंगोपांग युक्त, प्रमाणोपेत अवयव वाले, चन्द्र के समान सौम्य और अत्यन्त भोग-श्री से सम्पन्न होते हैं। नख से लेकर शिख तक के उनके अंगोपांगों का साहित्यिक और सरस वर्णन किया गया है। ये प्रकृति से भद्रिक होते हैं। चतुर्थ भक्त अन्तर से आहार की इच्छा होती है। ये मनुष्य आठ सौ धनुष ऊंचे होते हैं, ६४ पृष्ठकरंडक (पांसलियां) होते हैं। उनपचास दिन तक अपत्य-पालना करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्येय भाग प्रमाण हैं । जब उनकी छह मास आयु शेष रहती है तब युगलिक-स्त्री सन्तान को जन्म देती है। ये युगलिक स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक आयुष्य पूर्ण करके अन्यतर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। एकोरुक द्वीप में गृह, ग्राम, नगर, असि, मसि, कृषि आदि कर्म, हिरण्य-सुवर्ण आदि धातु, राजा और सामाजिक व्यवस्था, दास्यकर्म वैरभाव, मित्रादि, नटादि के नृत्य, वाहन, धान्य, डांस-मच्छर, युद्ध, रोग, अतिवृष्टि, लोहे आदि धातु की खान, क्रय विक्रय आदि का अभाव होता है। वह भोगभूमि है। इसी तरह सब अन्तर्वीपों का वर्णन समझना चाहिए। कर्मभूमिज मनुष्य कर्मभूमियों में और अकर्मभूमिज मनुष्य अकर्मभूमि में पैदा होते हैं। कर्मभूमि वह है जहाँ मोक्षमार्म के उपदेष्टा तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, जहाँ असि (शस्त्र) मषि (लेखन-व्यापार आदि) और कृषि कर्म करके मनुष्य अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। ऐसी कर्मभूमियां पन्द्रह हैं-५भरत, ५ एरवत और ५ महाविदेह । ( ये भरत आदि एक एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्ध द्वीप में हैं। ) यहाँ के मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । ये अपने अपने पुण्य-पाप के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं। ___ जहाँ असि-मसि-कृषि नहीं है किन्तु कल्पवृक्षों द्वारा जीवननिर्वाह है वह अकर्मभूमि है। अकर्मभूमियां ३० हैं-पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवास, पांच, रम्यकवास, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु । इनमें से एक-एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्धद्वीप में हैं। ३० अकर्मभूमि और ५६ अन्तर्वीप [३०] Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगभूमियां हैं। यहाँ युगलिक धर्म है-चारित्र धर्म यहां नहीं है। मनुष्यों का वर्णन करने के पश्चात् चार प्रकार के देवों का कथन है-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भवनपति और वानव्यन्तर देवों का आवास रत्नप्रभा पृथ्वी में-मध्यलोक में है। ज्योतिष्क देव भी मध्यलोक में हैं। वैमानिक देवों का निवास ऊर्ध्वलोक में है। भवनवासी देवों के ७ करोड़ ७२ लाख भवनावास रत्नप्रभा पृथ्वी में कहे गये हैं। उनमें असुरकुमार आदि दस प्रकार के भवनपति देव रहते है। असुरकुमारों के भवनों का वर्णन, असुरेन्द्र की ३ पर्षद्, उनमें देव-देवियों की संख्या, उनकी स्थिति, तीन पर्षदों की भिन्नता का कारण, उत्तर के असुरकुमारों का वर्णन तथा उनकी पर्षदाओं का वर्णन है। दक्षिण-उत्तर के नागकुमारेन्द्र और दक्षिण-उत्तर के धरणेन्द्र व उनकी तीन पर्षदों का भी वर्णन है। व्यन्तर देवों के भवन, इन्द्र और परिषदों का भी वर्णन है। ज्योतिष्क देवों के विमानों का संस्थान, और सूर्य चन्द्र देवों की तीन-तीन परिषदों का उल्लेख है। इसके पश्चात द्वीप-समुद्रों का वर्णन किया गया है। जम्बूद्वीप-जम्बूद्वीप के वृत्ताकार की उपमाएँ, उसके संस्थान की उपमाएँ, आयाम-विष्कंभ, परिधि, जगती की ऊँचाई, उसके मूल मध्य और ऊपर का विष्कंभ, उसका संस्थान, जगती की जाली की ऊँचाई, विष्कंभ, पद्मवरवेदिका की ऊंचाई एवं विष्कंभ, उसकी जालिकाएँ, घोड़े आदि के चित्र, वनलता आदि लताएँ अक्षत, स्वस्तिक, विविध प्रकार के कमल, शाश्वत या अशाश्वत आदि का वर्णन है। जम्बूद्वीप के वनखंड का चक्रवाल, विष्कंभ, विविध वापिकाएं, उनके सोपान, तोरण, समीपवर्ती पर्वत, लतागृह, मंडप, शिलापट्ट और उन पर देव देवियों की क्रीडाओं आदि का वर्णन है। जम्बूद्वीप के विजयद्वार का स्थान, उसकी ऊँचाई, विष्कंभ तथा कपाट की रचना का विस्तृत वर्णन है। विजयदेव सामानिक देव, अग्रमहिषियों, तीन पर्षदों, आत्मरक्षक देवों आदि के भद्रासनों का वर्णन है। विजयद्वार के ऊपरी भाग का, उसके नाम के हेतु का तथा उसकी शाश्वतता का उल्लेख किया गया है। जम्बूद्वीप की विजया राजधानी का स्थान, उसका आयाम-विष्कंभ, परिधि, प्राकार की उँचाई, प्राकार के और ऊपरी भाग का विष्कंभ, उसका संस्थान, कपिशीर्षक का आयाम-विष्कंभ, उसके द्वारों की ऊँचाई और विष्कंभ, चार वनखण्ड, उनका आयाम-विष्कंभ, दिव्य प्रासाद, उनमें चार महर्द्धिक देव, परिधि, पद्मवरवेदिका वनखंड सोपान व तोरण प्रासादावतंसक, मणिपीठिका, सिंहासन, आठ मंगल, समीपवर्ती प्रासादों की ऊंचाई, आयाम-विष्कंभ, अन्य पार्श्ववर्ती प्रासादों की ऊंचाई, आयाम, विष्कंभ आदि का वर्णन है। विजयदेव की सुधर्मा सभा, ऊंचाई, आयाम-विष्कंभ, उसके तीन द्वारों की ऊंचाई व विष्कंभ, मुखमंडपों का आयाम विष्कंभ और ऊंचाई, प्रेक्षागृह-मंडपों का आयाम-विष्कंभ व ऊंचाई, मणिपीठिकाओं, चैत्य वृक्षों महेन्द्र ध्वजाओं और सिद्धायतन के आयाम-विष्कंभ तथा ऊंचाई का वर्णन किया गया है। तदनन्तर उपपात सभा, विजयदेव की उत्पत्ति, पर्याप्ति, मानसिक संकल्प आदि का वर्णन है। विजयदेव और उसके सामानिक देवों की स्थिति बताई गई है। जम्बूद्वीप के विजय, वैजयन्त, जयंत और अपराजित द्वारों का विस्तृत वर्णन किया गया है। जम्बूद्वीप के एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर, जम्बूद्वीप से लवणसमुद्र का और लवणसमुद्र से जम्बूद्वीप से स्पर्श का तथा परस्पर में इनमें जीवों की उत्पत्ति का कथन है। ___ जम्बूद्वीप में उत्तरकुरु का स्थान, संस्थान और विष्कंभ, जीवा और वक्षस्कार पर्वत का स्पर्श, धनुपृष्ठ की परिधि उत्तरकुरु क्षेत्र के मनुष्यों की ऊंचाई, पसलियां, आहारेच्छा, काल, स्थिति, अपत्यपालन-काल, आदि का [३१] Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन है। उत्तरकुरु के दो यमक पर्वत हैं। उनकी ऊंचाई, उद्वेध, मूल, मध्य और ऊपरी भाग का आयामविष्कंभ, परिधि, उन पर्वतों पर प्रासाद और उनकी ऊंचाई, यमक नाम का कारण, यमक पर्वत की नित्यता यमक देवों की राजधानी के स्थान आदि का वर्णन है। ___उत्तरकुरु में नीलवंत द्रह का स्थान, आयाम-विष्कंभ, और उद्वेध, पद्मकमल का आयाम, विष्कंभ, परिधि, बाहल्य, ऊंचाई और सर्वोपरिभाग, इसी तरह कर्णिका, भवन, द्वार, मणिपीठिका १०८ कमल, कर्णिकाएँ, पद्म परिवार के आयाम-विष्कंभ और परिधि वर्णित हैं। ___ कंचनग पर्वतों का स्थान, प्रासाद, नाम का कारण, कंचनगदेव और उसकी राजधानी, उत्तरकुरु द्रह का स्थान, चन्द्रद्रह ऐरावण द्रह, माल्यवंत द्रह, जम्बूपीठ का स्थान, मणिपीठिका, जम्बू सुदर्शन वृक्ष की ऊंचाई, आयाम-विष्कंभ आदि का वर्णन है। जम्बूसुदर्शन की शाखाएँ, उन पर भवन द्वार, उपरिभाग में सिद्धायतन के द्वारों की ऊंचाई, विष्कंभ आदि वर्णित हैं। पार्श्ववर्ती अन्य जम्बूसुदर्शनों की ऊंचाई, अनाहत देव और उसका परिवार, चारों ओर के वनखण्ड, प्रत्येक वनखण्ड में भवन, नन्दापुष्करिणियां, उनके मध्य प्रासाद, उनके नाम, एक महान् कूट, उसकी ऊंचाई और आयाम-विष्कंभ आदि का वर्णन है। जम्बूसुदर्शन पर अष्ट मंगल, उसके १२ नाम, नाम का कारण, अनाहत देव की स्थिति, राजधानी का स्थान जम्बूद्वीप नाम की नित्यता और उनमें चन्द्र-सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारागण की संख्या आदि का वर्णन किया गया है। लवणसमुद्र-लवणसमुद्र का संस्थान, उसका चक्रवाल विष्कंभ, परिधि, पद्मवरवेदिका की ऊंचाई और वनखंड, लवणसमुद्र के द्वारों का अन्तर, लवणसमुद्र और धातकीखंड का परस्पर स्पर्श, परस्पर में जीवों की उत्पत्ति, नामकरण का कारण, लवणाधिपति सुस्थित देव की स्थिति, लवणसमुद्र की नित्यता, उसमें चन्द्र, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और ताराओं की संख्या, लवणसमुद्र की भरती और घटती और उसमें रहे हुए चार पाताल कलशों का वर्णन है। लवणाधिपति सुस्थित देव, गौतम द्वीप का स्थान, वनखंड, क्रीडास्थल, मणिपीठिका और नाम के कारण का उल्लेख है। जंबूद्वीप के चन्द्रद्वीप का स्थान, ऊंचाई, आयाम-विष्कंभ, क्रीडास्थल, प्रासादावतंसक, मणिपीठिका का परिमाण, नाम का हेतु आदि वर्णित हैं। इसी प्रकार जंबूद्वीप के सूर्य और उनके द्वीपों का वर्णन है। लवणसमुद्र के बाहर चन्द्र-सूर्य और उनके द्वीप, धातकीखण्ड के चन्द्र-सूर्य और उनके द्वीप, कालोदधि समुद्र के चन्द्र-सूर्य और उनके द्वीप, पुष्करवरद्वीप के चन्द्र सूर्य और उनके द्वीप, लवणसमुद्र में वेलंधर मच्छ कच्छप, बाह्य समुद्रों में वेलंधरों का अभाव, लवणसमुद्र का उदक का वर्णन, उसमें वर्षा आदि का सद्भाव किन्तु बाह्य समुद्रों में अभाव आदि का वर्णन है। धातकीखण्ड-धातकीखंड का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ, परिधि, पद्मवरवेदिका, वनखण्ड; द्वार, द्वारो का अन्तर, धातकीखण्ड और कालोदधि का परस्पर संस्पर्श और जीवोत्पत्ति, नाम का हेतु, धातकीखण्ड के वृक्ष और देव-देवियों की स्तुति, उसकी नित्यता तथा चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र-तारागण आदि का वर्णन है। कालोदसमुद्र-कालोदसमुद्र का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ परिधि, पद्मवरवेदिका, वनखंड, चार द्वार, उनका अन्तर, कालोदसमुद्र और पुष्करवर द्वीप का परस्पर स्पर्श एवं जीवोत्पत्ति, नाम का कारण, काल महाकाल देव की स्थिति, कालोदसमुद्र की नित्यता और उसके चन्द्र-सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारों आदि का वर्णन किया गया पुष्करवरद्वीप-पुष्करवरद्वीप का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ, परिधि, पद्मवरवेदिका, वनखंड, चार द्वार, [३२] Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका अन्तर, द्वीप और समुद्र के प्रदेशों का स्पर्श और परस्पर में जीवोत्पत्ति, नाम का हेतु, पद्म और महापद्म वृक्ष, पद्म और पुंडरीक देवों की स्थिति तथा इस द्वीप के चन्द्र सूर्य-ग्रह-नक्षत्र और तारागणों की संख्या आदि का वर्णन मानुषोत्तरपर्वत बीच में आ जाने से इस द्वीप के दो विभाग हो गये हैं। जंबूद्वीप, धातकीखण्ड और अर्ध पुष्करवरद्वीप को अढाई द्वीप, मनुष्यक्षेत्र अथवा समयक्षेत्र कहते हैं । समयक्षेत्र का आयाम विष्कंभ, परिधि, मनुष्यक्षेत्र के नाम का कारण तथा चन्द्र सूर्यादि का वर्णन है। मनुष्य लोक और उसके बाहर ताराओं की गति आदि, मानुषोत्तरपर्वत की ऊंचाई, पर्वत के नाम का कारण, लोकसीमा के अनेक विकल्प, मनुष्यक्षेत्र में चन्द्रादि ज्योतिष्क देवों की मण्डलाकार गति, इन्द्र के अभाव में सामानिक देवों द्वारा शासन, इन्द्र का विरह काल, पुष्करोदधि का संस्थान, चक्रवाल विष्कंभ परिधि, चार द्वार, उनका अन्तर, द्वीप समुद्र में जीवों की परस्पर उत्पत्ति आदि का कथन किया गया है। इसके पश्चात् वरुणवर द्वीप, वरुणवर समुद्र, क्षीरवर द्वीप, क्षीरोदसागर, घृतवर द्वीप, घृतवर समुद्र, क्षोदवर द्वीप-क्षोदवर समुद्र, नन्दीश्वर द्वीप-नन्दीश्वर समुद्र आदि असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं और अन्त में असंख्यात योजन विस्तृत स्वयंभूरमण समुद्र है, ऐसा कथन किया गया है। लवणसमुद्र से लगाकर कालोद, पुष्करोद वरुणोद, क्षोरोद, घृतोद, क्षोदोद तथा शेष समुद्रों के जल का आस्वाद बताया गया है। प्रकृति-रसवाले चार समुद्र, उदगरसवाले तीन समुद्र, बहुत कच्छ मच्छ वाले तीन समुद्र, शेष समुद्र अल्पमच्छ वाले कहे गये हैं। समुद्र के मत्स्यों की कुलकोटि, अवगाहना आदि का वर्णन है। देवों की दिव्य गति, बाह्य पुद्गलों के ग्रहण से ही विकुर्वणा, देव के वैक्रिय शरीर को छद्मस्थ नहीं देख सकता, बालक का छेदन-भेदन किये बिना बालक को छोटा-बड़ा करने का सामर्थ्य देव में होता है, यह वर्णन किया गया है। चन्द्र और सूर्यों के नीचे, बीच में और ऊपर रहने वाले ताराओं का वर्णन, प्रत्येक चन्द्र सूर्य के परिवार का प्रमाण, जंबूद्वीप के मेरु से ज्योतिष्क देवों की गति का अन्तर, लोकान्त में ज्योतिष्क देवों की गति-क्षेत्र का अन्तर, रत्नप्रभा के ऊपरी भाग से ताराओं का, सूर्यविमान का चन्द्रविमान का और सबसे ऊपर के तारे के विमान का अन्तर भी बताया गया है। इसी प्रकार अधोवर्ती तारे से सूर्य चन्द्र और सर्वोपरि तारे का अन्तर, जंबूद्वीप में सर्वाभ्यन्तर, सर्व बाह्य, सर्वोपरि सर्व अधो गति करने वाले नक्षत्रों का वर्णन, चन्द्र विमान यावत् तारा विमान का विष्कंभ, परिधि, चन्द्रसूर्य-ग्रह-नक्षत्रों के विमानों को परिवहन करने वाले देवों की संख्या, चन्द्रादि की गति, अग्रमहिषियाँ, उनकी विकुर्वणा आदि का वर्णन भी किया गया है। वैमानिक देवों का वर्णन-वैमानिक देवों का वर्णन करते हुए शक्रेन्द्र की तीन परिषद्, उनके देवों की संख्या, स्थिति, यावत् अच्युतेन्द्र की तीन परिषद् आदि का वर्णन है। अहमिन्द्र गैवेयक व अनुत्तर विमान के देवों का वर्णन है। सौधर्म-ईशान से लेकर अनुत्तर विमानों का आधार, बाहल्य, संस्थान, ऊंचाई, आयाम, विष्कंभ, परिधि, वर्ण, प्रभा, गंध और स्पर्श का उल्लेख किया गया है। सर्व विमानों की पौद्गलिक रचना, जीवों और पुद्गलों का चयोपचय, जीवों की उत्पत्ति का भिन्न-भिन्न क्रम, सर्व जीवों से सर्वथा रिक्त न होना, देवों की भिन्न भिन्न अवगाहना का वर्णन है। ग्रैवेयक और अनुत्तर देवों में [३३] Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विक्रिया करने की शक्ति होने पर भी वे विक्रिया नहीं करते, देवों में संहनन का अभाव है, केवल शुभ पुद्गलों का परिणमन होता है। देवों में समचतुरस्त्र संस्थान है। वैमानिक देवों के अवधिज्ञान की भिन्न भिन्न अवधि, भिन्न भिन्न समुद्घात और भिन्न भिन्न वर्ण- गंध, रस और स्पर्श होते हैं। इन देवों में क्षुधा पिपासा के वेदन का अभाव, भिन्न प्रकार की वैक्रिय शक्ति, सातावेदनीय, वेशभूषा, कामभोग, भिन्न भिन्न गति का वर्णन किया गया है। भिन्न तदनन्तर नैरयिक - तिर्यंच - मनुष्य और देवों की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति तथा जघन्य और उत्कृष्ट संचिट्ठाणा काल, जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एवं उनका अल्पबहुत्व बताया गया है। इस प्रकार इस तृतीय प्रतिपत्ति में चार प्रकार के संसारी जीवों को लेकर विस्तृत विवेचन किया गया है। चतुर्थ प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीवों के पांच प्रकार बताये गये हैं- एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय । इनके भेद-प्रभेद, जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति संस्थितिकाल और अल्पबहुत्व बताये गये 1 पंचम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीवों को छब विभागों में विभक्त किया गया है - पृथ्वीकाय यावत् त्रकाय । इसके भेद - प्रभेद, स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व बताये गये हैं। इसमें निगोद का वर्णन स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्प- बहुत्व प्रतिपादित हैं । षष्ठ प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में सांसारिक जीव सात प्रकार के कहे गये हैं-नैरयिक, तिर्यंच, तिर्यंचनी, मानुषी, देव और देवी । इनकी स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व बताये गये हैं । मनुष्य, सप्तम प्रतिपत्ति- इसमें आठ प्रकार के संसारी जीव बताये गये हैं। प्रथम समय नैरयिक, अप्रथम समय नैरयिक, प्रथम समय तिर्यंच, अप्रथम समय तिर्यंच, प्रथम समय मनुष्य, अप्रथम समय मनुष्य, प्रथम समय देव और अप्रथम समय देव । इन आठों प्रकार के संसारी जीवों की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्प - बहुत्व प्रतिपादित किया है। अष्टम प्रतिपत्ति - इस प्रतिपत्ति में संसारवर्ती जीवों के नौ प्रकार बताये हैं- पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक द्वीन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय । इन नौ की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का विवेचन है। नौवीं प्रतिपत्ति- इस प्रतिपत्ति में संसारवर्ती जीवों के दस भेद प्रतिपादित किये हैं-प्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर प्रथम समय पंचेन्द्रिय तक ५ और अप्रथम समय एकेन्द्रिय से लेकर अप्रथम समय पंचेन्द्रिय तक पांच । दोनों मिलकर दस प्रकार हुए। इन जीवों की स्थिति, संस्थिति, अन्तर और अल्पबहुत्व का निरूपण किया गया है। तदनन्तर इस प्रतिपत्ति में जीवों के सिद्ध-असिद्ध सेन्द्रिय- अनिन्द्रिय, ज्ञानी- अज्ञानी, आहारक- अनाहारक, भाषक - अभाषक, सम्यग्दृष्टि-मिथ्यादृष्टि, परित्त अपरित्त, पर्याप्तक अपर्याप्तक, सूक्ष्म- बादर, संज्ञी - असंज्ञी, भवसिद्धिक-अभवसिद्धिक रूप से भेदों का विधान किया गया है तथा योग, वेद दर्शन, संयत, असंयत, कषाय, ज्ञान, शरीर, काय, लेश्या, योनि इन्द्रिय आदि की अपेक्षा से वर्णन किया गया है। उपसंहार - इस प्रकार प्रस्तुत आगम में जीव और अजीव का अभिगम है। दो विभागों में इनका निरूपण किया गया है। प्रथम विभाग में अजीव का और संसारी जीवों का निरूपण है तो दूसरे विभाग में संसारी और सिद्ध दोनों का समावेश हो जाय, इस प्रकार भेद निरूपण है। प्रस्तुत आगम में द्वीप और सागरों का विस्तार से वर्णन है। प्रसंगोपात्त, इसमें विविध लौकिक और सामाजिक, भौगोलिक और खगोल संबंधी जानकारियां भी [३४] Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपलब्ध होती हैं। सोलह प्रकार के रत्न, अस्त्र-शस्त्रों के नाम, धातुओं के नाम, विविध प्रकार के पात्र, विविध आभूषण भवन, वस्त्र, ग्राम, नगर आदि का वर्णन है। त्यौहार, उत्सव, नृत्य, यान आदि के विविध नाम भी इसमें वर्णित हैं। कला, युद्ध व रोग आदि के नाम भी उल्लिखित हैं। इसमें उद्यान, वापी, पुष्करिणी, कदलीघर, प्रसाधनघर और स्त्री-पुरुष के अंगों का सरस एवं साहित्यिक वर्णन भी है। प्राचीन सांस्कृतिक सामग्री की इसमें प्रचुरता है। प्राचीन भारत के सामाजिक जीवन के विभिन्न पक्षों के अध्ययन की दृष्टि से इस आगम का बहुत महत्त्व है। व्याख्या-साहित्य जीवाभिगम का व्याख्या - साहित्य वर्तमान में इस प्रकार उपलब्ध है। जीवाभिगम पर न निर्युक्ति लिखी गई और न कोई भाष्य ही लिखा गया। हाँ इस पर सर्वप्रथम व्याख्या के रूप में चूर्णि प्राप्त होती है, पर वह चूर्णि अप्रकाशित है, इसलिए उस चूर्णि के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि वह चूर्णि जिनदास गणि महत्तर की है या संघदास गणि की है। वाभिगम पर संस्कृत भाषा में आचार्य मलयगिरि की वृत्ति मिलती है। यह वृत्ति जीवाभिगम के पदों के विवेचन के रूप में है । जीवाभिगमवृत्ति प्रस्तुत वृत्ति जीवाभिगम के पदों के विवेचन के रूप में है। इस वृत्ति में अनेक ग्रन्थों और ग्रन्थकारों का नामोल्लेख किया गया है - जैसे कि धर्मसंग्रहणीटीका, प्रज्ञापनाटीका, प्रज्ञापना-मूल- टीका, तत्त्वार्थ मूल - टीका, सिद्धप्राभृत, विशेषणवती, जीवाभिगममूल- टीका, पंचसंग्रह, कर्मप्रकृति संग्रहणी, क्षेत्र- समास टीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति - टीका, कर्मप्रकृतिसंग्रहणी चूर्णि, वसुदेवचरित, जीवाभिगमचूर्णि, चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका, सूर्यप्रज्ञसिटीका, देशीनाममाला, सूर्यप्रज्ञप्तिनिर्युक्ति, पंचवस्तुक, आचार्य हरिभद्ररचित तत्त्वार्थटीका, तत्त्वार्थ भाष्य, विशेषावश्यक भाष्य स्वोपज्ञवृत्ति, पंचसंग्रहटीका प्रभृति । इन ग्रन्थों में से अनेक ग्रन्थों के उद्धरण भी टीका में प्रयुक्त हुए हैं। वृत्ति के प्रारम्भ में मंगल के प्रयोजन पर प्रकाश डालते हुए आगे के सूत्रों में तन्तु और पट के सम्बन्ध में भी विचार चर्चा की गई है और माण्डलिक, महामाण्डलिक, ग्राम, निगम, खेट, कर्वट, मडम्ब, पत्तन, द्रोणमुख, आकर, आश्रम, सम्बाध, राजधानी प्रभृति मानव बस्तियों के स्वरूप पर चिन्तन किया गया है। वृत्ति में ज्ञानियों के भेदों पर चिन्तन करते हुए यह बताया है कि सिद्धप्राभृत में अनेक ज्ञानियों का उल्लेख है। नरकावासों के सम्बन्ध में बहुत ही विस्तार से प्रकाश डाला है और क्षेत्रसमासटीका, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिटीका के अवलोकन का संकेत किया है। नारकीय जीवों की शीत और उष्ण वेदना पर विचार करते हुए प्रावृट्, वर्षारात्र, शरद्, हेमन्त, वसन्त और ग्रीष्म- इन छः ऋतुओं का वर्णन किया है। प्रथम शरद् कार्तिक मास को बताया गया है। ज्योतिष्क देवों के विमानों का चिन्तन करते हुए विशेष जिज्ञासुओं को चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति एवं संग्रहणी टीकाएँ देखने का निर्देश किया गया है. एकादश अलंकारों का भी इसमें वर्णन है और राजप्रश्नीय में उल्लिखित ३२ प्रकार की नाट्यविधि का भी सरस वर्णन किया गया है। प्रस्तुत वृत्ति को आचार्य ने 'विवरण' शब्द से व्यवहृत किया है और इस विवरण का ग्रन्थमान १६०० श्लोक प्रमाण है । [३५] Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाभिगम पर आचार्य श्री अमोलकऋषि जी म० ने आगम-बत्तीसी के साथ हिन्दी अनुवाद किया वह अनुवाद भावानुवाद के रूप में है। __ इसके पश्चात् स्थानकवासी परम्परा के आचार्य श्री घासीलाल जी म० ने जीवाभिगम पर संस्कृत में अपनी विस्तृत टीका लिखी। इस टीका का हिन्दी और गुजराती में भी अनुवाद प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त जीवाभिगम को सन् १८८३ में मलयगिरि वृत्ति सहित गुजराती विवेचन के साथ रायबहादुर धनपतसिंह ने अहमदाबाद से प्रकाशित किया। देवचन्द लालभाई पुस्तकोद्धारक फण्ड, बम्बई से सन् १९१९ में जीवाभिगम का मलयगिरि वृत्ति सहित प्रकाशन हुआ है। पर हिन्दी में ऐसे प्रकाशन की आवश्यकता चिरकाल से अनुभव की जा रही थी जो अनुवाद सरल-सुगम और मूल विषय को स्पष्ट करने वाला हो। स्वर्गीय युवाचार्य श्री मधुकर मुनिजी ने जैन आगम प्रकाशन समिति का निर्माण किया। उस समिति के द्वारा मूर्धन्य मनीषियों के द्वारा आगमों का अनुवाद और विवेचन प्रकाशित हुआ। उसी क्रम में प्रस्तुत जीवाभिगम का भी प्रकाशन हो रहा है। यह अत्यन्त आह्लाद का विषय है कि बहुत ही स्वल्प समय में अनेक मनीषियों के सहयोग के कारण आगम-बत्तीसी का कार्य प्रायः पूर्ण होने जा रहा है। प्रस्तुत आगम का सम्पादन मेरे सुशिष्य श्री राजेन्द्र मुनि के द्वारा हो रहा है। राजेन्द्र मुनि एक युवा मुनि हैं। इसके पूर्व उन्होंने उत्तराध्ययन सूत्र का भी सुन्दर सम्पादन किया था और अब द्रव्यानुयोग का यह अपूर्व आगम सम्पादन कर अपनी आगमरुचि का परिचय दिया है। अनुवाद और विवेचन मूल आगम के भावों को सुस्पष्ट करने में सक्षम है। प्रस्तुत सम्पादन जन-जन के मन को भाएगा और वे इस आगम का स्वाध्याय कर अपने ज्ञान की अभिवृद्धि करेंगे, ऐसी आशा है। ____ मैं प्रस्तुत आगम पर पूर्व आगमों की प्रस्तावनाओं की तरह विस्तृत प्रस्तावना लिखना चाहता था पर सामाजिक कार्यों में और भीड़ भरे वातावरण में चाहते हुए भी नहीं लिख सका। संक्षिप्त में जो प्रस्तावना दी जा रही है, उससे भी पाठकों को आगम की महत्ता का सहज परिज्ञान हो सकेगा। परण श्रद्धेय महामहिम राष्ट्रसन्त आचार्य सम्राट श्री आनन्दऋषिजी म. की असीम कृपा मुझ पर रही है और परमादरणीय पूज्य गुरुदेव श्री पुष्करमुनिजी म. का हार्दिक आशीर्वाद मेरे साथ है। इन महान पुरुषों की कपा के कारण ही मैं आज कछ भी प्रगति कर सका है। इनकी सदा-सर्वदा कृपा बनी रहे, इनकी निर्मल छत्र-छाया में हम अपना आध्यात्मिक समुत्कर्ष करते रहें, यही मंगल-मनीषा। मन्दसौर, दिनांक १०-३-८९ -उपाचार्य देवेन्द्र मुनि [३६] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषयानुक्रम प्राथमिक उपोद्घात द्विविधाख्या प्रथम प्रतिपत्ति मंगलमय प्रस्तावना स्वरूप और प्रकार धर्मास्तिकाय की सिद्धि अधर्मास्तिकाय अद्धासमय . रूपी अजीव जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार संसारसमापन्न जीवाभिगम प्रथम प्रतिपत्ति का कथन पृथ्वीकाय का कथन पर्याप्ति का स्वरूप किसके कितनी पर्याप्तियां पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद सूक्ष्मपृथ्वीकायिक के २३ द्वारों का निरूपण बादर पृथ्वीकाय का वर्णन अप्काय का अधिकार बादर अप्कायिक वनस्पतिकायिक जीवों का अधिकार बादर वनस्पतिकायिक साधारण वनस्पति का स्वरूप प्रत्येकशरीरी वनस्पति के लक्षण वसों का प्रतिपादन सूक्ष्म-बादर तेजस्कायिक " , वायुकाय औदारिक त्रसों का वर्णन द्वीन्द्रियवर्णन त्रीन्द्रियों का वर्णन चतुरिन्द्रियों का वर्णन नैरयिक वर्णन तिर्यक् पञ्चेन्द्रियों का कथन [३७] Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जलचरों का वर्णन स्थलचरों का वर्णन खेचर वर्णन गर्भज जलचरों का वर्णन ,, स्थलचरों का वर्णन खेचर वर्णन मनुष्यों का प्रतिपादन देवों का वर्णन भवस्थिति का वर्णन त्रिविधाख्या द्वितीय प्रतिपत्ति तीन प्रकार के संसारसमापनक जीव स्त्रियों का वर्णन स्त्रियों की भवस्थिति का प्रतिपादन तिर्यंचस्त्री आदि की पृथक् पृथक् भवस्थिति मनुष्यस्त्रियों की स्थिति देवस्त्रियों की स्थिति वैमानिक देवस्त्रियों की स्थिति तिर्यंचस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल मनुष्यस्त्रियों का (स्त्रियों का) अन्तरद्वार " , अल्पबहुत्व स्त्रीवेद की स्थिति पुरुष सम्बन्धी प्रतिपादन पुरुष की कायस्थिति तिर्यंच पुरुषों की स्थिति ११४ ११५ १२० १२१ १२१ १२३ १२८ १३१ १३३ १३७ १३९ १४३ १४५ १४६ १४६ देव " १४७ १४९ १५२ . १५६ १६१ पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल अन्तरद्वार अल्पबहुत्व पुरुषवेद की स्थिति नपुंसक की स्थिति नपुंसकों की कायस्थिति अन्तर नपुंसकों का अल्पबहुत्व नपुंसकवेद की बन्धस्थिति और प्रकार १६४ १६७ १७१ १७३ [३८] Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवविध अल्पबहुत्व समुदायरूप में स्त्री-पुरुष - नपुंसकों की स्थिति स्त्रियों की पुरुषों से अधिकता चतुर्विधाख्या तृतीय प्रतिपत्ति (प्रथम उद्देशक ) चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीव नारकावासों की संख्या घनोदधि आदि की पृच्छा रत्नादिकाण्डों का बाहल्य रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता नरकों का संस्थान सातों पृथ्वियों की अलोक से दूरी घनोदधि वातवलय का तिर्यग् बाहल्य अपान्तराल और बाहल्य का यंत्र सर्वजीव- पुद्गलों का उत्पाद ( रत्नप्रभा - पृथ्वी) शाश्वत या अशाश्वत ? पृथ्वियों का विभागवार अन्तर बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि (द्वितीय उद्देशक ) नरकभूमियों का वर्णन नारकावासों का संस्थान के वर्णादि " नारकावास कितने बड़े हैं ? नरकावासों में विकार उपपात संख्याद्वार अवगाहनादर्शक यंत्र संहनन संस्थानद्वार लेश्या आदि द्वार नारकों की भूख-प्यास एक-अनेक विकुर्वणा-वेदनादि नरकों में उष्णवेदना का स्वरूप नरकों में शीतवेदना का स्वरूप नैरयिकों की स्थिति स्थितिदर्शक विभिन्न यंत्र [३९] १८१ १९२ १९२ १९४ १९८ २०१ २०२ २०३ २०६ २०६ २०९ २१० २१२ २१४ २१७ २१९ २२२ २२५ २२७ २२९ २३१ २३१ २३२ २३५ २३८ २३९ २४२ २४२ २४७ २४९ २५० २५१ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्वर्तना नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शादि-निरूपण उद्देशाकार्शसंग्रहिणी गाथाएँ (तृतीय उद्देशक ) नरकों का पुद्गलपरिणाम तिर्यग् अधिकार तिर्यग्योनिकों के भेद तिर्यंच संबंधी द्वारप्ररूपणा गंधांगप्ररूपण विमानों के विषय में प्रश्न तिर्यग्योनिक अधिकार का द्वितीय उद्देशक पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी निर्लेप सम्बन्धी कथन विशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन सम्यग् - मिथ्या क्रिया का एक साथ न होना मनुष्य का अधिकार मनुष्यों के भेद कोरुक मनुष्यों के एकोरुक द्वीप का वर्णन कोरुक द्वीप के भूमिभागादि का वर्णन मादिवर्णन मत्तांगकल्पवृक्ष का वर्णन भृतांग त्रुटितांग दीपशिखा ज्योतिशिखा " मण्यंग गेहाकार "" "" " "" " "" चित्रांग नामक कल्पवृक्ष चित्ररस " "" "" "} "" " अनग्नकल्पवृक्ष कोरुक द्वीप के मनुष्यों का वर्णन कोरुक - स्त्रियों का वर्णन कोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन कोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि अकर्मभूमि- कर्मभूमिज मनुष्य [४०] २५४ २५४ २५७ २५९ २६४ २६४ २६८ २७२ २७५ २७९ २८० २८४ २८५ २८८ २९० २९० २९१ २९३ २९४ २९५ २९६ २९६ २९७ २९७ २९८ २९८ २९९ ३०० ३०१ ३०२ ३०५ 2 ३०८ ३१७ ३२३ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४ ३२५ ३३० ३३३ ३३८ ३४२ ३४४ अट्ठाईस अन्तरर्दीपिकों के कोष्ठक देववर्णन चमरेन्द्र की परिषद् का वर्णन नागकुमारों की वक्तव्यता वान-व्यन्तरों का अधिकार ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीप-समुद्रवक्तव्यता जम्बूद्वीप-वर्णन पद्मवरवेदिका-वर्णन वनखण्डवर्णन वनखण्ड की बावड़ियों आदि का वर्णन जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या-वर्णन सुधर्मा सभा का वर्णन सिद्धायतन-वर्णन उपपातादि-सभावर्णन विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक आदि वैजयन्त आदि द्वार जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? काञ्चनपर्वतों का अधिकार जम्बूवृक्ष-वक्तव्यता जम्बूद्वीप में चन्द्रादि की संख्या ३४५ ३४७ ३५० ३६३ ३६९ ३९१ ३९९ ४०२ ४०५ ४२७ ४३० ४४० [४१] Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. २. ३. ४. ५. ६. ७. ८. ९. १०. ११. १२. १३. १४. १५. १६. १७. १८. १९. २०. २१. २२. २३. २४. ܬܘ २५. २६. आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर ( कार्यकारिणी समिति ) श्रीमान् सागरमलजी बैताला श्रीमान् रतनचन्दजी मोदी श्रीमान् धनराजजी विनायकिया श्रीमान् भंवरलालजी गोठी श्रीमान् हुक्मीचन्दजी पारख श्रीमान् दुलीचन्दजी चोरड़िया श्रीमान् जसराजजी पारख श्रीमान् सरदारमलजी चोरड़िया श्रीमान् ज्ञानराजजी मूथा श्रीमान् ज्ञानचन्दजी विनायकिया श्रीमान् प्रकाशचंदजी चौपड़ा श्रीमान् जंवरीलालजी शिशोदिया श्रीमान् आर. प्रसन्नचन्द्रजी चोरड़िया श्रीमान् माणकचन्दजी संचेती श्रीमान् रिखबचंदजी लोढ़ा श्रीमान् एस. सायरमलजी चोरड़िया श्रीमान् मूलचन्दजी सुराणा श्रीमान् मोतीचन्दजी चोरड़िया श्रीमान् अमरचंदजी मोदी श्रीमान् किशनलालजी बैताला श्रीमान् जतनराजजी मेहता श्रीमान् देवराजजी चोरड़िया श्रीमान् गौतमचंदजी चोरड़िया श्रीमान् सुमेरमलजी मेड़तिया श्रीमान् प्रकाशचन्दजी चोरड़िया श्रीमान् प्रदीपचंदजी चोरड़िया अध्यक्ष कार्यवाहक अध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष उपाध्यक्ष महामन्त्री मन्त्री मन्त्री सहमन्त्री कोषाध्यक्ष कोषाध्यक्ष परामर्शदाता परामर्शदाता सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य सदस्य इन्दौर ब्यावर ब्यावर चैन्नई जोधपुर चैन्नई दुर्ग चैन्नई पाली ब्यावर ब्यावर ब्यावर चैन्नई जोधपुर चैन्नई चैन्नई नागौर चैन्नई ब्यावर चैन्नई मेड़तासिटी चैन्नई चैन्नई जोधपुर चैन्नई चैन्नई Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवाजीवाभिगमसुत्तं जीवाजीवाभिगमसूत्र Page #45 --------------------------------------------------------------------------  Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक उपोद्घात जगत् हितंकर, विश्ववंद्य देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा ने जगज्जीवों को संसार-सागर से पार करने, उन्हें सांसारिक आधि-व्याधि-उपाधियों से उबारने के लिए एवं अनादिकालीन कर्मबन्धनों से छुटकारा दिलाकर मुक्ति के अनिर्वचनीय सुख-सुधा का पान कराने हेतु प्रवचन का प्ररूपण किया है। यह प्रवचन संसार के प्राणियों को भवोदधि से तारने वाला होने से 'तीर्थ' कहलाता है। प्रवचन तीर्थ है और तीर्थ प्रवचन है। प्रवचनरूप तीर्थ की रचना करने के कारण भगवान् अरिहंत तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रवचन द्वादशांग गणिपिटक रूप है। प्रवाह की अपेक्षा से प्रवचन अनादि अनन्त होने पर भी विवक्षित तीर्थंकर की अपेक्षा वह आदिमान् है। अतः 'नमस्तीर्थाय' कहकर तीर्थंकर परमात्मा भी अनादि अनन्त तीर्थ को नमस्कार करते हैं। द्वादशांग गणिपिटक में उपयोगयुक्त रहने के कारण चतुर्विध श्रमणसंघ भी तीर्थ या प्रवचन कहा जाता है। तीर्थंकर प्ररूपित यह प्रवचन द्वादशांगरूप है। तीर्थंकर परमात्मा अर्थरूप से इसका निरूपण करते हैं और विशिष्ट मति वाले गणधर सूत्ररूप में उसे ग्रथित करते हैं।' ___ सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा द्वारा उपदिष्ट और विशिष्टमतिसम्पन्न चार ज्ञान, चौदह पूर्वो के धारक गणधरों द्वारा गुम्फित यह द्वादशांगी श्रुत-पुरुष की अंगरूप है। जो इस द्वादशांगी से अविरुद्ध और श्रुतस्थविरों द्वारा रचित हो वह श्रुत-पुरुष के उपांगरूप है। इस अपेक्षा से श्रुतसाहित्य अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट के रूप से दो प्रकार का हो जाता है। ___जो गणधरों द्वारा रचित हो, जो प्रश्न किये जाने पर उत्तररूप हो, जो सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में नियत हो वह श्रुत अंगप्रविष्टश्रुत है। आचारांग से लगाकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंग, अंगप्रविष्ट श्रुत हैं। जो श्रुतस्थविरों द्वारा रचित हो, जो अप्रश्नपूर्वक मुक्तव्याकरण रूप हो तथा जो सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में अनियत रूप हो वह अनंगप्रविष्टश्रुत है। जैसे औपपातिक आदि बारह उपांग और मूल, छेदसूत्र आदि। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र तृतीय उपांग है। स्थानांग नामक तीसरे अंग का यह उपांग है। यह श्रुतस्थविरों द्वारा संदृब्ध (रचित) है। अंगबाह्यश्रुत कालिक और उत्कालिक के भेद से दो प्रकार के हैं। जो १. जगजीवरक्खणदयट्ठयाए भगवया पावयणं कहियं। -प्रश्रव्याकरण २. प्रगतं जीवादिपदार्थव्यापकं, प्रधानं, प्रशस्तं, आदौ वा वचनं प्रवचनम् द्वादशांगं गणिपिटकम् । -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १ टीका गणिपिटकोपयोगानन्यत्वाद् वा चतुर्विधश्रीश्रमणसंघोऽपि प्रवचनमुच्यते ।। -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १ टीका अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। गणधर थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा। धुव-चलविसेसओ वा अंगाणंगेस नाणतं ॥ -विशेषावश्यकभाष्य,गाथा ५५० Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र श्रुत अस्वाध्याय को टालकर दिन-रात के चारों प्रहर में पढ़े जा सकते हैं वे उत्कालिक हैं, यथा दशवैकालिक आदि और जो दिन और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही पढ़े जाते हैं वे कालिकश्रुत हैं, यथा उत्तराध्ययन आदि। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्कालिकसूत्र है।' जीवाजीवाभिगम-अध्ययन एक प्रवृत्ति है और कण्टकशाखा मर्दन की तरह निरर्थक प्रवृत्ति बुद्धिमानों की नहीं होती। अतएव ग्रन्थ के आरम्भ में प्रयोजन, अभिधेय और सम्बन्ध के साथ मंगल अवश्य ही बताया जाना चाहिए। १. प्रयोजन-प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) अनन्तरप्रयोजन और (२) परम्परप्रयोजन। पुनः प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) कर्तृगतप्रयोजन और (२) श्रोतृगतप्रयोजन। कर्तगतप्रयोजन-प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम अध्ययन द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कर्तृरहित है, क्योंकि वह शाश्वत है, नित्य है। आगम में कहा है-'यह द्वादशांग गणिपिटक पूर्वकाल में नहीं था, ऐसा नहीं; वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं; भविष्य में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं। यह ध्रुव है नित्य है, शाश्वत है। नित्य वस्तु का कोई कर्ता नहीं होता। पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा इसके कर्ता अर्थापेक्षया अर्हन्त हैं और सूत्रापेक्षया गणधर हैं। अर्थरूप आगम तो नित्य है किन्तु सूत्ररूप आगम अनित्य है। अतः सूत्रकार का अनन्तर प्रयोजन जीवों पर अनुग्रह करना है और परम्पर प्रयोजन अपवर्गप्राप्ति है। यहाँ पर शंका की जा सकती है कि अर्थरूप आगम के प्रणेता श्री अर्हन्त भगवान् का अर्थप्रतिपादन का क्या प्रयोजन है ? वे तो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनमें प्रयोजनवत्ता कैसे घटित हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि तीर्थंकर परमात्मा कृतकृत्य हो चुके हैं, अतएव उनमें प्रयोजनवत्ता घटित नहीं होती तदपि वे तीर्थंकर नामकर्म के उदय से अर्थ प्रतिपादन में प्रवृत्त होते हैं। जैसा कि कहा गया है-'तीर्थंकर नामकर्म का वेदन कैसे होता है ? अग्लान भाव से धर्मदेशना देने से तीर्थंकर नामकर्म का वेदन होता है।' श्रोतृगतप्रयोजन-श्रोता का अनन्तर प्रयोजन विवक्षित अध्ययन के अर्थ को जानना है और उसका परम्पर-प्रयोजन निःश्रेयस् पद की प्राप्ति है। विवक्षित अर्थ को समझने के पश्चात् संयम में श्रोता की प्रवृत्ति होगी और संयम-प्रवृत्ति से सकल कर्मों का क्षय करके वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। १. उक्कालियं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा-दसवेयालियं, कप्पिया, कप्पियं, चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं, उववाइयं रायपसेणियं जीवाभिगमो ..........। -नंदीसूत्र । प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ फलादि त्रितयं स्फुटम् । मंगलञ्चैव शास्त्रादौ वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥ -जीवा. मलयगिरि टीका एवं दुवालसंगं गणिपिडगं न कया वि नासी, न कयाइ वि न भवइ, न कया वि न भविस्सइ। ध्रुवं णिच्चं सासयं। -नंदीसूत्र ४. तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाए। -आवश्यकनियुक्ति Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राथमिक उपोद्घात] इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन को प्रारम्भ करने का प्रयास प्रयोजनयुक्त है, निष्प्रयोजन नहीं। २. अभिधेय-प्रस्तुत शास्त्र का अभिधेय (विषय) जीव और अजीव के स्वरूप को प्रतिपादित करना है। जैसा कि इसके नाम से ही स्पष्ट हो जाता है। जीवों और अजीवों का अभिगम अर्थात् परिच्छेद-ज्ञान जिसमें हो या जिसके द्वारा हो वह जीवाजीवाभिगम अध्ययन है। सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र को सार्थक नाम से विभूषित किया है। ३. सम्बन्ध-प्रस्तुत शास्त्र में दो प्रकार का सम्बन्ध है-(१) उपायोपेयभावसम्बन्ध और (२) गुरुपर्वक्रमरूप सम्बन्ध । तर्क का अनुसरण करने वालों की अपेक्षा से उपायोपेयभावसम्बन्ध है। नय तथा वचनरूप प्रकरण उपाय है और उसका परिज्ञान उपेय है। गुरुपर्वक्रमरूप सम्बन्ध केवल श्रद्धानुसारियों की अपेक्षा से है। अर्थ की अपेक्षा यह जीवाजीवाभिगम तीर्थंकर परमात्मा ने कहा है और सूत्र की अपेक्षा द्वादशांगों में गणधरों ने कहा है। इसके पश्चात् मन्दमतिजनों के हित के लिए अतिशय ज्ञान वाले चतुर्दश-पूर्वधरों ने स्थानांग नाम तृतीय अंग से लेकर पृथक् अध्ययन के रूप में इस जीवाजीवाभिगम का कथन किया और उसे व्यवस्थापित किया है। अतः यह तृतीय उपांगरूप में कहा गया है। ऐसे ही सम्बन्धों का विचार कर सूत्रकार ने 'थेरा भगवंतो पण्णवइंसु' कहा है। ४. मंगल-प्रस्तुत अध्ययन सम्यग्ज्ञान का हेतु होने से तथा परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला होने से स्वयमेव मंगलरूप है, तथापि श्रेयांसि बहुविघ्नानि' के अनुसार विघ्नों की उपशान्ति के लिए तथा शिष्य की बुद्धि में मांगलिकता का ग्रहण कराने के लिए शास्त्र में मंगल करने की परिपाटी है। इस शिष्टाचार के पालन में ग्रन्थ के आदि, मध्य और अन्त में मंगलाचरण किया जाता है। आदि मंगल का उद्देश्य ग्रन्थ की निर्विघ्न समाप्ति और शास्त्रार्थ में होने वाले विघ्नों से पार होना है। मध्यमंगल उसकी स्थिरता के लिए है तथा शिष्य-प्रशिष्य परम्परा तक ग्रन्थ का विच्छेद न हो, इसलिए अन्तिम मंगल किया जाता है। प्रस्तुत अध्ययन में 'इह खलु जिणमयं' आदि मंगल है। जिन नाम का उत्कीर्तन मंगल रूप है। द्वीप-समुद्र आदि के स्वरूप का कथन मध्यमंगल है। क्योंकि निमित्तशास्त्र में द्वीपादि को परम मंगलरूप में माना गया है। जैसा कि कहा है-'जो जं पसत्थं अत्थं पुच्छइ तस्स अत्थसंपत्ती।' 'दसविहा सव्वे जीवा' यह अन्तिम मंगल है। सब जीवों के परिज्ञान का हेतु होने से इसमें मांगलिकता अथवा सम्पूर्ण शास्त्र ही मंगलरूप है। क्योंकि वह निर्जरा का हेतुभूत है। जैसे तप निर्जरा का कारण १. जीवानामजीवानामभिगमः परिच्छेदो यस्मिन तज्जीवाजीवाभिगमं नाम्ना। तं मंगलमाईए मज्झे पज्जंतए य सत्थस्स। पढमं सत्थत्थाविग्धपारगमणाय निद्दिटुं॥ तस्सेव य थेज्जत्थं मज्झिमयं अंतिमंपि तस्सेव। अव्वोच्छित्ति निमित्तं सिस्सपसिस्साइवंसस्स। विशेषा. भाष्य २. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र होने से मंगलरूप है। शास्त्र सम्यग्ज्ञानरूप होने से निर्जरा का कारण होता है। क्योंकि कहा गया है कि 'अज्ञानी जिन कर्मों को बहुत से करोड़ों वर्षों में खपाता है, उन्हें मन-वचन-काया से गुप्त ज्ञानी उच्छ्वासमात्र काल में खपा डालता है। इस प्रकार प्रयोजनादि तीन तथा मंगल का कथन करने के पश्चात् अध्ययन का आरम्भ किया जाता है। जं अण्णाणी कम्मं खबेइ बहुयाहिं वासकोडीहिं। तं नाणी तिहिं गुत्तो खवेइ ऊसासमित्तेणं ॥ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति मंगलमय प्रस्तावना १. इह खलु जिणमयं, जिणाणुमयं, जिणाणुलोमं, जिणप्पणीयं, जिणपरूवियं, जिणक्खायं, जिणाणुचिन्नं, जिणपण्णत्तं, जिणदेसियं, जिणपसत्थं, अणुव्वीइयतं सद्दहमाणा, तं पत्तियमाणा, तं रोयमाणा थेरा भगवंतो जीवाजीवाभिगमणाममज्झयणं पण्णवइंसु। [१] इस मनुष्य लोक में अथवा जैन प्रवचन में तीर्थंकर परमात्मा के सिद्धान्तरूप द्वादशांग गणिपिटक का, जो अन्य सब तीर्थंकरों द्वारा अनुमत है, जिनानुकूल है, जिन-प्रणीत है, जिनप्ररूपित है, जिनाख्यात है, जिनानुचीर्ण है, जिनप्रज्ञप्त है, जिनदेशित है, जिनप्रशस्त है, पर्यालोचन कर उस पर श्रद्धा करते हुए, उस पर प्रतीति करते हुए, उस पर रुचि रखते हुए स्थविर भगवंतों ने जीवाजीवाभिगम नामक अध्ययन प्ररूपित किया। विवेचन-इस प्रथम सूत्र में मंगलाचरण की शिष्टपरिपाटी का निर्वाह करते हुए ग्रन्थ की प्रस्तावना बताई गई है। विशिष्ट मतिसम्पन्न चतुर्दशपूर्वधर श्रुतस्थविर भगवंतों ने तीर्थंकर परमात्मा के द्वादशांगीरूप • गणिपिटक का भलीभाँति पर्यालोचन एवं अनुशीलन कर, परम सत्य के रूप में उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि करके जीवाजीवभिगम नामक अध्ययन का प्ररूपण किया। सूत्र में आया हुआ 'जिणमयं'-जैन सिद्धान्त पद विशेष्य है और 'जिणाणुमयं' से लगाकर 'जिणपसत्थं' तक के पद 'जिणमयं' के विशेषण हैं। इन विशेषणों के द्वारा सूत्रकार ने जैन सिद्धान्त की महिमा एवं गरिमा का वर्णन किया है। ये सब विशेषण 'जैनमत' की अलग-अलग विशेषताओं का प्रतिपादन करते हैं। प्रत्येक विशेषण की सार्थकता इस प्रकार है जिणाणुमय-यह जैनसिद्धान्त जिनानुमत है। वर्तमानकालीन जैनसिद्धान्त चरम तीर्थंकर जिनशासननायक वर्तमान तीर्थाधिपति श्री वर्धमान स्वामी के आधिपत्य में गतिमान् हो रहा है। राग-द्वेषादि अन्तरंग अरियों को जीतकर केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त करने के पश्चात् जिनेश्वर श्री वर्धमान (महावीर) स्वामी ने आचारांग से लेकर दृष्टिवाद पर्यन्त द्वादशांग का प्ररूपण किया। यह द्वादशांगी ही 'जिनमत' है। प्रभु महावीर का यह 'जिनमत' सार्वभौम सत्य होने के कारण भूत-वर्तमान-भविष्य के सब तीर्थंकरों के द्वारा अनुमत है। भूतकाल में जितने ऋषभादि तीर्थंकर हुए हैं और भविष्य में जो पद्मनाभ आदि तीर्थंकर होंगे तथा वर्तमान में जो सीमंधर स्वामी आदि तीर्थंकर हैं, उन सबके द्वारा यह अनुमोदित और मान्य है। शाश्वत सत्य सदा एकरूप होता है। उसमें कोई विसंगति या भिन्नता नहीं होती। इस कथन द्वारा यह प्रवेदित किया गया है-सब तीर्थंकरों के वचनों में अविसंवादिता होने के कारण एकरूपता होती है। जिणाणुलोम-यह जैनमत जिनानुलोम है अर्थात् जिनों के लिए अनुकूल है। यहाँ 'जिन' से तात्पर्य अवधिजिन, मनःपर्यायजिन और केवलजिन से है। यह जैनमत अवधिजिन आदि के लिए अनुकूल है। तात्पर्य यह है कि इस सिद्धान्त के द्वारा जिनत्व की प्राप्ति होती है। यथोक्त जिनमत का आसेवन करने से साधुवर्ग १. तओ जिणा पण्णत्ता तं जहा-ओहिणाणजिणे, मणपज्जवणाणजिणे, केवलणाणजिणे। -स्थानांग, ३स्थान, ४ उद्दे. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान प्राप्त करते हैं । अतएव जिनमत को जिनानुलोम विशेषण से अलंकृत किया गया है। जिणप्पणीयं-यह जैनसिद्धान्त जिनप्रणीत है। अर्थात् तीर्थाधिपति श्री वर्धमान स्वामी द्वारा कथित है। केवलज्ञान की प्राप्ति होने पर श्री वर्धमान स्वामी ने बीजबुद्धि आदि परम गुण कलित गौतमादि गणधरों को समस्तार्थ-संग्राहक मातृकापदत्रय 'उप्पन्ने इ वा, विगमे इ वा, धुवे इ वा' का कथन किया। इन तीन मातृका पदों का अवलम्बन लेकर गौतमादि गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की। अतएव यह जिनमत जिनप्रणीत है। इस कथन से यह बताया गया है कि आगम सूत्र की अपेक्षा पौरुषेय ही है, अपौरुषेय नहीं। आगम शब्दरूप है और पुरुष-व्यापार के बिना वचनों का उच्चारण नहीं हो सकता। पुरुष-व्यापार के बिना शब्द आकाश में ध्वनित नहीं होते। मीमांसक मत वाले आगम को अपौरुषेय मानते हैं। उनकी यह मान्यता इस विशेषण द्वारा खण्डित हो जाती है। जिणपरूवियं-यह जिनमत जिनेश्वरों द्वारा प्ररूपित किया गया है। इस विशेषण द्वारा यह बताया गया है कि भगवान् वर्धमान स्वामी ने इस सिद्धान्त का इस प्रकार प्ररूपण किया कि श्रोताजन उसके तत्त्वार्थ को भलीभाँति समझ सकें। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि यह अध्ययन या प्रकरण अविज्ञात अर्थ वाला ही रहने वाला है चाहे वह सर्वज्ञ से ही क्यों न सुना जाय। क्योंकि सर्वज्ञ की विवक्षा का प्रत्यक्ष द्वारा ग्रहण नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में उस विवक्षा के विषयभूत शब्द के अर्थ में प्रत्यय या विश्वास कैसे जमेगा? जैसे म्लेच्छ व्यक्ति आर्य व्यक्ति के भाषण की नकल मात्र कर सकता है, उसके अर्थ को नहीं समझ सकता, इसी तरह श्रोता भी सर्वज्ञ के वचनों के अर्थ को नहीं समझ सकता है। उक्त शंका का समाधान यह है कि-यद्यपि वक्ता की विवक्षा अप्रत्यक्ष होती है फिर भी वह अनुमानादि के द्वारा जान ली जाती है। विवक्षा को जानकर संकेत की सहायता से श्रोता को शब्द के अर्थ का ज्ञान हो ही जाता है। यदि ऐसा न हो तो अनादि शब्द-व्यवहार ही ध्वस्त हो जायेगा। शब्द-व्यवहार की कोई उपयोगिता नहीं रहेगी। बालक भी शब्द से अर्थ की प्रतीति कर ही लेता है। अनेक अर्थ वाले सैन्धव आदि शब्द भी भगवान् के द्वारा संकेतित होकर प्रसंग और औचित्य आदि के द्वारा नियत अर्थ को बताते ही हैं। अतः अनेकार्थ वाले शब्दों से भी यथास्थित अर्थ का बोध होता है। भगवान इस प्रकार से तत्त्व प्ररूपित करते हैं जिससे श्रोता को सम्यग् बोध हो जाय। भगवान् सबके हितैषी हैं, वे अविप्रतारक हैं अतएव अन्यथा समझने वाले को उसकी गलती समझाकर सत्य अर्थ की प्रतीति कराते हैं। वे अन्यथा समझने वाले के प्रति उपेक्षा भी नहीं करते, क्योंकि वे तीर्थप्रवर्तन में प्रवृत्त होते हैं। अतएव भगवान् के वचनों से गणधरों को साक्षात् और शेष श्रोताओं को परम्परा से यथावस्थित अर्थ की प्रतीति होती है। अतः आगम अविज्ञात अर्थवाला नहीं है। १. आर्याभिप्रायमज्ञात्वा म्लेच्छ वाग्योगतुल्यता । सर्वज्ञादपि हि श्रोतुस्तदन्यस्यार्थदर्शने ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: मंगलमय प्रस्तावना ] जिणक्खायं - यह जिनमत जिनेश्वर द्वारा साक्षात् वचनयोग द्वारा कहा गया है । कतिपय मनीषियों का कहना है कि तीर्थंकर भगवन् प्रवचन के लिए प्रयास नहीं करते हैं किन्तु उनके प्रकृष्टं पुण्य प्राग्भार से श्रोताजनों को वैसा आभास होता है। जैसे चिन्तामणि में स्वयं कोई रंग नहीं होता किन्तु उपाधि - संसर्ग के कारण वह रंगवाला दिखाई देता है। वैसे ही तीर्थंकर प्रवचन का प्रयास नहीं करते फिर भी उनके पुण्यप्रभाव से श्रोताओं को ऐसा प्रतीत होता है कि भगवान् तीर्थंकर ऐसा ऐसा प्ररूपण कर रहे हैं । यह कथन उचित नहीं है। इस मत का खण्डन करने के लिए 'जिनाख्यात' विशेषण दिया गया - है । इसका तात्पर्य यह है कि तीर्थंकर भगवान् तीर्थंकर नामकर्म के उदय से साक्षात् वचन - व्यापार द्वारा प्रवचन करते हैं। साक्षात् वचन - व्यापार के उपलब्ध होने पर भी यदि आधिपत्यमात्र से श्रोताओं को वैसा प्रतीत होना माना जाय तो अतिप्रसंग होगा। अन्यत्र भी ऐसी कल्पना की जा सकेगी। वैसी स्थिति में प्रत्यक्षविरोध होगा । अतः उक्त मान्यता तर्क और प्रमाण से सम्मत नहीं है । [३ जिणाचिणं - यह जनमत गणधरों द्वारा समाधि रूप से परिणमित हुआ है। यहाँ 'जिन' शब्द से गणधरों का अभिप्राय समझना चाहिए। गणधर ऐसी शक्ति से सम्पन्न होते हैं कि उन्हें हित की प्राप्ति से कोई रोक नहीं सकता। वे इस जिनमत का अर्थ हृदयंगम करके अनासक्ति द्वारा समभाव की प्राप्ति करके समाधिदशा का अनुभव करते हैं। गणधरों द्वारा आसेवित होने से जिनमत को 'जिणाणुचिण्णं' कहा गया है । अथवा अतीतकाल में सामान्यकेवली आदि जिन इसका आसेवन कर जिनत्व को प्राप्त हुए हैं। इस अपेक्षा से भी जिणाणुचिण्णं की संगति समझनी चाहिए । जिणपण्णत्तं - यह जिनमत गणधरों द्वारा प्रज्ञप्त है। पूर्वोक्त समाधिभाव से सम्प्राप्त अतिशय - विशेष के कारण गणधरों में ऐसी विशिष्ट शक्ति आ जाती है जिसके प्रभाव से वे सूत्र के रूप में आचारादि अंगोपांगादि भेद वाले श्रुत की रचना कर देते हैं। इसलिए यह जिनमत सूत्ररूप से जिनप्रज्ञप्त अर्थात् गणधरों द्वारा रचित है । आगम में कहा गया है - ' तीर्थंकर अर्थरूप से कथन करते हैं और गणधर उसे सूत्ररूप से गुम्फित करते हैं। इस तरह जिनशासन के हित के लिए सूत्र प्रवर्तित होता है' । २ जिणदेसियं - यह जिनमत गणधरों द्वारा भी हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले योग्य जनों को ही दिया गया है। इससे यह ध्वनित होता है कि योग्यजनों को ही सूत्र - सिद्धान्त का ज्ञान दिया जाना चाहिए । यहाँ 'जिन' शब्द का अर्थ हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले विनेयादि के लिए प्रयुक्त हुआ है। जो श्रोताजन हितमार्ग से अभिमुख हों और अहितमार्ग से विमुख हों, उन्हीं को यह श्रुत दिया जाना चाहिए। सुधर्मा गणधर ने ऐसे ही योग्य विनेय श्री जम्बूस्वामी को यह श्रुत प्रदान किया । १. तदाधिपत्यादाभासः सत्वानामुपजायते । स्वयं तु यत्त्ररहितश्चिन्तामणिरिव स्थितः ॥ २. अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं । सासणस्स हियट्ठाए, तओ सुत्तं पवत्तइ ॥ ३. जिना इह हितप्रवृत्तगोत्रविशुद्धोपायाभिमुखापायविमुखादयः परिगृह्यन्ते । - मलयगिरि वृत्ति । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र शंका की जा सकती है कि श्रुत-सिद्धान्त प्रकृति-सुन्दर है तो क्यों नहीं सभी को दिया जाता है? इसका समाधान है कि अयोग्य व्यक्तियों के प्रकृति से ही असुन्दर होने से अनर्थों की संभावना रहती है। प्रायः देखा जाता है कि पात्र को असुन्दरता के कारण प्रकृति से सुन्दर सूर्य की किरणें उलूकादि के लिए अनर्थकारी ही होती हैं। कहा है कि जो जिसके लिए हित के रूप में परिणत हो उसी का प्रयोग किया जाना चाहिए। मछली के लिए कांटे में लगा गल आहार होने पर भी अनर्थ के लिए ही होता है। २ जिणपसर्थ-यह जिनमत योग्य एवं पात्र व्यक्तियों के लिए कल्याणकारी है। यहाँ भी 'जिन' शब्द का अर्थ हितमार्ग में प्रवृत्ति करने वाले और अहितमार्ग से विमुख रहने वाले जनों के लिए प्रयुक्त हुआ है। जैसे नीरोग के लिए पथ्याहार भविष्य में होने वाले रोगों को रोकने वाला होने से हितावह होता है, इसी तरह यह जिनमत हितमार्ग में प्रवृत्त और अहितमार्ग से निवृत्त जनों के लिए हितावह है। इसका सम्यग् रूप से आसेवन करने से यह जिनमत कल्याणकारी और हितावह सिद्ध होता है। उक्त विशेषणों से विशिष्ट 'जिनमत' को औत्पत्तिकी आदि बुद्धियों द्वारा सम्यक् पर्यालोचन करके, उस पर श्रद्धा, प्रतीति एवं रुचि रखने वाले स्थविर भगवंतो ने 'जीवाजीवभिगम' इस सार्थक नाम वाले अध्ययन का प्ररूपण किया। यद्यपि काल-दोष से बुद्धि आदि गुणों का ह्रास हो रहा है, फिर भी यह समझना चाहिए कि जिनमत का थोड़ा भी ज्ञान एवं आसेवन भव का छेदन करने वाला है। ऐसा मानकर कोमल चित्त से जिनमत पर श्रद्धा रखनी चाहिए। स्थविर भगवंतों से अभिप्राय उन आचार्यो से है जिनका ज्ञान और चारित्र परिपक्व हो चुका है। धर्मपरिणति से जिनकी मति का असमंजस दूर है और श्रुतरूपी ऐश्वर्य के योग से जिन्होनें कषायों को भग्न कर दिया है। इस प्रकार प्रस्तुत सूत्र में गुरुपर्वक्रमलक्षण सम्बन्ध और अभिधेय आदि का कथन किया गया है। स्वरूप और प्रकार २. से किं तं जीवाजीवाभिगमे ? जीवाजीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहाजीवाभिगमे य अजीवाभिगमे य। [२] जीवाजीवाभिगम क्या है ? जीवाजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है, वह इस प्रकार-१. जीवाभिगम और २. अजीवाभिगम । ३.से किं तं अजीवाभिगमे? अजीवाभिगमे विहे पण्णत्ते पउंजियव्वं धीरेण हियं जं जस्स सब्वहा। आहारो विहु मच्छस्स न पसत्थो गलो भुवि॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्वरूप और प्रकार ] तं जहा–१ रूवि-अजीवाभिगमे य २ अरूवि-अजीवाभिगमे य। [३] अजीवाभिगम क्या है ? अजीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया हैवह इस प्रकार-१ रूपी-अजीवाभिगम और २ अरूपी-अजीवाभिगम । ४. से किं तं अरूवि-अजीवाभिगमे ? अरूवि-अजीवाभिगमे दसविहे पण्णत्तेतं जहा-धम्मत्थिकाए एवं जहा पण्णवणाए जाव ( अद्धासमए), से तं अरूविअजीवाभिगमे। [४] अरूपी-अजीवाभिगम क्या है ? अरूपी-अजीवाभिगम दस प्रकार का कहा गया हैजैसे कि-१ धर्मास्तिकाय से लेकर १० अद्धासमय पर्यन्त जैसा कि प्रज्ञापनासूत्र में कहा गया है। यह अरूपी-अजीवाभिगम का वर्णन हुआ। ५. से किं तं रूवि-अजीवाभिगमे ? रूवि-अजीवाभिगमे चउबिहे पण्णत्तेतं जहा-खंधा; खंधदेसा, खंधप्पएसा, परमाणुपोग्गला। ते समासतो पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-वण्णपरिणया, गंधपरिणया, रसपरिणया, फासपरिणया, संठाणपरिणया एवं जहा पण्णवणाए (जाव लुक्ख फास-परिणया वि) से तं रूवि-अजीवाभिगमे से तं अजीवाभिगमे। [५] रूपी-अजीवाभिगम क्या है ? रूपी-अजीवाभिगम चार प्रकार का कहा गया हैवह इस प्रकार-स्कंध, स्कंध का देश, स्कंध का प्रदेश और परमाणुपुद्गल। वे संक्षेप से पाचं प्रकार के कहे गये हैं जैसा कि-१ वर्णपरिणत, २ गंधपरिणत, ३ रसपरिणत, ४ स्पर्शपरिणत और ५ संस्थानपरिणत । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना में कहा गया है वैसा कथन यहाँ भी समझना चाहिए। यह रूपी-अजीव का कथन हुआ। इसके साथ ही अजीवाभिगम का कथन भी पूर्ण हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में जिज्ञासु प्रश्रकार न प्रश्न किये हैं और गुरु-आचार्य ने उनके उत्तर दिये १. प्रज्ञापनासूत्र ५ २. प्रज्ञापनासूत्र ५ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं । इससे यह ज्ञापित किया गया है कि यदि मध्यस्थ, बुद्धिमान और तत्त्वजिज्ञासु प्रश्नकर्ता प्रश्न करे तो ही उसके समाधान हेतु भगवान् तीर्थंकर द्वारा उपदिष्ट तत्त्व की प्ररूपणा करनी चाहिए, अन्य अजिज्ञासुओं के समक्ष नहीं। इन सूत्रों में सामान्य रूप से प्रश्न और उत्तर दिये गये हैं। इनके मूलपाठ में किसी गौतमादि विशिष्ट प्रश्रकर्ता का उल्लेख नहीं और न ही उत्तर में गौतम आदि संबोधन है। इसका तात्पर्य यह है कि सूत्र-साहित्य का अधिकांश भाग गणधरों के प्रश्न और भगवान् वर्धमान स्वामी के उत्तर रूप में रचा गया है और थोड़ा भाग ऐसा है जो अन्य जिज्ञासुओं द्वारा पूछा गया है और स्थविरों द्वारा उसका उत्तर दिया गया है। पूरा का पूरा श्रुत-साहित्य गणधर-पृष्ट और भगवान् द्वारा उत्तरित ही नहीं है। प्रस्तुत सूत्र भी सामान्य तथा अन्य जिज्ञासुओं द्वारा पृष्ट और स्थविरों द्वारा उत्तरित है। प्रथम प्रश्न में जीवाजीवाभिगम का स्वरूप पूछा गया है। उत्तर के रूप उसके भेद बताकर स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है। जीवाजीवाभिगम जीवाभिगम और अजीवाभिगम स्वरूप वाला है। अभिगम का अर्थ परिच्छेद, बोध या ज्ञान है । जीवद्रव्य का ज्ञान जीवाभिगम है और अजीव द्रव्यों का ज्ञान अजीवाभिगम है। इस विश्व में मूलतः दो ही तत्त्व हैं-जीव तत्त्व और अजीव तत्त्व। अन्य सब इन दो ही तत्त्वों का विस्तार है। ये दोनों मूल तत्त्व द्रव्य की अपेक्षा तुल्य बल वाले हैं, यह ध्वनित करने के लिए दोनों पदों में 'च' का प्रयोग किया गया है। जीव और अजीव दोनों भिन्न जातीय हैं और स्वतन्त्र अस्तित्व वाले हैं। जीव और अजीव तत्त्व का सही-सही भेद-विज्ञान करना अध्यात्मशास्त्र का मुख्य विषय है। इसीलिए शास्त्रों में जीव और अजीव के स्वरूप के विषय में विस्तार से चर्चा की गई है। जीव और अजीव के भेद-ज्ञान से ही सम्यग्दर्शन होता है और फिर सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र से मुक्ति होती है। अतएव जीवाभिगम और अजीवाभिगम परम्परा से मुक्ति का कारण है। सूत्रकार ने पहले जीवाभिगम कहा और बाद में अजीवाभिगम कहा है। 'यथोद्देशस्तथा निर्देशः' अर्थात् उद्देश के अनुसार ही निर्देश-कथन करना चाहिए- इस न्याय से पहले जीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर किये जाने चाहिए थे, परन्तु ऐसा न करते हुए पहले अजीवाभिगम के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। इसका कारण यह है कि जीवाभिगम में वक्तव्य-विषय बहुत है और अजीवाभिगम में अल्पवक्तव्यता है। अतः 'सूचिकटाह' न्याय से पहले अजीवाभिगम के विषय में प्रश्रोत्तर है। अजीवाभिगम दो प्रकार का है-१. रूपी-अजीवाभिगम और अरूपी-अजीवाभिगम। सामान्यतया जिसमें रूप पाया जाय उसे रूपी कहते है। परन्तु यहाँ रूपी से तात्पर्य रूप, रस, गंध, स्पर्श, चारों से है। उपलक्षण से रूप के साथ रसादि का भी ग्रहण हो जाता है, क्योंकि ये चारों एक दूसरे को छोड़कर नहीं रहते। प्रत्येक परमाणु में रूप, रस, गन्ध स्पर्श पाये जाते हैं। इससे इस बात का खण्डन हो जाता है कि रूप के परमाणु अलग ही हैं और रसादि के परमाणु सर्वथा अलग ही हैं। रूप-रसादि के परमाणुओं को १. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः। एकरसगंधवर्णो द्विस्पर्शः कार्यलिंगश्च ॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्वरूप और प्रकार ] सर्वथा अलग मानना प्रत्यक्षबाधित है। हम देखते हैं कि हार आदि के रूपपरमाणुओं में स्पर्श की उपलब्धि भी साथ-साथ होती है और घृतादि रस के परमाणुओं में रूप और गन्ध की भी उपलब्धि होती है। कपूर आदि के गन्ध परमाणुओं में रूप की उपलब्धि भी निरन्तर रूप से होती है। इसलिए रूप, रस, गन्ध और स्पर्श परस्पर अभिन्न हैं । रूप, रस, गन्ध, स्पर्श वाले रूपी अजीव हैं और जिनमें रूप, रस, गन्ध स्पर्श नहीं है वे अरूपी अजीव हैं। [७ अरूपी अजीव इन्द्रियप्रत्यक्ष से नहीं जाने जाते हैं। वे आगमप्रमाण से जाने जाते हैं । अरूपी अजीव के दस भेद कहे गये हैं - १. धर्मास्तिकाय, २ . धर्मास्तिकाय का देश, ३ . धर्मातिकाय के प्रदेश, ४. अधर्मास्तिकाय, ५. अधर्मास्तिकाय का देश, ६. अधर्मास्तिकाय के प्रदेश, ७. आकाशास्तिकाय, ८. आकाशास्तिकाय का देश, ९. आकाशास्तिकाय के प्रदेश और १०. अद्धासमय। उक्त भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार समझने हेतु सूत्रकार ने सूचना की है। १. धर्मास्तिकाय - स्वतः गतिपरिणत जीवों और पुद्गलों को गति करने में जो सहायक होता है, निमित्तकारण होता है वह धर्मास्तिकाय है । जिस प्रकार मछली को तैरने में जल सहायक होता है, वृद्ध को चलने में दण्ड सहायक होता है, नेत्र वाले व्यक्ति के ज्ञान में दीपक सहायक होता है, उसी तरह जीव और पुद्गलों की गति में निमित्तकारण के रूप में धर्मास्तिकाय सहायक होता है । ' यह ध्यान देने योग्य है कि धर्मास्तिकाय जीव और पुद्गलो को गति करने में प्रेरक नहीं होता है अपितु सहायक मात्र होता है। जैसे जल मछली को चलाता नहीं, दण्ड वृद्ध को चलाता नहीं, दीपक नेत्रवान को दिखाता नहीं अपितु सहायक मात्र होता है। वैसे ही धर्मास्तिकाय गति में प्रेरक न होकर सहायक होता है। धर्मास्तिकाय की सिद्धि धर्मास्तिकाय का अस्तित्व जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य किन्हीं भी दार्शनिकों ने स्वीकार नहीं किया है । अतएव सहज जिज्ञासा होती है कि धर्मास्तिकाय के अस्तित्व में क्या प्रमाण हैं ? इसका समाधान करते हुए जैन दार्शनिकों और शास्त्रकारों ने कहा है कि- गतिशील जीवों और पुद्गलों की गति को नियमित करने वाले नियामक तत्त्व के रूप में धर्मास्तिकाय को मानना आवश्यक है। यदि ऐसे किसी नियामक तत्त्व को न माना जाय तो इस विश्व का नियत संस्थान घटित नहीं हो सकता । जड़ और चेतन द्रव्य की गतिशीलता अनुभवसिद्ध है । यदि वे अनन्त आकाश में बेरोकटोक चलते ही जावें तो इस लोक का नियत संस्थान बन ही नहीं सकेगा। अनन्त पुद्गल और अनन्त जीव अनन्त आकाश में बेरोकटोक संचार करते रहेंगे तो वे इस तरह से अलग-थलग हो जावेंगे कि उनका मिलना और नियत सृष्टि के रूप में दिखाई देना असम्भव हो जावेगा । इसलिए जीव और पुद्गलों की सहज गतिशीलता को १. परिणामी गतेर्धर्मो भवेत्पुद्गलजीवयोः । अपेक्षाकारणाल्लोके मीनस्येव जलं सदा ॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र नियमित करने वाला नियामक तत्त्व धर्मास्तिकाय स्वीकार किया गया है। धर्मास्तिकाय का अस्तित्व मानने पर ही लोक- अलोक का विभाग संगत हो सकता है। - ८ ] सहज गतिस्वभाव वाले होने पर भी जीव और पुद्गल लोक से बाहर अलोक में नही जा सकते। परमाणु जघन्य से परमाणुमात्र क्षेत्र से लगाकर उत्कृष्टत: चौदह राजुलोक प्रमाण क्षेत्र में गति कर सकता है । इससे एक प्रदेशमात्र अधिक क्षेत्र में उसकी गति नहीं हो सकती। इसका नियामक कौन है ? आकाश तो इस गति का नियामक नहीं हो सकता क्योंकि आकाश तो अलोक में भी समान रूप से है । अतएव जो इस गतिपरिणाम का नियामक है वह धर्मास्तिकाय है । जहाँ धर्मास्तिकाय है वहीं जीव- पुद्गलों की गति है और जहाँ धर्मास्तिकाय नहीं है वहाँ जीव- पुद्गलों की गति नहीं होती । धर्मास्तिकाय लोकाकाश में ही है इसीलिए जीवों और पुद्गलों की गति लोकाकाश तक ही सीमित है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के गतिसहायक रूप कार्य से उसके अस्तित्व की सिद्धि होती है । सकल धर्मास्तिकाय एक अखण्ड अवयवी द्रव्य है, वह स्कन्धरूप है। उसके असंख्यात प्रदेश अवयव रूप हैं । अवयवों का तथारूप संघात, परिणाम विशेष ही अवयवी है। जैसे तन्तुओं का आतानवितान रूप संघातपरिणाम 'पट है। उनसे भिन्न पट और कुछ नहीं है । अवयव और अवयवी कथंचित् भिन्नाभिन्न हैं । २. धर्मास्तिकाय का देश-धर्मास्तिकाय के बुद्धिकल्पित द्विप्रदेशात्मक, त्रिप्रदेशात्मक आदि विभाग को धर्मास्तिकाय का देश कहते है । वास्तव में तो धर्मास्तिकाय एक अखण्ड द्रव्य । उसके देश-प्रदेश आदि विभाग बुद्धिकल्पित ही हैं। ३. धर्मास्तिकाय के प्रदेश - स्कन्ध के ऐसे सूक्ष्म भाग को, जिसका फिर अंश न हो सके, प्रदेश कहते हैं । 'प्रदेशा निर्विभागा भागाः' अर्थात् स्कन्धादि के अविभाज्य निरंश अंश को प्रदेश कहते हैं । ये प्रदेश असंख्यात हैं अर्थात् लोकाकाशप्रमाण हैं । ये प्रदेश केवल बुद्धि से कल्पित किये जा सकते है । वस्तुतः ये स्कन्ध से अलग नहीं हो सकते। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के तीन भेद बताये गये हैं- स्कन्ध, देश और प्रदेश | प्रश्न हो सकता है कि धर्मद्रव्य को अस्तिकाय क्यों कहा गया है ? इसका समाधान है कि यहाँ 'अस्ति' का अर्थ प्रदेश है और 'काय' का अर्थ संघात या समुदाय है। प्रदेशों के समुदाय को अस्तिकाय कहा जाता है। धर्मद्रव्य असंख्यात प्रदेशों का समूहरूप है अतएव उसे अस्तिकाय कहा जाता है। १. तन्त्वादिव्यतिरेकेण, न पटाद्युपलम्भनम् । तन्त्वादयोविशिष्टा हि पटादिव्यपदेशिनः ॥ २. अस्तयः प्रदेशास्तेषां कायः संघातः । 'गण काए य निकाए खंधे वग्गे य रासी य' इति वचनात् अस्तिकाय: प्रदेशसंघातः । - मलयगिरिवृत्ति Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति :स्वरूप और प्रकार ] ४. अधर्मास्तिकाय-जीव और अजीव की स्थिति में सहायक होने वाला तत्त्व अधर्मास्तिकाय है। जैसे वृक्ष की छाया पथिक के लिए ठहरने में निमित्तकारण बनती है, इसी तरह अधर्मास्तिकाय जीव-पुद्गलों की स्थिति में सहायक होता है। यह भी स्थिति में सहायक है, प्रेरक नहीं। जो भी स्थितिरूप भाव हैं वे सब धर्मास्तिकाय के होने पर ही होते हैं। धर्मास्तिकाय की तरह यह भी एक अखण्ड अविभाज्य इकाई है। यह असंख्यातप्रदेशी और सर्वलोकव्यापी है। ५-६. अधर्मास्तिकाय का देश और प्रदेश-अधर्मास्तिकाय के तीन भेद हैं-स्कन्ध, देश और प्रदेश। सम्पूर्ण वस्तु को स्कध कहते हैं। द्विप्रदेशी आदि बुद्धिकल्पित विभाग को देश कहते हैं और वस्तु से मिले हुए सबसे छोटे अंश को-जिसका फिर भाग न हो सके-प्रदेश कहते है। ७-८-९. आकाशास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश-आकाश सर्वसम्मत अरूपी द्रव्य है। शाब्दिक व्युत्पत्ति के अनुसार जिसमें अन्य सब द्रव्य अपने स्वरूप को छोड़े बिना प्रकाशित-प्रतिभासित होते हैं, वह आकाश है अथवा जो सब पदार्थों में अभिव्याप्त होकर प्रकाशित होता रहता है, वह आकाश है। अवगाह प्रदान करना-स्थान देना आकाश का लक्षण है । जैसे दूध शक्कर को अवगाह देता है, भींत खूटी को स्थान देती है। आकाश द्रव्य सब द्रव्यों का आधार है। अन्य सब द्रव्य इसके आधेय हैं। यद्यपि निश्चयनय की दृष्टि से सब द्रव्य स्वप्रतिष्ठ हैं-अपने-अपने स्वरूप में स्थित हैं किन्तु व्यवहारनय की दृष्टि से आकाश सब द्रव्यों का आधार है। प्रश्न हो सकता है कि जब आकाश सब द्रव्यों का आधार है तो आकाश का आधार क्या है ? इसका उत्तर यह है कि आकाश स्वप्रतिष्ठित है। वह किसी दूसरे द्रव्य के आधार पर नहीं है। आकाश से बड़ा या उसके सदृश और कोई द्रव्य है ही नहीं। आकाश अनन्त है। वह सर्वव्यापक-लोकालोक व्यापी है। स्थूल दृष्टि से आकाश के दो भेद हैंलोकाकाश और अलोकाकाश। जिस आकाश खण्ड में धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और जीवरूप पंचास्तिकाय विद्यमान हैं वह लोकाकाश है। लोकाकाश के असंख्यात प्रदेश हैं। जहाँ आकाश ही आकाश है और कुछ नहीं, वह अलोकाकाश है। वह अनन्त प्रदेशात्मक है। असीम और अनन्त है। अलोकाकाश के महासिन्धु में लोकाकाश बिन्दुमात्र है। सम्पूर्ण आकाश आकाशास्तिकाय का स्कन्ध है। बुद्धिकल्पित उसका अंश आकाशस्तिकाय का देश है। आकाशद्रव्य के अविभाज्य निरंश अंश आकाशस्तिकाय के प्रदेश हैं। १०. अद्धा-समय-अद्धा का अर्थ होता है-काल। वह समयादि रूप होने से अद्धा-समय कहा जाता है। अथवा काल का जो सूक्ष्मतम निर्विभाग भाग है वह अद्धासमय है। यह एक समय ही, जो वर्त १. अहम्मो ठिइलक्खणो। २. आ-समन्तत् सर्वाण्यपि द्रव्याणि काशन्ते-दीप्यन्तेऽत्र व्यवस्थितानीत्याकाशम्। ३. आकाशस्यावगाहः। -तत्त्वार्थसूत्र अ.५ सू. १८ ४. अद्धति कालस्याख्या, अद्धा चासौ समयः अद्धासमयः, अथवा अद्धाया समयो निर्विभागो भागोद्धासमयः। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रहा है, तात्त्विक रूप से सत् है। जो बीत चुका है वह नष्ट हो गया और जो आगे आने वाला है वह अभी उत्पन्न ही नहीं हुआ। अतएव भूत और भविष्य असत् हैं, केवल वर्तमान क्षण ही सत् है। एक समय रूप होने से इसका कोई समूह नहीं बनता, इसलिए इसके देश-प्रदेश की कल्पना नहीं होती। यह काल समयक्षेत्र और असमयक्षेत्र का विभाग करने वाला है। अढ़ाई द्वीप पर्यन्त ज्योतिष् चक्र गतिशील है और उसके कारण अढ़ाई द्वीप में काल का व्यवहार होता है अतएव अढ़ाई द्वीप को समयक्षेत्र कहते हैं। उसके आगे काल-विभाग न होने से असमयक्षेत्र कहा जाता है। यह कथन भी व्यवहारनय की अपेक्षा से समझना चाहिए। काल द्रव्य का कार्य वर्तना, परिणाम, क्रिया और परत्वापरत्व है। अपने अपने पर्याय की उत्पत्ति में निमित्त होना वर्तना है। पूर्व पर्याय का त्याग और उत्तर पर्याय का धारण करना परिणाम है। परिस्पन्दन होना क्रिया है और ज्येष्ठत्व कनिष्ठत्व परत्वापरत्व है. काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सम्बन्ध में सर्व आचार्य एकमत नहीं हैं। कोई आचार्य उसे स्वतन्त्र द्रव्य कहते हैं और कोई कहते हैं कि काल स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है अपितु जीवाजीवादि द्रव्यों की पर्यायों का प्रवाह ही काल है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने वाले आचार्यों की युक्ति है कि जिस प्रकार जीव और पुद्गल में गति-स्थिति करने का स्वभाव होने पर भी उस कार्य के लिए निमित्त-कारण के रूप में धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय माने जाते हैं, इसी प्रकार जीव-अजीव में पर्यायपरिणमन का स्वभाव होने पर भी उसके लिए निमित्तकारण रूप में कालद्रव्य मानना चाहिए। अन्यथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय मानने में भी कोई युक्ति नहीं। दिगम्बर परम्परा में यही पक्ष स्वीकार किया गया है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य न मानने वाले पक्ष की युक्ति है कि पर्याय परिणमन जीव-अजीव की क्रिया है, जो किसी तत्त्वान्तर की प्रेरणा के बिना ही हुआ करती है। इसलिए वस्तुतः जीव-अजीव के पर्यायपंज को ही काल कहना चाहिए। काल कोई स्वतन्त्र द्रव्य नहीं है। श्वेताम्बर परम्परा में दोनों ही पक्षों का उल्लेख है। इस प्रकार धर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश; अधर्मास्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और आकाशस्तिकाय के स्कन्ध, देश, प्रदेश और अद्धासमय-ये दस अरूपी अजीव के भेद समझने चाहिए। ___ रूपी-अजीव-रूपी अजीव के चार भेद बताये हैं-स्कन्ध, देश, प्रदेश और परमाणुपुद्गल। पुद् गल स्कन्धों की अनन्तता के कारण मूलपाठ में बहुवचन का प्रयोग हुआ है। जैसा कि कहा गया है-'द्रव्य से पुद्गलास्तिकाय अनन्त है।' २ स्कन्धों के बुद्धिकल्पित द्वि-प्रदेशी आदि विभाग स्कन्धदेश हैं। स्कन्धों में मिले हुए निर्विभाग भाग स्कन्ध-प्रदेश हैं । स्कन्धपरिणाम से रहित स्वतन्त्र निर्विभाग पुद्गल परमाणु है, -तत्वार्थसूत्र अ.५ सू. २२ १. वर्तनापरिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य। २. 'दव्वओ णं पुग्गलत्थिकाए णं अणंते।' Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति :स्वरूप और प्रकार ] [११ आशय यह कि स्कन्ध या देश से जुड़े हुए परमाणु प्रदेश हैं और स्कन्ध या देश से अलग स्वतन्त्र परमाणु, परमाणु पुद्गल हैं। एकमात्र पुद्गल द्रव्य ही रूपी अजीव है। ये पुद्गल पांच वर्ण, दो गंध, पांच रस, आठ स्पर्श और पांच संस्थान के रूप में परिणत होते हैं। प्रज्ञापनासूत्र में इन वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानों के पारस्परिक सम्बन्ध की अपेक्षा बनने वाले विकल्पों का कथन किया गया है। संक्षेप से उनका यहाँ उल्लेख करना प्रासंगिक है। वह इस प्रकार है ___ काला, हरा, लाल, पीला और सफेद-इन पांच वर्ण वाले पदार्थों में २ गन्ध, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान, ये बीस बोल पाये जाते हैं अतः २० x ५ = १०० भेद वर्णाश्रित हुए। सुरभिगन्ध दुरभिगन्ध में ५ वर्ण, ५ रस, ८ स्पर्श और ५ संस्थान, ये २३ बोल पाये जाते हैं अतः २३ ४ २ = ४६ भेद गन्धाश्रित हुए। मधुर, कटु, तिक्त, आम्ल और कसैला-इन पांच रसों में ५ वर्ण, २ गन्ध, ८ स्पर्श और ५ संस्थान ये २० बोल पाये जाते हैं अतः २० x ५ = १०० भेद रसाश्रित हुए। गुरु और लघु स्पर्श में ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस और ६ स्पर्श (गुरु और लघु छोड़कर) और पांच संस्थान, ये २३ बोल पाये जाते हैं अत: 23 x २ = ४६ भेद गुरु-लघुस्पर्शाश्रित हुए। शीत और उष्ण स्पर्श में भी इसी प्रकार ४६ भेद पाये जाते हैं। अन्तर यह है कि आठ स्पर्शों में से शीत, उष्ण को छोड़कर छह स्पर्श लेने चाहिए। स्निग्ध, रूक्ष, कोमल तथा कठोर इन में भी पूर्वोक्त छह-छह स्पर्श लेकर २३-२३ बोल पाये जाते हैं, अतः २३ x ४ = ९२ भेद हुए। ४६+४६+९२-१८४ भेद स्पर्शाश्रित हुए। वृत्त, त्र्यस्त्र, चतुरस्र, परिमंडल और आयत इन पांच संस्थानों में ५ वर्ण, २ गन्ध, ५ रस और ८ स्पर्श ये बीस-बीस बोल पाये जाते हैं अतः २० x ५ = १०० भेद संस्थान–आश्रित हुए। इस तरह वर्णाश्रित १००, गन्धाश्रित ४६, रसाश्रित १००, स्पर्शाश्रित १८४ और संस्थान आश्रित १००, ये सब मिलकर ५३० विकल्प रूपी अजीव के होते हैं। अरूपी अजीव के धर्मास्तिकाय आदि के स्कंध, देश, प्रदेश आदि १० भेद पूर्व में बताये गये हैं। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशस्तिकाय और काल-इन चार के द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और गुण की अपेक्षा से २० भेद भी होते हैं। अतः १०+२० मिलाकर ३० अरूपी अजीव के भेद बन जाते हैं। इस प्रकार रूपी अजीव के ५३० तथा अरूपी अजीव के ३० भेद मिलाकर ५६० भेद अजीवाभिगम के हो जाते हैं। वर्णादि के परिणाम का अवस्थान-काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट असंख्यात काल है। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ] इस प्रकार अजीवभिगम का निरूपण पूरा हुआ । जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार ६. से किं तं जीवाभिगमे ? जीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा - संसारसमावण्णग-जीवाभिगमे य असंसारसमावण्णग- जीवाभिगमे य । [६] जीवाभिगम क्या है ? जीवाभिगम दो प्रकार का कहा गया है, जैसे- संसारसमापन्नक जीवाभिगम और असंसारसमापन्नक जीवाभिगम । [जीवाजीवाभिगमसूत्र ७. से किं तं असंसारसमावण्णग- जीवभिगमे ? असंसारसमावण्णग- जीवाभिगमे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा—अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णग जीवाभिगमे य परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग जीवाभिगमे य । से किं तं अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णग- जीवभिगमे ? अणंतरसिद्धासंसारसमावण्णग जीवाभिगमें पण्णरसविहे पण्णत्ते, तं जहा - तित्थसिद्धा जाव अणेगसिद्धा । सेतं अतरसिद्धा' | से किं तं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग- जीवाभिगमे ? परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग-जीवाभिगमे अणेगविहे पण्णत्ते तं जहा- पढमसमयसिद्धा, दुसमयसिद्धा जाव अनंतसमयसिद्धा । सेतं परंपरसिद्धासंसारसमावण्णग- जीवाभिगमे । सेतं असंसारसमावण्णग- जीवाभिगमे । [७] असंसार- प्राप्त जीवाभिगम क्या है ? . असंसारप्राप्त - जीवाभिगम दो प्रकार का है, यथा - अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम और परंपरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम । अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त - जीवाभिगम कितने प्रकार का कहा गया है ? अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त - जीवाभिगम पन्द्रह प्रकार का कहा गया है, यथा-तीर्थसिद्ध यावत् अनेकसिद्ध । यह अनन्तरसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन हुआ । परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है । परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त जीवाभिगम अनेक प्रकार का कहा गया है । यथा - प्रथमसमयसिद्ध, द्वितीयसमयसिद्ध यावत् अनन्तसमयसिद्ध । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति :जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार ] [१३ यह परम्परसिद्ध असंसारप्राप्त-जीवाभिगम का कथन हुआ। यह असंसारप्राप्त जीवाभिगम का कथन पूर्ण हुआ। विवेचन-अजीवाभिगम का कथन करने के पश्चात् प्रस्तुत सूत्रों में जीवाभिगम का कथन किया गया है। वैसे तो यह सब जीव-अजीव का ही कथन है, किन्तु इन दोनों के साथ जो 'अभिगम' पद लगा हुआ है वह यह बताने के लिए है कि इन जीवों और अजीवों में अभिगमगम्यता धर्म पाया जाता है। अर्थात् ये जीव और अजीव ज्ञान के विषय (ज्ञेय) होते हैं । अद्वैतवादी मानते हैं कि जीव ज्ञान का विषय नहीं होता है। इसका खण्डन करने के लिए 'अभिगम' पद जीव-अजीव के साथ जोड़ा गया है। यदि जीव ज्ञान का विषय न हो तो उसका बोध ही नहीं होगा और स्वरूप को जाने बिना संसार से निवृत्ति एवं मोक्ष में प्रवृत्ति कैसे हो सकेगी? इस तरह शास्त्ररचना का प्रयोजन ही निरर्थक हो जावेगा। जीवाभिगम क्या है, इस प्रश्न के उत्तर में जीव के भेद बताकर उसका स्वरूप कथन किया गया है। जीवाभिगम दो प्रकार का है-संसारसमापनक अर्थात् संसारवर्ती जीवों का ज्ञान और असंसारसमापनक अर्थात् संसार-मुक्त जीवों का ज्ञान। संसार का अर्थ नारक, तिर्यञ्च, मनुष्य और देव भवों में भ्रमण करना है। जो जीव उक्त चार प्रकार के भवों में भ्रमण कर रहे हैं वे संसारसमापनक जीव हैं और जो जीव इस भवभ्रमण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त हो चुके है, वे असंसारसमापन्नक जीव हैं। संसारवर्ती जीव हों या मुक्तजीव हों, जीवत्व की अपेक्षा उनमें तुल्यता है। इससे यह ध्वनित होता है कि मुक्त अवस्था में भी जीवत्व बना रहता है। कतिपय दार्शनिक मानते हैं कि जैसे दीपक का निर्वाण हो जाने पर वह लुप्त हो जाता है, उसका अस्तित्व नहीं रहता, इसी तरह मुक्त होने पर जीव का अस्तित्व नहीं रहता। इसी तरह वैशेषिकदर्शन की मान्यता है कि बुद्धि आदि नव आत्मगुणों का उच्छेद होने पर मुक्ति होती है। इन मान्यताओं का इससे खण्डन होता है। मुक्त होने पर यदि जीव का अस्तित्व ही मिट जाता हो, अथवा उसके बुद्धि, सुख आदि आत्मगुण नष्ट हो जाते हों तो ऐसे मोक्ष के लिए कौन विवेकशील व्यक्ति प्रयत्न करेगा ? कौन अपने आपको मिटाने का प्रयास करेगा ? कौन स्वयं को सुखहीन बनाना चाहेगा ? ऐसी स्थिति में मोक्ष का ही उच्छेद हो जावेगा। अल्पवक्तव्यता होने से प्रथम असंसारप्राप्त जीवों का कथन किया गया है। असंसारप्राप्त, मुक्त जीव दो प्रकार के हैं- अनन्तरसिद्ध और परम्परसिद्ध। ' अनन्तरसिद्ध-सिद्धत्व के प्रथम समय में विद्यमान सिद्ध अनन्तरसिद्ध हैं। अर्थात् उनके सिद्धत्व में समय का अन्तर नहीं है। परम्परसिद्ध-परम्परसिद्ध वे हैं जिन्हें सिद्ध हुए तीन यावत् अनन्त समय हो चुका हो। अनन्तर सिद्धों को १५ प्रकार कहे गये हैं-१. तीर्थसिद्ध, २. अतीर्थसिद्ध, ३. तीर्थंकरसिद्ध, ४. अतीर्थंकरसिद्ध, ५. स्वयंबुद्धसिद्ध,६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध,७. बुद्धबोधितसिद्ध, ८. स्त्रीलिंगसिद्ध, ९. पुरुषलिंगसिद्ध, १०. नपुंसकलिंगसिद्ध, ११. स्वलिंगसिद्ध, १२. अन्यलिंगसिद्ध, १३. गृहस्थलिंगसिद्ध, १४. एकसिद्ध और Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र १४ ] १५. अनेकसिद्ध। १. तीर्थसिद्ध - जिसके अवलम्बन से संसार सागर तिरा जाय, वह तीर्थ है । इस अर्थ में तीर्थंकर परमात्मा के द्वारा प्ररूपित प्रवचन और उनके द्वारा स्थापित चतुर्विध श्रमणसंघ तीर्थ है। प्रथम गणधर भी तीर्थ है।' तीर्थंकर द्वारा प्रवचनरूप एवं चतुर्विध श्रमणसंघरूप तीर्थ की स्थापना किये जाने के पश्चात् जो सिद्ध होते हैं, वे तीर्थसिद्ध कहलाते हैं । यथा, गौतम, सुधर्मा, जम्बू आदि । २. अतीर्थसिद्ध-तीर्थ की स्थापना से पूर्व अथवा तीर्थ के विच्छेद हो जाने के बाद जो जीव सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थसिद्ध हैं। जैसे मरुदेवी माता भगवान् ऋषभदेव द्वारा तीर्थस्थापना के पूर्व सिद्ध हुई । सुविधिनाथ आदि तीर्थंकरों के बीच के समय में तीर्थ का विच्छेद हो गया था । उस समय जातिस्मरणादि ज्ञान से मोक्षमार्ग को प्राप्त कर जो जीव सिद्धगति को प्राप्त हुए, वे अतीर्थसिद्ध हैं। 1 ३. तीर्थंकरसिद्ध - जो तीर्थ स्थापना करके सिद्ध हुए वे तीर्थंकरसिद्ध हैं । जैसे- इस अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव से लगाकर महावीर स्वामी तक चौबीस तीर्थंकर, तीर्थंकरसिद्ध हैं। ४. अतीर्थंकरसिद्ध - जो सामान्य केवली होकर सिद्ध होते हैं, वे अतीर्थंकरसिद्ध हैं । जैसे- समान्य केवली । ५. स्वयंबुद्धसिद्ध-जो दूसरे के उपदेश के बिना स्वयं ही जातिस्मरणादि ज्ञान से बोध पाकर सिद्ध होते हैं । यथा - नमिराजर्षि । ६. प्रत्येकबुद्धसिद्ध-जो किसी भी बाह्य निमित्त को देखकर स्वयमेव प्रतिबोध पाकर सिद्ध हैं, वे प्रत्येकबुद्धसिद्ध हैं । यथा - करकण्डु आदि । यद्यपि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों ही परोपदेश के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, तथापि इनमें बाह्यनिमित्त को लेकर अन्तर है। स्वयंबुद्ध किसी बाह्य निमित्त के बिना ही प्रतिबोध पाते हैं, जबकि प्रत्येकबुद्ध वृषभ, मेघ, वृक्ष आदि बाह्य निमित्त को देखकर प्रतिबुद्ध होते हैं । स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध में उपधि, श्रुत और लिंग की अपेक्षा से भी भेद है। वैसे स्वयंबुद्ध दो प्रकार के होते हैं - तीर्थंकर और तीर्थंकर से भिन्न । तीर्थंकर तो तीर्थंकरसिद्ध में आ जाते हैं अतः यहाँ तीर्थंकर भिन्न स्वयंबुद्धों का अधिकार समझना चाहिए। १. तित्थं पुण चाउव्वणो समणसंघो पढमगणहरो वा । २. पत्तेयं-बाह्यवृषभादिकं कारणमभिसमीक्ष्य बुद्धा; वहिष्प्रत्ययं प्रतिबुद्धानां च पत्तेयं नियमा विहारो जम्हा तम्हा ते पत्तेय बुद्धा । ३. पत्तेयबुद्धाणं जहन्त्रेण दुविहो उक्कोसेण नवविहो नियमा उवही पाउरणवज्जो भवइ । सयंबुद्धस्स पुव्वाहीयं सुयं से हवइ न वा, जइ से णत्थि तो लिंगं नियमा गुरुसन्निहे पडिवज्जइ, जइ य एगविहारविहरणसमत्थो इच्छा वा से तो एक्को चेव विहरइ, अन्नहा गच्छे विहरइ । पत्यबुद्धाणं पुष्वाहीयं सुयं नियमा होइ, जहन्नेण इक्कारस अंगा उक्कोसेण भिन्नदसपुव्वा । लिंगं च से देवया पयच्छइ, लिंगवज्जिओ वा हवइ । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति :जीवाभिगम का स्वरूप और प्रकार ] [१५ स्वयंबुद्धों के पात्रादि बारह प्रकार की उपधि होती है, जबकि प्रत्येकबुद्धों के जघन्यतः दो और उत्कृष्टतः वस्त्र को छोड़कर नौ प्रकार की उपधि होती है। स्वयंबुद्धों के पूर्वाधीत श्रुत होता भी है और नहीं भी होता है। अगर होता है तो देवता उन्हें वेष (लिंग) प्रदान करता है अथवा वे गुरु के पास जाकर मुनिवेष धारण कर लेते हैं। यदि वे एकाकी विचरण करने में समर्थ हों और एकाकी विचरण की इच्छा हो तो एकाकी विचरण करते हैं, नहीं तो गच्छवासी होकर रहते हैं। यदि उनके पूर्वाधीत श्रुत न हो तो नियम से गुरू के सान्निध्य में मुनिवेष लेकर गच्छवासी होकर रहते हैं। प्रत्येकबुद्धों के नियम से पूर्वाधीत श्रुत होता है। जघन्यतः ग्यारह अंग और उत्कृष्टतः दस पूर्व से कुछ कम श्रुत पूर्वाधीत होता है। उन्हें देवता मुनिलिंग देते हैं अथवा कदाचित् वे लिंगरहित भी रहते हैं। ७. बुद्धबोधितसिद्ध-आचार्यादि से प्रतिबोध पाकर जो सिद्ध होते हैं वे बुद्धबोधितसिद्ध हैं । यथाजम्बू आदि। ८. स्त्रीलिंगसिद्ध-स्त्री शरीर से जो सिद्ध हुए हों वे स्त्रीलिंगसिद्ध हैं । यथा-मल्लि तीर्थंकर, मरुदेवी आदि। लिंग' तीन तरह का है-वेद, शरीरनिष्पत्ति और वेष। यहाँ शरीर-रचना रूप लिंग का अधिकार है। वेद और नेपथ्य का नहीं। वेद मोहकर्म के उदय से होता है। मोहकर्म के रहते सिद्धत्व नहीं आता। जहाँ तक वेष का सवाल है वह भी मुक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं रखता। अतः यहाँ स्त्रीशरीर से प्रयोजन है।' दिगम्बर परम्परा की मान्यता है कि स्त्री-शरीर से मुक्ति नहीं होती जबकि यहाँ 'स्त्रीलिंगसिद्ध' कह कर स्त्रीमुक्ति को मान्यता दी गई है। स्त्री की मुक्ति नहीं होती' इस मान्यता का कोई तार्किक या आगमिक आधार नहीं है। मुक्ति का सम्बन्ध शरीर-रचना के साथ न होकर ज्ञान-दर्शन-चारित्र के प्रकर्ष के साथ है। स्त्री-शरीर में ज्ञान-दर्शन-चारित्र का प्रकर्ष क्यों नहीं हो सकता ? पुरुष की तरह स्त्रियाँ भी ज्ञानदर्शन-चारित्र का प्रकर्ष कर सकती हैं। दिगम्बर परम्परा में वस्त्र को चारित्र का प्रतिबन्धक माना गया है और स्त्रियाँ वस्त्र का त्याग नहीं कर सकती, इस तर्क से उन्होंने स्त्री की मुक्ति का निषेध कर दिया है। परन्तु तटस्थ दृष्टि से सोचने पर स्पष्ट हो जाता है कि वस्त्र का रखना मात्र चारित्र का प्रतिबंधक नहीं होता। वस्त्रादि पर ममत्व होना चारित्र का प्रतिबंधक है। वस्त्रादि के अभाव में भी शरीर पर ममत्व हो सकता है तो शरीर का त्याग भी चारित्र के लिए आवश्यक मानना होगा। शरीर का त्याग तो नहीं किया जा सकता, ऐसी स्थिति में क्या चारित्र का पालन नहीं हो सकता ? निष्कर्ष यह है कि वस्त्रादि के रखने मात्र से चारित्र का अभाव नहीं हो जाता, आगम में तो मूर्छा को परिग्रह कहा गया है। वस्तुओं को नहीं। अतः वस्त्रों का त्याग न करने के कारण १. लिंगं च तिविहं-वेदो सरीरनिवित्ती नेवत्थं च। इह सरीरनिव्वत्तीए अहिगारो न वेय-नेवत्थेहिं। -नन्दी Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र स्त्रियों में चारित्र का प्रकर्ष न मानना और फलतः उन्हें मुक्ति की अधिकारिणी न मानना तर्क एवं आगमसम्मत नहीं है। ९. पुरुषलिंगसिद्ध-पुरुष-शरीर में स्थित होकर जो सिद्ध हुए हों वे पुरुषलिंगसिद्ध हैं। १०. नपुंसकलिंगसिद्ध-स्त्री-पुरुष से भिन्न नपुंसक शरीर के रहते जो सिद्ध हों वे नपुंसकलिंगसिद्ध हैं। कृत्रिम नपुंसक सिद्ध हो सकते हैं, जन्मजात नपुंसक सिद्ध नहीं होते। ११. स्वलिंगसिद्ध-जो जैनमुनि के वेष रजोहरणादि के रहते हुए सिद्ध हुए हों, वे स्वलिंगसिद्ध १२. अन्यलिंगसिद्ध-जो परिव्राजक, संन्यासी, गेरुआ वस्त्रधारी आदि अन्य मतों के वेष के रहते सिद्ध हुए हों, वे अन्यलिंग सिद्ध हैं। १३. गृहिलिंगसिद्ध-जो गृहस्थ के वेष में रहते हुए सिद्ध हुए हों, वे गृहिलिंगसिद्ध हैं। जैसेमरुदेवी माता। १४. एकसिद्ध-जो एक समय में अकेले ही सिद्ध हुए हो, वे एकसिद्ध हैं। १५. अनेकसिद्ध-जो एक समय में एक साथ अनेक सिद्ध हुए हों वे अनेकसिद्ध हैं। सिद्धान्त में एक समय में अधिक से अधिक १०८ जीव सिद्ध हो सकते हैं। इस सम्बन्ध में सिद्धान्त की एक संग्रहणी ' गाथा में कहा गया है आठ समय तक निरन्तर सिद्ध होते हैं तब एक से लगाकर बत्तीस पर्यन्त सिद्ध होते हैं । अर्थात् प्रथम समय में जघन्यतः एक, दो और उत्कृष्ट से बत्तीस होते हैं, दूसरे समय में भी इसी तरह एक से लेकर बत्तीस सिद्ध होते हैं। इस प्रकार आठवें समय में भी एक से लेकर बत्तीस सिद्ध होते हैं। इसके बाद अवश्य अन्तर पड़ेगा। जब तेतीस से लगाकर अड़तालीस पर्यन्त सिद्ध होते हैं तब सात समय पर्यन्त ऐसा होता है। इसके बाद अवश्य अन्तर पड़ता है। जब उनपचास से लेकर साठ पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब छह समय तक ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता है। जब इकसठ से लगाकर बहत्तर पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब पाँच समय तक ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता है। जब तिहत्तर से लगाकर चौरासी पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब चार समय तक ऐसा होता है। बाद में अवश्य अन्तर पड़ता है. १. बत्तीसा अडयाला सट्ठी बावत्तरी य बोद्धव्वा। चुलसीइ छन्नठइ उ दुरहियमठुत्तरसयं च ॥ बाद अवश्य अन्तर पड़ता है। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: जीवाभिगमका स्वरूप और प्रकार ] [१७ जब पचासी से लगाकर छियानवै पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब तीन समय तक ऐसा होता है बाद में अवश्य अन्तर पड़ता है। जब सत्तानवें से लगाकर एक सौ दो पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब दो समय तक ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता है। जब एक सौ तीन से लेकर एक सौ आठ निरन्तर सिद्ध होते हैं तब एक समय तक ही ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता ही है। इस प्रकार एक समय में उत्कृष्टतः एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं। यह अनेकसिद्धों का कथन हुआ। इसके साथ ही अनन्तरसिद्धों का कथन सम्पूर्ण हुआ। परम्परसिद्ध-परम्परसिद्ध अनेक प्रकार के कहे गये हैं। यथा-प्रथमसमयसिद्ध, द्वितीयसमयसिद्ध, तृतीयसमयसिद्ध यावत् असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध। जिनको सिद्ध हुए एक समय हुआ वे तो अनन्तरसिद्ध होते हैं अर्थात् सिद्धत्व के प्रथम समय में वर्तमानसिद्ध अनन्तरसिद्ध कहलाते हैं। अतः सिद्धत्व के द्वितीय आदि समय में स्थित परम्परसिद्ध होते हैं। मूल पाठ में जो पढमसमयसिद्ध' पाठ है वह परम्परसिद्धत्व का प्रथम समय अर्थात् सिद्धत्व का द्वितीय समय जानना चाहिए। अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए दो समय हुए वे प्रथमसमय परम्परसिद्ध हैं। जिन्हें सिद्ध हुए तीन समय हुए वे द्वितीयसमयसिद्ध परम्परसिद्ध जानने चाहिए। इसी तरह आगे भी जान लेना चाहिए। यह परम्परसिद्ध असंसारसमापनक जीवाभिगम का कथन हुआ। संसारसमापन्नक जीवाभिगम ८. से किं तं संसारसमापनकजीवाभिगमे ? संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिजंति, तं जहा१. एगे एवमांहसु-दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। २. एगे एवमाहंसु-तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ३. एगे एवमाहंसु-चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ४. एगे एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ५-१०. एतेण अभिलावेणं जाव दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। [८] संसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है ? संसारप्राप्त जीवों के सम्बन्ध में ये नौ प्रतिपत्तियाँ (कथन) इस प्रकार कही गई हैं१. कोई ऐसा कहते है कि संसारप्राप्त जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। २. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारवर्ती जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। ३. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव चार प्रकार के कहे गये हैं। Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ४. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं। ५-१०. ऐसा ही कथन तब तक कहना चाहिए यावत् कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव दस प्रकार के कहे गये हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में संसारवर्ती जीवों के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। प्रश्न किया गया हैं कि संसारवर्ती जीव का स्वरूप क्या है ? संसारवर्ती जीव के भेदों को बताकर उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है। भेदों के कथन से वस्तु का स्वरूप ज्ञात हो ही जाता है। संसारवर्ती जीवों के प्रकार के सम्बन्ध में यहाँ नौ प्रतिपत्तियाँ बताई गई हैं। प्रत्तिपत्ति का अर्थ है-प्रतिपादन, कथन । ' इस सम्बन्ध में नौ प्रकार के प्रतिपादन हैं। जैसे कि कोई आचार्य संसारवर्ती जीवों के दो प्रकार कहते हैं, कोई आचार्य उनके तीन प्रकार कहते हैं। इसी क्रम से कोई आचार्य संसारवर्ती जीवों के दस प्रकार कहते हैं। दो से लगाकर दस प्रकार के संसारी जीव हैं-यह नौ प्रकार के कथन या प्रतिपादन हुए। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि ये नौ ही प्रकार के कथन परस्पर भिन्न होते हुए भी विरोधी नहीं हैं। जो आचार्य संसारवर्ती जीवों को दो प्रकार का कहते हैं, वे ही आचार्य अन्य विवक्षा से संसारवर्ती जीव के तीन प्रकार भी कहते हैं, अन्य विवक्षा से चार प्रकार भी कहते हैं यावत् अन्य विवक्षा से दस प्रकार भी कहते हैं। विवक्षा के भेद से कथनों में भेद होता है परन्तु उनमें विरोध नहीं होता। जो जीव दो प्रकार के हैं वे ही दूसरी अपेक्षा से तीन प्रकार के हैं, अन्य अपेक्षा से चार, पाँच, छह, सात, आठ नौ और दस प्रकार के हैं। अतएव इन नौ प्रकार की प्रतिपत्तियों में कोई विरोध नहीं है। अपेक्षा के भेद से सभी सम्यग् और सही हैं। वृत्तिकार ने 'प्रतिपत्ति' शब्द के सन्दर्भ में यह भी कहा है कि प्रतिपत्ति केवल शब्दरूप ही नहीं है अपितु शब्द के माध्यम से अर्थ में प्रवृत्ति कराने वाली है। शब्दाद्वैतवादी मानते हैं कि 'शब्दमात्रं विश्वम्'। सब संसार शब्दरूप ही है, ऐसा मानने से केवल शब्द ही सिद्ध होगा, विश्व नहीं। अतः उक्त मान्यता सत्य से परे है। सही बात यह है कि शब्द के माध्यम से अर्थ का कथन किया जाता है, तभी प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो सकती है। स्याद्वाद या अपेक्षावाद जैन सिद्धान्त का प्राण है। अतएव नय-निक्षेप की अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर वस्तुतत्त्व को समझना चाहिए। वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वह एकान्त एकरूप नहीं है। यदि वस्तु को सर्वथा एकरूप ही माना जायगा तो विश्व की विचित्रता संगत नहीं होगी। प्रथम प्रतिपत्ति का कथन ९. तत्थ णं जे एवमाहंसु 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता' ते एवमाहंसु तं १. प्रतिपत्तयः प्रतिपादनानि संवित्तयः इति यावत्। -मलय. वृत्ति २. प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणि, इति प्रतिपत्तव्यम्। Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: संसारसमापनक जीवाभिगम ] [१९ - जहा-तसा चेव थावरा चेव॥ [९] जो दो प्रकार के संसारसमापनक जीवों का कथन करते हैं, वे कहते हैं कि त्रस और स्थावर के भेद से वे दो प्रकार के हैं। १०. से किं तं थावरा? थावरा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा१. पुढविकाइया २. आउक्काइया ३. वणस्सइकाइया। [१०] स्थावर किसे कहते हैं ? स्थावर तीन प्रकार के कहे गये हैंयथा-१. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक और ३. वनस्पतिकायिक। विवेचन-संसारसमापन्न जीवों के भेद बताने वाली नौ प्रतिपत्तियों में से प्रथम प्रतिपत्ति का निरूपण करते हुए इस सूत्र में कहा गया है कि संसारवर्ती जीव दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। इन दो भेदों में समस्त संसारी जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है। त्रस-'वसन्तीति त्रसाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा सकते हैं, वे जीव त्रस कहलाते हैं। गर्मी से तप्त होने पर जो जीव उस स्थान से चल कर छाया वाले स्थान पर आते हैं अथवा शीत से घबरा कर धूप में जाते हैं, वे चल-फिर सकने वाले जीव त्रस हैं। सनामकर्म के उदय वाले जीव त्रस कहलाते हैं, इस अपेक्षा से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस के अन्तर्गत आते हैं। __यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आगम में तेजस्काय और वायुकाय को भी त्रस के अन्तर्गत माना गया है। इसी जीवाभिगमसूत्र में आगे कहा गया है कि-त्रस तीन प्रकार के हैं-तेजस्काय, वायुकाय और औदारिक वस प्राणी। तत्त्वार्थसूत्र में भी 'तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः' कहा गया है। अन्यत्र उन्हें स्थावर कहा गया है। इन दोनों प्रकार के कथनों की संगति इस प्रकार जाननी चाहिए त्रस जीवों के सम्बन्ध में दो प्रकार की विवक्षाएँ हैं। प्रथम विवक्षा में जो जीव अभिसन्धिपूर्वकसमझपूर्वक इधर से उधर गमनागमन कर सकते हैं और जिनके त्रसनामकर्म का उदय है वे त्रस जीव लब्धित्रस कहे जाते हैं और इस विवक्षा से द्वीन्द्रियादि जीव त्रस की कोटि में आते हैं, तेज और वायु नहीं। दूसरी विवक्षा में जो जीव अभिसन्धिपूर्वक अथवा अनभिसन्धिपूर्वक भी ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, वे त्रस कहलाते हैं। इस व्याख्या और विवक्षा के अनुसार तेजस् और वायु ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, इसलिये वे त्रस हैं। ऐसे त्रस जीवों को गतित्रस कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जब केवल गति की -जीवाभि. सूत्र १६ १. तसा तिविहा पण्णत्ता तं जहा-तेउकाइया, वाउकाइया ओराला तसा पाणा। २. तत्त्वार्थ. अ. २, सू. १४ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विवक्षा है तब तेजस और वायु को त्रस में गिना गया है। परन्तु जब स्थावर नामकर्म के उदय की विवक्षा है तब उन्हें स्थावर में गिना गया है। तेज और वायु के त्रसनामकर्म का उदय नहीं, स्थावरनामकर्म का उदय है। अतएव विवक्षाभेद से दोनों प्रकार के कथनों की संगति समझना चाहिए। स्थावर-'तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः'। उष्णादि से अभितप्त होने पर भी जो उस स्थान को छोड़ने में असमर्थ हैं, वहीं स्थित रहते हैं; ऐसे जीव स्थावर कहलाते हैं। यहाँ स्थावर जीवों के तीन भेद बताये१. पृथ्वीकाय २. अप्काय और ३ वनस्पतिकाय। सामान्यतया स्थावर के पांच भेद गिने जाते हैं। तेजस् और वायु को भी स्थावरनामकर्म के उदय से स्थावर माना जाता है। परन्तु यहाँ गतित्रस की विवक्षा होने से तेजस्, वायु की गणना त्रस में करने से स्थावर जीवों के तीन ही भेद बताये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी ऐसा की कहा गया है-'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः'। १. पृथ्वीकाय-पृथ्वी ही जिन जीवों का काया-शरीर है, वे पृथ्वीकायिक हैं। जो लोग पृथ्वी को . एक देवता रूप मानते हैं, इस कथन से उनका निरसन हो जाता है। पृथ्वी एकजीवरूप न होकर-असंख्य जीवों का समुदाय रूप है। जैसा कि आगम में कहा है-पृथ्वी सचित्त कही गई है, उसमें पृथक् पृथक् अनेक जीव हैं। २. अप्काय-जल ही जिन जीवों का शरीर है, वे अप्कायिक जीव हैं। ३. वनस्पतिकाय-वनस्पति जिनका शरीर है, वे वनस्पतिकायिक जीव हैं। पृथ्वी सबका आधार होने से उसे प्रथम ग्रहण किया है। पृथ्वी के आधार पर पानी रहा हुआ है अतएव पृथ्वी के बाद जल का ग्रहण किया गया है। 'जत्थ जलं तत्थ वणं' के अनुसार जहाँ जहाँ जल है वहाँ वहाँ वनस्पति है, इस सैद्धान्तिक तत्त्व के प्रतिपादन हेतु जल के बाद वनस्पति का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार पृथ्वी, पानी और वनस्पतिकायिकों के क्रम का निरूपण किया गया है। पृथ्वीकाय का वर्णन ११. से किं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया य। [११] पृथ्वीकायिक का स्वरूप क्या है ? पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं-जैसे कि-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक। १. तत्तवार्थसूत्र अध्याय २, सूत्र १३ २. पुढवी चित्तमंतमक्खाया, अणेग जीवा, पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं। -दशकै Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति का कथन] [२१ १२. से किं सुहमपुढविकाइया ? सुहुमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य। [१२] सूक्ष्मपृथ्वीकायिक क्या हैं ? सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैंजैसे कि-पर्याप्तक और अपर्याप्तक। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-१. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और २. बादर पृथ्वीकायिक। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक से तात्पर्य सूक्ष्मनामकर्म के उदय से है, न कि बेर और आँवले की तरह आपेक्षिक सूक्ष्मता या स्थूलता से। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है, वे सूक्ष्म जीव हैं। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जुप्रमाण सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं । इस लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ सूक्ष्म जीव न हों। जैसे काजल की कुप्पी में काजल ठसाठस भरा रहता है अथवा जैसे गंधी की पेटी में सुगंध सर्वत्र व्याप्त रहती है इसी तरह सूक्ष्म जीव सारे लोक में ठसाठस भरे हुए हैं-सर्वत्र व्याप्त हैं । ये सूक्ष्म जीव किसी से प्रतिघात नहीं पाते। पर्वत की कठोर चट्टान से भी आरपार हो जाते हैं। ये सूक्ष्म जीव किसी के मारने से मरते नहीं, छेदने से छिदते नहीं भेदने से भिदते नहीं। विश्व की किसी भी वस्तु से उनका घात-प्रतिघात नहीं होता। ऐसे सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सारे लोक में व्याप्त हैं।' बादर पृथ्वीकाय-बादरनामकर्म के उदय से जिन पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर (अनेकों के मिलने पर) चर्मचक्षुओं से ग्राह्य हो सकता है, जिसमें घात-प्रतिघात होता हो, जो मारने से मरते हों, छेदने से छिदते हों, भेदने से भिदते हों, वे बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं। ये लोक के प्रतिनियत क्षेत्र में ही होते हैं, सर्वत्र नहीं। मूल में आये हुए 'दोनों चकार सूक्ष्म और बादर के स्वगत अनेक भेद-प्रभेद के सूचक हैं।' सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के भेद-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे दो प्रकार के हैं, यथा-१. पर्याप्तक और २. अपर्याप्तक। पर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियाँ पूरी कर.ली हों वे पर्याप्तक हैं। अपर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियाँ पूरी नहीं की हैं या पूरी करने वाले नहीं हैं वे अपर्याप्तक हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक के स्वरूप को समझने के लिए पर्याप्तियों को समझना आवश्यक है। पर्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार है १. "सुहमा सव्वलोगम्मि'। -उत्तराध्ययन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पर्याप्ति का स्वरूप ___ आहारादि के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें शरीरादि रूप में परिणत करने की आत्मा की शक्ति को पर्याप्ति कहते हैं। यह शक्ति पुद्गलों के उपचय से प्राप्त होती है। जीव अपने उत्पत्तिस्थान पर पहुंचकर प्रथम समय में जिन पुद्गलों को ग्रहण करता है और इसके बाद भी जिन पुद्गलों को ग्रहण करता हैउनको शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन के रूप में परिवर्तित करता है। पुद्गलों को इन रूपों में परिणत करने की शक्ति को ही पर्याप्ति कहा जाता है। पर्याप्तियाँ छह प्रकार की हैं-१.आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति, ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति, ५. भाषापर्याप्ति और ६. मनःपर्याप्ति। १. आहारपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव आहार को.ग्रहण कर उसे रस और खल (असार भाग) में परिणत करता है, उसे आहारपर्याप्ति कहते हैं। २. शरीरपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव रस रूप में परिणत आहार को रस, रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और वीर्य रूप सात धातुओं में परिणत करता है, वह शरीरपर्याप्ति है. ३. इन्द्रियपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव सप्त धातुओं से इन्द्रिय योग्य पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें इन्द्रिय रूप में परिणत करता है, वह इन्द्रियपर्याप्ति है। ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव श्वासोच्छ्वास योग्य पुद्गलों को ग्रहण करके श्वास और उच्छ्वास में परिणत करता है; वह श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति है। ५. भाषापर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करके भाषा रूप में बदलता है, वह भाषापर्याप्ति है। ६. मनःपर्याप्ति-जिस शक्ति से जीव मनोवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण कर उन्हें मन के रूप में बदलता है, वह मनःपर्याप्ति है। पर्याप्तियों का क्रम और काल-सब पर्याप्तियों का आरंभ एक साथ होता है किन्तु उनकी पूर्णता अलग-अलग समय में होती है। पहले आहारपर्याप्ति पूर्ण होती है, फिर क्रमशः शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मनःपर्याप्ति पूर्ण होती है। पूर्व की अपेक्षा उत्तर-उत्तर की पर्याप्ति सूक्ष्म, सूक्ष्मतर होती है। जैसे छह व्यक्ति एक साथ सूत कातने बैठे हों तो जो बारीक कातेगा उसे उसकी अपेक्षा अधिक समय लगेगा जो मोटा कातता है। आहारपर्याप्ति सबसे स्थूल है और मनःपर्याप्ति सबसे सूक्ष्म है। आहारपर्याप्ति का काल एक समय है। वह एक समय में पूर्ण हो जाती है। इसका प्रमाण यह है कि प्रज्ञापना के आहार पद में यह पाठ है कि 'आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त जीव आहारक है या अनाहारक?' उत्तर में कहा गया है कि आहारक नहीं है, अनाहारक है। आहारपर्याप्ति से अपर्याप्तजीव विग्रहगति में ही १. पर्याप्ति माहारादिपुद्गलग्रहणपरिणमनहेतुरात्मनः शक्तिविशेषः। -मलयगिरि वृत्ति। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : पृथ्वीकाय का वर्णन ] [२३ होता है, उपपातक्षेत्र में आया हुआ नहीं। उपपातक्षेत्र समागत जीव प्रथम समय में ही आहारक होता है। इससे आहारपर्याप्ति की समाप्ति का काल एक समय का सिद्ध होता है। यदि उपपातक्षेत्र में आने के बाद भी आहारपर्याप्ति से अपर्याप्त होता तो प्रज्ञापना में कदाचित् आहारक और कादाचित् अनाहारक' ऐसा उत्तर दिया गया होता। जैसा कि शरीरादि पर्याप्तियों में दिया गया है। इसके बाद शरीर आदि पर्याप्तियाँ अलगअलग एक-एक अन्तर्मुहूर्त में पूरी होती हैं। सब पर्याप्तियों का समाप्तिकाल भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है क्योंकि अन्तर्मुहूर्त भी अनेक प्रकार का है। किसके कितनी पर्याप्तियाँ एकेन्द्रिय जीवों के चार पर्याप्तियाँ होती हैं-१. आहार, २. शरीर, ३. इन्द्रिय और ४. श्वासोच्छ्वास। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय के पांच पर्याप्तियाँ होती हैं-पूर्वोक्त चार और भाषापर्याप्ति। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों के छहों पर्याप्तियाँ होती हैं। आहार, शरीर और इन्द्रिय-ये तीन पर्याप्तियाँ प्रत्येक जीव पूर्ण करता है। इनको पूर्ण करके ही जीव अगले भव की आयु का बंध कर सकता है। अगले भव की आयु का बंध किये बिना कोई जीव नहीं मर सकता। इन तीन पर्याप्तियों की अपेक्षा से तो प्रत्येक जीव पर्याप्त ही होता है परन्तु पर्याप्त-अपर्याप्त का विभाग इन तीन पर्याप्तियों की अपेक्षा से नहीं है, अपितु जिन जीवों के जितनी पर्याप्तियाँ कही गई हैं, उनकी पूर्णताअपूर्णता को लेकर है। स्वयोग्य पर्याप्तियों को जो पूर्ण करे वह पर्याप्त जीव है और स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूर्ण न करे वह अपर्याप्त जीव है। जैसे एकेन्द्रिय जीव के स्वयोग्य पर्याप्तियाँ ४ कही गई हैं। इन चार पर्याप्तियों को पूर्ण करने वाला एकेन्द्रिय जीव पर्याप्त है और इन चार को पूर्ण न करने वाला अपर्याप्त है। पर्याप्त-अपर्याप्त के भेद पर्याप्त जीव दो प्रकार के हैं-१. लब्धिपर्याप्त और २. करणपर्याप्त । जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियों को अभी पूर्ण नहीं किया किन्तु आगे अवश्य पूरी करेगा, वह लब्धि की अपेक्षा से लब्धि-पर्याप्तक कहा जाता है। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूरी कर ली हैं वह करणपर्याप्त है। अपर्याप्त जीव भी दो प्रकार के हैं-१. लब्धि-अपर्याप्त और २. करण-अपर्याप्त। जिस जीव ने स्वयोग्य पर्याप्तियां पूरी नहीं की और आगे करेगा भी नहीं अर्थात् अपर्याप्त ही मरेगा वह लब्धि-अपर्याप्त है। जिसने स्वयोग्य पर्याप्तियों को पूरा नहीं किया किन्तु आगे पूरा करेगा वह करण से अपर्याप्त है। इस प्रकार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से दो प्रकार हुए। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में शेष वक्तव्यता कहने के लिए दो संग्रहणी गाथाएँ यहाँ दी गई हैं, वे इस प्रकार हैं Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सरीरोगाहण संघयण संठाण कसाय तह य हुँति सन्नाओ। लेसिदिय समुग्याए सनी वेए य पजत्ती ॥१॥ दिट्ठी दंसण नाणे जोगुवओगे तहा किमाहारे। उववाय ठिई समुग्धाय चवण गइरागई चेव ॥२॥ इसके आगे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों का २३ द्वारों द्वारा निरूपण किया जायेगा। वे तेवीस द्वार इस प्रकार हैं १. शरीर, २. अवगाहना, ३. संहनन, ४. संस्थान, ५. कषाय, ६. संज्ञा, ७. लेश्या, ८. इन्द्रिय, ९. समुद्घात, १०. संज्ञी-असंज्ञी, ११. वेद, १२.पर्याप्ति, १३. दृष्टि, १४. दर्शन, १५. ज्ञान, १६. योग, १७. उपयोग, १८. आहार, १९. उपपात, २०. स्थिति, २१. समवहत-असमवहत मरण, २२. च्यवन और २३. गति-आगति। आगे के सूत्रों में क्रमशः इन २३ द्वारों को लेकर प्रश्रोत्तर किये गये हैं। 'यथोद्देशः तथा निर्देशः' के अनुसार प्रथम क्रमशः शरीर आदि द्वारों का कथन किया जाता है १३. [१] तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सरीरया पण्णता? गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए। [१] हे भगवन् ! उन सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम! तीन शरीर कहे गये हैं, जैसे कि १. औदारिक २. तैजस और ३. कार्मण। [२] तेसिंणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? । गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइभागं उक्कोसेणवि अंगुलासंखेज्जइभागं। [२] भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी बड़ी कही गई है ? गौतम! जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से भी अंगुल का असंख्यातवां भाग प्रमाण है। [३] तेसिं णं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंघयणा पण्णत्ता ? गोयमा ! छेवट्टसंघयणा पण्णत्ता। [३] भगवन् ! उन जीवों के शरीर किस संहनन वाले कहे गये हैं ? गौतम ! सेवार्तसंहनन वाले कहे गये हैं। [४] तेसिंणं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिया पण्णत्ता? गोयमा ! मसूरचंदसंठिया पण्णत्ता। [४] भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान क्या है ? गौतम ! चन्द्राकार मसूर की दाल के समान है। [५] तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति कसाया पण्णत्ता ? गोयमा !चत्तारिकसाया पण्णत्ता,तंजहा-कोहकसाए,माणकसाए,मायाकसाए,लोहकसाए। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] [२५ [५] भगवन् ! उन जीवों के कषाय कितने कहे गये हैं ? गौतम ! चार कषाय कहे गये हैं। जैसे कि क्रोधकषाय, मानकषाय, मायाकषाय और लोभकषाय। [६] तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सण्णा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि सण्णा पण्णत्ता, तं जहा-आहारसण्णा जाव परिग्गहसण्णा। [६] भगवन् ! उन जीवों के कितनी संज्ञाएँ कही गई हैं ? गौतम ! चार संज्ञाएँ कही गई हैं, यथा-आहारसंज्ञा यावत् परिग्रहसंज्ञा। [७] तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तिन्नि लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा-किण्हलेस्सा, नीललेस्सा, काउलेस्सा। [७] भगवन् ! उन जीवों के लेश्याएँ कितनी कही गई हैं ? गौतम ! तीन लेश्याएं कही गई हैं। यथा-कृष्णलेश्या, नीललेश्या और कापोतलेश्या। '[८] तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति इंदियाइं पण्णत्ताइं? गोयमा ! एगे फासिंदिए पण्णत्ते। [८] भगवन् ! उन जीवों के कितनी इन्द्रियाँ कही गई हैं ? गौतम ! एक स्पर्शनेन्द्रिय कही गई है। [९] तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति समुग्घाया पण्णत्ता? गोयमा! तओ समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा-१. वेयणासमुग्याए, २. कसायसमुग्याए, ३. मारणंतियसमुग्याए। [९] भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? गौतम! तीन समुद्घात कहे गये है। जैसे कि-१. वेदना-समुद्घात, २. कषाय-समुद्घात और ३. मारणांतिक-समुद्घात। [१०] ते णं भंते! जीवा किं सन्नी असन्नी ? गोयमा! नो सन्नी, असन्नी। [१०] भगवन्! वे जीव संज्ञी हैं या असंज्ञी ?. गौतम! संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी हैं । [११] ते णं भंते! जीवा किं इत्थिवेया, पुरिसवेया, णपुंसगवेया ? गोयमा! णो इत्थिवेया, णो पुरिसवेया, णपुंसगवेया। [११] भगवन् ! वे जीव क्या स्त्रीवेद वाले हैं, पुरुषवेद वाले हैं या नपुंसकवेद वाले हैं ? गौतम! वे स्त्रीवेद वाले नहीं हैं, पुरुषवेद वाले नहीं हैं, नपुंसकवेद वाले हैं । [१२] तेसिं णं भंते! जीवाणं कति पजत्तीओ पण्णत्ताओ ? Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा! चत्तारि पजत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-आहारपज्जत्ती, सरीरपजत्ती, इंदियपज्जत्ती,आणपाणुपज्जत्ती। तेसिं णं भंते! जीवाणं कति अपज्जत्तीओ पण्णत्ताओ? गोयमा! चत्तारि अपज्जीत्तीओ पण्णत्ताओ, तं जहा- आहार-अपजत्ती जाव आणपाणुअपज्जत्ती। [१२] भगवन् ! उन जीवों के कितनी पर्याप्तियाँ कही गई हैं ? गौतम! चार पर्याप्तियाँ कही गई हैं। जैसे- १. आहारपर्याप्ति, २. शरीरपर्याप्ति, ३. इन्द्रियपर्याप्ति और ४. श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति। हे भगवन्! उन जीवों के कितनी अपर्याप्तियाँ कही गई हैं ? गौतम! चार अपर्याप्तियाँ कही गई हैं। यथा-आहार-अपर्याप्ति यावत् श्वासोच्छ्वास-अपर्याप्ति। [१३] ते णं भंते! जीवा किं सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, सम्ममिच्छादिट्ठी। . गोयमा! णो सम्मदिट्ठी, मिच्छादिट्ठी, णो सम्ममिच्छादिट्ठी। [१३] भगवन् ! वे जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) हैं ? गौतम! वे सम्यग्दृष्टि नहीं हैं, मिथ्यादृष्टि हैं, सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) भी नहीं हैं। [१४] ते णंभंते! जीवा किं चक्खुदंसणी,अचक्खुदंसणी,ओहिदसणी, केवलदसणी। गोयमा! नो चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, नो ओहिदंसणी, नो केवलदसणी। [१४] भगवन्! वे जीव चक्षुदर्शनी हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी हैं या केवलदर्शनी हैं ? गौतम! वे जीव चक्षुदर्शनी नहीं हैं, अचक्षुदर्शनी हैं, अवधिदर्शनी नहीं हैं, केवलदर्शनी नहीं हैं। [१५] ते णं भंते! जीव किं णाणी, अण्णाणी? गोयमा! नो णाणी, अण्णाणी।नियमा दुअण्णाणी, तंजहा-मति-अन्नाणी, सुय-अण्णाणी य। [१५] भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम! वे ज्ञानी नहीं, अज्ञानी हैं। वे नियम से (निश्चित रूप से) दो अज्ञानवाले होते हैं-मतिअज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी। [१६] ते णं भंते! जीवा किं मणजोगी, वयजोगी, कायजोगी ? गोयमा! नो मणजोगी, नो वयजोगी, कायजोगी। [१६] भगवन्! वे जीव क्या मनोयोग वाले, वचनयोग वाले और काययोग वाले हैं ? गौतम! वे मनोयोग वाले नहीं, वचनयोग वाले नहीं, काययोग वाले हैं । [१७] ते णं भंते! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि। [१७] भगवन्! वे जीव क्या साकारोपयोग वाले हैं या अनाकारोपयोग वाले ? गौतम ! साकार - उपयोग वाले भी हैं और अनाकार- उपयोग वाले भी हैं। [२७ [१८] ते णं भंते! जीवा किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! दव्वओ अणतपएसियाई, खेत्तओ असंखेज्जपएसोवगाढाई, कालओ अन्नयर समयट्ठियाइं, भावओ वण्णमंताई, गंधमंताई, रसमंताई, फासमंताई जाई भावओ वण्णमंताई आहारेंति ताइं किं एगवण्णाई आ०, दुवण्णाई आ०, तिवण्णाई आ०, चउवण्णाई आ०, पंचवण्णाई आहारेंति ? गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवण्णाई पि दुवण्णाइं पि तिवण्णाइं पि चडवण्णाई पि पंचवण्णाइं पि आहारेंति । विहाणमग्गणं पडुच्च कालाई पि आ० जाव सुक्किलाई पि आहारेंति । जाई वणओ कालाई आहारेंति ताइं कि एगगुण कालाई आ० जाव अनंतगुणकालाई आहारेंति ? गोमा ! एगगुणकालाई पि आ० जाव अनंतगुणकालाई पि आ० एवं जाव सुक्किलाई ॥ जाई भावओ गंधमंताई आ० ताई किं एगगंधाई आ० दुगंधाई आहारेंति ? गोयमा! ठाणमग्गणं पडुच्च एगगंधाई पि आ० दुगंधाई पि आ । विहाणमग्गणं पडुच्च सुभगंधाई पि ० दुब्भगंधाई पि आ० । गंध सुभिधाई आ० ताइं कि एगगुणसुब्भिगंधाई आ० जाव अनंतगुणसुब्भिगंधाई आहारेंति ? गोमा ! एगगुणसुभिगंधाई पि आ० जाव अनंतगुणसुब्भिगंधाई पि आहारेंति । एवं दुभिगंधाई पि । रसा जहा वण्णा । जाई भावओ फासमंताई आहारेंति ताई किं एगफासाई आ० जाव अट्ठफासाई आहारेंति ? गोयमा ! ठाणं मग्गणं पडुच्च नो एगफासाइं आ० नो दुफासाइं आ० नो तिफासाइं आ चउफासाई आ॰ पंचफासाइं पि जाव अट्ठाफासाइं पि आहारेंति । विहाणमग्गणं पडुच्च कक्खडाइं पि आ० जाव लुक्खाइं पि आहारेंति । जाई फासओ कक्खडाई आ० ताई किं एगगुणकक्खडाइं आ० जाव अनंतगुणकक्खडाई आहारेंति ? गोयमा! एगगुणकक्खडाई पि आहारेंति जाव अनंतगुणकक्खडाई पि आहारेंति एवं जाव लुक्खा यव्वा । ताइं भंते किं पुट्ठाई आहारेंति अपुट्ठाई आ० ? गोयमा ! पुट्ठाई आ० नो अपुट्ठाई आ० । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ताई भंते! ओगाढाई आ० अणोगाढाई आ० ? गोमा ! ओगाढाई आ० नो अणोगाढाई आ० । ताइं भंते! किं अणंतरोवगाढाई आ० परंपरोवगाढाई आ० ? गोयमा! अणंतरोवगाढाई आ०, नो परंपरोवगाढाई आ० । ताई भंते! किं अणुई आ०, बायराई आ० ? गोमा ! अणू पि आ०, बायराइं पि आहारेंति । ताई भंते! उड् आ०, अहे आ०, तिरियं आहारेंति ? गोयमा ! उड्ढं पि आ०, अहे वि आ०, तिरियं पि आ० ? ताई भंते! किं आई आ०, मज्झे आ०, पज्जवसाणे आहारेंति ? गोमा ! आई पि आ०, मज्झे वि आ०, पज्जवसाणे पि आ० । ताई भंते! किं सविसए आ०, अविसए आ० । गोमा ! सविसए आ०, नो अविसए आ० ? ताई भंते किं आणुपुव्विं आ०, अणाणुपुव्विं आ० ? गोमा ! आणुपुवि आ०, नो अणाणुपुवि आहारेंति । ताई भंते! किं तिदिसिं आहारेंति, चउदिसिं आ० पंचदिसिं आ०, छदिसिं आ० ? गोयमा! निव्वाघाएणं छदिसिं । वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं । उस्सन्नकारणं पडुच्च वण्णओ कालाई नीलाइं जाव सुक्किलाई, गंधओ सुब्भिगंधाई दुभिगंधाई रसओ तित्तजावमहुराई, फासओ कक्खडमउय जाव निद्धलुक्खाई, तेसिं पोराणें वण्णगुणे विप्परिणामइत्ता परिपालइत्ता, परिसाडइत्ता परिविद्धंसत्ता अण्णे अपुव्वे वण्णगुणे फासणे उप्पाइत्ता आयसरीरोगाढा पोग्गले सव्वप्पणयाए आहारमाहरेंति । [१८] भगवन्! वे जीव क्या आहार करते हैं ? गौतम ! वे द्रव्य से अनन्तप्रदेशी पुद्गलों का आहार करते हैं, क्षेत्र से असंख्य प्रदेशावगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, काल से किसी भी समय की स्थिति वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, भाव से वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं । प्र. - भगवन्! भाव से जिन वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं, वे एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले या पंच वर्ण वाले हैं ? उ.- गौतम ! स्थानमार्गणा की अपेक्षा से एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाल, पंच वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं । भेदमार्गणा की अपेक्षा काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् सफेद पुद्गलों का भी आहार करते हैं । प्र. - भंते! वर्ण से जिन काले पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण काले हैं यावत् अनन्तगुण काले हैं ? Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [२९ उ.-गौतम! एकगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। इस प्रकार यावत् शुक्लवर्ण तक जान लेना चाहिए। ___प्र.-भंते ! भाव से जिन गंध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे एक गंध वाले या दो गंध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! स्थानमार्गणा की अपेक्षा एक गन्ध वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं और दो गन्ध वालों का भी। भेदमार्गणा की अपेक्षा से सुरभिगन्ध वाले और दुरभिगन्ध वाले दोनों का आहार करते हैं। प्र.- भंते! जिन सुरभिगंध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एकगुण सुरभिगन्ध वाले हैं यावत् अनन्तगुण सुरभिगन्ध वाले होते हैं ? उ.- गौतम! एकगुण सुरभिगन्ध वाले यावत् अनन्तगुण सुरभिगन्ध वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। ___ इसी प्रकार दुरभिगन्ध के विषय में भी कहना चाहिए। रसों का वर्णन भी वर्ण की तरह जान लेना चाहिए। प्र.-भंते ! भाव की अपेक्षा से वे जीव जिन स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं वे एक स्पर्श वालों का आहार करते हैं यावत् आठ स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! स्थानमार्गणा की अपेक्षा एक स्पर्श वालों का आहार नहीं करते, दो स्पर्श वालों का आहार नहीं करते हैं, तीन स्पर्श वालों का आहार नहीं करते, चार स्पर्श वाले, पाँच स्पर्श वाले यावत् आठ स्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। भेदमार्गणा की अपेक्षा कर्कश स्पर्श वाले पुद्गलों का भी यावत् रूक्ष स्पर्श वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। प्र.-भंते! स्पर्श की अपेक्षा जिन कर्कश पुद्गलों का आहार करते हैं वे क्या एक गुण कर्कश हैं या अनन्तगुण कर्कश हैं ? उ.-गौतम! एकगुण कर्कश का भी आहार करते हैं और अनन्तगुण कर्कश का भी आहार करते हैं। इस प्रकार यावत् रूक्षस्पर्श तक जान लेना चाहिए। प्र.-भंते ! वे आत्म-प्रदेशों से स्पृष्ट का आहार करते हैं या अस्पृष्ट का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! स्पृष्ट का आहार करते हैं, अस्पृष्ट का नहीं। प्र.-भंते ! वे आत्म-प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनवगाढ का ? उ.-गौतम! आत्म-प्रदेशों में अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, अनवगाढ का नहीं। प्र.-भंते! वे अनन्तर-अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं या परम्परा से अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं ? Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उ.-गौतम! अनन्तर-अवगाढ पुद्गलों का आहार करते हैं, परम्परावगाढ का नहीं। प्र.-भंते ! वे अणु-थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं या बादर-अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! वे थोड़े प्रमाण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं और अधिक प्रमाण वाले पुद्गलों का भी आहार करते हैं। प्र.-भंते! क्या वे ऊपर, नीचे या तिर्यक् स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! वे ऊपर स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, नीचे स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं और तिरछे स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं। प्र.-भंते! क्या वे आदि, मध्य और अन्त में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! वे आदि में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं, मध्य में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं और अन्त में स्थित पुद्गलों का भी आहार करते हैं। प्र.-भंते ! क्या वे अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं या अपने अयोग्य पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! वे अपने योग्य पुद्गलों का आहार करते हैं, अयोग्य पुद्गलों का नहीं। प्र.-भंते! क्या वे आनुपूर्वी-समीपस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं या अनानुपूर्वी-दूरस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! वे समीपस्थ पुद्गलों का आहार करते हैं, दूरस्थ पुद्गलों का आहार नहीं करते। प्र.-भंते! क्या वे तीन दिशाओं, चार दिशाओं, पाँच दिशाओं और छह दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं ? उ.-गौतम! व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं। व्याघात हो तो तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं और कभी पाँच दिशाओं में स्थित पुद्गलों का आहार करते हैं। प्रायः विशेष करके वे जीव कृष्ण, नील यावत् शुक्ल वर्ण वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। गन्ध से सुरभिगंध दुरभिगंध वाले, रस से तिक्त यावत् मधुररस वाले, स्पर्श से कर्कश-मृदु यावत् स्निग्ध-रूक्ष पुद्गलों का आहार करते हैं। वे उन आहार्यमाण पुद्गलों के पुराने (पहले के) वर्णगुणों को यावत् स्पर्शगुणों को बदलकर, हटाकर, झटककर, विध्वंसकर उनमें दूसरे अपूर्व वर्णगुण, गन्धगुण, रसगुण और स्पर्शगुणों को उत्पन्न करके आत्मशरीरावगाढ पुद्गलों को सब आत्मप्रदेशों से ग्रहण करते हैं। १९. ते णं भंते! जीवा कओहिंतो उववजंति ? Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३१ प्रथम प्रतिपत्तिः पृथ्वीकाय का वर्णन] किं नेरइयतिरिक्खमणुस्सदेवेहितो उववजति ? गोयमा! नो नेरइएहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति, मणुस्सेहिंतो उववजंति, नो देवेहिंतो उववजंति, तिरिक्खजोणियपजत्तापजत्तेहिंतो असंखेजवासाउयवज्जेहिंतो उववजंति, मणुस्सेहितो अकम्मभूमिग-असंखेज्जवासाउयवग्जेहिंतो उववजंति।वक्कंति-उववाओ भाणियव्यो। [१९] भगवन्! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नरक से, तिर्यश्च से, मनुष्य से या देव से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम! वे नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, तिर्यञ्च से आकर उत्पन्न होते हैं, मनुष्य से आकर उत्पन्न होते हैं, देव से आकर उत्पन्न नहीं होते हैं। . तिर्यञ्च से उत्पन्न होते हैं तो असंख्यातवर्षायु वाले भोगभूमि के तिर्यञ्चों को छोड़कर शेष पर्याप्तअपर्याप्त तिर्यचों से आकर उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो अकर्मभूमि वाले और असंख्यात वर्षों की आयु वालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार (प्रज्ञापना के अनुसार) व्युत्क्रान्ति-उपपात कहना चाहिए। [२०] तेसिं णं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेण वि अंतोमुहुत्तं। [२०] उन जीवों की स्थिति कितने काल की कहीं गई है ? गौतम! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त उनकी स्थिति है । [२१] ते णं भंते! जीव मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति असमोहया मरंति ? गोयमा! समोहया वि मरंति असमोहया वि मरंति। [२१] वे जीव मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर ? गौतम! वे मारणान्तिकसमुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। [२२] ते णं भंते! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजति ? किं नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववजति, मणुस्सेसु उववजंति, देवेसु उववज्जति ? गोयमा! नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणुस्सेसु उववजति, णो देवेसु उववजंति। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र किं एगिदिएसु उववजंति जाव पंचिंदिएसु उववजंति ? गोयमा! एगिदिएस उववजंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएस उववजंति, असंखेजवासाउयवज्जेसु पज्जात्तापजत्तएसु उववति। मणुस्सेसुअकम्मभूभग-अंतरदीवग-असंखेजवासाउयवज्जत्तेसु उववति। [२२] भगवन्! वे जीव वहाँ से निकलकर अगले भव में कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में, तिर्यञ्चों में, मनुष्यों में और देवों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम! नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। भंते! क्या वे एकेन्द्रियों में यावत् पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं ? गौतम! वे एकेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं, यावत् पंचेन्द्रियतिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, लेकिन असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। अकर्मभूमि वाले, अन्तरद्वीप वाले तथा असंख्यातवर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त-अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। [२३] ते णं भंते! जीवा कतिगतिका कतिआगतिका पण्णत्ता ? गोयमा! दुगतिका दुआगतिका परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो! से तं सुहुमपुढविक्काइया॥ [२३] भगवन्! वे जीव कितनी गति में जाने वाले और कितनी गति से आने वाले हैं ? गौतम! वे जीव दो गति वाले और दो आगति वाले हैं । हे आयुष्मन् श्रमण! वे जीव प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण कहे गये हैं। यह सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का वर्णन हुआ॥ विवेचन–प्रस्तुत सूत्र में सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में २३ द्वारों के द्वारा विशेष जानकारी भगवान् श्री गौतम के प्रश्नों और देवाधिदेव प्रभु श्री महावीर के उत्तर के रूप में दी गई है। यहाँ मूल सूत्र में भंते!' पद के द्वारा श्री गौतमस्वामी ने प्रभु महावीर को सम्बोधन किया है। 'भंते!' का अर्थ सामान्यतया 'भगवन्' होता है। टीकाकार ने भदन्त अर्थात् परम कल्याणयोगिन् ! अर्थ किया है। सचमुच भगवान् महावीर परम सत्यार्थ का प्रकाश करने के कारण परम कल्याणयोगी हैं। यहाँ सहज जिज्ञासा होती हैं कि भगवान् गौतम भी मातृकापद श्रवण करते ही प्रकृष्ट श्रुतज्ञानावरण के क्षयोपशम से चौदह पूर्वो के ज्ञाता हो गये थे। चौदह पूर्वधारियों से कोई भी प्रज्ञापनीय भाव अविदित नहीं होता। विशेषतः गणधर गौतम तो सर्वाक्षरसन्निपाती और संभिन्न श्रोतोलब्धि जैसी सर्वोत्कृष्ट लब्धियों से Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] 1 सम्पन्न थे। वे प्रश्न किये जाने पर संख्यातीत भवों को बता सकते थे । ' ऐसे विशिष्ट ज्ञानी भगवान् गौतम साधारण से भी साधारण प्रश्न क्यों पूछते हैं ? [३३ इस जिज्ञासा को लेकर तीन प्रकार के समाधान प्रस्तुत किये गये हैं । प्रथम समाधान यह है कि श्री गौतम गणधर सब कुछ जानते थे और वे अपने विनेयजनों को सब प्रतिपादन भी करते थे । परन्तु उसकी यथार्थता का शिष्यों के मन में विश्वास पैदा करने के लिए वे भगवान् से प्रश्न करके उनके श्रीमुख से उत्तर दिलवाते थे । दूसरा समाधान यह है कि द्वादशांगी में तथा अन्य श्रुतसाहित्य में गणधरों के प्रश्न तथा भगवान् के उत्तर रूप बहुत सारा भाग हैं, अतएव सूत्रकार ने इसी रूप में सूत्र की रचना की है। तीसरा समाधान यह है कि चौदह पूर्वधर होने पर भी आखिर तो श्री गौतम छद्मस्थ थे और छद्मस्थ स्वल्प भी अनाभोग (अनुपयोग) हो सकता है। इसलिए भगवान् से पूछकर उस पर यथार्थता की छाप लगाने के लिए भी उनका प्रश्न करना संगत ही है । भगवान् गौतम ने प्रश्न पूछा कि हे परमकल्याणयोगिन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? प्रभु महावीर ने लोकप्रसिद्ध महागोत्र 'गौतम' सम्बोधन से सम्बोधित कर गौतम स्वामी के मन में प्रमोद और आह्लाद भाव पैदा करते हुए उत्तर दिया । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिज्ञासु के असाधारण गुणों का कथन करने से उस व्यक्ति में विशिष्ट प्रेरणा जागृत होती हैं, जिससे वह विषय को भलीभाँति समझ सकता है। १. शरीरद्वार - भगवान् ने कहा कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं — औदारिक, तैजस् और कार्मण । सामान्यरूप से शरीर पाँच हैं - १. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आहारक, ४. तैजस् और ५. कार्मण । औदारिक - उदार अर्थात् प्रधान - श्रेष्ठ पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। यह तीर्थंकर और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए। तीर्थंकर एवं गणधरों के शरीर की तुलना में अनुत्तर विमानवासी देवों के शरीर अनन्तगुणहीन हैं। 1 अथवा उदार का अर्थ बृहत् (बड़ा) है। शेष शरीरों की अपेक्षा बड़ा होने से औदारिक है । औदारिक शरीर का प्रमाण कुछ अधिक हजार योजन है । यह वृहत्तर (जन्मजात ) भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा १. संखातीते विभवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा । न य णं अणाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो ॥ २. नहि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४ ] से है । अन्यथा उत्तरवैक्रिय तो लाखयोजन प्रमाण भी होता है । अथवा उदार अर्थात् स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। जो शरीर सड़न - गलन स्वभाव वाला है, जिसका छेदन-भेदन किया जा सकता है, जिसमें त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि आदि हों, वह औदारिक शरीर है। [जीवाजीवाभिगमसूत्र वैक्रियशरीर- जो शरीर विविध रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है, वह वैक्रियशरीर है। जो एक होकर अनेक हो जाता हो, अनेक होकर एक हो जाता हो, छोटे से बड़ा, बड़े से छोटा हो जाता हो, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर, दृश्य से अदृश्य और अदृश्य से दृश्य हो सकता है, वह वैक्रियशरीर है । यह शरीर दो प्रकार का है- औपपातिक और लब्धिप्रत्ययिक । देवों और नारकों को जन्म से जो शरीर प्राप्त होता है वह औपपातिक वैक्रियशरीर है तथा किन्हीं विशिष्ट मनुष्य - तिर्यञ्चों को लब्धि के प्रभाव से विविध रूप बनाने की शक्ति प्राप्त होती है वह लब्धिजन्य वैक्रियशरीर है। बादर वायुकायिक जीवों में भी कृत्रिम लब्धिजन्य वैक्रियशरीर माना गया है। इस शरीर की रचना में रक्त, मांस, अस्थि आदि नहीं होते । सडन - गलन धर्म भी नहीं होते । औदारिक की अपेक्षा इसके प्रदेश प्रमाण में असंख्यातगुण अधिक होते हैं किन्तु सूक्ष्म होते हैं । १ आहारकशरीर - चौदह पूर्वधारी मुनि तीर्थंकर की ऋद्धि-महिमा दर्शन के लिए तथा अन्य इसी प्रकार के प्रयोजन होने पर विशिष्ट लब्धि द्वारा जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारक है। विशिष्ट प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि -२ प्राणिदया, ऋद्धिदर्शन, सूक्ष्मपदार्थों की जानकारी के लिए और संशय के निवारण के लिए चतुर्दशपूर्वधारी मुनि अपनी लब्धिविशेष से एक हस्तप्रमाण सूक्ष्मशरीर बनाकर तीर्थंकर भगवान् के पास भेजते हैं। यह सूक्ष्मशरीर अत्यन्त शुभ स्वच्छ स्फटिकशिला की तरह शुभ्र पुद्गलों से रचा जाता है। इस शरीर की रचना कर चौदह पूर्वधारी मुनि महाविदेह आदि क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थंकर भगवान् के पास भेजते हैं । यदि तीर्थंकर भगवान् वहाँ से अन्यत्र विचरण कर गये हों तो उस एक हस्तप्रमाण से मुंड हस्तप्रमाण पुतला निकलता है जो तीर्थंकर भगवान् जहाँ होते हैं वहाँ पहुँच जाता है । वहाँ से प्रश्नादि का समाधान लेकर एक हस्तप्रमाण शरीर में प्रवेश करता है और वह एक हस्तप्रमाण शरीर चौदह पूर्वधारी मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। इससे चौदह पूर्वधारी का प्रयोजन पूरा हो जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त काल में यह सब प्रक्रिया हो जाती है। इस प्रकार की शरीर रचना आहारकशरीर है। यह आहारकशरीर लोक में कदाचित् सर्वथा नहीं भी होता है। इसके अभाव का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है। तैजस्शरीर – जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का १. आह्रियते निर्वत्त्यते इत्याहारकम् । २. कज्जम्मि समुप्पन्ने सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए । जं एत्थ आहारेज्जइ भांति आहारगं तं तु ॥ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] [३५ कारण हो वह तैजस्शरीर है। जैसे कृषक खेत के क्यारों में अलग-अलग पानी पहुंचाता है इसी तरह यह शरीर ग्रहण किये हुए आहार को रसादि में परिणत कर अवयव-अवयव में पहुंचाता है। विशिष्ट तप से प्राप्त लब्धिविशेष से किसी किसी पुरुष को तेजोलेश्या निकालने की लब्धि प्राप्त हो जाती है, उसका हेतु भी तैजस्शरीर है। यह सभी संसारी जीवों के होता है। कार्मणशरीर-आत्मप्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की तरह मिले हुए कर्मपरमाणु ही शरीर रूप में परिणत होकर २ कार्मणशरीर कहलाते हैं। कर्म-समूह ही कार्मणशरीर है। यह अन्य सब शरीरों का मूल हैं। कार्मण के होने पर ही शेष शरीर होते हैं। कार्मण के उच्छेद होते ही सब शरीरों का उच्छेद हो जाता जीव जब अन्य गति में जाता है तब तैजस् सहित कार्मणशरीर ही उसके साथ होता है। सूक्ष्म होने के कारण यह तैजस्-कार्मण शरीर गत्यन्तर में जाता-आता दृष्टिगोचर नहीं होता। इस विषय में अन्यतीर्थिक भी सहमत हैं। उन्होंने कहा है कि गत्यन्तर २ मे जाता-आता हुआ यह शरीर सूक्ष्म होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। दृष्टिगोचर न होने से उसका अभाव नहीं मानना चाहिए। . उक्त पांच शरीरों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं-औंदारिक, तैजस् और कार्मण। वैक्रिय और आहारक उनके नहीं होते। क्योंकि ये दोनों लब्धियाँ हैं और भवस्वभाव से ही वे जीव इन लब्धियों से वंचित होते हैं। २. अवगाहनाद्वार-शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है-जघन्य और उत्कृष्ट । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है और उत्कृष्ट भी अंगुल का असंख्यातवाँ भाग ही है, परन्तु जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में अपेक्षा कृत अधिक अवगाहना जाननी चाहिए। ३. संहननद्वार-हड्डियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं। वे छह हैं-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त। वऋषभनाराच-वज्र का अर्थ कीलिका है। ऋषभ का अर्थ परिवेष्टनपट्ट है और नाराच का अर्थ दोनों तरफ मर्कटबन्ध होना है। तात्पर्य यह हुआ कि दो हड्डियाँ दोनों ओर से मर्कटबन्ध से जुड़ी हों, ऊपर से तीसरी हड्डीरूप पट्टे से वेष्टित हों और ऊपर से तीनों अस्थियों को भेदता हुआ कीलक हो। इस प्रकार की मजबूत हड्डियों की रचना को वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं। १. सव्वस्स उम्हासिद्धं रसाइ आहारपाकजणगं च । तेजगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्यं । २. कम्मविकारो कम्मट्ठविह विचित्तकम्मनिष्फन्न। सव्वेसिं सरीराणां कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ ... ३. अन्तरा भवदेहोऽपि सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते। निष्क्रामन् प्रविशन् वाऽपि नाभावोऽनीक्षणादपि॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ऋषभनाराच-जिसमें मर्कटबन्ध हो, पट्ट हो लेकिन कीलक न हो, ऐसी अस्थिरचना को ऋषभनाराच कहते हैं । नाराच-जिसमे मर्कटबन्ध से ही हड्डियाँ जुड़ी हों वह नाराचसंहनन है । अर्ध-नाराच-जिसमें एक तरफ मर्कटबन्ध हो और दूसरी ओर कीलिका हो, वह अर्ध-नाराच है। कीलिका–जिसमें हड्डियाँ कील से जुड़ी हों। सेवात (छेदवर्ति)-जिसमें हड्डियाँ केवल आपस में जुड़ी हुई हों (कीलक आदि का बन्ध भी न हो) वह सेवार्त या छेदवर्ति संहनन है। प्रायः मनुष्यादि के यह संहनन होने पर तेलमालिश आदि की अपेक्षा रहती है। उक्त प्रकार के छह संहननों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के अन्तिम छेदवर्ति या सेवार्त संहनन कहा गया है। यद्यपि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीर में हड़ियाँ नहीं होती हैं फिर भी हड्डी होने की स्थिति में जो शक्ति-विशेष होती है वह उनमें है, अतः उनको उपचार से संहनन माना है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के औदारिक शरीर तो है, उस शरीर के कारण से सूक्ष्म शक्ति-विशेष तो होती ही है। . ४. संस्थानद्वार-संस्थान का अर्थ है-आकृति। ये संस्थान छह बताये गये हैं- १ समचतुरस्रसंस्थान, २ न्यग्रोध-परिमंडलसंस्थान, ३ सादिसंस्थान, ४ कुब्जसंस्थान, ५ वामनसंस्थान, ६ हुंडसंस्थान । १. समचतुरस्र–पालथी मार कर बैठने पर जिस शरीर के चारों कोण समान हों। दोनों जानुओं, दोनों स्कन्धों का अन्तर समान हो, वाम जानु और दक्षिण स्कन्ध, वाम स्कन्ध और दक्षिण जानु का अन्तर समान हो, आसन से कपाल तक का अन्तर समान हो, ऐसी शरीराकृति को समचतुरस्रसंस्थान कहते हैं । अथवा सामुद्रिक शास्त्र के अनुसार जिस शरीर के सम्पूर्ण अवयव ठीक प्रमाण वाले हों, वह समचतुरस्र है। २. न्यग्रोधपरिमंडल-न्यग्रोध का अर्थ वटवृक्ष है। वटवृक्ष की तरह जिस शरीर का नाभि से ऊपर का हिस्सा पूर्ण हो और नीचे का भाग हीन हो वह न्यग्रोधपरिमंडल है। ३. सादि-यहाँ सादि से अर्थ नाभि से नीचे के भाग से है। जिस शरीर में नाभि से नीचे का भाग पूर्ण हो और ऊपर का भाग हीन हो वह सादिसंस्थान है। ४. कुब्ज-जिस शरीर में हाथ, पैर, सिर आदि अवयव ठीक हों परन्तु छाती, पीठ, पेट हीन और टेढ़े हों, वह कुब्जसंस्थान है। ५. वामन–जिस शरीर में छाती, पीठ, पेट आदि अवयव पूर्ण हों परन्तु हाथ, पैर आदि अवयव छोटे हों वह वामनसंस्थान है। ६. हुंड-जिस शरीर के सब अवयव हीन, अशुभ और विकृत हों, वह हुंडसंस्थान है। उक्त छह संस्थानों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कौनसा संस्थान है, इस प्रश्न के उत्तर में कहा Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] गया है कि उनका संस्थान मसूर की दाल जैसा चन्द्राकार संस्थान है । चन्द्राकार मसूर की दाल जैसा संस्थान हुंडसंस्थान ही है। अन्य पाँच संस्थानों में यह आकार नहीं हो सकता। अतः हुंडसंस्थान में ही यह समाविष्ट होता है। जीवों के छह संस्थानों के अतिरिक्त और कोई संस्थान नहीं होता । हुंडसंस्थान का कोई एक विशिष्ट रूप नहीं है। वह असंस्थित स्वरूप वाला है । अतएव सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के मसूर की दाल जैसी आकृति वाला हुंडसंस्थान जानना चाहिए । [३७ ५. कषायद्वार — जिसमें प्राणी कसे जाते हैं, पीड़ित होते हैं वह है कष अर्थात् संसार । जिनके कारण प्राणी संसार में आवागमन करते हैं- भवभ्रमण करते हैं वे कषाय हैं । कषाय ४ हैं – क्रोध, मान, माया और लोभ। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में चारों कषाय पाये जाते हैं। यद्यपि इन जीवों में ये कषाय और इनके बाह्य चिह्न दिखाई नहीं देते किन्तु मन्द परिणाम से उनमें होते अवश्य हैं। अनाभोग से मन्द परिणामों की विचित्रता से वे अवश्य उनमें होते हैं। भले ही दिखाई न दें। ६. संज्ञाद्वार - संज्ञा दो प्रकार की हैं - १. ज्ञानरूप संज्ञा और २. अनुभवरूप संज्ञा । ज्ञानरूप संज्ञा मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानरूप है । स्वकृत असातावेदनीय कर्मफल का अनुभव करने रूप अनुभवसंज्ञा है। यहाँ अनुभवसंज्ञा का अधिकार है, क्योंकि ज्ञानरूप संज्ञा की ज्ञानद्वार में परिगणना की गई है। अनुभवसंज्ञा चार प्रकार की है - १. आहारसंज्ञा, २. भयसंज्ञा, ३. मैथुनसंज्ञा और ४ परिग्रहसंज्ञा । आहारसंज्ञा - क्षुधा वेदनीयकर्म से होने वाली आहार की अभिलाषा रूप आत्म-परिणाम आहारसंज्ञा है। भयसंज्ञा - भय वेदनीय से होने वाला त्रासरूप परिणाम भयसंज्ञा है । ' मैथुनसंज्ञा- वेदोदय जनित मैथुन की अभिलाषा मैथुनसंज्ञा है । . परिग्रहसंज्ञा - लोभ से होने वाला मूर्छापरिणाम परिग्रहसंज्ञा है । आहारादि संज्ञा इच्छारूप होने से मोहनीयकर्म के उदय से होती हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में ये चारों संज्ञाएँ अव्यक्त रूप में होती हैं । ७. लेश्याद्वार - जिसके कारण आत्मा कर्मों के साथ चिपकती है वह लेश्या है । १ कृष्णादि द्रव्यों सान्निध्य से आत्मा में होने वाले शुभाशुभ परिणाम लेश्या हैं। जैसे स्फटिक रत्न में अपना कोई कालापीला - नीला आदि रंग नहीं होता है, वह तो स्वच्छ होता है, परन्तु उसके सान्निध्य में जैसे रंग की वस्तु आती है, वह उसी रंग का हो जाता है। वैसे ही कृष्णादि पदार्थों के सान्निध्य से आत्मा में जो शुभाशुभ परिणाम उत्पन्न होते हैं, वह लेश्या है। शास्त्रकारों ने लेश्याओं के छह भेद बताये हैं - १. कृष्णलेश्या, २. नीललेश्या, ३. कापोतलेश्या, ४. तेजोलेश्या, ५. पद्मलेश्या और ६. शुक्ललेश्या । १. कृष्णादि द्रव्यसाचिव्यात् परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रवर्तते ॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जम्बूफलखादक छह पुरुषों के दृष्टान्त से शास्त्रकारों ने इन लेश्याओं का स्वरूप उदाहरण द्वारा समझाया है। वह इस प्रकार है छह पुरुष रास्ता भूल कर जंगल में एक जामुन के वृक्ष के नीचे बैठकर इस प्रकार विचारने लगेएक पुरुष बोला कि इस पेड़ को जड़मूल से उखाड़ लेना चाहिए। दूसरा पुरुष बोला कि जड़मूल से तो नहीं स्कन्ध भाग काट देना चाहिए। तीसरे ने कहा कि बड़ी-बड़ी डालियाँ काट लेनी चाहिए। चौथा बोलाजामुन के गुच्छों को ही तोड़ना चाहिए। पाँचवां बोला-सब गुच्छे नहीं केवल पके-पके जामुन तोड़ लेने चाहिए। छठा बोला-वृक्षादि को काटने की क्या जरूरत है, हमें जामुन खाने से मतलब है तो सहजरूप से नीचे पड़े हुए चामुन ही खा लेने चाहिए। जैसे उक्त पुरुषों की छह तरह की विचारधाराएँ हुईं, इसी तरह लेश्याओं में भी अलग-अलग परिणामों की धारा होती हैं।' प्रारम्भ की कृष्ण, नील, कापोत-ये तीन लेश्याएँ अशुभ हैं और पिछली तेज, पद्म, शुक्ल ये तीन लेश्याएं शुभ हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में तीन अशुभ लेश्याएं ही पायी जाती हैं । सूक्ष्मों में देवों की उत्पत्ति नहीं होती है । अतएव आदि की तीन लेश्याएँ ही इनमें होती हैं। ८.इन्द्रियद्वार-'इन्दनाद् इन्द्रः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार सम्पूर्ण ज्ञानरूप परम ऐश्वर्य का अधिपति होने से आत्मा इन्द्र है। उसका अविनाभावी चिह्न इन्द्रियाँ हैं। वे इन्द्रियाँ पाँच हैं-श्रोत्रेन्द्रिय, चक्षुरिन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय और स्पर्शनेन्द्रिय। ये पाँचों इन्द्रियाँ दो-दो प्रकार की हैं-द्रव्येन्द्रिय और भावेन्द्रिय। द्रव्येन्द्रिय भी दो प्रकार की हैं१. निर्वृत्तिद्रव्येन्द्रिय और २. उपकरणद्रव्येन्द्रिय। निर्वृत्ति का अर्थ है अलग-अलग आकृति की पौद्गलिक रचना। यह निर्वृत्तिइन्द्रिय भी बाह्य और आभ्यन्तर के भेद से दो प्रकार की है। कान की पपड़ी आदि बाह्य निर्वृत्ति है और इसका कोई एक प्रतिनियत आकार नहीं है। मनुष्य के कान नेत्र के आजु-बाजु और भौहों के बराबरी में होते हैं जबकि घोड़े के कान नेत्रों के ऊपर होते हैं और उनके अग्रभाग तीखे होते हैं। __ आभ्यन्तर निर्वृत्तिइन्द्रिय सब जीवों के एकरूप होती है। इसको लेकर ही आगम में कहा गया है कि श्रोत्रेन्द्रिय का आकार कदम्ब के फल के समान, चक्षुरिन्द्रिय का मसूर की चन्द्राकार दाल के समान, घ्राणेन्द्रिय का आकार अतिमुक्तक के समान, जिह्वेन्द्रिय का खुरपे जैसा और स्पर्शनेन्द्रिय का नाना प्रकार का है। स्पर्शनेन्द्रिय १. पंथाओ परिभट्टा छप्पुरिसा अडविमण्झयारंमि। जम्बूतरुस्स हेट्ठा परोप्परं ते विचिंतेति॥१॥ निम्मूल खंधसाला गोच्छे पक्के य पडियसडियाई। जह एएसिं भावा, तह लेसाओ वि णायव्वा ॥२॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] [३९ में प्रायः बाह्य-आभ्यन्तर का भेद नहीं, तत्वार्थ की मूल टीका में यह भेद नहीं माना गया है। उपकरण का अर्थ है आभ्यन्तर निर्वृत्ति की शक्ति-विशेष। बाह्य निर्वृत्ति तलवार के समान है और आभ्यन्तर निर्वृत्ति तलवार की धार के समान स्वच्छतर पुद्गल समूह रूप है। उपकरण इन्द्रिय और आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय में थोड़ा भेद है, जो शक्ति और शक्तिमान में है। आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने पर भी उपकरणेन्द्रिय का उपघात होने पर विषय ग्रहण नहीं होता। जैसे कदम्बाकृति रूप आभ्यन्तर निर्वृत्ति इन्द्रिय के होने पर भी महाकठोर घनगर्जना आदि से शक्ति का उपघात होने पर शब्द सुनाई नहीं पड़ता। भावेन्द्रिय दो प्रकार की हैं-१. लब्धि और २. उपयोग। आवरण का क्षयोपशम होना लब्धिइन्द्रिय है और अपने-अपने विषय में लब्धि के अनुसार प्रवृत्त होना-जानना उपयोग-भावेन्द्रिय है। द्रव्येन्द्रिय-भावेन्द्रिय आदि अनेक प्रकार की इन्द्रियाँ होने पर भी यहाँ बाह्य निर्वृत्ति रूप इन्द्रिय को लेकर प्रश्नोत्तर समझने चाहिए। इसको लेकर ही एकेन्द्रियादि का व्यवहार होता है। बकुल आदि वनस्पतियाँ भावरूप से पाँचों इन्द्रियों के विषय को ग्रहण करती हैं किन्तु वे पंचेन्द्रिय नहीं कही जाती, क्योंकि उनके बाह्येन्द्रियाँ पाँच नहीं हैं। स्पर्शनरूप बाह्य इन्द्रिय एक होने से वे एकेन्द्रिय ही हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में केवल एक स्पर्शनेन्द्रिय ही होती है। ९. समुद्घातद्वार-वेदना आदि के साथ एकरूप होकर वेदनीयादि कर्मदलिकों का प्रबलता के साथ घात करना समुद्धात २ कहलाता है। समुद्घात सात हैं-१. वेदनासमुद्घात, २. कषायसमुद्घात, ३. मारणान्तिकसमुद्घात, ४. वैक्रियसमुद्घात, ५. तैजससमुद्घात, ६. आहारकसमुद्घात और ७. केवलिसमुद्घात । १.वेदनासमुद्घात-असातावेदनीय कर्म को लेकर वेदनासमुद्घात होता है। तीव्रवेदना से आभिभूत जीव बहुत-से वेदनीयादि कर्मपुद्गलों को, कालान्तर में अनुभवयोग्य दलिकों को भी उदीरणाकरण से उदयावलिका में लाकर वेदता-भोग भोग कर उन्हें निर्जरित कर देता है-आत्मप्रदेशों से अलग कर देता है। वेदना से पीडित जीव अनन्तानन्त कर्मपुद्गलों से वेष्टित आत्मप्रदोशों को शरीर से बाहर फेंकता है। उन प्रदेशों से वदन-जघनादि छिद्रों को और कर्ण-स्कन्धादि अन्तरालों की पूर्ति करके आयाम-विस्तार से शरीरमात्र क्षेत्र में व्याप्त होकर अन्तर्मुहूर्त तक स्थित होता है। उस अन्तर्मुहूर्त में बहुत सारे असातावेदनीय के कर्मपुद्गलों की परिशातना, निर्जरा होती है। यह वेदनासमुद्घात है। २. कषायसमुद्घात-यह समुद्घात कषायोदय से होता है। कषायोदय से समाकुल जीव स्वप्रदेशों को बाहर निकालकर उनसे वदनोदरादि रन्ध्रों और अन्तरालों की पूर्ति कर आयामविस्तार से देहमात्र क्षेत्र १. पंचिंदिओ उ बउलो नरोव्व सव्वविसओवलंभाओ। तहवि न भण्णइ पंचिंदिउ त्ति बझिदियाभावा॥ २. समिति-एकीभावे उत्-प्राबल्ये एकीभावेन प्राबल्येन घातः समुद्घातः । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र में व्याप्त होकर रहता है। इस स्थिति में वह जीव बहुत से कषायकर्मपुद्गलों का परिशातन (निर्जरा) करता है, यह कषायसमुद्घात है। ३. मारणांतिकसमुद्घात - आयुकर्म को लेकर यह समुद्घात होता है। इस समुद्घात वाला जीव पूर्वविधि से बहुत सारे आयुकर्म के दलिकों की परिशातना करता है, यह मारणांतिकसमुद्घात है। ४. वैक्रियसमुद्घात - वैक्रियशरीर का प्रारम्भ करते समय वैक्रियशरीर नामकर्म को लेकर यह होता है। वैक्रियसमुद्घातगत जीव स्वप्रदेशों को शरीर से बाहर निकालकर शरीर की चौड़ाई प्रमाण तथा संख्यातयोजन प्रमाण लम्बा दण्ड निकालता है और पहले बंधे हुए वैक्रिय नामकर्म के स्थूल पुद्गलों की परिशातना करता है । यह वैक्रियसमुद्घात है । ५. तैजससमुद्घात – तैजसशरीर नामकर्म को लेकर यह होता है। वैक्रियसमुद्घात की तरह यह भी जानना चाहिए। इसमें तैजसशरीर नामकर्म की बहुत निर्जरा होती है । ६. आहारकसमुद्घात – आहारकशरीर की रचना करते समय यह समुद्घात होता है। इसमें आहारकशरीर नामकर्म के बहुत से पुद्गलों की निर्जरा होती है। विधि वैक्रियशरीर की तरह जानना चाहिए । ७. केवलिसमुद्घात—जब केवली के आयुकर्म के दलिक कम रह जाते हैं और वेदनीय, नाम, .. गोत्र, कर्म के दलिक विशेष शेष होते हैं, तब निर्वाण के अन्तर्मुहूर्त पहले केवली समुद्घात करते हैं। इसमे वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के बहुत सारे दलिकों की निर्जरा हो जाती है। इसमें आठ समय लगते हैं । प्रथम समय में दण्डरचना, द्वितीय समय में कपाटरचना, तीसरे समय में मन्थान, चौथे समय में सम्पूर्ण लोक में व्याप्ति, पांचवें समय में अन्तराल के प्रदेशों का संहरण, छठे समय में मन्थान का संहरण, सातवें समय में कपाट का संहरण और आठवें समय में दण्ड का संहरण कर केवली पुनः स्वशरीस्थ हो जाते हैं। इस प्रक्रिया से वेदनीय, नाम और गोत्र कर्म के दलिकों का प्रभूत शातन हो जाता है और वे आयुकर्म के दलिकों तुल्य हो जाते हैं । वेदनादि छह समुद्घातों का समय अन्तर्मुहूर्त और केवलिसमुद्घात का काल आठ समय मात्र है। के सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में पूर्वोक्त सात समुद्घातों में से तीन समुद्घात होते हैं - वेदना, कषाय और मारणांतिक शेष ४ समुद्घात नहीं होते। क्योंकि उनमें वैक्रिय, तैजस, आहारक और केवल लब्धि का अभाव है। १०. संज्ञीद्वार - संज्ञा जिसके हो, वह संज्ञी है। यहाँ संज्ञा से तात्पर्य भूत, वर्तमान और भविष्यकाल का पर्यालोचन करने की शक्ति से है। विशिष्ट स्मरणादि रूप मनोविज्ञान वाले जीव संज्ञी हैं। उक्त मनोविज्ञान से विकल जीव अंसज्ञी हैं । संज्ञा तीन प्रकार की कही गईं हैं - १ दीर्घकालिकी संज्ञा, २ . हेतुवादोपदेशिकी और ३. दृष्टिवादोपदेशिकी । दीर्घकालिकी संज्ञा - भूतकाल का स्मरण, भविष्यकाल का चिन्तन और वर्तमान का प्रवृत्ति - Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] निवृत्तिरूप व्यापार, जिस संज्ञा द्वारा होता है, वह दीर्घकालिकी संज्ञा है। इसी संज्ञा को लेकर संज्ञी - असंज्ञी का विभाग आगम में किया गया है। यह संज्ञा देव, नारक और गर्भज तिर्यंच मनुष्यों को होती है । [४१ हेतुवादोपेदशिकी - देहनिर्वाह हेतु इष्ट में प्रवृत्ति और अनिष्ट से निवृत्ति के लिए उपयोगी केवल वर्तमानकालिक विचार ही जिस संज्ञा से हो, वह हेतुवादोपदेशिकी संज्ञा है । यह संज्ञा द्वीन्द्रियादि में भी पाई जाती है। केवल एकेन्द्रियों में नहीं पाई जाती । दृष्टिवादोपदेशिकी - यहाँ दृष्टि से मतलब सम्यग्दर्शन से है। इसकी अपेक्षा से क्षायोपशमिक आदि सम्यक्त्व वाले जीव ही संज्ञी हैं। मिथ्यात्वी असंज्ञी हैं । उक्त तीन प्रकार की संज्ञाओं में से दीर्घकालिक संज्ञा की अपेक्षा से ही संज्ञी - असंज्ञी का व्यवहार समझना चाहिए । यहाँ प्रश्न किया जा सकता है कि एकेन्द्रिय जीवों में भी आहारादि दस प्रकार की संज्ञाएँ आगम में कही गई हैं तो उन्हें संज्ञी क्यों न माना जाय ? उसका समाधान दिया गया है कि एकेन्द्रियों में यद्यपि उक्त दस प्रकार की संज्ञाएँ अवश्य होती हैं तथापि वे अति अल्पमात्रा में होने से तथा मोहादिजन्य होने से अशोभन होती हैं अतएव उनकी गणना 'संज्ञी में नहीं की जाती है । जैसे किसी व्यक्ति के पास दो चार पैसे हों तो उसे पैसेवाला नहीं कहा जाता । इसी तरह कुरूप व्यक्ति में रूप होने पर भी उसे रूपवान नहीं कहा जाता। यही बात यहाँ भी समझ लेनी चाहिए । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दीर्घकालिक संज्ञा नहीं होती है, अतएव वे संज्ञी नहीं हैं। असंज्ञी ही हैं । ११. वेदद्वार - स्त्री की पुरुष में, पुरुष की स्त्री में, नपुंसक की दोनों में अभिलाषा होना वेद है । वेद तीन हैं - १. स्त्रीवेद, २. पुरुषवेद और ३. नपुंसकवेद । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नपुंसकवेद वाले हैं। इनका सम्मूर्छिम जन्म होता है। नारक और सम्मूर्छिम नपुंसकवेदी ही होते हैं । १ १२. पर्याप्तिद्वार - सूत्रक्रमांक १२ के विवेचन में पर्याप्ति- अपर्याप्ति का विवेचन कर दिया है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में आहार, शरीर, इन्द्रिय और श्वासोच्छ्वास ये चार पर्याप्तियाँ और ये चार ही अपर्याप्तियाँ पाई जाती है। ये चारों अपर्याप्तियाँ करण की अपेक्षा से समझना चाहिए। लब्धि की अपेक्षा से तो एक ही प्राणापान अपर्याप्ति समझनी चाहिए। क्योंकि लब्धि अपर्याप्तक भी नियम से आहार, शरीर, इन्द्रिय पर्याप्ति तो पूर्ण करते १. नारकसंमूर्छिमा नपुंसका - इति भगवद्वचनम् । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ही हैं। अगले भव की आयु बांधे बिना कोई जीव मरता नहीं और अगले भव की आयु उक्त तीन पर्याप्तियों के पूर्ण होने पर ही बंधती है। १३. दृष्टिद्वार-दृष्टि का अर्थ है जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की प्रतिपत्ति (स्वीकृति)। दृष्टि तीन प्रकार की है-१. सम्यग्दृष्टि, २. मिथ्यादृष्टि और ३. सम्यग्मिथ्या (मिश्र) दृष्टि। जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की सहीसही प्रतिपत्ति सम्यग्दृष्टि है। जिनप्रणीत वस्तुतत्त्व की विपरीत प्रतिपत्ति मिथ्यादृष्टि है। जैसे जिस व्यक्ति ने धतूरा खाया हो उसे सफेद वस्तु पीली प्रतीत होती है, इसी तरह जिसे जिनप्रणीत तत्त्व मिथ्या लगता हो और जो उस पर अरुचि करता हो वह मिथ्यादृष्टि है। जो दृष्टि न तो सम्यग् हो औन न मिथ्या ही हो, ऐसी दृष्टि मिश्रदृष्टि है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव उक्त तीन दृष्टियों में से मिथ्यादृष्टि वाले हैं। उनमें सम्यग्दृष्टि नहीं होती। सास्वादनसम्यक्त्व भी उनमें नहीं पाया जाता। सास्वादनसम्यक्त्व वाले भी उनमें उत्पन्न नहीं होते। सदा अतिसंक्लिष्ट परिणाम वाले होने से मिश्रदृष्टि भी उनमें नहीं पाई जाती। न मिश्रदृष्टि वाला उनमें उत्पन्न होता है। क्योंकि मिश्रदृष्टि में कोई काल नहीं करता।' १४. दर्शनद्वार–सामान्यविशेषात्मक वस्तु के सामान्यधर्म को ग्रहण करने वाला अवबोध दर्शन कहलाता है। यह चार प्रकार का है-१. चक्षुर्दर्शन, २. अचक्षुर्दर्शन, ३. अवधिदर्शन और ४. केवलदर्शन। चक्षुर्दर्शन-सामान्य-विशेषात्मक वस्तु के रूप सामान्य को चक्षु द्वारा ग्रहण करना चक्षुर्दर्शन है। अचक्षुर्दर्शन-चक्षु को छोड़कर शेष इन्द्रियों और मन द्वारा सामान्यधर्म को जानना अचक्षुर्दर्शन है अवधिदर्शन-इन्द्रिय और मन की सहायता के बिना रूपी सामान्य को जानना अवधिदर्शन है। केवलदर्शन-सकल संसार के पदार्थों के सामान्य धर्मों को जानने वाला केवलदर्शन है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के इन चार दर्शनों में से एक अचक्षुर्दर्शन पाया जाता है। स्पर्शनेन्द्रिय की अपेक्षा अचक्षुर्दर्शन है, अन्य कोई दर्शन उनमें नहीं होता। १५. ज्ञानद्वार-वैसे तो वस्तु-स्वरूप को जानना ही ज्ञान कहलाता है परन्तु शास्त्रकारों ने वही ज्ञान ज्ञान माना है जो सम्यक्त्वपूर्वक हो। सम्यक्त्वरहित ज्ञान को अज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान सम्यग्दृष्टि के तो ज्ञानरूप हैं किन्तु मिथ्यादृष्टि के मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान और विभंगज्ञान हो जाते है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मिथ्यादृष्टि हैं, अतएव उनमें ज्ञान नहीं माना गया है और निश्चित रूप से मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान माना गया है । यह मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान भी अन्य बादर आदि १. न सम्ममिच्छो कुणइ कालं-इति वचनात्। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [४३ जीवों की अपेक्षा अत्यन्त अल्प मात्रा में होता है।' १६. योगद्वार-मन, वचन और काया के व्यापार (प्रवृत्ति) को योग कहते हैं। ये योग तीन प्रकार के हैं-मनयोग, वचनयोग, और काययोग। उन तीन योगों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के केवल काययोग ही होता है। वचन और मन उनके नहीं होता। १७. उपयोगद्वार-आत्मा की बोधरूप प्रवृत्ति को उपयोग कहते हैं। उपयोग दो प्रकार का हैसाकार-उपयोग और अनाकार-उपयोग। साकार-उपयोग-किसी भी वस्तु के प्रतिनियत धर्म को (विशेष धर्म को) ग्रहण करने का परिणाम साकार उपयोग है। 'आगारो उ विसेसो' कहा गया है। इसलिए पांच ज्ञान और तीन अज्ञान रूप आठ प्रकार का उपयोग साकार उपयोग है। अनाकार-उपयोग-वस्तु के सामान्य धर्म को ग्रहण करने का परिणाम अनाकार-उपयोग है। चार दर्शनरूप उपयोग अनाकार-उपयोग है। साकार-उपयोग के ८ और अनाकार-उपयोग के ४, कुल मिलाकर बारह प्रकार का उपयोग कहा गया है। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मति-अज्ञान और श्रुत-अज्ञान वाले होने से इन दोनों उपयोगों की अपेक्षा साकार-उपयोग वाले हैं। अचक्षुर्दर्शन उपयोग की अपेक्षा अनाकार-उपयोग वाले हैं। १८. आहारद्वार-आहार से तात्पर्य बाह्य पुद्गलों को ग्रहण करना है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव द्रव्य से अनन्तप्रदेशी स्कन्ध का आहार करते हैं। संख्यातप्रदेशी और असंख्यातप्रदेशी स्कन्ध जीव के द्वारा ग्रहणप्रायोग्य नहीं होते हैं। क्षेत्र से असंख्यात प्रदेशों में रहे हुए स्कन्धों का वे आहार करते हैं। काल से किसी भी स्थिति वाले पुद्गलस्कंधों कों वे ग्रहण करते हैं। जघन्य स्थिति, मध्यम स्थिति या उत्कृष्ट स्थिति किसी भी प्रकार की स्थिति वाले आहार योग्य स्कंधों को ग्रहण करते हैं। भाव से-वे जीव वर्ण वाले, गंध वाले, रस वाले और स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं क्योंकि प्रत्येक परमाणु में एक वर्ण, एक गंध, एक रस और दो स्पर्श तो होते ही हैं। वर्ण की अपेक्षा से स्थानमार्गणा (सामान्य चिन्ता) को लेकर एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले, तीन वर्ण वाले, चार वर्ण वाले और पांच वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और भेदमार्गणा की अपेक्षा से २. सर्वनिकृष्टो जीवस्य दृष्टः उपयोग एष वीरेण। सूक्ष्मनिगोदापर्याप्तानां स च भवति विज्ञेयः॥१॥ तस्मात् प्रभृति ज्ञानविवृद्धिर्दण्टा जिनेन जीवानाम्। लब्धिनिमित्तैः करणै: कायेन्द्रियवाग्मनोदृग्भिः॥२॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र काले, नीले, लाल, पीले और सफेद वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । यह कथन व्यवहारनय की अपेक्षा से जानना चाहिए। व्यवहारदृष्टि से ही एक वर्ण वाले, दो वर्ण वाले आदि व्यवहार होता है । अन्यथा निश्चयनय की अपेक्षा से तो छोटे से छोटे अनन्तप्रदेशी स्कन्ध में पांचों वर्ण पाये जाते हैं। कृष्ण आदि प्रतिनियत वर्ण में भी तरतमता पाई जाती है अतएव प्रश्न किया गया कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन काले वर्ण वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं वे एकगुण काले होते हैं यावत् दस गुण काले होते हैं, संख्यातगुण काले होते हैं, असंख्यातगुण काले होते हैं या अनन्तगुण काले होते हैं ? उत्तर दिया गया कि एकगुण काले यावत् अनन्तगुण काले पुद्गलस्कंधों को ग्रहण करते हैं । इसी प्रकार दो गंध और पांच रस के विषय में भी समझ लेना चाहिए । ४४ ] स्पर्श की अपेक्षा से एक स्पर्श वाले, दो स्पर्श वाले, तीन स्पर्श वाले पुद्गलों का ग्रहण नहीं करते किन्तु चार स्पर्श वाले, पांच स्पर्श वाले, यावत् आठ स्पर्श वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । भेदमार्गणा लेकर कर्कश यावत् रूक्ष का आहार करते हैं । कर्कश आदि स्पर्शो में एकगुण कर्कश यावत अनन्तगुण कर्कश का ग्रहण करते हैं । इसी तरह आठों स्पर्श के विषय में समझ लेना चाहिए । वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन वर्ण, गंध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलस्कन्धों को ग्रहण करते हैं वे आत्मप्रदेशों के साथ स्पृष्ट (छुए हुए) होते हैं। अस्पृष्ट पुद्गलस्कंधों का ग्रहण नहीं होता । जो पुद्गलस्कन्ध आत्मप्रदेशों में अवगाढ होते हैं, उन्हें ही वे ग्रहण करते हैं, अनवगाढ को नहीं । स्पर्श अवगाहक्षेत्र के बाहर भी हो सकता है जबकि अवगाहन उसी क्षेत्र में होता हैं । अतः अलगअलग प्रश्न और उत्तर दिये गये हैं । अवगाढ पुद्गलस्कन्ध दो प्रकार के हैं - अनन्तरावगाढ और परम्परावगाढ। जिन आत्मप्रदेशों में जो व्यवधानरहित होकर रहे हुए हैं वे अनन्तरावगाढ हैं और जो एक-दो-तीन आदि प्रदेशों के व्यवधान से रहे हुए हैं वे परम्परावगाढ हैं। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अनन्तरावगाढ पुद्गलों को ग्रहण करते हैं, परंपरावगाढ को नहीं । ये अनन्तरावगाढ पुद्गल अणुरूप (थोड़े प्रदेश वाले) भी होते हैं और बादर ( विपुल प्रदेश वाले) रूप भी होते हैं। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दोनों प्रकार के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं। वह पृथ्वीकायिक जीव जितने क्षेत्र में अवगाढ है उस क्षेत्र में ही वह ऊर्ध्व या तिर्यक् स्थित प्रदेशों को ग्रहण करता है । जिस अन्तर्मुहूर्त प्रमाणकाल में वह जीव उपभोगयोग्य द्रव्यों को ग्रहण करता है वह उस अन्तर्मुहूर्त काल के आदि में, मध्य में, और अन्त में भी ग्रहण करता है । सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव अपने लिए उचित आहारयोग्य पुद्गलस्कंधों को ग्रहण करते हैं, अपने लिए अनुचित को ग्रहण नहीं करते । ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव स्वविषय पुद्गलों को भी आनुपूर्वी से ग्रहण करते हैं, अनानुपूर्वी से नहीं । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] अर्थात् ये यथासामीप्य वाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं- दूरस्थ को नहीं । ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव जिन यथा - आसन्न पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उन्हें व्याघात न होने पर छहों दिशाओं से ग्रहण करते हैं । व्याघात होने पर कभी तीन दिशाओं, कभी चार दिशाओं, कभी पांच दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं । व्याघात का अर्थ है- अलोकाकाश से प्रतिस्खलन ( रुकावट) । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है [ ४५ जब कोई सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव लोकनिष्कुट में (आखरी किनारे पर ) नीचे के प्रतर के आग्नेयकोण रहा हुआ हो तो उसके नीचे अलोक होने से अधोदिशा में पुद्गलों का अभाव होता हैं, आग्नेयकोण में स्थित होने से पूर्वदिशा के पुद्गलों का और दक्षिणदिशा के पुद्गलों का अभाव होता है। इस तरह अधोदिक् पूर्वदिक् और दक्षिणदिक्- ये तीन दिशाएँ अलोक से व्याप्त होने से इनमें पुद्गलों का अभाव है, अतः शेष तीन दिशाओं के पुद्गलों का ही ग्रहण संभव है । इसलिए कहा गया है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव व्याघात को लेकर कभी तीन दिशाओं के पुद्गलों का आहार करते हैं । जब वही जीव पश्चिमदिशा में वर्तमान होता है तब उसके पूर्वदिशा अधिक हो जाती है। दक्षिणदिशा और अधोदिशा- ये दो दिशाएँ ही अलोक से व्याप्त होती हैं इसलिए वह जीव चार दिशाओं से - ऊर्ध्व, पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशा से पुद्गलों को ग्रहण करता है । जब वह जीव ऊपर के द्वितीयादि प्रतरगत पश्चिमदिशा में होता है तब उसके अधोदिशा भी अधिक हो जाती है। केवल एकपर्यन्तवर्तिनी दक्षिण दिशा ही अलोक से व्याहत रहती है। ऐसी स्थिति में वह जीव पूर्वोक्त चार और अधोदिशा मिलाकर पाँच दिशाओं में स्थित पुद्गलों को ग्रहण करता है । आहारद्वार का उपसंहार करते हुए सूत्रकार ने कहा है कि वे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्रायः - बहुलता से पाँचों वणों के, दोनों गंधवाले, पांचों रसवाले और आठों स्पर्शवाले पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और उनके पूर्ववर्ती वर्ण, रस, गंध और स्पर्श गुणों को परिवर्तित कर अपूर्व वर्ण, गंध, रस और स्पर्श गुणों को पैदा कर अपने शरीरक्षेत्र में अवगाढ पुद्गलों को आत्मप्रदेशों से आहार के रूप में ग्रहण करते हैं । १९. उपपातद्वार—जहाँ से आकर उत्पत्ति होती है वह उपपात है। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव नरक से आकर उत्पन्न नहीं होते, देवों से आकर भी उत्पन्न नहीं होते। ऐसा ही भवस्वभाव है कि देव और नारक सूक्ष्म पृथ्वीकाय के रूप में उत्पन्न नहीं होते । ये जीव असंख्यात वर्षों की आयुवाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष पर्याप्त - अपर्याप्त तिर्यंचों से आकर उत्पन्न होते हैं। असंख्यात वर्षायु तिर्यंच इनमें उत्पन्न नहीं होते । कर्मभूमि के अन्तरद्वीपों के और असंख्यात वर्ष की आयुवाले कर्मभूमि में उत्पन्न मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त - अपर्याप्त मनुष्यों से आकर उत्पन्न हो सकते हैं। २०. स्थितिद्वार — स्थिति से मतलब उसी जन्म की आयु से है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव की स्थिति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त है और अधिक से अधिक भी अन्तर्मुहूर्त ही है। लेकिन जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त अधिक समझना चाहिए । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र २१. समवहत-असमवहतद्वार-मारणान्तिकसमुद्घात करके जो मरण होता है, वह समवहत है और मारणान्तिकसमुद्घात किये बिना जो मरण होता है, वह असमवहत है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों में दोनों प्रकार का मरण है। २२. च्यवनद्वार–वर्तमान भव पूरा होने पर उस भव का अन्त होना च्यवन है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव मर कर न तो नारकों में उत्पन्न होते हैं और न देवों में उत्पन्न होते हैं। वे तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं तो असंख्यात वर्षों की आयु वाले भोगभूमि के तिर्यंचों को छोड़ कर शेष एकेन्द्रिय यावत् पंचेन्द्रिय पर्याप्त और अपर्याप्त सब तिर्यंचों में उत्पन्न हो सकते हैं। यदि वे मनुष्यों में उत्पन्न हों तो अकर्मभूमिज, अन्तीपज और असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्यों को छोड़ कर शेष पर्याप्त या अपर्याप्त मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। ___इस कथन द्वारा यह भी सिद्ध किया गया है कि आत्मा सर्वव्यापक नहीं है और वह भवान्तर में जाकर उत्पन्न होती है। २३. गति-आगति द्वार-जीव मर कर जहाँ जाते हैं वह उनकी गति है और जीव जहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं वह उनकी आगति है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव दो गति वाले और दो आगति वाले हैं। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक मर कर तिर्यंच और मनुष्य गति में उत्पन्न होते हैं, नारकों और देवों में नहीं। अतः तिर्यंचगति और मनुष्यगति ही इनकी दो गतियाँ हैं। ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव देवों और नारकों से आकर उत्पन्न नहीं होते। केवल तिर्यंचों और मनुष्यों . से ही आकर उत्पन्न होते हैं, अतः ये जीव दो आगति वाले हैं। परीत-ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येकशरीरी हैं, असंख्येय लोकाकाश प्रमाण हैं । इस प्रकार सब तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया है। समणाउसो-हे श्रमण! हे आयुष्मान् ! इस प्रकार सम्बोधन कर जिज्ञासुओं के समक्ष प्रभु महावीर ने सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के स्वरूप का प्रतिपादन किया। बादर पृथ्वीकाय का वर्णन १४. से किं तं बायरपुढविकाइया ? बायरपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सण्ह बायरपुढविकाइया य खर बायरपुढविकाइया य। [१४] बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं? बादर पृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैंयथा-श्लक्षण (मृदु) बादर पृथ्वीकायिक और खर बादर पृथ्वीकायिक। १५. से किं तं सह बायरपुढविकाइया ? Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] [४७ सण्ह बायरपुढविकाइया सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा-कण्हमत्तिया, भेदो जहा पण्णवणाए जाव ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य। तेसिंणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा! तओसरीरगा, पण्णत्ता,तं जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए।तंचेव सव्वं नवरं चत्तारि लेसाओ अवसेसं जहा सुहमपुढविक्काइयाणं आहारो जाव णियमा छहिसिं। उववाओ तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवेहिंतो, देवेहिं जाव सोहम्मेसाणेहिंतो। ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई। ते णं भंते ! जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति असमोहया मरंति ? गोयमा ! समोहया वि मरंति असमोहया वि मरंति। ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति, कहिं उवजंति ? किं नेरइएसु उववजंति ? पुच्छा। नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणुस्सेसु उववजंति, नो देवेसु उववजंति, तं चेव जाव असंखेजवासा उववजेहिं। ते णं भंते ! जीवा कतिगतिया कतिआगतिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुगतिया, तिआगतिया परित्ता असंज्जा य समणाउसो ! से तं बायरपुढविक्काइया। से तं पुढविक्काइया। [१५] श्लक्षण (मृदु) बादर पृथ्वीकाय क्या हैं ? श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय सात प्रकार के कहे गये हैं-काली मिट्टी आदि भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानने चाहिए यावत् वे संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं जैसे कि औदारिक, तैजस और कार्मण। इस प्रकार सब कथन पूर्ववत् जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके चार लेश्याएँ होती हैं। शेष वक्तव्यता सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए यावत् नियम से छहों दिशा का आहार ग्रहण करते हैं। ये बादर पृथ्वीकायिक जीव तिर्यंच, मनुष्यों और देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। देवों से आते हैं तो सौधर्म और ईशान (पहले दूसरे) देवलोक से आते हैं। इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की है। हे भगवन्! ये जीव मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं ? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। भगवन् ! ये जीव वहाँ से मर कर कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या नारकों में उत्पन्न होते हैं आदि प्रश्न करने चाहिए ? गौतम ! ये नारकों में उत्पन्न नहीं होते हैं, तिर्यंञ्चों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र में उत्पन्न नहीं होते। तिर्यंचों और मनुष्यों में भी असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते, इत्यादि। भगवन् ! वे जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले कहे गये हैं ? गौतम ! दो गति वाले और तीन आगति वाले कहे गये हैं। हे आयुष्मन् श्रमण! वे बादर पृथ्वीकाय के जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण इस प्रकार बादर पृथ्वीकाय का वर्णन हुआ। इसके साथ ही पृथ्वीकाय का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-बादर नामकर्म के उदय से जिन पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर बादर हो-समूहरूप में चर्मचक्षुओं से ग्राह्य हो वे बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं। बादर पृथ्वीकायिक जीवों के दो भेद हैं-श्लक्षण बादर पृथ्वीकायिक और खर बादर पृथ्वीकायिक। पीसे हुए आटे के समान जो मिट्टी मृदु हो वह श्लक्षण पृथ्वी है और तदात्मक जो जीव हैं वे भी उपचार से श्लक्षण बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। कर्कशता वाली पृथ्वी खर बादर पृथ्वी है। तदात्मक जीव उपचार से खर बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय-श्लक्षण बादर पृथ्वीकाय के सात प्रकार हैं-काली मिट्टी आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार जानने की सूचना सूत्रकार ने दी है। प्रज्ञापना के उस पाठ का अर्थ इस प्रकार है १. काली मिट्टी, २. नीली मिट्टी, ३. लाल मिट्टी, ४. पीली मिट्टी, ५. सफेद मिट्टी, ६. पांडु मिट्टी और ७. पणग मिट्टी-ये सात प्रकार की मिट्टियाँ श्लक्ष्ण बादर पृथ्वी हैं। इनमें रहे हुए जीव श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं। वर्ण के भेद से पूर्व के ५ भेद स्पष्ट ही हैं। पांडु मिट्टी वह है जो देशविशेष में मिट्टीरूप होकर पांडु नाम से प्रसिद्ध है। पनकमृत्तिका का अर्थ टीकाकार ने इस प्रकार किया है-नदी आदि में पूर आने और उसके उतरने के बाद भूमि में जो मृदु पंक शेष रह जात है, जिसे 'जलमल' भी कहते है वह पनकमृत्तिका है। उसमें रहे हुए जीव भी उपचार से पनकमृत्तिका श्लक्ष्ण बादर पृथ्वीकायिक कहलाते हैं। खर बादर पृथ्वीकायिक-खर बादर पृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं। मुख्यतया चार गाथाओं में चालीस प्रकार बताये गये हैं। वे इस प्रकार-१ शुद्धपृथ्वी-नदीतट भित्ति २ शर्करा-छोटे १. पुढवी य सकरा बालुया य उवले सिला य लोणूसे । तंबा य तउय सीसय रुप्प सुवण्णे य वरे य ॥१॥ हरियाले हिंगुलए मणोसिला सासगंजणपवाले। अब्भपडलब्भवालुय वायरकाये मणिविहाणा॥२॥ गोमेज्जए य रुयए अंके फलिहे य लोहियक्खे य । मरगय मसारगल्ले भुयमोयग इंदनीले य ॥३॥ चंदण गेरुय हंसे पुलए सोगंधिए य बोद्धव्वे। चंदप्पभ वेरुलिए जलकंते सूरकंते य॥४॥ -प्रज्ञापना, सूत्र-१५ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [४९ कंकर आदि ३ बालुका-रेत ४ उपल-टांकी आदि उपकरण तेज करने का (सान बढ़ाने का) पाषाण ५ शिलाघड़ने योग्य बड़ा पाषाण ६ लवण-नमक आदि ७ ऊस-खारवाली मिट्टी जिससे जमीन ऊसर हो जाती है ८ लोहा ९ तांबा १० रांगा ११ सीसा १२ चाँदी १३ सोना १४ वज्र-हीरा १५ हरताल १६ हिंगुल १७ मनःशिला १८ सासग-पारा १९ अंजन २० प्रवाल-विद्रुम २१ अभ्रपटल-अभ्रक-भोडल २२ अभ्रबालुका-अभ्रक मिली हुई रेत और (नाना प्रकार की मणियों के १८ प्रकार जैसे कि) २३ गोमेजक २४ रुचक २५ अंक २६ स्फटिक २७ लोहिताक्ष २८ मरकत २९ भुजमोचक ३० मसारगल्ल ३१ इन्द्रनील ३२ चन्दन ३३ गैरिक ३४ हंसगर्भ ३५ पुलक ३६ सौगंधिक ३७ चन्द्रप्रभ ३८ वैडूर्य ३९ जलकान्त और ४० सूर्यकान्त। उक्त रीति से मुख्यतया खर बादर पृथ्वीकाय के ४० भेद बताने के पश्चात् 'जे यावण्णे तहप्पगारा' कहकर अन्य भी पद्मराग आदि का सूचन कर दिया गया है। ये बादर पृथ्वीकायिक संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । जिन जीवों ने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूरी नहीं की हैं उनके वर्णादि विशेष स्पष्ट नहीं होते हैं अतएव उनका काले आदि विशेष वर्णों से कथन नहीं हो सकता। शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण होने पर ही बादर जीवों में वर्णादि प्रकट होते हैं। ये अपर्याप्त जीव उच्छ्वास पर्याप्ति पूर्ण करने के पूर्व ही मर जाते हैं अतः इन अपर्याप्तों के विशेष वर्णादि का कथन नहीं किया जा सकता । सामान्य विवक्षा में तो शरीरपर्याप्ति पूर्ण होते ही वर्णादि होते ही हैं। अतएव अपर्याप्तों में विशेष वर्णादि न होने का कथन किया गया है। सामान्य वर्णादि तो होते ही हैं। इन बादर पृथ्वीकायिकों में जो पर्याप्त जीव हैं, उनमें वर्णभेद से, गंधभेद से, रसभेद से और स्पर्शभेद से हजारों प्रकार हो जाते हैं। जैसे कि-वर्ण के ५, गंध के २, रस के ५ और स्पर्श के ८ । एक-एक काले आदि वर्ण के तारतम्य से अनेक अवान्तर भेद भी हो जाते हैं। जैसे भंवरा कोयला, कज्जल आदि काले हैं किन्तु इन सबकी कालिमा में न्यूनाधिकता है, इसी तरह नील आदि वर्गों में भी समझना चाहिए। इसी तरह गंध, रस और स्पर्श को लेकर भी भेद समझ लेने चाहिए। इसी तरह वर्गों के परस्पर संयोग से भी धूसर, कर्बुर, आदि अनेक भेद हो जाते हैं। इसी तरह गन्धादि के संयोग से भी कई भेद हो जाते हैं। इसलिए कहा गया है कि वर्णादि की अपेक्षा हजारों भेद हो जाते हैं। इन बादर पृथ्वीकायिकों की संख्यात लाख योनियाँ हैं। एक-एक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृतयोनि तीन प्रकार की हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इनमें से प्रत्येक के शीत, उष्ण, शीतोष्ण के भेद से तीन-तीन प्रकार हैं। शीतादि के भी तारतम्य से अनेक भेद हैं। केवल एक विशिष्ट वर्ण वाले संख्यात होते हुए भी स्वस्थान में व्यक्तिभेद होते हुए भी योनि-जाति को लेकर एक ही योनि गिनी जाति है। ऐसी संख्यात लाख योनियां पृथ्वीकाय में हैं। सूक्ष्म और बादर सब पृथ्वीकायों की सात लाख योनिया कही गई हैं। ये बादर पृथ्वीकायिक जीव एक पर्याप्तक की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ उसकी निश्रा में नियम से असंख्येय अपर्याप्त होते हैं। Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___इन बादर पृथ्वीकायिक जीवों के शरीर, अवगाहना आदि द्वारों का विचार पूर्ववर्णित सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के समान कहना चाहिए। जो विशेषता और अन्तर है उस का उल्लेख यहाँ किया गया है। निम्न द्वारों में विशेषता जाननी चाहिए लेश्याद्वार-सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों में तीन लेश्याएँ कही गई थीं। बादर पृथ्वीकायिकों में चार लेश्याएं जाननी चाहिए। उनमें तेजोलेश्या भी होती है। व्यन्तरदेवों से लेकर ईशान देवलोक तक के देव अपने भवन और विमानों में अति मूर्छा होने के कारण अपने रत्न कुण्डलादि में उत्पन्न होते हैं, वे तेजोलेश्या वाले भी होते हैं। आगम का वाक्य है कि 'जल्लेसे मरइ तल्लेसे उववजइ' जिस लेश्या में मरण होता है, उसी लेश्या में जन्म होता है। इसलिए थोड़े समय के लिए अपर्याप्त अवस्था में तेजोलेश्या भी उनमें पाई जाती हैं। आहारद्वार-बादर पृथ्वीकायिक जीव नियम से छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। क्योंकि बादर जीव नियम से लोकमध्य में ही उत्पन्न होते हैं, किनारे नहीं। इसलिए व्याघात का प्रश्न ही नहीं रहता। उपपातद्वार-देवों से आकर भी बादर पृथ्वीकायिक में जन्म होता है। इसलिए तिर्यच, मनुष्य और देवों से आकर बादर पृथ्वीकायिक में जन्म हो सकता है। स्थिति-इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष की है। गति-आगतिद्वार-देवों से भी इनमें आना होता है इसलिए इनकी तीन गतियों से आगति है और दो गतियों में गति है। इस प्रकार हे आयुष्मन् ! हे श्रमणो! ये बादर पृथ्वीकायिक जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्य लोकाकाशप्रमाण कहे गये हैं। यह बादर पृथ्वीकाय का वर्णन हुआ इसके साथ ही पृथ्वीकाय का अधिकार पूर्ण हुआ। अपकाय का अधिकार १६. से किं तं आउक्काइया ? आउक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमआउक्काइया य बायरआउक्काइया य। सुहमआउक्काइया दुविहा पण्णत्ता. तं जहापज्जत्ता य अपजत्ता य। तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सरीरया पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता, तं जहाओरालिए, तेयए, कम्मए, जहेव सुहुम पुढविक्काइयाणं, णवरंथिबुगसंठिता पण्णत्ता, सेसं तं चेव जाव दुगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता। से तं सुहुमआउक्काइया। Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: अप्काय का अधिकार ] [५१ [१६] अप्कायिक क्या हैं ? अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक। सूक्ष्म अप्कायिक जीव दो प्रकार के हैं, जैसे कि पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन्! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! उनके तीन शरीर कहे गये हैं, जैसे कि औदारिक, तैजस और कार्मण। इस प्रकार सब द्वारों की वक्तव्यता सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह कहना चाहिए। विशेषता यह है कि संस्थान द्वार में उनका स्तिबुक (बुदबुद रूप) संस्थान कहा गया है। शेष सब उसी तरह कहना यावत् वे दो गति वाले, दो आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात कहे गये हैं। यह सूक्ष्म अप्काय का अधिकार हुआ । बादर अप्कायिक १७. से किं तं बायरआउक्काइया ? बायरआउक्काइयाअणेगविहा पण्णत्ता,तं जहा-ओसा, हिमे,जावजेयावन्ते तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य। तं चेव सव्वं णवरं थिबुगसंठिता, चत्तारि लेसाओ, आहारो नियमा छद्दिसिं, उववाओ तिरिक्खजोणिय मणुस्स देवेहिं, ठिई जहन्नेण अंतोमुहुत्तं उक्कोसं सत्तवाससहस्साई; सेसं तं जहा बायरपुढविकाइया जाव। दुगतिया तिआगतिया परित्ता असंखेजा पन्नत्ता समणाउसो ! से तं बायरआउक्काइया, से तं आउक्काइया। [१७] बादर अप्कायिक का स्वरूप क्या है ? बादर अप्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-ओस, हिम यावत् अन्य भी इसी प्रकार के जल रूप। वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इस प्रकार पूर्ववत् कहना चाहिए। विशेषता यह है कि उनका संस्थान स्तिबुक (बुदबुद) है। उनमें लेश्याएँ चार पाई जाती हैं, आहार नियम से छहों दिशाओं का, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देवों से उपपात, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना चाहिए। शेष बादर पृथ्वीकाय की तरह जानना चाहिए यावत् वे दो गति वाले, तीन आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात कह गये हैं। हे आयुष्मन् ! हे श्रमण ! यह बादर अप्कायिकों का कथन हुआ। इसके साथ ही अप्कायिकों का अधिकार पूरा हुआ। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीवों के वर्णन के पश्चात् इन दो सूत्रों में अप्कायिक जीवों के संबंध में जानकारी दी गई है । अप्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-सूक्ष्म अप्कायिक और बादर अप्कायिक। Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र सूक्ष्म अप्कायिक जीव सारे लोक में व्याप्त हैं और बादर अप्कायिक जीव घनोदधि आदि स्थानों में हैं। सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के सम्बन्ध में पूर्वोक्त २३ द्वार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के समान ही समझना चाहिए। केवल संस्थानद्वार में अन्तर है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों का संस्थान मसूर की चक्राकार दाल के समान बताया गया है जबकि सूक्ष्म अप्कायिक जीवों का संस्थान बुदबुद के समान है। ५२ ] बादर अप्कायिक जीव - बादर अप्कायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि ओस, बर्फ आदि, इनका विशेष वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना चाहिए। वह अधिकार इस प्रकार है'बादर अप्कायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि ओस, हिम (जमा हुआ पानीबर्फ) महिका (गर्भमास में सूक्ष्म वर्षा - धूंअर) करक (ओला) हरतुन (भूमि को फोड़कर अंकुरित होने वाला तृणादि पर रहा हुआ जलबिन्दु), शुद्धोदक (आकाश से गिरा हुआ या नदी आदि का पानी) शीतोदक (ठंडा कुए आदि का पानी) उष्णोदक (गरम सोता का पानी) क्षारोदक (खारा पानी) खट्टोदक (कुछ खट्टा पानी) आम्लोदक (अधिक कांजी-सा खट्टा पानी) लवणोदक (लवणसमुद्र का पानी) वारुणोदक (वरुणसमुद्र का मदिरा जैसे स्वाद वाला पानी) क्षीरोदक (क्षीरसमुद्र का पानी) घृतोदक (घृतवरसमुद्र का पानी) क्षोदोदक (इक्षुरससमुद्र का पानी) और रसोदक (पुष्करवरसमुद्र का पानी) इत्यादि, और भी इसी प्रकार के पानी हैं। वे सब बादर अप्कायिक समझने चाहिए। वे बादर अप्कायिक दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इनमें जो अपर्याप्त जीव हैं, उनके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि अप्रकट होने से काले आदि विशेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले नहीं कहे जाते हैं किन्तु सामान्यतया शरीर होने से वर्णादि अप्रकट रूप से होते ही हैं। जो जीव पर्याप्त हैं उनमें वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से नाना प्रकार हैं। वर्णादि के भेद से और तरतमता से उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं। उनकी सब मिलाकर सात लाख योनियाँ हैं। एक पर्याप्त जीव की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त जीव हैं । बादर अप्कायिक जीवों के सम्बन्ध में २३ द्वारों को लेकर विचारणा बादर पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए । जो अन्तर है वह इस प्रकार है संस्थानद्वार में अप्कायिक जीवों का संस्थान बुदबुद के आकार का जानना चाहिए। स्थितिद्वार में जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना चाहिए । शेष सब वक्तव्यता बादर पृथ्वीकायिकों की तरह ही समझना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे अप्कायिक जीव प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण कहे गये हैं । यह अप्कायिकों का अधिकार हुआ । वनस्पतिकायिक जीवों का अधिकार १. आचारांगनिर्युक्ति तथा उत्तराध्ययन अ. ३६ गाथा २६ में बादर अप्काय के पांच भेद ही बताये हैं - १. शुद्धोदक, २. ओस, ३. हिम, ४. महिका और ५. हरतनु । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: बादर वनसंपतकायिक ] [५३ १८. से किं तं वणस्सइकाइया ? वणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-सुहुमवणस्सइकाइयाय बायरवणस्सइकाइया [१८] वनस्पतिकायिक जीवों का क्या स्वरूप है ? वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सूक्ष्म वनस्पतिकायिक और बादर वनस्पतिकायिक। १९. से किं तं सुहुमवणस्सइकाइया । सुहुमवणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-पज्जत्तगाय अपज्जत्तगा यातहेवणवरं अणित्थंथसंठाणसंठिया, दुगतिया दुआगतिया अपरित्ता अवसेसं जहा पुढविकाइयाणं, से तं सुहुमवणस्सइकाइया। [१९] सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव क्या हैं-कैसे हैं ? सूक्ष्म वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त, इत्यादि वर्णन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए। विशेषता यह है कि सूक्ष्म वनस्पतिकायिकों का संस्थान अनियत है। ये जीव दो गति में जाने वाले और दो गतियों से आने वाले हैं। वे अप्रत्येकशरीरी (अनन्तकायिक) हैं और अनन्त हैं। हे आयुष्मन्! हे श्रमण! यह सूक्ष्म वनस्प्पतिकाय का वर्णन हुआ। बादर वनस्पतिकायिक १९. से किं तं बायरवणस्सइकाइया ? बायरवणस्सइकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया य साधारणसरीर बायरवणस्सइकाइया य। [१९] बादर वनस्पतिकायिक क्या हैं-कैसे हैं ? बादर वनस्पतिकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं,जैसे-प्रत्येकशरीरी बादर वनस्पतिकायिक और साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक। २०. से किं तं पत्तेयसरीर बायरवणस्सइकाइया ? पत्तेयसरीर बायरवणस्सइकाइया दुवालसविहा पण्णत्ता, तं जहारुक्खा गुच्छा गुम्मा लता य वल्ली य पव्वगा चेव। तण-वलय-हरित-ओसहि-जलरुह-कुहणा य बोद्धव्वा॥१॥ से किं तं रुक्खा ? रुक्खा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-एगट्ठिया य बहुवीया य। से किं तं एगट्ठिया ? एगट्ठिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र निबंब जंबू जाव पुण्णागणागरुक्खे सीवण्णी तहा असोगे य। जे यावण्णे तहप्पगारा। एतेसिं णं मूला वि असंखेजजीविया एवं कंदा, खंधा, तया, साला, पवाला, पत्ता पत्तेयजीवा, पुष्पाइं अणेगजीवाइं फला एगट्ठिया, से तं एगट्ठिया। से किं तं बहुबीया? बहबीया अणेगविधा पण्णत्ता,तं जहा अत्थिय-तेंदुय-उंबर-कविढे-आमलक-फणस-दाडिम णग्गोध-काउंबरी य तिलयलउय-लोद्धे धवे, जे यावण्णे तहप्पगारा, एतेसिं णं मूला वि असंखेजजीविया जाव फला बहुबीयगा, से तं बहुबीयगा। से तं रुक्खा । एवं जहा पण्णवणाए तहा भाणियव्वं, जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं कुहणा। नाणाविधसंठाणा रुक्खाणं एगजीविया पत्ता। खंधो वि एगजीवो ताल-सरल-नालिएरीणं॥१॥ 'जह सगलसरिसवाणं पत्तेयसरीराणं' गाहा ॥२॥ 'जह वा तिलसक्कुलिया' गाहा ॥३॥ से तं पत्तेयसरीरबायरवणस्सइकाइया। [२०] प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक जीवों का स्वरूप क्या है ? . प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक बारह प्रकार के हैं, जैस-वृक्ष, गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि, जलरुह और कुहण। वृक्ष किसे कहते हैं ? वृक्ष दो प्रकार के हैं-एक बीज वाले और बहुत बीज वाले। एक बीज वाले कौन हैं ? एक बीज वाले अनेक प्रकार के हैं, जैसे-नीम, आम, जामुन यावत् पुन्नाग नागवृक्ष, श्रीपर्णी तथा अशोक तथा और भी इसी प्रकार के अन्य वृक्ष। इनके मूल असंख्यात जीव वाले हैं, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्ते ये प्रत्येक एक-एक जीव वाले हैं, इनके फूल अनेक जीव वाले हैं, फल एक बीज वाले हैं। यह एक बीज वाले वृक्षों का वर्णन हुआ। बहुबीज वृक्ष कौन से हैं ? बहुबीज वृक्ष अनेक प्रकार के हैं, जैसे-अस्तिक, तेंदुक, उम्बर, कबीठ, आंवला, पनस, दाडिम, न्यग्रोध, कादुम्बर, तिलक, लकुच (लवक), लोध्र, धव और अन्य भी इसी प्रकार के वृक्ष। इनके मूल असंख्यात जीव वाले यावत् फल बहुबीज वाले हैं। यह बहुबीजक का वर्णन हुआ। इसके साथ ही वृक्ष का वर्णन हुआ। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापना में कहा वैसा यहाँ कहना चाहिए, यावत्-'इस प्रकार के अन्य भी' से लेकर 'कुहण' तक। गाथार्थ-वृक्षों के संस्थान नाना प्रकार के हैं। ताल, सरल और नारीकेल वृक्षों के पत्ते और स्कंध Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: बादर वनस्पतिकायिक ] [५५ एक-एक जीव वाले होते हैं। जैसे श्लेष (चिकने) द्रव्य से मिश्रित किये हुए अखण्ड सरसों की बनाई हुई बट्टी एकरूप होती है किन्तु उसमें वे दाने अलग-अलग होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येकशरीरियों के शरीरसंघात होते हैं। जैसे तिलपपड़ी में बहुत सारे अलग-अलग तिल मिले हुए होते हैं उसी तरह प्रत्येकशरीरियों के शरीरसंघात अलग-अलग होते हुए भी समुदाय रूप होते हैं। यह प्रत्येकशरीर बादरवनस्पतिकायिकों का वर्णन हुआ। विवेचन-बादर नामकर्म का उदय जिनके है वे वनस्पतिकायिक जीव बादर वनस्पतिकायिक कहलाते हैं। इनके दो भेद हैं-प्रत्येकशरीरी और साधारणशरीरी। जिन जीवों का अलग-अलग शरीर है वे प्रत्येकशरीरी हैं और जिन जीवों का सम्मिलित रूप से शरीर है, वे साधारण शरीरी हैं। इन दो सूत्रों में बादर वनस्पतिकायिक जीवों का वर्णन किया गया है। बादर प्रत्येकशरीरी वनस्पतिकायिक के १२ प्रकार कहे गये हैं। वे इस प्रकार हैं(१) वृक्ष-नीम, आम आदि (२) गुच्छ-पौधे रूप बैंगन आदि (३) गुल्म-पुष्पजाति के पौधे नवमालिका आदि (४) लता-वृक्षादि पर चढ़ने वाली लता, चम्पकलता आदि (५) वल्ली-जमीन पर फैलने वाली वेलें, कूष्माण्डी, त्रपुषी आदि (६) पर्वग-पोर-गांठ वाली वनस्पति, इक्षु आदि (७) तृण-दूब, कास, कुश आदि हरी घास (८) वलय-जिनकी छाल गोल होती है, केतकी, कदली आदि (९) हरित-बथुआ आदि हरी भाजी (१०) औषधि-गेहूं आदि धान्य जो पकने पर सूख जाते हैं (११) जलरुह-जल में उगने वाली वनस्पति, कमल, सिंघाड़ा आदि (१२) कुहण-भूमि के फोड़कर उगने वाली वनस्पति, जैसे कुकुरमुत्ता (छत्राक) वृक्ष दो प्रकार के हैं-एक बीज वाले और बहुत बीज वाले। जिसके प्रत्येक फल में एक गुठली या बीज हो वह एकास्थिक है और जिनके फल में बहुत बीज हों वे बहुबीजक हैं। एकास्थिक वृक्षों में से नीम, आम आदि कुछ वृक्षों के नाम सूत्र में गिनाए हैं और शेष प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानने की सूचना दी गई है। प्रज्ञापनासूत्र में एकास्थिक वृक्षों के नाम इस प्रकार गिनाये हैं'नीम, आम, जामुन, कोशम्ब (जंगली आम), शाल, अंकोल्ल, (अखरोट या पिश्ते का पेड़), पीलु, शेलु १. प्रज्ञापनासूत्र, प्रथमपद, गाथा १३-१४-१५ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र (लसोड़ा), सल्लकी (हाथो को प्रिय) मोनकी, मालुक, बकुल (मौलसरी), पलाश (ढाक), करंज (नकमाल); पुत्रजीवक, अरिष्ट (अरीठा), विभीतक (बहेड़ा), हरड, भल्लातक (भिलावा), उम्बेभरिया, खिरनी, धातकी (धावडा) और प्रियाल; पूतिक, (निम्ब), करंज, श्लक्ष्ण, शिंशपा, अशन, पुन्नाग (नागकेसर) नागवृक्ष, श्रीपर्णी और अशोक, ये सब एकास्थिक वृक्ष हैं। इसी प्रकार के अन्य जितने भी वृक्ष हैं जो विभिन्न देशों में उत्पन्न होते हैं तथा जिनके फल में एक ही गुठली हो वे सब एकास्थिक वृक्ष समझने चाहिए। इन एकास्थिक वृक्षों के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं। इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा (छाल), शाखा और कोंपल भी असंख्यात जीवों वाले होते हैं। किन्तु इनके पत्ते प्रत्येकजीव (एक पत्ते में एक जीव) वाले होते हैं। इनके फूलों में अनेक जीव होते हैं, इनके फलों में एक गुठली होती है। बहुबीजक वृक्षों के नाम पन्नवणासूत्र में इस प्रकार कहे गये हैं-. अस्थिक, तिंदुक, कबीठ, अम्बाडग, मातुलिंग (बिजौरा), बिल्व, आमलक, (आंवला), पनस (अनन्नास), दाडिम, अश्वस्थ (पीपल), उदुम्बर, (गूलर), वट (बड), न्यग्रोध (बड़ा बड); नन्दिवृक्ष, पिप्पली, शतरी, प्लक्ष, कादुम्बरी , कस्तुम्भरी, देवदाली, तिलक, लवक (लकुच-लीची), छत्रोपक, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, अर्जुन, नीप, कुरज, (कुटक) और कदम्ब; इसी प्रकार के और भी जितने वृक्ष हैं जिनके फल में बहुत बीज हैं, वे सब बहुबीजक जानने चाहिए। ऊपर जो वृक्षों के नाम गिनाये गये हैं उनमें कतिपय नाम ऐसे हैं जो प्रसिद्ध हैं और कतिपय नाम ऐसे हैं जो देश-विदेश में ही होते हैं। कई नाम ऐसे हैं जो एक ही वृक्ष के सूचक हैं किन्तु उनमें प्रकार भेद समझना चाहिए। भिन्न-भिन्न देशों में भिन्न-भिन्न नाम से कहे जाने के कारण भी अलग से निर्देश समझना चाहिए। बहुबीजकों में आमलक' (आंवला) नाम आया है। वह प्रसिद्ध आंवले का वाचक न होकर अन्य वृक्षविशेष का वाचक समझना चाहिए। क्योंकि बहु-प्रसिद्ध आंवला तो एक बीज वाला है, बहुबीजवाला नहीं। इन बहुबीजक वृक्षों के मूल असंख्यात जीवों वाले होते हैं। इनके कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा और प्रवाल (कोंपल) असंख्य जीवात्मक होते हैं। इनके पत्ते प्रत्येकजीवात्मक होते हैं, अर्थात् प्रत्येक पत्ते में एक-एक जीव होता है। इनके पुष्प अनेक जीवोंवाले हैं और फल बहुत बीज वाले हैं। वृक्षों की तरह ही गुच्छ, गुल्म, लता, वल्ली, पर्वग, तृण, वलय, हरित, औषधि, जलरुह और कुहण के विभिन्न प्रकार प्रज्ञापनासूत्र में विस्तार से बताये गये हैं। यहाँ यह शंका उठ सकती है कि यदि वृक्षों के मूल आदि अनेक प्रत्येकशरीरी जीवों से अधिष्ठित Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: साधारण वनस्पति का स्वरूप] [५७ हैं तो वे एक शरीराकार में कैसे दिकाई देते हैं? इस शंका का समाधान सूत्रकार ने दो दृष्टान्तों द्वारा किया सरसो की बट्टी का दृष्टान्त-जैसे सम्पूर्ण अखण्ड सरसों के दानों को किसी श्लेष द्रव्य के द्वारा मिश्रित कर देने पर एक बट्टी बन जाती है परन्तु उसमें वे सरसों के दाने अलग-अलग अपनी अवगाहना में रहते हैं। यद्यपि परस्पर चिपके होने के कारण बट्टी के रूप में वे एकाकार प्रतीत होते हैं फिर भी वे सरसों के दाने अलग-अलग होते हैं। इसी तरह प्रत्येकशरीरी जीवों के शरीरसंघात भी पृथक्-पृथक् अपनी अवगाहना में रहते हैं, परन्तु विशिष्ट कर्मरूपी श्लेष के द्वारा परस्पर मिश्रित होने से एक शरीराकार प्रतीत होते हैं। तिलपपड़ी का दृष्टान्त-जिस प्रकार तिलपपड़ी में प्रत्येक तिल अपनी-अपनी अवगाहना में अलगअलग होता है किन्तु तिलपपड़ी एक है। इसी तरह प्रत्येकशरीरी जीव अपनी-अपनी अहगाहना में स्थित होकर भी एक शरीराकार प्रतीत होते हैं। यह प्रत्येकशरीरी. बादर वनस्पति का वर्णन हुआ। साधारंण वनस्पति का स्वरूप २१. से कि तं साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइया ? ___साहारणसरीरबादरवणस्सइकाइयाअणेगविहा पण्णत्ता,तंजहा-आलुए, मूलए, सिंगबेरे, हिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्टिया, छिरिया, छिरियविरालिया, कण्हकंदे, वजकंदे, सूरणकंदे, खल्लूडे, किमिरासि, भद्दे, मोत्थापिंडे, हलिहा, लोहारी, णीहु [ठिहु ], थिभु,अस्सकण्णी, सीहकन्नी, सीउंढी, मूसंढी-जे यावण्णे तहप्पगारा; ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहापजत्तगा य अपजत्तगा य। तेसिंणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा ओरालिए, तेयए, कम्मए। तहेब जहा बायरपुढविकाइयाणं।णवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं सातिरेगंजोयणसहस्सं। सरीरगा अणित्थंथसंठिया, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दसवाससहस्साइं। जाव दुगतिया, तिआगतिया, परित्ता अणंता पण्णत्ता। से तं बायरवणस्सइकाइया, से तं थावरा। [२१] साधारणशरीर बादर वनस्पतिकायिक कैसे हैं ? साधारण शरीर बादर वनस्पतिकायिक जीव अनेक प्रकार के हैं, जैसे-आलू, मूला, अदरख, हिरिलि, सिरिलि, सिस्सिरिलि, किट्टिका, क्षीरिका, क्षीरविडालिका, कृष्णकन्द, वज्रकन्द, सूरणकन्द, खल्लूट, कृमिराशि, भद्र, मुस्तापिंड, हरिद्रा, लोहारी, स्निहु, स्तिभु, अश्वकर्णी, सिंहकर्णी, सिकुण्डी, मुषण्डी और अन्य भी इस Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रकार के साधारण वनस्पतिकायिक-अंवक, पलक, सेवाल, आदि जानने चाहिए। ये संक्षेप मे दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसे-पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं-औदारिक, तैजस और कार्मण। इस प्रकार सब कथन बादर पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन से कुछ अधिक है। इनके शरीर के संस्थान अनियत हैं, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट दस हजार वर्ष की जाननी चाहिए। यावत् ये दो गति में जाते हैं और तीन गति से आते हैं। प्रत्येकवनस्पति जीव असंख्यात हैं और साधारणवनस्पति के जीव अनन्त कहे गये हैं। ___ यह बादर वनस्पति का वर्णन हुआ और इसके साथ ही स्थावर का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-एक ही शरीर में आश्रित अनन्त साधारणवनस्पतिकायिक जीव एक साथ ही उत्पन्न होते हैं, एक साथ ही उनका शरीर बनता है, एक साथ ही वे प्राणापान के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और एक साथ ही श्वासोच्छ्वास लेते हैं। एक शरीर में आश्रित साधारण जीवों का आहार, श्वासोच्छ्वास आदि एक साथ ही होता है। एक जीव द्वारा आहारादि का ग्रहण सब जीवों के द्वारा आहारादि का ग्रहण करना है और सबके द्वारा आहारादि का ग्रहण किया जाना ही एक जीव के द्वारा आहारादि ग्रहण करना है। यही साधारण जीवों की साधारणता का लक्षण है। ___ जैसे अग्नि में प्रतप्त लोहे का गोला सारा का सारा लाल अग्निमय हो जाता है वैसे ही निगोदरूप एक शरीर में अनन्त जीवों का परिणमन जान लेना चाहिए। एक, दो, तीन, संख्यात, असंख्यात निगोद जीवों का शरीर दृष्टिगोचर नहीं होता। अनन्त निगोदों के शरीर ही दृष्टिगोचर हो सकते हैं। इस विषय में तीर्थकर देव के वचन ही प्रमाणभूत हैं। भगवान् का कथन है कि सुई की नोंक के बराबर निगोदकाय में असंख्यात गोले होते हैं, एक-एक गोले में असंख्यात निगोद होते हैं और एक-एक निगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। प्रस्तुत सूत्र में साधारण वनस्पतिकाय के अनेक प्रकार बताये गये हैं। कतिपय साधारण वनस्पतियों के नाम बताकर विशेष जानकारी के लिए प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश कर दिया है। वहाँ इस सम्बन्ध में विस्तार के साथ निरूपण है। ___ प्रासंगिक और उपयोगी होने से प्रज्ञापनासूत्र में निर्दिष्ट बादर वनस्पति और साधारण वनस्पति के लक्षणों का यहाँ उल्लेख किया जाता है १. गोला य असंखेज्जा होंति निगोया असंखया गोले। एकेको य निगोओ अणंतजीवो मुणेयव्यो। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: साधारण वनस्पति का स्वरूप ] साधारणशरीर वनस्पति की पहचान - १. जिस मूल, कंद, स्कंध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पुष्प, फल बीज, आदि को तोड़े जाने पर समान भंग हो अर्थात् चक्राकार भंग हो, समभंग हो अर्थात् जो आडीटेढी न टूटकर समरूप में टूटती हो वह वनस्पति साधारणशरीरी है। [५९ २. जिस मूल, कंद, स्कंध और शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्ष छाल अधिक मोटी हो वह अनन्तजीव वाली समझनी चाहिए । ३. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, पत्र, पुष्प आदि के तोड़े जाने पर उसका भंगस्थान चक्र के आकार का सम हो । ४. जिसका गांठ या पर्व को तोड़ने पर चूर्ण निकलता हो । ५. जिसका पृथ्वी के समान प्रतरभेद ( समान दरार ) होती हो वह अनन्तकायिक जानना चाहिए । ६. दूध वाले या बिना दूध वाले जिस पत्र की शिराएँ दिखती न हों, अथवा जिस पत्र की संधि सर्वथा दिखाई न दे, उसे भी अनन्त जीवों वाला समझना चाहिए । पुष्पों के सम्बन्ध में आगम निर्देशानुसार समझना चाहिए | उनमें कोई संख्यात जीव वाले, कोई असंख्यात जीव वाले और कोई अनन्त जीव वाले होते हैं । प्रत्येकशरीरी वनस्पति के लक्षण - १. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध, त्वचा, शाखा, प्रवाल, पत्र, पुष्प, फल और बीज को तोड़ने पर उसमें हीर दिखाई दे अर्थात् जिसका भंग समरूप न होकर विषम हो-दतीला हो । २. जिसका भंगस्थान चक्राकार न होकर विषम हो । ३. जिस मूल, कन्द, स्कन्ध या शाखा के काष्ठ (मध्यवर्ती सारभाग) की अपेक्षा उसकी छाल अधिक पतली हो, वे वनस्पतियाँ प्रत्येकशरीरी जाननी चाहिए। पूर्वोक्त साधारण वनस्पति के लक्षण जिनमें न पाये जावें वे सब प्रत्येकवनस्पति जाननी चाहिए । प्रत्येक किशलय (कोंपल) उगते समय अनन्तकायिक होता है, चाहे वह प्रत्येकशरीरी हो या साधारणशरीरी ।' किन्तु वही किशलय बढ़ता - बढ़ता बाद में पत्र रूप धारण कर लेता है तब साधारणशरीरी से प्रत्येकशरीरी हो जाता है। ये बादर वनस्पतिकायिक जीव दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। जो अपर्याप्त हैं उनके वर्णादि विशेषरूप से स्पष्ट नहीं होते हैं। जो पर्याप्त हैं उनके वर्णादेश से, गंधादेश से, रसादेश से और स्पर्शादेश से हजारों प्रकार हो जाते हैं। इनकी संख्यात लाख योनियाँ हैं । प्रत्येक वनस्पतिकाय की १० लाख और साधारण वनस्पति की १४ लाख योनियाँ हैं। पर्याप्त जीवों की निश्रा में अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक बादर १. 'उग्गेमाणा अणंता' । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पर्याप्त है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त अपर्याप्त पैदा होते हैं। प्रत्येक वनस्पति की अपेक्षा संख्यात, असंख्यात और साधारण वनस्पति की अपेक्षा अनन्त अपर्याप्त समझने चाहिए । उन बादर वनस्पतिकायिकों के विषय में २३ द्वारों की विचारणा में सब कथन बादर पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए । जो अन्तर है वह इस प्रकार है ६० ] इन बादर वनस्पतिकायिक जीवों का संस्थान नाना रूप है-अनियत है। इसकी उत्कृष्ट अवगाहना एक हजार योजन से अधिक की बताई है। वह बाह्य द्वीपों में वल्ली आदि की अपेक्षा तथा समुद्र एवं गोतीर्थों में पद्मनाल की अपेक्षा से समझना चाहिए। इससे अधिक पद्मों की अवगाहना को पृथ्वीकाय का परिणाम समझना चाहिए। ऐसी वृद्ध आचार्यों की धारणा है । स्थितिद्वार में उत्कृष्ट दस हजार वर्ष कहने चाहिए । गति - आगति द्वार के बाद 'अपरित्ता अणंता' पाठ है। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येकशरीरी वनस्पति जीव असंख्यात हैं और साधारणशरीरी वनस्पति जीव अनन्त हैं। इस प्रकार हे आयुष्मन् श्रमण ! यह बादर वनस्पति का कथन हुआ और इसके साथ ही स्थावर जीवों का कथन पूर्ण हुआ । सों का प्रतिपादन २२. से किं तसा ? तसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा तेक्काड्या, वाउक्काइया, ओराला तसा पाणा । [२२] त्रसों का स्वरूप क्या है ? त्रस तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथातेजस्काय, वायुकाय और उदारत्रस । २३. से किं तं तेडक्काइया ? उक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमतेउक्काइया य बादरतेक्काइया य । [२३] तेजस्काय क्या हैं ? तेजस्काय दो प्रकार के कहे गये हैं, जैसेसूक्ष्मतेजस्काय और बादरतेजस्काय । २४. से किं तं सुहुमतेडक्काइया ? सुहुमते उक्काइया जहा - सुहुमपुढविक्काइया नवरं सरीरगा सूइकलावसंठिया, एगगइआ, दुआगइआ, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, सेसं तं चेव, से तं सुहुमतेडक्काइया । [२४] सूक्ष्म तेजस्काय क्या हैं ? सूक्ष्म तेजस्काय सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह समझना । विशेषता यह है कि इनके शरीर का संस्थान Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: त्रसों का प्रतिपादन] [६१ सूइयों के समुदाय के आकार का जानना चाहिए। ये जीव एक गति (तिर्यंचगति) में ही जाते हैं और दो गतियों से (तिर्यंच और मनुष्यों) से आते हैं। ये जीव प्रत्येकशरीर वाले हैं और असंख्यात हैं। यह सूक्ष्म तेजस्काय का कथन हुआ। २५. से किं तं बादरतेउक्काइया ? बादरतेउक्काइया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाइंगाले जाले मुम्मुरे जाव सूरकंतमणिनिस्सिए; जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसिं णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता, तं जहा. ओरालिए, तेयए, कम्मए। सेसं तं चेव, सरीरगा सूइकलावसंठिया, तिनि लेस्सा, ठिती जहन्नेणंअंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि राइंदियाई,तिरियमणुस्सेहितो उववाओ,सेसंतंचेव एगगतिया दुआगतिया, परित्ता असंखेजा पण्णत्ता, से तं तेउक्काइया। [२५] बादर तेजस्कायिकों का स्वरूप क्या है ? बादर तेजस्कायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कोयले की अग्नि, ज्वाला की अग्नि, मुर्मुर (भूभुर) की अग्नि यावत् सूर्यकान्त मणि से निकली हुई अग्नि और भी अन्य इसी प्रकार की अग्नि। ये बादर तेजस्कायिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम! उनके तीन शरीर कहे गये हैं-१. औदारिक, २. तैजस और ३. कार्मण।शेष बादर पृथ्वीकाय की तरह समझना चाहिए। अन्तर यह है कि उनके शरीर सूइयों के समुदाय के आकार के हैं, उनमें तीन लेश्याएँ हैं, जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन रात-दिन की है। तिर्यंच और मनुष्यों से वे आते हैं और केवल एक तिर्यंचगति में ही जाते हैं । वे प्रत्येकशरीर वाले हैं और असंख्यात कहे गये हैं। यह तेजस्काय का वर्णन हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में त्रसजीव तीन प्रकार के कहे गये हैं-तेजस्कायिक, वायुकायिक और उदार त्रस। पूर्व में कहा जा चुका है कि त्रस जीव दो प्रकार के बताये गये हैं-गतित्रस और लब्धित्रस। यहाँ जो तेजस्कायिकों और वायुकायिकों को त्रस कहा गया हैं सो गतित्रस की अपेक्षा से समझना चाहिए। तेजस्काय और वायुकाय में अनभिसंधि पूर्वक गति पाई जाती है, अभिसंधिपूर्वक गति नहीं। जो अभिसंधिपूर्वक गति कर सकते हैं वे तो स्पष्ट रूप से उदार त्रस कहे गये हैं, जैसे-द्वीन्द्रियादि त्रस जीव। ये ही लब्धित्रस कहे Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ ] जाते हैं। तेजस् अर्थात् अग्नि । अग्नि ही जिनका शरीर है वे जीव तेजस्कायिक कहे जाते हैं । ये तेजस्कायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं- सूक्ष्म तेजस्कायिक और बादर तेजस्कायिक । सूक्ष्म तेजस्कायिक जीव वे हैं जो सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले हैं और सारे लोक में व्याप्त हैं तथा जो मारने से मरते नहीं आदि कथन सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों की तरह जानना चाहिए। तेवीस द्वारों की विचारणा में सब कथन सूक्ष्म पृथ्वीकाय की तरह समझना चाहिए । विशेषता यह कि सूक्ष्म तेजस्कायिकों का शरीर संस्थान सूइयों के समुदाय के समान है । च्यवनद्वार में ये सूक्ष्म तेजस्कायिक वहाँ से निकल कर तिर्यंचगति में ही उत्पन्न होते हैं, मनुष्यगति में उत्पन्न नहीं होते। आगम में कहा गया है कि सप्तम पृथ्वी के नैरयिक, तेजस्कायिक और वायुकायिक तथा असंख्यात वर्षों की आयु वाले अनन्तर मर कर मनुष्यगति में नहीं जाते। ' गति - आगति द्वार में - तेजस्कायिक तिर्यंचगति में ही जाते हैं और तिर्यंचगति, मनुष्यगति से आकर उनमें उत्पन्न होते हैं । इसलिए ये एक गति वाले और दो आगति वाले हैं। बादर तेजस्कायिक- बादर तेजस्कायिक जीव वे हैं जो बादरनामकर्म के उदय वाले हैं। उनके अनेक प्रकार हैं, जैसे- इंगाल, ज्वाला, मुर्मुर यावत् सूर्यकांतमणिनिश्रित । यावत् शब्द से अर्चि, अलात, शुद्धाग्नि, उल्का, विद्युत, अशनि, निर्घात, संघर्षसमुत्थित का ग्रहण करना चाहिए। इंगाल का अर्थ है धूम से रहित जाज्वल्यमान खैर आदि की अग्नि । ज्वाला का अर्थ है अग्नि से संबद्ध लपटें या दीपशिखा । मुर्मुर का अर्थ है भस्ममिश्रित अग्निकण - भोभर । का अर्थ है मूल अग्नि से असंबद्ध ज्वाला । लात का अर्थ है किसी काष्ठखण्ड में अग्रि लगाकर उसे चारों तरफ फिराने पर जो गोल चक्कर -सा प्रतीत होता है, वह उल्मुल्क या अलात है । शुद्धागि - लोहपिण्ड आदि में प्रविष्ट अग्नि, शुद्धाग्नि है । उल्का - एक दिशा से दूसरी तरफ जाती हुई तेजोमाला, चिनगारी । विद्युत - आकाश में चमकने वाली बिजली । [जीवाजीवाभिगमसूत्र अशनि - आकाश से गिरते हुए अग्रिमय कण । निर्घात - वैक्रिय सम्बन्धित वज्रपात या विद्युतपात । संघर्ष - समुस्थित - अरणि काष्ठ की रगड़ से या अन्य रगड़ से उत्पन्न हुई अग्नि । सूर्यकान्तमणि- निसृत - प्रखर सूर्य किरणों के स्पर्श से सूर्यकान्तमणि से निकली हुई अग्नि । और भी इसी प्रकार की अग्रियां बादर तेजस्कायिक हैं। ये बादर तेजस्कायिक दो प्रकार के हैं १. सत्तमी महिनेरइया तेऊ वाऊ अनंतरुव्वट्टा | नवि पावे माणुस्सं तहेवऽसंखाउया सव्वे ॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: वायुकाय] पर्याप्त और अपर्याप्त । अपर्याप्त जीवों के वर्णादि स्पष्टरूप से प्रकट नहीं होते हैं। पर्याप्त जीवों के वर्ण, गंध, रस और स्पर्श की अपेक्षा से हजारों प्रकार और संख्यात योनियां हो जाती हैं। इनकी सात लाख योनियां हैं। एक पर्याप्त की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं। शरीर आदि २३ द्वारों की विचारणा सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए। विशेषता यह है कि इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन रात-दिन की है। आहार बादर पृथ्वीकायिकों के समान समझना चाहिए। वायुकाय २६. से किं तं वाउक्काइया ? वाउक्काइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमवाउक्काइया य बादरवाउक्काइया य। सुहुमवाउक्काइया जहा तेउक्काइया णवरं सरीरा पडागसंठिया एगगतिआ दुआगतिया परित्ता असंखिज्जा से त्तं सुहुमवाउक्काइया। . से किं तं बादरवाउक्काइया ? बादरवाउक्काइया अणेगविधा पण्णत्ता, तं जहा पाईणवाए, पडीणवाए, एवं जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य । तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाओरालिए, वेउव्विए, तेयए, कम्मए। सरीरगा पडागसंठिया, चत्तारि समुग्घायावेयणासमुग्याए, कसायसमुग्याए, मारणंतियसमुग्याए, वेउब्वियसमुग्घाए। आहारो णिवाघाएणं छहिसिं, वाघायं पडुच्च सिय तिदिसिं, सिय चउदिसिं, सिय पंचदिसिं। उववाओ देवमणुयनेरइएसुणत्थिाठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्निवाससहस्साई, सेसं तं चेव एगगतिया, दुआगतिया, परित्ता, असंखेजा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं बायरवाउक्काइया, से तं वाउक्काइया। [२६] वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? वायुकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं, यथासूक्ष्म वायुकायिक और बादर वायुकायिक। सूक्ष्म वायुकायिक तेजस्कायिक की तरह जानने चाहिए। विशेषता यह है कि उनके शरीर पताका (ध्वजा) के आकार के हैं। ये एक गति में जाने वाले Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और दो गतियों से आने वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाशप्रदेश प्रमाण हैं। यह सूक्ष्म वायुकायिक का कथन हुआ। बादर वायुकायिकों का स्वरूप क्या है ? बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पूर्वी वायु, पश्चिमी वायु और इसी प्रकार के अन्य वायुकाय। वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम! चार शरीर कहे गये हैं-औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। उनके शरीर ध्वजा के आकार के हैं। उनके चार समुद्घात हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात। उनका आहार व्याघात न हो तो छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है और व्याघात होने पर कभी तीन दिशा, कभी चार दिशा और कभी पांच दिशाओं के पुद्गलों के ग्रहण का होता है। वे जीव देवगति, मनुष्यगति और नरकगति में उत्पन्न नहीं होते । उनकी स्थिति जपन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् । हे आयुष्मन् श्रमण! एक गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये है। यह बादर वायुकाय और वायुकाय का कथन हुआ। विवेचन-वायु ही जिनका शरीर है वे जीव वायुकायिक कहे जाते हैं। ये दो प्रकार के हैं-सूक्ष्म और बादर। सूक्ष्म वायुकायिकों का वर्णन पूर्वोक्त सूक्ष्म तेजस्कायिकों की तरह जानना चाहिए। अन्तर यह है कि वायुकायिकों के शरीर का संस्थान पताका (ध्वजा) के आकार का है। बादर वायुकायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं। प्रज्ञापनासूत्र में कहे गये प्रकारों का यहाँ उल्लेख करना चाहिए। वहाँ इनके प्रकार इस तरह बताये गये हैं पूर्वीवात-पूर्व दिशा से आने वाली हवा।। पश्चिमीवात-पश्चिम दिशा से आने वाली हवा। दक्षिणवात-दक्षिण दिशा से आने वाली हवा। उदीचीनवात-उत्तर दिशा से आने वाली हवा। ऊर्ध्ववात-ऊर्ध्व दिशा में बहने वाली हवा। अधोवात-नीची दिशा में बहने वाली हवा। तिर्यग्वात-तिरछी दिशा में बहने वाली हवा। विदिशावात-विदिशाओं से आने वाली हवा। वातोदभ्रम-अनियत दिशाओं से बहने वाली हवा। वातोत्कलिका-समुद्र के समान तेज बहने वाली तूफानी हवा। वातमंडलिका–वातौली, चक्करदार हवा। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: औदारिक त्रसों का वर्णन] उत्कालिकावात - तेज आंधियों से मिश्रित हवा | मण्डलिकावात - चक्करदार हवाओं से आरंभ होकर तेज आंधियों से मिश्रित हवा | गुंजावात - सनसनाती हुई हवा | झंझावात - वर्षा के साथ चलने वाला अंधड़ अथवा अशुभ एवं कठोर हवा । संवर्तकवात — तिनके आदि उड़ा ले जाने वाली हवा अथवा प्रलयकाल में चलने वाली हवा | घनवात - रत्नप्रभापृथ्वी आदि के नीचे रही हुई सघन - ठोस वायु । तनुवात - घनवात के नीचे रही हुई पतली वायु । शुद्धवात - मन्दवायु अथवा मशकादि में भरी हुई वायु । इसके अतिरिक्त भी अन्य इसी प्रकार की हवाएँ बादर वायुकाय हैं। [६५ ये बादर वायुकायिक जीव दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । अपर्याप्त जीवों के शरीर के वर्णादि पूरी तरह संप्रकट नहीं होते हैं, अतएव विशिष्ट वर्णादि की अपेक्षा उनके भेद नहीं किये गये हैं। जो पर्याप्त जीव हैं उनके वर्णादि संप्रकट होते हैं, अतएव विशिष्ट वर्णादि की अपेक्षा उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं । इनकी साल लाख योनियाँ हैं। एक पर्याप्त वायुकाय जीव की निश्रा में नियम से असंख्यात अपर्याप्त वायुकाय के जीव उत्पन्न होते हैं । शरीर आदि २३ द्वारों की विचारणा में इन बादर वायुकायिक जीवों के चार शरीर होते हैं- औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण । समुद्घात चार होते हैं - वैकियसमुद्घात, वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात और मारणांतिकसमुद्घात । स्थितिद्वार में जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन हजार वर्ष की स्थिति जाननी चाहिए। आहार निर्व्याघात हो तो छहों दिशा के पुद्गलों का होता है और व्याघात की स्थिति में कभी तीन, कभी चार, और कभी पाँच दिशाओं के पुद्गलों का होता है। लोकनिष्कृट (लोक के किनारे) में भी बादर वायुकाय की संभावना है, अतएव व्याघात की स्थिति बन सकती है। शेष द्वार सूक्ष्म वायुकाय की तरह जानने चाहिए । उपसंहार करते हुए कहा गया है कि हे आयुष्मन् श्रमण ! ये जीव एक तिर्यंचगति में ही जाने वाले और तिर्यंच, मनुष्य इन दो गतियों से आने वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात लोकाकाश में प्रदेश प्रमाण हैं । यह वायुकाय का कथन पूरा हुआ। औदारिक त्रसों का वर्णन २७. से किं तं ओराला तसा पाणा ? ओराला तसा पाणा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाबेदिया, इंदिया, चउरिंदिया, पंचेंदिया । [२७] औदारिक त्रस प्राणी किसे कहते हैं ? औदारिक त्रस प्राणी चार प्रकार के कहे गये हैं, Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। विवेचन-'औदारिक त्रस' पद में दिया गया औदारिक' पद गतित्रस का व्यवच्छेदक है। तेजस्काय और वायुकाय रूप गतित्रस से भिन्नता बताने के लिए 'ओराला तसा' कहा गया है। औदारिक का अर्थ हैस्थूल, प्रधान । मुख्यतया द्वीन्द्रियादि जीव ही त्रस रूप से विवक्षित हैं, अतएव ये औदारिक त्रस कहलाते हैं। ये चार प्रकार के हैं-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय। द्वीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन और रसना रूप दो इन्द्रियाँ हों, वे द्वीन्द्रिय हैं। त्रीन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना और घ्राण रूप तीन इन्द्रियाँ हों, वे त्रीन्द्रिय हैं। चतुरिन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण और चक्षु रूप चार इन्द्रियाँ हों, वे चतुरिन्द्रिय हैं। पंचेन्द्रिय-जिन जीवों के स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र रूप पाँच इन्द्रियाँ हों, वे पंचेन्द्रिय जीव हैं। पूर्व में कहा जा चुका है कि इन्द्रियों का यह विभाग द्रव्येन्द्रियों को लेकर है, भावेन्द्रियों की अपेक्षा से नहीं। द्वीन्द्रिय-वर्णन २८. से किं तं बेइंदिया ? बेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहापुलाकिमिआ जाव समुहलिक्खा। जे यावण्णे तहप्पगारा; ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य । तेसिंणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ताओरालिए, तेयए, कम्मए। तेसिंणं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता? जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जभागं उक्कोसेणं बारसजोयणाई। छेवदृसंघयणा, हुंडसंठिया, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि लेसाओ, दो इंदिया, तओ समुग्घाया-वेयणा, कसाय, मारणंतिया, नो सन्नी असन्नी णपुंसकवेदगा, पंच पज्जत्तीओ, पंचअपज्जत्तीओ, सम्मदिट्ठी वि, मिच्छादिट्ठी वि, णो सम्ममिच्छादिट्ठी; णोओहिदसणी, णो चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी, णो केवलदंसणी। ते णं भंते ! जीव किं णाणी, अण्णाणी ? गोयमा! णाणी वि अण्णाणी वि। जे णाणी ते णियमा दुण्णाणी, तं जहा Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: द्वीन्द्रिय वर्णन] ६७ आभिणिबोहियणाणी सुयणाणी य। जे अण्णाणी ते नियमा दुअण्णाणी मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणी य। नोमणजोगी, वइजोगी,कायजोगी. सागारोवउत्ता विअणागारोवउत्तावि।आहारोणियमा छदिसिं। उववाओ तिरिय-मणुस्सेसु नेरइय देव असंखेजवासाउय वज्जेसु । ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारससंवच्छराणि। समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति। कहिं गच्छंति ? नेरइय-देव-असंखेज्जवासाउयवज्जेसु गच्छंति, दुगतिया, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा, से तं बेइंदिया। [२८] द्वीन्द्रिय क्या हैं ? द्वीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पुलाकृमिक यावत् समुद्रलिक्षा। और भी अन्य इसी प्रकार के द्वीन्द्रिय जीव। ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन्! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम! तीन शरीर कहे गये हैं, यथा-औदारिक, तैजस और कार्मण। हे भगवन् ! उन जीवों के शरीर की अहवगाहंना कितनी कही गई है ? गौतम! जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से बारह योजन की अवगाहना है। उन जीवों के सेवार्तसंहनन और हुंडसंस्थान होता है। उनके चार कषाय, चार संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ और दो इन्द्रियाँ होती हैं। उनके तीन समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय और मारणांतिक। ये जीव संज्ञी नहीं हैं, असंज्ञी हैं। नपुंसकवेद वाले हैं। इनके पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ होती हैं। ये सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन सम्यग्-मिथ्यादृष्टि (मिश्रदृष्टि) नहीं होते हैं। ये अवधिदर्शन वाले नहीं होते हैं, चक्षुदर्शन वाले नहीं होते हैं, अचक्षुदर्शन वाले होते हैं, केवलदर्शन वाले नहीं होते। हे भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम! ज्ञानी भी हैं, अज्ञानी भी हैं । जो ज्ञानी हैं वे नियम से दो ज्ञान वाले हैं-मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी। जो अज्ञानी हैं वे नियम से दो अज्ञान वाले हैं-मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी। ये जीव मनोयोग वाले नहीं हैं, वचनयोग और काययोग वाले हैं। ये जीव साकर-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार उपयोग वाले भी हैं। Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इन जीवों का आहार नियम से छह दिशाओं के पुद्गलों का है। इनका उपपात (अन्य जन्म से आकर उत्पत्ति) नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवालों को छोड़कर शेष तिथंच और मनुष्यों से होता है। इनकी स्थित जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बारह वर्ष की है। ये मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। हे भगवन् ! ये मरकर कहाँ जाते हैं ? गौतम ! नैरयिक, देव और असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों में जाते हैं। अतएव ये जीव दो गति में जाते हैं, दो गति से आते हैं, प्रत्येकशरीरी है और असंख्यात हैं। यह द्वीन्द्रिय जीवों का वर्णन हुआ। विवेचन-द्वीन्द्रिय जीवों के प्रकार बताते हुए सूत्रकार ने पुलाकृमि यावत् समुद्रलिक्षा कहा है। यावत् शब्द से यहाँ वे सब जीव-प्रकार ग्रहण करने चाहिए जो प्रज्ञापनासूत्र के द्वीन्द्रियाधिकार में बताये गये हैं। परिपूर्ण प्रकार इस प्रकार हैपुलाकृमि-मल द्वार में पैदा होने वाले कृमि । कुक्षिकृमि-कुक्षि (उदर) में उत्पन्न होने वाले कृमि। गण्डोयलक-गिंडोला। गोलोम, नुपूर, सौमंगलक, वंशीमुख, सूचिमुख, गोजलौका, जलौका (जोंक), जालायुष्क, ये सब लोकपरम्परानुसार जानने चाहिए। शंख-समुद्र में उत्पन्न होने वाले शंख। शंखनक-समुद्र में उत्पन्न होने वाले छोटे-छोटे शंख। घुल्ला-घोंघा। खुल्ला-समुद्री शंख के आकार के छोटे शंख। वराटा-कौडियां । सौत्रिक, मौलिक, कल्लुयावास, एकावर्त, द्वि-आवर्त, नन्दिकावर्त,शम्बूक, मातृवाह, ये सब विभिन्न प्रकार के शंख समझने चाहिए। सिप्पिसंपुट-सीपडियाँ । चन्दनक-अक्ष (पांसा) समुद्रलिक्षा-कृमिविशेष। ये सब तथा अन्य इसी प्रकार के मृतकलेवर में उत्पन्न होने वाले कृमि आदि द्वीन्द्रिय समझने चाहिए। ये द्वीन्द्रिय जीव पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। शरीरादि २३ द्वारों की विचारणा इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तैजस् एवं कार्मण। अवगाहनाद्वार-इन जीवों की शरीर-अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: द्वीन्द्रिय वर्णन] [६९ और उत्कृष्ट से बारह योजन की होती हैं। संहननद्वार-इन जीवों के छेदवर्ति-सेवार्त संहनन होता है। यहाँ मुख्य संहनन ग्रहण करना चाहिए, औपचारिक नहीं। क्योंकि इन जीवों के अस्थियाँ होती हैं। संस्थानद्वार-इन जीवों के हुंडसंस्थान होता है। कषायद्वार-इनमें चारों कषाय पाये जाते हैं। संज्ञाद्वार-इनमें चारों आहारादि संज्ञाएँ होती हैं। लेण्याद्वार-इन जीवों में आरम्भ की कृष्ण, नील, कापोत, ये तीन लेश्याएँ पायी जाती हैं। इन्द्रियद्वार-इनके स्पर्शन और रसन रूप दो इन्द्रियाँ हैं। समुद्घातद्वार-इनमें तीन समुद्घात पाये जाते हैं-वेदना, कषाय और मारणांतिक समुद्घात। संज्ञाद्वार-ये जीव संज्ञी नहीं होते । असंज्ञी होते हैं। वेदद्वार-ये जीव नपुंसकवेद वाले होते हैं । ये सम्मूर्छिम होते हैं और जो संमूर्छिम होते हैं वे नपुंसक ही होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में कहा है-नारक और संमूर्छित नपुंसकवेदी होते हैं।' पर्याप्तिद्वार-इन जीवों के पांच पर्याप्तियाँ पर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं और पांच अपर्याप्तियाँ अपर्याप्त जीवों की अपेक्षा होती हैं। दृष्टिद्वार-ये जीव सम्यग्दृष्टि भी होते हैं और मिथ्यादृष्टि भी होते हैं, लेकिन मिश्रदृष्टि वाले नहीं होते। इसकी स्पष्टता इस प्रकार है जिस प्रकार घण्टा को बजाये जाने पर महान् शब्द होता है और वह शब्द क्रमशः हीयमान होता हुआ लटकन तक ही रह जाता है, इसी तरह सम्यक्त्व से गिरता हुआ जीव क्रमशः गिरता-गिरता सास्वादन सम्यक्त्व की स्थिति में आ जाता है और ऐसे सास्वादन सम्यक्त्व वाले कतिपय जीव मरकर द्वीन्द्रियों में भी उत्पन्न होते हैं। अतः अपर्याप्त अवस्था में थोड़े समय के लिए सास्वादन सम्यक्त्व का सम्भव होने से उनमें सम्यग्दृष्टित्व पाया जाता है। शेषकाल में मिथ्यादृष्टिता है तथा भाव-स्वभाव से तथारूप परिणाम न होने से उनमें मिश्रदृष्टिता नहीं पाई जाती तथा कोई मिश्रदृष्टि वाला उनमें उत्पन्न नहीं होता। क्योंकि मिश्रदृष्टि वाला जीव उस स्थिति में नहीं मरता' यह आगम वाक्य है । २ ____दर्शनद्वार-इनमें अचक्षुदर्शन ही पाया जाता है, चक्षुदर्शन, अवधिदर्शन, केवलदर्शन नहीं। ज्ञानद्वार-ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। सास्वादन सम्यक्त्व की अपेक्षा ज्ञानी हैं। ये ज्ञानी मतिज्ञानी और श्रुतज्ञानी हैं। मिथ्यादृष्टित्व की अपेक्षा अज्ञानी हैं। ये अज्ञानी मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी १. नारकसंमूर्छिनो नपुंसकानि । -तत्त्वार्थ सू. अ. २ सू. ५० २. 'न सम्ममिच्छो कुणइ कालं' इति वचनात् । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र योगद्वार-ये मनोयोगी नहीं हैं। वचनयोगी और काययोगी हैं। उपयोगद्वार-ये जीव साकर-उपयोग वाले भी हैं और अनाकार-उपयोग वाले भी हैं। आहारद्वार-नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों का आहार ये जीव करते हैं। द्वीन्द्रियादि जीव वसनाडी में ही होते हैं अतएव व्याघात का प्रश्न नहीं उठता। उपपात-ये जीव देव, नारक और असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंचमनुष्यगति से आकर पैदा होते हैं। स्थिति-इन जीवों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारह वर्ष की है। समवहतद्वार-ये समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। च्यवनद्वार-ये जीव मरकर देव, नारक और असंख्यात वर्षों की आयुवाले तिर्यंचों-मनुष्यों को छोड़कर शेष तिर्यंच मनुष्य में उत्पन्न होते हैं। गति-आगतिद्वार-ये जीव पूर्ववत् दो गति में जाते हैं और दो गति से आते हैं। ये जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। घनीकृत लोक के ऊपर-नीचे तक दीर्घ एक प्रदेश वालीश्रेणी में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने ये द्वीन्द्रियजीव हैं। असंख्यात का यह प्रमाण बताया गया है। क्योंकि असंख्यात भी असंख्यात प्रकार का है। इन द्वीन्द्रिय-पर्याप्त अपर्याप्त की सात लाख जाति कुलकोडी, योनिप्रमुख होते हैं। पूर्वाचार्यों के अनुसार जातिपद से तिर्यचगति समझनी चाहिए। उसके कुल हैं-कृमि, कीट, वृश्चिक आदि। ये कुल योनिप्रमुख होते हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं । जैसे एक ही गोबर या कण्डे की योनि में कृमिकृत, कीट और वृश्चिककुल आदि होते हैं। इसी प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक जातिकुल के योनि प्रवाह होते हैं। द्वीन्द्रियों के सात लाख जातिकुल कोटिरूप योनियाँ हैं। यह द्वीन्द्रियों का वर्णन हुआ। त्रीन्द्रियों का वर्णन २९. से किं तं तेइंदिया ? तेइंदिया अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाओवइया, रोहिणीया, हथिसोंडा, जे यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तहेवजहा बेइंदियाणंणवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं तिन्नि गाउयाई,तिन्नि इंदिया,ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगूणपण्णासराइंदिया, सेसं तहेव दुगतिया, दुआगतिया, परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से त्तं तेइंदिया। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: चतुरिन्द्रियों का कथन ] [२९] त्रीन्द्रिय जीव कौन हैं ? त्रीन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये है, यथाऔपयिक, रोहिणीक, यावत् हस्तिशौण्ड और अन्य भी इसी प्रकार के त्रीन्द्रिय जीव । ये संक्षेप में दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इसी तरह वह सब कथन करना चाहिए जो द्वन्द्रियों के लिए कहा गया है। विशेषता यह है कि त्रीन्द्रिय जीवों की उत्कृष्ट शरीरावगाहना तीन कोस की है, उनके तीन इन्द्रियाँ हैं, जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट उनपचास रात-दिन की स्थिति है । और सब वैसे ही कहना चाहिए यावत् वे दो गतिवाले, दो आगतिवाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं । यह त्रीन्द्रियों का कथन हुआ । विवेचन - स्पर्शन, रसन और घ्राण- ये तीन इन्द्रियाँ जिन जीवों को होती हैं वे त्रीन्द्रिय जीव हैं। उनके कई प्रकार हैं। प्रज्ञापनासूत्र में उनके भेद इस प्रकार गिनाये गये हैं— औपयिक, रोहिणीक, कंथु (कुंथुआ), पिपीलिका, (चींटी), उद्देशक, उद्देहिका, (उदई - दीमक ), उत्कलिक, उत्पाद, उत्कट, तृणाहार, काष्ठाहार (घुन), मालुक, पत्राहार, तृणवृन्तिक, पत्रवृन्तिक, पुष्पवृन्तिक, फलवृन्तिक, बीजवृन्तिक, तेंदुरणमज्जिक, त्रपुषभिंजिक, कार्पासस्थिभिंजक, हिल्लिक, झिल्लिक, झिंगिर (झींगुर), किगिरिट, बाहुक, लघुक, सुभग, सौवस्तिक, शुकवृत्त, इन्द्रकायिक, इन्द्रगोपक (इन्द्रगोप - रेशमी कीड़ा), उरुलुंचक, कुस्थवाहक, यूका (जूँ), हालाहल, पिशुक (पिस्सु या खटमल), शतपादिका ( गजाई), गोम्ही ( कानखजूरा) और हस्तिशौण्ड । [७१ उक्त त्रीन्द्रिय जीवों के प्रकारों में कुछ तो प्रसिद्ध हैं ही। शेष देशविदेश या सम्प्रदाय से जानने चाहिए। . ये त्रीन्द्रिय जीव पर्याप्त - अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं इत्यादि सब कथन पूर्वोक्त द्वीन्द्रिय जीवों के समान जानना चाहिए। तेवीस द्वारों में भी वही कथन करना चाहिए केवल जो अन्तर है वह इस प्रकार शरीर की अवगाहना - त्रीन्द्रियों की शरीर की अहगाहना उत्कृष्ट तीन कोस की है। इन्द्रियद्वार- - इन जीवों के तीन इन्द्रियाँ होती हैं ? स्थितिद्वार - इनकी स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट उनपचास रात-दिन की है। शेष वही कथन करना चाहिए यावत् वे दो गति और दो आगति वाले हैं, प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। इनकी आठ लाख कुलकोडी हैं । यह त्रीन्द्रियों का कथन हुआ । चतुरिन्द्रयों का कथन ३०. से किं तं चउरिंदिआ ? Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२] चउरिदिआ अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाअंधिया, पुत्तिया जाव गोमकीडा, जे यावन्ने तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसिं णं भंते ! जीवाणं कतिसरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरगा पण्णत्ता-तं चेव, णवरं सरीरोगाहणा उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाई, इंदिया चत्तारि, चक्खुदंसणी, अचक्खुदंसणी, ठिई उक्कोसेण छम्मासा। सेसं जहा तेइंदियाणं जाव असंखेज्जा पण्णत्ता । से तं चउरिदिया। [३०] चतुरिन्द्रिय जीव कौन हैं ? चतुरिन्द्रिय जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-अंधिक, पुत्रिक यावत् गोमयकीट, और इसी प्रकार के अन्य जीव। ये संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं। इस प्रकार पूर्ववत् कथन करना चाहिए। विशेषता यह है कि उनकी उत्कृष्ट शरीर-अवगाहना चार कोस की है, उनके चार इन्द्रियाँ हैं, वे चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी हैं, उनकी स्थिति उत्कृष्ट छह मास की है। शेष कथन त्रीन्द्रिय जीवों की तरह जानना चाहिए यावत् वे असंख्यात कहे गये हैं। यह चतुरिन्द्रियों का कथन हुआ। विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र में चतुरिन्द्रिय जीवों के भेद इस प्रकार बताये गये हैं अंधिक, पौत्रिक (नेत्रिक), मक्खी, मशक (मच्छर), कीट (टिड्डी), पतंग, ढिंकुण, कुक्कुड, कुक्कुह, नंदावर्त, शृंगिरिट, कृष्णपत्र, नीलपत्र, लोहिपत्र, हरितपत्र, शुक्लपत्र, चित्रपक्ष, विचित्रपक्ष, ओभंजलिका, जलचारिक, गंभीर, नीनिक, तंतव, अक्षिरोट, अक्षिवेध, सारंग, नेवल, दोला, भ्रमर, भरिली, जरुला, तोट्ट, बिच्छू, पत्रवृश्चिक, छाणवृश्चिक, जलवृश्चिक, प्रियंगाल, कनक और गोमयकीट। इसी प्रकार के अन्य प्राणियों को चतुरिन्द्रिय जानना चाहिए। इनके पर्याप्त और अपर्याप्त-दो भेद हैं इत्यादि सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। तेवीस द्वारों की विचारणा भी त्रीन्द्रिय जीवों की तरह समझना चाहिए। जो अन्तर है वह इस प्रकार है अवगाहनाद्वार-इनकी अवगाहना उत्कृष्ट चार कोस है। इन्द्रियद्वार-इनके चार इन्द्रियाँ होती हैं। दर्शनद्वार-ये चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन वाले हैं। स्थितिद्वार-इनकी उत्कृष्ट स्थिति छह मास की है। Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: नैरयिक-वर्णन] [ ७३ शेष कथन त्रीन्द्रियों की तरह जानना चाहिए यावत् ये चतुरिन्द्रिय जीव असंख्यात कहे गये हैं । पंचेन्द्रियों का कथन ३१. से किं तं पंचेंदिया ? पंचेंदिया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा रइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा । [३१] पंचेन्द्रिय का स्वरूप क्या है ? पंचेन्द्रिय चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा - नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव । विवेचन — निकल गया है इष्टफल जिनमें से वे निरय' हैं अर्थात् नरकावास हैं । उनमें उत्पन्न होने वाले जीव नैरयिक हैं। प्रायः तिर्यक्लोक की योनियों में उत्पन्न होने वाले तिर्यंक्योनिक या तियँकयोनिज हैं । 'मनु' यह मनुष्य की संज्ञा है । मनु की सन्तान मनुष्य हैं। जो सदा सुखोपभोग करते हैं, सुख में रमण करते हैं, व देव हैं । नैरयिक- वर्णन ३२. से किं तं नेरइया । नेरड्या सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा - रयणप्पभापुढविनेरइया जाव अहेसत्तमपुढविनेरइया । समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - पज्जत्ता य अपज्जत्ता य । तेसिं णं भंते! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता, तं जहा - वेडव्विए, तेयए, कम्मए । तेसिं णं भंते! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेडव्विया य । तत्थ णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेज्जो भागो, उक्कोसेणं पंचधाई । तत्थं णं जा सा उत्तरवेउव्विया सा जहण्णेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुसहस्सं । तेसिं णं भंते! जीवाणं सरीरा किंसंघयणा पण्णत्ता ? गोमा ! छहं संघयणाणं असंघयणी; णेवट्टी, णेव छिरा, णेव ण्हारु, णेव संघयणमत्थि, जे पोग्ला अणिट्ठा अकंता, अप्पिया, असुभा, अमणुण्णा अमणामा ते तेसिं संघातत्ताए परिणमंति ? - वृत्ति | १. तत्र अयम् - इष्टफलं कर्म, निर्गतं अयं येभ्यस्तेनिरया नरकावासाः । २. प्रायः तिर्यग्लोके योनयः उत्पत्तिस्थानानि येषां ते तिर्यग्योनिकाः । ३. मनुरिति मनुष्यस्य संज्ञा । मनोरपत्यानि मनुष्याः । ४. दीव्यन्तीति देवाः । - मलयवृत्ति Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तेसिंणं भंते ! जीवाणं सरीरा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया। तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता। चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, तिण्णि लेसाओ, पंचिंदिया, चत्तारि समुग्याता आइल्ला, सन्नी वि, असन्नी वि। नपुंसकवेदा, छ पजत्तीओ, छ अपजत्तीओ, तिविहा दिट्ठी, तिण्णि दंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते णियमा तिन्नाणी, तं जहाआभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिनाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दु-अण्णाणी, अत्थेगइया ति-अण्णाणी।जे यदु-अण्णाणी तेणियमा मइअण्णाणी सुयअण्णाणी योजेतिअण्णाणी ते नियमा मतिअण्णाणी य सुयअण्णाणी य विभंगणाणी य।तिविहे जोगे, दुविहे उवओगे, छद्दिसिं आहारो,ओसन्नं कारणं पडुच्च वण्णओ कालाइं जाव आहारमाहरेंति; उववाओ तिरिय-मणुस्सेहितो, ठिती जहन्नेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं तित्तीसं सागरोवमाइं। दुविहा मरंति, उवट्टणा भाणियव्वा जतो आगता, णवरि संमुच्छिमेसु पडिसिद्धो, दुगतिया, दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं नेरइया। [३२] नैरयिक जीवों का स्वरूप कैसा है ? नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं, यथा- रत्नप्रभापृथ्वी-नैरयिक यावत् अधःसप्तमपृथ्वी-नैरयिक। ये नारक जीव दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम! तीन शरीर कहे गये हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। भगवन्! उन जीवों के शरीर की अवगाहना कितनी है ? गौतम! उनकी शरीरावगाहना दो प्रकार की है, यथा-अवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। इसमें से जो भवधारणीय अवगाहना है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से पाँच सौ धनुष। जो उत्तरवैक्रिय शरीरावगाहना है वह जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन की है। भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संहनन कैसा है ? गौतम ! छह प्रकार के संहननों में से एक भी संहनन उनके नहीं है क्योंकि उनके शरीर में न तो हड्डी है, न नाडी है, न स्नायु है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं, वे उनके शरीररूप में इकट्ठे हो जाते हैं। भगवन् ! उन जीवों के शरीर का संस्थान कौनसा है ? गौतम! उनके शरीर दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। जो भवधारणीय शरीर हैं वे हुंड संस्थान के हैं और जो उत्तरवैक्रिय शरीर हैं वे भी हुंड संस्थान वाले हैं। उन नैरयिक जीवों के चार कषाय, चार संज्ञाएँ, तीन लेश्याएँ, पांच इन्द्रियाँ, आरम्भ के चार समुद्घात Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: नैरयिक-वर्णन] होते हैं। वे जीव संज्ञी भी हैं, असंज्ञी भी हैं। वे नपुंसक वेद वाले हैं। उनके छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं। वे तीन दृष्टि वाले और तीन दर्शन वाले हैं । वे ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं - मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी । जो अज्ञानी हैं उनमें से कोई दो अज्ञान वाले और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी और श्रुतअज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिअज्ञानी, श्रुतअज्ञानी और विभंगअज्ञानी हैं । उनमें तीन योग, दो उपयोग एवं छह दिशाओं का आहार ग्रहण पाया जाता हैं। प्राय: करके वे वर्ण से काले आदि पुद्गलों का आहार ग्रहण करते हैं । तिर्यंच और मनुष्यों से आकर वे नैरयिक रूप में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य ं दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे दोनों प्रकार से (समवहत और असमवहत) मरते हैं। वे मरकर गर्भज तिर्यंच एवं मनुष्य में जाते हैं, संमूर्छिमों में वे नहीं जाते, अतः हे आयुष्मन् श्रमण ! वे दो गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। यह नैरयिकों का कथन हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के प्रकार बताकर तेवीस द्वारों के द्वारा उनका निरूपण किया गया है। नैरयिक जीव सात प्रकार के हैं—१. रत्नप्रभापृथ्वी - नैरयिक, २. शर्कराप्रभापृथ्वी - नैरयिक, ३. वालुकाप्रभापृथ्वी-नैरयिक, ४. पंकप्रभा पृथ्वी - नैरयिक, ५. धूमप्रभापृथ्वी - नैरयिक, ६. तमः प्रभापृथ्वी - नैरयिक और ७. अधः सप्तमपृथ्वी - नैरयिक | ये नैरयिक जीव संक्षेप में दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इनके शरीरादि द्वारों की विचारणा इस प्रकार है शरीरद्वार-नैरयिकजीवों में औदारिकशरीर नहीं होता । भवस्वभाव से ही उनका शरीर वैक्रिय होता हैं । अतः वैक्रिय, तैजस, और कार्मण- ये तीन शरीर उनमें पाये जाते हैं । [ ७५ अवगाहना - उनकी अवगाहना दो प्रकार की है - भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी । जो जन्म से होती है वह भवधारणीय है और जो भवान्तर के वैरी नारक के प्रतिघात के लिए बाद में विचित्र रूप से बनाई जाती है वह उत्तरवैक्रियिकी है । नारकियों की भवधारणीय अवगाहना तो जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है जो जन्मकाल में होती है । उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा से है । इनकी उत्तरवैक्रियिकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार धनुष की है। यह उत्कृष्ट प्रमाण सातवीं नरकभूमि की अपेक्षा से है। अलग-अलग नैरयिकों की भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी उत्कृष्ट अवगाहना इस कोष्टक से जाननी चाहिए पृथ्वी का नाम भवधारणीय अवगाहना (१) रत्नप्रभा........ (२) शर्कराप्रभा.... (३) बालुकाप्रभा.... (४) पंकप्रभा ..... (५) धूमप्रभा ..... ७ ॥ । धनुष ६ अंगुल १५ ॥ धनुष १२ अंगुल ३१ । धनुष ६२ ॥ धनुष १२५ धनुष उत्तरवैक्रियिकी अव. १५ ॥ धनुष १२ अंगुल ३१ । धनुष ६२ ॥ धनुष १२५ धनुष २५० धनुष Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र (६) तमःप्रभा........ २५० धनुष ५०० धनुष (७) अधःसप्तमपृथ्वी ___५०० धनुष १००० धनुष सहननद्वार-नारक जीवों के शरीर संहनन वाले नहीं होते। छह प्रकार के संहननों में से कोई भी संहनन उनके नहीं होता, क्योंकि उनके शरीरों में न तो शिराएँ (धमनी नाड़ियाँ) होती हैं और न स्नायु (छोटी नाड़ियाँ), उनके शरीर में हड्डियाँ नहीं होती। संहनन की परिभाषा है-अस्थियों का निचय होना। जब नैरयिकों के शरीर में अस्थियाँ हैं ही नहीं तो संहनन का सवाल ही नहीं उठता है। यहाँ यह शंका की जा सकती है कि पहले एकेन्द्रिय जीवों में सेवार्त संहनन बताया गया है, किन्तु उनके भी अस्थियाँ नहीं होती हैं ? इसका समाधान यह है कि एकेन्द्रियों के औदारिक शरीर होता है और उस शरीर के सम्बन्ध मात्र की अपेक्षा से औपचारिक सेवार्तसंहनन कहा है। वास्तव में वह भी गौणरूप से और उपचारमात्र से कहा गया है। देवों में पर्वतादि को उखाड़ने की शक्ति हो, उन्हें इस कार्य में जरा भी शारीरिक श्रम या थकावट नहीं होती, इस दृष्टि से उन्हें वज्रसंहननी कहा गया है। वस्तु-दृष्टि से तो वे असंहननी ही हैं। कोई यह शंका कर सकता है कि 'शक्तिविशेष को संहनन कहते हैं इस परिभाषा के अनुसार देवों में मुख्य रूप में संहनन मानना घटित हो सकता है। यह शंका सिद्धान्तबाधित है, क्योंकि इसी सूत्र में संहनन की परिभाषा 'अस्थिनिचयात्म' की गई है और स्पष्ट कहा गया है कि अस्थियों के अभाव में नैरयिकों में छह संहननों में से कोई संहनन नहीं होता। __पुनः शंका हो सकती है कि, यदि नारकियों के संहनन नहीं है तो उनके शरीरों का बन्ध कैसे घटित होगा ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि-तथाविध पुद्गलस्कन्धों की तरह उनके शरीर का बन्ध हो जाता है। जो पुद्गल अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अशुभ, अमनोज्ञ और अमनाम होते हैं वे उन नैरयिकों के शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं। वृत्तिकार ने अनिष्ट आदि पदों का अर्थ इस प्रकार दिया हैअनिष्ट-जिसकी इच्छा ही न की जाय, अकान्त-अकमनीय, जो सुहावने न हों, अत्यन्त अशुभ वर्णादि वाले, अप्रिय-जो दिखते ही अरुचि उत्पन्न करें, अशुभ-खराब वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श वाले, अमनो-जो मन में आह्लाद उत्पन्न नहीं करते क्योंकि विपाक दुःखजनक होता है, अमनाम-जिनके प्रति रुचि उत्पन्न न हो। संस्थानद्वार-नारकों के भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय-दोनों प्रकार के शरीर हुण्डसंस्थान वाले हैं। तथाविध भवस्वभाव से नारकों के शरीर जड़मूल से उखाड़े गये पंख और ग्रीवा आदि अवयव वाले रोमपक्षी की तरह अत्यन्त वीभत्स होते हैं। उत्तरविक्रिया करते हुए नारक चाहते हैं कि वे शुभ-शरीर बनायें Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: नैरयिक-वर्णन] किन्तु तथाविध अत्यन्त अशुभ नामकर्म के उदय से अत्यन्त अशुभ शरीर ही बना पाते हैं अतः वह भी हुण्डसंस्थान वाला ही होता है। कषायद्वार - नारकों में चारो ही कषाय होते हैं । संज्ञाद्वार - नारकों में चारों ही संज्ञाएँ पायी जाती हैं। लेश्याद्वार - नारकों में आदि की तीन अशुभ लेश्याएँ कृष्ण, नील, और कापोत पाई जाती हैं। पहली और दूसरी नरक - भूमि में कापोतलेश्या, तीसरी नरक के कुछ नरकावासों में कापोतलेश्या और शेष में नीललेश्या; चौथी नरक में नीललेश्या, पांचवीं के कुछ नरकावासों में नीललेश्या और शेष में कृष्णलेश्या; छठी में कृष्णलेश्या और सातवीं नरक में परम कृष्णलेश्या पाई जाती है। १ भगवतीसूत्र में कहा है-' आदि के दो नरकों में कापोतलेश्या, तीसरी में मिश्र (कापोत- नील), , चौथी में नील, पांचवी में मिश्र (नील - कृष्ण ), छठी में कृष्ण और सातवीं में परम कृष्णलेश्या होती है।'' इन्द्रियद्वार - नैरयिकों के स्पर्शन, रसन, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र ये पांच इन्द्रियाँ होती हैं । समुद्घातद्वार - इनके चार समुद्घात होते हैं - वेदना, कषाय, वैकिय और मारणान्तिक । [ ७७ संज्ञीद्वार - ये नारकी जीव संज्ञी भी होते हैं और असंज्ञी भी होते हैं। जो गर्भव्युत्क्रान्तिक (गर्भज) मर कर नारकी होते हैं वे संज्ञी कहे जाते हैं और जो संमूर्छितों से आकर उत्पन्न होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। ये रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, आगे के नरकों में नहीं। क्योंकि अविचारपूर्वक जो अशुभ क्रिया की जाती है उसका इतना ही फल होता है। कहा है असंज्ञी जीव पहली नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग (सर्पादि) पांचवी नरक तक, स्त्री छठी नरक तक और मनुष्य एवं मच्छ सातवीं नरक तक उत्पन्न होते हैं। २ वेदद्वार- - नारक जीव नपुंसक ही होते हैं । पर्याप्तिद्वार – इनमें छह पर्याप्तियाँ और छह अपर्याप्तियाँ होती हैं । भाषा और मन की एकत्व विवक्षा से वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ कही हैं । दृष्टिद्वार - नारक जीव तीनों दृष्टि वाले होते हैं - १. मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि और मिश्रदृष्टि । दर्शनद्वार – इनमें चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन और अवधिदर्शन यों तीन दर्शन पाये जाते हैं। १. काऊ य दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थिए । पंचमियाए मीसा, कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ २. असन्नी खलु पढमं दोच्चं व सिरीसवा तइय पक्खी । सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमिं पुढविं ॥ छट्ठि व इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि पुढविं । एसो परमोवाओ बोद्धाव्वो नरयपुढवी ॥ - भगवतीसूत्र Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ज्ञानद्वार-ये ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी। जो ज्ञानी हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। जो अज्ञानी हैं वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी होते हैं। भावार्थ यह समझना चाहिए कि जो नारक असंज्ञी हैं वे अपर्याप्त अवस्था में दो अज्ञान वाले और पर्याप्त अवस्था में तीन अज्ञान वाले होते हैं। संज्ञी नारक दोनों ही अवस्था में तीन अज्ञान वाले होते हैं। असंज्ञी से उत्पद्यमान नारकों में अपर्याप्त अवस्था में बोध की मन्दता होने से अव्यक्त अवधि भी नहीं होता। योगद्वार-नारकों में मनोयोग, वाग्योग और काययोग, तीन योग होते हैं। उपयोग-नारक साकार और अनाकार दोनों उपयोगवाले हैं। आहारद्वार-नारक जीव लोक के निष्कुट (किनारे) में नहीं होते मध्य में होते हैं अत: उनके व्याघात नहीं होता। अतः छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करते हैं और प्रायः करके अशुभ वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श वाले पुद्गलों का ग्रहण करते हैं। उपपातद्वार-नारक जीव असंख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों को छोड़कर शेष पर्याप्त पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। शेष जीवस्थानों से नहीं। स्थितिद्वार-नारकों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है। जघन्य स्थिति प्रथम नरक की अपेक्षा और उत्कृष्ट स्थिति सातवीं नरक की अपेक्षा से समझनी चाहिए। समवहतद्वार-नारक जीव मारणान्तिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। उद्वर्तनाद्वार-नारक पर्याय से निकल कर नारक जीव असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों और मनुष्यों को छोड़कर संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंचों और मनुष्यों में ही उत्पन्न होते हैं । संमूर्छिम मनुष्यों में उत्पन्न नहीं होते। गति-अगतिद्वार-नारक जीव मरकर तिर्यंचों और मनुष्यों में ही जाते हैं, इसलिए दो गति वाले और तिर्यंचों मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, इसलिए दो आगति वाले हैं। हे आयुष्मन् श्रमण! ये नारक जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। यह नैरयिकों का वर्णन हुआ। तिर्यक् पंचेन्द्रियों का वर्णन ३३. से किं ते पंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? पंचेंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-संमुच्छिम पंचेंदियतिरिक्खजोणिया य गब्भवक्कंतिय पंचेंदियतिरिक्खजोणिया य । [३३] पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: तिर्यक् पंचेन्द्रियों का वर्णन] [७९ पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा(१) संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक और (२) गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक। ३४. से किं तं समुच्छिम पंचेंदियतिरिक्खजोणिया ? संमुच्छिम पंचेंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा। [३४] संमूर्छिम पंचेंन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? संमूर्छिम पंचेंन्द्रिय तिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के हैं जलचर, स्थलचर और खेचर। जलचरों का वर्णन ३५. से किं तं जलयरा? जलयरा पंचविहा पण्णत्ता, तं जहामच्छगा, कच्छभा, मगरा, गाहा, सुंसुमारा। से किं तं मच्छा ? एवं जहा पण्णवणाए जाव से यावण्णे तहप्पगारा। ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसिंणं भंते ! जीवाणं कतिसरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तओ सरीरया पण्णत्ता, तं जहा-ओरालिए, तेयए, कम्मए। सरीरोगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजतिभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं। छेवट्टसंघयणी। हुंडसंठिया। चत्तारि कसाया, सण्णाओ वि, लेसाओ पंच, इंदिया पंच, समुग्घाया तिण्णि, णो सण्णी असण्णी,नपुंसकवेदा,पज्जत्तीओ अपज्जत्तीओं पंच,दिट्ठीओ, दो दंसणा, दो नाणा,दो अन्नाणा, दुविहे जोगे, दुविहे उवओगे, आहारो छद्दिसिं। उवावओ तिरियमणुस्सेहितो, नो देवेहिंतो नो नेरइएहितो, तिरिएहितो असंखेजवासाउय वजेसु, अकम्मभूमग-अंतरदीवग-असंखेजवासाउयवज्जेसु।ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसणंपुव्वकोडी।मारणंतियसमुग्घाएणं दुविहा वि मरंति।अणंतरं उव्वट्ठिता कहिं ( उव्वज्जति)? नेरइएसु वि, तिरिक्खजोणिएसु वि, मणुस्सेसु वि, देवेसु वि। नेरइएसु रयणपहाए सेसेसु पडिसेहो। तिरिएसु सव्वेसु उवजंति-संखेजवासाउएसु वि असंखेजवासाउएसुवि, चउप्पएसुवि पक्खीसु वि। मणुस्सेसु सव्वेसु कम्मभूमिएसु, नो अकम्मभूमिएसु अंतरदीवएसु वि संखिज्जवासाउएसु वि असंखिजवासाउएसु वि देवेसु जाव वाणमंतरा। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चउगइया, दुआगइया, परित्ता असंखेजा पण्णत्ता। से तंजलयर-संमुच्छिम-पंचेंदियतिरिक्खा। [३५] जलचर कौन हैं ? जलचर पाँच प्रकार के कहे गये हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और शिशुमार (सुंसुमार)। मच्छ क्या हैं ? मच्छ अनेक प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन प्रज्ञापना के अनुसार जानना चाहिए यावत् इस प्रकार के अन्य भी मच्छ आदि ये सब जलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। हे भगवन् ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! तीन शरीर कहे गये हैं-औदारिक, तैजस और कार्मण। उनके शरीर की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन। वे सेवार्तसंहनन वाले, हुण्डसंस्थान वाले, चार कषाय वाले, चार संज्ञाओं वाले, पाँच लेश्याओं वाले हैं। उनके पांच पर्याप्तियां और पांय अपर्याप्तियां होती हैं। उनके दो दृष्टि, दो दर्शन, दो ज्ञान, दो अज्ञान, दो प्रकार के योग, दो प्रकार के उपयोग और आहार छहों दिशाओं के पुद्गलों का होता है। ये तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, देवों और नारकों से नहीं। तिर्यंचों में से भी असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंच इनमें उत्पन्न नहीं होते।अकर्मभूमि और अन्तर्वीपों के असंख्यात वर्ष की आयु वाले मनुष्य भी इनमें उत्पन्न नहीं होते । इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की है। ये मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। भगवन् ! ये संमूर्छिम जलयर जीव मरकर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! ये नरक में भी उत्पन्न होते हैं, तिर्यंचों में भी, मनुष्यो में भी और देवों में भी उत्पन्न होते यदि नरक में उत्पन्न होते हैं तो रत्नप्रभा नरक तक ही उत्पन्न होते हैं, शेष नरकों में नहीं। तिर्यंच में उत्पन्न हों तो सब तिर्यंचों में संख्यात वर्ष की आयु वालों में भी और असंख्यात वर्ष की आयु वालों में भी, चतुष्पदों में भी और पक्षियों में भी। मुनष्य में उत्पन्न हों तो सब कर्मभूमियों के मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमि वाले मनुष्यों में नहीं। अन्तीपजों में संख्यात वर्ष की आयुवालों में भी और असंख्यात वर्ष की आयु वालों में भी उत्पन्न होते हैं। यदि वे देवों में उत्पन्न हों तो वानव्यन्तर देवों तक उत्पन्न होते हैं (आगे के देवों में नहीं)। ये जीव चार गति में जाने वाले, दो गतियों से आने वाले, प्रत्येक शरीर वाले और असंख्यात कहे Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: जलचरों का वर्णन] [८१ गये हैं। यह जलचर संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का वर्णन हुआ। विवेचन-(सूत्र ३३ से ३५ तक) प्रस्तुत सूत्रों में संमूच्छिम जलचर तिर्यंच पंचेद्रिय जीवों के पांच भेद-मत्स्य, कच्छप, मकर, ग्राह और सुंसुमार तो बताये हैं परन्तु मत्स्य आदि के प्रकारों के लिए प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया है। प्रज्ञापनासूत्र में वे प्रकार इस तरह बताये गये हैं मत्स्यों के प्रकार-श्लक्षण मत्स्य, खवल्ल मत्स्य, युग मत्स्य, भिब्भिय मत्स्य, हेलिय मच्छ, मंजरिया मच्छ,रोहित मच्छ, हलीसागर, मोगरावड, वडगर तिमिमच्छ, तिमिंगला मच्छ, तंदुल मच्छ, काणिक्क मच्छ, सिलेच्छिया मच्छ, लंभण मच्छ, पताका मत्स्य पताकातिपताका मत्स्य, नक्र मत्स्य, और भी इसी तरह के मत्स्य । कच्छपों के प्रकार-कच्छपों के दो प्रकार हैं-अस्थिकच्छप और मंसलकच्छप। ग्राह के पांच प्रकार-दिली, वेढग, मृदुग, पुलग और सीमागार। मगर के दो भेद-सोंड मगर और मृट्ठ मगर। सुंसुमार-एक ही प्रकार के हैं। ये मत्स्यादि सब जलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच पर्याप्त और अपर्याप्त भेद से दो प्रकार के हैं इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। शरीरादि २३ द्वारों की विचारणा चतुरिन्द्रिय की तरह जानना चाहिए। जो विशेषता है वह इस प्रकार अवगाहनाद्वार में इनकी जघन्य अवगाहना अंगुल का असंख्यात भाग और उत्कृष्ट एक हजार योजन इन्द्रियद्वार में इनके पांच इन्द्रियां कहनी चाहिए। संजीद्वार में ये असंज्ञी ही हैं, संज्ञी नहीं, संमूर्छिम होने से ये समनस्क (संजी) नहीं होते। उपपातद्वार में ये असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष तिर्यंचों मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। स्थितिद्वार में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की स्थिति है। उद्वर्तनाद्वार में ये चारों गतियों में उत्पन्न होते हैं। नरक में उत्पन्न हों तो पहली रत्नप्रभा में ही उत्पन्न होते हैं, इससे आगे की नरकों में नहीं। सब प्रकार के तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं। मनुष्यों में कर्मभूमि के मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। देवों में भवनपति और वाणव्यन्तरों में उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार ये जीव चारों गतियों में जाने वाले और दो गतियों से आने वाले हैं। हे श्रमण ! हे आयुष्मन्! ये जीव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र स्थलचरों का वर्णन ३६. से किं तं थलयर-समुच्छिमपंचेंदिय-तिरिक्खजोणिया? थलयर संमु. दुविहा पण्णत्ता, तं जहाचउप्पय थल, परिसप्प सम्म० पंचें तिरिक्खजोणिया। से किं तं थलयर चउप्पय सम्मुच्छिम पंचें तिरिक्खजोणिया ? थलयर चउप्पय चउविहा पण्णत्ता, तं जहा एगखुरा, दुखुरा, गंडीपया, सणप्फया।जावजे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य।। तओ सरीरा, ओगाहणा जहण्णेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं। ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं चउरासिइवाससहस्साइं। सेसंजहाजलयराणंजाव चउगतिया दो आगतिया परित्ता असंखेजा पण्णत्ता। से त्तं थलयर चउप्पयः। से किं तं थलयर परिसप्प संमुच्छिमा? । थलयर परिसप्प संमुच्छिमा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाउरग परिसप्प संमुच्छिमा,भुयग परिसप्प समुच्छिमा। से किं तं उरग परिसप्प संमुच्छिमा ? उरग परि० सं० चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाअही अयगरा आसालिया महोरगा। से किं तं अही? अही दुविहा पण्णत्ता, तं जहादव्वीकरा, मउलिणो य। से किं तं दव्वीकरा। दव्वीकरा अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाआसीविसा जाव से तं दव्वीकरा। से किं तं मउलिणो? मउलिणो अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहादिव्वा, गोणसा जाव से तं मउलिणो। से तं अही। से किं तं अयगरा ? अयगरा एगागारा पण्णत्ता। से तं अयगरा । से किं तं आसालिया। आसालिया जहा पण्णवणाए। से तं आसालिया। से किं तं महोरगा? Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्थलचरों का वर्णन] [८३ महोरगा जहा पण्णवणाए। से तं महोरगा। जे यावण्णे तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य। तं चेव णवरि सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं जोयणपुहुत्तं। ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेवण्णं वाससहस्साइं। सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया दुआगतिया परित्ता असंखेज्जा। से तं उरगपरिसप्पा। . से किं तं भुयगपरिसप्प संमुच्छिम थलयरा ? भुयग परि० संमु० थलयरा अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहा-गोहा, णउला, जावजे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ताय।सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेजं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं। ठिई उक्कोसेणं बायालीसं वाससहस्साई; सेसं जहा जलयराणंजावचउगतिया, दुआगतिया, परित्ताअसंखेज्जा पण्णत्ता।सेतं भुजपरिसप्प संमुच्छिमा। से तं थलयरा। से किं तं खहयरा? खहयरा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाचम्मपक्खी, लोमपक्खी, समुग्गपक्खी, विततपक्खी। से किं तं चम्मपक्खी ? चम्मपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहावग्गुली जाव जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं चम्मपक्खी। से किं तं लोमपक्खी ? लोमपक्खी अणेगविहा पण्णत्ता, तं जहाढंका, कंका जे यावन्ने तहप्पगारा, से तं लोमपक्खी। से किं तं समुग्गपक्खी ? समुग्गपक्खी एगागारा पण्णत्ता जहा पण्णवणाए। एवं विततपक्खी जाव जे यावण्णे तहप्पगारा, ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्ता य अपज्जत्ता य।णाणत्तं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं।ठिई उक्कोसेणंवावत्तरिवाससहस्साई।सेसंजहा जलयराणंजावचउगतिया दुआगतिया। परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता। से तं खहयर संमु तिरिक्खजोणिया। से तं संमु. पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया। [३६] स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक कौन हैं ? स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं-चतुष्पद स्थलचर सं. पं. तिथंच और परिसर्प सम्मु. पं. ति.। चतुष्पद स्थलचर सं. पं. तिर्यंच कौन हैं ? Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र चतुष्पद स्थलचर सं. प. तिर्यंच चार प्रकार के हैं, यथा- एक खुर वाले, दो खुर वाले, गंडीपद और सनखपद। यावत् जो इसी प्रकार के अन्य भी चतुष्पद स्थलचर हैं। वे संक्षेप से दो प्रकार के हैंपर्याप्त और अपर्याप्त। उनके तीन शरीर, अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट दो कोस कोस तक। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष की होती है। शेष सब जलचरों के समान समझना चाहिए। यावत् ये चार गति में जाने वाले और दो गति से आने वाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह स्थलचर चतुष्पद संमूच्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन पूरा हुआ। ८४ ] परिसर्प स्थलचर सं. पं. तिर्यचयोनिक क्या हैं ? रिसर्प स्थलचर सं. पं. तिर्यंचयोनिक दो प्रकार के हैं, यथा-उरग परिसर्प संमू. पं. ति और भुजग परिसर्प संमू. । उरग परिसर्प संमू. क्या हैं ? उरग परिसर्प समू. चार प्रकार के हैं-अहि, अजगर, आसालिया और महोरग । अहि कौन हैं ? अहि दो प्रकार के हैं - दर्वीकर (फणवाले) और मुकुली (फण रहित ) । दर्वीकर कौन हैं ? दर्वीकर अनेक प्रकार के हैं, जैसे- आशीविष आदि यावत् दर्वीकर का कथन पूरा हुआ ।. मुकुली क्या हैं ? मुकुली अनेक प्रकार के हैं, जैसे- दिव्य, गोनस यावत् मुकुली का कथन पूरा हुआ। अजगर क्या हैं ? अजगर एक ही प्रकार के हैं। अजगरों का कथन पूरा हुआ । आसालिक क्या हैं ? 'अनुसार आसालिकों का वर्णन जानना चाहिए । प्रज्ञापनासूत्र महोरग क्या हैं ? प्रज्ञापना के अनुसार इनका वर्णन जानना चाहिए। इस प्रकार के अन्य जो उरपरिसर्प जाति के हैं वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । शेष पूर्ववत् जानना चाहिए। विशेषता इस प्रकार - इनकी शरीर अवगाहना जघन्य से अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट योजन पृथक्त्व (दो से लेकर नव योजन तक) । स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तिरपन हजार वर्ष । शेष द्वार जलचरों के समान जानना चाहिए यावत् ये जीव चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह उरग परिसर्प का कथन हुआ । भुज परिसर्प संमूर्छिम स्थलचर क्या हैं ? भुजग परिसर्प संमूर्छिम स्थलचर अनेक प्रकार के हैं, यथा-नेवला यावत् अन्य इसी प्रकार के भुजग Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्थलचरों का वर्णन] परिसर्प। ये संक्षेप से दो प्रकार के है - पर्याप्त और अपर्याप्त । शरीरावगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व (दो धनुष से नौ धनुष तक ) । [८५ स्थिति उत्कृष्ट से बयालीस हजार वर्ष । शेष जलचरों की भाँति कहना यावत् ये चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह भुजग परिसर्प संमूर्छिमों का कथन हुआ। इसके साथ ही स्थलचरों का कथन भी पूरा हुआ। खेचर का क्या स्वरूप है ? खेचर चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा - चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी और वितततपक्षी । चर्मपक्षी क्या हैं ? चर्मपक्षी अनेक प्रकार के हैं, जैसे- वल्गुली यावत् इसी प्रकार के अन्य चर्मपक्षी । रोमपक्षी क्या हैं ? रोमपक्षी अनेक प्रकार के हैं, यथा-ढंक, कंक यावत् अन्य इसी प्रकार के रोमपक्षी । समुद्गकपक्षी क्या हैं ? ये एक ही प्रकार के हैं। जैसा प्रज्ञापना में कहा वैसा जानना चाहिए । इसी तरह विततपक्षी भी पन्त्रवणा के अनुसार जानने चाहिए । ये खेचर संक्षेप से दो प्रकार के कहे गये हैं- पर्याप्त और अपर्याप्त इत्यादि पूर्ववत् । विशेषता यह है कि इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट धनुषपृथक्त्व है। स्थिति उत्कृष्ट बहत्तर हजार वर्ष की है। शेष सब जलचरों की तरह जानना चाहिए। यावत् ये खेचर चार गतियों में जाने वाले, दो गतियों से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह खेचरों का वर्णन हुआ। साथ ही संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन पूरा हुआ। विवेचन - पूर्व सूत्र में जलचरों का वर्णन करने के पश्चात् इस सूत्र में संमूर्छिम स्थलचर और खेचर का वर्णन किया गया हैं। स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंच दो प्रकार के हैं - चतुष्पद और परिसर्प । जिसके चार पांव हों वे चतुष्पद हैं, जैसे अश्व, बैल आदि । जो पेट के बल या भुजाओं के सहारे चलते हैं वे परिसर्प हैं। जैसे सर्प, नकुल आदि। सूत्र में आये हुए दो चकार स्वगत अनेक भेद के सूचक हैं। चतुष्पद स्थलचर चार प्रकार के हैं - एक खुर वाले, दो खुर वाले, गंडीपद और सनखपद । प्रज्ञापनासूत्र में इन चारों के प्रकार बताये गये हैं, जो इस भाँति हैं एक खुर वाले अनेक प्रकार के हैं यथा - अश्व, अश्वतर (खेचर), घोटक (घोड़ा), गर्दभ, गोरक्षर, कन्दलक, श्रीकन्दलक और आवर्तक आदि । दो खुर वाले अनेक प्रकार के हैं, यथा - ऊँट, बैल, गवय (नील गाय ), रोझ, पशुक, महिष (भैंसभैंसा, मृग, सांभर, बराह, अज (बकरा-बकरी), एलक (भेड़ या बकरा ), रुरु, सरभ, चमर ( चमरीगाय), कुरंग, गोकर्ण आदि । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ गंडीपद-गंडी का अर्थ है-एरन । एरन के समान जिनके पांव हों वे गंडीपद हैं। ये अनेक प्रकार के हैं, यथा-हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुण हस्ती (बिना दाँतों का छोटे कद का हाथी), खड्गी और गेंडा। सनखपद-जिनके पावों के नख बड़े-बड़े हों वे सनखपद है। जैसे-कुत्ता, सिंह आदि। सनखपद अनेक प्रकार के हैं, जैसे-सिंह, व्याघ्र, द्वीपिका (दीपड़ा), रीछ (भालू), तरस, पाराशर, शृगाल (सियार), विडाल (बिल्ली), श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता और चित्तलक (चिल्लक) इत्यादि। ___इन चतुष्पद स्थलचरों में पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद तथा पूर्वोक्त २३ द्वारों की विचारणा जलचरों के समान जाननी चाहिए, केवल अन्तर इस प्रकार है-इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट गव्यूतिपृथक्त्व (दो कोस से लेकर नौ कोस) की। आगम में पृथक्त्व का अर्थ दो से लेकर नौ की संख्या के लिए है। इनकी स्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष है। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह ही है। यावत् वे चारों गतियों में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। परिसर्प स्थलचर-पेट और भुजा के बल चलने वाले परिसर्प कहलाते हैं। इनके दो भेद किये हैं-उरगपरिसर्प और भुजगपरिसर्प । उरगपरिसर्प के चार भेद हैं-अहि, अजगर, आसालिक और महोरग। अहि-ये दो प्रकार के हैं-दर्वीकर अर्थात् फण वाले और मुकुली अर्थात् बिना फण वाले। दर्वीकर अहि अनेक प्रकार के हैं, यथा-आशीविष, दृष्टिविष, उग्रविष, भोगविष, त्वचाविष, लालाविष, उच्छ्वासविष, निःश्वासविष, कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प, (दर्भपुष्प) कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र इत्यादि। मुकुली-बिना फण वाले मुकुली सर्प अनेक प्रकार के हैं, यथा-दिव्याक (दिव्य), गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका, वातपताका आदि। अजगर-ये एक ही प्रकार के होते हैं। आसालिक-प्रज्ञापनासूत्र में आसालिक के विषय में ऐसी प्ररूपणा की गई है'भंते ! आसालिक कैसे होते हैं और कहाँ संमूर्छित (उत्पन्न ) होते हैं ? गौतम ! ये आसालिक उर:परिसर्प मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में निळघात से पन्द्रह कर्मभूमियों में और ' व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह क्षेत्रों में, चक्रवर्ती के स्कंधावारों (छावनियों) में, वासुदेवों के स्कंधावारों में, बलदेवों के स्कंधावारों में, मंडलिक (छोटे) राजाओं के स्कंधावारों में, महामंडलिक (अनेक देशों के) राजाओं के स्कंधावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगम (वणिक्वसति) निवेशों में, खेट (खेड़ा) निवेशों में, कर्वट (छोटे प्राकार वाले) निवेशों में, मंडल (जिसके २॥ कोस के अन्तर में १. सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुःषमादिरूपः कालो व्याघातहेतुः। -वृत्ति Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्थलचरों का वर्णन] [८७ ग्राम न हो)निवेशों में, द्रोणमुख (प्रायः जल निर्गम प्रवेश वाला स्थान) निवेशों में, पत्तन और पट्टन निवेशों में-जब इनका विनाश होने वाला होता है तब इन पूर्वोक्त स्थानों में आसालिक संमूर्छिम रूप से उत्पन्न होता है। यह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना (उत्पत्ति के समय) और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना और उसके अनुरूप ही लम्बाई-चौड़ाई वाला होता है। यह पूर्वोक्त स्कंधावारों आदि की भूमि को फाड़ कर बाहर निकलता है। यह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अन्तर्मुहूर्त की आयु भोग कर मर जाता हैं। यह आसालिक गर्भज नहीं होता, यह संमूर्छिम ही होता है। यह मनुष्यक्षेत्र से बाहर नहीं होता। यह आसालिक का वर्णन हुआ। महोरग-प्रज्ञापनासूत्र में महोरग का वर्णन इस प्रकार है__ महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कोई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कोई अंगुलपृथक्त्व के कई वितस्ति (बेंत-बारह अंगुल) के होते हैं, कई वितस्तिपृथक्त्व के होते हैं, कई एक रत्नि (हाथ) के होते हैं, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के होते हैं, कई कुक्षि (दो हाथ) प्रमाण होते हैं, कई कुक्षिपृथक्त्व के होते हैं, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण होते हैं, कई धनुषपृथक्त्व के होते हैं, कई गव्यूति.. (कोस या दो हजार धनुष) प्रमाण होते हैं, कई गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण के होते हैं, कई योजन (चार कोस) के होते हैं, कई योजनपृथक्त्व होते हैं। (कोई सौ योजन के, कोई दो सौ से नौ सौ योजन के होते हैं और कई हजार योजन के भी होते हैं।)* ये स्थल में उत्पन्न होते हैं परन्तु जल में भी स्थल की तरह चलते हैं और स्थल में भी चलते हैं। वे यहाँ नहीं होते, मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। समुद्रों में भी पर्वत, देवनगरी आदि स्थलों में उत्पन्न होते हैं, जल में नहीं। इस प्रकार के अन्य भी दस अंगुल आदि की अवगाहना वाले महोरग होते हैं। यह अवगाहना उत्सेधांगुल के मान से है। शरीर का माप उत्सेधांगुल से ही होता है। ' इस प्रकार अहि, अजगर आदि उर:परिसर्प स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त इत्यादि कथन तथा २३ द्वारों की विचारणा जलचरों की भांति जानना चाहिए। अवगाहना और स्थिति द्वार में अन्तर है। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से योजनपृथक्त्व होती है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तिरेपन हजार वर्ष की होती है। शेष पूर्ववत् यावत् ये चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात होते भुजगपरिसर्प-प्रज्ञापनासूत्र में भुजगपरिसर्प के भेद इस प्रकार बताये गये हैं-गोह, नकुल, सरट (गिरगिट) शल्य, सरंठ, सार, खार, गृहकोकिला (घरोली-छिपकली), विषम्भरा (वंसुभरा), मूषक, मंगूस (गिलहरी), १. पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च। नौभिरेव तु यद् गम्यं पट्टनं तत्प्रचक्षते॥ -वृत्ति • कोष्ठक में दिया हुआ अंश गर्भज महोरग की अपेक्षा समझना चाहिए। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पयोलातिक, क्षीरविडालिका आदि अन्य इसी प्रकार के भुजगपरिसर्प तिर्यंच। यह भुजपरिसर्प संक्षेप में दो प्रकार के है-पर्याप्त और अपर्याप्त । शेष वर्णन पूर्ववत् समझना। तेवीस द्वारों की विचारणा में जलचरों की तरह कथन करना चाहिए, केवल अवगाहनाद्वार और स्थितिद्वार में अन्तर जानना चाहिए। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बयालीस हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् यावत् ये जीव चार गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। खेचर-खेचर के ४ प्रकार हैं-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी, और विततपक्षी। प्रज्ञापना में इनके भेद इस प्रकार कहे हैं चर्मपक्षी-अनेक प्रकार के हैं-वग्गुली (चिमगादड़), जलौका, अडिल्ल, भारंडपक्षी जीवंजीव, समुद्रवायस, कर्णत्रिक और पक्षीविडाली आदि। जिनके पंख चर्ममय हों वे चर्मपक्षी हैं। रोमपक्षी-जिनके पंख रोममय हों वे रोमपक्षी हैं। इनके भेद प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार कहे हैं ढंक, कंक, कुरल, वायस, चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस, (लाल चोंच एवं पंख वाले हंस) पादहंस, आड, सेडी, वक, बलाका, (वकपंक्ति), पारिप्लव, क्रोंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर, शतवत्स (सप्तहस्त), गहर, पौण्डरीक, काक, कामजुंक, बंजुलक, तीतर, वर्तक (बतक), लावक, कपोत, कपिंजल, पारावत, चिटक, चास, कुक्कुट, शुक, वर्हि (मोरविशेष) मदनशलाका (मैना), कोकिल, सेह और वरिल्लक आदि। समुद्गकपक्षी-उड़ते हुए भी जिनके पंख पेटी की तरह स्थित रहते हैं वे समुद्गकपक्षी हैं। ये एक ही प्रकार के हैं। ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते। बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते है। विततपक्षी-जिनके पंख सदा फैले हुए होते हैं वे विततपक्षी हैं । ये एक ही प्रकार के हैं। ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते, बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते हैं। ___ ये खेचर संमूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । शरीर अवगाहना आदि द्वारों की विचारणा जलचरों की तरह करनी चाहिए। जो अन्तर है वह अवगाहना और स्थितिद्वारों में है। इनकी उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है और स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की है। ये जीव चार गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यहाँ स्थिति और अवगाहना को बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ भी किन्ही प्रतियों में हैं। वे इस प्रकार हैं जोयणसहस्स गाउयपुहुत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं। दोण्हं पि धणुपुहत्तं समुच्छिम वियगपक्खीणं॥१॥ संमुच्छ पुवकोडी चउरासीई भवे सहस्साइं। तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं॥२॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : गर्भज जलचरों का वर्णन] [८९ ___ इनका अर्थ इस प्रकार हैं-सम्मूर्छिम जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की हैं, चतुष्पदों की गव्यूति (कोस) पृथक्त्व है, उरपरिसरों की योजनपृथक्त्व की है। सम्मूर्छिम भुजगपरिसर्प और पक्षियों की धनुषपृथक्त्व की हैं। सम्मूर्छिम जलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटी है। चतुष्पदों की चौरासी हजार वर्ष की हैं, उरपरिसों की तिरपन हजार वर्ष की है, भुजपरिसरों की बयालीस हजार वर्ष की है, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष की है। यह सम्मूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन हुआ। गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन ३७. से किं तं गमवक्कंतिय पंचेंदिय तिरिक्खजोणिया? गम्भवक्कंतिय पं० तिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा। [३७] गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक क्या हैं ? - गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-जलचर, स्थलचर और खेचर। गर्भज जलचरों का वर्णन ३८. से किं तं जलयरा ? जलयरा, पंचविहा पण्णत्ता, तं जहामच्छा, कच्छभा, मगरा, गाहा, सुंसुमारा। सव्वेसिं भेदो भाणियव्यो तहेवजहा पण्णवणाए, जावजे यावण्णे तहप्पगाराते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता? गोयमा ! चत्तारि सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाओरालिए, वेउव्विए, तेयए, कम्मए। सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणंजोयणसहस्सं। छविह संघयणी पण्णत्ता, तं जहा वइरोसभनारायसंघयणी, उसभनारायसंघयणी, नारायसंघयणी, अद्धनारायसंघयणी, कीलियासंघयणी, सेवट्टसंघयणी। छव्विहा संठिया पण्णत्ता, तं जहा समचउरंससंठिया, णग्गोधपरिमंडलसंठिया, सादिसंठिया,खुजसंठिया, वामणसंठिया, हुंडसंठिया।कसाया सव्वे, सण्णाओ चत्तारि, लेसाओ छह, पंच इंदिया, पंच समुग्धाया आइल्ला, Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सण्णी, णो असण्णी, तिविहा वेदा, छप्पजत्तीओ, छअप्पजत्तीओ, दिट्ठी तिविहा वि, तिण्णि दसणा, णाणी, वि अण्णाणी वि, जे णाणी ते अत्थेगइया दुणाणी, अत्थेगइया तिन्नाणी; जे दुन्नाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी य सुयणाणी य। जे तिणाणी ते नियमा आभिनिबोहियणाणी,सुयणाणी,ओहिणाणी।एवं अण्णाणि वि।जोगेतिविहे, उवओगे दुविहे, आहारो छद्दिसिं। उववाओ नेरइएहिं जाव अहे सत्तमा, तिरिक्खजोणिएहिं सव्वेहिं असंखेजवासाउयवजेहिं, मणुस्सेहिं अकम्मभूमग अंतरदीवग असंखेजवासाउयवज्जेहिं, देवेहिं जाव सहस्सारो। ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। दुविहा वि मरंति। अणंतरं उव्वट्टित्ता नेरइएसुजाव अहेसत्तमा, तिरिक्खजोणिएसुमणुस्सेसु सव्वेसु देवेसु जाव सहस्सारो, चउगतिया, चउआगतिया परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता, से तं जलयरा। [३८] (गर्भज) जलचर क्या हैं ? ये जलचर पांच प्रकार के हैं-मत्स्य, कच्छप, मगर, ग्राह और सुंसुमार। ___इन सबके भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् इस प्रकार के गर्भज जलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । हे भगवन् ! इन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! इनके चार शरीर कहे गये हैं, जैसे औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण। इनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से हजार योजन की है। इन जीवों के छह प्रकार के संहनन होते हैं, जैसे कि वज्रऋषभनाराचसंहनन, ऋषभनाराचसंहनन, नाराचसंहनन अर्धनाराचसंहनन, कीलिकासंहनन और सेवार्तसंहनन । इन जीवों के शरीर के संस्थान छह प्रकार के हैं समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, कुब्जसंस्थान, वामनसंस्थान और हुंडसंस्थान। इन जीवों के सब कषाय, चारों संज्ञाएँ, छहों लेश्याएँ, पांचों इन्द्रियाँ, शुरू के पांच समुद्घात होते हैं। ये जीव संज्ञी होते हैं, असंज्ञी नहीं। इनमें तीन वेद, छह पर्याप्तियाँ, छह अपर्याप्तियाँ, तीनों दृष्टियां, तीन दर्शन, पाये जाते हैं। ये जीव ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी हैं उनमें कोई दो ज्ञान वाले हैं और कोई तीन ज्ञान वाले। जो दो ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञान वाले और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी हैं। इसी तरह अज्ञानी भी। इन जीवों में तीन योग, दोनों उपयोग होते हैं। इनका आहार छहों दिशाओं से होता है। ये जीव नैरयिकों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। यावत् सातवीं नरक से भी आकर उत्पन्न होते हैं। असंख्य वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर सब तिर्यंचों से भी आकर उत्पन्न होते हैं। अकर्मभूमि, अन्तर्वीप Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज जलचरों का वर्णन] [९१ और असंख्य वर्षायु वाले मनुष्यों को छोड़कर शेष सब मनुष्यो से भी आकर उत्पन्न होते हैं। ये सहस्रार तक के देवलोकों से आकर भी उत्पन्न होते हैं। इनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की और उत्कृष्ट पूर्वकोटी की है। ये दोनों प्रकार के समवहत, असमवहत मरण से मरते हैं। ये यहाँ से मर कर सातवीं नरक तक, सब तिर्यंचों और मनुष्यों में और सहस्रार तक के देवलोक में जाते हैं। ये चार गति वाले, चार आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह (गर्भज) जलचरों का कथन हुआ। विवेचन-गर्भज जलचरों के भेद प्रज्ञापना के अनुसार जानने का निर्देश दिया गया है। ये भेद मत्स्य, कच्छप आदि पूर्व के सूत्र के विवेचन में बता दिये हैं। पर्याप्त, अपर्याप्त का वर्णन भी पूर्ववत् जानना चाहिए। शरीर आदि द्वार सम्मूर्छिम जलचरों के समान जानने चाहिए; जो अन्तर है, वह इस प्रकार जानना चाहिए शरीरद्वार में गर्भज जलचरों में चार शरीर पाये जाते है। इनमें वैक्रियशरीर भी पाया जाता है । अतएव औदारिक, वैक्रिय, तैजस और कार्मण-ये चार शरीर पाये जाते है। अवगाहनाद्वार में इन गर्भज जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की जाननी चाहिए। संहननद्वार में इन गर्भज जलचरों में छहों संहनन सम्भव हैं । वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त ये छह संहनन होते है। इनकी व्याख्या पहले २३ द्वारों की सामान्य व्याख्या के प्रसंग में की गई है। संस्थानद्वार-इन जीवों के शरीरों के संस्थान छहों प्रकार के सम्भव हैं । वे छह संस्थान इस प्रकार हैं--समचतुरस्रसंस्थान, न्यग्रोधपरिमंडलसंस्थान, सादिसंस्थान, वामनसंस्थान, कुब्जसंस्थान और हुंडसंस्थान। इनकी व्याख्या पहले सामान्य द्वारों की व्याख्या के प्रसंग में कर दी गई हैं। ३ लेश्याद्वार में छहों लेश्याएं हो सकती हैं। शुक्ललेश्या भी सम्भव है। समुद्घातद्वार में आदि के पांच समुद्घात होते हैं। वैक्रियसमुद्घात भी सम्भव है। संज्ञीद्वार में ये संज्ञी ही होते हैं असंज्ञी नहीं । वेदद्वार में तीनों वेद होते हैं। इनमें नपुंसक वेद के १. वज्जरिसहनारायं पढमं बीयं च रिसहनारायं। मारायमद्धनाराय कीलिया तह य छेवढें ॥१॥ रिसहो य होइ पट्टी, वज्जं पुण कीलिया मुणेयव्या। उसओ मक्कडबंधो, नारायं तं वियाणाहि ॥२॥ २. 'साची' ऐसी भी पाठ है। साची का अर्थ शाल्मलि वृक्ष होता है। वह नीये से अतिपुष्ट होता है, ऊपर से तदनुरूप नहीं होता। ३. समचउरंसे नग्गोहमंडले साइखुज्जवामणए। हुंडे वि संठाणे जीवाणं छ मुणेयव्वा ॥१॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अतिरिक्त स्त्रीवेद और पुरुषवेद भी होता है। पर्याप्तिद्वार में छहों पर्याप्तियां और छहों अपर्याप्तियाँ होती हैं। वृत्तिकार ने पांच पर्याप्तियाँ और पांच अपर्याप्तियाँ कही है सो भाषा और मन की एकत्व-विवक्षा को लेकर समझना चाहिए। दृष्टिद्वार में तीनों (मिथ्यादृष्टि, सम्यग्दृष्टि, और सम्यग्मिथ्यादृष्टि) होते हैं। दर्शनद्वार में इन जीवों में तीन दर्शन हो सकते हैं, क्योंकि किन्हीं में अवधिदर्शन भी हो सकता है। ज्ञानद्वार में ये तीन ज्ञान वाले भी हो सकते हैं। क्योंकि इनमें से किन्ही को अवधिज्ञान भी हो सकता हैं अज्ञानद्वार में तीन अज्ञान वाले भी हो सकते हैं। क्योंकि किन्हीं को विभंगज्ञान भी हो सकता है। अवधिज्ञान और विभंगज्ञान में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व को लेकर भेद हैं। सम्यग्दृष्टि का अवधिज्ञान होता है और मिथ्यादृष्टि का वही ज्ञान विभंगज्ञान कहलाता हैं।' उपपातद्वार में ये जीव सातों नारकों से, असंख्यात वर्षायु वाले तिर्यंचों को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से, अकर्मभूमिज अन्तीपज और असंख्यात वर्ष की आयु वालों को छोड़कर शेष कर्मभूमि के मनुष्यों से और सहस्रार नामक आठवें देवलोक तक के देवों से आकर उत्पन्न होते हैं। इससे आगे के देव इनमें उत्पन्न नहीं होते। स्थितिद्वार में इन जीवों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटी की है। उद्धर्तनाद्वार में सहस्रार देवलोक से आगे के देवों को छोड़कर शेष सब जीवस्थानों में जाते हैं। अतएव गति-आगति द्वार में ये चार गति वाले और चार आगति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह गर्भज जलचरों का वर्णन हुआ। भज स्थलचरों का वर्णन ३९. से किं तं थलयरा? थलयरा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाचउप्पदा य परिसप्पा य। से किं तं चउप्पया? चउप्पया चउव्विहा पण्णत्ता,तं जहा-एगखुरा सो चेव भेदो जावजे यावन्ने तहप्पगारा ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपजत्ता य। चत्तारि सरीरा, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेग्जइभागं उक्कोसेणं छ गाउयाइं।ठिती उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाई नवरं उववद्वित्ता नेरइएसुचउत्थपुढविं गच्छंति, सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया, चउआगतिया, १. सम्यग्दृष्टेनिं मिथ्यादृष्टेर्विपर्यासः । -वृत्ति Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज स्थलचरों का वर्णन] [९३ परित्ता असंखेज्जा पण्णत्ता। से तं चउप्पया। से किं तं परिसप्पा? परिसप्पा दुविहा पण्णत्ता, तं जहाउरपरिसप्पा य भुयगपरिसप्पा य। से किं तं उरपरिसप्पा ? उरपरिसप्पा तहेव आसालियवज्जो भेदो भाणियव्वो, सरीरोगाहणा जहण्णेणंअंगुलस्स असंखेज्जइभागं, उक्कोसेणं जोयणसहस्सं, ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। उववट्टित्ता नेरइएसु जाव पंचमं पुढविं ताव गच्छंति, तिरिक्खमणुस्सेसु सव्वेसु, देवेसु जाव सहस्सारा। सेसं जहा जलयराणं जाव चउगतिया चउआगतिया परित्ता असंखेज्जा।से तं उरपरिसप्पा। से किं तं भुयगपरिसप्पा ? . भेदो तहेव। चत्तारि सरीरगा, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलासंखेज्जइभागं उक्कोसेणं गाउयपुहुत्तं। ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। सेसेसु ठाणेसु जहा उरपरिसप्पा, णवरं दोच्चं पुडविं गच्छंति। से तं भुयपरिसप्या, से तं थलयरा। [३९] (गर्भज) स्थलचर क्या हैं ? (गर्भज) स्थलचर दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पद और परिसर्प । चतुष्पद क्या हैं ? चतुष्पद चार तरह के हैं, यथा एक खुर वाले आदि भेद प्रज्ञापना के अनुसार कहने चाहिए। यावत् ये स्थलचर संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । इन जीवों के चार शरीर होते हैं । अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से छह कोस की है। इनकी स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। ये मरकर चौथे नरक तक जाते हैं, शेष सब वक्तव्यता जलचरों की तरह जानना यावत् ये चारों गतियों में जाने वाले और चारों गतियों से आने वाले हैं, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह चतुष्पदों का वर्णन हुआ। परिसर्प क्या हैं ? परिसर्प दो प्रकार के हैं-उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प। उरपरिसर्प क्या हैं ? उरपरिसर्प के पूर्ववत् भेद जानने चाहिए किन्तु आसालिक नहीं कहना चाहिए। इन उरपरिसरों की अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक हजार योजन है। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। ये मरकर यदि नरक में जाते हैं तो पाँचवें नरक तक जाते हैं, सब तिर्यंचों और सब मनुष्यों में भी जाते हैं और सहस्रार देवलोक तक भी जाते हैं। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह जानना। यावत् ये चार गति वाले, चार आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यह उरपरिसपों का कथन हुआ। भुजपरिसर्प क्या हैं ? भुजपरिसॉं के भेद पूर्ववत् कहने चाहिए। चार शरीर, अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से दो कोस से नौ कोस तक, स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि। शेष स्थानों में उरपरिसरों की तरह कहना चाहिए। यावत् ये दूसरे नरक तक जाते हैं। यह भुजपरिसर्प का कथन हुआ। इसके साथ ही स्थलचरों का भी कथन पूरा हुआ। ४०. से किं तं खहयरा? खहयरा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा. चम्मपक्खी तहेव भेदो, ओगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं, उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं । ठिई जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेण परिओवमस्स असंखेज्जइभागो; सेसं जहा जलयराणं नवरं जाव तच्चं पुढविं गच्छंति जाव से तं खहयर-गब्भवक्कंतिय-पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, से तं तिरिक्खजोणिया। [४०] खेचर क्या हैं ? खेचर चार प्रकार के हैं, जैसे कि चर्मपक्षी आदि पूर्ववत् भेद कहने चाहिए। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग, शेष सब जलचरों की तरह कहना। विशेषता यह है कि ये जीव तीसरे नरक तक जाते हैं। ये खेचर गर्भव्युत्क्रांतिक पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कथन हुआ। इसके साथ ही तिर्यंचयोनिकों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन [३९-४०]-इन सूत्रों में स्थलचर गर्भव्युत्क्रांतिक और खेचर गर्भव्युत्क्रांतिक के भेदों को बताने के लिए निर्देश किया गया है कि सम्मूर्छिम स्थलचर और खेचर की भांति इनके भेद समझने चाहिए। सम्मूर्छिम स्थलचरों में उरपरिसर्प के भेदों में आसालिका का वर्णन किया गया है, वह यहाँ नहीं कहना चाहिए। क्योंकि आसालिका सम्मूर्छित ही होती है, गर्भव्युत्क्रांतिक नहीं। दूसरा अन्तर यह है कि महोरग के सूत्र में 'जोयणसयंपि जोयणसयपुहुत्तिया वि जोयणसहस्संपि' इतना पाठ अधिक कहना चाहिए। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: गर्भज स्थलचरों का वर्णन] तात्पर्य यह है कि सम्मूर्छिम महोरग की अवगाहना उत्कृष्ट योजनपृथक्त्व की है जब कि गर्भज महोरग की अवगाहना सौ योजनपृथक्त्व एवं हजार की भी है। शरीरादि द्वारों में भी सर्वत्र गर्भज जलचरों की तरह वक्तव्यता है, केवल अवगाहना, स्थिति और उद्वर्तना द्वारों में अन्तर है । चतुष्पदों की उत्कृष्ट अवगाहना छह कोस की है, उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, चौथे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की उद्वर्तना है अर्थात् इस बीच सभी जीवस्थानों में ये मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं। [९५ उरपरिसर्पों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन है । उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है, चौथे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की उद्वर्तना है अर्थात् इस बीच सभी जीवस्थानों में ये मर कर उत्पन्न हो सकते हैं। उरपरिसर्पों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन है । उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्भवर्तना पांचवें नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक की है अर्थात् इस बीच के सभी जीवस्थानों में ये मरकर उत्पन्न हो सकते हैं। भुजपरिसर्पों की उत्कृष्ट अवगाहना गव्यूतिपृथक्त्व अर्थात् दो कोस से लेकर नौ कोस तक की है। उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है और उद्वर्तना दूसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक है अर्थात् इस बीच के सब जीवस्थानों में ये उत्पन्न हो सकते हैं । खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों के भेद सम्मूर्छिम खेचरों की तरह ही हैं। शरीरादि द्वार गर्भज जलचरों की तरह हैं, केवल अवगाहना, स्थिति और उद्वर्तना में भेद है । खेचर गर्भज पंचेन्द्रिय तिर्यंचों की उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है । जघन्य तो सर्वत्र अंगुलासंख्येयभाग प्रमाण है । जघन्य स्थिति भी सर्वत्र अन्तर्मुहूर्त की है और इनकी उत्कृष्ट स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इनकी उद्वर्तना तीसरे नरक से लेकर सहस्रार देवलोक तक के बीच के सब जीवस्थान हैं। अर्थात् इन सब जीवस्थानों में वे मरने के अनन्तर उत्पन्न हो सकते हैं। किन्हीं प्रतियों में अवगाहना और स्थिति बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ दी गई हैं जिनका भावार्थ इस प्रकार हैं 'गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरों की उत्कृष्ट अवगाहना हजार योजन की है, चतुष्पदों की छह कोस, उरपरिसर्पों की हजार योजन, भुजपरिसर्पों की गव्यूतपृथक्त्व, पक्षियों की धनुषपृथक्त्व है। १. जोयणसहस्स छग्गाउयाइं तत्तो य जोयणसहस्सं । गाउयपुहुत्त भुयगे, धणुयपुहुत्तं य पक्खीसु ॥ १ ॥ भम्म पुष्कोडी, तिन्नि य पलिओवमाइं परमाउं । उरभुजग पुव्वकोडी, पल्लिय असंखेज्जभागो य ॥२॥ — वृत्ति Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गर्भज चलचरों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है, चतुष्पदों की तीन पल्योपम, उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प की पूर्वकोटि, पक्षियों की पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। नरकों में उत्पाद की स्थिति को बताने वाली दो गाधाएँ हैं, जिनका भाव इस प्रकार है असंज्ञी जीव पहले नरक तक, सरीसृप दूसरे नरक तक, पक्षी तीसरे नरक तक, सिंह चौथे नरक तक, सर्प पांचवें नरक तक, स्त्रियाँ छठे नरक तक और मत्स्य तथा मनुष्य सातवें नरक तक जा सकते हैं। इस प्रकार पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन पूरा हुआ। आगे मनुष्यों का प्रतिपादन करते हैं। मनुष्यों का प्रतिपादन ४१. से किं तं मणुस्सा? मणुस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहासंमुच्छिममणुस्सा य गब्भवक्कंतियमणुस्सा य। कहि णं भंते ! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतो मणुस्सखेत्ते जाव करेंति। तेसिंणं भंते ! जीवाणं कति सरीरगा पण्णत्ता ? गोयमा ! तिन्नि सरीरगा पण्णत्ता, तं जहाओरालिए, तेयए, कम्मए। से तं समुच्छिममणुस्सा। से किं तं गब्भवक्कंतियमणुस्सा ? गब्भवक्कंतियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तं जहाकम्मभूमया, अकम्मभूमया, अंतरदीवया। एवं मणुस्सभेदो भाणियव्यो जहा पण्णवणाए तहाणिरवसेसंभाणियव्वं जाव छउमत्था य केवली य । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपज्जत्ता य। तेसिं णं भंते ! जीवाणं कति सरीरा पण्णता ? गोयमा ! पंच सरीरा, तं जहा-ओरालिए जाव कम्मए। सरीरोगाहणा जहन्नेणंअंगुलासंखेज्जइभागं उक्कोसेणं तिण्णि गाउयाई।छच्चेव संघयणा छस्संठाणा। ते णं भंते ! जीवा कि कोहकसाई जाव लोभकसाई अकसाई ? असण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसवा तइय पुढवि। सीहा जंति चउत्थं उरगा पुण पंचमिं पुढवि॥ १॥ छद्रिं च इत्थियाउ, मच्छा मण्या य सत्तमिं पुढविं।। एसो परमोववाओ बोद्धव्वो नरयपुढविसु॥२॥ Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: मनुष्यों का प्रतिपादन] [९७ गोयमा ! सव्वे वि। ते णं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता जाव लोभसन्नोवउत्ता नोसन्नोवउत्ता ? गोयमा ! सव्वे वि। ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसा य जाव अलेसा? गोयमा ! सव्वे वि। सोइंदियोवउत्ता जाव नोइंदियोवउत्ता वि। सव्वे समुग्घाया तं जहा-वेयणासमुग्घाए जाव केवलिसमुग्घाए। सन्नी विनोसन्नी वि असन्नी वि। इत्थिवेया वि जाव अवेदा बि। पंच पज्जत्ती, तिविहा वि दिट्ठी, चत्तारि दंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि। जे णाणी ते अत्थेगइया दुणाणी अत्थेगइया तिणाणी अत्थेगइया चउणाणी, अत्थेगइया एगणाणी। जे दुण्णाणी ते नियमा आभिणिबोहियणाणी, सुयनाणी य। जे तिणाणी ते आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहिणाणी य अहवा आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, मणपज्जवणाणी य।जे चउणाणी ते णियमा आभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, ओहियाणी, मणपज्जवणाणी य। जे एगणाणी ते नियमा केवलणाणी। एवं अण्णाणी विदुअण्णाणी, तिअण्णाणी।मणजोगी विवइजोगी वि, कायजोगी वि, अजोगी वि। दुविहे उवओगे, आहारो छदिसिं। उववाओ नेरइएहिं अहे सत्तमवजेहिं , तिरिक्खजोणएहिंतो उववाओ असंखेज्जवासाउयवज्जेहिं मणुएहिं अकम्मभूमग-अंतरदीवग-असंखेन्जवासाउयवज्जेहिं देवेहिं सव्वेहि।. ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं, दुविहा वि मरंति, उव्वट्टित्ता नेरइयाइसु जाव अणुत्तरोववाइएसु, अत्थेगइया सिझंति जाव अंतं करेंति। ते णं भंते ! जीवा कतिगतिआ कतिआगतिया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंचगतिया चउआगतिया परित्ता संखिज्जा पण्णत्ता समणाउसो ! सेतं मणुस्सा। [४१] मनुष्य का क्या स्वरूप है ? मनुष्य दो प्रकार के कहे गये हैं, यथा-सम्मूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य। भगवन् ! सम्मूर्छिम मनुष्य कहाँ सम्मूर्छित होते हैं-उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! मनुष्य क्षेत्र के अन्दर (गर्भज-मनुष्यों के अशुचि स्थानों में सम्मूर्छित) होते हैं, यावत् अन्तर्मुहूर्त की आयु में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। भंते ! उन जीवों के कितने शरीर होते हैं ? Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! तीन शरीर होते हैं- औदारिक, तैजस और कार्मण । ( इस प्रकार द्वार - वक्तव्यता कहनी चाहिए ।) ९८] यह सम्मूर्छित मनुष्यों का कथन हुआ । गर्भज मनुष्यों का क्या स्वरूप है ? गौतम ! गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा- कर्मभूमिज, अकर्मभूमिज और अन्तद्वज । इस प्रकार मनुष्यों के भेद प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहने चाहिए और पूरी वक्तव्यता यावत् छद्मस्थ और केवली पर्यन्त । ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त रूप से दो प्रकार के हैं । भंते ! उन जीवों के कितने शरीर कहे गये हैं ? गौतम ! पांच शरीर कहे गये हैं- औदारिक यावत् कार्मण। उनकी शरीरावगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवाँ भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस की है। उनके छह संहनन और छह संस्थान होते हैं। भंते ! वे जीव, क्या क्रोधकषाय वाले यावत् लोभकषाय वाले या अकषाय होते हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । भगवन् ! वे जीव क्या आहारसंज्ञा यावत् लोभसंज्ञा वाले या नोसंज्ञा वाले हैं ? गौतम ! सब तरह के हैं । भगवन् ! वे जीव कृष्णलेश्या वाले यावत् शुक्ललेश्या वाले या अलेश्या वाले हैं ?' गौतम ! सब तरह के हैं। वे श्रोत्रेन्द्रिय उपयोग वाले यावत् स्पर्शनेन्द्रिय उपयोग और नोइन्द्रिय उपयोग वाले हैं। उनमें सब समुद्घात पाये जाते हैं, यथा-वेदनासमुद्घात यावत् केवलीसमुद्घात । वे संज्ञी भी हैं, नोसंज्ञी - असंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले भी हैं, पुंवेद, नपुंसकवेद वाले भी हैं और अवेदी भी हैं। इनमें पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं। (भाषा और मन को एक मानने की अपेक्षा) । तीनों दृष्टियाँ पाई जाती हैं। चार दर्शन पाये जाते हैं। ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं - वे कोई दो ज्ञान वाले, कोई तीन ज्ञान वाले, कोई चार ज्ञान वाले और कोई एक ज्ञान वाले होते हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी हैं, जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी हैं अथवा मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी और मनः पर्यवज्ञान वाले हैं। जो चार ज्ञान वाले हैं वे नियम से मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनः पर्यवज्ञान वाले हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे नियम से केवलज्ञान वाले हैं। इसी प्रकार जो अज्ञानी हैं वे दो अज्ञान वाले या तीन अज्ञान वाले हैं। वे मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी और अयोगी भी हैं । उनमें दोनों प्रकार का - साकार - अनाकार उपयोग होता है। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति ः मनुष्यों का प्रतिपादन] [९९ उनका छहों दिशाओं से (पुद्गल ग्रहण रूप) आहार होता है। वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तीपज और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से आकर भी उत्पन्न होते हैं। उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती हैं। ये दोनों प्रकार के समवहत-असमवहत मरण से मरते हैं । ये यहाँ से मर कर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं। भगवन् ! ये जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले कहे गये हैं ? गौतम ! पांच गति और चार आगति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं। आयुष्मन् श्रमण! यह मनुष्यों का कथन हुआ। विवेचन-मनुष्य सम्बन्धी प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार कहते हैं कि मनुष्य दो प्रकार के हैंसम्मूर्छिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य । सम्मूर्छिम मनुष्यों के विषय में प्रश्न किया गया है कि यो कहाँ सम्मूर्छित होते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया गया है। अर्थात् प्रज्ञापनासूत्र के अनसार इसका उत्तर जानना चाहिए। प्रज्ञापनासत्र में इस विषय में ऐसा उल्लेख किया गया है "पैंतालीस लाख योजन के लम्बे चौड़े मनुष्यक्षेत्र में जिसमें अढाई द्वीप-समुद्र हैं, पन्द्रह कर्मभूमियां, तीस अकर्मभूमियां और छप्पन अन्तर्वीप हैं-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यं के ही १ उच्चार (मल) में, २ प्रस्रवण (मूत्र) में, ३ कफ में, ४ सिंघाण-नासिका के मल में, ५ वमन में, ६ पित्त में, ७ मवाद में, ८ खून में, ९ वीर्य में, १० सूखे हुए वीर्य के पुद्गलों के पुनः गीला होने में, ११ मृत जीव के कलेवरों में, १२ स्त्रीपुरुष के संयोग में, १३ गांव-नगर की गटरों में और १४ सब प्रकार के अशुचि स्थानों में ये सम्मूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण इनकी अवगाहना होती है। ये असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सब पर्याप्तियों से अपर्याप्त रह कर अन्तर्मुहूर्त मात्र की आयु पूरी कर मर जाते हैं।" इन सम्मूर्छिम मनुष्यों में शरीरादि द्वारों की वक्तव्यता इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तैजस और कार्मण। अवगाहनाद्वार-इनकी अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। संहनन, संस्थान, कषाय, लेश्याद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना। इन्द्रियद्वार-इनके पांचों इन्द्रियां होती हैं। संज्ञीद्वार और वेदद्वार द्वीन्द्रिय की तरह जानना। पर्याप्तिद्वार-पांच अपर्याप्तियां होती हैं। ये लब्धिअपर्याप्तक होते हैं। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १००] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दृष्टि, दर्शन, ज्ञान, योग, उपयोग द्वार पृथ्वीकायिकों के समान जानने चाहिए। आहारद्वार-द्वीन्द्रियों की तरह है। उपपात-नैरयिक, देव, तेजस्काय, वायुकाय और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष जीवस्थानों से आकर उत्पन्न होते हैं। स्थिति-जघन्य और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त प्रमाण। जघन्य अन्तर्मुहूर्त से उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कुछ अधिक जानना चाहिए। ये समवहत भी मरते हैं और असमवहत भी। उद्वर्तना-नैरयिक, देव और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष जीवस्थानों में मरकर उत्पन्न होते हैं। इसलिए गति-आगतिद्वार में दो गति वाले और दो आगति वाले (तिर्यक् और मनुष्य) हैं। ये प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! यह सम्मूर्छिम मनुष्यों का वर्णन हुआ। गर्भज मनुष्यों का वर्णन-गर्भ से उत्पन्न होने वाले मनुष्य तीन प्रकार के हैं-१. कर्मभूमिक, २. अकर्मभूमिक और ३. अन्तीपज। कर्मभूमिक-कर्म-प्रधान भूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य कर्मभूमिक हैं। कृषि वाणिज्यादि अथवा मोक्षानुष्ठानरूप कर्म जहाँ प्रधान हों वह कर्मभूमि है। पांच भरत, पांच ऐरवत और ५ महाविदेहये १५ कर्मभूमियां हैं। इन्हीं भूमियों में जीवन-निर्वाह हेतु विविध व्यापार, व्यवसाय, कृषि, कला आदि होते हैं। इन्ही क्षेत्रों में मोक्ष के लिए अनुष्ठान, प्रयत्न आदि हो सकते हैं। अतएव ये कर्मभूमियां हैं। इनमें ही सब सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक व्यवस्थाएँ होती हैं। इनमें उत्पन्न मनुष्य कर्मभूमिक मनुष्य हैं। __अकर्मभूमिक-जहाँ असि (शस्त्रादि), मषि (साहित्य-व्यापार कलाएँ) और कृषि (खेती) आदि कर्म न हों तथा जहाँ मोक्षानुष्ठान हेतु धर्माराधना आदि प्रयत्न न हों ऐसी भोग-प्रधान भूमि अकर्मभूमियाँ हैं। पाँच हैमवत, पाँच हैरण्यवत, पाँच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु, ये तीस अकर्मभूमियां हैं। इन ३० अकर्मभूमियों में उत्पन्न होने वाले मनुष्य अकर्मभूमिक हैं। यहाँ के मनुष्यों के भोगोपभोग के साधनों की पूर्ति कल्पवृक्षों से होती है, इसके लिए उन्हें कोई कर्म नहीं करना पड़ता। पाँच हैमवत और पांच हैरण्यवत क्षेत्र में मनुष्य एक कोस ऊँचे, एक पल्योपम की आयु वाले और वज्रऋषभनाराच संहनन वाले तथा समचतुरस्रसंस्थान वाले होते हैं। इनकी पीठ की पसलियाँ ६४ होती हैं। ये एक दिन के अन्तर से भोजन करते हैं और ७९ दिन तक सन्तान की पालना करते हैं। पांच हरिवर्ष और पांच रम्यकवर्ष क्षेत्रों में मनुष्यों की आयु दो पल्योपम की, शरीर की ऊँचाई दो कोस की होती है। ये वज्रऋषभनाराच संहनन वाले और समचतुरस्त्रसंस्थान वाले होते हैं। दो दिन के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है। इनके १२८ पसलियाँ होती हैं। ६४ दिन तक संतान की पालना करते है। पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुररु क्षेत्र के मनुष्यों की आयु तीन पल्योपम की, ऊँचाई तीन कोस Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: मनुष्यों का प्रतिपादन] [१०१ की होती है। इनके वऋषभनाराचसंहनन और समचतुरस्रसंस्थान होता है। इनकी पसलियाँ २५६ होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार करते हैं और ४९ दिन तक अपत्य-पालना करते हैं। अन्तीपज-अन्तर् शब्द 'मध्य' का वाचक है। लवणसमुद्र के मध्य में जो द्वीप हैं वे अन्तर्वीप कहलाते हैं। ये अन्तर्वीप छप्पन हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तीपज कहलाते हैं। ये अन्तर्वीप हिमवान और शिखरी पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दााढाऔं पर स्थित हैं। जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र की सीमा पर स्थित हिमवान पर्वत के दोनों छोर पूर्व-पश्चिम लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। इसी प्रकार ऐरवत क्षेत्र की सीमा पर स्थित शिखरी पर्वत के दोनों छोर भी लवणसमुद्र में फैले हुए हैं। प्रत्येक छोर दो भागों में विभाजित होने से दोनों पर्वतों के आठ भाग लवणसमुद्र मे जाते हैं। हाथी के दांतों के समान आकृति वाले होने से इन्हें दाढा कहते हैं। प्रत्येक दाढा पर मनुष्यों की आबादी वाले सात-सात क्षेत्र हैं। इस प्रकार ८ x ७ = ५६ अन्तर्वीप हैं। इनमें रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपज कहलाते हैं। हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में ३०० योजन विस्तार वाले १. एकोरुक, . २. आभासिक, ३. वैषाणिक और ४. लांगलिक नामक चार द्वीप चारों दिशाओं में हैं। इनके आगे चारचार सौ योजन दूरी पर चार सौ योजन विस्तार वाले ५. हयकर्ण, ६. गजकर्ण,७. गोकर्ण और ८. शष्कुलकर्ण नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इसके आगे पांच सौ योजन जाने पर पांच सौ योजन विस्तार वाले ९. आदर्शमुख, १०. मेंढमुख, ११. अयोमुख, १२. गोमुख नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इनके आगे छह सौ योजन जाने पर छह सौ योजन विस्तार वाले १३. हयमुख, १४. गजमुख, १५. हरिमुख और १६. व्याघ्रमुख नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इसके आगे सात सौ योजन जाने पर सात सौ योजन विस्तार वाले १७. अश्वकर्ण, १८. सिंहकर्ण, १९. अकर्ण और २०. कर्णप्रावरण नामक चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इनसे आठ सौ योजन आगे आठ सौ योजन विस्तार वाले २१. उल्कामुख, २२. मेघमुख, २३. विद्युत्मुख और २४. अमुख नाम के चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। इससे नौ सौ योजन आगे नौ सौ योजन विस्तार वाले २५. घनदन्त, २६. लष्टदन्त, २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त नाम के चार द्वीप चारों विदिशाओं में हैं। ये सब अट्ठाईसों द्वीप जम्बूद्वीप की जगती से तथा हिमवान पर्वत से तीन सौ योजन से लगाकर नौ सौ योजन दूर हैं। इसी तरह ऐरवत क्षेत्र की सीमा करने वाले शिखरी पर्वत की दाढों पर भी इन्हीं नाम वाले २८ द्वीप हैं। इस तरह दोनों तरफ के मिलकर छप्पन अन्तर्वीप होते हैं । अन्तर्वीप में एक पल्योपम के असंख्यातवें भाग की आयु वाले युगलिक मनुष्य रहते हैं। इन द्वीपों में सदैव तीसरे आरे जैसी रचना रहती है। यहाँ के स्त्री-पुरुष सर्वांग सुन्दर एवं स्वस्थ होते हैं। वहाँ रोग तथा उपद्रवादि नहीं होते हैं। उनमें स्वामी-सेवक व्यवहार नहीं होता। उनकी पीठ में ६४ पसलियाँ होती हैं। उनका आहार एक चतुर्थभक्त के बाद होता है तथा मिट्टी एवं कल्पवृक्ष के फलादि चक्रवर्ती के भोजन से अनेक गुण अच्छे होते हैं। यहाँ के मनुष्य मंदकषाय वाले, मृदुता-ऋजुता से सम्पन्न तथा ममत्व और वैरानुबन्ध से रहित होते Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं। यहाँ के युगलिक अपने अवसान के समय एक युगल (स्त्री-पुरुष) को जन्म देते हैं और ७९ दिन तक उसका पालन-पोषण करते हैं। इनका मरण जंभाई, खांसी या छींक आदि से होता हैं-पीड़ापूर्वक नहीं। ये मरकर देवलोक में जाते हैं। कर्मभूमिक मनुष्य दो प्रकार के हैं-आर्य और म्लेच्छ (अनार्य)। शक, यवन, किरात, शबर, बर्बर, आदि अनेक प्रकार के म्लेच्छों के नाम प्रज्ञापनासूत्र में बताये गये हैं। आर्य दो प्रकार के हैं-ऋद्धिप्राप्त आर्य और अनर्द्धिप्राप्त आर्य। ऋद्धिप्राप्त आर्य छह प्रकार के हैं१. अरिहंत, २. चक्रवर्ती, ३. बलदेव, ४. वासुदेव, ५. चारण और ६. विद्याधर। अनर्द्धिप्राप्त आर्य नौ प्रकार के हैं-१. क्षेत्रआर्य, २. जातिआर्य, ३. कुलआर्य, ४. कर्मआर्य, ५. शिल्पआर्य, ६. भाषाआर्य, ७. ज्ञानआर्य, ८. दर्शनआर्य और ९. चारित्रआर्य। १. क्षेत्रआर्य-साढे पच्चीस देश के निवासी क्षेत्रआर्य हैं। इन क्षेत्रों में तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों बलदेवों और वासुदेवों का जन्म होता हैं। २. जातिआर्य-जिनका मातृवंश श्रेष्ठ हो (शिष्टजनसम्मत हो)। ३. कुलआर्य-जिनका पितृवंश श्रेष्ठ हो । उग्र, भोग, राजन्य आदि कुलआर्य हैं। ४. कर्मआर्य-शिष्टजनसम्मत व्यापार आदि द्वारा आजीविका करने वाले कर्मआर्य हैं । ५. शिल्पआर्य-शिष्टजन सम्मत कलाओं द्वारा जीविका करने वाले शिल्पआर्य हैं। ६. भाषाआर्य-शिष्टजन मान्य भाषा और लिपि का प्रयोग करने वाले भाषाआर्य हैं। सूत्रकार ने अर्धमागधी भाषा और ब्राह्मीलिपि का उपयोग करने वालों को भाषार्य कहा है। उपलक्षण से वे सब भाषाएं और लिपियाँ ग्राह्य हैं जो शिष्टजनसम्मत और कोमलकान्त पदावली से युक्त हों। ७. ज्ञानआर्य-पांच ज्ञानों-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यायज्ञान और केवलज्ञान की अपेक्षा से पांच प्रकार के ज्ञान आर्य समझने चाहिए। ८. दर्शनआर्य-सरागदर्शन और वीतरागदर्शन की अपेक्षा दो प्रकार के दर्शनआर्य समझने चाहिए। ९. चरित्रआर्य-सरागचारित्र और वीतरागचारित्र की अपेक्षा चारित्रआर्य दो प्रकार के जानने चाहिए। सरागदर्शन और सरागचारित्र से तात्पर्य कषाय की विद्यमानता जहाँ तक बनी रहती है वहाँ तक का दर्शन और चारित्र सरागदर्शन और सरागचारित्र जानना चाहिए। कषायों की उपशान्तता तथा क्षीणता के साथ जो दर्शन चारित्र होता हैं वह वीतरागदर्शन और वीतरागचारित्र है। अकषाय रूप यथाख्यातचारित्र दो प्रकार का है-छाद्मस्थिक और कैवलिक।ग्यारहवें, बारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के छाद्मस्थिक यथाख्यातचारित्र होता है और तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के कैवलिक यथाख्यातचारित्र होता है। इसलिये यथाख्यातचारित्र-आर्य उक्त प्रकार से दो तरह के हो जाते हैं। ये संक्षेप में आर्य-मनुष्यों का वर्णन हुआ। विस्तृत जानकारी के लिए प्रज्ञापनासूत्र पढ़ना चाहिए। १. प्रज्ञापनासूत्र में विस्तृत जानकारी दी गई है। Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: मनुष्यों का प्रतिपादन] [१०३ ये मनुष्य संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। इन मनुष्यों के सम्बन्ध में २३ द्वारों की विचारणा इस प्रकार हैशरीरद्वार-मनुष्यों के पांचों-औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण शरीर पाये जाते हैं। अवगाहना-जघन्य से इनकी अवगाहना अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से तीन कोस संहनन-छहों संहनन पाये जाते हैं। संस्थान-छहों संस्थान पाये जाते हैं। कषायद्वार-क्रोधकषाय वाले, मानकषाय वाले, मायाकषाय वाले, लोभकषाय वाले, और अकषाय वाले (वीतराग मनुष्य की अपेक्षा) भी होते हैं। संज्ञाद्वार-चारों संज्ञा वाले भी हैं और नोसंज्ञी भी हैं। निश्चय से वीतराग मनुष्य और व्यवहार से सब चारित्री नोसंज्ञोपयुक्त हैं । लोकोत्तर चित्त की प्राप्ति से वे दसों प्रकार की संज्ञा से युक्त हैं। लेश्याद्वार-छहों लेश्या भी पायी जाती हैं और अलेश्यी भी हैं। परम शुक्लध्यानी अयोगिकेवली अलेश्यी हैं। इन्द्रियद्वार-पांचों इन्द्रियों के उपयोग से उपयुक्त भी होते हैं और केवली की अपेक्षा नोइन्द्रियोपयुक्त भी हैं। समुद्घातद्वार-सातों समुद्घात पाये जाते हैं। क्योंकि मनुष्यों में सब भाव संभव हैं। संजीद्वार-संज्ञी भी हैं और नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी भी हैं। केवली की अपेक्षा नोसंज्ञी-नोअसंज्ञी हैं। वेदद्वार-तीनों वेद पाये जाते हैं और अवेदी भी होते हैं। सूक्ष्मसंपराय आदि गुणस्थान वाले अवेदी पर्याप्तिद्वार-पांचों पर्याप्तियां और पांचों अपर्याप्तियां होती हैं। भाषा और मनःपर्याप्ति को एक मानने की अपेक्षा से पांच पर्याप्तियां कही हैं। दृष्टिद्वार-तीनों दृष्टियाँ पाई जाती हैं। कोई मिथ्यादृष्टि होते हैं, कोई सम्यग्दृष्टि होते हैं और कोई मिश्रदृष्टि होते हैं। दर्शनद्वार-चारों दर्शन पाये जाते हैं। १ निर्वाणसाधकं सर्व ज्ञेयं लोकोत्तराश्रयम् । संज्ञाः लोकाश्रयाः सर्वाः भवांकुरजलं परं॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ज्ञानद्वार-मनुष्य ज्ञानी भी होते हैं और अज्ञानी भी होते हैं। जो मिय्यादृष्टि हैं वे अज्ञानी हैं और जो सम्यग्दृष्टि हैं वे ज्ञानी हैं। इनमें पांच ज्ञान और तीन अज्ञान की भजना कही गई है। वह इस प्रकार हैकोई मनुष्य दो ज्ञान वाले हैं, कोई तीन ज्ञान वाले हैं, कोई चार ज्ञान वाले हैं और कोई एक ज्ञान वाले हैं। जो दो ज्ञान वाले हैं, वे नियम से मतिज्ञान और श्रुतज्ञान वाले हैं। जो तीन ज्ञान वाले हैं, वे मतिज्ञान, श्रुतज्ञान और अवधिज्ञान वाले हैं अथवा मतिज्ञानी श्रुतज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी हैं। क्योंकि अवधिज्ञान के बिना भी मनःपर्यायज्ञानी हो सकता है। सिद्धप्राभृत आदि में अनेक स्थानों पर ऐसा कहा गया है। जो चार ज्ञान वाले हैं वे मतिज्ञानी, श्रुतज्ञानी, अवधिज्ञानी और मनःपर्यायज्ञानी हैं। जो एक ज्ञान वाले हैं वे केवलज्ञानी हैं। केवलज्ञान होने पर शेष चारों ज्ञान चले जाते हैं। आगम में कहा गया है कि केवलज्ञान होने पर छाद्मस्थिकज्ञान नष्ट हो जाते हैं।' केवलज्ञान होने पर शेष ज्ञानों का नाश कैसे? यहाँ शंका हो सकती है कि केवलज्ञान का प्रादुर्भाव होने पर शेष ज्ञान चले क्यों जाते हैं ? अपनेअपने आवरण के आंशिक क्षयोपशम होने पर ये मति आदि ज्ञान होते हैं तो अपने-अपने आवरण के निर्मूल क्षय होने पर वे अधिक मात्रा में होने चाहिए, जैसे कि चारित्रपरिणाम होते हैं। इसका समाधान मरकत मणि के उदाहरण से किया गया हैं। जैसे जातिवंत श्रेष्ठ मरकत मणि मल आदि से लिप्त होने पर जब तक उसका समूल मल नष्ट नहीं होता तब तक थोड़ा थोड़ा मल दूर होने पर थोड़ी थोड़ी मणि की अभिव्यक्ति होती है। वह क्वचित्, कदाचित् और कथंचिद् होने से अनेक प्रकार की होती है। इसी तरह आत्मा स्वभाव से समस्त पदार्थों को जानने की शक्ति से सम्पन्न है परन्तु उसका यह स्वभाव आवरण रूप मल-पटल से तिरोहित है। जब तक पूरा मल दूर नहीं होता तब तक आंशिक रूप से मलोच्छेद होने से उस स्वभाव की आंशिक अभिव्यक्ति होती है। वह क्वचित् कदाचित् और कथंचित् होने से अनेक प्रकार की हो सकती है। वह मति, श्रुत आदि के भेद से होती है। जब मरकतमणि का सम्पूर्ण मल दूर हो जाता हैं तो वह मणि एक रूप में ही अभिव्यक्त होती है। इसी तरह जब आत्मा के सम्पूर्ण आवरण दूर हो जाते हैं तो आंशिक ज्ञान नष्ट होकर सम्पूर्ण ज्ञान (केवलज्ञान) एक ही रूप में अभिव्यक्त हो जाता हैं। २ १. नटुम्मि उ छाउमथिए नाणे'-इति वचनात्। २. शंका-आवरणदेसविगमे जाइं विजंति मइसुयाई णि। . आवरणसव्वविगमे कहं ताइं न होंति जीवस्स॥ समाधान-मलविद्धमणेर्व्यक्तिर्यथाऽनेकप्रकारतः । कर्मविद्धात्मविज्ञप्तिस्तथाऽनेकप्रकारतः॥ यथा जात्यस्य रत्नस्य निःशेषमलहानितः। स्फुटकरूपाऽभिव्यक्तिर्विज्ञप्तिस्तद्वदात्मनः॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: देवों का वर्णन] [१०५ जो अज्ञानी हैं, वे दो अज्ञान वाले भी हैं और तीन अज्ञान वाले भी हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं, वे मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। योगद्वार-मनुष्य मनयोगी, वचनयोगी, काययोगी भी है और अयोगी भी है। शैलेशी अवस्था मं अयोगित्व है। उपयोगद्वार और आहारद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना। उपपातद्वरा-सातवीं नरक को छोड़कर शेष सब स्थानों से मनुष्यों में जन्म हो सकता है। सातवीं नरक का नैरयिक मनुष्य नहीं होता। सिद्धान्त में कहा गया हैं कि-सप्तमपृथ्वी नैरयिक, तेजस्काय, वायुकाय और असंख्य वर्षायु वाले अनन्तर उद्वर्तित होकर मनुष्य नहीं होते। स्थितिद्वार-मनुष्यों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। समवहतद्वार-मनुष्य मारणांतिक समुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। . उद्वर्तनाद्वार-ये सब नारकों में, सब तिर्यंचों में, सब मनुष्यों में और सब अनुत्तरोपपातिक देवों तक उत्पन्न होते हैं और कोई सब कर्मों से मुक्त होकर सिद्ध-बुद्ध हो जाते हैं और निर्वाण को प्राप्त कर सब दुःखों का अन्त कर देते हैं। गति-आगतिद्वार-मनुष्य पांच गतियों में (सिद्धगति सहित) जाने वाले और चार गतियों से आने वाले हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! ये प्रत्येकशरीरी हैं और संख्येय हैं। मनुष्यों की संख्या संख्येय कोटी प्रमाण है। इस प्रकार मनुष्यों का कथन सम्पूर्ण हुआ। देवों का वर्णन ४२. से किं तं देवा? देवा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहाभवणवासी, वाणमंतरा, जोइसिया, वेमाणिया। से किं तं भवणवासी? भवणवासी दसविहा पण्णत्ता, तं जहाअसुरा जाव थणिया। से तं भवणवासी। से किं तं वाणमंतरा? देवभेदो सव्वो भाणियव्वो जाव ते दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्ता य अपजताय। तओ सरीरगा-वेउव्विए, तेयए, कम्मए।ओगाहणा दुविहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थं णं जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ता रयणीओ। उत्तरवेउब्धिया जहन्नेण अंगलस्स संखेजड़भागं उक्कोसेणं जोयणसयसहस्सं। सरीरगा छण्हं संघयणाणं असंघयणी णेवट्ठी,णेव छिराणेवण्हारूणेव संघयणमथि, जे पोग्गला इट्ठा कंता जाव ते तेसिं संघायत्ताए परिणमंति। किंसंठिया ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य। तत्थ णं जे भवधारणिज्जा ते णं समचउरंससंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते णं नाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता, चत्तारि कसाया, चत्तारि सण्णाओ, छ लेस्साओ, पंच इंदिया, पंच समुग्घाया, सन्नी वि, असन्नी वि, इत्थिवेया वि, पुरिसवेया वि, णो णपुंसकवेदी, पज्जत्ती अपजत्तीओ पंच, दिट्ठी तिण्णि, तिण्णि दंसणा, णाणी वि अण्णाणी वि, जे नाणी ते नियमा तिण्णाणी, अण्णाणी भयणाए, दुविहे उवओगे,तिविहे जोगे,आहारो णियमा छहिसि;ओसन्नं कारणं पडुच्चंवण्णओ हालिहसुक्किलाइंजाव आहारमाहरेंति।उववाओ तिरियमणुस्सेहि, ठिती जहन्नेणंदसवाससहस्साइंउक्कोसेणं तेत्तीसंसागरोवमाइं, दुविहा विमति, उव्वट्टित्तानो नेरइएसु गच्छंति तिरियमणुस्सेसुजहासंभवं, नो देवेसु गच्छंति, दुगतिआ, दुआगतिआ परित्ता असंखेजा पण्णत्ता समणाउसो ! से तं देवा; से तं पंचेंदिया; से तं ओराला तसा पाणा। [४२] देव क्या हैं ? देव चार प्रकार के हैं, यथा-भवनवासी, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भवनवासी देव क्या हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के कहे गये हैंअसुरकुमार यावत् स्तनितकुमार। वाणव्यन्तर क्या हैं ? (प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार) देवों के भेद कहने चाहिए। यावत् वे संक्षेप से पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं। उनके तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। अवगाहना दो प्रकार की होती है-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी। इनमें जो भवधारणीय है वह जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ की है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख योजन की है । देवों के शरीर छह संहननों में से किसी संहनन के नहीं होते हैं, क्योंकि उनमें न हड्डी होती है न शिरा (धमनी नाड़ी) और न स्नायु (छोटी नसें) हैं, इसलिए संहनन नहीं होता। जो पुद्गल इष्ट कांत यावत् मन को आह्लादकारी होते हैं उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं। भगवन्! देवों का संस्थान क्या है ? Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: देवों का वर्णन] [१०७ गौतम! संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रियिकी। उनमें जो भवधारणीय है वह समचतुरस्रसंस्थान है और जो उत्तरवैक्रियिक है वह नाना आकार का है। देवों में चार कषाय, चार संज्ञाएँ, छह लेश्याएँ, पांच इन्द्रियां, पांच समुद्घात होते हैं। वे संज्ञी भी हैं और असंज्ञी भी हैं। वे स्त्रीवेद वाले, पुरुषवेद वाले हैं, नपुंसकवेद वाले नहीं है। उनमें पांच पर्याप्तियां और पांच अपर्याप्तियां होती हैं। उनमें तीन दृष्टियां, तीन दर्शन होते हैं। वे ज्ञानी भी होते है और अज्ञानी भी होते हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे भजना से तीन अज्ञान वाले हैं। उनमें साकार अनाकार दोनों उपयोग वाले पाये जाते हैं। उनमें तीनों योग होते हैं। उनका आहार नियम से छहों दिशाओं के पुद्गलों को ग्रहण करना है। प्रायः करके पीले और सफेद शुभ वर्ण के यावत् शुभगंध, शुभरस, शुभस्पर्श वाले पुद्गलों का आहार करते हैं। ___वे तिर्यंच और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। वे मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। - वे वहाँ से च्यवित होकर नरक में उत्पन्न नहीं होते, यथासम्भव तिर्यंचों मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते। इसलिए वे दो गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात कहे गये हैं। हे आयुष्मन् श्रमण! यह देवों का वर्णन हुआ। इसके साथ ही पंचेन्द्रिय का वर्णन हुआ और साथ ही उदार त्रसों का वर्णन पूरा हुआ। विवेचन-प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार देवों के भेद-प्रभेद जानने चाहिए, वह इस प्रकार हैंदेव चार प्रकार के हैं-१. भवनवासी, २. वाणव्यंतर, ३.ज्योतिष्क और ४. वैमानिक। भवनवासी-जो देव प्रायः भवनों में निवास करते हैं वे भवनवासी कहलाते हैं। यह नागकुमार आदि की अपेक्षा से समझना चाहिए। असुरकुमार प्रायः आवासों में रहते हैं और कदाचित् भवनों में भी रहते हैं। नागकुमार आदि प्रायः भवनों में रहते हैं और कदाचित् आवासों में रहते हैं। भवन और आवास का अन्तर स्पष्ट करते हुए वृत्तिकार ने लिखा है कि भवन बाहर से गोलाकार और अन्दर से समचौरस होते हैं और नीचे कमल की कर्णिका के आकार के होते हैं। जबकि आवास कायप्रमाण स्थान वाले महामण्डप होते हैं, जो अनेक मणिरत्नों से दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। __ भवनवासी देवों के दस भेद हैं-१ असुरकुमार, २ नागकुमार, ३ सुपर्णकुमार, ४ विद्युत्कुमार, ५ अग्निकुमार, ६ द्वीपकुमार, ७ उदधिकुमार, ८ दिशाकुमार, ९ पवनकुमार और १० स्तनितकुमार। इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । ये कुमारों के समान विभूषाप्रिय, क्रीड़ापरायण, तीव्र अनुराग और सुकुमार होते हैं अतएव ये 'कुमार' कहे जाते हैं। वाणव्यन्तर-'वि' अर्थात् विविध प्रकार के अन्तर अर्थात् आश्रय जिनके हों वे व्यन्तर हैं। भवन, Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नगर और आवासों में-विविध जगहों पर रहने के कारण ये देव व्यन्तर कहलाते हैं। व्यन्तरों के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर शेष आठ सौ योजन प्रमाण मध्य भाग में हैं। इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं और इनके आवास तीनों लोकों में हैं। अथवा जो वनों के विविध पर्वतान्तरों, कंदरान्तरों आदि आश्रयों में रहते हैं वे वाणव्यन्तर देव हैं। वाणव्यन्तरों के आठ भेद हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच। इनमें प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। ज्योतिष्क-जो जगत् को द्योतित-प्रकाशित करते हैं वे ज्योतिष्क कहलाते हैं अर्थात् विमान। जो ज्योतिष् विमानों में रहते हैं वे ज्योतिष्क देव हैं । अथवा जो अपने अपने मुकुटों में रहे हुए चन्द्रसूर्यादि मण्डलों के चिन्हों से प्रकाशमान हैं वे ज्योतिष्क देव हैं । इनके पांच भेद हैं-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनके भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । वैमानिक-जो ऊर्ध्वलोक के विमानों में रहते हैं वे वैमानिक हैं। ये दो प्रकार के हैं-कल्पोपन्न और कल्पातीत । कल्पोपन्न का अर्थ हैं-जहाँ कल्प-आचार-मर्यादा हो अर्थात् जहाँ इन्द्र, सामानिक, त्रायास्त्रिंश आदि की मर्यादा और व्यवहार हो, वे कल्पोपन्न हैं। जहाँ उक्त व्यवहार या मर्यादा न हो वे कल्पातीत हैं। कल्पोपन के बारह भेद हैं-१ सौधर्म, २ ईशान, ३ सानत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्मलोक, ६ लान्तक, ७ महाशुक्र, ८ सहस्रार, ९ आनत, १० प्राणत, ११ आरण और १२ अच्युत। इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं-ग्रैवेयक और अनुत्तरोपपातिक। ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं-१ अधस्तन-अधस्तन, २ अधस्तन-मध्यम, ३ अधस्तन-उपरिम, ४ मध्यम-अधस्तन,५ मध्यम-मध्यम,६ मध्यमउपरिम, ७ उपरिम-अध्स्तन, ८ उपरिम-मध्यम और ९ उपरिम-उपरिम। इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो भेद हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों के ५ भेद हैं-१ विजय, २ वैजयंत, ३ जयंत ४ अपराजित और सर्वार्थसिद्ध। इनके भी प्रत्येक को दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। देवों में जो पर्याप्त, अपर्याप्त का भेद बताया है उसमें अपर्याप्तत्व अपर्याप्तनामकर्म के उदय से नहीं समझना चाहिए। किन्तु उत्पत्तिकाल में ही अपर्याप्तत्व समझना चाहिए। सिद्धान्त में कहा है-नारक, देव, गर्भज तिर्यंच, मनुष्य और असंख्यात वर्ष की आयु वाले उत्पत्ति के समय ही अपर्याप्त होते हैं।' देवों की शरीरादि २३ द्वारों की अपेक्षा निम्न प्रकार की वक्तव्यता है १ नारयदेवातिरियमणुय गन्भजा जे असंखवासाऊ। एए 3 अपज्जत्ता, उववाए चेव बोद्धव्वा॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति : देवों का वर्णन]] [१०९ शरीरद्वार-देवों के तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। अवगाहनाद्वार-भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ प्रमाण है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक लाख योजन। संहननद्वार-छहों संहननों में से एक भी संहनन नहीं होता, क्योंकि अस्थियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं और देवों के शरीर में न अस्थि है, न शिरा है और न स्नायु है। अतएव वे असंहननी किन्तु जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन को संतुष्ट करने वाले नरम और कमनीय होते हैं, वे पुद्गल उनके शरीररूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं। संस्थानद्वार-भवधारणीय संस्थान तो समचौरस संस्थान है और उत्तरवैक्रिय नाना प्रकार का होता है, क्योंकि वे इच्छानुसार आकार बना सकते हैं। . कषाय-चारों कषाय होते हैं। संज्ञा-चारों संज्ञाएँ होती हैं। लेश्या-छहों लेश्याएं होती हैं। इन्द्रिय-पांचों इन्द्रियां होती हैं। समुद्घात-पांच समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय और तैजस समुद्घात। संजीद्वार-ये संज्ञी भी होते हैं और अंसज्ञी भी होते हैं। जो गर्भव्युत्क्रान्तिक मर कर देव होते हैं वे संज्ञी हैं और जो सम्मूर्छिमों से आकर उत्पन्न होते हैं वे असंज्ञी कहलाते हैं। वेदद्वार-ये स्त्रीवेदी और पुंवेदी होते हैं। नपुंसकवेद वाले नहीं होते। पर्याप्तिद्वार, दृष्टिद्वार और दर्शनद्वार-नैरयिकों की तरह । ज्ञानद्वार-ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं-मति, श्रुत, और अवधि। जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले है और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, और विभंगज्ञान वाले होते हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वेमति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान वाले हैं। जो असंज्ञियों से आकर उत्पन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा से दो अज्ञान होते हैं। यह भजना का तात्पर्य है। उपयोग और आहारद्वार-नैरयिकवत् जानना चाहिए। अर्थात् साकार और अनाकार दोनों तरह से उपयोग होते हैं। छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। उपपातद्वार-संज्ञीपंचेन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं, Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र शेष जीवस्थानों से नहीं। स्थितिद्वार-इनकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम की है। समवहतद्वार-मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी। च्यवनद्वार-ये देव मरकर पृथ्वी, पानी, वनस्पतिकाय में, गर्भज और संख्यात वर्ष की आयु वाले तिर्यंच पंचेन्द्रिय और मनुष्यों में उत्पन्न होते है। शेष जीवस्थान में नहीं जाते। गति-आगतिद्वार-इसलिए वे दो गति में जाने वाले और दो गति से आने वाले हैं। हे आयुष्मन् श्रमण! ये देव प्रत्येकशरीरी हैं और असंख्यात हैं। इस प्रकार देवों का वर्णन हुआ। इसके साथ पंचेन्द्रियों का वर्णन पूरा हुआ और साथ ही उदार त्रसों की वक्तव्यता पूर्ण हुई। _आगे के सूत्र में स्थावरभाव और त्रसभाव की भवस्थिति का प्रतिपादन करते हुए सूत्रकार कहते भवस्थिति का प्रतिपादन ४३. थावरस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बावीस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता। तसस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पण्णत्ता। ' थावरे णं भंते ! थावरे ति कालओ केवच्चिर होइ? जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंताओ उस्सप्पिणीओ अवसप्पिणीओ कालओ। खेत्तेओ अणंता लोया असंखेज्जा पुग्गलपरियट्टा। ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइभागो। तसे णं भंते ! तसे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? जहंनेणंअंतोमुहत्तं उकोसेणंअसंखेज्जकालं असंखेज्जाओ उस्सप्पिणीओअवसप्पिणीओ कालओ। खेत्तओ असंखेज्जा लोगा। थावरस्स णं भंते ! केवतिकालं अंतर होइ? जहा तससंचिट्ठणाए। तसस्स णं भंते ! केवइकालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एएसिणं भंते ! तसाणं थावराण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा तसा, थावरा अणंतगुणा। Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: भवस्थिति का प्रतिपादन] सेतं दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता । दुविहपडिवत्ती समत्ता । [४३] भगवन् ! स्थावर की कालस्थिति (भवस्थिति) कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बावीस हजार वर्ष की है। भगवन् ! त्रस की भवस्थिति कितने समय की कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही है ? भंते ! स्थावर जीव स्थावर के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनंतकाल तक - अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक। क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गलपरावर्त तक । आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त तक स्थावर स्थावररूप में रह सकता है। भंते ! त्रस जीव त्रस के रूप में कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणियों तक । क्षेत्र से असंख्यात लोक । भगवन् ! स्थावर का अन्तर कितना हैं ? गौतम ! जितना उनका संचिट्ठाणकाल है अर्थात् असंख्येय उत्सर्पिणी- अवसर्पिणीकाल से; क्षेत्र से असंख्येय लोक । भगवन् ! त्रस का अन्तर कितना है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल । भगवन् ! इन त्रसों और स्थावरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े त्रस हैं। स्थावर जीव उनसे अनन्तगुण हैं । यह दो प्रकार के संसारी जीवों की प्ररूपणा हुई । यह द्विविध प्रतिपत्ति नामक प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई । [१११ विवेचन - इस सूत्र में त्रस और स्थावर जीवों की भवस्थिति, कायस्थिति, प्रतिपादित किया हैं । अल्पबहुत्व स्थावर जीवों की भवस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बावीस हजार वर्ष की कही है। यह स्थिति पृथ्वीकाय को लेकर समझना चाहिए, क्योंकि अन्य स्थावरकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति इतनी संभव नहीं है। अन्तर और त्रसकाय की जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही हैं। यह देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए । अन्य त्रसों की इतनी उत्कृष्ट भवस्थिति नहीं होती । कायस्थिति का अर्थ है - पुनः पुनः उसी काय में जन्म लेने पर उन भवों की कालगणना । जैसे Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र स्थावरकाय वाला जितने समय तक स्थावर के रूप में जन्म लेता रहता हैं, वह सब काल उसकी कायस्थिति समझनी चाहिए। स्थावर जीव की कायस्थिति कितनी हैं ? इसका अर्थ यह है कि स्थावर जीव कितने समय तक स्थावर के रूप में लगातार जन्म लेता रहता है । इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक स्थावर स्थावर के रूप में जन्म-मरण करता रहता हैं । इस अनन्तकाल को काल और क्षेत्र की अपेक्षा से स्पष्ट किया गया है। काल से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक स्थावर स्थावर के रूप में रह सकता हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से इस अनन्तता को इस प्रकार समझाया गया है कि अनन्त लोकों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उन्हें प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने से जितना समय लगता है वह समय अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीमय है। इसी अनन्तता को पुद्गलपरावर्त के मान से बताते हुए कहा गया है कि असंख्येय पुद्गलपराव? (क्षेत्रपुद्गलपरावर्तों) में जितनी उत्सर्पिणियां-अवसर्पिणियां होती हैं, उतनी अनन्त अवसर्पिमीउत्सर्पिणी तक स्थावर के रूप में रह सकता है। पुद्गलपरावर्तों की असंख्येयता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त जानने चाहिए। इतना कालमान वनस्पतिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए. पथ्वीकाय-अपकाय की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि पृथ्वीकाय अप्काय की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है । प्रज्ञापनासूत्र में यह बात स्पष्ट की गई हैं। यह वनस्पतिकायस्थिति काल सांव्यवहारिक जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असांव्यवहारिक जीवों की कायस्थिति को अनादि समझना चाहिए। जैसा कि विशेषणवती ग्रन्थ में कहा गया है-'ऐसे अनंत जीव हैं जिन्होंने त्रसत्व को पाया ही नहीं हैं। जो निगोद में रहते हैं वे जीव अनन्तानन्त हैं।" कतिपय असंव्यवहार राशि वाले जीवों की कायस्थिति अनादि-अनन्त है। अर्थात वे अव्यवहार राशि से निकल कर कभी व्यवहार राशि में आवेंगे ही नहीं। कतिपय असंव्यवहारराशि वाले जीव ऐसे हैं जिनकी कायस्थिति अनादि किन्त अन्त वाली है अर्थात वे व्यवहारराशि में आ सकते हैं। जैसाकि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषणवती में कहा है कि 'संव्यवहारराशि से जितने जीव सिद्ध होते हैं, अनादि वनस्पतिराशि से उतने ही जीव व्यवहारराशि में आ जाते हैं।' २ त्रसजीव त्रसरूप में कितने समय तक रह सकते हैं, इसका उत्तर दिया गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक। उस असंख्येय काल को काल और क्षेत्र से स्पष्ट किया गया है। काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक और क्षेत्र से असंख्यात लोकों में जितने आकाशप्रदेश हैं उनका -विशेषणवती १. अत्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइपरिणाणो। तेवि अणंताणता निगोयवासं अणुवसंति॥ २. सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासिमझाओ। इंति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि॥ -विशेषणवती Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: भवस्थिति का प्रतिपादन] प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार करने में जितनी उत्सर्पिणी- अवसर्पिणियां लगती हैं, उतने काल तक त्रसजीव त्रस के रूप में रह सकता है। इतनी कायस्थिति गतित्रस - तेजस्काय और वायुकाय की अपेक्षा से ही सम्भव है, लब्धत्रस की अपेक्षा से नहीं । लब्धित्रस की उत्कर्ष से कायस्थिति कतिपय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम की ही हैं। [११३ अन्तर-स्थावर जीव के स्थावरत्व को छोड़ने के बाद फिर कितने समय बाद वह पुनः स्थावर बन सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि असंख्येय उत्सर्पिणी- अवसर्पिणी काल से और क्षेत्र से असंख्यात लोक़ का अन्तर पड़ता है । इतना अन्तर तेजस्काय, वायुकाय में जाने की अपेक्षा सम्भव है। अन्यत्र जाने पर इतना अन्तर सम्भव नहीं है । त्रसकाय के त्रसत्व को छोड़ने के बाद कितने समय बाद पुन: त्रसत्व प्राप्त हो सकता है ? इसके उत्तर में कहा गया है कि उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल जितना अन्तर है। अर्थात् उत्कृष्ट से अनन्त - अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी का और क्षेत्र से अनन्त लोक का अन्तर पड़ता है। इसकी स्पष्टता ऊपर की जा चुकी है । इतना अन्तर वनस्पतिकाय में जाने पर ही सम्भव है, अन्यत्र जाने पर नहीं । अल्पबहुत्व में सबसे थोड़े त्रस जीव हैं क्योंकि वे असंख्यात हैं। उनसे स्थावर अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अजघन्योत्कृष्ट अनन्तानन्त हैं । इस प्रकार दो प्रकार के संसारी जीवों का प्रतिपत्ति का वर्णन हुआ। यह दो प्रकार के जीवों की प्रतिपत्तिरूप प्रथम प्रतिपत्ति का प्रतिपादन हुआ । ॥ प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिविधाख्या द्वितीया प्रतिपत्ति प्रथम प्रतिपत्ति में दो प्रकार के संसारसमापनक जीवों का प्रतिपादन किया गया। अब क्रमप्राप्त द्वितीय प्रतिपत्ति में तीन प्रकार के संसारप्रतिपन्नक जीवों का प्रतिपादन अपेक्षित है। अतएव त्रिविधा नामक द्वितीय प्रतिपत्ति का आरम्भ किया जाता हैं, जिसका यह आदि सूत्र हैतीन प्रकार के संसारसमापनक जीव ४४. तत्थ जे ते एवमाहंसु-तिविधा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहा इत्थी पुरिसा णपुंसका। [४४] (पूर्वोक्त नौ प्रतिपत्तियों में से) जो कहते हैं कि संसारसमापन्नक जीव तीन प्रकार के हैं वे ऐसा कहते हैं कि संसारसमापनक जीव तीन प्रकार के हैं-१ स्त्री, २ पुरुष और ३ नुपंसक। विवेचन-प्रथम प्रतिपत्ति में त्रस और स्थावर के रूप में दो प्रकार के संसारसमापनक जीवों का निरूपण कर २३ द्वारों के द्वारा विस्तार के साथ उनकी विवेचना की गई है। अब इस दूसरी प्रतिपत्ति में तीन प्रकार के संसारसमापनक जीवों का वर्णन करना अभिप्रेत है। पूर्व में कहा गया हैं कि संसारसमापनक जीवों के विषय में विवक्षाभेद को लेकर नौ प्रतिपत्तियां हैं। ये सब प्रतिपत्तियां भिन्न-भिन्न रूप वाली होते हुए भी अविरुद्ध और यथार्थ हैं। विवक्षाभेद के कारण भेद होते हुए भी वस्तुतः ये सब प्रतिपत्तियां सत्य तत्त्व के विविध रूपों का ही प्रतिपादन करती हैं। ___ जो प्ररूपक तीन प्रकार के संसारसमापनक जीवों की प्ररूपणा करते हैं, वे कहते हैं कि संसारसमापनक जीव तीन प्रकार के हैं-१ स्त्री, २ पुरुष, और ३ नपुंसक। यह भेद वेद को लेकर किया गया हैं। जब संसारी जीवों का वर्णन वेद की दृष्टि से किया जाता हैं, तब उनके तीन भेद हो जाते हैं। सब प्रकार के संसारी जीवों का समावेश वेद की दृष्टि से इन तीन भेदों में हो जाता है। अर्थात् जो भी संसारी जीव हैं वे या तो स्त्रीवेद वाले हैं या पुरुषवेद वाले हैं या नपुंसकवेद वाले हैं। वे अवेदी नहीं हैं। वेद का अर्थ है-रमण की अभिलाषा। नोकषायमोहनीय के उदय से वेद की प्रवृत्ति होती हैं। स्त्रीवेद-जिस कर्म के उदय से पुरुष के साथ रमण करने की इच्छा हो, उसे स्त्रीवेद कहते हैं। स्त्रीवेद का बाह्य चिन्ह योनि, स्तन आदि है। स्त्रियों में मृदुत्व की प्रधानता होती हैं, अतः उन्हें कठोर भाव की अपेक्षा रहती है। स्त्रीवेद का विकार करीषाग्नि (छाणे की अग्नि) के समान है, जो जल्दी प्रकट भी नहीं होता और जल्दी शान्त भी नहीं होता। व्यवहार (स्थूल) दृष्टि से स्त्रीत्व के सात लक्षण माने गये हैं१ योनि, २ मृदुत्व, ३ अस्थैर्य, ४ मुग्धता, ५ अबलता, ६ स्तन और ७ पुंस्कामिता (पुरुष के साथ रमण Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रियों का वर्णन] की अभिलाषा)। पुरुषवेद - जिस कर्म के उदय से स्त्री के साथ रमण करने की इच्छा हो उसे पुरुषवेद कहते हैं । पुरुषवेद का बाह्य चिह्न लिंग, श्मश्रु केश आदि हैं। पुरुष में कठोर भाव की प्रधानता होती है अतः उसे कोमल तत्त्व की अपेक्षा रहती है । पुरुषवेद का विकार तृण की अग्नि के समान है जो शीघ्र प्रदीप्त हो जाती और शीघ्र शान्त हो जाती है। स्थूल दृष्टि से पुरुष के सात लक्षण कहे गये हैं - १ मेहन (लिंग), २ कठोरता, ३ दृढता, ४ शूरता, ५ श्मश्रु (दाढ़ी-मूंछ ), ६ धीरता और ७ स्त्रीकामिता । २ १ नपुंसकवेद - स्त्री और पुरुष दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा जिस कर्म के उदय से हो वह नपुंसकवेद है। नपुंसक में स्त्री और पुरुष दोनों के मिले-जुले भाव होते हैं। नपुंसक की कामाग्नि नगरदाह या दावानल के समान होती है। जो बहुत देर से शान्त होती है। नपुंसक में स्त्री और पुरुष दोनों के चिन्हों सम्मिश्रण होता हैं । नपुंसक में दोनों - मृदुत्व और कठोरत्व का मिश्रण होने से उसे दोनों - स्त्री और पुरुष की अपेक्षा रहती है। नारक जीव नपुंसकवेद वाले ही होते हैं। एकेन्द्रिय से लेकर चतुरिन्द्रिय जीव और असंज्ञी पंचेन्द्रिय नपुंसकवेद वाले ही होते हैं। सब संमूर्छिम जीव नपुंसकवेदी होते हैं। गर्भज तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों में तीनों वेद पाये जाते हैं। देवों में स्त्रीवेद और पुरुषवेद ही होता है, नपुंसकवेद नहीं होता । उक्त तीनों वेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता हैं। वेदमोहनीय की उपशमदशा में उसकी सत्ता मात्र रहती है, उदय नहीं रहता । वेद का सर्वथा क्षय होने पर अवेदी अवस्था प्राप्त हो जाती है । स्त्रियों का वर्णन ४५. [ १ ] से किं तं इत्थीओ ? इत्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा १. तिरिक्खजोणियाओ, २ मणुस्सित्थीओ, ३. देवित्थिओ | से किं तं तिरिक्खजोणिणित्थीओ ? तिरिक्खजोणिणित्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. जलयरीओ, २. थलयरीओ, ३. खहयरीओ। से किं तं जलयरीओ ? जलयरीओं पंचविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा [११५ १. योनिर्मृदुत्वमस्थैर्य मुग्धताऽबलता स्तनौ । पुंस्कामितेति चिह्नानि सप्त स्त्रीत्वे प्रचक्षते ॥ २. मेहनं खरता दादयं, शौण्डीर्य श्मश्रु धृष्टता । स्त्रीकामितेति लिंगानि सप्त पुंस्त्वे प्रचक्षते ॥ ३. स्तनादिश्मश्रुकेशादि भावाभावसमन्वितं । नपुंसकं बुधा प्राहुर्मोहानलसुदीपितम् ॥ - मलयगिरिवृत्ति - मलयगिरिवृत्ति - मलयगिरिवृत्ति Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मच्छीओ जाव सुंसुमारीओ। से किं तं थलयरीओ? थलयरीओ दुविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाचउप्पदीओ य परिसप्पीओ य। से किं तं चउप्पदीओ? चउप्पदीओ चउव्विहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाएगखुरीओ जाव सणफ्फईओ। से किं तं परिसप्पीओ? परिसप्पीओ दुविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाउरपरिसप्पीओ य भुजपरिसप्पीओ य। से किं तं उरपरिसप्पीओ? । उरपरिसप्पीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. अहीओ, २. अयगरीओ, ३. महोरगीओ।से त्तं उरपरिसप्पीओ। से कि तं भुयपरिसप्पीओ? । भुयपरिसप्पीओ अणेगविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा गोहीओ, णउलीओ, सेधाओ, सेलीओ, सरडीओ, सेरंधीओ', ससाओ, खाराओ, पंचलोइयाओ, चउप्पइयाओ, मूसियाओ, मंगुसियाओ, घरोलियाओ, गोल्हियाओ, जोहियाओ, विरसिरालियाओ, सेत्तं भुयपरिसप्पीओ। से किं तं खहयरीओ? . खहयरीओ चउविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाचम्मपक्खिणीओ जावविययपक्खिणीओ, सेत्तं खहयरीओ,सेतं तिरिक्खजोणियाओ। [४५] स्त्रियाँ कितने प्रकार की हैं ? स्त्रियाँ तीन प्रकार की कही गई हैं, यथा-१ तिर्यंचयोनिकस्त्रियाँ, २ मनुष्यस्त्रियां और ३ देवस्त्रियां। तिर्यंचयोनिक स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? तिर्यंचयोनिक स्त्रियां तीन प्रकार की हैं। जैसे कि-१ जलचरी, २ स्थलचरी और ३ खेचरी। जलचरी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ?. जलचरी स्त्रियां पांच प्रकार की हैं। यथा-मत्स्यी यावत् सुंसुमारी। स्थलचरी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? १. यहाँ अनेक वाचना-भेद दृष्टिगोचर होते हैं। आगमोदय समिति से प्रकाशित प्रति में 'सरडीओ सेरंधिओ गोहीओ पउलीओ सेधाओ सण्णाओ सरडीओ सेरंधीओ, भावाओ खाराओ पवण्णइयाओ चठप्पइयाओ मूसियाओ......इस प्रकार पाठ दिया गया है। कई वाचनाओं में गोहीओ जाव विरचिरालिया' पाठ है। -सम्पादक Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रियों का वर्णन] [११७ स्थलचरी स्त्रियां दो प्रकार की हैं-चतुष्पदी और परिसी। चतुष्पदी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? चतुष्पदी स्त्रियां चार प्रकार की हैं। यथा-एकखुर वाली यावत् सनखपदी। परिसी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? परिसी स्त्रियां दो प्रकार की हैं। यथा-उरपरिसी और भुजपरिसी। उरपरिसी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? उरपरिसपी स्त्रियां तीन प्रकार की हैं। यथा-१ अहि, २ अजगरी और ३ महोरगी। यह उरपरिसी स्त्रियों का कथन हुआ। भुजपरिसी स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? भुजपरिसी स्त्रियां अनेक प्रकार की कही गई हैं, यथा-गोधिका, नकुली, सेधा, सेला, सरटी (गिरगिटी), शशकी, खारा, पंचलोकिक, चतुष्पदिका, मूषिका, मुंगुसिका (टाली), घरोलिया (छिपकली), गोल्हिका, योधिका, वीरचिरालिका आदि भुजपरिसी स्त्रियां हैं। . खेचरी स्त्रियां कितने प्रका रकी हैं ? खेचरी स्त्रियां चार प्रकार की हैं। यथा-चर्मपक्षिणी यावत् विततपक्षिणी। यह खेचरी स्त्रियों का वर्णन हुआ। इसके साथ ही तिर्यंचस्त्रियों का वर्णन भी पूरा हुआ। [२] से किं तं मणुस्सित्थीओ? मणुस्सित्थीओ तिविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा१. कम्मभूमियाओ, २. अकम्मभूमियाओ, ३. अंतरदीवियाओ। से किं तं अंतरदीवियाओ? अंतरदीवियाओ अट्ठावीसइविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहाएगोरुइयाओ आभासियाओ जाव सुद्धदंतीओ। से तं अंतरदीवियाओ। से किं तं अकम्मभूमियाओ? अकम्मभूमियाओ तीसविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा पंचसु हेमवएसु, पंचसु, एरण्णवएसु, पंचसु हरिवासेसु, पंचसु रम्मगवासेसु, पंचसु देवकुरासु, पंचसु उत्तरकुरासु। से त्तं अकम्मभूमियाओ। से किं तं कम्मभूमियाओ? कम्मभूमियाओ पण्णरसविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा पंचसु भरतेसु, पंचसु एरवएसु, पंचसु महाविदेहेसु।सेत्तं कम्मभूमिगमणुस्सीओ।सेत्तं मणुस्सित्थीओ। मनुष्य स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? मनुष्य स्त्रियां तीन प्रकार की कही गई हैं-कर्मभूमिजा, अकर्मभूमिजा, और अन्तीपजा। Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८] [जीवाजीवाभिगमसत्र अन्तीपजा स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? अन्तीपजा स्त्रियां अट्ठावीस प्रकार ही हैं, यथाएकोरुकद्वीपजा, आभाषिकद्वीपजा यावत् शुद्धदंतद्वीपजा। यह अन्तर्वीपजा स्त्रियों का वर्णन हुआ। अकर्मभूमिजा स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? अकर्मभूमिजा स्त्रियां तीस प्रकार की हैं। यथा पांच हैमवत में उत्पन्न, पांच एरण्यवत में उत्पन्न, पांच हरिवर्ष में उत्पन्न, पांच रम्यकवर्ष में उत्पन्न, पांच देवकुरु में उत्पन्न, पांच उत्तरकुरु में उत्पन्न। यह अकर्मभूमिजा स्त्रियों का वर्णन हुआ। कर्मभूमिजा स्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? कर्मभूमिजा स्त्रियां पन्द्रह प्रकार की हैं। यथा पांच भरत में उत्पन्न, पांच ऐरवत में उत्पन्न और पांच महाविदेहों में उत्पन्न। यह कर्मभूमिजा स्त्रियों . का वर्णन हुआ। यह मनुष्य स्त्रियों का वर्णन हुआ। [३] से किं तं देवित्थियाओ? देवित्थियाओ चउविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा १.भवणवासिदेवित्थियाओ, २. वाणमंतरदेवित्थियाओ, ३. जोइसियदेवित्थियाओ, ४. वेमाणियदेवित्थियाओ। से किं तं भवणवासिदेवित्थियाओ? भवणवासिदेवित्थियाओ दसविहा पण्णत्ता, तं जहा असुरकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ जाव थणियकुमारभवणवासिदेवित्थियाओ।सेतं भवणवासिदेवित्थियाओ। वाणमंतरदेवित्थिया अट्टविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा–पिसायवाणमंतरदेवित्थियाओ जाव गंधव्ववाणमंतरदेवित्थिीयाओ, सेत्तं वाणमंतरदेवित्थियाओ। से किं तं जोइसियदेवित्थियाओ? जोइसियदेवित्थियाओ पंचविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा चंदविमाणजोइसियदेवित्थियाओ, सूर गह नक्खत्त ताराविमाणजोइसियदेवित्थियाओ। सेत्तं जोइसियाओ। से किं तं वेमाणियदेवित्थियाओ? वेमाणियदेवित्थियाओ दुविहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा सोहम्मकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ, ईसाणकप्पवेमाणियदेवित्थियाओ। से तं वेमाणियदेवित्थियाओ। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रियों का वर्णन] [११९ [३] देवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? देवस्त्रियां चार प्रकार की हैं, यथा१. भवनपतिदेवस्त्रियां, २. वानव्यन्तरदेवस्त्रियां, ३. ज्योतिष्कदेवस्त्रियां और ४. वैमानिकदेवस्त्रियां। भवनपतिदेवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? भवनपतिदेवस्त्रियां दस प्रकार की हैं, यथा असुरकुमार-भवनवासी-देवस्त्रियां यावत् स्तनितकुमार-भवनवासी-देवस्त्रियां। यह भवनवासी देवस्त्रियों का वर्णन हुआ। वानव्यन्तरदेवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? वानव्यन्तरदेवस्त्रियां आठ प्रकार की हैं, यथा पिशाचवानव्यन्तरदेवस्त्रियां यावत् गन्धर्ववानव्यन्तरदेवस्त्रियां। यह वानव्यन्तरदेवस्त्रियों का वर्णन हुआ। ज्योतिष्कदेवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? . ज्योतिष्कदेवस्त्रियां पांच प्रकार की हैं, यथा चन्द्रविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां, सूर्यविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां, ग्रहविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां, नक्षत्रविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां और ताराविमान-ज्योतिष्क देवस्त्रियां। यह ज्योतिष्क देवस्त्रियों का वर्णन हुआ। वैमानिक देवस्त्रियां कितने प्रकार की हैं ? वैमानिक देवस्त्रियां दो प्रकार की हैं, यथा सौधर्मकल्प-वैमानिक देवस्त्रियां और ईशानकल्प-वैमानिक देवस्त्रियां। यह वैमानिक देवस्त्रियों का वर्णन हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में स्त्रियों का वर्णन किया गया हैं। चार गतियों में से नरकगति में स्त्रियां नहीं हैं क्योंकि नारक केवल नपुंसकवेद वाले ही होते हैं। अतएव शेष तीन गतियों में-तिर्यंच, मनुष्य और देवगति में स्त्रियां हैं। इसलिए सूत्र में कहा गया है कि तीन प्रकार की स्त्रियां हैं-तिर्यचस्त्री, मनुष्यस्त्री और देवस्त्री। तिर्यंचगति में भी एकेन्द्रिय से चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पंचेन्द्रिय तथा सम्मूर्छिम जन्म वाले नपुंसकवेदी होते हैं। अतएव गर्भजतिर्यंचों, गर्भजमनुष्यों में और देवों में स्त्रियां होती हैं। इसलिए स्त्रियों के तीन प्रकार कहे गये हैं। तिर्यचस्त्रियों के तीन भेद हैं, जलचरी, स्थलचरी, और खेचरी। तिर्यंचों के अवान्तर भेद के अनुसार इनकी स्त्रियों के भी भेद जानने चाहिए। इसी तरह मनुष्यस्त्रियों के भी कर्मभूमिजा, अकर्मभूमिजा और अन्तीपिजा भेद है। मनुष्यों के अवान्तर भेदों के अनुसार इनकी स्त्रियों के भी भेद समझने चाहिए। जैसे कर्मभूमिजा स्त्रियों के १५, अकर्मभूमिजा स्त्रियों के ३० और अन्तर्वीपिजाओं के २८ भेद समझने चाहिए। भवनपति, वानव्यन्तर और ज्योतिष्क देवों के भेद के अनुसार ही इनकी स्त्रियों के भेद समझने चाहिए। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वैमानिक देवों में केवल पहले सौधर्म देवलोक में और दूसरे ईशान देवलोक में ही स्त्रियां हैं। आगे के देवलोकों में स्त्रियां नहीं हैं। अतएव वैमानिक देवियों के दो भेद बताये हैं-सौधर्मकल्प वैमानिक देवस्त्री और ईशानकल्प वैमानिक देवस्त्री। इस प्रकार स्त्रियों के तीन भेद का वर्णन किया गया है । स्त्रियों की भवस्थिति का प्रतिपादन ४६. इत्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णता? गोयमा ! एगेणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाइं। एक्केणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं णव पलिओवमाइं। एक्केणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमाइं। एक्केणं आएसेणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पन्नासं पलिओवमाइं। [४६] हे भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की स्थिति है। दूसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की स्थिति कही गई है। तीसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थिति कही गई है। चौथी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पचास पल्योपम की स्थिति कही गई है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सामान्य रूप से स्त्रियों की भवस्थिति का प्रतिपादन किया गया है। समुच्चय रूप से स्त्रियों की स्थिति यहाँ चार अपेक्षाओं से बताई गई है। सूत्र में आया हुआ 'आदेश' शब्द प्रकार का वाचक है। ' प्रकार शब्द अपेक्षा का भी वाचक है। ये चार आदेश (प्रकार) इस प्रकार हैं (१) एक अपेक्षा से स्त्रियों की भवस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है। यह तिर्यंच और मनुष्य स्त्री की अपेक्षा से जानना चाहिए। अन्यत्र इतनी जघन्य स्थिति नहीं होती। उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। यह ईशानकल्प की अपरिगृहीता देवी की अपेक्षा से समझना चाहिए। (२) दूसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त (पूर्ववत्) और उत्कृष्ट नौ पल्योपम। यह ईशानकल्प की परिगृहीता देवी की अपेक्षा से समझना चाहिए। (३) तीसरी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त (पूर्ववत्) और उत्कृष्ट सात पल्योपम। यह सौधर्मकल्प की परिगृहीता देवी की अपेक्षा से है। (४) चौथी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त (पूर्ववत्) और उत्कृष्ट पचास पल्योपम। यह सौधर्म कल्प की अपरिगृहीता देवी की अपेक्षा से है । २ १. 'आदेसो त्ति पगारो' इति वचनात्। २. उक्तं च संग्रहण्याम् सपरिग्गहेयराणं सोहम्मीसाण पलियसाहियं । उक्कोस सत्त पन्ना नव पणपन्ना य देवीणं ॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : मनुष्य स्त्रियों की स्थिति] [१२१ तिर्यंचस्त्री आदि की पृथक् पृथक् भवस्थिति ४७. [१] तिरिक्खजोणित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं। . जलयर-तिरिक्ख-जोणित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। चउप्पद-थलयर-तिरिक्ख-जोणित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा तिरिक्खजोणित्थीओ। उरगपरिसप्प-थलयर-तिरिक्ख-जोणित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसं पुव्वकोडी। एवं भुयपरिसप्प-थलयर-तिरिक्ख-जोणित्थीणं। एवं खहयर-तिरिक्खत्थीणं जहन्नेणंअंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेग्जइभागो। [४७] (१) हे भगवन् ! तिर्यक्योनिकस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की स्थिति कही गई है। भगवन् ! जलचर तिर्यक्योनिकस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि की स्थिति कही गई है । भगवन् ! चतुष्पद स्थलचरतिर्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जैसे तिर्यंचयोनिक स्त्रियों की (औधिक) स्थिति कही है वैसी जानना। भंते ! उरपरिसर्प स्थलचर तिर्यस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि। इसी तरह भुजपरिसर्प स्थलचर स्त्रियों की स्थिति भी समझना। इसी तरह खेचरतिर्यस्त्रियों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। मनुष्यस्त्रियों की स्थिति [२] मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिणि पलिओवमाई। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। कम्मभूमय-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! खित्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी।। भरहेरवयकम्मभूभग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। पुव्वविदेह-अवरविदेहकम्मभूमग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णता? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अन्तोमुहत्तं, उक्कोसेणं पुवकोडी। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। अकम्मभूमग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्सअसंखेज्जइभागंऊणगं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं।संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्यकोडी। हेमवय-एरण्णवए जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगं पलिओवमं। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी। हरिवास-रम्मयवास अकम्मभूभग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाईं दो पलिओवमाइं पलिओवमस्स . असंखेज्जइभागेण ऊणयाइं उक्कोसेणं दो पलिओवमाइं। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। देवकुरु-उत्तरकुरु-अकम्मभूमग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं काल ठिई पण्णता? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई तिण्णि पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणयाइं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई।संहरणं पडुच्चं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। अंतरदीवग-अकम्मभूमग-मणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणयं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं।संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। [४७] (२) हे भगवन् ! मनुष्यस्त्रियों की कितने समय की स्थिति कही गई है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटि।। भगवन् ! कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! क्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है और चारित्रधर्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि। भगवन् ! भरत और एरवत क्षेत्र की कर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति है। चारित्रधर्म Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१२३ द्वितीय प्रतिपत्ति : देव स्त्रियों की स्थिति] की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि। भंते ! पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि। चारित्रधर्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि। भंते ! अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य कुछ कम पल्योपम। कुछ कम से तात्पर्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग से कम समझना चाहिए। उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की स्थिति है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। हेमवत-ऐरण्यवत क्षेत्र की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोनपल्योपम अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम एक पल्योपम की है और संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। भंते ! हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? ___ गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन दो पल्योपम अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम दो पल्योपम की है और उत्कृष्ट से दो पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। भंते ! देवकुरु-उत्तरकुरु की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन तीन पल्योपम अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम तीन.पल्योपम की है और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। भंते ! अन्तरद्वीपों की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्यातवां भाग। यहां देशोन से तात्पर्य पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। अर्थात् पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम पल्योपम का असंख्यातवां भाग उनकी जघन्य स्थिति है, उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। देवस्त्रियों की स्थिति [३] देवित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाइं । भवणवासिदेवित्थीणं भंते ? Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जहन्नेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं अद्ध पंचमाइं पलिओवमाइं। एवं असुरकुमारभवणवासि-देवित्थियाए, नागकुमार-भवणवासि-देवित्थियाए वि जहन्नेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं देसूणाई पलिओवमाइं,एवं सेसाण वि जाव थणियकुमाराणं। वाणमंतरीणं जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसं अद्धपलिओवर्म। जोइसियदेवित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमं अट्ठभागं उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पण्णासाएहिं वाससहस्सेहिं अब्भहियं। चंदविमाण-जोतिसिय देवित्थियाए जहन्नेणं चउभागपलिओवमं उक्कोसेणं तं चेव। सूरविमाण-जोतिसिय-देवित्थियाए जहन्नेण चउभागपलिओवम उक्कोसेणं अद्धपलिओवमं पंचहिं वाससएहिं अब्भहियं। गहविमाण-जोतिसिय-देवित्थीणंजहन्नेणंचउभाग पलिओवमं उक्कोसेणंअद्धपलिओवर्म। णक्खत्तविमाण-जोतिसिय-देवित्थीणं जहणणेणं चउभागपलिओवम उक्कोसेणं चउभागपलिओवर्मसाइरेगे। ताराविमाण-जोतिसिय-देवित्थियाए जहन्नेण अट्ठभागंपलिओवमं उक्कोसेणं सातिरेगं अट्ठभागपलिओवमं। वेमाणिय-देवित्थियाए जहन्नेणं पलिओवम उक्कोसेणं पणपन्नं पलिओवमाई। सोहम्मकप्पवेमाणिय-देवित्थीणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? गोयमा ! जहण्णेणं पलिओवमं उक्कोसेणं सत्त पलिओवमइं। . ईसाण-देवित्थीणं जहण्णेणं सातिरोगं पलिओवमं उक्कोसेणं णव पलिओवमाइं। [४७] (३) हे भगवन् ! देवस्त्रियों की कितने काल की स्थिति है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से पचपन पल्योपम की स्थिति कही गई है। भगवन् ! भवनवासीदेवस्त्रियों की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट साढे चार पल्योपम । इसी प्रकार असुरकुमार भवनवासी देवस्त्रियों की, नागकुमार भवनवासी देवस्त्रियों की जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट देशोनपल्योपम की स्थिति जाननी चाहिए। इसी प्रकार शेष रहे सुपर्णकुमार आदि यावत् स्तनितकुमार देवस्त्रियों की स्थिति जाननी चाहिए। वानव्यन्तरदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष उत्कृष्ट स्थिति आधा पल्योपम की है। भंते ! ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट से पचास हजार वर्ष अधिक आधा पल्योपम है। चन्द्रविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट स्थिति वही Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति ः देव स्त्रियों की स्थिति] [१२५ पचास हजार वर्ष अधिक आधे पल्योपम की है । सूर्यविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट से पांच सौ वर्ष अधिक आधा पल्योपम है। ग्रहविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग, उत्कृष्ट से आधा पल्योपम। नक्षत्रविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कृष्ट पाव पल्योपम से कुछ अधिक। __ ताराविमान-ज्योतिष्कदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक पल्योपम का आठवाँ भाग है। वैमानिकदेवस्त्रियों की जघन्य स्थिति एक पल्योपम है और उत्कृष्ट स्थिति पचंपन पल्योपम की है। भगवन् ! सौधर्मकल्प की वैमानिकदेवस्त्रियों की स्थिति कितनी कही गई है। गौतम ! जघन्य से एक पल्यॉपम और उत्कृष्ट सात पल्योपम की स्थिति है। ईशानकल्प की वैमानिकदेवस्त्रियों की स्थिति जघन्य से एक पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कृष्ट नौ पल्योपम की है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में तिर्यस्त्रियों, मनुष्यस्त्रियों और देवस्त्रियों की कालस्थिति को औधिक रूप से और पृथक् पृथक् रूप से बताया गया है। सर्वप्रथम तिर्यञ्चस्त्रियों की औधिकस्थिति बतलाई गई है। स्थिति दो तरह की है-जघन्य और उत्कृष्ट। जघन्य स्थिति का अर्थ है-कम से कम काल तक रहना और उत्कृष्ट का अर्थ है-अधिक से अधिक काल तक रहना। तिर्यंचस्त्रियों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की कही गई है। यह उत्कृष्ट स्थिति देवकुरु आदि में चतुष्पदस्त्री की अपेक्षा से है। विशेष विवक्षा में जलचरस्त्रियों की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि की, स्थलचरस्त्रियों की औधिक-अर्थात् तीन पल्योपम की, खेचरस्त्रियों की पल्योपम का असंख्येयभाग स्थिति कही गई है।(उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प की उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि है।) जघन्य स्थिति सबकी अन्तर्मुहूर्त है। __ मनुष्यस्त्रियों की स्थिति-मनुष्यस्त्रियों की स्थिति दो अपेक्षाओं से बताई गई है। एक है क्षेत्र को लेकर और दूसरी है धर्माचरण (चारित्र) को लेकर। मनुष्यस्त्रियों की औधिकस्थिति क्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह उत्कृष्ट स्थिति देवकुरु आदि में तथा भरत आदि क्षेत्र में एकान्त सुषमादिकाल की अपेक्षा से है। ___धर्माचरण (चारित्रधर्म) की अपेक्षा से मनुष्यस्त्रियों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि है। Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ____ जो चारित्रधर्म की अपेक्षा से मनुष्यस्त्रियों की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त कही गई है वह उसी भव में परिणामों की धारा बदलने पर चारित्र से गिर जाने की अपेक्षा से समझना चाहिए। कम से कम अन्तर्मुहूर्त काल तक तो चारित्र रहता ही है। किसी स्त्रिी ने तथाविध क्षयोपशमभाव से सर्वविरति रूप चारित्र को स्वीकार कर लिया तथा उसी भाव में कम से कम अन्तर्मुहूर्त बाद वह परिणामों की धारा बदलने से पतित होकर अविरत सम्यग्दृष्टि हो गई या मिथ्यात्वगुणस्थान में चली गई तो इस अपेक्षा से चारित्रधर्म की जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त काल की रही अथवा चारित्र स्वीकार करने के बाद मृत्यु भी हो जाय तो भी अप्रमत्तसंयतगुणस्थान में अन्तर्मुहूर्तकाल की संभावना है ही। दूसरी दृष्टि से भी इसकी संगति की जाती है। धर्माचरण से यहाँ देशविरति समझना चाहिए, सर्वविरति नहीं। देशविरति जघन्य से भी अन्तर्मुहूर्त की ही होती हैं क्योंकि देशविरति के बहुत से भंग (प्रकार) हैं। शंका की जा सकती है कि उभयरूप चारित्र की संभावना होते हुए भी देशविरति का ही ग्रहण क्यों किया जाय? इसका समाधान है कि प्रायः सर्वविरति देशविरति पूर्वक होती है, यह बतलाने के लिए ऐसा ग्रहण किया जा सकता हैं। वृद्ध आचार्यों ने कहा है कि 'सम्यक्त्व प्राप्ति के पश्चात् (अधिक से अधिक) पल्योपमपृथक्त्वकाल में श्रावकत्व की प्राप्ति और चारित्रमोहनीय का उपशम या क्षय संख्यात सागरोपम के पश्चात् होता हैं। चारित्र की उत्कृष्ट स्थिति देशोनपूर्वकोटि कही गई है। आठ वर्ष की अवस्था के पूर्व चारित्र परिणाम नहीं होते।आठ वर्ष की अवस्था के बाद चारित्र स्वीकार करके उससे गिरे बिना चारित्रधर्म का पालन पूर्वकोटि के अन्तिम अन्तर्मुहूर्त तक करते रहने की अपेक्षा से कहा गया है। आठ वर्ष की अवधि को कम करने से देशोनपूर्वकोटि चारित्रधर्म की दृष्टि से मनुष्यस्त्रियों की स्थिति बताई गई है। पूर्वकोटि से तात्पर्य एक करोड़ पूर्व से है। पूर्व का परिमाण इस प्रकार है-७० लाख ५६ हजार करोड़ वर्षों का एक पूर्व होता है (७०,५६०००,०००००००=सत्तर, छप्पन और दस शून्य)। मनुष्यस्त्रियों की औधिक स्थिति बताने के पश्चात् कर्मभूमिक आदि विशेष मनुष्यस्त्रियों की वक्तव्यता कही गई है। कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम है। यह भरत और ऐरवत क्षेत्र में सुषमसुषम नामक आरक में समझना चाहिए। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि है। यह कर्मभूमि के सामान्य लक्षण को लेकर वक्तव्यता हुई। विशेष की वक्तव्यता इस प्रकार है-भरत और ऐरवत में तीन पल्योपम की स्थिति सुषमसुषम आरे में होती है। पूर्व-पश्चिम विदेहों में क्षेत्र से पूर्वकोटि स्थिति है, क्योंकि क्षेत्रस्वभाव से इससे अधिक आयु वहां नहीं होती। चारित्रधर्म को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि है। १. सम्मतम्मि उ लद्धे पलिय पुहुत्तेण सावओ होइ। चरणोवसमखयाणं सागर संखंतरा होंति ॥ पुव्वस्स उ परिमाणं सयरि खल होंति कोडिलक्खाओ। छप्पण्णं च सहस्सा बोद्धव्वा वासकोडीणं ॥ Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति ः देव स्त्रियों की स्थिति] [१२७ अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति दो अपेक्षाओं से कही गई है। एक जन्म की अपेक्षा से और दूसरी संहरण की अपेक्षा से। संहरण का अर्थ है-कर्मभूमिज स्त्री को अकर्मभूमि में ले जाना। जैसे कोई मगथ आदि देश से सौराष्ट्र के प्रति रवाना हुआ और चलते-चलते सौराष्ट्र में पहुंच गया और वहाँ रहने लगा तो तथाविध प्रयोजन होने पर उसे सौराष्ट्र का कहा जाता है, वैसे ही कर्मभूमि से उठाकर अकर्मभूमि से संहृत की गई स्त्री अकर्मभूमि की कही जाती है। औधिक रूप से जन्म को लेकर जघन्य से अकर्मभूमिज स्त्रियों की स्थिति देशोन (पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम) एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की है। यह हैमवत, हैरण्यवत क्षेत्र की अपेक्षा से समझना चाहिए। क्योंकि वहाँ जघन्य से इतनी स्थिति सम्भव है। उत्कृष्ट तीन पल्योपम की स्थिति देवकुरु-उत्तरकुरु की अपेक्षा से जाननी चाहिए। संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि स्थिति है। कर्मभूमि से अकर्मभूमि में किसी स्त्री का संहरण किया गया हो और वह वहाँ केवल अन्तर्मुहूर्त मात्र जीवित रहे या वहाँ से उसका पुनः संहरण हो जाय, इस अपेक्षा से जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त कही है। यदि वह स्त्री वहाँ पूर्वकोटि आयुष्य वाली हो तो उसकी अपेक्षा देशोनपूर्वकोटि उत्कृष्ट स्थिति बतलाई है। . यह शंका हो सकती है कि भरत और एरवत क्षेत्र भी कर्मभूमि में हैं, वहाँ भी एकान्त सुषमादि काल में तीन पल्योपम की स्थिति होती है और संहरण भी सम्भव है तो उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि कैसे संगत है? इसका समाधान है कि कर्मभूमि होने पर भी कर्मकाल की विवक्षा से ऐसा कहा गया है। भरत, ऐरवत क्षेत्र में एकान्त सुषमादि काल में भोगभूमि जैसी रचना होती है अतः वह कर्मकाल नहीं है। कर्मकाल में तो पूर्वकोटि आयुष्य ही होता है अतएव यथोक्त देशोनपूर्वकोटि संगत है। ___हैमवत, हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य देशोन पल्योपम (पल्योपम के असंख्येय भाग न्यून) है और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम है। संहरण को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि है। हरिवर्ष और रम्यकवर्ष की स्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम दो पल्योपम की है और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। देवकुरु-उत्तरकुरु में जन्म की अपेक्षा से पल्योपम के असंख्येयभागहीन तीन पल्योपम की जघन्यस्थिति और उत्कृष्टस्थिति परिपूर्ण तीन पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। अन्तरद्वीपों की मनुष्यस्त्रियों की स्थिति जन्म की अपेक्षा से जघन्य कुछ कम पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है और उत्कर्ष से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। तात्पर्य यह है कि उत्कृष्ट पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण आयुष्य से जघन्य आयु पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण न्यून है। संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि है। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवस्त्रियों की स्थिति-देवस्त्रियों की औघिकी जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट स्थिति पचपन पल्योपम की है। भवनपति और व्यन्तर देवियों की अपेक्षा से जघन्य स्थिति का कथन है और ईशान देवलोक की देवी को लेकर उत्कृष्ट स्थिति का विधान किया गया है। विशेष विवक्षा में भवनवासी देवियों की सामान्यत: दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से साढ़े चार पल्योपम की स्थिति है। यह असुरकुमार देवियों की अपेक्षा से है। यहाँ भी विशेष विवक्षा में असुरकुमार देवियों की सामान्यतः जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट साढ़ेचार पल्योपम, नागकुमार देवियों की जघन्य दस हजार वर्षऔर उत्कृष्टदेशोनपल्योपम, इसी तरह शेष सुपर्णकुमारी से लगाकर स्तनितकुमारियों की स्थिति जानना चाहिए। व्यन्तरदेवियों की स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से आधा पल्योपम है। ___ ज्योतिष्कस्त्रियों की जघन्य से पल्योपम का आठवां भाग और उत्कर्ष से पचास हजार वर्ष अधिक आधा पल्योपम है। विशेष विवक्षा में चन्द्रविमान की स्त्रियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कर्ष से पचास हजार वर्ष अधिक आधा पल्योपम है। सूर्यविमान की स्यियाँ की स्थिति जघन्य से पल्योपम का चौथा भाग और उत्कर्ष से पांच सौ वर्ष अधिक अर्धपल्योपम है। ग्रहविमान की देवियों की स्थिति जघन्य से पाव पल्योपम और उत्कर्ष से आधा पल्योपम है। नक्षत्रविमान की देवियों की स्थिति जघन्य से पाव पल्योपम और उत्कर्ष से पाव पल्योपम से कुछ अधिक । ताराविमान की देवियों की स्थिति जघन्य से पल्योपम और उत्कर्ष से / पल्योपम से कुछ अधिक है। वैमानिकदेवियों की स्थिति वैमानिक देवियों की औघिकी जघन्यस्थिति एक पल्योपम की और उत्कर्ष से ५५ पल्योपम की है। विशेष चिन्ता में सौधर्मकल्प की देवियों की जघन्यस्थिति एक पल्योपम और उत्कर्ष से सात पल्योपम की है। यह स्थितिपरिमाण परिगृहीता देवियों की अपेक्षा से है। अपरिगृहीता देवियों की जघन्य से एक पल्योपम और उत्कर्ष से ५५ पल्योपम है। ईशानकल्प की देवियों की जघन्यस्थिति कुछ अधिक एक पल्योपम और उत्कर्ष से नौ पल्योपम है। यहाँ भी यह स्थितिपरिमाण परिगृहीता देवियों की अपेक्षा से है। अपरिगृहीता देवियों की जघन्यस्थिति पल्योपम से कुछ अधिक और उत्कर्ष से ५५ पल्योपम की है। वृत्तिकार ने लिखा है कि कई प्रतियों में यह स्थितिसम्बन्धी पूरा पाठ पाया जाता है और कई प्रतियों में केवल यह अतिदेश किया गया है-'एवं देवीणं ठिई भाणियव्वा जहा पण्णवणाए जाव ईसाणदेवीणं।' स्त्रीत्व की निरन्तरता का कालप्रमाण ४८.[१] इत्थीणं भंते ! इस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथम प्रतिपत्ति: स्त्रीत्व की निरन्तरता का कालप्रमाण] गोयमा ! एक्केणादेसेणं जहन्त्रेणं एक्कं समयं उक्कोसं दसुत्तरं पलिओवमसयं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं ॥ १ ॥ एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अट्ठारस पनिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं ॥२॥ एक्केणादेसेणं जहनेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं चउदस पलिओवमाझं पुष्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई ॥ ३ ॥ एक्केणादेसेणं जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं पलिओवमसयं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं ॥४॥ एक्केणादेसेणं जहण्णेणं एक्कं समयं उक्कोसं पलिओवमपुहुत्तं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं ॥५ ॥ [४८-१] हे भगवन् ! स्त्री, स्त्रीरूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? गौतम ! एक अपेक्षा से जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम तक स्त्री, स्त्रीरूप में रह सकती है ॥ १ ॥ [१२९ दूसरी अपेक्षा से जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम तक रह सकती है ॥ २॥ तीसरी अपेक्षा से जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम तक रह सकती है ॥ ३ ॥ चौथी अपेक्षा से जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ पल्योपम तक रह सकती है ॥ ४ ॥ पांचवी अपेक्षा से जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व तक रह सकती है ॥ ५ ॥ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि स्त्री, स्त्री के रूप में लगातार कितने समय तक रह सकती है ? इस प्रश्न के उत्तर में पांच आदेश ( प्रकार - अपेक्षाएँ) बतलाये गये हैं । वे पांच अपेक्षाएँ क्रम से इस प्रकार हैं (१) पहली अपेक्षा से स्त्री, स्त्री के रूप में लगातार जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से पूवकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस (११०) पल्योपम तक रह सकती हैं, इसके पश्चात् अवश्य परिवर्तन होता है। इस आदेश की भावना इस प्रकार है कोई स्त्री उपशमश्रेणी पर आरूढ़ हुई और वहाँ उसने वेदत्रय का उपशमन कर दिया और अवेदकता का अनुभव करने लगी। बाद में वह वहाँ से पतित हो गई और एक समय तक स्त्रीवेद में रही और द्वितीय समय में काल करके (मरकर) देव (पुरुष) बन गई । इस अपेक्षा से उसके स्त्रीत्व का काल एक समय Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र का ही रहा। अतः जघन्य से स्त्रीत्व का काल समय मात्र ही रहा। स्त्री का स्त्रीरूप में अवस्थानकाल उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक एक सौ दस पल्योपम कहा गया है, उसकी भावना इस प्रकार है कोई जीव पूर्वकोटि की आयु वाली मनुष्यस्त्रियों में अथवा तिर्यंचस्त्रियों में उत्पन्न हो जाय और वह वहाँ पांच अथवा छह बार उत्पन्न होकर ईशानकल्प की अपरिगृहीता देवी के रूप में पचपन पल्योपम की स्थिति युक्त होकर उत्पन्न हो जाय, वहाँ से आयु का क्षय होने पर पुनः मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री के रूप में पूर्वकोटि आयुष्य सहित उत्पन्न हो जाय। वहाँ से पुनः द्वितीय बार ईशान देवलोक में ५५ पल्योपम की उत्कृष्ट स्थिति वाली अपरिगृहीता देवी बन जाय, इसके बाद अवश्य ही वेदान्तर प्राप्त होती है। इस प्रकार पांच-छह बार पूर्वकोटि आयु वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यचस्त्री के रूप में उत्पन्न होने का काल और दो बार ईशान देवलोक में उत्पन्न होने का काल ५५+५५=११० पल्योपम-ये दोनों मिलाकर पूर्वकोटि पृथक्त्व एक सौ दस पल्योपम का कालमान होता है। यहाँ पृथक्त्व का अर्थ बहुत बार है। इतने काल के पश्चात् अवश्य ही वेदान्तर होता है। यहाँ कोई शंका कर सकता है कि कोई जीव देवकुरु-उत्तरकुरु आदि क्षेत्रों में तीन पल्योपम आयुवाली स्त्री के रूप में जन्म ले तो इससे भी अधिक स्त्रीवेद का अवस्थानकाल हो सकता है। इस शंका का समाधान यह है कि देवी के भव से च्यवित देवी का जीव असंख्यात वर्षायु वाली स्त्रियों में स्त्री होकर उत्पन्न नहीं होता और न वह असंख्यात वर्षायु वाली स्त्री उत्कृष्ट आयु वाली देवियों में उत्पन्न हो सकती है, क्योंकि प्रज्ञापनासूत्र-टीका मे कहा गया है-'जतो असंखेज्जवासाउया उक्कोसियं ठिइं न पावेई' अर्थात् असंख्यात वर्ष की आयुवाली स्त्री उत्कृष्ट स्थिति को प्राप्त नहीं करती। इसलिए यथोक्त प्रमाण ही स्त्रीवेद का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है। १। (२) दूसरी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक अठारह पल्योपम है। जघन्य एक समय की भावना प्रथम आदेश के समान है। उत्कृष्ट अवस्थानकाल की भावना इस प्रकार है _____ कोई जीव मनुष्यस्त्री और तिर्यचस्त्री के रूप में लगातार पाँच बार रहकर पूर्ववत् ईशानदेवलोक में दो बार उत्कृष्ट स्थिति वाली देवियों में उत्पन्न होता हुआ नियम से परिगृहीता देवियों में ही उत्पन्न होता है, अपरिगृहीता देवियों में उत्पन्न नहीं होता। परिगृहीता देवियों की उत्कृष्ट स्थिति नौ पल्योपम की है, अतः ९+९-१८ पल्योपम का ही उसका ईशान देवलोक का काल होता है। मनुष्य, तिर्यंच भव का कालमान पूर्वकोटिपृथक्त्व जोड़ने से यथोक्त पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक १८ पल्योपम का स्त्रीवेद का अवस्थान-काल होता है। २। (३) तीसरी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम है। एक समय की भावना प्रथम आदेश की तरह है। उत्कर्ष की भावना इस प्रकार Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : तिर्यचस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल] [१३१ है-द्वितीय आदेश की तरह कोई जीव पांच छह बार पूर्वकोटि प्रमाण वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री में उत्पन्न हुआ और बाद में सौधर्म देवलोक की सात पल्योपम प्रमाण आयु वाली परिगृहीता देवियों में दो बार देवी रूप में उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से स्त्रीवेद का उत्कृष्ट अवस्थान-काल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक चौदह पल्योपम (४) चौथी अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम है। एक समय की भावना प्रथम आदेशानुसार है। उत्कृष्ट की भावना इस प्रकार है पूर्वकोटि आयु वाली मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री रूप में पांच छह बार पूर्व की तरह रहकर सौधर्मदेवलोक में ५० पल्योपम की उत्कृष्ट आयुवाली अपरिगृहीता देवी के रूप में दो बार उत्पन्न होने पर ५०+५०-१०० पल्योपम और पूर्वकोटिपृथक्त्व तिर्यंच-मनुष्यस्त्री का काल मिलाने पर यथोक्त अवस्थानकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक सौ पल्योपम होता है । ४। (५) पांचवीं अपेक्षा से स्त्रीवेद का अवस्थानकाल जघन्य एक समय.और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व है। जघन्य की भावना पूर्ववत्। उत्कृष्ट की भावना इस प्रकार है - कोई जीव मनुष्यस्त्री या तिर्यंचस्त्री के रूप में पूर्वकोटि आयुष्य सहित सात भव करके आठवें भव में देवकुरु आदि की तीन पल्योपम की स्थिति वाली स्त्रियों में स्त्रीरूप से उत्पन्न हो, वहाँ से मरकर सौधर्म देवलोक की जघन्यस्थिति वाली (पल्योपम स्थिति वाली) देवियों में देवीरूप से उत्पन्न हो, इसके बाद अवश्य वेदान्तर होता है। इस प्रकार पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपमपृथक्त्व प्रमाण स्त्रीवेद का अवस्थानकाल होता है। ५। ___ उक्त पांच आदेशों में से कौनसा आदेश समीचीन है, इसका निर्णय अतिशय ज्ञानी या सर्वोत्कृष्ट श्रुतलब्धिसम्पन्न ही कर सकते हैं। वर्तमान में वैसी स्थिति न होने से सूत्रकार ने पांचों आदेशों का उल्लेख कर दिया है और अपनी ओर से कोई निर्णय नहीं दिया है। हमें तत्त्व केवलिगम्य मानकर पांचों आदेशों की अलग अलग अपेक्षाओं को समझना चाहिए। तिर्यंचस्त्री का तद्रूप में अवस्थानकाल [२] तिरिक्खजोणित्थी णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थित्ति कालओ केवच्चिरं होति ? गोयमा !जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। जलयरीए जहण्णेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहत्तं। चउप्पदथलयरतिरिक्खजोणित्थी जहा ओहिया तिरिक्खजोणित्थी। उरपरिसप्पी-भुयपरिसप्पित्थीणं जहा जलयरीणं, खहयरित्थी णं जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्सअसंखेज्जइभागं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियं। [४८] (२) हे भगवन् ! तिर्यश्चस्त्री तिर्यञ्चस्त्री के रूप में कितने समय तक (लगातार) रह सकती Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती जलचरी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकती हैं। चतुष्पदीथलचरी के सम्बन्ध में औधिक तिर्यचस्त्री की तरह जानना। उरपरिसर्पस्त्री और भुजपरिसर्पस्त्री के संबंध में जलचरी की तरह कहना चाहिए। खेचरी खेचरस्त्री के रूप में जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक रह सकती है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में तिर्यंचस्त्री का तिर्यंचस्त्री के रूप में लगातार रहने का कालप्रमाण बताया गया है। जघन्य से अन्तर्मुहूर्त काल तक और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक तिर्यंचस्त्री तिर्यचस्त्री रूप में रह सकती है। इसकी भावना इस प्रकार है किसी तिर्यंचस्त्री की आयु अन्तर्मुहूर्त मात्र हो और वह मर कर वेदान्तर को प्राप्त कर-ले अथवा मनुष्यादि विलक्षण भाव को प्राप्त कर ले तो उसकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त का जघन्य अवस्थानकाल संगत होता है। उत्कृष्ट अवस्थानकाल की भावना इस प्रकार है मनुष्य और तिर्यंच उसी रूप में उत्कर्ष से आठ भव लगातार कर सकते हैं, अधिक नहीं।' इनमें से सात भव तो संख्यात वर्ष की आयु वाले होते हैं और आठवां भव असंख्यात वर्ष की आयु वाला ही होता है। पर्याप्त मनुष्य या पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च निरन्तर यथासंख्य सात पर्याप्त मनुष्य भव या सात पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच के भवों का अनुभव करके आठवें भव में पुनः पर्याप्त मनुष्य या पर्याप्त संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच में उत्पन्न हो तो नियम से असंख्येय वर्षायु वाला ही होता है, संख्येय वर्षायु वाला नहीं। असंख्येय वर्षायुवाला मर कर नियम से देवलोक में उत्पन्न होता है, अतः लगातार नौवां भव मनुष्य या संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यन्च का नहीं होता। अतएव जब पीछे के सातों भव उत्कर्ष से पूर्वकोटि आयुष्य के हों और आठवां भव देवकुरु आदि में उत्कर्ष से तीन पल्योपम का हो, इस अपेक्षा से तिर्यस्त्री का अवस्थानकाल पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का होता है। विशेष चिन्ता में जलचरी स्त्री जलचरी स्त्री के रूप में लगातार जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकती है। पूर्वकोटि आयु की जलचरी के सात भव करके अवश्य ही जलचरीभव का परिवर्तन होता है। चतुष्पद स्थलचरी की वक्तव्यता औधिक तिर्यंचस्त्री की तरह है। अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। १. 'नरतिरियाणं सतट्ठभवा' इति वचनात् Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: मनुष्यस्त्रियों का तदरूप में अवस्थानकाल] [१३३ . खेचर स्त्री का अवस्थानकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। इस प्रकार तिर्यंचस्त्रियों का अवस्थानकाल सामान्य और विशेष रूप से कहा गया मनुष्यस्त्रियों का तद्रूप में अवस्थानकाल [३] मणुस्सित्थी णं भंते ! मणुस्सिस्थिति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतेमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। एवं कम्मभूमिया वि, भरहेरवया वि, णवरं खेत्तं पड़च्च जहन्नेणं अंतोमहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइंदेसूणपुव्वकोडिमब्भहियाई।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणंएक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। पुव्वविदेह-अवरविदेहित्थी णंखेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतेमुहुत्तं उक्कोसेणंपुवकोडिपुहुत्तं। धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। __. अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थी णं भंते ! अकम्मभूमिग-मणुस्सिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? ___ गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागेणं ऊणं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतेमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियाई। हेमवय-एरण्णवय-अकम्मभूमियमणुस्सित्थी णं भंते ! हे मवय-एरण्णवय अकम्मभूमियमणुस्सिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? । गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणगं, उक्कोसेणं पलिओवमं।संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमं देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियं। ___ हरिवास-रम्मयवास-अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थी णं हरिवास-रम्मयवास-अकम्मभूमिगमणुस्सिस्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई दो पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणाई, उक्कोसेण दो पलिओवमाइं। संहरण पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं दो पलिओवमाइं देसूणपुव्वकोडिमब्भहियाई। देवकुरुत्तरकुरूणं, जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणाई तिन्नि पलिओवमाइं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगाई, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं।संहरणं पडुच्च जहन्नेणंअंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाइं देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियाइं। ... अंतरदीवगाकम्मभूमिग-मणुस्सित्थी णं भंते ! अंतरदीवगाकम्मभूमिग-मणुस्सिस्थित्ति Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कालओ केवच्चिरं होइ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं देसूणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पलिओवमस्स असंखेजइभागेणं ऊणं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं देसूणाए पुव्वकोडीए अब्भहियं। देवित्थीणं भंते ! देवित्थित्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! जच्चेव भवट्टिई सच्चेव संचिट्ठणा भाणियव्वा। [४८] (३) भंते ! मनुष्यस्त्री मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रहती है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रहती है। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक रह सकती है। इसी प्रकार कर्मभूमिक स्त्रियों के विषय में और भरत ऐरवत क्षेत्र की स्त्रियों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। विशेषता यह है कि क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। चारित्र धर्म की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि तक अवस्थानकाल है। __ पूर्वविदेह पश्चिमविदेह की स्त्रियों के सम्बन्ध में क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अवस्थानकाल कहना चाहिए।धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय, उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि। भगवन् ! अकर्मभूमि की मनष्यस्त्री अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून एक पल्योपम और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम तक।संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक रह सकती है। भगवन् ! हेमवत-एरण्यवत-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री हेमवत-एरण्यवत-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? ____ गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोन अर्थात् पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम एक पल्योपम और उत्कृष्ट एक पल्योपम तक।संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोनपूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम तक । ___भगवन ! हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? . गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्यतः पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून दो पल्योपम तक और उत्कृष्ट से दो पल्योपम तक। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम तक । Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३५ द्वितीय प्रतिपत्ति: मनुष्यस्त्रियों का तद्रूप में अवस्थानकाल ] देवकुरु - उत्तरकुरु की स्त्रियों का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कृष्ट से तीन पल्योपम है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम। भगवन् ! अन्तद्वीपों की अकर्मभूमि की मनुष्य स्त्रियों का उस रूप में अवस्थानकाल कितना है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य से देशोनपल्योपम का असंख्यातवां भाग कम पल्योपम का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट से पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोनपूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्यातवां भाग । भगवन् ! देवस्त्री देवस्त्री के रूप में कितने काल तक रह सकती है ? गौतम ! जो उसकी भवस्थिति है, वही उसका अवस्थानकाल है। विवेचन - मनुष्यस्त्रियों का सामान्यतः अवस्थानकाल वही है जो सामान्य तिर्यंचस्त्रियों का कहा गया है । अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम है। इसकी भावना तिर्यंचस्त्री के अधिकार में पहले कही जा सकती है, तदनुसार जानना चाहिए । कर्मभूमि की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल क्षेत्र की अपेक्षा अर्थात् सामान्यतः कर्मक्षेत्र को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, इसके बाद उसका परित्याग सम्भव है। उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम का है। इसमें सात भव महाविदेहों में और आठवां भव भरत - ऐरावतों में । एकान्त सुषमादि आरक में तीन पल्योपम का प्रमाण समझना चाहिए। धर्माचरण को लेकर जघन्य से एक समय है, क्योंकि तदावरणकर्म के क्षयोपशम की विचित्रता से एक समय की संभावना है। इसके बाद मरण हो जाने से चारित्र का प्रतिपात हो जाता है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है, क्योंकि चारित्र का परिपूर्ण काल भी उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि ही है । . भरत - ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है पूर्वविदेह अथवा पश्चिमविदेह की पूर्वकोटि आयु वाली स्त्री को किसी ने भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषमादि काल में संहृत किया । वह यद्यपि महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न हुई है तो भी पूर्वोक्त मागध पुरुष के दृष्टान्त से भरत - ऐरावत की कही जाती है। वह स्त्री पूर्वकोटि तक जीवित रहकर अपनी आयु का क्षय होने पर वहीं भरतादि क्षेत्र में एकान्त सुषम आरक प्रारम्भ उत्पन्न हुई। इस अपेक्षा से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का उसका अवस्थानकाल हुआ । धर्माचरण की अपेक्षा कर्मभूमिज स्त्री की तरह जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि जानना चाहिए । पूर्वविदेह - पश्चिमविदेह कर्मभूमिज स्त्री का अवस्थानकाल क्षेत्र को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व है । वही पुनः उत्पत्ति की अपेक्षा से समझना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। यह कर्मभूमिज स्त्रियों की वक्तव्यता हुई । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अकर्मभूमिज मनुष्यस्त्री का सामान्यतः अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा से जघन्यतः देशोन पल्योपम है। अष्ट भाग आदि भी देशोन होता है अतः ऊनता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून एक पल्योपम है। उत्कर्ष से तीन पल्योपम है । संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त। यह अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहते संहरण होने की अपेक्षा से है। उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम है। इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है ___ कोई पूर्वविदेह या पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्री जो देशोन पूर्वकोटि की आयु वाली है, उसका देवकुरु आदि में संहरण हुआ, वह पूर्व मागधदृष्टान्त से देवकुरु की कहलाई। वह वहाँ देशोन पूर्वकोटि तक जी कर कालधर्म प्राप्त कर वहीं तीन पल्योपम की आयु लेकर उत्पन्न हुई। इस तरह देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम का अवस्थानकाल हुआ। ___संहरण को लेकर इस जघन्य और उत्कृष्ट अवस्थानकालमान को प्रदर्शित करने से यह प्रतिपादित किया गया है कि कुछ न्यून अन्तर्मुहूर्त आयु शेष वाली स्त्री का तथा गर्भस्थ का संहरण नहीं होता है। अन्यथा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटि की देशोनता सिद्ध नहीं हो सकती है। विशेष-विवक्षा से हैमवत ऐरण्यवत हरिवर्ष रम्यकवर्ष देवकुरु-उत्तरकुरु और अन्तर्वीपिज स्त्रियों का जन्म की अपेक्षा जो जिसकी स्थिति है, वही उसका अवस्थानकाल है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से जो जिसकी स्थिति है उससे देशोन पूर्वकोटि अधिक अवस्थानकाल जानना चाहिए। इस संक्षिप्त कथन को स्पष्टता के साथ इस प्रकार जानना चाहिए __ हैमवत ऐरण्यवत की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा पल्योपमासंख्येय भाग न्यून एक पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम। हरिवर्ष रम्यकवर्ष की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा पल्योपमासंख्येय भाग कम दो पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम।। देवकुरु-उत्तरकुरु की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येय भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कर्ष से तीन पल्योपम । संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम। अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्री का अवस्थानकाल जन्म की अपेक्षा जघन्यतः पल्योपमासंख्येय भाग न्यून पल्योपम का असंख्यातवां भाग और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येय भाग। संहरण को लेकर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक पल्योपम का असंख्येय भाग है। देवस्त्रियों का अवस्थानकाल–देवस्त्रियों की जो भवस्थिति है, वही उनका अवस्थानकाल है। क्योंकि तथाविध भवस्वभाव से उनमें कायस्थिति नहीं होती। क्योंकि देव देवी मरकर पुनः देव देवी नहीं Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अन्तरद्वार] [१३७ होते। अन्तरद्वार ४९. इत्थी णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं, वणस्सइकालो, एवं सव्वासिं तिरिक्खत्थीणं। मणुस्सित्थीए खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो; धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंत कालं जाव अवड्डपोग्गलपरियटें देसूणं, एवं जाव पुव्वविदेहअवरविदेहियाओ। अकम्मभूमगमणुस्सित्थीणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नं दसवाससहस्साइं अंतोमुत्तमब्भहियाइं; उक्कोसेणं वणस्सइकालो। संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव अंतरदीवियाओ। . देवित्थियाणं सव्वासिं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। [४९] भगवन् ! स्त्री के पुनः स्त्री होने में कितने काल का अन्तर होता है ? (स्त्री, स्त्रीत्व का त्याग करने के बाद पुनः कितने समय बाद स्त्री होती है ?) गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल।ऐसा सब तिर्यंचस्त्रियों के विषय में कहना चाहिए। मनुष्यस्त्रियों का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्यं से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्तन । इसी प्रकार यावत् पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियों की वक्तव्यता कहनी चाहिए। भंते ! अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल। संहरण की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल । इस प्रकार यावत् अन्तर्वीपों की स्त्रियों का अन्तर कहना चाहिए। सभी देवस्त्रियों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में अन्तर बताया गया है। अन्तर का अर्थ है काल का व्यवधान । स्त्री स्त्रीपर्याय का परित्याग करके पुनः जितने समय के बाद स्त्रीपर्याय को प्राप्त करती है वह कालव्यवधान स्त्री का अन्तर कहलाता है। सामान्य विवक्षा में स्त्रीवेद का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल है। इसकी भावना इस प्रकार है Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कोई स्त्री मरकर स्त्रीपर्याय से च्युत होकर पुरुषवेद या नपुंसकवेद का अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभव करके वहाँ से मरकर पुनः स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तकाल का होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है।असंख्येय पुद्गलपरावर्त का वनस्पतिकाल होता हैं। इस अनन्तकाल में काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्येय पुद्गलपरावर्त निकल जाते हैं। ये पुद्गलपरावर्त आवालिका के अन्दर जितने समय होते हैं उसका असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। ' इतने लम्बे काल तक स्त्रीत्व का व्यवछेद हो जाता है और फिर स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार औधिक तिर्यंचस्त्रियों का, जलचर थलचर खेचर स्त्रियों का और औधिक मनुष्यस्त्रियों ‘का अन्तर जानना चाहिए। कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर कर्मभूमिक्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल प्रमाण जानना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त जितना अन्तर है। इससे अधिक चरणलब्धि का प्रतिपातकाल नहीं है। दर्शनलब्धि के प्रतिपात का काल सम्पूर्ण अपार्थ पुद्गलपरावर्त होने का स्थान-स्थान पर निषेध हुआ है। इसी तरह भरत-ऐरवत मनुष्यस्त्रियों का और पूर्वविदेह पश्चिमविदेह की स्त्रियों का अन्तर क्षेत्र और धर्माचरण की अपेक्षा से समझना चाहिए। अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों का अन्तर जन्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजरा वर्ष है। इसका स्पष्टीकरण इस तरह है-कोई अकर्मभूमि की स्त्री मर कर जघन्य स्थिति के देवों में उत्पन्न हुई। वहाँ दस हजार वर्ष की आयु पाल कर उसके क्षय होने पर वहाँ से च्यवकर कर्मभूमि में मनुष्यपुरुष या मनुष्यस्त्री के रूप में उत्पन्न हुई (क्योंकि देवलोक से कोई सीधा अकर्मभूमि में पैदा नहीं होता), अन्तर्मुहूर्त काल में मरकर फिर अकर्मभूमि की स्त्री रूप में उत्पन्न हुई, इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का जघन्य अन्तर होता है। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का अन्तर इस अपेक्षा से है कि कोई अकर्मभूमिज स्त्री को कर्मभूमि में संहृत कर अन्तर्मुहूर्त बाद ही बुद्धिपरिवर्तन होने से पुनः उसी स्थान पर रख दे। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल प्रमाण है। इतने लम्बे काल में कर्मभूमि में उत्पत्ति की तरह संहरण भी निश्चय से होता ही है। कोई अकर्मभूमि की स्त्री कर्मभूमि में संहृत की गई। वह अपनी आयु के क्षय के अनन्तर अनन्तकाल तक वनस्पति आदि में भटक कर पुनः अकर्मभूमि में उत्पन्न हुई। वहाँ से किसी ने उसका संहरण किया तो यथोक्त संहरण का उत्कृष्ट कालमान हुआ। इसी प्रकार हैमवत हैरण्यवत हरिवर्ष रम्यकवर्ष देवकुरु उत्तरकुरु और अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्रियों का भी जन्म से और संहरण की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। देवस्त्रियों का अन्तर १. 'अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणी कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा,' एवं वनस्पतिकालः। Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अल्पबहुत्व ] जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। कोई देवीभाव से च्यवकर गर्भज मनुष्य में उत्पन्न हुई । वहाँ वह पर्याप्ति की पूर्णता के पश्चात् तथाविध अध्यवसाय से मृत्यु पाकर देवी के रूप में उत्पन्न हो गई - इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त हुआ । उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर स्पष्ट ही है । [१३९ इसी प्रकार असुरकुमार देवी से लगाकर ईशानकल्प की देवियों का अन्तर भी जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल जानना चाहिए। अल्पबहुत्व ५०. ( १ ) एतासिं णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं, मणुस्सित्थियाणं देवित्थियाणं कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सित्थिओ, तिरिक्खजोणियाओ असंखेज्जगुणाओ, देवित्थियाओ असंखिज्जगुणओ । (२) एतासिं णं भंते! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोया ! सव्वत्थोवाओ खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ, थलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ । (३) एतासिं णं भंते! मणुस्सित्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ अंतरदीवग-अकम्मभूमग- मणुस्सित्थियाओ, देवकुरूत्तरकुरु-अकम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ, हरिवास रम्मगवास अकम्मभूमिग- मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ, हेमवतेरण्णवय अकम्मभूमिग- मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, भरहेरवतवासकम्मभूमिग- मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, पुव्वविदेह अवरविदेह कम्मभूमिग- मणुस्सिंत्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखेज्जगुणाओ । (४) एतासिं णं भंते! देवित्थियाणं भवणवासीणं वाणमंतरीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीण य कयरा कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ वेमाणियदेवित्थियाओ, भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, वाणमंतरदेवियाओ असंखेज्जगुणाओ, जोतिसियदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ । Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र , (५) एतासिं णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थियाणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीणं, मणुस्सित्थियाणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणंअंतरदीवियाणं, देवित्थियाणंभवणवासियाणं वाणमंतरीणं जोतिसियाणं वेमाणिणीण य कयराओ कयराहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवाओ अंतरदीवग अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओ, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, हरिवासरम्मगवास अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, हैमवत हेरण्णवयवास अकम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओदो वितुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, भरहेरवयवास कम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओ दो वि तुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, पुष्वविदेह-अवरविदेहवास कम्मभूमिग-मणुस्सित्थियाओ दो वितुल्लाओ संखिज्जगुणाओ, वेमाणियदेवत्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, . भवणवासिदेवित्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, खहयरतिरिक्खजोणित्थियाओ असंखेज्जगुणाओ, थलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखिज्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणित्थियाओ संखिज्जगुणाओ, वाणमंतरदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोइसियदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ। [५०] (१) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों में, मनुष्यस्त्रियो में और देवस्त्रियों में कौन किससे अल्प हैं, अधिक हैं, तुल्य हैं या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियां, उनसे तिर्यक्योनिकस्त्रियां असंख्यातगुणी, उनसे देवस्त्रियां असंख्यातगुणी हैं। (२) भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक की जलचरी, स्थलचरी और खेचरी में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी खेचर तिर्यक्योनिक की स्त्रियाँ, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक की स्त्रियां संख्यात गुणी, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक की स्त्रियां संख्यातगुणी हैं। (३) हे भगवन् ! कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अंतरद्वीप की मनुष्यस्त्रियों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़ी अंतीपों की मनुष्यस्त्रियां, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु-अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे हरिवास-रम्यकवास-अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अल्पबहुत्व] हेमवत और एरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे भरत - एरवत क्षेत्र की कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे पूर्वविदेह - पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं । [१४१ (४) भगवन् ! भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवस्त्रियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं। गौतम ! सबसे थोड़ी वैमानिक देवियां, उनसे भवनवासी देवियां असंख्यातगुणी, उनसे वानव्यन्तरदेवियां असंख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्कदेवियां संख्यातगुणी हैं । (५) हे भगवन् ! तिर्यंचयोनिकी जलचरी, स्थलचरी, खेचरी और कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तद्वीप की मनुष्यस्त्रियां और भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवियों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं । गौतम ! सबसे थोड़ी अकर्मभूमि की अन्तद्वीपों की मनुष्यस्त्रियां, उनसे देवकुरु - उत्तरकुरु की अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी; उनसे हरिवास-रम्यकवास अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे भरत - ऐरवत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुणी हैं, उनसे वैमानिकदेवियां असंख्यातगुणी, उनसे भवनवासीदेवियां असंख्यातगुणी, उनसे खेचरतिर्यक्ोनिक की स्त्रियां असंख्यातगुणी, उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे जलचरस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे वानव्यन्तरदेवियां संख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्कदेवियां संख्यातगुणी हैं । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार से अल्पबहुत्व बताया गया है। पहले प्रकार में तीनों प्रकार की स्त्रियों का सामान्य से अल्पबहुत्व बताया है। दूसरे प्रकार में तीन प्रकार की तिर्यंचस्त्रियों का अल्पबहुत्व है । तीसरे प्रकार में तीन प्रकार की मनुष्यस्त्रियों का अल्पबहुत्व है। चौथे प्रकार में चार प्रकार की देवस्त्रियों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व है और पांचवें प्रकार में सब प्रकार की मिश्र स्त्रियों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व बताया गया है । (१) सामान्य रूप से तीन प्रकार की स्त्रियों में सबसे थोड़ी मनुष्यस्त्रियां हैं, क्योंकि उनका प्रमाण संख्यात कोटाकोटी है। उनसे तिर्यंचस्त्रियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि प्रत्येक द्वीप और प्रत्येक समुद्र में तिर्यंचस्त्रियों Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र की अति बहुलता है और द्वीप-समुद्र असंख्यात हैं। उनसे देवस्त्रियां असंख्येयगुणी हैं, क्योंकि भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म-ईशान की देवियां प्रत्येक असंख्येय श्रेणी के आकाश-प्रदेशप्रमाण हैं। यह प्रथम अल्पबहुत्व हुआ। (२) दूसरा अल्पबहुत्व तीन प्रकार की तिर्यंचस्त्रियों की अपेक्षा से है। सबसे थोड़ी खेचर तिर्यक्योनि की स्त्रियां, उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्येयगुण हैं क्योंकि खेचरों से स्थलचर स्वभाव से प्रचुर प्रमाण में हैं। उनसे जलचरस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, क्योंकि लवणसमुद्र में, कालोद में और स्वयंभूरमण समुद्र में मत्स्यों की अति प्रचुरता है और स्वयंभूरमणसमुद्र अन्य समस्त द्वीप-समुद्रों से अति विशाल है। (३) तीसरा अल्पबहुत्व तीन प्रकार की मनुष्यस्त्रियों को लेकर है। सबसे थोड़ी अन्तर्वीपों की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां हैं, क्योंकि वह क्षेत्र छोटा है। उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की स्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र संख्येयगुण है। स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं, क्योंकि दोनों का क्षेत्र समान प्रमाण वाला है। उनसे हरिवर्ष रम्यकवर्ष अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुणी हैं, क्योंकि देवकुरु-उत्तरकुरु क्षेत्र की अपेक्षा हरिवर्ष रम्यकवर्ष का क्षेत्र बहुत अधिक है। स्वस्थान में दोनों तुल्य हैं, क्योंकि क्षेत्र समान है। उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र की अल्पता होने पर भी अल्प स्थिति वाली होने से वहां उनकी बहुलता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि दोनों क्षेत्रों में समानता है। उनसे भरत और ऐरवत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि कर्मभूमि होने से स्वभावतः उनकी वहाँ प्रचुरता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि दोनों क्षेत्रों की समान रचना है। उनसे पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र की बहुलता होने से अजितनाथ तीर्थंकर के काल के समान स्वभावतः वहाँ उनकी बहुलता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, समान क्षेत्ररचना होने से। (४) चौथा अल्पबहुत्व चार प्रकार की देवियों को लेकर हैं, सबसे थोड़ी वैमानिक देवस्त्रियां हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि का जो द्वितीय वर्गमूल है उसे तृतीय वर्गमूल से गुणा करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश हैं, उनका बत्तीसवां भाग कम कर देने पर जो राशि आवे उतने प्रमाण की सौधर्मदेवलोक की देवियां हैं और उतनी ही ईशानदेवलोक की देवियां हैं। वैमानिकदेवियों से भवनवासीदेवियां असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि का जो प्रथम वर्गमूल है उसको द्वितीय वर्गमूल से गुणा करने पर जो प्रदेशराशि होती है उतनी श्रेणियों के जितने प्रदेश हैं उनका बत्तीसवां भाग कम करने पर जो राशि होती है उतनी भवनवासीदेविया हैं। भवनवासीदेवियों से व्यन्तरदेवियां असंख्येयगुणी हैं, क्योंकि एक प्रतर में संख्येय योजन प्रमाण वाले एक प्रादेशिक श्रेणी प्रमाण जितने खण्ड हों, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जो शेष राशि रहती है, उतने प्रमाण की व्यन्तरदेवियां हैं। व्यन्तरदेवियों से ज्योतिष्कदेवियां संख्येयगुण हैं। क्योंकि २५६ अंगुल प्रमाण के जितने खण्ड एक Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रीवेद की स्थिति] [१४३ प्रतर में होते हैं, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी ज्योतिष्कदेवियां हैं। (५) पांचवां अल्पबहुत्व समस्त स्त्री विषयक है। सबसे थोड़ी अन्तर्वीपों की अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुणी, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की स्त्रियां संख्येयगुणी, उनसे हैमवत-हैरण्यवत की स्त्रियां संख्येयगुणी, उनसे भरत-एरवत कर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियां संख्येयगुण हैं । इनका स्पष्टीकरण पूर्ववत् जानना चाहिए। पूर्वविदेहपश्चिमविदेह की मनुष्यस्त्रियों से वैमानिकदेवस्त्रियां असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे असंख्येय श्रेणी के आकाशप्रदेश की राशि के जितनी हैं। उनसे भवनवासीदेवियां असंख्यातगुण हैं, इसकी युक्ति पहले कही ही है। उनसे खेचरस्त्रियां असंख्येयगुण हैं। वे प्रतर के असंख्येय भागवर्ती असंख्येय श्रेणियों के आकाशप्रदेशों के बराबर हैं। उनसे स्थलचरस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि वे संख्येयगुण बड़े प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्येय श्रेणियों के आकाशप्रदेश जितनी हैं। उनसे जलचर तिर्यंचस्त्रियां संख्येयगुण हैं क्योंकि वे वृहत्तम प्रतर के असंख्यातवें भाग में रही हुई असंख्येय श्रेणियों के आकाशप्रदेश जितनी हैं। उनसे व्यन्तरस्त्रियां संख्येयगुण हैं, क्योंकि संख्येय कोटाकोटी योजन प्रमाण एक प्रदेश की श्रेणी जितने खण्ड एक प्रतर में होते हैं, उनमें से बत्तीसवां भाग कम करने पर जो राशि होती है उतनी व्यन्तरदेवियां हैं। व्यन्तरदेवियों से ज्योतिष्कदेवियां संख्येयगुणी हैं, इसकी स्पष्टता पूर्व में की जा चुकी है। स्त्रीवेद की स्थिति ५१. इत्थिवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णत्ता? गोयमा !जहन्नेणंसागरोवमस्स दिवड्डो सत्तभागो पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेण ऊणो; उक्कोसेणं पन्नरससागरोवमकोडाकोडीओ, पण्णरस वाससयाइं अबाधा,अबाहूणिया कम्मठिती कम्मणिसेओ। इत्थिवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णते? गोयमा ! फुफुअग्गिसमाणे पण्णत्ते से त्तं इत्थियाओ। [५१] हे भगवन् ! स्त्रीवेदकर्म की कितने काल की बन्धस्थिति कही गई है ? गौतम! जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम १॥ सागरोपम के सातवें भाग (") प्रमाण है। उत्कर्ष से पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की बन्धस्थिति है। पन्द्रह सौ वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल से रहित जो कर्मस्थिति है वही अनुभवयोग्य होती है, अतः वही कर्मनिषेक (कर्मदलिकों की रचना) है। हे भगवन् ! स्त्रीवेद किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! स्त्रीवेद फुफु अग्नि (कारिष-वनकण्डे की अग्नि) के समान होता है। इस प्रकार स्त्रियों का अधिकार पूरा हुआ। विवेचन-स्त्री पर्याय का अनुभव स्त्रीवेद कर्म के उदय से होता है अतः स्त्रीवेद कर्म की जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति का प्रमाण प्रस्तुत सूत्र में बताया गया है। Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ ] जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि भगवन् ! स्त्रीवेद की बन्धस्थिति कितने काल की है ? इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि स्त्रीवेद की जघन्य बन्धस्थिति डेढ सागरोपम के सातवें भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग है। जघन्य स्थिति लाने की विधि इस प्रकार है जिस प्रकृति का जो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध है, उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर उस प्रकृति की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति १५ कोडाकोडी सागरोपम है। इसमें ७० कोडाकोडी सागरोपम का भाग दिया तो १५/ कोडाकोडी सागरोपम प्राप्त होता है। छेद्य-छेदक सिद्धान्त के अनुसार इस राशि में १० का भाग देने पर " कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बनती है। इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने से यथोक्त स्थिति बन जाती है। यह व्याख्या मूल टीका के अनुसार है। पंचसंग्रह के मत से भी यह जघन्यस्थिति का परिमाण है, केवल पल्योपम का असंख्यातवां भाग न्यून नहीं करना चाहिए। कर्मप्रकृति संग्रहणीकार ने जघन्य स्थिति लाने की दूसरी विधि बताई है। २ ज्ञानावरणीयादि कर्मों की अपनी-अपनी प्रकृतियां ज्ञानावरणीयादि वर्ग कहलाती हैं। वर्गों की जो अपनी-अपनी उत्कृष्ट स्थिति हो उसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति का भाग देने पर जो लब्ध होता है उसमें पल्योपम का सख्येयभाग कम करने से जघन्य स्थिति निकल आती है। यहाँ स्त्रीवेद नोकषायमोहनीयवर्ग की प्रकृति है। उसकी उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। उसमें सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने से (शून्य को शून्य से काटने पर) २/, कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति बनती है। अर्थात् दो कोडाकोडी सागरोपम का सातवां भाग, उसमें से पल्योपमासंख्येय भाग कम करने से स्त्रीवेद की जघन्यस्थिति इस विधि से २/ कोडाकोडी सागरोपम में पल्योपमसंख्येय भाग न्यून प्राप्त होती है। स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम है। स्थिति दो प्रकार की है-कर्मरूपतावस्थानरूप और अनुभवयोग्य। यहाँ जो स्थिति बताई गई है वह कर्मरूपतावस्थानरूप है। अनुभवयोग्य स्थिति तो अबाधाकाल से हीन होती है। जिस कर्म की जितने कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति होती है उतने ही सौ वर्ष उसकी अबाधा होती है। जैसे स्त्रीवेद को उत्कृष्ट स्थिति पन्द्रह कोडाकोडी सागरोपम की है तो उसका अबाधाकाल पन्द्रह सौ वर्ष का होता है। अर्थात् इतने काल तक वह बन्धी हुई प्रकृति उदय में नहीं आती और अपना फल नहीं देती। अबाधाकाल बीतने पर ही कर्मदलिकों की रचना होती है अर्थात् वह प्रकृति उदय में आती है। इसको कर्मनिषेक कहा जाता है। अबाधाकाल से हीन कर्मस्थिति ही अनुभवयोग्य होती है। १. 'सेसाणुकोसाओ मिच्छत्तुक्कोसएण जं लद्धं' इति वचनप्रामाण्यात् । २. वग्गुक्कोसठिईणं मिच्छत्तुकोसगेण णं लखें। सेसाणं तु जहण्णं पलियासंखेज्जगेणूणं ॥ -कर्मप्रकृति सं. Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति :स्त्रीवेद की स्थिति] - [१४५ . स्त्रीवेद की बन्धस्थिति के पश्चात् गौतमस्वामी ने स्त्रीवेद का प्रकार पूछा है । इसके उत्तर में भगवान् ने कहा कि स्त्रीवेद फुम्फुक (कारीष-छाणे) की अग्नि के समान होता है, अर्थात् वह धीरे धीरे जागृत होता है और देर तक बना रहता है। इस प्रकार स्त्रीविषयक अधिकार समाप्त हुआ। पुरुष-सम्बन्धी प्रतिपादन ५२. से किं तं पुरिसा? पुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-तिरिक्खजोणियपुरिसा, मणुस्सपुरिसा, देवपुरिसा। से किं तं तिरिक्खजोणियपुरिसा ? । तिरिक्खजोणियपुरिसा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-जलयरा, थलयरा, खहयरा । इत्थिभेदो भाणियव्यो जाव खहयरा। से त्तं खहयरा, से तं खहयर तिरिक्खजोणियपुरिसा। से किं तं मणुस्सपुरिसा? मणुस्सपुरिसा तिविधा पण्णत्ता, तं जहा-कम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अतंरदीवगा।से तं मणुस्सपुरिसा। से किं तं देवपुरिसा? देवपुरिसा चउव्विहा पण्णत्ता, इत्थीभेदो भाणियव्वो जाव सव्वट्ठसिद्धा। [५२] पुरुष क्या हैं-कितने प्रकार के हैं ? पुरुष तीन प्रकार के हैं-तिर्यक्योनिक पुरुष, मनुष्य पुरुष और देव पुरुष। तिर्यक्योनिक पुरुष कितने प्रकार के हैं ? तिर्यक्योनिक पुरुष तीन प्रकार के कहे गये हैं, यथा-जलचर, स्थलचर और खेचर। इस प्रकार जैसे स्त्री अधिकार में भेद कहे गये हैं, वैसे यावत् खेचर पर्यन्त कहना। यह खेचर का और उसके साथ ही खेचर तिर्यक्योनिक पुरुषों का वर्णन हुआ। भगवन् ! मनुष्य पुरुष कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! मनुष्य पुरुष तीन प्रकार के हैं-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपिक। यह मनुष्यों के भेद हुए । देव पुरुष कितने प्रकार के हैं ? देव पुरुष चार प्रकार के हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त स्त्री अधिकार में कहे गये भेद कहते जाने चाहिए यावत् सर्वार्थसिद्ध तक देव भेदों का कथन करना। विवेचन-पुरुष के भेदों में पूर्वोक्त स्त्री अधिकार में कहे गये भेद कहने चाहिए। विशेषता केवल देव पुरुषों में है। देव पुरुष चार प्रकार के हैं-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। भवनपति के असुरकुमार आदि १० भेद हैं । वानव्यन्तर के पिशाच आदि आठ भेद हैं, ज्योतिष्क के चन्द्रादि पांच भेद Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं और वैमानिक देव दो प्रकार के हैं-कालोपपन्न और कल्पातीत । सौधर्म आदि बारह देवलोक कल्पोपन्न हैं और ग्रैवेयक तथा अनुत्तरोपपातिक देव कल्पातीत हैं। अनुत्तरोपपातिक के पांच भेद हैं-विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध । अतः 'जाव सव्वट्ठसिद्धा' कहा गया है। कालस्थिति ५३. पुरिसस्स णं भंते ! केवइयं कालठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोमाइं। तिरिक्खजोणियपुरिसाणं मणुस्सपुरिसाणं जाव चेव इत्थीणं ठिई सा चेव भाणियव्या। देवपुरिसाण विजाव सव्वसिद्धाणं ठिई जहा पण्णवणाए (ठिइपए) तहा भाणियव्वा। [५३] हे भगवन् ! पुरुष की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम। तिर्यंचयोनिक पुरुषों की और मनुष्य पुरुषों की वही स्थिति जाननी चाहिए जो तिर्यंचयोनिक स्त्रियों और मनुष्य स्त्रियों की कही गई है। देवयोनिक पुरुषों की यावत् सर्वार्थसिद्ध विमान के देव पुरुषों का स्थिति वही जाननी चाहिए जो प्रज्ञापना के स्थितिपद में कही गई है। विवेचन-अपने अपने भव को छोड़े बिना पुरुषों की कितने काल तक की स्थिति है, ऐसा प्रश्न किये जाने पर भगवान् ने कहा कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से तेतीस सागरोपम की स्थिति है। अन्तर्मुहूर्त में मरण हो जाने की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त की जघन्य स्थिति कही है और अनुत्तरोपपातिक देवों की अपेक्षा तेतीस सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति कही गई है। औधिक तिर्यंच पुरुषों की, जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों की स्थिति वही है जो तिर्यंचस्त्री की पूर्व में कही गई है। मनुष्य पुरुष की औधिक तथा कर्मभूमि-अकर्मभूमि-अन्तीपों के मनुष्य पुरुषों की सामान्य और विशेष से वही स्थिति समझ लेनी चाहिये जो अपने-अपने भेद में स्त्रियों की कही गई है। स्पष्टता के लिए उसका उल्लेख निम्न प्रकार हैतिर्यंच पुरुषों की स्थिति औधिक तिर्यंचयोनिक पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से तीन पल्योपम। जलचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वकोटि। चतुष्पद स्थलचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्योपम, उरपरिसर्प स्थलचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि। भुजपरिसर्प स्थलचर पुरुषों की तथा खेचर पुरुषों की जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्येयभाग। मनुष्य पुरुषों की स्थिति औधिक मनुष्य पुरुषों की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : कालस्थिति] [१४७ धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि। जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति बाह्यलिंग प्रव्रज्या-प्रतिपत्ति की अपेक्षा से है अन्यथा चरणपरिणाम तो एक सामयिक भी सम्भव है। अथवा देशविरति के बहुत भंग होने से जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का सम्भव है। आठ वर्ष की वय के बाद चरण-प्रतिपत्ति होने से पूर्वकोटि आयु वाले की अपेक्षा से देशोन पूर्वकोटि उत्कर्ष से स्थिति कही है। ___कर्मभूमिक मनुष्यों की जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। चारित्रधर्म की अपेक्षा इनकी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। भरत और ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्य पुरुषों की जघन्य स्थिति क्षेत्र की अपेक्षा एक अन्तर्मुहूर्त की है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। यह सुषमासुषम काल की अपेक्षा से है। चारित्रधर्म की अपेक्षा जघन्य स्थिति एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह पुरुषों की क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। चरणधर्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है। __ अकर्मभूमि मनुष्य पुरुषों की सामान्यतः जन्म की अपेक्षा जघन्य स्थिति पल्योपम के असंख्यातवें भाग से हीन एक पल्योपम की है और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि। हैमवत और ऐरण्यवत के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येयभाग हीन एक पल्योपम की है। उत्कर्ष से पूर्ण एक पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। हरिवर्ष, रम्यकवर्ष के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा पल्योपमासंख्येयभाग हीन दो पल्योपम की है और उत्कृष्ट परिपूर्ण दो पल्योपम की है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपमासंख्येयभाग हीन तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट परिपूर्ण तीन पल्योपम है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है। अन्तर्वीपों के मनुष्य पुरुषों की स्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपम के देशोन असंख्यातवें भाग रूप है, उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से एक अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि है। देव पुरुषों की स्थिति प्रज्ञापना में देव पुरुषों की स्थिति इस प्रकार कही गई हैदेव पुरुषों की औधिक स्थिति जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम। Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र विशेष विचारणा में असुरकुमार पुरुषों की जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम। नागकुमार पुरुषों की जघन्य से दस हजार वर्ष, उत्कृष्ट देशोन दो पल्योपम। सुवर्णकुमार आदि शेष स्तनितकुमार पर्यन्त सब भवनपतियों की भी यही स्थिति है। व्यन्तरों की जघन्य दस हजार की, उत्कृष्ट एक पल्योपम; ज्योतिष्क पुरुषों की जघन्य से पल्योपम का आठवां भाग और उत्कृष्ट एक लाख वर्ष अधिक एक परिपूर्ण पल्योपम। सौधर्मकल्प के देव पुरुषों की स्थिति जघन्य से एक पल्योपम और उत्कृष्ट से दो सागरोपम की है। ईशानकल्प के देव पुरुषों की जघन्य से कुछ अधिक एक पल्योपम और उत्कृष्ट कुछ अधिक दो सागरोपम है। सनत्कुमार देव पुरुषों की जघन्य दो सागरोपम और उत्कृष्ट सात सागरोपम है। माहेन्द्रकल्प के देवों की जघन्य से कुछ अधिक दो सागरोपम और उत्कृष्ट से कुछ अधिक सात सागरोपम है। ब्रह्मलोक देवों की जघन्य से सात सागरोपम और उत्कृष्ट से दस सागरोपम है। लान्तक देवों की जघन्य से दस सागरोपम और उत्कृष्ट से चौदह सागरोपम है। महाशुक्रकल्प के देवों की जघन्य चौदह सागरोपम और उत्कृष्ट सत्रह सागरोपम है। सहस्रारकल्प के देवों की जघन्य स्थिति सत्रह सागरोपम है और उत्कृष्ट अठारह सागरोपम है। आनतकल्प के देवों की स्थिति जघन्य अठारह सागरोपम और उत्कृष्ट उन्नीस सागरोपम है। प्राणतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति उन्नीस सागरोपम की और उत्कृष्ट बीस सागरोपम की है। आरणकल्प के देवों की जघन्य स्थिति बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट इक्कीस सागरोपम की है। अच्युतकल्प के देवों की जघन्य स्थिति इक्कीस सागरोपम की और उत्कृष्ट बाबीस सागरोपम की अधस्तनाधस्तन ग्रैवयक देवपुरुषों की जघन्य स्थिति बाईस सागरोपम की और उत्कृष्ट तेवीस सागरोपम की है। अधस्तनमध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तेवीस सागरोपम की और उत्कृष्ट चौबीस सागरोपम की है। अधस्तनोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति चौबीस सागरोपम की और उत्कृष्ट पच्चीस सागरोपम मध्यमाधस्तन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति पच्चीस सागरोपम की और उत्कृष्ट छब्बीस सागरोपम मध्यममध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति छब्बीस सागरोपम की और उत्कृष्ट सत्तावीस सागरोपम की है। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल] [१४९ . मध्यमोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति सतावीस सागरोपम की और उत्कृष्ट अट्ठावीस सागरोपम ___ उपरितनाधस्तन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति अट्ठावीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति उनतीस सागरोपम है। उपरितनमध्यम ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति उनतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट तीस सागरोपम है। उपरितनोपरितन ग्रैवेयक देवों की जघन्य स्थिति तीस सागरोपम की और उत्कृष्ट इकतीस सागरोपम विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमान गत देवपुरुषों की जघन्य स्थिति इकतीस सागरोपम की और उत्कृष्ट स्थिति तेतीस सागरोपम है। सर्वार्थसिद्धविमान के देवों की स्थिति तेतीस सागरोपम की है। यहाँ स्थिति में जघन्य-उत्कृष्ट का भेद नहीं। पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल ५४. पुरिसे णं भंते ! पुरिसेत्ति कालओ केवच्चिरं होई? । गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं। तिरिक्खजोणियपुरिसे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होई ? । गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुव्वकोडिपुहुत्तमब्भहियाई। एवं तं चेव संचिट्ठणा जहा इत्थीणं जाव खहयर तिरिक्खजोणियपुरिसस्स संचिट्ठणा। मणुस्सपुरिसाणं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं पुवकोडिपुहुत्तमब्भहियाइं; धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी। एवं सव्वत्थ जाव पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमिग मणुस्सपुरिसाणं। अकम्मभूमिग मणुस्सपुरिसाणं जहा अकम्मभूमिग मणुस्सित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं। देवाणं जच्चेव ठिई सच्चेव संचिट्ठणा जाव सव्वत्थसिद्धगाणं। [५४] हे भगवन् ! पुरुष, पुरुषरूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपम शतपृथक्त्व (दो सौ से लेकर नौ सौ सागरोपम) से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुषरूप में निरन्तर रह सकता है। भगवन् ! तिर्यंचयोनि-पुरुष काल से कितने समय तक निरन्तर उसी रूप में रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक। इस प्रकार से जैसे स्त्रियों की संचिट्ठणा कही, वैसे खेचर तिर्यंचयोनिपुरुष पर्यन्त की संचिट्ठणा है। भगवन् ! मनुष्यपुरुष उसी रूप में काल से कितने समय तक रह सकता है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि । १५० ] इसी प्रकार सर्वत्र पूर्वविदेह, पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य-पुरुषों तक के लिए कहना चाहिए । अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों के लिए वैसा ही कहना जैसा अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों के लिए कहा है। इसी प्रकार अन्तरद्वीपों के अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुषों तक वक्तव्यता जानना चाहिए । देवपुरुषों की जो स्थिति कही है, वही उसका संचिट्ठणा काल है। ऐसा ही कथन सर्वार्थसिद्ध के देवपुरुषों तक कहना चाहिए । विवेचन - पुरुष पुरुषपर्याय का त्याग किये बिना कितने काल तक निरन्तर पुरुषरूप में रह सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त तक और उत्कर्ष दो सौ सागरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम से कुछ अधिक काल तक पुरुष पुरुष - पर्याय में रह सकता है। जो पुरुष अन्तर्मुहूर्त काल जी कर मरने के बाद स्त्री आदि रूप जन्म लेता है उसकी अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त कहा गया है । सामान्यरूप से तिर्यक्, नर और देव भवों में इतने काल तक पुरुषत्व में रहने की सम्भावना है। मनुष्य के भवों की अपेक्षा से सातिरेकता (कुछ अधिकता) समझना चाहिए। इससे अधिक काल तक निरन्तर पुरुष नामकर्म का उदय नहीं रह सकता । नियमतः वह स्त्री आदि भाव को प्राप्त करता है । तिर्यक्योनि पुरुषों के विषय में वही वक्तव्यता है, जो तिर्यक्योनि स्त्रियों के विषय में कही गई है। वह इस प्रकार है तिर्यक्योनि पुरुष अपने उस पुरुषत्व को त्यागे बिना निरन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त रह सकता है। उसके बाद मरकर गत्यन्तर या वेदान्तर को प्राप्त होता है। उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक रह सकता है। इसमें सात भव तो पूर्वकोटि आयुष्य के पूर्वविदेह आदि में और आठवां भव देवकुरुउत्तरकुरु में जहाँ तीन पल्योपम की आयु है । इस तरह पल्योपम और पूर्वकोटिपृथक्त्व (बहुतपूर्वकोटियां) काल तक उसी रूप में रह सकता है। जलचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक । पूर्वकोटि आयु वाले पुरुष के पुनः पुनः वहीं दो तीन चार बार उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए । चतुष्पदस्थलचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक। भावना पूर्वोक्त औघिक तिर्यक पुरुष की तरह समझना चाहिए। उरपरिसर्प और भुजपरिसर्प स्थलचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक । भावना पूर्वोक्त जलचर पुरुष की तरह समझना । खेचर पुरुष जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक पल्योपम का असंख्येय भाग । यह सात बार तो पूर्वकोटि की आयु वाले भवों में और आठवीं बार अन्तद्वपादि खेचर पुरुषों में (पल्योपमासंख्येय भाग स्थिति वालों में) उत्पन्न होने की अपेक्षा से समझना चाहिए । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: पुरुष का पुरुषरूप में निरन्तर रहने का काल] [१५१ ___ मनुष्यपुरुषों का निरन्तर तद्रूप में रहने का काल पूर्व में कही गई मनुष्यस्त्रियों की वक्तव्यता के अनुसार है। वह निम्नानुसार है __सामान्य से मनुष्य-पुरुष का तद्रूप में निरन्तर रहने का कालमान जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम। इसमें सात भव तो महाविदेह में पूर्वकोटि आयु के और आठवां भव देवकुरु आदि में तीन पल्योपम की आयु का जानना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि। आठ वर्ष की आयु के बाद चारित्र-प्रतिपत्ति होती है, अतः आठ वर्ष कम होने से देशोनता कही है। विशेष विवक्षा में कर्मभूमि का मनुष्य-पुरुष कर्मभूमि क्षेत्र की अपेक्षा से जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व अधिक तीन पल्योपम तक निरन्तर तद्रूप में रह सकता है। यह सात बार पूर्वकोटि आयु वालों में उत्पन्न होकर आठवीं बार भरत ऐरावत में एकान्त सुषमा आरे में तीन पल्योपम की स्थिति सहित उत्पन्न होने वाले की अपेक्षा से है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय (सर्वविरति परिणाम एक समय का भी संभव है) और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक। समग्र चारित्रकाल भी इतना है। ' भरत-ऐरावत कर्मभूमिक मनुष्य पुरुष भी भरत-ऐरावत क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक तद्रूप में निरन्तर रह सकता है। यह पूर्वकोटि आयु वाले किसी विदेहपुरुष को भरतादिक्षेत्र में संहरण कर लाने पर भरतक्षेत्रीय व्यपदेश होने से भवायु के क्षय होने पर एकान्त सुषमाकाल के प्रारंभ में उत्पन्न होने वाले मनुष्यपुरुष की अपेक्षा से समझना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा से जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि तक संचिट्ठणा समझनी चाहिए। पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष उसी रूप में निरन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व तक रह सकता है। वह बार बार वहीं सात बार उत्पत्ति की अपेक्षा से समझना चाहिए। इसके बाद अवश्य गति और योनि का परिवर्तन होता ही है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि। अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष तद्भाव को छोड़े बिना निरन्तर जन्म की अपेक्षा से पल्योपमासंख्येयभाग न्यून एक पल्योपम तक और उत्कर्ष से तीन पल्योपम तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (यह अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर अकर्मभूमि में संहरण की अपेक्षा से है।) है और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक। यह देशोन पूर्वकोटि आयु वाले पुरुष का उत्तरकुरु आदि में संहरण हो और वह वहीं मर कर वहीं उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से है। देशोनता गर्भकाल की अपेक्षा से है। गर्भस्थित के संहरण का प्रतिषेध है। हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येयभाग न्यून Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र एक पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम रह सकता है। हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपमासंख्येय भाग न्यून दो पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम तक। जघन्य और उत्कर्ष से वहाँ इतनी ही आयु सम्भव है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से कम आयु वाले पुरुष का संहरण नहीं होता) और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम तक तद्प में रह सकता है। देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येय भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। ___अन्तीपक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम का असंख्येय भाग तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटि अधिक पल्योपमासंख्येय भाग तक उसी पुरुषपर्याय में रह सकता है। देवपुरुषों की जो स्थिति पहले बताई गई है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) भी है। शंका की जा सकती है कि अनेक भव-भावों की अपेक्षा से कायस्थिति होती है वह एक ही भव में कैसे हो सकती है ? यह दोष नहीं है क्योंकि यहाँ केवल उतनी ही विवक्षा है कि देवपुरुष देव पुरुषत्व को छोड़े बिना कितने काल तक रह सकता है। देव मर कर अनन्तर भव में देव नहीं होता अतः यह अतिदेश किया गया है कि जो देवों की भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा है। अन्तरद्वार ५५. पुरिसस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसाणं। मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंतकालं अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ जाव अवड्ड पोग्गलपरियटें देसूणं। कम्मभूमगाणं जाव विदेहो जाव धम्मचरणे एक्को समओ सेसं जहित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं। देवपुरिसाणं जहन्नेणंअंतोमुहुत्तं उक्कोसेणंवणस्सइकालो।भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अन्तरद्वार ] [१५३ आणतदेवपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई ? गोयमा ! जहन्त्रेण वासपुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव गेवेज्जदेवपुरिसस्स वि । अणुत्तरोववाइयदेवपुरिसस्स जहन्त्रेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई साइरेगाई । [ ५५ ] भंते ! पुरुष का अन्तर कितना कहा गया है ? (अर्थात् पुरुष, पुरुष - पर्याय छोड़ने के बाद फिर कितने काल पश्चात् पुरुष होता है ? ) गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल के बाद पुरुष पुनः पुरुष होता है । भगवन् ! तिर्यक्योनिक पुरुषों का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है। इसी प्रकार खेचर तिर्यक्योनिक पर्यन्त के विषय में जानना चाहिए। भगवन् ! मनुष्य पुरुषों का अन्तर कितने काल का है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अनन्त काल अर्थात् इस अवधि में अनन्त उत्सर्पिणियांअवसर्पिणियां बीत जाती हैं यावत् वह देशोन अर्धपुद्गल परावर्तकाल होता है। कर्मभूमि के मनुष्य का यावत् विदेह के मनुष्यों का अन्तर यावत् धर्माचरण की अपेक्षा एक समय इत्यादि जो मनुष्यस्त्रियों के लिए कहा गया है वही यहाँ कहना चाहिए । अन्तद्वीपों के अन्तर तक उसी प्रकार कहना चाहिए । देवपुरुषों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। यही कथन भवनवासी देवपुरुष से लगा कर सहस्रार देवलोक तक के देव पुरुषों के विषय में समझना चाहिए । भगवन् ! आनत देवपुरुषों का अन्तर कितने काल का कहा गया है ? गौतम ! जघन्य से वर्षपृथक्त्व (आठ वर्ष) और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है । इसी प्रकार ग्रैवयेक देवपुरुषों का भी अन्तर जानना चाहिए। अनुत्तरोपपातिक देवपुरुषों का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम से कुछ अधिक का होता है । विवेचन - पूर्व सूत्र में उसी पर्याय में निरन्तर रहने का कालमान बताया गया था। इस सूत्र में जीव अपनी वर्तमान पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उस पर्याय को जितने समय बाद पुनः प्राप्त करता है, यह कहा है उसको अन्तर कहा जाता है। यहाँ तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों के अन्तर की विवक्षा है। सामान्य रूप से पुरुष, पुरुषपर्याय छोड़ने के पश्चात् कितने काल के बाद पुनः पुरुषपर्याय प्राप्त करता है, ऐसा गौतमस्वामी द्वारा प्रश्न किये जाने पर भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जब कोई पुरुष उपशमश्रेणी पर चढ़ कर पुरुषवेद को उपशान्त कर देता है और एक समय के बाद ही मर कर वह देव-पुरुष में ही नियम से उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से एक समय का अन्तर कहा गया है। यहाँ कोई शंका करता है कि स्त्री और नपुंसक भी श्रेणी पर चढ़ते हैं तो उनका अन्तर एक समय का क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर है कि श्रेणी पर आरूढ़ स्त्री या नपुंसक वेद का उपशमन करने के अनन्तर मर कर तथाविध शुभ अध्यवसाय से मर कर नियम से देव पुरुषों में ही उत्पन्न होते हैं, देव स्त्रियों या नपुंसकों में नहीं। अतः उनका अन्तर एक समय नहीं होता। उत्कर्ष से पुरुष का अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। वनस्पतिकाल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'काल से अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां उसमें बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक के प्रदेशों का अपहार हो जाता है और असंख्येय पुद्गलपरावर्त बीत जाते हैं । वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के समयों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं।' सामान्य से पुरुष का अन्तर बताने के पश्चात् तिर्यक् पुरुष आदि विशेषणों-भेदों की अपेक्षा अन्तर का कथन किया गया है। तिर्यक्योनि पुरुषों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इस प्रकार जैसा तिर्यंच स्त्रियों का अन्तर बताया गया है, वही अन्तर तिर्यक् पुरुषों का भी समझना चाहिए। जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और वनस्पतिकाल जानना चाहिए। मनुष्य स्त्रियों का जो अन्तर पूर्व में कहा गया है, वही मनुष्य पुरुषों का भी अन्तर समझना चाहिए। वह इस प्रकार है सामान्यतः मनुष्य-पुरुष का क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय (क्योंकि चारित्र स्वीकार करने के पश्चात् गिरकर पुनः एक समय में चारित्रपरिणाम हो सकते हैं), उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है। इसी प्रकार भरत, ऐरवत, पूर्वविदेह, अपरविदेह कर्मभूमि के मनुष्य का जन्म को लेकर, तथा चारित्र को लेकर जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। ___सामान्य से अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष का जन्म को लेकर अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष हैं, क्योंकि वह मर कर जघन्य स्थिति के देवों में उत्पन्न होकर वहाँ से च्यव कर कर्मभूमि में स्त्री या पुरुष के रूप में पैदा होकर पुनः अकर्मभूमि मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो सकता है। बीच में कर्मभूमि में पैदा होकर मरने का कथन इसलिए किया गया है कि देवभव से च्यवकर कोई जीव सीधा अकर्मभूमियों में मनुष्य या तिर्यक् संज्ञी पंचेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न नहीं होता। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है। १. 'अर्णताओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए असंखेज्जइ भागो।' इति Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अन्तरद्वार] [१५५ संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (अकर्मभूमि से कर्मभूमि में संहत किये जाने के बाद अन्तर्मुहूर्त में तथाविध बुद्धिपरिवर्तन होने से पुनः वहीं लाकर रख देने की अपेक्षा से) उत्कर्ष से वनस्पतिकाल। इतने काल के बीतने पर अकर्मभूमियों में उत्पत्ति की तरह संहरण भी नियम से होता है। इसी तरह हैमवत हैरण्यवत आदि अकर्मभूमियों में जन्म से और संहरण से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। इसी तरह अन्तीपक अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष की वक्तव्यता तक पूर्ववत् अन्तर कहना चाहिए। __ मनुष्य-पुरुष का अन्तर बताने के पश्चात् देवपुरुष का अन्तर बताते हुए सूत्रकार कहते हैं कि सामान्य से देवपुरुष का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। देवभव से च्यवकर गर्भज मनुष्य में उत्पन्न होकर पर्याप्ति पूरी करने के बाद तथाविध अध्यवसाय से मरकर पुनः वह जीव देवरूप में उत्पन्न हो सकता है। इस प्रकार असुरकुमार से लगाकर सहस्रार (आठवें) देवलोक तक के देवों का अन्तर कहना चाहिए। आनतकल्प (नौवें देवलोक) के देव का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व है। क्योंकि आनत आदि कल्प से च्यवित होकर पुनः आनत आदि कल्प में उत्पन्न होने वाला जीव नियम से (मनुष्यभव में) चारित्र लेकर ही वहाँ उत्पन्न हो सकता है। चारित्र लिए बिना कोई जीव आनत आदि कल्पों में जन्म नहीं ले सकता। चारित्र आठ वर्ष की अवस्था से पूर्व नहीं होता अतः आठ वर्ष तक की अवधि का अन्तर बताने के लिए वर्षपृथक्त्व कहा है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है। अनुत्तरोपपातिक कल्पातीत देवपुरुष का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कर्ष से कुछ अधिक संख्येय सागरोपम है। अन्य वैमानिक देवों में उत्पत्ति के कारण संख्येय सागर और मनुष्यभवों में उत्पत्ति को लेकर कुछ अधिकता समझनी चाहिए। यद्यपि यह कथन सामान्य रूप से सब अनुत्तरोपपातिक देवों के लिए है तथापि यह विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित विमानों की अपेक्षा से समझना चाहिए, क्योंकि सर्वार्थसिद्ध विमान में एक बार ही उत्पत्ति होती है, अतः अन्तर की संभावना ही नहीं है। वृत्तिकार ने अन्तर के विषय में मतान्तर का उल्लेख करते हुए कहा है कि भवनवासी से लेकर ईशान देवलोक तक के देव का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त है, सनत्कुमार से लगाकर सहस्रार तक जघन्य अन्तर नौ दिन, आनतकल्प से लगाकर अच्युतकल्प तक नौ मास, नव ग्रैवेयकों में और सर्वार्थसिद्ध को छोड़कर शेष अनुत्तरोपपातिक देवों का अन्तर नौ वर्ष का है। ग्रैवेयक तक सर्वत्र उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है। विजयादि चार महाविमानों में दो सागरोपम का उत्कृष्ट अन्तर है। १. आईसाणादमरस्स अंतरं होणयं मुहुत्तंतो। आसहसारे अच्चुयणुत्तर दिणमासवास नव॥१॥ थावरकालुक्कोसो सव्वठे वीयओ न उववाओ। दो अयरा विजयादिसु..........................॥ -मलयगिरिवृत्ति Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अल्पबहुत्व ५६. अप्पाबहुयाणि जहेवित्थीणं जाव एतेसिं णं भंते ! देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोतिसियाणं वेमाणियाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा वेमाणियदेवपुरिसा, भवणवइदेवपुरिसा असंखेजगुणा, वाणमंतरदेवपुरिसा असंखेजगुणा, जोइसियादेवपुरिसा संखेजगुणा। एतेसिं णं भंते ! तिरिक्खजोणिय-पुरिसाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं, मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणं अंतरदीवगाणं, देवपुरिसाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं सोहम्माणं जाव सव्वट्ठसिद्धगाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवाअंतरदीवगमणुस्सपुरिसा, देवकुरुत्तरकुरुअकम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा हरिवास रम्मगवास अकम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, हेमवत हेरण्यवतवास अकम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दोवि संखेन्जगुणा; भरहेरवतवास कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दोवि संखेज्जगुणा, पुव्वविदेह अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दोवि संखेज्जगुणा, अणुत्तरोववाइय देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, उवरिमगेविज्ज देवपुरिसा संखेज्जगुणा, मज्झिमगेविज देवपुरिसा संखेज्जगुणा, हेट्ठिमगेविज देवपुरिसा संखेज्जगुणा, अच्चुयकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जाव आणतकप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, जाव माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सर्णकुमारकप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, ईसाणकप्पे देवपुरिसा असंखेग्जगुणा, सोहम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, भवणवासिदेवपुरिसा असंखेज्जगुणा, खहयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा असं जगुणा, थलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेजगुणा, जलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा असंखेजगुणा, Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अल्पबहुत्व ] वाणमंतर देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जोतिसियदेवपुरिसा संखेज्जगुणा । [१५७ [५६] स्त्रियों का जैसा अल्पबहुत्व कहा यावत् हे भगवन् ! देव पुरुष - भवनपति, वानव्यंतर, ज्योतिष्क और वैमानिक में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े वैमानिक देवपुरुष, उनसे भवनपति देवपुरुष असंख्येयगुण, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष असंख्येय गुण, उनसे ज्योतिष्क देवपुरुष संख्येयगुणा हैं । हे भगवन् ! इन तिर्यंचयोनिक पुरुषों - जलयर, स्थलचर, और खेचर; मनुष्य पुरुषों - कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तद्वीपकों में; देवपुरुषों - भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिकों - सौधर्म देवलोक यावत् सर्वार्थसिद्ध देवपुरुषों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अन्तद्वीपों के मनुष्यपुरुष, उनसे देवकुरु उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे हरिवास रम्यकवास अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे हेमवत हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे भरत ऐरवतवास कर्मभूमि के मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे पूर्वविदेह अपरविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण, उनसे अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे उपरिम ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे मध्यम ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अधस्तन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे अच्युतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे यावत् आनतकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे यावत् महेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे खेचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर तिर्यंचयोनिक पुरुष संख्येयगुण, उनसे जलचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंखेयगुण, उनसे वाणव्यन्तर देवपुरुष संखेयगुण, उनसे ज्योतिषी देवपुरुष संखेयगुण हैं। विवेचन - सामान्य स्त्री - प्रकरण में स्त्रियों के अल्पबहुत्व का कथन जिस प्रकार किया गया है, उसी प्रकार से सामान्य पुरुषों का अल्पबहुत्व कहना चाहिए । यहाँ पर अल्पबहुत्व का प्रकरण यावत् देवपुरुषों के अल्पबहुत्व प्रकरण से पहले पहले का गृहीत हुआ है। यहाँ पांच प्रकार से अल्पबहुत्व बताया है। जिसमें पहला सामान्य से तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों को लेकर, दूसरा तिर्यंचयोनिक, जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों को लेकर, तीसरा कर्मभूमिक आदि तीन प्रकार के मनुष्यों को लेकर, चौथा चार प्रकार के देवों को लेकर और पांचवां सबको मिश्रित करके अल्पबहुत्व बताया है । . आदि के तीन अल्पबहुत्व तो जैसे इनकी स्त्रियों को लेकर कहे हैं वैसे ही यहाँ पुरुषों को लेकर कहना चाहिए। इन तीन अल्पबहुत्वों का यहाँ 'यावत' पद से ग्रहण किया है। वह स्त्रीप्रकरण के अल्पबहुत्व में देख लेना चाहिए। अन्तर केवल यह कि 'स्त्री' की जगह 'पुरुष' पद का प्रयोग करना चाहिए । Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चौथा देवपुरुष सम्बन्धी अल्पबहुत्व सूत्रकार ने प्रस्तुत सूत्र में साक्षात् कहा है। वह इस प्रकार हैसबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष हैं, क्योंकि उनका प्रमाण क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती आकाशप्रदेशों की राशि तुल्य है। उनसे उपरितन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं। क्योंकि वे बृहत्तर क्षेत्रपल्योपम के असंख्येयभागवर्ती आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं । विमानों की बहुलता के कारण संख्येयगुणता है। अनुत्तर देवों के पांच विमान हैं और उपरितन ग्रैवेयक देवों के सौ विमान हैं। प्रत्येक विमान में असंख्येय देव हैं। जैसे-जैसे विमान नीचे हैं उनमें देवों की संख्या प्रचुरता से है। इससे जाना जाता है कि अनुत्तरविमान देवपुरुषों से उपरितन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं। उपरितन ग्रैवेयक देवपुरुषों की अपेक्षा मध्यम ग्रैवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं । उनसे अधस्तन ग्रैवेयक देवपुरुष संख्येयगुण हैं, उनसे अच्युतकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। उनसे आरणकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। यहाँ यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि आरण और अच्युत कल्प दोनों समश्रेणी और समान विमानसंख्या वाले हैं तो भी कृष्णपाक्षिक जीव तथास्वभाव से दक्षिणदिशा में अधिक रूप में उत्पन्न होते हैं। जीव दो प्रकार के हैं-कृष्णपाक्षिक और शुक्लपाक्षिक। जिन जीवों का कुछ कम अर्धपुद्गलपरावर्त संसार शेष रहा है वे शुक्लपाक्षिक हैं। इससे अधिक दीर्घ संसार वाले कृष्णपाक्षिक हैं। १ ___ कृष्णपाक्षिकों की अपेक्षा शुक्लपाक्षिक थोड़े हैं। अल्पसंसारी जीव थोड़े ही हैं। कृष्णपाक्षिक बहुत हैं, क्योंकि दीर्घसंसारी जीव अनन्तानन्त हैं। शंका हो सकती है कि यह कैसे माना जाय कि कृष्णपाक्षिक प्रचुरता से दक्षिणदिशा में पैदा होते हैं ? आचार्यों ने कहा है कि ऐसा स्वाभाविक रूप से ही होता है। कृष्णपाक्षिक प्रायः दीर्घसंसारी होते हैं और दीर्घसंसारी प्रायः बहुत पापकर्म के उदय से होते हैं। बहुत पाप का उदय वाले जीव प्रायः क्रूरकर्मा होते हैं और क्रूरकर्मा जीव प्रायः तथास्वभाव से भवसिद्धिक होते हुए भी दक्षिण दिशा में उत्पन्न होते हैं। अतः दक्षिण दिशा में कृष्णपाक्षिकों की प्रचुरता होने से अच्युतकल्प के देवपुरुषों की अपेक्षा आरणकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। __ आरणकल्प के देवपुरुषों की अपेक्षा प्राणतकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। उनसे आनतकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। यहाँ भी प्राणतकल्प की अपेक्षा आनतकल्प में कृष्णपाक्षिक दक्षिणदिशा में ज्यादा होने से संख्येयगुण हैं। सब अनुत्तरवासी देव और आनतकल्प वासी पर्यन्त देवपुरुष प्रत्येक क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेशों की राशि प्रमाण हैं । केवल असंख्येय भाग असंख्येय प्रकार का है इसलिए पूर्वोक्त संख्येयगुणत्व में कोई विरोध नहीं है। १. जेसिमवड्ढो पुग्गलपरियट्रो सेसओ य संसारो। ते सुक्कपक्खिया खलु अहिए पुण कण्हपक्खीआ॥ २. पायमिह कूरकम्मा भवसिद्धिया वि दाहिणिल्लेसु। नेरइय-तिरिय-मणुया, सुराइठाणेसु गच्छन्ति ॥ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अल्पबहुत्व ] आनतकल्प देवपुरुषों से सहस्रारकाल वासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणी के असंख्यातवें भाग में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके तुल्य हैं। उनसे महाशुक्रकल्पवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे वृहत्तर श्रेणी के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेश राशि तुल्य हैं । विमानों की बहुलता से यह असंख्येय गुणता जाननी चाहिए । सहस्रारकल्प में विमानों की संख्या छह हजार है जबकि महाशुक्र विमान में चालीस हजार विमान हैं । नीचे-नीचे के विमानों में ऊपर के विमानों की अपेक्षा अधिक देवपुरुष होते हैं । [१५९ महाशुक्रकल्प के देवपुरुषों की अपेक्षा लान्तक देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे वृहत्तम श्रेणी के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेश राशि प्रमाण हैं। उनसे ब्रह्मलोकवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे अधिक वृहत्तम श्रेणी के असंख्येयभागगत आकाशप्रदेशराशि प्रमाण हैं। उनसे माहेन्द्रकल्पवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे और अधिक वृहत्तम श्रेणी के असंख्येय भागगत आकाश प्रदेशराशि तुल्य हैं। उनसे सनत्कुमारकल्प के देव असंख्येयगुण हैं। क्योंकि विमानों की बहुलता हैं । सनत्कुमारकल्प में बारह लाख विमान हैं और माहेन्द्रकल्प में आठ लाख विमान हैं। दूसरी बात यह है कि सनत्कुमारकल्प दक्षिणदिशा में है और माहेन्द्रकल्प उत्तरदिशा में है। दक्षिणदिशा में बहुत से कृष्णपाक्षिक उत्पन्न होते हैं । इसलिए माहेन्द्रकल्प से सनत्कुमारकल्प में देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। सहस्रारकल्प से लगाकर सनत्कुमारकल्प के देव सभी अपने-अपने स्थान में घनीकृत लोक की एक श्रेणी के असंख्येयभाग में रहे हुए आकाशप्रदेशों की राशि प्रमाण हैं परन्तु श्रेणी का असंख्येय भाग असंख्येय तरह का होने से असंख्यातगुण कहने में कोई विरोध नहीं आता । सनत्कुमारकल्प के देवपुरुषों से ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के द्वितीय वर्गमूल को तृतीय वर्गमूल से गुणित करने पर जितनी प्रदेशराशि होती है उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश होते हैं, उसका जो बत्तीसवाँ भाग है, उतने प्रमाण वाले हैं । ईशानकल्प के देवपुरुषों से सौधर्मकल्पवासी देवपुरुष संख्येयगुण हैं । यह विमानों की बहुलता के कारण जानना चाहिए। ईशानकल्प में अट्ठावीस लाख विमान हैं और सौधर्मकल्प में बत्तीस लाख विमान हैं। दूसरी बात यह है कि सौधर्मकल्प दक्षिणदिशा में है और ईशानकल्प उत्तरदिशा में है। दक्षिण दिशा में तथास्वभाव से कृष्णपाक्षिक अधिक उत्पन्न होते हैं अतः ईशानदेवलोक के देवों से सौधर्मदेवलोक के देव संख्यातगुण होते हैं । यहाँ एक शंका होती है कि सनत्कुमार और माहेन्द्रकल्प में भी उक्त युक्ति कही है। फिर वहाँ तो माहेन्द्र की अपेक्षा सनत्कुमार में देवों की संख्या असंख्यातगुण कही है और यहाँ सौधर्म में ईशान से संख्यातगुण ही प्रमाण बताया है, ऐसा क्यों ? इसका उत्तर यही है कि तथास्वभाव से ही ऐसा है । प्रज्ञापना आदि में सर्वत्र ऐसा ही कहा गया हैं । Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सौधर्म देवों से भवनवासी देव असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल में द्वितीय वर्गमूल का गुणा करने से जितनी प्रदेशराशि होती है, उतनी घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। उनसे व्यन्तर देव असंख्येयगुण हैं क्योंकि वे एक प्रतर के संख्येय कोडाकोडी योजन प्रमाण एक प्रादेशिकी श्रेणी प्रमाण जितने खण्ड होते हैं, उनका बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। उनसे ज्योतिष्क देव संख्येयगुण हैं। क्योंकि दो सौ छप्पन अंगुल प्रमाण एक प्रादेशिकी श्रेणी जितने एक प्रतर में जितने खण्ड होते हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। अब पांचवा अल्पबहुत्व कहते हैं सबसे थोड़े अन्तीपिक मनुष्य हैं, क्योंकि क्षेत्र थोड़ा हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र बहुत है। स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं क्षेत्र समान होने से। उनसे हरिवर्ष रम्यकवर्ष के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं, क्योंकि क्षेत्र अतिबहुल होने से। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं क्योंकि क्षेत्र समान है। ___ उनसे हैमवत हैरण्यवत के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं क्योंकि क्षेत्र की अल्पता होने पर भी स्थिति की बहुलता के कारण उनकी प्रचुरता है। स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं। ___ उनसे भरत ऐरवत कर्मभूमि के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं, क्योंकि अजित प्रभु के काल में उत्कृष्ट पद में स्वभावतः ही मनुष्यपुरुषों की अति प्रचुरता होती है। स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि क्षेत्र की तुल्यता है। उनसे पूर्वविदेह पश्चिमविदेह के मनुष्यपुरुष संख्येयगुण हैं। क्योंकि क्षेत्र की बहुलता होने से अजितस्वामी के काल की तरह स्वभाव से ही मनुष्यपुरुषों की प्रचुरता होती हैं। स्वस्थान में परस्पर दोनों तुल्य हैं। उनसे अनुत्तरोपपातिक देव असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे क्षेत्रपल्योपम के असंख्येय भागवर्ती आकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं। उनसे उपरितन ग्रैवेयक देवपुरुष, मध्यम ग्रैवेयक देवपुरुष, अधस्तन ग्रैवेयक देवपुरुष, अच्युतकल्प देवपुरुष, आरणकल्प देवपुरुष, प्राणतकल्प देवपुरुष, आनतकल्प देवपुरुष यथोत्तर (क्रमशः) संख्येयगुण हैं। ___ उनसे सहस्रारकल्प देवपुरुष, लान्तककल्प देवपुरुष, ब्रह्मलोककल्प देवपुरुष, माहेन्द्रकल्प देवपुरुष, सनत्कुमारकल्प देवपुरुष, ईशानकल्प देवपुरुष यथोत्तर (क्रमशः) असंख्येयगुण हैं। उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्येयगुण हैं। सौधर्मकल्प देवपुरुषों से भवनवासी देवपुरुष असंख्येयगुण हैं। उनसे खेचर तिर्यंचयोनिक पुरुष असंख्येयगुण हैं। क्योंकि वे प्रतर के असंख्येय भागवर्ती असंख्यातश्रेणिगत आकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं। Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुंसक निरूपण] [१६१ . उनसे स्थलचर संख्येयगुण, उनसे जलचर संख्येयगुण, उनसे वानव्यन्तर देव संख्येयगुण हैं । क्योंकि वानव्यन्तर देव एक प्रतर में संख्येय योजन कोटि प्रमाण एक प्रादेशिक श्रेणी के बराबर जित्ने खण्ड होते हैं, उनके बत्तीसवें भाग प्रमाण हैं। उनसे ज्योतिष्क देव संख्यातगुण हैं। युक्ति पहले कही जा चुकी है। पुरुषवेद की स्थिति ५७. पुरिसवेदस्स णं भंते ! केवइयं कालं बंधट्टिई पण्णत्ता ? गोयमा! जहन्नेणं अट्ठसंवच्छराणि उक्कोसेणं दससागरोवमकोडाकोडीओ।दसवाससयाई अबाधा, अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेओ। पुरिसवेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! वणदवग्गिजालसमाणे पण्णत्ते । से त्तं पुरिसा। [५७] हे भगवन् ! पुरुषवेद की कितने काल की बंधस्थिति है ? गौतम ! जघन्य आठ वर्ष और उत्कृष्ट दस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति है। एक हजार वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल से रहित स्थिति कर्मनिषेक है (उदययोग्य है)। भगवन् ! पुरुषवेद किस प्रकार का कहा गया हैं ? गौतम ! वन की अग्निज्वाला के समान है। यह पुरुष का अधिकार पूरा हुआ। विवेचन-पुरुषवेद की जघन्य स्थिति आठ वर्ष की है क्योंकि इससे कम स्थिति के पुरुषवेद के बंध के योग्य अध्यवसाय ही नहीं होते। उत्कर्ष से उस की स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की है। स्थिति दो प्रकार की कही गई है-(१) कर्मरूप से रहने वाली और (२) अनुभव में आने वाली। यहां जो स्थिति कही गई है वह कर्म-अवस्थान रूप है। अनुभवयोग्य जो स्थिति होती है वह अबाधाकाल से रहित होती है। अबाधाकाल पूरा हुए बिना कोई भी कर्म अपना फल नहीं दे सकता। अबाधाकाल का प्रमाण यह बताया है कि जिस कर्म की उत्कृष्ट स्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की होती है उसकी अबाधा उतने ही सौ वर्ष की होती है। पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थिति दस कोडाकोडी सागरोपम की हैं, अतः उसकी अबाधा दस सौ (एक हजार) वर्ष होती है। अबाधाकाल से रहित स्थिति ही अनुभवयोग्य होती है-यह कर्मनिषेक है अर्थात् कर्मदलिकों की उदयावलिका में आने की रचनाविशेष है। · पुरुषवेद को दावाग्नि-ज्वाला समान कहा है अर्थात् वह प्रारम्भ में तीव्र कामाग्नि वाला होता है और शीघ्र शान्त भी हो जाता है। नपुंसक निरूपण ५८. से किं तं णपुंसका? णपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तं जहा–नेरइय-नपुंसका, तिरिक्खजोणिय-नपुंसका, मणुस्सजोणिय-नपुंसका। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र से किं तं नेरइयनपुंसका? नेरइयनपुंसका सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहारयणप्पभापुढविनेरइयनपुंसका, सक्करपभापुढविनेरइयनपुंसका, जाव अहेसत्तमपुढविनेरइयनपुंसका। से तं नेरइयनपुंसका। से किं तं तिरिक्खजोणियनपुंसका ? तिरिक्खजोणियनपुंसका पंचविहा पण्णत्ताएगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, तेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, चउरिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका, पंचिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका। से किं तं एगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका? एगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा पुढविकाइयएगिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका जाव वणस्सइकाइयतिरिक्खजोणियनपुंसका। सेत्तं एगिदियतिरिक्खजोणियनपुंसका। से किं तं बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका? बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका अणेगविहा पण्णत्ता । से त्तं बेइंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका। एवं तेइंदिया वि, चउरिंदिया वि। से किं तं पंचिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका? पंचिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तं जहाजलयरा, थलयरा, खहयरा। से किं तं जलयरा? सो चेव पुव्वुत्तभेदो आसालियवज्जिओ भाणियव्यो। से तं पंचिंदियतिरिक्खजोणियनपुंसका। से किं तं मणुस्सनपुंसका? मणुस्सनपुंसका तिविहा पण्णत्ता, तं जहाकम्मभूमगा, अकम्मभूमगा, अंतरदीवगा भेदो जाव भाणियव्यो। Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नपुंसक निरूपण] [१६३ [५९] भंते ! नपुंसक क्या हैं-कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! नपुंसक तीन प्रकार के हैं, यथा-१ नैरयिक नपुंसक, २ तिर्यक्योनिक नपुंसक और ३ मनुष्ययोनिक नपुंसक। नैरयिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? नैरयिक नपुंसक सात प्रकार के हैं, यथा-रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक नपुंसक, शर्कराप्रभापृथ्वी नैरयिक यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसक। तिर्यंचयोनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? तिर्यंचयोनिक नपुंसक पांच प्रकार के हैं, यथा-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक, द्वीन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक, त्रीन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक, चतुरिन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक और पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक। एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक पांच प्रकार के हैं, यथापृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यंचयोनिक नपुंसक। यह एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक का अधिकार हुआ। भंते ! द्वीन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! अनेक प्रकार के हैं। यह द्वीन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक का अधिकार हुआ। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय का कथन करना। पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? वे तीन प्रकार के हैं-जलचर, स्थलचर और खेचर। जलचर कितने प्रकार के हैं ? वही पूर्वोक्त भेद आसालिक को छोड़कर कहने चाहिए। ये पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक का अधिकार हुआ। भंते ! मनुष्य नपुंसक कितने प्रकार के हैं ? वे तीन प्रकार के हैं, यथा-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपिक पूर्वोक्त भेद कहने चाहिए। विवेचन-पुरुष सम्बन्धी वर्णन पूरा करने के पश्चात् शेष रहे नपुंसक के सम्बन्ध में यहाँ भेद-प्रभेद सहित निरूपण किया गया है। नपुंसक के तीन भेद गति की अपेक्षा हैं-नारकनपुंसक, तिर्यंचनपुंसक और मनुष्यनपुंसक। देव नपुंसक नहीं होते। नारक नपुंसकों के नारकपृथ्वियों की अपेक्षा से सात भेद बताये हैं१. रत्नप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, २. शर्कराप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, ३. बालुकाप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, ४. पंकप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, ५. धूमप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक, ६. तमःप्रभापृथ्वीनारक नपुंसक और ७. अधःसप्तमपृथ्वीनारक नपुंसक । तिर्यंचयोनिक नपुंसक के जाति की अपेक्षा से पांच भेद बताये हैं-एकेन्द्रियजाति नपुंसक, द्वीन्द्रियजाति Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नपुंसक, त्रीन्द्रियजाति नपुंसक, चतुरिन्द्रियजाति नपुंसक और पंचेन्द्रियजाति नपुंसक। - एकेन्द्रियजाति नपुंसको के पांच भेद हैं-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय और वनस्पतिकाय नपुंसक। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय नपुंसकों के भेद अनेक प्रकार के हैं। प्रथम प्रतिपत्ति में इनके जो भेद-प्रभेद बताये हैं, वे सब यहाँ कहने चाहिए। पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसक के तीन भेद-जलचर नपुंसक, स्थलचर नपुंसक और खेचर नपुंसक हैं। इनके अवान्तर भेद-प्रभेद प्रथम प्रतिपत्ति के अनुसार कहने चाहिए। केवल उरपरिसर्प में आसालिका का अधिकार नहीं कहना चाहिए। क्योंकि आसालिका चक्रवर्ती के स्कन्धावार आदि में कभी-कभी उत्पन्न होते है और अन्तर्मुहूर्त मात्र आयु वाले होते हैं अतः उनकी यहाँ विवक्षा नहीं है। मनुष्य नपुंसक तीन प्रकार के हैं-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्दीपिक नपुंसक। इनके भेदप्रभेद प्रथम प्रतिपत्ति के अनुसार कहने चाहिए। नपुंसक की स्थिति ५९. [१] णपुंसगस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। णेरइय नपुंसगस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। सव्वेसिं ठिई भाणियव्वा जाव अधेसत्तमपुढविनेरइया। तिरियजोणिय णपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी।। एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साइं। पुढविकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा!जहन्नेणंअंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वावीसं वाससहस्साइं।सव्वेसिं एगिंदिय नपुंसकाणं ठिती भाणियव्वा। बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदिय णपुंसगाणं ठिई भाणियव्वा।। पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। एवं जलयरतिरिक्ख-चउप्पद-थलयर-उरगपरिसप्प-भुयगपरिसप्प-खहयर तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं सव्वेसिं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडी। मणुस्स णपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडी। धम्मचरणं पडुच्च Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नपुंसक की स्थिति ] जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी | कम्मभूमग भरहेरवय-पुव्वविदेह - अवरविदेह मणुस्सणपुंसगस्स वि तहेव । अकम्मभूमग मणुस्सणपुंसगस्स णं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं वि अंतोमुहुत्तं । साहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । एवं जाव अंतरदीवगाणं। [ ५९ ] भगवन् ! नपुंसक की कितने काल की स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । भगवन् ! नैरयिक नपुंसक की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम । सब नारक नपुंसकों की स्थिति कहनी चाहिए अधः सप्तमपृथ्वीनारक नपुंसक तक । भगवन् ! तिर्यक्योनिक नपुंसक की स्थिति कितनी है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । भगवन् ! एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्स से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष । [ १६५ भंते ! पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक की स्थिति कितनी कही है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीस हजार वर्ष । सब एकेन्द्रिय नपुंसकों की स्थिति कहनी चाहिए । द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसकों की स्थिति कहनी चाहिए । भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यक योनिक नपुंसक की कितनी स्थिति कही गई है ? गौतम् ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । इसी प्रकार जलचरतिर्यंच, चतुष्पदस्थलचर, उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प, खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक इन सबकी जघन्य से अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट पूर्वकोटि स्थिति है । भगवन् ! मनुष्य नपुंसक की स्थिति कितनी कही है ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि स्थिति । कर्मभूमिक भरत - एरवत, पूर्वविदेह - पश्चिमविदेह के मनुष्य नपुंसक की स्थिति भी उसी प्रकार कहनी चाहिए । भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की कितनी स्थिति कही है ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से भी अन्तर्मुहूर्त । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से देशोन पूर्वकोटि । इसी प्रकार अन्तद्वीपिक मनुष्य नपुंसकों तक की स्थिति कहनी Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चाहिए। विवेचन-नपुंसकाधिकार में उसके भेद-प्रभेद बताने के पश्चात् उसकी स्थिति का निरूपण इस सूत्र में किया गया है। सामान्यतया नपुंसक की जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। जघन्य अन्तर्मुहूर्त की स्थिति तिर्यंच और मनुष्य नपुंसक की अपेक्षा से है और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम भी स्थिति सप्तमपृथ्वी नारक नपुंसक की अपेक्षा से है। विशेष विवक्षा में प्रथम नारक नपुंसकों की स्थिति कहते हैं । सामान्यतः नैरयिक नपुंसक की जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की है। विशेष विवक्षा में अलग-अलग नरकपृथ्वियों के नारकों को स्थिति निम्न है नारक नपुंसकों की स्थिति नारकपृथ्वी नपुंसक का नाम जघन्य उत्कृष्ट रत्नप्रभानारक नपुंसक दस हजार वर्ष एक सागरोपम शर्कराप्रभानारक नपुंसक एक सागरोपम तीन सागरोपम बालुकाप्रभानारक नपुंसक तीन सागरोपम सात सागरोपम पंकप्रभानारक नपुंसक सात सागरोपम दस सागरोपम धूमप्रभानारक नपुंसक दस सागरोपम सत्रह सागरोपम तमःप्रभानारक नपुंसक सत्रह सागरोपम बाबीस सागरोपम अधःसप्तमनारक नपुंसक बावीस सागरोपम तेतीस सागरोपम Nmo 39 सामान्यतः तिर्यंच नपुंसकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। तिर्यंच नपुंसकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त तिर्यक्नपुंसकों के भेद समुच्चय एकेन्द्रिय नपुंसक पृथ्वीकाय नपुंसक अप्काय नपुंसक तेजस्काय नपुंसक वायुकायनपुंसक वनस्पतिकाय नपुंसक द्वीन्द्रिय नपुंसक त्रीन्द्रिय नपुंसक उत्कृष्ट बाबीस हजार वर्ष बावीस हजार वर्ष सात हजार वर्ष तीन अहोरात्रि तीन हजार वर्ष दस हजार वर्ष बारह वर्ष उनपचास अहोरात्रि Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: कायस्थिति (नपुंसकों की संचिट्ठणा)] [१६५ अन्तर्मुहूर्त छह मास पूर्वकोटि चतुरिन्द्रिय नपुंसक सामान्य पंचेन्द्रिय तिर्यंच नपुंसक जलचर , , नपुंसक स्थलचर, खेचर , , नपुंसक मनुष्य नपुंसकों की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट पूर्वकोटि पूर्वकोटि देशोन पूर्वकोटि पूर्वकोटि देशोन पूर्वकोटि पूर्वकोटि देशोन पूर्वकोटि मनुष्य नपुंसकों के भेद समुच्चय मनुष्य नपुंसक कर्मभूमि मनुष्य नपुंसक क्षेत्र से कर्मभूमि मनुष्य नपुंसक धर्माचरण से ४. भरत-एरवत कर्म. म. न. क्षेत्र से , , धर्माचरण से ६. पूर्वविदेह मनुष्य नपुं. क्षेत्र से पश्चिमविदेहं मनुष्य नपुं. धर्माचरण से अकर्मभूमि मनुष्य नपुंसक (जन्म से) (केवल संमूर्छिम होते हैं,गर्भज नहीं। युगलियों में नपुंसक नहीं होते) ९. अकर्मभूमि मनुष्य नपुंसक संहरण से १०. हैमवत हैरण्यवत म. नपुंसक जन्म से , संहरण से १२. हरिवर्ष रम्यकवर्ष म. नपुंसक जन्म से " , संहरण से १४. देवकुरु उत्तरकुरु मं नपुंसक जन्म से । १५. , , संहरण से बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्वकोटि बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्वकोटि बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्वकोटि बृहत्तर अन्तर्मुहूर्त देशोन पूर्वकोटि इस प्रकार नारक नपुंसक, तिर्यक् नपुंसक और मनुष्य नपुंसकों की स्थिति बताई गई है। कायस्थिति (नपुंसकों की संचिट्ठणा) ५९. [२] णपुंसए णं भंते ! णपुंसए त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं तरुकालो । इय पुंसणं भंते ! ? गोयमा ! जहन्त्रेणं दसवाससहस्साइं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं । एवं पुढवीए ठिई भाणियव्वा । तिरिक्खजोणिय णपुंसए णं भंते० ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं एगिंदिय णपुंसकस्स, वणस्सइकाइयस्स, वि एवमेव । सेसाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखिज्जं कालं, असंखेज्जाओ उस्सप्पिणि-ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ असंखेज्जा लोया । बेइंदिय तेइंदिय चउरिंदिय नपुंसकाण य जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्त उक्कोसेणं संखेज्जं कालं । पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसकाणं णं भंते ! ० ? गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं । एवं जलयरतिरिक्ख चउप्पद थलयर उरगपरिसप्प भुयगपरिसप्प महोरगाण वि । मस्स णपुंसकस्स णं भंते ! ० ? गोयमा ! खेत्तं पडुच्च जहन्त्रेण अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं पुव्वकोडिपुहुत्तं । धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । एवं कम्मभूमग भरहेरवय- पुव्वविदेह - अवरविदेहेसु वि भाणियव्वं । अकम्मभूमक मणुस्स णपुंसए णं भंते ! ० ? गोयमा ! जम्भणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं मुहुत्तपुहुत्तं । साहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं देसूणा पुव्वकोडी । एवं सव्वेसिं जाव अंतरदीवगाणं । [५९] (२) भगवन् ! नपुंसक, नपुंसक के रूप में निरन्तर कितने काल तक रह सकता है ? गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। भंते! नैरयिक नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम तक। इस प्रकार सब नारकपृथ्वियों की स्थिति कहनी चाहिए। भंते! तिर्यक्ोनिक नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहुर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल, इस प्रकार एकेन्द्रिय नपुंसक और वनस्पतिकायिक नपुंसक के विषय में जानना चाहिए। शेष पृथ्वीकाय आदि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्यातकाल तक रह सकते हैं। इस असंख्यातकाल में असंख्येय उत्सर्पिणियां और अवसर्पिणियां (काल की अपेक्षा) बीत जाती हैं और क्षेत्र की अपेक्षा असंख्यात लोक के आकाश प्रदेशों का अपहार हो सकता है । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति:कायस्थिति (नपुंसकों की संचिट्ठणा)] [१६९ द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसक जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल तक रह सकते भंते ! पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक के लिए पृच्छा ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व पर्यन्त रह सकते हैं। इसी प्रकार जलचर तिर्यक्योनिक, चतुष्पद स्थलचर उरपरिसर्प, भुजपरिसर्प और महोरग नपुंसकों के विषय में भी समझना चाहिए। भगवन् ! मनुष्य नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटिपृथक्त्व। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि। इसी प्रकार कर्मभूमि के भरत-ऐरवत, पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह नपुंसकों के विषय में भी कहना चाहिए। भंते ! अकर्मभूमिक मनुष्य-नपुंसक के विषय में पृच्छा ? गौतम ! जन्म की अपेक्षा से जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट मुहूर्तपृथक्त्व । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि तक उसी रूप में रह सकते हैं। विवेचन-पूर्वसूत्र में नपुंसकों की भवस्थिति बताई गई थी। इस सूत्र में उनकी कायस्थिति बताई गई है। कायस्थिति का अर्थ है उस पर्याय को छोड़े बिना लगातार उसी में बना रहना। सतत रूप से उस पर्याय में भवस्थिति को कायस्थिति भी कहते हैं और संचिट्ठणा भी कहते हैं। सामान्य विवक्षा में नपुंसक रूप में उस पर्याय को छोड़े बिना लगातार जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल तक रह सकता है। एक समय की स्पष्टता इस प्रकार है-कोई नपुंसक उपशमश्रेणी पर चढ़ां और अवेदक होने के बाद उपशमश्रेणी से गिरा। नपुंसकवेद का उदय हो जाने पर एक समय के अनन्तर मर कर देव हो गया और पुरुषवेद का उदय हो गया। इस अपेक्षा से नपुंसकवेद जघन्य से एक समय तक रहा। उत्कर्ष से नपुंसकवेद वनस्पतिकाल तक रहता है। वनस्पतिकाल आवलिका के असंख्येय भाग में जितने समय हैं, उतने पुद्गलपरावर्तकाल का होता है। तथा इस काल में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां बीत जाती हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से कहें तो एक समय में एक आकाश-प्रदेश का अपहार करने पर अनन्त लोकों के आकाश प्रदेशों का अपहार इतने काल में हो सकता है।' नैरयिक नपुंसक की कायस्थिति की विचारणा में जो उनकी स्थिति है वही जघन्य और उत्कर्ष से उनकी अवस्थिति (संचिट्ठणा) है। क्योंकि कोई नैरयिक मरकर निरन्तर नैरयिक नहीं होता, अतः भवस्थिति ही उनकी कायस्थिति जाननी चाहिए। भवस्थिति से अतिरिक्त उनमें कायस्थिति संभव नहीं है। १. अणंताओ उस्सप्पिणी ओसाप्पिणी कालओ, खेत्तओ अणंता लोया, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा-वणस्सइ कालो। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र सामान्य तिर्यंच नपुंसकों की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है । अन्तर्मुहूर्त बाद मरकर दूसरी गति में जाने से या दूसरे वेद में हो जाने से जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त है । उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है, जिसका स्वरूप ऊपर बताया गया है। १७० ] विशेष विवक्षा में एकेन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है । पृथ्वी कायिक एकेन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल है, ' जो असंख्येय उत्सर्पिणियों और असंख्येय अवसर्पिणियों प्रमाण है और क्षेत्र से असंख्यात लोकों के आकाश प्रदेशों के अपहार तुल्य है । इसी प्रकार अप्कायिक, तेजस्कायिक और वायुकयिक की कायस्थिति भी कहनी चाहिए । वनस्पति की कायस्थिति वही है जो सामान्य एकेन्द्रिय की कायस्थिति बताई गई है । अर्थात् जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । द्वीन्द्रिय नपुंसक की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से संख्यातकाल है। यह संख्यातकाल संख्येय हजार वर्ष का समझना चाहिए। इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय नपुंसकों की कायस्थिति भी कहनी चाहिए । पंचेन्द्रियतिर्यक् नपुंसक की कायस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व की है । इसमें निरन्तर सात भव तो पूर्वकोटि आयु के नपुंसक भवों का अनुभव करने की अपेक्षा से हैं। इसके बाद अवश्य वेद का और भव का परिवर्तन होता है। इसी प्रकार जलचर, स्थलचर, खेचर नपुंसकों के विषय में भी समझना चाहिए । सामान्यतः मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति भी इसी तरह - अर्थात् जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से पूर्वकोटिपृथक्त्व है। कर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटिपृथक्त्व है । धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय, उत्कृष्ट देशोन पूर्वकोटि है । भावना पूर्ववत् । इसी तरह भरत - ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक की कायस्थिति और पूर्वविदेह - पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य - नपुंसक की कायस्थिति भी जाननी चाहिए । सामान्य से अकर्मभूमिक मनुष्य- नपुंसक की कायस्थिति जन्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है । इतने से काल में वे कई बार जन्म-मरण करते हैं। उत्कर्ष से अन्तर्मुहूर्तपृथक्त्व है। इसके बाद वहाँ उसकी उत्पत्ति नहीं होती । संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि है । हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु, उत्तरकुरु, अन्तर्द्वीपिक मनुष्य नपुंसकों की कायस्थिति भी इसी तरह की जाननी चाहिए। यह कायस्थिति का वर्णन हुआ। १. उक्कोसेण असंखेज्जं कालं असंखेज्जाओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणिओ कालओ खेत्तेओ असंखिज्जा लोगा । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: अन्तर] [१७१ अन्तर [३] नपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोवमसयपुहुत्तं सातिरेगं। णेरइय नपुंसकस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तरुकालो। रयणप्पभापुढवी नेरइय णपुंसकस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तरुकाओ। एवं सव्वेसिं जाव अधेसत्तमा। तिरिक्खजोणिय णपुंसगस्स जहन्नेणंअंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहुत्तं सातिरेगं। एगिंदिय तिरिक्खजोणियणपुंसकस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणंदो सागरोवमसहस्साई संखेज्जवासमब्भहियाई। पुढवि-आउ-तेउ-वाऊणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। वणस्सइकाइयाणंजहन्नेणंअंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेजंकालंजाव असंखेज्जा लोया। सेसाणं बेइंदियादीणं जाव खहयराणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। मणुस्सणपुंसकस्सखेत्तं पडुच्च जहन्नेणंअंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवड्डपोग्गलपरियट्टे देसूणं। एवं कम्मभूमगस्स वि भरहेरवय-पुव्वविदेह-अवरविदेहकस्स वि। अकम्मभूमक मणुस्स णपुंसकस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जम्मणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।संहरणं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो एवं जाव अंतरदीवग त्ति। [५९] (३) भगवन् ! नपुंसक का कितने काल का अन्तर होता है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से सागरोपमशतपृथक्त्व से कुछ अधिक। भगवन् ! नैरयिक नपुंसक का अन्तर कितने काल का है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल। रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसक तक कहना चाहिए। तिर्यक्योनि नपुंसक का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व। एकेन्द्रिय तिर्यक्योनि नपुंसक का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट संख्यातवर्ष अधिक दो हजार सागरोपम। पृथ्वी-अप्-तेजस्काय और वायुकाय का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र है। वनस्पतिकायिकों का जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येयकाल - यावत् असंख्येयलोक। शेष रहे द्वीन्द्रिय यावत् खेचर नपुंसकों का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिका ल 1 मनुष्य नपुंसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्ष जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। धर्मार की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कृष्ट अनन्तकाल यावत् देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त । इसी प्रकार कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का, भरत - एरवत - पूर्वविदेह - पश्चिमविदेह मनुष्य नपुंसक का भी कहना चाहिए । भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर कितने काल का होता है ? गौतम ! जन्म को लेकर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल । संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल, इस प्रकार अन्तद्वीपिक नपुंसक तक का अन्तर कहना चाहिए । विवेचन - नपुंसकों की भवस्थिति और कायस्थिति बताने के पश्चात् इस सूत्र में उनका अन्तर बताया गया है। अर्थात् नपुंसक, नपुंसकपर्याय को छोड़ने पर पुन: कितने काल के पश्चात् नपुंसक होता है। सामान्यतः नपुंसक का अन्तर बताते हुए भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से कुछ अधिक सागरोपमशतपृथक्त्व का अन्तर होता है। क्योंकि व्यवधान रूप पुरुषत्व और स्त्रीत्व का कालमान इतना ही होता है। जैसा कि संग्रहणीगाथाओं में कहा है - स्त्री और नपुंसक की संचिट्ठणा (कायस्थिति) और पुरुष का अन्तर जघन्य से एक समय है तथा पुरुष की संचिट्ठणा और नपुंसक का अंतर उत्कर्ष से सागरपृथक्त्व- (पदैकदेशे पदसमुदायोपचार से) सागरोपमशतपृथक्त्व है । ' सामान्य विवक्षा में नैरयिक नपुंसक का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। सप्तमनारकपृथ्वी से निकलकर तन्दुलमत्स्यादि भव में अन्तर्मुहूर्त तक रह कर पुनः सप्तमपृथ्वीनारक में जाने की अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त कहा गया है । उत्कृष्ट अन्तर वनस्पतिकाल है । यह नरकभव से निकलकर परम्परा से निगोद में अनन्तकाल रहने की अपेक्षा से समझना चाहिए । इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वी के नपुसंकों का अन्तर समझ लेना चाहिए। सामान्य विवक्षा में तिर्यक्योनि नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से सागरोपमशतपृथक्त्व है। पूर्ववत् स्पष्टीकरण जानना चाहिए । विशेष विवक्षा में सामान्यतः एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (क्योंकि द्वीन्द्रियादिकाल का व्यवधान इतना ही है) और उत्कर्ष से संख्येय वर्ष अधिक दो हजार सागरोपम है, क्योंकि व्यवधान रूप त्रसकाय की इतनी ही कालस्थिति है । इतने व्यवधान के बाद पुनः एकेन्द्रिय होता ही है । १. इत्थिनपुंसा संचिट्ठणेसु पुरिसंतरे य समओ उ । पुरिसनपुंसा संचिट्ठणंतरे साहुतं ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति नपुंसकों का अल्पबहुत्व] [१७३ पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। इसी तरह अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक एकेन्द्रिय नपुंसकों का भी अन्तर कहना चाहिए। वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय नपुंसकों का जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से असंख्येय काल है। यह असंख्येय काल, काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी रूप होता है और क्षेत्र से असंख्येय लोक प्रमाण होता है। इसका तात्पर्य यह है कि असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का प्रतिसमय एक एक प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में उन प्रदेशों का सम्पूर्ण अपहार हो जाय, उतने काल को अर्थात् उतनी उत्सर्पिणियों और अवसर्पिणियों का वह असंख्येय काल होता है। वनस्पतिभव से छूटने पर अन्यत्र उत्कृष्ट से इतने काल तक जीव रह सकता है। इसके अनन्तर संसारी जीव नियम से पुनः वनस्पतिकायिक में उत्पन्न होता है। द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसकों का अन्तर, जलचर, स्थलचर, खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसकों का अन्तर और सामान्यतः मनुष्य नपुंसक का अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त काल है। वह अनन्त काल, वनस्पतिकाल है, जिसका स्वरूप पहले बताया गया है। ___ कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का अन्तर क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। धर्माचरण की अपेक्षा से जघन्य से एक समय क्योंकि सर्वजघन्य लब्धिपात का काल एक समय का ही होता है। उत्कर्ष से अनन्तकाल। इस अनन्तकाल में अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां बीत जाती हैं और क्षेत्र से असंख्येय लोकाकाश के प्रदेशों का अपहार हो जाता है। और यह देशोन अर्धपुद्गलपरावर्त जितना है। इसी तरह भरत, ऐरवत, पूर्वविदेह और अपरविदेह कर्मभूमिक नपुंसकों का क्षेत्र और धर्माचरण को लेकर जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। ___ अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का जन्म की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त (अन्य गति में जाने की अपेक्षा इतना व्यवधान होता है) और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर होता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल है। किसी ने कर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक का अकर्मभूमि में संहरण किया, वह अकर्मभूमिक हो गया। थोड़े समय बाद तथाविध बुद्धिपरिवर्तन से पुनः कर्मभूमि में संहृत कर दिया, वहाँ अन्तर्मुहूर्त रोक कर पुनः अकर्मभूमि में ले आया, इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त का अन्तर होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल। विशेष विवक्षा में हैमवत, हैरण्यवत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक का और अन्तर्वीपिक मनुष्य नपुंसक का जन्म और संहरण की अपेक्षा से जघन्य और उत्कर्ष से अन्तर कहना चाहिए। नपुंसकों का अल्पबहुत्व ६०.[१] एतेसिंणं भंते ! णेरइयनपुंसकाणं, तिरिक्खनपुंसकाणं, मणुस्सनपुंसकाण Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला व विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सणपुंसका, नेरइयणपुंसगा असंखेजगुणा,तिरिक्खजोणियनपुंसका अणंतगुणा। [२] एतेसिंणं भंते ! रयणप्पहापुढविणेरइयणपुंसकाणं जाव अहेसत्तमपुढविणेरइय णपुंसकाण य कयरे कयरेहितो जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढवि-नेरइय णपुंसका, छट्ठपुढवि णेरइय नपुंसका असंखेज्जगुणा जाव दोच्चपुढविणेरइयणपुंसका असंखेज्जगुणा। इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए णेरइयणपुंसका असंखेजगुणा। [३]एतेसिंणंभंते ! तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, एगिंदिय तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, पुढविकाइय जाव वणस्सइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं, बेइंदिय-तेइंदियचउरिंदिय-पंचेंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसकाणं जलयराणं थलयराणं खहयराण य कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणियणपुंसगा, थलयर तिरिक्खजोणिय नपुंसका संखेज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणिय नपुंसका संखेज्जगुणा, चरिंदय तिरिक्खजोणिय नपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका विसेसाहिया, बेइंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका विसेसाहिया, तेउक्काइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका असंखेज्जगुणा, पुढविक्काइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका विसेसाहिया, एवं आउ-वाउ-वणस्सइकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका अणंतगुणा। [४]एतेसिंणं भंते ! मणुस्सणपुंसकाणं, कम्मभूमगणपुंसकाणं अकमभूमगणपुंसकाणं अंतरदीवगणपुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा जाव विसेसाहिया वा ? गोयमा ! सव्वत्थोवा अंतरदीवग अकम्मभूमग मणुस्स णपुंसका, . देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमगा दोवि संखेज्जगुणा एवं जाव पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमगमणुस्स नपुंसका दो वि संखेज्जगुणा। ५] एतेसिं णं भंते ! णेरइय णपुंसकाणं, रयणप्पभापुढवि नेरइय नपुंसकाणं जाव अधेसत्तमपुढविणेरइयणपुंसकाणं, तिरिक्खजोणिय नपुंसकाणं, एगिंदिय-तिरिक्खजोणियाणं Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नपुंसकों का अल्पबहुत्व] [१७५ पुढविकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं जलयराणं थलयराणं खहयराणं मणुस्स णपुंसकाणं कम्मभूमिगाणं अकम्मभूमिगाण अंतरदीवगाण यकयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढवि णेरइय नपुंसका, छट्ठ पुढवि नेरइय णपुंसगा असंखेज्जगुणा जाव दोच्चं पुढवि णेरइय नपुंसका असंखेज्जगुणा, अंतरदीवग मणुस्स णपुंसका असंखेज्जगुणा, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमग मणुस्स णपुंसका दो वि संखेज्जगुणा, जाव पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्स णपुंसका दो वि संखेज्जगुणा, रयणप्पभा पुढवि णेरइय णपुंसका असंखेज्जगुणा, खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसका असंखेज्जगुणा, थलयर पंचिं० तिरिक्खजोणिय नपुंसका असंखेज्जगुणा, जलयर पंचिं० तिरिक्खजोणिय नपुंसका असंखेज्जगुणा, चउरिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिय तिरिक्खजोणिय णपंसका विसेसाहिया, बेइंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका विसेसाहिया, तेउक्काइय एगिदिय ति० जो० णपुंसका असंखेजगुणा, पुढविकाइय एगिंदिय ति० जो० णपुंसका विसेसाहिया, आउक्काइय एगिंदिय ति० जो० णपुंसका विसेसाहिया, वाउक्काइय एगिदिय ति० जो० णपुंसका विसेसाहिया, वणस्सइकाइय एगिंदिय ति० जो० णपुंसका अणंतगुणा। [६०] (१) भगवन् ! इन नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्ययोनिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्य नपुंसक उनसे नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं। (२) भगवन् ! इन रत्नप्रभा पृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं। गौतम ! सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, यावत् दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक क्रमशः असंख्यात-असंख्यात गुण कहने चाहिए। उनसे इस रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण है। (३) भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक नपुंसकों में एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसकों में पृथ्वीकायिक यावत् Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसकों में, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसकों में, जलचरों में, स्थलचरों में, खेचरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक विशेषाधिक। उनसे अप्कायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं। (४) भगवन् ! इन मनुष्य नपुंसकों में, कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसकों में, अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसकों में और अन्तर्वीपों के मनुष्य नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अन्तीपिक मनुष्य नपुंसक, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण, इस प्रकार यावत् पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह के कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्येयगुण हैं। __ (५) हे भगवन् ! इन नैरयिक नपुंसक, रत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में, तिर्यंचयोनिक नपुंसकों में-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों में, पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसकों में, यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक् नपुंसकों में, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसकों में, जलचरों में, स्थलचरों में, खेचरों में, मनुष्य नपुंसकों में, कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसकों में, अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसकों में अन्तीपिक मनुष्य नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसक, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे यावत् दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे अन्तर्वीप के मनुष्य नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक म. नपुंसक दोनों संख्यातगुण, उनसे यावत् पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण, उनसे रत्नप्रभा के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक संख्यातगुण, उनसे जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक संख्यातगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नपुंसकों का अल्पबहुत्व] उनसे त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्काय एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकाय एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे अप्काय एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । [१७७ विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पांच प्रकार से अल्पबहुत्व बताया गया है। प्रथम प्रकार में नैरयिक, तिर्यक्योनिक और मनुष्य नपुंसकों का सामान्य रूप से अल्पबहुत्व है । दूसरे में नैरयिकों के सात भेदों का अल्पबहुत्व है। तीसरे प्रकार में तिर्यक्योनिक नपुंसकों के भेदों की अपेक्षा से अल्पबुहत्व है। चौथे प्रकार में मनुष्यों के भेदों की अपेक्षा से अल्पबहुत्व है और पांचवें प्रकार में सामान्य और विशेष दोनों प्रकार का मिश्रित अल्पबहुत्व है । (१) प्रथम प्रकार के अल्पबहुत्व में पूछा गया है कि नैरयिक नपुंसक, तिर्यक्योनिक नपुंसक और मनुष्य नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक है। इसके उत्तर में कहा गया है सबसे थोड़े मनुष्य नपुंसक हैं, क्योंकि वे श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती प्रदेशों की राशि - प्रमाण हैं । उनसे नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि वे अंगुलमात्र क्षेत्र की प्रदेशराशि के प्रथम वर्गमूल द्वितीय वर्गमूल से गुणित करने पर जो प्रदेशराशि होती है, उसके बराबर घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाश प्रदेश हैं, उनके बराबर हैं। नैरयिक नपुंसकों से तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं, क्योंकि निगोद के जीव अनन्त हैं । (२) नैरयिक नपुंसक भेद सम्बन्धी अल्पबहुत्व सबसे थोड़े सातवीं पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक हैं, क्योंकि इनका प्रमाण आभ्यन्तर श्रेणी के असंख्येयभागवर्ती आकाशप्रदेश राशितुल्य है । उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे पांचवी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे चौथी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, क्योंकि ये सभी पूर्व-पूर्व नैरयिकों के परिमाण की हेतुभूत श्रेणी के असंख्येयभाग की अपेक्षा असंख्येयगुण असंख्येयगुण श्रेणी के भागवर्ती नभः- प्रदेशराशि प्रमाण हैं । दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण लिनी Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रदेशराशि होती है, उसके बराबर घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने प्रमाण वाले हैं। प्रत्येक नरकपृथ्वी के पूर्व, उत्तर, पश्चिम दिशा के नैरयिक सर्वस्तोक हैं, उनसे दक्षिणदिशा के नैरयिक असंख्येयगुण हैं। पूर्व पूर्व की पृथ्वियों की दक्षिणदिशा के नैरयिक नपुंसकों की अपेक्षा पश्चानपूर्वी से आगे आगे की पृथ्वियों में उत्तर और पश्चिम दिशा में रहे हुए नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण अधिक हैं। प्रज्ञापनासूत्र में ऐसा ही कहा है । (३) तिर्यक्योनिक नपुंसक विषयक अल्पबहुत्व खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक् नपुंसक सबसे थोड़े, क्योंकि वे प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणीगत आकाश प्रदेशराशि प्रमाण हैं। उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण हैं, क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणिगत आकाश-प्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे जलचर नपुंसक संख्येयगुण हैं क्योंकि वे बृहत्तर प्रतर के असंख्येयभागवर्ती असंख्येय श्रेणिगत प्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे चतुरिन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे असंख्येय योजन कोटीकोटीप्रमाण आकाशप्रदेश राशिप्रमाण घनीकृत लोक की एक प्रादेशिक श्रेणियों में जितने आकाशप्रदेश हैं, उतने प्रमाण वाले हैं। उनसे त्रीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततर श्रेणिगत आकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं। उनसे द्वीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततम श्रेणिगत आकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं उनसे तेजस्कायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुंसक असंख्यातगुण हैं, क्योंकि वे सूक्ष्म और बादर मिलकर असंख्येय लोकाकाश प्रदेशप्रमाण हैं। उनसे अप्कायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततर असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उनसे वायुकायिक एके . ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, क्योंकि वे प्रभूततम असंख्येय लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। १. दिसाणुवायेण सव्वत्थोवा अहेसत्तमपुढविनेरइया पुरथिम पच्चत्थिम उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा ...........इत्यादि। -प्रज्ञापनासूत्र पद ३। Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नपुंसकों का अल्पबहुत्व] उनसे वनस्पतिकायिक एके. ति. यो. नपुंसक अनन्तगुण हैं, क्योंकि वे अनन्त लोकाकाशप्रदेशराशिप्रमाण हैं। (४) मनुष्यनपुंसकसंबंधी अल्पबहुत्व सपसे थोड़े अन्तद्वपिज मनुष्य- नपुंसक । ये संमूर्छिम समझने चाहिए, क्योंकि गर्भज मनुष्य नपुंसकों का वहाँ सद्भाव नहीं होता । कर्मभूमि से संहृत हुए हो भी सकते हैं। अन्तर्द्वीपिज मनुष्य नपुंसकों से देवकुरु- उत्तरकुरु अकर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक संख्येयगुण हैं, क्योंकि तद्गत गर्भजमनुष्य अन्तद्वीपिक गर्भजमनुष्यों से संख्येयगुण हैं, क्योंकि गर्भजमनुष्यों के उच्चार आदि में संमूर्छिम- मनुष्यों की उत्पत्ति होती है । स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं । उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे हैमवत-हैरण्यवत के अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे भरत - ऐरवत कर्मभूमि के मनुष्य नपुंसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में तुल्य हैं। उनसे पूर्वविदेह-पश्चिम विदेह कर्मभूमि के मनुष्य संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में दोनों परस्पर तुल्य हैं। सर्वत्र युक्ति पूर्ववत् जाननी चाहिए। (५) मिश्रित अल्पबहुत्व सबसे थोड़े अधः सप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुंसक, उनसे छठी, पांचवी, चौथी, तीसरी, दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक यथोत्तर असंख्येयगुण, उनसे अन्तर्द्वीपिक म. नपुंसक असंख्येयगुण ( संमूर्छिम मनुष्य की अपेक्षा), [ १७९ उनसे देवकुरु - उत्तरकुरु अकर्मभूमि के म. नपुंसक संख्येयगुण, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमि के म. नपुंसक संख्येयगुण, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमि के म. नपुंसक संख्येयगुण, उनसे भरत - एरवत कर्मभूमि के म. नपुंसक संख्येयगुण, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमि के म. नपुंसक संख्येयगुण हैं और स्वस्थान में परस्पर तुल्य हैं, उनसे रत्नप्रभा पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे खेचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे स्थलचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण हैं, उनसे जलचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्येयगुण हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक एके. तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्येयगुण हैं, उनसे पृथ्वी. अप्. वायुकायिक एके तिर्यक्योनिक नपुंसक यथोत्तर विशेषाधिक हैं, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । युक्ति सर्वत्र पूर्ववत् जाननी चाहिए । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नपुंसकवेद की बंधस्थिति और प्रकार ६१. णपुंसकवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा, पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणंबीसं सांगरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि यवाससहस्साइं अबाधा,अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेगो। णपुंसक वेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो! से त्तं णपुंसका। [६१] हे भगवन् ! नपुंसकवेद कर्म की कितने काल की स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से सागरोपम के / (दो सातिया भाग) भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम और उत्कृष्ट से बीस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति कही गई है। दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल से हीन स्थिति का कर्मनिषेक है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिक की रचना है। भगवन् ! नपुंसक वेद किस प्रकार का है ? हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! महानगर के दाह के समान (सब अवस्थाओं में धधकती कामाग्नि के समान) कहा गया है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नपुंसकवेद की बंधस्थिति कही गई है। स्थिति दो प्रकार की होती है१.बंधस्थिति और २. अनुभवयोग्य (उदयावलिका में आने योग्य) स्थिति। नपुंसकवेद की बंधस्थिति जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून एक सागरोपम का / भाग प्रमाण है। उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। यहाँ जघन्यस्थिति प्राप्त करने की जो विधि पूर्व में कही है, वह ध्यान में रखनी चाहिए। वह इस प्रकार है कि जिस प्रकृति की जो उत्कृष्ट स्थिति है, इसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर उस प्रकृति की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। यहाँ नपुंसकवेद की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है, उसमें सत्तर कोडाकोडी का भाग देने पर (शून्यं शून्येन पातयेत्-शून्य को शून्य से काटने पर) / सागरोपम लब्धांक होता है। इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर नपुंसकवेद की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। नपुंसकवेद का अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। अबाधाकाल प्राप्त करने का नियम यह है कि जिस कर्मप्रकृति की उत्कृष्टस्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की है, उतने सौ वर्ष की उसकी अबाधा होती है। बीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नपुंसकवेद की अबाधा बीस सौ वर्ष अर्थात् दो हजार वर्ष की हुई। बंधस्थिति में से अबाधा कम करने पर जो स्थिति बनती है वही जीव को अपना फल देती है अर्थात् उदय में आती है। इसलिए अबाधाकाल से हीन शेष स्थिति का कर्मनिषेक होता है अर्थात् Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [१८१ अनुभवयोग्य कर्मदलिकों की रचना होती है-कर्मदलिक उदय में आने लगते हैं। नपुंसकवेद की बंधस्थिति सम्बन्धी प्रश्न के पश्चात् गौतम स्वामी ने नपुंसकवेद का वेदन किस प्रकार का होता है, यह प्रश्न पूछा । इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! नपुंसकवेद का वेदन महानगर के दाह के समान होता है। जैसे किसी महानगर में फैली हुई आग की ज्वालाएँ चिरकाल तक धधकती रहती हैं तथा उत्कृष्ट होती हैं, उसी प्रकार नपुंसक की कामाग्नि चिरकाल तक धधकती रहती है और अतितीव्र होती है। वह आदि, मध्य और अन्त तक सब अवस्थाओं में उत्कृष्ट बनी रहती है। इस प्रकार नपुंसक सम्बन्धी प्रकरण पूरा हुआ। नवविध अल्पबहुत्व ६२.[१] एतेसिंणं भंते ! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? __ गोयमा ! सव्वत्थोवा पुरिसा, इत्थीओ संखिजगुणाओ, णपुंसगा अणंतगुणा। [२] एएसिं १ णं भंते ! तिरिक्खजोणि-इत्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाण यकयरेकयरहितोअप्पा वाबहुयावातुल्लावाविसेसाहियावा? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा, तिरिक्खजोणि-इत्थीओ असंखेज्जगुणाओ, तिरिक्खजोणियनपुंसमा अणंतगुणा। __ [३] एतेसिं णं भंते ! मणुस्सित्थीणं, मणुस्सपुरिसाणं, मणुस्सनपुंसकाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ संखेज्जगुणाओ, मणुस्सनपुंसका असंखेज्जगुंणा। [४] एतेसिंणं भंते ! देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयणपुसंकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ____गोयमा ! सव्वत्थोवा णेरइयणपुंसका, देवपुरिसा असंखेज्जगुणा देवित्थीओ संखेजगुणाओ। [५] एतेसिं णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियनपुंसगाणं, मणुस्सित्थीणं, मणुस्सपुरिसाणं, मणुस्सनपुंसगाणं, देविस्थीणं, देवपुरिसाणं णेरइयणपुंसकाण य कयरे कयरेहितो, अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वात्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ, संखेज्जगुणाओ, मणुस्सणसगा १. 'एयासिंणं' ऐसा पाठ वृत्तिकार ने माना है। Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र असंखेज्जगुणा, णेरइयणपुंसका असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणियपुरिसा असंखेज्जगुणा, तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, देवपुरिसाअसंखेन्जगुणा, देवित्थियाओ संखेजगुणाओ, तिरिक्खजोणियणपुंसगा अणंतगुणा।। . [६] एतसिं णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं, जलयरीणं थलयरीणं खहयरीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं, जलयराणं थलयराणं खहयराणं तिरिक्खजोणियनपुंसगाणं एगिदियतिरिक्खजोणियणपुंसगाणं पुढविकाइय-एगिदिय-तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं जाव वणस्सइकाइय-एगिदिय तिरिक्खजोणियणपुंसकाणं, बेइंदिय-तिरिक्खजोणियणपुंसगाणं तेइंदिय० चरिंदिय० पंचेंदिय तिरिक्खजोणियणपुंसगाणंजलयराणं थलयराणंखहयराणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? । __गोयमा ! सव्वत्थोवा खहयरतिरिक्खजोणिय पुरिसा, खहयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणियपुरिसा संखेजगुणा, थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जलयरतिरिक्खजोणिय पुरिसा संखिज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, खहयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका असंखेज्जगुणा, थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसगा संखेज्जगुणा, जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय नपुंसगा संखेज्जगुणा, चउरिदिय तिरि० विसेसाहिया, तेइंदिय णपुंसका विसेसाहिया, बेइंदिया नपुंसका विसेसाहिया, तेउक्काय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका असंखेज्जगुणा, पुढवि० णपुंसका विसेसाहिया, आउ० विसेसाहिया, वाउ० विसेसाहिया, वणप्पइ० एगिंदिय णपुंसका अणंतगुणा। __[७] एतेसिंणं भंते ! मणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं, अकम्मभूमियाणंअंतरदीवियाणं, मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमकाणं अकम्मभूमकाणं अंतरदीवकाणं, मणुस्सनपुंसकाणं कम्मभूमाणं अकम्मभूमाणं अंतरदीवकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा? __गोयमा ! अंतरदीवगा मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसा य, एते णं दुन्नि वि तुल्ला वि सव्वत्थोवा, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसा एते णं दोन्नि वि तुल्ला संखेजगुणा, हरिवास-रम्यकवास-अकम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसा य एते णं दोन्नि वि तुल्ला संखेज्जगुणा, हेमवत-हेरण्यवत अकम्मभूमक मणुस्सिस्थियाओ मणुस्स पुरिसा य दो वि तुल्ला संखेज्जगुणा, भरहेरवत-कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [१८३ भरहेरवत कम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ दो वि संखेज्जगुणाओ। पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दो वि संखेज्जगुणा, पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमग मणुस्सित्थियाओ दो वि संखेज्जगुणाओ, अंतरदीवग मणुस्सणपुंसका असंखेज्जगुणा, देवकुरु-उत्तरकुरु अकम्मभूमगमणुस्स नपुंसका दो वि संखेज्जगुणा, तहेव जाव पुव्वविदेह कम्मभूमक मणुस्सणपुंसका दो वि संखेज्जगुणा। [८] एतासिं णं भंते ! देवित्थीणं भवणवासिणीणं वाणमंतरिणीणं जोइसिणीणं वेमाणिणीणं; देवपुरिसाणं भवणवासीणं जाव वेमाणियाणं सोहम्मकाणं जाव गेवेज्जकाणं अणुत्तरोववाइयाणं,णेरइयणपुंसकाणं रयप्पभापुढविणेरइयणपुंसगाणं जाव अहेसत्तमपुढवि नेरइयाणं कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? - गोयमा ! सव्वत्थोवा अणुत्तरोववाइयदेव पुरिसा, उवरिम गेवेग्जदेव पुरिसा संखेज्जगुणा, तं चेव जाव आणए. कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा; अहेसत्तमाए पुढवीए णेरइय णपुंसका असंखेज्जगुणा, छट्ठीए पुढवीए णेरइय नपुंसका असंखेजगुणा, सहस्सारे कप्पे देव पुरिसा असंखेज्जगुणा, महासुक्के कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, पंचमाए पुढवीए णेरइय णपुंसका असंखेज्जगुणा, लंतए कप्पे देवा असंखेज्जगुणा, चउत्थीए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, तच्चाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, दोच्चाए पुढवीए नेरइया असंखेज्जगुणा, . ईसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवित्थियाओ संखेजगुणाओ, सोहम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणाओ, सोहम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, भवणवासि देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, भवणवासि देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, इमीसे रयप्पभापुढवीए नेरइया असंखेजगुणा, Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वाणमंतर देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, वाणमंतर देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोतिसिय देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जोतिसिय देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ। [९] एतेरसिं णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं जलयरीणं थलयरीणं खहयरीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं, जलयराणं थलयराणंखहयराणं तिरिक्खजोणिय नपुंसगाणं, एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगाणं पुढविकाइयएगिंदिय ति० जो० नपुंसकाणं, आउक्काय एगिंदिय ति० जो० णपुंसगाणं जाव वणस्सइकाइय एगिंदिय ति० जो० णपुंसगाणं, बेइंदिय ति० जो० णपुंसगाणं, तेइंदिय ति० जो० णपुंसकाणं, चउरिंदिय ति० जो० णपुंसगाणं, पंचिंदिय ति० जो० णपुंसगाणंजलयराणं थलयराणंखहयराणंमणुस्सित्थीणं कम्मभूमियाणं अकम्मभूमियाणं अंतरदीवियाणं मणुस्सपुरिसाणं कम्मभूमगाणं अकम्मभूमगाणंअंतरदीवयाणं मणुस्सणपुंसगाणं कम्मभूमकाणं अकम्मभूमकाणं अंतरदीवयाणं देवित्थीणं भवणवासिणीणं वाणमंतरिणीणं जोतिसिणीणं वेमाणिणीणं देवपुरिसाणं भवणवासिणीणं वाणमंतराणंजोतिसियाणं वेमाणियाणं सोहम्मकाणं जाव गेवेज्जगाणं अणुत्तरोववाइयाणं नेरइयणपुंसकाणं रयणप्पमापुढविनेरइय नपुंसकाणं जाव अहेसत्तमपुढविणेरइय णपुंसकाण य कयरे कयरेहिंतो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! अंतरदीवग-अकम्मभूमग मणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य, एते णं दोवि तुल्ला सव्वत्थोवा, देवकुरु-उत्तरकुरु-अकम्मभूमग मणुस्सित्थिओ पुरिसाय, एतेणंदोवि तुल्ला संखेजगुणा, एवं हरिवास-रम्मगवास० अकम्मभूमग मणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य एए णं दोवि तुल्ला संखेज्जगुणा, एव' हेमवय-हेरण्यवय-अकम्मभूमगमणुस्सित्थीओ मणुस्सपुरिसा य एए णं दोवि तुल्ला संखेजगुणा, भरहेरवय कम्मभूमग मणुस्सपुरिसा दोवि संखेजगुणा, भरहेरवय कम्मभूमिगमणुस्सित्थिओ दोवि संखेज्जगुणाओ, पुव्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमक मणुस्सपुरिसा दोवि संखेज्जगुणा, पुष्वविदेह-अवरविदेह कम्मभूमक मणुस्सित्थियाओ दोवि संखेज्जगुणाओ, अणुत्तरोववाइय देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, उवरिमगेविज्जा देवपुरिसा संखेजगुणा, जाव आणए कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणा, अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइयणपुंसका असंखेजगुणा, छट्ठीए पुढवीए नेरइय नपुंसका असंखेज्जगुणा, सहस्सारे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नवविध अल्पबहुत्व] [१८५ महासुक्के कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, पंचमाए पुढवीए नेरइयनपुंसका असंखेज्जगुणा, लंतए कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, चउत्थीए पुढवीए नेरइय नपुंसका असंखेज्जगुणा, बंभलोए कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, तच्चए पुढवीए नेरइय णपुंसका असंखेज्जगुणा, माहिंदे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, सणंकुमारे कप्पे देवपुरिसा असंखेजगुणा, दोच्चाए पुढवीए नेरइय नपुंसका असंखेजगुणा, अंतरदीवग-अकम्मभूमग मणुस्सनपुंसका असंखेज्जगुणा, देवकुरु-उत्तरकुरु-अकम्मभूमग मणुस्सणपुंसका दो वि संखेजगुणा एवं जाव विदेह ईसाणे कप्पे देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, ईसाणे कप्पे देवित्थियाओ संखेज्जगुणा, सोहम्मे कप्पे देवपुरिसा संखेज्जगुणाओ, सोहम्मे कप्पे देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, भवनवासी देवपुरिसा असंखेज्जगुणा, भवनवासी देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयणपुसंका असंखेज्जगुणा, खहयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेज्जगुणा, खहयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, थलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेज्जगुणा, थलयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जलयर तिरिक्खजोणिय पुरिसा संखेज्जगुणा, जलयर तिरिक्खजोणित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, वाणमंतर देवपुरिसा संखेजगुणा, वाणमंतर देवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, जोइसिय देवपुरिसा संखेज्जगुणा, जोइसिदेवित्थियाओ संखेज्जगुणाओ, खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसगा संखेजगुणा, थलयर णपुंसका संखेज्जगुणा, जलयर णपुसंगा संखिज्जगुणा, Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चरिंदिय णपुंसका विसेसाहिया, तेइंदिय णपुंसका विसेसाहिया, बेइंदिय णपुंसका विसेसाहिया, तेउक्काइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका असंखेज्जगुणा, पुढविकाइय० णपुंसका विसेसाहिया, आउक्काइय० णपुंसका विसेसाहिया, वाउक्काइय० णपुंसका विसेसाहिया, वणप्फइकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिय णपुंसका अणंतगुणा। [६२] (१) भगवन् ! इन स्त्रियों में पुरुषों में और नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े पुरुष, स्त्रियां संख्यातगुणी और नपुंसक अनन्तगुण हैं। (२) भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों में, तिर्यक्योनिक पुरुषों में और तिर्यक्योनिक नपुंसकों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े तिर्यक्योनिक पुरुष, तिर्यक्योनिक स्त्रियां उनसे असंख्यातगुणी और उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं । (३) भगवन् ! इन मनुष्यस्त्रियों में, मनुष्यपुरुषों में और मनुष्यनपुंसकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्यपुरुष, उनसे मनुष्यस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण हैं। (४) भगवन् ! इन देवस्त्रियों में, देवपुरुषों में और नैरयिकनपुंसकों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े नैरयिकनपुंसक, उनसे देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे देवस्त्रियां असंख्यातगुणा है। (५) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों, तिर्यक्योनिकपुरुषों, तिर्यक्योनिक्नपुंसकों में, मनुष्यस्त्रियों, मनुष्यपुरुषों और नपुंसकों में, देवस्त्रियों, देवपुरुषों और नैरयिकनपुंसकों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े मनुष्यपुरुष, उनसे मनुष्यस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण, उनसे नैरयिकनपुंसक असंख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिकपुरुष असंख्यातगुण, Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [१८७ उनसे तिर्यक्योनिकस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे देवस्त्रियां संख्यातगुण, उनसे तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं। (६) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिकस्त्रियों-जलचरी, स्थलचरी, खेचरी, तिर्यक्योनिकपुरुष-जलचर, स्थलचर, खेचर, तिर्यंचयोनिक नपुंसक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुंसक, पृथ्वीकायिक एके.ति. यो. नपुंसक यावत् वनस्पतिकायिक एके. ति. यो. नपुंसक, द्वीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक, त्रीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक, चतुरिन्द्रिय ति. . यो. नपुंसक, पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक, जलचर, स्थलचर और खेचर नपुंसकों में कौन किससे कम, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े खेचर तिर्यक्योनिकपुरुष, उनसे खेचर तिर्यक्योनिकस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकपुरुष संख्यातगुण, उनसे स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे खेचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे स्थलचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्यातगुण, उनसे जलचर पंचे. तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्यातगुण, उनसे चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक विशेषाधिक, उनसे त्रीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक, उनसे द्वीन्द्रिय ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक, उनसे तेजस्कायिक एकेन्द्रिय ति. यो. नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे पृथ्वीकायिक एके. ति. यो. नपुसंक विशेषाधिक, उनसे अप्कायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वायुकायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं। [७] हे भगवन् ! इन मनुष्यस्त्रियों में कर्मभूमिक स्त्रियों, अकर्मभूमिक स्त्रियों और अन्तीपिक मनुष्यस्त्रियों में, मनुष्यपुरुषों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपकों में, मनुष्य नपुंसक-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और अन्तर्वीपिक नपुंसकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! अन्तर्वीपिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष-ये दोनों परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं, Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष-ये दोनों परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे हैमवत-हैरण्यवत अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष परस्पर तुल्य और संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-ऐरवत-कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुणी हैं, उनसे अन्तर्वीपिक मनुष्यनपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं, इसी तरह यावत् पूर्वविदेहकर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक, पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यनपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं। (८) भगवन् ! इन देवस्त्रियों में-भवनवासिनियों में, वाणव्यन्तरियों में, ज्योतिषीस्त्रियों में और वैमानिकस्त्रियों में, देवपुरुषों में भवनवासी यावत् वैमानिकों में, सौधर्मकल्प यावत् ग्रैवेयक देवों में अनुत्तरोपपातिक देवों में, नैरयिक नपुंसकों में-रत्नप्रभा नैरयिक नपुंसकों यावत् अधःसप्तमपृथ्वी नैरयिक नपुसंकों में कौन किससे कम, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? गौतम ! सबसे थोड़े अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष, उनसे उपरिम ग्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण, इसी तरह यावत् आनतकल्प के देवपुरुष संख्यतागुण, उनसे अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे पांचवीं पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे लान्तककल्प के देव असंख्यातगुण, उनसे चौथी पृथ्वी के नैरयिक असंख्यातगुण, उनसे ब्रह्मलोककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नवविध अल्पबहुत्व] [१८९ उनसे माहेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे ईशानकल्प की देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे सौधर्मकल्प के देवपुरुष संख्यातगुण, उनसे सौधर्मकल्प की देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे भवनवासी देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष असंख्यातगुण, उनसे वानव्यन्तर देवस्त्रियां संख्यातगुणी, उनसे ज्योतिष्क देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं। (९) हे भगवन् ! इन तिर्यक्योनिक स्त्रियों-जलचरी स्थलचरी व खेचरीयों में, तिर्यक्योनिक पुरुषों-जलचर, स्थलचर, खेचरों में तिर्यक्योनिक नपुंसकों-एकेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक नपुंसकों, पृथ्वीकायिक एके. ति. नपुंसकों, अप्कायिक एकं ति. नपुंसकों यावत् वनस्पतिकायिक एके. ति. नपुंसकों में, द्वीन्द्रिय ति. नपुसंकों में, त्रीन्द्रिय ति. नपुंसकों में, चतुरिन्द्रिय ति. नपुंसकों में, पंचेन्द्रिय ति. नपुंसकों-जलचर, स्थलचर, खेचर नपुंसकों में, मनुष्यस्त्रियों-कर्मभूमिका, अकर्मभूमिका, अन्तर्दीपिका स्त्रियों में, मनुष्यपुरुषों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तर्दीपिकों में, मनुष्य नपुंसकों-कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक, अन्तर्दीपिकों में, देवस्त्रियोंभवनवासिनियों, वानव्यन्तरियों, ज्योतिषिणियों मं वैमानिक देवियों में, देवपुरुषों में-भवनवासी वानव्यन्तर, ज्योतिष्क, वैमानिक देवों में, सौधर्मकल्प यावत् ग्रैवेयकों में, अनुत्तरोपपातिक देवों में नैरयिक नपुंसकोंरत्नप्रभापृथ्वी नैरयिक नपुंसकों यावत् अधःसप्तम पृथ्वी नैरयिक नपुंसकों में कौन किससे अल्प, अधिक, तुल्य या विशेषाधिक हैं ? ___ गौतम ! अन्तर्दीपिक अकर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां और मनुष्यपुरुष-ये दोनों परस्पर तुल्य और सबसे थोड़े हैं, ___ उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य स्त्रियां और पुरुष दोनों तुल्य और संख्यातगुण हैं, इसी प्रकर अकर्मभूमिक हरिवर्ष-रम्यकवर्ष की मनुष्यस्त्रियां और मनुष्य पुरुष दोनों तुल्य और संख्यातगुण हैं । इसी प्रकार हैमवत-हैरण्यवत के स्त्री पुरुष तुल्य व संख्यातगुण हैं । भरत-ऐरवत कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों यथोत्तर संख्यातगुण हैं, उनसे भरत-एरवत कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुण हैं, Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यपुरुष दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे पूर्वविदेह-पश्चिमविदेह कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियां दोनों संख्यातगुण हैं, उनसे अनुत्तरोपपातिक देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे उपरिम प्रैवेयक देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे यावत् आनतकल्प के देवपुरुष यथोत्तर संख्यातगुण हैं, उनसे अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे छठी पृथ्वी के नैरयिक नपुसंक असंख्यातगुण हैं, उनसे सहस्रारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे महाशुक्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे पांचवीं पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे लान्तककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे चौथी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे ब्रह्मलोककल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे तीसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे माहेन्द्रकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे सनत्कुमारकल्प के देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे दूसरी पृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे अन्तर्वीपिक अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य नपुंसक दोनों संख्यातगुण हैं, इस प्रकार यावत् विदेह तक यथोत्तरे संख्यातगुण कहना चाहिए, उनसे ईशानकल्प में देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे ईशानकल्प में देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे सौधर्मकल्प में देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे सौधर्मकल्प में देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे भवनवासी देवपुरुष असंख्यातगुण हैं, उनसे भवनवासी देवस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे इस रत्मप्रभापृथ्वी के नैरयिक नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यस्त्रियां संख्यातगुणी हैं, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे स्थलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुणी हैं, Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: नवविध अल्पबहुत्व] [१९१ उनसे जलचर तिर्यक्योनिक पुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे जलचर तिर्यक्योनिक स्त्रियां संख्यातगुण हैं, उनसे वानव्यन्तर देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे वानव्यन्तर देवियां संख्यातगुणी हैं, उनसे ज्योतिष्क देवपुरुष संख्यातगुण हैं, उनसे ज्योतिष्क देवस्त्रियां संख्यातगुण हैं, उनसे खेचर तिर्यक्योनिक नपुंसक संख्यातगुण हैं, उनसे स्थलचर ति. यो. नपुंसक संख्यातगुण हैं, उनसे जलचर ति. यो. नपुंसक संख्यातगुण हैं, उनसे चतुरिन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे त्रीन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे द्वीन्द्रिय नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे तेजस्कायिक एके. ति. यो. नपुंसक असंख्यातगुण हैं, उनसे पृथ्वीकायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे अप्कायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे वायुकायिक एके. ति. यो. नपुंसक विशेषाधिक हैं, उनसे वनस्पतिकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक नपुंसक अनन्तगुण हैं। विवचेन-प्रस्तुत सूत्र में नौ अल्पबहुत्व की वक्तव्यता है। (१) प्रथम अल्पबहुत्व सामान्य से स्त्री, पुरुष और नपुंसक को लेकर है। (२) दूसरा अल्पबहुत्व सामान्य से तिर्यक्योनिक स्त्री, पुरुष और नपुंसक विषयक है। (३) तीसरा अल्पबहुत्व सामान्य से मनुष्य स्त्री, पुरुष और नपुंसक को लेकर है। (४) चौथा अल्पबहुत्व सामान्य से देव स्त्री, पुरुष और नारक नपुंसक को लेकर है। देवों में नपुंसक नहीं होते और नारक केवल नपुंसक ही होते हैं, अतः देवस्त्री देवपुरुष के साथ नारकनपुंसकों का अल्पबहुत्व बताया गया है। (५) पांचवें अल्पबहुत्व में सामान्य की अपेक्षा पूर्वोक्त सबका मिश्रित अल्पबहुत्व कहा है। __ (६) छठा अल्पबहुत्व विशेष को लेकर (भेदों की अपेक्षा से ) तिर्यक्योनिक स्त्री, पुरुष, नपुंसक विषयक है। (७) सातवां अल्पबहुत्व विशेष-भेदों की अपेक्षा से मनुष्य स्त्री, पुरुष, नपुंसक के संबंध में है। (८) आठवां अल्पबहुत्व विशेष की अपेक्षा से देव स्त्री, पुरुष और नारक नपुंसकों को लेकर कहा गया है। (९) नौवां अल्पबहुत्व तिर्यंच और मनुष्य के स्त्री पुरुष एवं नपुंसक तथा देवों के स्त्री, पुरुष तथा नारक नपुंसकों का-सब विजातीय व्यक्तियों का मिश्रित अल्पबहुत्व है। मलयगिरिवृत्ति में यहाँ आठ ही अल्पबहुत्व का उल्लेख है। पहला अल्पबहुत्व जो सामान्य स्त्री Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पुरुष-नपुंसक को लेकर कहा गया है, उसका वृत्ति में उल्लेख नहीं है। वृत्तिकार ने 'एयासिं णं भंते ! तिरिक्खजोणियइत्थीणं' पाठ से ही अल्पबहुत्व का आरंभ किया है। अल्पबहुत्व की व्याख्या मूलार्थ से ही स्पष्ट है और पूर्व में अलग-अलग प्रसंगों में सब प्रकार के जीवों का प्रमाण और उसकी समझाइश हेतुपूर्वक दे दी गई है, अतएव यहाँ पुनः उसे दोहराना अनावश्यक ही है। समुदाय रूप में स्त्री-पुरुष-नपुंसकों की स्थिति ६३. इत्थीण भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा! एगेणंआएसेणंजहा पुट्विंभाणियं, एवं पुरिसस्स वि नपुंसकस्सवि।संचिट्ठणा पुनरवि तिण्हंपि जहा पुव्वि भाणिया, अंतरं पि तिण्हं पि जहा पुब्धि भाणियं तहा नेयव्वं । [६३] भगवन् ! स्त्रियों की कितने काल की स्थिति कही गई है ? गौतम ! 'एक अपेक्षा से' इत्यादि कथन जो स्त्री-प्रकरण में किया गया है, वही यहाँ करना चाहिए। इसी प्रकार पुरुष और नपुंसक की भी स्थिति आदि का कथन पूर्ववत् समझना चाहिए। तीनों की संचिट्ठणा (कायस्थिति) और तीनों का अन्तर भी जो अपने-अपने प्रकरण में कहा गया है, वही यहाँ (समुदाय रूप में) कहना चाहिए। _ विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में स्त्री, पुरुष और नपुंसकों को लेकर जो कालस्थिति (भवस्थिति), संचिट्ठणा (कायस्थिति) और अन्तर आदि का पूर्व में पृथक्-पृथक् प्रकरण में वर्णन किया गया है, उसी का समुदायरूप में संकलन है। जो कथन पहले अलग-अलग प्रकरणों में किया गया है, उसका यहाँ समुदाय रूप में कथन अभिप्रेत होने से पुनरुक्ति दोष का प्रसंग नहीं है। वृत्तिकार ने यहां वह पाठ माना है जो अल्पबहुत्व सम्बन्धी पूर्ववर्ती सूत्र के प्रथम अल्पबहुत्व के रूप में दिया गया है। वह इस प्रकार है-'एयासिं णं भंते इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा ४ ? सव्वत्थोवा पुरिसा, इत्थीओ संखेज्जगुणाओ, नपुंसका अणंतगुणा।' उक्त अल्पबहुत्व में समुदायरूप में स्त्री-पुरुष एवं नपुंसकों का कथन होने से वृत्तिकार ने इसे सामुदायिक प्रकरण में लिया है। सामुदायिक स्थिति, संचिट्ठणा और अन्तर के साथ ही सामुदायिक अल्पबहुत्व होने से यहाँ यह पाठ विशेष संगत होता है। लेकिन अल्पबहुत्व के साधर्म्य से आठ अल्पबहुत्वों के साथ उसे प्रथम अल्पबहुत्व के रूप में पूर्वसूत्र में दे दिया है। इस प्रकार केवल स्थानभेद हैं-आशय भेद नहीं स्त्रियों की पुरुषों से अधिकता _____६४.तिरिक्खजोणित्थियाओ तिरिक्खजोणियपुरिसेहितो तिगुणाओ तिरूवाधियाओ, मणुस्सित्थियाओ मणुस्सपुरिसेहितो सत्तावीसइगुणाओ सत्तावीसइरूवाहियाओ देवित्थियाओ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय प्रतिपत्ति: स्त्रियों की पुरुषों से अधिकता] [१९३ देवपुरिसेहितो बत्तीसइगुणाओ बत्तीसइरूवाहियाओ। से त्तं तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। तिविहेसु होइ भेयो, ठिई य संचिट्ठणंतरप्पबहुं । वेदाण य बंधठिई वेओ तह किंपगारो उ ॥१॥ से त्तं तिविहा संसारसमापन्नगा जीव पण्णत्ता । [६४] तिर्यक्योनिक की स्त्रियां तिर्यक्योनि के पुरुषों से तीन गुनी और त्रिरूप अधिक हैं। मनुष्यस्त्रियां मनुष्यपुरुषों से सत्तावीसगुनी और सत्तावीसरूप अधिक हैं। देवस्त्रियां देवपुरुषों से बत्तीसगुनी और बत्तीसरूप अधिक हैं। इस प्रकार संसार समापनक जीव तीन प्रकार के हैं, यह प्रतिपादन पूरा हुआ । (संकलित गाथा) तीन वेदरूप दूसरी प्रतिपत्ति में प्रथम अधिकार भेदविषयक है, इसके बाद स्थिति, संचिट्ठणा, अन्तर और अल्पबहुत्व का अधिकार है। तत्पश्चात् वेदों की बंधस्थिति तथा वेदों का अनुभव किस प्रकार का है, यह वर्णन किया गया है। ॥ त्रिविध संसारसमापनक जीवरूप दूसरी प्रतिपत्ति समाप्त ॥ विवेचन-पहले कहा गया है कि पुरुषों से स्त्रियां अधिक हैं तो सहज प्रश्न होता है कि कितनी अधिक हैं ? इस जिज्ञासा का समाधान इस सूत्र में किया गया है। तिर्यक्योनि की स्त्रियां तिर्यक् पुरुषों से तीन गुनी हैं अर्थात् संख्या में तीनगुनीविशेष हैं। 'गुण' शब्द गुण-दोष के अर्थ में भी आता है, अतः उसे स्पष्ट करने के लिए त्रिरूप अधिक विशेषण दिया है। 'गुण' से यहाँ संख्या अर्थ अभिप्रेत है। मनुष्यस्त्रियां मनुष्यपुरुषों से सत्तवीसगुनी हैं और देवस्त्रियां देवपुरुषों से बत्तीसगुनी हैं।' उपसंहार इस दूसरी प्रतिपत्ति के अन्त में विषय को संकलित करने वाली गाथा दी गई है। उसमें कहा गया है कि त्रिविध वेदों की वक्तव्यता वाली इस दूसरी प्रतिपत्ति में पहले भेद, तदनन्तर क्रमशः स्थिति, संचिट्ठणा (कायस्थिति), अन्तर एवं अल्पबहुत्व का प्रतिपादन है। इसके पश्चात् वेदों की बंधस्थिति और वेदों के अनुभवप्रकार का कथन किया गया है। ॥ त्रिविध संसारसमापनक जीव वक्तव्यतारूप द्वितीय प्रतिपत्ति समाप्त॥ १. तिगुणा तिरूव अहिया तिरियाणं इत्थिया मुणेयव्वा। सत्तावीसगुणा पुण मणुयाणं तदहिया चेव ॥१॥ बत्तीसगुणा बत्तीस रूप अहिया उ होंति देवाणं । देवीओ पण्णत्ता जिणेहिं जियरागदोसेहि ॥२॥ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्विधाख्या तृतीय प्रतिपत्ति द्वितीय प्रतिपत्ति में संसारसमापनक जीवों के तीन भेदों का विवेचन किया गया है। अब क्रम प्राप्त तीसरी प्रतिपत्ति में संसारसमापन्नक जीवों के चार भेदों को लेकर विवेचन किया जा रहा है। उसका आदिसूत्र इस प्रकार है - चार प्रकार के संसारसमापनक जीव ६५. तत्थ जे ते एवमाहंसु-चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ते एवमाहंसु, तं जहा–नेरइया, तिरिक्खजोणिया, मणुस्सा, देवा। [६५] जो आचार्य इस प्रकार कहते हैं कि संसारसमापनक जीव चार प्रकार के हैं, वे ऐसा प्रतिपादित करते हैं, यथा-नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य और देव। ६६. से किं तं नेरइया ? नेरइया सत्तविहा पण्णत्ता, तं जहा पढमापुढविनेरइया, दोच्चापुढविनेरइया, तच्चापुढविनेरइया चउत्थापुढविनेरइया, पंचमापुढविनेरइया, छट्ठापुढविनेरइया, सत्तमापुढविनेरइया। [६६] नैरयिकों का स्वरूप क्या है ? नैरयिक सात प्रकार के कहे गये हैं, यथा-प्रथमपृथ्वीनैरयिक, द्वितीयपृथ्वीनैरयिक, तृतीयपृथ्वीनैरयिक, चतुर्थपृथ्वीनैरयिक, पंचमपृथ्वीनैरयिक, षष्ठपृथ्वीनैरयिक और सप्तमपृथ्वीनैरयिक। ६७. पढमा णं भंते ! पुढवी किंनामा किंगोत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! णामेणं धम्मा, गोत्तेणं रयणप्पभा। दोच्चा णं भंते ! पुढवी किंनामा किंगोत्ता पण्णत्ता ? गोयमा ! णामेणं वंसा गोत्तेणं सक्करप्पभा ? एवं एतेणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, णामाणि इमाणि सेला तच्चा, अंजणा चउत्थी, रिट्ठा पंचमी, मघा छट्ठी,माघवती सत्तमा जाव तमतमागोत्तेणं पण्णत्ता। [६७] हे भगवन् ! प्रथम पृथ्वी का क्या नाम और क्या गोत्र है ? गोतम ! प्रथम पृथ्वी का नाम 'धम्मा' है और उसका गोत्र रत्नप्रभा है। भगवन् ! द्वितीय पृथ्वी का क्या नाम और क्या गोत्र कहा गया है ? Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: चार प्रकार के संसारसमापनक जीव] [१९५ गोतम ! दूसरी पृथ्वी का नाम वंसा है और गोत्र शर्कराप्रभा है। इस प्रकार सब पृथ्वियों के सम्बन्ध में प्रश्न करने चाहिए। उनके नाम इस प्रकार हैं-तीसरी पृथ्वी का नाम शैला, चौथी पृथ्वी का नाम अंजना, पांचवी पृथ्वी का नाम रिष्टा है, छठी पृथ्वी का नाम मघा और सातवीं पृथ्वी का नाम माघवती है। इस प्रकार तीसरी पृथ्वी का गोत्र बालुकाप्रभा, चौथी का पंकप्रभा, पांचवी का धूमप्रभा, छठी का तमःप्रभा और सातवीं का गोत्र तमस्तमःप्रभा है। ६८. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी केवइया वाहल्लेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभापुढवी असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ता, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाहा अणुगंतव्वा असीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव बीसं य। अट्ठारस सोलसगं अठुत्तरमेव हिट्ठिमिया॥१॥ [६८] हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितनी मोटी कही गई है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी एक लाख अस्सी हजार योजन मोटी है। इसी प्रकार शेष पृथ्वियों की मोटाई इस गाथा से जानना चाहिए 'प्रथम पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। दूसरी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है। तीसरी की मोटाई एल लाख अट्ठाईस हजार योजन की है। चौथी की मोटाई एक लाख बीस हजार योजन की है। पांचवी की मोटाई एक लाख अठारह हजार योजन की है। छठी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है। सातवीं की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। विवेचन-(सं ६५ से ६६ तक) पूर्व प्रतिपादित इस प्रकार की प्रतिपत्तियों में से जो आचार्य संसारसमापनक जीवों के चार प्रकार कहते हैं वे चार गतियों के जीवों को लेकर ऐसा प्रतिपादिन करते हैं; यथा-१ नरकगति के नैरयिक जीव, २ तिर्यंचगति के जीव, ३ मनुष्यगति के जीव और ४ देवगति के जीव। ऐसा कहे जाने पर सहज जिज्ञासा होती है कि नैरयिक आदि जीव कहाँ रहते हैं, उनके निवास रूप नरकभूमियों के नाम, गोत्र विस्तार आदि क्या और कितने हैं ? नरकभूमियों और नारकों के विषय में विविध जानकारी इन सूत्रों में और आगे के सूत्रों में दी गई है। सर्वप्रथम नारक जीवों के प्रकार को लेकर प्रश्न किया गया है। उसके उत्तर में कहा गया है कि नारक जीव सात प्रकार के हैं। सात नरकभूमियों की अपेक्षा से नारक जीवों के सात प्रकार बताये हैं, जैसे कि प्रथमपृथ्वीनैरयिक से लगा कर सप्तमपृथ्वीनैरयिक तक। इसके पश्चात् नरकपृथ्वियों के नाम और गोत्र को लेकर प्रश्न और उत्तर हैं। नाम और गोत्र में अन्तर यह है कि नाम अनादिकालसिद्ध होता है और अन्वर्थरहित Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पृथ्वयां नाम पंकप्रभा होता है अर्थात् नाम में उसके अनुरूप गुण होना आवश्यक नहीं है, जबकि गोत्र गुणप्रधान होता है। सात पृथ्वयों के नाम और गोत्र इस प्रकार हैं गोत्र बाहल्य (योजनों में) प्रथम पृथ्वी घम्मा रत्नप्रभा एक लाख अस्सी हजार द्वितीय पृथ्वी वंशा शर्कराप्रभा एक लाख बत्तीस हजार तृतीय पृथ्वी शैला बालुकाप्रभा एक लाख अट्ठावीस हजार चतुर्थ पृथ्वी अंजना एक लाख बीस हजार पंचम पृथ्वी रिष्टा धूमप्रभा एक लाख अठारह हजार षष्ठ पृथ्वी मघा तमप्रभा एक लाख सोलह हजार सप्तम पृथ्वी माघवती तमस्तमप्रभा एक लाख आठ हजार नाम की अपेक्षा गोत्र की प्रधानता है, अतएव रत्नप्रभादि गोत्र का उल्लेख करके प्रश्न किये गये हैं तथा उसी रूप में उत्तर दिये गये हैं। नरकभूमियों के गोत्र अर्थानुसार हैं, अतएव उनके अर्थ को स्पष्ट करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है कि रत्नों की जहाँ बहुलता हो वह रत्नप्रभा है। यहाँ 'प्रभा' का अर्थ बाहुल्य है। इसी प्रकार शेष पृथ्वियों के विषय में भी समझना चाहिए। जहाँ शर्करा (कंकर) की प्रधानता हो वह शर्कराप्रभा। जहाँ बालू की प्रधानता हो वह बालुकाप्रभा। जहाँ कीचड़ की प्रधानता हो पंकप्रभा। धुंए की तरह जहाँ प्रभा हो वह धूमप्रभा है। २ जहाँ अन्धकार का बाहुल्य हो वह तमःप्रभा और जहाँ बहुत घने अन्धकार की बहुलता हो वह तमस्तमःप्रभा है। यहाँ किन्हीं किन्हीं प्रतियों में इन पृथ्वियों के नाम और गोत्र को बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ दी गई हैं; जो नीचे टिप्पण में दी गई हैं। ३ इसके पश्चात् प्रत्येक नरकपृथ्वी की मोटाई को लेकर प्रश्नोत्तर हैं । नरकपृथ्वियों का बाहुल्य (मोटाई) ऊपर कोष्ठक में बता दिया गया है। इस विषयक संग्रहणी गाथा इस प्रकार है असीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च। अट्ठारस सोलसगं अठुत्तरमेव हिट्ठिमिया॥ इस गाथा का अर्थ मूलार्थ में दे दिया है। स्पष्टता के लिए पुनः यहाँ दे रहे हैं। रत्नप्रभानरकभूमि -वृत्ति १. रत्नानां प्रभा-बाहुल्यं यत्र सा रत्नप्रभा रत्नबहुलेति भावः। २. धूमस्येव प्रभा यस्याः सा धूमप्रभा। ३. घम्मा वंसा सेला अंजण रिट्ठा मघा या माधवती। सत्तण्डं पुढवीणं एए नामा उ नायव्वा ॥१॥ रयणा सक्कर वालुय पंका धूमा तमा य तमतमा। सत्तण्हं पुढवीणं एए गोत्ता मुणेयव्वा ॥२॥ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :चार प्रकार के संसारसमापन्नक जीव] [१९७ की मोटाई १ लाख ८० हजार योजन, शर्कराप्रभा की १ लाख ३२ हजार, बालुकप्रभा की १ लाख २८ हजार, पंकप्रभा की १ लाख २० हजार, धूमप्रभा की १ लाख १८ हजार, तमःप्रभा की १लाख १६ हजार और तमस्तमःप्रभा की मोटाई १ लाख ८ हजार योजन की है। अब आगे के सूत्र में रत्नप्रभा आदि नरकपृथ्वियों के भेद को लेकर प्रश्नोत्तर हैं६९. इमा णं भंते ! रयणप्पभापढवी कतिविहा पण्णत्ता? गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-खरकंडे, पंकबहुले कंडे, आवबहुले कंडे। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए खरकंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलसविधे पण्णत्ते, तं जहा–१ रयणकंडे, २ वइरे ३ वेरुलिए, ४ लोहितयक्खे, ५ मसारगल्ले, ६ हंसगब्भे,७ पुलए, ८ सोयंधिए, ९ जोतिरसे, १० अंजणे,११ अंजणपुलए, १२ रयए, १३ जातरूवे, १४ अंके, १५ फलिहे, १६ रिटेकंडे। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए रयणकंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। एवं जाव रिटे। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए पंकबहुले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। एवं आवबहुले कंडे कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! एगागारे पण्णत्ते। सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवी कतिविधा पण्णत्ता ? गोयमा ! एगागारा पण्णत्ता। एवं जाव अहेसत्तमा। [६९] भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कितने प्रकार की कही गई है ? गौतम ! तीन प्रकार की कही गई है, यथा-१.खरकाण्ड, २. पंकबहुलकांड और अप्बहुल (जल की अधिकता वाला) कांड। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का खरकाण्ड कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! सोलह प्रकार का कहा गया है, यथा १. रत्नकांड, २. वज्रकांड, ३. वैडूर्य, ४. लोहिताक्ष, ५. मसारगल्ल, ६. हंसगर्भ, ७. पुलक, ८. सौगंधिक, ९. ज्योतिरस, १०. अंजन, ११. अंजनपुलक, १२. रजत, १३. जातरूप, १४. अंक, १५. स्फटिक और १६. रिष्ठकांड। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का रत्नकाण्ड कितने प्रकार का है ? गौतम ! एक ही प्रकार का है। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक एकाकार कहना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुलकांड कितने प्रकार का है ? गौतम ! एक ही प्रकार का कहा गया है। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ ] इसी तरह अप्बहुलकांड कितने प्रकार का है ? गौतम ! एकाकार है । भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी कितने प्रकार की है ? गौतम ! एक ही प्रकार की है। [जीवाजीवाभिगमसूत्र इसी प्रकार अधः सप्तमपृथ्वी तक एकाकार कहना चाहिए । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र मे रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों के प्रकार ( विभाग) की पृच्छा है। उत्तर में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी के तीन प्रकार ( विभाग) हैं, यथा - खरकांड, पंकबहुलकांड और अप्बहुलकांड। काण्ड का अर्थ है-विशिष्ट भूभाग । खर का अर्थ है कठिन । रत्नप्रभापृथ्वी का प्रथम खरकाण्ड १६ विभाग वाला है । रत्नकाण्ड नामक प्रथम विभाग, वज्रकाण्ड नामक द्वितीय विभाग, वैडूर्यकाण्ड नामक तृतीय विभाग, इस प्रकार रिष्टरत्नकाण्ड नामक सोलहवां विभाग है। सोलह रत्नों के नाम 'अनुसार रत्नप्रभा के खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं। प्रत्येक काण्ड एक हजार योजन की मोटाई वाला है । इस प्रकार खरकाण्ड सोलह हजार योजन की मोटाई वाला है। उक्त रत्नकाण्ड से लगाकर रिष्टकाण्ड पर्यन्त सब काण्ड एक ही प्रकार के हैं, अर्थात् इनमें फिर विभाग नहीं है । दूसरा काण्ड पंकबहुल है। इसमें कीचड़ की अधिकता है और इसका और विभाग न होने से यह एक प्रकार का ही है। यह दूसरा काण्ड ८४ हजार योजन की मोटाई वाला है। तीसरे अप्बहुलकाण्ड में जल की प्रचुरता है और कोई विभाग नहीं हैं, एक ही प्रकार का है। यह ८० हजार योजन की मोटाई वाला है। इस प्रकार रत्नप्रभा के तीनों काण्डों को मिलाने से रत्नप्रभा की कुल मोटाई (१६+८४+८०) एक लाख अस्सी हजार हो जाती है । दूसरी नरकपृथ्वी शर्कराप्रभा से लेकर अधः सप्तमपृथ्वी तक की नरकभूमियों के कोई विभाग नहीं हैं । सब एक ही आकार वाली हैं। नरकवासों की संख्या ७०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवइया निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! तीसं णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं एएणं अभिलावेणं सव्वासिं पुच्छा, इमा गाया अणुगंतव्वा तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दसेव तिण्णि य हवंति । पंचूण सयसहस्सं पंचेव अणुत्तरा णरगा ॥ १॥ जाव अहेसत्तमाए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पण्णत्ता, तं जहा - काले, महाकाले, रोरुए, महारोरुए, अपइट्ठाणे । [७० ] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? गौतम ! तीस लाख नरकावास कहे गये हैं । इस गाथा के अनुसार सातों नरकों में से नरकावासों Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नरकावासों की संख्या] [१९९ की संख्या जाननी चाहिए। प्रथम पृथ्वी में तीस लाख, दूसरी में पच्चीस लाख, तीसरी में प्रन्द्रह लाख, चौथी में दस लाख, पांचवीं में तीन लाख, छठी में पांच कम एक लाख और सातवीं पृथ्वी में पांच अनुत्तर महानरकावास हैं। अधःसप्तमपृथ्वी में जो बहुत बड़े अनुत्तर महान नरकावास कहे गये हैं, वे पांच हैं, यथा-१. काल, २. महाकाल, ३. रौरव, ४. महारौरव और ५. अप्रतिष्ठान। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रत्येक नरकापृथ्वी में नरकावासों की संख्या बताई गई है। - (१) प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी से लगाकर छठी तमःप्रभापृथ्वी पर्यन्त पृथ्वियों में नरकावास दो प्रकार के हैं-आवलिकाप्रविष्ट और प्रकीर्णक रूप। जो नरकावास पंक्तिबद्ध हैं वे आवलिकाप्रविष्ट हैं और जो बिखरेबिखरे हैं, वे प्रकीर्णक रूप हैं । रत्नप्रभापृथ्वी के तेरह प्रस्तर (पाथड़े) हैं। प्रस्तर गृहभूमि तुल्य होते हैं। पहले प्रस्तर में पूर्वादि चारों दिशाओं में ४९-४९ नरकावास हैं । चार विदिशाओं में ४८-४८ नरकावास हैं। मध्य में सीमन्तक नाम का नरकेन्द्रक है। ये सब मिलकर ३८९ नरकावास होते हैं। शेष बारह प्रस्तरों में प्रत्येक में चारों दिशाओं और चारों विदिशाओं में एक-एक नरकावास कम होने से आठ-आठ नरकावास कमकम होते गये हैं। अर्थात् प्रथम प्रस्तर में ३८९, दूसरे में ३८१, तीसरे में ३७३ इस प्रकार आगे-आगे के प्रस्तर में आठ-आठ नरकावास कम हैं। इस प्रकार तेरह प्रस्तरों में कुल ४४३३ नरकावास आवलिकाप्रविष्ट हैं और शेष २९९५५६७ (उनतीस लाख पंचानवै हजार पांच सौ सडसठ) नरकावास प्रकीर्णक रूप हैं। कुल मिलाकर प्रथम रत्नप्रभापृथ्वी में तीस लाख नरकावास हैं।' (२) शर्कराप्रभा के ग्यारह प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में चारों दिशाओं में ३६-३६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। चारों विदिशाओं में ३५-३५ नरकावास और मध्य में एक नरकेन्द्रक, सब मिलाकर २८५ नरकवास पहले प्रस्तर में आवलिकाप्रविष्ट हैं। शेष दस प्रस्तरों में प्रत्येक में आठ-आठ की हानि होने से सब प्रस्तरों के मिलाकर २६९५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष २४९७३०५ (चौवीस लाख सित्तानवै हजार तीन सौ पांच) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं । दोनों मिलाकर पच्चीस लाख नरकावास दूसरी शर्कराप्रभा में हैं।' (३) तीसरी बालुकाप्रभा में नौ प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में प्रत्येक दिशा में २५-२५ विदिशा में २४२४ और मध्य में एक नरकेन्द्रक-कुल मिलाकर १९७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष आठ प्रस्तरों में प्रत्येक में आठ-आठ की हानि है, सब मिलाकर १४८५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष १४९८५१५ पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं। दोनों मिलाकर पन्द्रह लाख नरकावास तीसरी पृथ्वी में हैं। ३ १. सत्तट्ठी पंचसया पणनउइसहस्स लक्खगुणतीसं। रयणाए सेढिगया चोयालसया उ तित्तीसं ॥१॥ २. सत्ता णउइसहस्सा चउवीसं लक्खं तिसय पंचऽहिया। बीयाए सेढिगया छव्वीससया उ पणनउया॥ ३. पंचसया पन्नारा अडनवइसहस्स लक्ख चोद्दस य। तइयाए सेढिगया पणसीया चोद्दस सया उ॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २००] [जीवाजीवाभिगमसूत्र (४) चौथी पंकप्रभा में सात प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में प्रत्येक दिशा में १६-१६ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं और विदिशा में १५-१५ हैं, मध्य में एक नरकेन्द्रक है। सब मिलकर १२५ नरकावास हुए। शेष छह प्रस्तरों में प्रत्येक में आठ-आठ की हानि है अतः सब मिलाकर ७०७ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं-शेष ९९९२९३ (नौ लाख निन्यानवै हजार दो सौ तिरानवै) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं। दोनों मिलाकर दस लाख नरकावास पंकप्रभा में हैं।' (५) पांचवीं धूमप्रभा में ५ प्रस्तर हैं। पहले प्रस्तर में एक-एक दिशा में नौ-नौ आवलिकाप्रविष्ट विमान हैं और विदिशाओं में आठ-आठ हैं। मध्य में एक नरकेन्दक हैं। सब मिलाकर ६९ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं । शेष चार प्रस्तरों में पूर्ववत् आठ-आठ की हानि है। अतः सब मिलाकर २६५ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष २९९७३५ ( दो लाख निन्यानवै हजार सात सौ पैंतीस) पुष्पावकीर्णक नरकावास हैं। दोनों मिलकर तीन लाख नरकावास पांचवीं पृथ्वी में हैं। २ (६) छठी तमःप्रभा में तीन प्रस्तर हैं । प्रथम प्रस्तर की प्रत्येक दिशा में चार-चार और प्रत्येक विदिशा में ३-३, मध्य में एक नरकेन्द्रक सब मिलाकर २९ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष दो प्रस्तरों में क्रम से आठ-आठ की हानि है । अतः सब मिलाकर ६३ आवलिकाप्रविष्ट नरकावास हैं। शेष ९९९३२ (निन्यानवै हजार नौ सौ बत्तीस) पुष्पावकीर्णक हैं। दोनों मिलाकर छठी पृथ्वी में ९९९९५ नरकावास हैं। ३ (७) सातवीं पृथ्वी में केवल पांच नरकावास हैं । काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान उनके नाम हैं । अप्रतिष्ठान नामक नरकावास मध्य में है और उसके पूर्व में काल नरकावास, पश्चिम में महाकाल, . दक्षिण में रौरव और उत्तर में महारौरव नरकावास है। पृथ्वी का नाम आवलिका प्रविष्ट पुष्पावकीर्णक कुल नरकावास नरकावास नरकावास रत्नप्रभा ४४३३ २९९५५६७ ३०००००० शर्कराप्रभा २६९५ २४९७३०५ २५००००० बालुकाप्रभा १४८५ १४९८५१५ १५००००० . पंकप्रभा ७०७ ९९९२९३ १०००००० १. तेणउया दोण्णि सया नवनउइसहस्सा नव य लक्खा य। पंकाए सेढिगया सत्तसया हुँति सत्तहिया ॥ २. सत्तसया पणतीसा नवनवइसहस्स दो य लक्खा य। धूमाए सेढिगया पणसठ्ठा दो सया होति ॥ ३. नवनउई य सहस्सा नव चेव सया हवंति बत्तीसा। पुढवीए छट्ठीए पइण्णगाणेस संखेवो॥ ४. पुव्वेण होइ कालो अवरेण अप्पइट्ठ महकाले। रोरु दहिणपासे उत्तरपासे महारोरू॥ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :घनोदधि आदि की पृच्छा] [२०१ धूमप्रभा तमःप्रभा तमस्तमःप्रभा २६५ ६३ १ मध्य में २९९७३५ ९९९३२ ४ चारों दिशाओं में ३००००० ९९९९५ घनोदधि आदि की पृच्छा ७१. अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे घणोदहीति वा, घणवातेति वा, तणुवातेति वा, ओवासंतरेति वा ? हंता अत्थि। एवं जाव अहेसत्तमाए। [७१] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नीचे घनोदधि है, घनवात है, तनुवात है और शुद्ध आकाश है क्या ? हाँ गौतम ! है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के नीचे घनोदधि, घनवात, तनुवात और शुद्ध आकाश है । • विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकपृथ्वियों का आधार बताया गया है। सहज ही यह प्रश्न हो सकता है कि ये सातों नरकपृथ्वियां किसके आधार पर स्थित हैं ? इसका समाधान करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि ये पृथ्वियां जमे हुए जल पर स्थित हैं। जमे हुए जल को घनोदधि कहते है। पुनः प्रश्न होता है कि घनोदधि किसके आधार पर रहा हुआ है तो उसका समाधान किया गया है कि घनोदधि, घनवात पर स्थित है। अर्थात् पिण्डीभूत वायु के आधार पर घनोदधि स्थित है। घनीभूत वायु (घनवात) तनुवात (हल्की वायु) पर आधारित है और तनुवात आकाश पर प्रतिष्ठित है। आकाश किसी पर अवलम्बित न होकर स्वयं प्रतिष्ठित है। तात्पर्य यह है कि आकाश के आधार पर तनुवात, तनुवात पर घनवात और घनवात पर घनोदधि और घनोदधि पर ये रत्नप्रभादि पृथ्वियां स्थित हैं। प्रश्न हो सकता है कि वायु के आधार पर उदधि और उदधि के आधार पर पृथ्वी कैसे ठहर सकती है ? इसका समाधान एक लौकिक उदाहरण के द्वारा किया है गया। कोई व्यक्ति मशक (वस्ती) को हवा में फुला दे। फिर उसके मुंह को फीते से मजबूत गांठ देकर बांध दे तथा उस मशक के बीच के भाग को भी बांध दे। ऐसा करने से मशक में भरे हुए पवन के दो भाग हो जावेंगे, जिससे थैली डुगडुगी जैसी लगेगी। तब उस मशक का मुंह खोलकर ऊपर के भाग की हवा निकाल दे और उसकी जगह पानी भरकर फिर उस मशक का मुंह बांध दे और बीच का बन्धन खोल दे। तब ऐसा होगा कि जो पानी उस मशक के ऊपरी भाग में है, वह ऊपर के भाग में ही रहेगा, अर्थात् नीचे भरी हुई वायु के ऊपर ही वह पानी रहेगा, नीचे नहीं जा सकता। जैसे वह पानी नीचे भरी वायु के आधार पर ऊपर ही टिका रहता है, उसी प्रकार घनवात के ऊपर घनोदधि रह सकता है। १. रत्नशर्कराबालुकापंकधूमतमोमहातमःप्रभाभूमयां घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सप्ताधोधः पृथुत्तराः तत्त्वार्थ -तत्त्वार्थसूत्र अ.३ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दूसरा उदाहरण यह है कि जैसे कोई व्यक्ति हवा से भरे हुए डिब्बे या मशक को कमर पर बांधकर अथाह जल में प्रवेश करे तो वह जल के ऊपरी सतह पर ही रहेगा नीचे नहीं डूबेगा। वह जल के आधार पर स्थिर रहेगा। उसी तरह घनाम्बु पर पृथ्वियां टिकी रह सकती हैं। ये सातों नरकभूमियां एक दूसरी के नीचे हैं, परन्तु बिल्कुल सटी हुई नहीं है। इनके बीच में बहुत अन्तर है। इस अन्तर में घनोदधि, घनवात, तनुवात और शुद्ध आकाश नीचे-नीचे हैं। प्रथम नरकभूमि के नीचे घनोदधि है, इसके नीचे घनवात है, इसके नीचे तनुवात है और इसके नीचे आकाश है। आकाश के बाद दूसरी नरकभूमि है। दूसरी और तीसरी नरकभूमि के बीच में भी क्रमश: घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश है। इसी तरह सातवीं नरकपृथ्वी तक सब भूमियों के नीचे उसी क्रम से घनोदधि आदि हैं। अब सूत्रकार रत्नकाण्डादि का बाहल्य (मोटाई) बताते हैंरत्नादिकाण्डों का बाहल्य ७२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए खरकंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए रयणकंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं बाहल्लेणं पण्णत्ते। एवं जाव रिठे।. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए पंकबहुले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! चउरसीति जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं पण्णत्ते।। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए आवबहुल्ले कंडे केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! असीति जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदही केवइयं बहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! वीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवाए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा! असंखेज्जइंजोयमसहस्साइंबाहल्लेणंपण्णत्ते।एवंतणुवाए वि,ओवासंतरे वि। सक्करप्पभाए णं पुढवीए घणोदही केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! बीसं जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। सक्करप्पभाए णं पुढवीए घणवाए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसहस्साई बाहल्लेणं पण्णत्ते। एवं तणुवाए वि, ओवासंतरे वि। जहा सक्करप्पभाए पुढवीए एवं जाव अहेसत्तमाए। [७२] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का खरकाण्ड कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? गोयमा ! सोलह हजार योजन की मोटाई वाला कहा गया है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का रत्नकांड कितनी मोटाई वाला है ? गौतम ! वह एक हजार योजन की मोटाई वाला है। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता ] इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक की मोटाई जानना । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का पंकबहुलकांड कितनी मोटाई का है ? गौतम ! वह चौरासी हजार योजन की मोटाई वाला है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का अप्बहुलकांड कितनी मोटाई का है ? गौतम ! वह अस्सी हजार योजन की मोटाई का है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनोदधि कितनी मोटाई का है ? गौतम ! वह बीस हजार योजन की मोटाई का है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनवात कितनी मोटाई का है ? गौतम ! वह असंख्यात हजार योजन का मोटा है। इसी प्रकार तनुवात भी और आकाश भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले हैं। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का घनोदधि कितना मोटा है ? गौतम ! बीस हजार योजन का हैं। भगवन् ! शर्कराप्रभा का घनवात कितना मोटा है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाला है । [२०३ इसी प्रकार तनुवात और आकाश भी असंख्यात हजार योजन की मोटाई वाले हैं। जैसी शर्कराप्रभा के घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश की मोटाई कही है, वही शेष सब पृथ्वियों की (सातवीं पृथ्वी तक ) जाननी चाहिए। विवेचन - पहले नरकपृथ्वीयों का बाहल्य कहा गया था । इस सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी के तीन काण्डों का और घनोदधि, घनवात, तनुवात तथा आकाश का बाहल्य बताया गया है । काण्ड केवल रत्नप्रभापृथ्वी मैं ही हैं। खरकाण्ड के सोलह विभाग हैं और प्रत्येक विभाग का बाहल्य एक हजार योजन का बताया है । सोलह काण्डों का कुल बाहल्य सोलह हजार योजन का है। पंकबहुल दूसरे काण्ड का बाहल्य चौरासी हजार और अप्बहुल तीसरे काण्ड का बाहल्य अस्सी हजार योजन है । इस प्रकार रत्नप्रभा के तीनों काण्डों का बाहल्य मिलाने से रत्नप्रभा की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है। प्रत्येक पृथ्वी के नीचे क्रमशः घनोदधि, घनवात, तनुवात और आकाश है । अतः उनका बाहल्य भी बता दिया गया है । घनोदधि का बाहल्य बीस हजार योजन का है। घनवात का बाहल्य असंख्यात हजार योजन का है। तनुवात और आकाश का बाहल्य भी प्रत्येक असंख्यात हजार योजन का है। सभी पृथ्वियों के घनोदधि आदि का बाहल्य समान है । रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता ७३. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणीए अत्थि दव्वाइं वण्णओ कालनीललोहितहालिद्दसुक्किलाई, गंधओ सुरभिगंधाई Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दुब्भिगंधाइं, रसो तित्तकडुयकसायअंबिलमहुराइं, फासओ कक्खड-मउय-गरुय-लहु-सीयउसिण-णिद्ध-लुक्खाइं, संठाणाओ परिमंडल-वट्ट-तंस-चउरंस-आयय संठाणपरिणयाई अन्नमनबद्धाइं अन्नमनपुट्ठाई,अन्नमनओगाढाइं,अण्णमण्णसिणेहपडिबद्धाइंअण्णमण्णघडताए चिट्ठन्ति ? हंता अत्थि। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए खरकंडस्स सोलसजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्वाइं वण्णओ काल जाव परिणयाई। हंता अत्थि। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभापुढवीए रयणनामगस्स कंडस्स जोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स० तं चेव। एवं जाव बहुलस्स वि असीतिजोयणसहस्सबाहल्लस्स। इमीसेणंभंते ! रयणप्पभापुढवीए घणोदधिस्स वीसंजोयणसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं तहेव। एवं घणवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सबाहल्लस्स तहेव। ओवासंतरस्स वि तं चेव। सक्करप्यभाए णं भंते ! पुढवीए बत्तीससुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लस्स खेत्तच्छेएण छिज्जमाणीए अस्थि दव्वाइं वण्णओ जाव घडत्ताए चिटुंति ? हंता अत्थि। एवं घणोदहिस्स वीसजोयणसहस्सबाहल्लस्स घणवातस्स असंखेज्जजोयणसहस्सबाहल्लस्स, एवं जाव ओवासंतरस्स। जहा सक्करप्पभाए एवं जाव अहेसत्तमाए। [७३] भगवन् ! एक लाख अस्सी हजार योजन बाहल्य वाली और प्रतर-काण्डादि रूप में (बुद्धि द्वारा) विभक्त इस रत्नप्रभापृथ्वी में वर्ण से काले-नीले-लाल-पीले और सफेद, गंध से सुरभिगंध वाले और दुर्गन्ध वाले, रस से तिक्त-कटुक-कसैले-खट्टे-मीठे तथा स्पर्श से कठोर-कोमल-भारी-हल्के-शीत-उष्णस्निग्ध और रूक्ष, संस्थान से परिमंडल (लड्डू की तरह गोल), वृत्त (चूडी के समान गोल), त्रिकोण, चतुष्कोण और आयत (लम्बे) रूप में परिणत द्रव्य एक-दूसरे से बंधे हुए, एक दूसरे से स्पृष्ट-छुए हुए, एक दूसरे में अवगाढ़, एक दूसरे से स्नेह द्वारा प्रतिबद्ध और एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के सोलह हजार योजन बाहल्य वाले और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त खरकांड में वर्ण-गंध-रस-स्पर्श और संस्थान रूप में परिणत द्रव्य यावत् एक दूसरे से सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि रूप में बुद्धिद्वारा विभक्त रत्न नामक काण्ड में पूर्व विशेषणों से विशिष्ट द्रव्य हैं क्या ? Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: रत्नप्रभादि में द्रव्यों की सत्ता] [२०५ हाँ, गौतम ! हैं। इसी प्रकार रिष्ट नामक काण्ड तक कहना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पंकबहुल काण्ड में जो चौरासी हजार योजन बाहल्य वाला और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त है, (उसमें) पूर्ववर्णित द्रव्यादि हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। इसी प्रकार अस्सी हजार योजन बाहल्य वाले अपबहुल काण्ड में भी पूर्वविशिष्ट द्रव्यादि हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के बीस हजार योजन बाहल्य वाले और बुद्धि से विभक्त घनोदधि में पूर्व विशेषण वाले द्रव्य हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। इसी प्रकार असंख्यात हजार योजन बाहल्य वाले घनवात और तनुवात में तथा आकाश में भी उसी प्रकार द्रव्य हैं। हे भगवन् ! एक लाख बत्तीस हजार योजन बाहल्य वाली और बुद्धि द्वारा प्रतरादि रूप में विभक्त शर्कराप्रभा पृथ्वी में पूर्व विशेषणों से विशिष्ट द्रव्य यावत् परस्पर सम्बद्ध हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। इसी तरह बीस हजार योजन बाहल्य वाले घनोदधि, असंख्यात हजार योजन बाहल्य वाले घनवात और आकाश के विषय में भी समझना चाहिए। शर्करप्रभा की तरह इसी क्रम से सप्तम पृथ्वी तक वक्तव्यता समझनी चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सातों नरकपृथ्वियों में, रत्नप्रभापृथ्वी के तीनों काण्डों में, घनोदधियों में, घनवातों में, तनुवातों में और अवकाशान्तरों में द्रव्यों की सत्ता का कथन किया गया है। सब जगह वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा विविध पर्यायों में परिणत द्रव्यों का सद्भाव बताया गया है। प्रश्रोत्तर का क्रम इस प्रकार है सर्वप्रथम रत्नप्रभापृथ्वी में द्रव्यों का सद्भाव कहा है। इसके बाद क्रमशः खरकाण्ड, रत्नकाण्ड से लेकर रिष्टकाण्ड तक, पंकबहुलकाण्ड, अपबहुलकाण्ड, घनोदधि, घनवात, तनुवात, अवकाशान्तरों में द्रव्यों का सद्भाव कहा है। इसके पश्चात् शर्करापृथ्वी में, उसके घनोदधि-घनवात-तनुवात और अवकाशान्तरों में द्रव्यों का सद्भाव बताया है। शर्करापृथ्वी की तरह ही सातों पृथ्वियों की वक्तव्यता कही है। सूत्र में आये हुए 'अन्नमन्नबद्धाइं' आदि पदों का अर्थ इस प्रकार हैअन्नमनबद्धाइं-एक दूसरे से सम्बन्धित। अन्नमन्नपुट्ठाई-एक दूसरे को स्पर्श किये हुए-छुए हुए। अन्नमन्नोगाढाइं-जहाँ एक द्रव्य रहा है, वहीं देश या सर्व से दूसरे द्रव्य भी रहे हुए हैं। Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अन्नमनसिणेहपडिबद्धाइं-स्नेह गुण के कारण परस्पर मिले हुए रहते हैं, जिससे एक के चलायमान होने पर दूसरा भी चलित होता है, एक के गृहीत होने पर दूसरा भी गृहीत होता है। ____अन्नमनघडत्ताए चिटुंति-क्षीर-नीर की तरह एक दूसरे में प्रगाढरूप में मिले हुए या समुदित रहते नरकों का संस्थान ७४. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किंसंठिता पण्णत्ता ? गोयमा ! झल्लरिसंठिता पण्णत्ता। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए खरकंडे किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए रयणकंडे किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा !झल्लरिसंठिए पण्णत्ते। एवंजाव रिठे। एवं पंकबहुले वि एवं आवबहुले वि, घणोदधी वि, घणवाए वि, तणुवाए वि, ओवासंतरे वि। सव्वे झल्लरिसंठिए पण्णत्ते। सक्करप्पभा णं भंते ! पुढवी किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! झल्लरिसंठिए पण्णत्ते। एवं जाव ओवासंतरे, जहा सक्करप्पभाए वत्तव्वया एवं जाव अहेसत्तमाए वि। [७४] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का आकार कैसा है ? गौतम ! झालर के आकार का है। अर्थात् विस्तृत वलयाकार है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के खरकांड का कैसा आकार है ? गौतम ! झालर के आकार का है। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के रत्नकाण्ड का क्या आकार है ? गौतम ! झालर के आकार का है। इसी प्रकार रिष्टकाण्ड तक कहना चाहिए। इसी तरह पंकबहुलकांड, अप्बहुलकांड, घनोदधि, घनवात, तनुवात और अवकाशान्तर भी सब झालर के आकार के हैं। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी का आकार कैसा हैं ? गौतम ! झालर के आकार का है। भगवन् ! शर्कराप्रभापृथ्वी के घनोदधि का आकार कैसा है ? गौतम ! झालर के आकार का है। इसी प्रकार अवकाशान्तर तक कहना चाहिए। शर्कराप्रभा की वक्तव्यता के अनुसार शेष पृथ्वियों की अर्थात् सातवीं पृथ्वी तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए। सातों पृथ्यिवयों की अलोक से दूरी ७५. इमीसेणंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ उवरिमंताओ केवइयं अबाधाए Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सातों पृथ्वियों की अलोक से दूरी] [२०७ लोयंते पण्णत्ते? गोयमा ! दुवालसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते, एवं दाहिणिल्लाओ, पच्चथिमिल्लाओ, उत्तरिल्लाओ। सक्करप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ केवइयं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते? गोयमा ! तिभागूणेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते। एवं चउद्दिसिं वि। बालुयप्पभाए पुढविए पुरथिमिल्लाओ पुच्छा ? गोयमा ! सतिभागेहिं तेरसहिं जोयणेहिं अबाधाए लोयंते पण्णत्ते। एवं चउद्दिसिं पि; एवं सव्वासिं चउसु दिसासु पुच्छियव्वं। पंकप्पभापुढवीए चोदसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते। पंचभाए तिभागणेहिं पन्नरसहिं जोयणेहि अबाहाए लोयंते पण्णत्ते। छट्ठीए सतिभागेहिं पन्नरसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते। सत्तमीए सोलसहिं जोयणेहिं अबाहाए लोयंते पण्णत्ते।एवंजाव उत्तरिल्लाओ। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए पुरथिमिल्ले चरिमंते कतिविहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-घणोदधिवलए, घणवायवलए, तणुवायवलये। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दाहिणिल्ले चरिमंते कतिविधे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तं जहा-एवं जाव उत्तरिल्ले, एवं सव्वासिंजाव अधेसत्तमाए उत्तरिल्ले। [७५] हे भगवान् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के उपरिमान्त से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है ? गौतम ! बारह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार दक्षिणदिशा के, पश्चिमदिशा के और उत्तरदिशा के उपरिमान्त से बारह योजन अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। हे भगवन् ! शर्कराप्रभा पृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है ? गौतम ! त्रिभाग कम तेरह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार चारों दिशाओं को लेकर कहना चाहिए। हे भगवन् ! बालुकापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमांत से कितने अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया त्रिभाग सहित तेरह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है। इस प्रकार चारों दिशाओं को लेकर कहना चाहिए। सब नरकपृथ्वियों की चारों दिशाओं को लेकर प्रश्न करना चाहिए। . पंकप्रभा में चौदह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है। पांचवीं धूमप्रभा में त्रिभाग कम पन्द्रह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त है। छठी तमप्रभा में त्रिभाग सहित पन्द्रह योजन के अपान्तराल के Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र बाद लोकन्त है। सातवीं पृथ्वी में सोलह योजन के अपान्तराल के बाद लोकान्त कहा गया है। इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक जानना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के दक्षिणदिशा का चरमान्त कितने प्रकार का है।। गौतम तीन प्रकार का कहा गया है, यथा-घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय। इसी प्रकार उत्तरदिशा के चरमान्त तक कहना चाहिए। इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक की सब पृथ्वियों के उत्तरी चरमान्त तक सब दिशाओं के चरमान्तों के प्रकार कहने चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकपृथ्वियों के चरमान्त से अलोक कितना दूर है, यह प्रतिपादित किया है। रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा के चरमान्त से अलोक बारह योजन की दूरी पर है। अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी के पूर्वदिशा वाले चरमान्त और अलोक के बीच में बारह योजन का अपान्तराल है। इसी तरह रत्नप्रभापृथ्वी के दक्षिण, पश्चिम और उत्तर के चरमान्त से भी बारह योजन की दूरी पर अलोक है। यहाँ दिशा का ग्रहण उपलक्षण है अतः चारों दिशाओं के चरमान्त से भी अलोक बारह योजन की दूरी पर है और बीच में अपान्तराल है। शर्कराप्रभापृथ्वी के सब दिशाओं और विदिशाओं से चरमान्त से अलोक त्रिभागन्यून तेरह(१२२/) योजन दूरी पर है। अर्थात् चरमान्त और अलोक के बीच इतना अपान्तराल है। . बालुकाप्रभा के सब दिशा-विदिशाओं के चरमान्त से अलोक पूर्वोक्त त्रिभागसहित तेरह योजन (परिपूर्ण तेरह योजन) की दूरी पर है। बीच में इतना अपान्तराल है। पंकप्रभा और अलोक के बीच १४ योजन का अपान्तराल है। धूमप्रभा और अलोक के बीच त्रिभागन्यून १५ योजन का अपान्तराल है। तमःप्रभा और अलोक के बीच पूर्वोक्त त्रिभाग सहित पन्द्रह योजन का अपान्तराल है। अधःसप्तमपृथ्वी के चरमान्त और अलोक के बीच परिपूर्ण सोलह योजन का अपान्तराल है। इस प्रकार अपान्तराल बताने के पश्चात् प्रश्न किया गया है कि ये अपान्तराल आकाशरूप हैं या इनमें घनोदधि आदि व्याप्त हैं ? उत्तर में कहा गया है कि ये अपान्तराल घनोदधि, घनवात और तनुवात से व्याप्त हैं। यहाँ ये घनोदधि आदि वलयाकार हैं, अतएव ये घनोदधिवलय, घनवातवलय और तनुवातवलय कहे जाते हैं। पहले सब नरकपृथ्वियों के नीचे घनोदधि आदि का जो बाहल्यप्रमाण कहा गया है, वह उनके मध्यभाग का है । इसके बाद प्रदेश-हानि से घटते-घटते अपनी-अपनी पृथ्वी के पर्यन्त में तनुतर होकर अपनीअपनी पृथ्वी को वलायाकार वेष्टित करके रहे हुए हैं, इसलिए इनको वलय कहते हैं। इन वलयों का उच्चत्व तो सर्वत्र अपनी-अपनी पृथ्वी के अनुसार ही है। तिर्यग् बाहल्य आगे बताया जायेगा। यहाँ तो अपान्तरालों का विभागमात्र बताया है। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : घनोदधिवलय का तिर्यग् बाहल्य] [२०९ घनोदधिवलय का तिर्यग् बाहल्य ७६. (१) इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते? गोयमा ! छ जोयणाणि बाहल्लेणं पण्णत्ते। सक्करप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! सतिभागाइं छ जोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ते। बालुयप्पभाए पुच्छा; गोयमा ! तिभागूणाई सत्त जोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। एवं एतेण अभिलावेणं पंकप्पभाए सत्तजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। धूमप्पभाए सतिभागाइं सत्तजोयणाइं पण्णत्ते। तमप्पभाए तिभागूणाई अट्ठजोयणाई। तमतमप्पभाए अट्ठजोयणाई। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवायवलए केवइयं बाहल्लणं पण्णत्ते ? गोयमा ! अद्धपंचमाइं जोयणाई बाहल्लेणं। सक्करप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! कोसूणाई पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते। एवं एएणं अभिलावेणं बालुप्पभाए पंचजोयणाई बाहल्लेणं पण्णत्ते, पंकप्पभाए सक्कोसाइं पंचजोयणाइंबाहल्लेणं पण्णत्ते।धूमप्पभाए अद्धछट्ठाइंजोयणाइं बाहल्लेणं पण्णत्ते। तमप्पभाए कोसूणाइंछ जोयणाइंबाहल्लेणं पण्णत्ते।अहेसत्तमाए छ जोयणाईबाहल्लेणं पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाएपुढवीए तणुवायवलए केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ते ? गोयमा ! छक्कोसेणंबाहल्लेणं पण्णत्ते। एवं एएणंअभिलावेणं सक्करप्पभाए सतिभागे छक्कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते। बालुयप्पभाए तिभागूणे सत्तकोसंबाहल्लेणं पण्णत्ते।पंकप्पभाए पुढवीए सत्तकोसं बाहल्लेणं पण्णत्ते। धूमप्पभाए सतिभागे सत्तकोसे। तमप्पभाए तिभागूणे अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते। अधेसत्तमाए पुढवीए अट्ठकोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते। [७६-१] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनोदधिवलय कितना मोटा है ? गौतम ! छह योजन की मोटाई वाला है। भंते ! शर्कराप्रभापृथ्वी का घनोदधिवलय कितना मोटा है ? गौतम ! त्रिभागसहित छह योजन मोटा है। बालुकाप्रभा की पृच्छा-गौतम ! त्रिभागन्यून सात योजन का है। इसी अभिलाप से पंकप्रभा का घनोदधिवलय सात योजन का, धूमप्रभा का त्रिभागसहित सात योजन का, तमःप्रभा का त्रिभागन्यून आठ योजन का और तमस्तमःप्रभा का आठ योजन का है। Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का घनवातवलय कितनी मोटई वाला है ? गौतम ! साढ़े चार योजन का मोटा है। शर्कराप्रभा का एक कोस कम पांच योजन का है। इसी प्रकार बालुकाप्रभा का पांच योजन का, पंकप्रभा का एक कोस अधिक पांच योजन का, धूमप्रभा का साढ़े पांच योजन का और तमःस्तम प्रभापृथ्वी का एक कोस कम छह योजन का बाहल्य है, तथा अधःसप्तम पृथ्वी का छह योजन का है। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी का तनुवातवलय कितनी मोटाई वाला कहा गया है ? गौतम ! छह कोस की मोटाई का है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा का त्रिभागसहित छह कोस, बालुकाप्रभा का त्रिभागन्यून सात कोस, पंकप्रभा का सात कोस, धूमप्रभा का त्रिभागसहित सात कोस का, तमःप्रभा का त्रिभागन्यून आठ कोस और अधःसप्तमपृथ्वी का तनुवातवलय आठ कोस बाहल्य वाला है। अपान्तराल और बाहल्य का यन्त्र पृथ्वी का नाम अपान्तराल घनोदधिवलय घनवातवलय तनुवातवलय का प्रमाण का बाहल्य का बाहल्य का बाहल्य १ रत्नपभा बारह योजन ६ योजन ४॥ योजन ६ कोस २ शर्कराप्रभा त्रिभाग कम त्रिभागसहित कोस कम ५ . ६), कोस १३ योजन ६ योजन योजन ३ बालुकाप्रभा १३ योजन त्रिभागन्यून ५ योजन त्रिभागन्यून . ७ योजन ७ कोस ४ पंकप्रभा १४ योजन ७ योजन १ कोस ५ ७ कोस योजन ५ धूमप्रभा त्रिभाग कम त्रिभागसहित ५॥ योजन ७), कोस १५ योजन ७ योजन ६ तमःप्रभा १५ योजन त्रिभागन्यून कोस कम त्रिभागन्यून ८ योजन ६ योजन ८ कोस ७ तमस्तमःप्रभा १६ योजन ८ योजन ६ योजन ८ कोस [२] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलयस्स छ जोयणबाहल्लस्स खेत्तच्छेएणं छिज्जमाणस्स अस्थि दव्वाई वण्णओ काल जाव हंता अत्थि। सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए घणोदधिवलयस्स सतिभागछज्जोयण बाहल्लस्स खेत्तच्छेएण छिज्जमाणस्स जाव हंता अत्थि। एवं जाव अधेसत्तमाए जं जस्स बाहल्लं। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलयस्स अद्धपंचम जोयण बाहल्लस्स Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: घनोदधिवलय का तिर्यग बाहल्य] [२११ खेत्तच्छेएण छिज्जमाणस्स जाव हंता अत्थि। एवं जाव अधेसत्तमाए जं जस्स बाहल्लं। एवं तणुवायवलयस्स वि जाव अहेसत्तमा जं जस्स बाहल्लं। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलए किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए पण्णत्ते। जे णं इमं रयणप्पभं पुढविं सव्वओ संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठइ, एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए घणोदधिवलए; णवरं अप्पणप्पणं पुढविं संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठति। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलए किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा! वट्टे वलयागारे तहेव जावजेणंइमीसेणंरयणप्पभाए पुढवीए घणोदधिवलयं सव्वओ समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठइ एवं जाव अहेसत्तमाए घणवातवलए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तणुवातवलए किंसंठिए पण्णत्ते ? गोयमा ! वट्टे वलयागारसंठाणसंठिए जाव जे णं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए घणवातवलयं सव्वओ समंता संपरिक्खिवित्ता णं चिट्ठइं। एवं जाव अहेसत्तमाए तणुवातवलए। इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी केवइ आयामविक्खंभेणं पण्णत्ता? गोयमा! असंखेज्जाइंजोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ता। एवं जाव अधेसत्तमा। इमा णं भंते ! रयणप्पभा पढवी अंते य मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं पण्णत्ता? हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभापुढवी अंते य मज्झे य सव्वत्थ समा बाहल्लेणं, एवं जाव अधेसत्तमा। [७६-२] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के छह योजन बाहल्य वाले और बुद्धिकल्पित प्रतरादि विभाग वाले घनोदधिवलय में वर्ण से काले आदि द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। हे भगवन् ! इस शर्कराप्रभापृथ्वी के त्रिभागसहित छह योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि विभाग वाले घनोदधिवलय में वर्ण से काले आदि द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम ! हैं। इस प्रकार जितना बाहल्य है, वह विशेषण लगाकर सप्तमपृथ्वी के घनोदधिवलय तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के साढ़े चार योजन बाहल्य वाले और प्रतरादि रूप में विभक्त घनवातवलय में वर्णादि परिणत द्रव्य हैं क्या ? हाँ, गौतम हैं ! इसी प्रकार जिसका जितना बाहल्य है, वह विशेषण लगाकर सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। इसी प्रकार तनुवातवलय के सम्बन्ध में भी अपने-अपने बाहल्य का विशेषण लगाकर सप्तम पृथ्वी Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२] . [जीवाजीवाभिगमसूत्र तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधिवलय का आकार कैसा कहा गया है? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के घनोदधिवलय का आकार समझना चाहिए। विशेषता यह है कि वे सब अपनी-अपनी पृथ्वी को घेरकर रहे हुए हैं। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनवातवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह इस रत्नप्रभा पृथ्वी के घनोदधिवलय को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है। इसी तरह सातों पृथ्वियों के घनवातवलय का आकार जानना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तनुवातवलय का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! वर्तुल और वलयाकार कहा गया है, क्योंकि वह घनवातवलय को चारों ओर से घेरकर रहा हुआ है। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के तनुवातवलय का आकार जानना चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी कितनी लम्बी-चौड़ी कही गई है ? गौतम ! असंख्यात हजार योजन लम्बी और चौड़ी तथा असंख्यात हजार योजन की परिधि (घेराव) वाली है। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी अन्त में और मध्य में सर्वत्र समान बाहल्य वाली कही गई है ? _ हाँ, गौतम ! यह रत्नप्रभा पृथ्वी अन्त में, मध्य में सर्वत्र समान बाहल्य वाली कही गई है। . इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। सर्व जीव-पुद्गलों का उत्पाद ७७. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा ? सव्वजीवा उववण्णा ? गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वजीवा उववण्णपुव्वा, नो चेवणं सव्वजीवा उववण्णा। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए। इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवीए सव्वजीवेहिं विजढपुव्या सव्वजीवेहिं विजढा ? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभापुढवी सव्वजीवहिं विजढपुव्वा, नोचेवणंसव्वजीवविजढा। एवं जाव अधेसत्तमा। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सव्वपोग्गला पविठ्ठपुव्वा, सव्वपोग्गला पविट्ठा। गोयमा ! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए सव्वपोग्गला पविट्ठपुव्वा, नो चेवणंसव्वपोग्गला पविट्ठा। एवं जाव अधेसत्तमाए पुढवीए। Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :सर्व जीव-पुद्गलों का उत्पाद] [२१३ इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी सव्वपोग्गलेहिं विजढपुव्वा ? सव्वपोग्गला विजढा ? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभापुढवी सव्वपोग्गलेहिं विजढपुव्वा, नो चेवणं सव्वपोग्गलेहिं विजढा। एवं जाव अधेसत्तमा। [७७] हे भगवन् ! क्या इस रत्नप्रभापृथ्वी में सब जीव पहले कालक्रम से उत्पन्न हुए हैं तथा युगपत् (एक साथ) उत्पन्न हुए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब जीव पहले उत्पन्न हुए हैं किन्तु सब जीव एक साथ रत्नप्रभा में उत्पन्न नहीं हुए। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक प्रश्न और उत्तर कहने चाहिए। ___ हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब जीवों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है क्या? तथा सब जीवों के द्वारा पूर्व में एक साथ छोड़ी गई है क्या ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब जीवों के द्वारा पूर्व मे परित्यक्त है परन्तु सब जीवों ने पूर्व में एक साथ इसे नहीं छोड़ा है। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक प्रश्नोत्तर कहने चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब पुद्गल पहले प्रविष्ट हुए हैं क्या ? तथा क्या एक साथ सब पुद्गल इसमें पूर्व में प्रविष्ट हुए हैं ? गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में कालक्रम से सब पुद्गल पहले प्रविष्ट हुए हैं परन्तु एक साथ सब पुद्गल पूर्व में प्रविष्ट नहीं हुए हैं। __ इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब पुद्गलों के द्वारा पूर्व में परित्यक्त है क्या ? तथा सब पुद्गलों ने एक साथ इसे छोड़ा है क्या ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी कालक्रम से सब पुद्गलों द्वारा पूर्व में परित्यक्त है परन्तु सब पुद्गलों द्वारा एक साथ पूर्व में परित्यक्त नहीं है। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि क्या संसार के सब जीवों और सब पुद्गलों ने रत्नप्रभा आदि पृथ्वियों में गमन और परिणमन किया है ? प्रश्न का आशय यह है कि क्या सब जीव रत्नप्रभा आदि में कालक्रम से उत्पन्न हुए हैं या एक साथ सब जीव उत्पन्न हुए हैं ? पुद्गलों के सम्बन्ध में भी रत्नप्रभादि के रूप में कालक्रम से या युगपत् परिणमन को लेकर प्रश्न समझना चाहिए। भगवान् ने कहा-गौतम ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में सब जीव कालक्रम से–अलग-अलग समय में पहले Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्पन्न हुए हैं। यहाँ सब जीवों से तात्पर्य संव्यवहार राशि वाले जीव ही समझना चाहिए, अव्यवहार राशि के जीव नहीं। संसार अनादिकालीन होने से अलग-अलग समय में सब जीव रत्नप्रभा आदि में उत्पन्न हुए हैं। परन्तु सब जीव एक साथ रत्नप्रभादि में उत्पन्न नहीं हुए। यदि सब जीव एक साथ रत्नपभादि में उत्पन्न हो जाएं तो देव, तिथंच, मनुष्यादि का अभाव प्राप्त हो जावेगा। ऐसा कभी नहीं होता। जगत् का स्वभाव ही ऐसा है। तथाविध जगत्-स्वभाव से चारों गतियां शाश्वत हैं । अतः एक साथ सब जीव रत्नप्रभादि में उत्पन्न नहीं हो सकते। - पहला प्रश्न उत्पाद को लेकर है। निर्गम को लेकर दूसरा प्रश्न किया है कि हे भगवन् ! सब जीवों ने पूर्व में कालक्रम से रत्नप्रभादि पृथ्वियों को छोड़ा है या सब जीवों ने पूर्व में एक साथ रत्नप्रभादि को छोड़ा भगवान् ने कहा-गौतम ! सब जीवों ने भूतकाल में कालक्रम से, अलग-अलग समय में रत्नप्रभादि भूमियों को छोड़ा है, परन्तु सब जीवों ने एक साथ उन्हें नहीं छोड़ा। सब जीव एक साथ रत्नप्रभादि का परित्याग कर ही नहीं सकते। क्योंकि तथाविध निमित्त ही नहीं है। यदि एक साथ सब जीवों द्वारा रत्नप्रभादि का त्याग किया जाना माना जाय तो रत्नप्रभादि में नारकों का अभाव हो जायगा। ऐसा कभी नहीं होता । __जीवों को लेकर हुए प्रश्नोत्तर के पश्चात् पुद्गल सम्बन्धी प्रश्न हैं। क्या सबं पुद्गल भूतकाल में रत्नप्रभादि के रूप में कालक्रम से परिणत हुए हैं या एक साथ सब पुद्गल रत्नप्रभादि के रूप में परिणत हुए. हैं ? भगवान् ने कहा-सब पुद्गल कालक्रम से अलग-अलग समय में रत्नप्रभादि के रूप में परिणत हुए हैं, क्योंकि संसार अनादिकाल से है और उसमें ऐसा परिणमन हो सकता है। परन्तु सब पुद्गल एक साथ रत्नप्रभादि के रूप में परिणत नहीं हो सकते। सब पुद्गलों के तद्रूप में परिणत होने पर रत्नप्रभादि को छोड़कर अन्यत्र सब जगह पुद्गलों का अभाव हो जावेगा। ऐसा तथाविध जगत्-स्वभाव के कारण कभी नहीं होता। इसी प्रकार सब पुद्गलों ने कालक्रम से रत्नप्रभादि रूप परिणमन का परित्याग किया है। क्योंकि संसार अनादि है, किन्तु सब पुद्गलों ने एक साथ रत्नप्रभादि रूप परिणमन का त्याग नहीं किया है। क्योंकि यदि वैसा माना जाय तो रत्नप्रभादि के स्वरूप का अभाव हो जावेगा। ऐसा हो नहीं सकता। क्योंकि तथाविध जगत्-स्वभाव से रत्नप्रभादि शाश्वत हैं। शाश्वत या अशाश्वत ७८. इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं सासया असासया ? गोयमा ! सिय सासया, सिय असासया। से केणढेणं भंते ! एवं बुच्चइ-सिय सासया, सिय असासया ? गोयमा ! दबट्टयाए सासया, वण्णज्जवेहिं, गंधपज्जवेहिं, रसपज्जवेहिं, फासपज्जवेहिं असासया; से तेणटेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-तं चेव जाव सिय असासया। एवं जाव अधेसत्तमा। Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :शाश्वत और अशाश्वत] [२१५ इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! न कयाइ ण असि, न कयाइ णत्थि, न कयाइ न भविस्सइ; भुविं च भवइ य भविस्सइ य; धुवा, णियया, साससा, अक्खया, अव्वया, अवट्ठिआ णिच्चा। एवं चेव अधेसत्तमा। हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है या अशाश्वत ? गौतम ! कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। भगवन् ! ऐसा क्यों कहा जाता है-कथंचित् शाश्वत् है, कथंचित् अशाश्वत है ? गौतम ! द्रव्यार्थिकत्व की अपेक्षा से शाश्वत है और वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से स्पर्शपर्यायों से अशाश्वत है। इसलिए गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी कथंचित् शाश्वत है और कथंचित् अशाश्वत है। इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी काल से कितने समय तक रहने वाली है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी 'कभी नहीं थी', ऐसा नहीं, कभी नहीं है', ऐसा भी नहीं और 'कभी नहीं रहेगी', ऐसा भी नहीं। यह अतीतकाल में थी, वर्तमान में है और भविष्य में भी रहेगी। यह ध्रुव है, नित्य है, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। ___ इसी प्रकार अधःसप्तमपृथ्वी तक जाननी चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में रत्नप्रभापृथ्वी को शाश्वत भी कहा है और अशाश्वत भी कहा है। इस पर शंका होती है कि शाश्वतता और अशाश्वतता परस्पर विरोधी धर्म हैं तो एक ही वस्तु में दो विरोधी धर्म कैसे रह सकते हैं ? यदि वह शाश्वत है तो अशाश्वत नहीं हो सकती और अशाश्वत है तो शाश्वत नहीं हो सकती। जैसै शीतत्व और उष्णत्व एकत्र नहीं रह सकते। एकान्तवादी दर्शनों की ऐसी ही मान्यता है। अतएव नित्यैकान्तवादी अनित्यता का अपलाप करते हैं और अनित्यैकान्तवादी नित्यता का अपलाप करते हैं। सांख्य आदि दर्शन एकान्त नित्यता का समर्थन करते हैं जबकि बौद्धादि दर्शन एकान्त क्षणिकता-अनित्यता का समर्थन करते हैं। जैनसिद्धान्त इन दोनों एकान्तों का निषेध करता है और अनेकान्त का समर्थन करता है। जैनआगम और जैनदर्शन प्रत्येक वस्तु को विविध दृष्टिकोणों से देखकर उसकी विविधरूपता और एकरूपता को स्वीकार करता है। वस्तु भिन्न-भिन्न विवक्षाओं और अपेक्षाओं से भिन्नरूप वाली है और उस भिन्नरूपता में भी उसका एकत्व रहा हुआ है। एकान्तवादी दर्शन केवल एक धर्म को ही समग्र वस्तु मान लेते हैं। जबकि वास्तव में वस्तु विविध पहलुओं से विभिन्न रूप वाली है। अतएव एकान्तवाद अपूर्ण है, एकांगी है। वह वस्तु के समग्र और सही स्वरूप को प्रकट नहीं करता। जैनसिद्धान्त वस्तु को समग्र रूप में देख कर प्ररूपण करता है कि प्रत्येक वस्तु अपेक्षाभेद से नित्य भी है, अनित्य भी है, सामान्यरूप भी है, विशेषरूप भी है, एकरूप भी है अनेकरूप भी है। भिन्न भी है और अभिन्न भी है। ऐसा मानने पर Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र एकान्तवादी दर्शन जो विरुद्धधर्मता का दोष देते हैं वह यथार्थ नहीं है। क्योंकि विरोध दोष तो तब हो जब एक ही अपेक्षा या एक ही विवक्षा से उसे नित्यानित्य आदि कहा जाये। अपेक्षा या विवक्षा के भेद से ऐसा मानने पर कोई दोष या असंगति नहीं है। जैसे एक ही व्यक्ति विविध रिश्तों को लेकर पिता, पुत्र, मामा, काका आदि होता ही है। इसमें क्या विरोध है ? यह तो अनुभवसिद्ध और व्यवहारसिद्ध तथ्य है। जैन सिद्धान्त अपने इस अनेकान्तवादी दृष्टिकोण को नयों के आधार से प्रमाणित करता है। संक्षेप में नय दो प्रकार के हैं-१. द्रव्यार्थिकनय और पर्यायार्थिकनय। द्रव्यनय वस्तु के सामान्य स्वरूप को ग्रहण करता है और पर्यायनय वस्तु के विशेषस्वरूप को ग्रहण करता है। प्रत्येक वस्तु द्रव्यपर्यायात्मक है।' वस्तु न एकान्त द्रव्यरूप है और न एकान्त पर्याय रूप है। वह उभयात्मक है। द्रव्य को छोड़कर पर्याय नहीं रहते और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रहता। द्रव्य, पर्यायों का आधार है और पर्याय द्रव्य का आधेय है। आधेय के बिना आधार और आधार के बिना आधेय की स्थिति ही नहीं है। द्रव्य के बिना पर्याय और पर्याय के बिना द्रव्य नहीं रह सकता। अतएव कहा जा सकता है कि परिकल्पित एकान्त द्रव्य असत है क्योंकि वह पर्यायरहित है। जो पर्यायरहित है वह द्रव्य असत् है जैसे बालत्वादिपर्याय से शून्य बन्ध्यापुत्र। इसी तरह यह भी कहा जा सकता है कि परपरिकल्पित एकान्त पर्याय असत् है क्योंकि वह द्रव्य से भिन्न है। जो द्रव्य से भिन्न है वह असत् है जैसे बन्ध्यापुत्र की बालत्व आदि पर्याय। अतएव सिद्ध होता है कि वस्तु द्रव्य-पर्यायात्मक है और उभयदृष्टि से उसका समग्र विचार करना चाहिए। उक्त अनेकान्तवादी एवं प्रमाणित दृष्टिकोण को लेकर ही सूत्र में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी द्रव्य की अपेक्षा से शाश्वत है। अर्थात् रत्नप्रभापृथ्वी का आकारादि भाव उसका अस्तित्व आदि सदा से था, है और रहेगा। अतएव वह शाश्वत है। परन्तु उसके कृष्णादि वर्ण पर्याय, गंधादि पर्याय, रस पर्याय, स्पर्श पर्याय आदि प्रतिक्षण पलटते रहते हैं अतएव वह अशाश्वत भी है। इस प्रकार द्रव्यार्थिकनय की विवक्षा से रत्नप्रभापृथ्वी शाश्वत है और पर्यायार्थिक नय से वह अशाश्वत है। इसी प्रकार सातों नरकपृथ्वियों की वक्तव्यता जाननी चाहिए। रत्नप्रभादि की शाश्वतता द्रव्यापेक्षया कही जाने पर शंका हो सकती है कि यह शाश्वतता सकलकालावस्थिति रूप है या दीर्घकाल-अवस्थितिरूप है, जैसा कि अन्यतीर्थी कहते हैं-यह पृथ्वी आकल्प शाश्वत है ? ३ इस शंका का समाधान करते हुए कहा गया है कि यह पृथ्वी अनादिकाल से सदा से थी, सदा है और सदा रहेगी। यह अनादि-अनन्त है। त्रिकालभावी होने से यह ध्रुव है, नियत स्वरूप वाली होने से धर्मस्तिकाय की तरह नियत है, नियत होने से शाश्वत है, क्योंकि इसका प्रलय नहीं होता। शाश्वत होने १. उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । -तत्त्वार्थसूत्र द्रव्य-पर्यायात्मकं वस्तु। २. द्रव्यं पर्यायवियुतं, पर्याया द्रव्यवर्जिता। क्व कदा केन किंरूपा, दृष्टा मानेन केन वा। ३. 'आकप्पट्ठाई पुढवी सासया।' Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : पृथ्वियों का विभागवार अन्तर] [२१७ से अक्षय है और अक्षय होने से अव्यय है और अव्यय होने से स्वप्रमाण में अवस्थित है। अतएव सदा रहने के कारण नित्य है। अथवा ध्रुवादि शब्दों को एकार्थक भी समझा जा सकता है। शाश्वतता पर विशेष भार देने हेतु विविध एकार्थक शब्दों का प्रयोग किया गया है। इसी प्रकार सातों पृथ्वियों की शाश्वतता जाननी चाहिए । पृथ्वियों का विभागवार अन्तर ७९. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं केवतियं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! असिउत्तरं जोयणसयसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ खरस्स कंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साई अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ रयणकंडस्स हेडिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? इमीसे णंभंते ! रयण पु० उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! एक्कं जोयणसहस्सं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते? इमीसे णं रयण पु० उवरिल्लाओ चरिमंताओ वइरस्स कंडस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते एसणं भंते ! केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! दो जोयणसहस्साइं इमीसे णं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते। एवंजाव रिट्ठस्स उवरिल्ले पन्नरस जोयणसहस्साइं, हेट्ठिल्ले चरमंते सोलस जोयणसहस्साई। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ पंकबहुलस्स कंडस्स उवरिल्ले चरिमंते एस णं अबाहाए केवइयं अंतरे पण्णत्ते? गोयमा ! सोलस जोयणसहस्साइं आबाधाए अंतरे पण्णत्ते। हेट्ठिल्ले चरिमंते एक्कं जोयणसयसहस्सं आवबहुलस्स उवरिं एक्कं जोयणसयसहस्सं हेट्ठिल्ले चरिमंते असीउत्तरं जोयणसयसहस्सं। घणोदधि उवरिल्ले असिउत्तर जोयणसयसहस्सं,हेट्ठिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साइं। इमीसे णं भंते ! रयण पु० घणवातस्स उवरिल्ले चरिमंते दो जोयणसयसहस्साइं। हेट्ठिल्ले चरिमंते असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साइं।। इमीसे णं भंते ! रयण पु० तणुवायस्स उवरिल्ले चरमंते असंखेज्जाइंजोयणसयसहस्साई अबाधाए अंतरे, हेट्ठिल्ले वि असंखेज्जाइं जोयणसयसहस्साई। एवं ओवासंतरे वि। Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दोच्चाए णं भंते ! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ हेट्ठिल्ले चरिमंते एस णं केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! बत्तीसुत्तर जोयणसयसहस्सं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते । सक्करप्पभाए पुढवीए उवरि घणोदधिस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते बावण्णुत्तंर जोयणसयसहस्सं अबाधाए। घणवातस्स असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं पण्णत्ताइं । एवं जाव ओवासंतरस्स वि। जाव अधेसत्तमाए, णवरं जीसे जं बाहल्लं तेण घणोदधि संबंधेयव्वो बुद्धीए । सक्करप्पभाए अणुसारेणं घणोदधिसहियाणं इमं पमाणं तच्चाए णं भंते ! अडयालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । पंकप्पभाए पुढवीए चत्तालीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । धूमप्पभाए पुढवीए अट्ठतीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । तमाए पुढवीए छत्तीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं । अहेसत्तमाए पुढवीए अट्ठावीसुत्तरं जोयणसयसहस्सं जाव अधेसत्तमाए। एस णं भंते! पुढवीए उवरिल्लाओ चरिमंताओ ओवासंतरस्स हेट्ठिल्ले चरिमंते केवइयं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते ? गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसयसहस्साइं अबाधाए अंतरे पण्णत्ते । [७९] भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से खरकांड के नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर कहा गया है ? गौतम ! सोलह हजार योजन का अन्तर है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से रत्नकांड के नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! एक हजार योजन का अन्तर है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से वज्रकांड के ऊपर के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! एक हजार योजन का अन्तर है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से वज्रकांड के नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? गौतम ! दो हजार योजन का अन्तर है । इस प्रकार रिष्टकाण्ड के ऊपर के चरमान्त के बीच पन्द्रह हजार योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक सोलह हजार का अन्तर है । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमांत से पंकबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है ? Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि] [२१९ • गौतम ! सोलह हजार योजन का अन्तर है। नीचे के चरमन्त तक एक लाख योजन का अन्तर है। अपबहुलकाण्ड के ऊपर के चरमान्त तक एक लाख योजन का और नीचे के चरमान्त तक एक लाख अस्सी हजार योजन का अन्तर है। घनोदधि के ऊपर के चरमान्त तक एक लाख अस्सी हजार और नीचे के चरमान्त तक दो लाख योजन का अन्तर है। इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनवात के ऊपर के चरमान्त तक दो लाख योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त से असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इस रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से तनुवात के ऊपर के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है और नीचे के चरमान्त तक भी असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इसी प्रकार अवकाशान्तर के दोनों चरमान्तों का भी अन्तर समझना चाहिए। हे भगवन् ! दूसरी पृथ्वी (शर्करापृथ्वी) के ऊपर के चरमान्त से नीचे के चरमान्त के बीच कितना अन्तर है? गौतम ! एक लाख बत्तीस हजार योजन का अन्तर है। घनोदधि के उपरि चरमान्त के बीच एक लाख बत्तीस हजार योजन का अन्तर है। नीचे के चरमान्त तक एक लाख बावन हजार योजन का अन्तर है। घनवात के उपरितन चरमान्त के अन्तर भी इतना ही है। घनवात के नीचे के चरमान्त तक तथा तनुवात और अवकाशान्तर के ऊपर और नीचे के चरमान्त तक असंख्यात लाख योजन का अन्तर है। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विशेषता यह है कि जिस पृथ्वी का जितना बाहल्य है उससे घनोदधि का संबंध बुद्धि से जोड़ लेना चहिए। जैसे कि तीसरी पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख अड़तालीस हजार योजन का अन्तर है। पंकप्रभा पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से उसके घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख चवालीस हजार का अन्तर है। घूमप्रभा के ऊपरी चरमान्त से उसके घनोदधि के चरमान्त तक एक लाख अड़तीस हजार योजन का अन्तर है। तमःप्रभा में एक लाख छत्तीस हजार योजन का अन्तर तथा अधःसप्तम पृथ्वी के ऊपर के चरमान्त से उसके घनोदधि का चरमान्त एक लाख अट्ठावीस हजार योजन है। इसी प्रकार घनवात के अधस्तन चरमान्त की पृच्छा में तनुवात और अवकाशान्तर के उपरितन और अधस्तन की पृच्छा में असंख्यात लाख योजन का अन्तर कहना चाहिए। बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि ८०. इमा णं भंते ! रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला, विसेसाहिया, संखेज्जगुणा ? वित्थरेणं किं तुल्ला विसेसहीणा संखेज्जगुणहीणा? गोयमा ! इमाणं रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणंनो तुल्ला, विसेसहिया नो संखेज्जगुणा, वित्थारेणं नो तुल्ला, विसेसहीणा, णो संखेज्जगुणहीना। Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र दोच्चाणंभंते ! पुढवी तच्चं पुढविंपणिहाय बाहल्लेणं किंतुल्ला? एवं चेव भाणियव्वं । एवं तच्चा चउत्थी पंचमी छट्ठी। छट्ठी णं भंते ! पुढवी सत्तमं पुढविं पणिहाय बाहल्लेणं किं तुल्ला, विसेसाहिया, संखेज्जगुणा ? एवं चेव भाणियव्वं। सेवं भंते ! सेवं भंते ! नेरइयउद्देसओ पढमो। [८०] हे भगवन् ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में क्या तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? और विस्तार की अपेक्षा क्या तुल्य है, विशेषहीन है या संख्येय गुणहीन है ? गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है, संख्यातगुणहीन है। विस्तार की अपेक्षा तुल्य नहीं है, विशेषहीन है, संख्यातगुणहीन नहीं है। भगवन् ! दूसरी नरकपृथ्वी तीसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा मोटाई में क्या तुल्य है इत्यादि उसी प्रकार कहना चाहिए। इसी प्रकार तीसरी, चौथी, पांचवी और छठी नरक पृथ्वी के विषय में समझना चाहिए। भगवन् ! छठी नरकपृथ्वी सातवीं नरकपृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में क्या तुल्य है, विशेषधिक है या संख्येयगुण है ? उसी प्रकार कहना चाहिए। हे भगवन् ! (जैसा आपने कहा) वह वैसा ही है, वह वैसा ही है। इस प्रकार प्रथम नैरयिक उद्देशक पूर्ण हुआ। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र मे नरकपृथ्वियों के बाहुल्य और विस्तार को लेकर आपेक्षिक तुल्यता, विशेषाधिकता या विशेषहीनता अथवा संख्यातगुणविशेषाधिकता या संख्यातगुणहीनता को लेकर प्रश्न किये गये हैं। यहाँ यह शंका हो सकती है कि पूर्वसूत्रों में नरकपृथ्वियों का बाहल्य बता दिया गया है, उससे अपने आप यह बात ज्ञात हो जाती है तो फिर इन प्रश्नों की क्या उपयोगिता है ? यह शंका यथार्थ है परन्तु समाधान यह है-यह प्रश्न स्वयं जानते हुए भी दूसरे मंदमतियों की अज्ञाननिवृत्ति हेतु और उन्हें समझाने हेतु किया गया है। प्रश्न दो प्रकार के हैं-एक ज्ञ-प्रश्न और दूसरा अज्ञ-प्रश्न। स्वयं जानते हुए भी जो दूसरों को समझाने की दृष्टि से प्रश्न किया जाय वह ज्ञ-प्रश्न और जो अपनी जिज्ञसा के लिए किया जाता है वह अज्ञ-प्रश्न है। ऊपर जो प्रश्न किया गया है वह ज्ञ-प्रश्न है जो मंदमतियों के लिए किया गया है। यह कैसे कहा जा सकता है कि यह ज्ञ-प्रश्न है ? क्योंकि इसके आगे जो प्रश्न किया गया है वह स्व-अवबोध के लिए है। सूत्र में प्रश्न किया गया है कि दूसरी नरकपृथ्वी की अपेक्षा यह रत्नप्रभापृथ्वी मोटाई में तुल्य है, विशेषाधिक है या संख्येयगुण है ? उत्तर में कहा गया है तुल्य नहीं है, विशेषाधिक है किन्तु संख्येयगुण नहीं हैं। क्योंकि रत्नप्रभा की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है और दूसरी शर्करापृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है। दोनों में अड़तालीस हजार योजन का अन्तर है। इतना ही अन्तर होने के कारण विशेषाधिकता ही घटती है तुल्यता और संख्येयगुणता घटित नहीं होती। सब पृथ्वियों की मोटाई यहाँ उद्धृत कर देते हैं ताकि स्वयमेव यह प्रतीत हो जावेगा कि दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा प्रथम पृथ्वी Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: बाहल्य की अपेक्षा तुल्यतादि ] बाहल्य में विशेषाधिक है और तीसरी के अपेक्षा दूसरी विशेषाधिक है तथा चौथी के अपेक्षा तीसरी विशेषाधिक है, इसी तरह सातवीं की अपेक्षा छठी पृथ्वी मोटाईं में विशेषाधिक है । सब पृथ्वियों की मोटाई इस प्रकार है— प्रथम पृथ्वी की मोटाई एक लाख अस्सी हजार योजन की है । दूसरी पृथ्वी की मोटाई एक लाख बत्तीस हजार योजन की है । तीसरी पृथ्वी की एक लाख अट्ठाईस हजार योजन की है । चौथी पृथ्वी की एक लाख बीस हजार योजन की है। पांचवीं पृथ्वी की एक लाख अठारह हजार योजन की है। छठी पृथ्वी की मोटाई एक लाख सोलह हजार योजन की है । सातवीं पृथ्वी की मोटाई एक लाख आठ हजार योजन की है। [२२१ अतएव बाहल्य की अपेक्षा से पूर्व-पूर्व की पृथ्वी अपनी पिछली पृथ्वी की अपेक्षा विशेषाधिक ही है, तुल्य या संख्येयगुण नहीं । विस्तार की अपेक्षा पिछली - पिछली पृथ्वी की अपेक्षा पूर्व-पूर्व की पृथ्वी विशेषहीन है, तुल्य या संख्येयगुणहीन नहीं । रत्नप्रभा में प्रदेशादि की वृद्धि से प्रवर्धमान होने पर उतने ही क्षेत्र में शर्कराप्रभादि में भी वृद्धि होती है, अतएव विशेषहीनता ही घटित होती है । इस प्रकार भगवान् के द्वारा प्रश्नों के उत्तर दिये जाने पर श्री गौतमस्वामी भगवान् के प्रति अपनी अटूट और अनुपम श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहते हैं कि भगवन् ! आपने जो कुछ फरमाया, वह पूर्णतया वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है । ऐसा कह कर गौतमस्वामी भगवान् को वन्दन - नमस्कार करके संयम एवं तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं । इस प्रकार जीवाजीवाभिगम की तीसरी प्रतिपत्ति का प्रथम नरक - उद्देशक समाप्त । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति द्वितीय उद्देशक प्रथम उद्देशक में नरक-पृथ्वियों के नाम, गोत्र, बाहल्य आदि विविध जानकारियां दी गई हैं। अब क्रमप्राप्त द्वितीय उद्देशक में नरक-पृथ्वियों के किस प्रदेश में कितने नरकावास हैं और वे कैसे हैं, इत्यादि वर्णन किया जा रहा है। उसका आदि सूत्र यह है ८१. कइ णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-रयणप्पाभा जाव अहेसत्तमा। इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि केवइयं ओगाहित्ता हेट्ठा केवइयं वज्जित्ता मज्झे केवइए निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता? गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए असीउत्तर जोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एगंजोयणसहस्सं ओगाहित्ता हेट्ठावि एगंजोयणसहस्सं वज्जेत्ता माझे अडसत्तरी जोयणसयसहस्सा, एत्थ णंरयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं तीसं निरयावाससयसहस्साई भवंति त्ति मक्खाया। तेणंणरगा अंतोवट्टा बाहिं चउरंसा जाव असुभा णरएसु वेयणा।एवं एएणं अभिलावेणं उवमुंजिउणभाणियव्वं ठाणप्पयाणुसारेण,जत्थजंबाहल्लंजत्थ जत्तिया वा निरयावाससयसहस्सा जाव अहेसत्तमाए पुढवीए-अहे सत्तमाए मज्झिमंकेवइए कति अणुत्तरा महइमहालया महाणिरया पण्णत्ता, एवं पुच्छियव्वं वागरेयव्वं पि तहेव। [८१] हे भगवन् ! पृथ्वियां कितनी कही गई हैं ? गौतम ! सात पृथ्वियां कही गई हैं, जैसे कि रत्नप्रभा यावत् अधःसप्तम पृथ्वी। भगवन् ! एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्य वाली इस रत्नप्रभा पृथ्वी के ऊपर से कितनी दूर जाने पर और नीचे के कितने भाग को छोड़कर मध्य के कितने भाग में कितने लाख नरकावास कहे गये हैं ? गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजनप्रमाण बाहल्यवाली रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन का ऊपरी भाग छोड़ कर और नीचे का एक हजार योजन का भाग छोड़कर मध्य में एक लाख अठहत्तर हजार योजनप्रमाणक्षेत्र में तीस लाख नरकावास हैं, ऐसा कहा गया है। __ ये नरकावास अन्दर से मध्य भाग में गोल हैं बाहर से चौकोन हैं यावत् इन नरकावासों में अशुभ वेदना है। इसी अभिलाप के अनुसार प्रज्ञापना के स्थानपद के मुताबिक सब वक्तव्यता कहनी चाहिए। जहाँ जितना बाहल्य है और जहाँ जितने नरकावास हैं, उन्हें विशेषण के रूप में जोड़कर सप्तम पृथ्वी पर्यन्त कहना चाहिए, यथा-अधःसप्तमपृथ्वी के मध्यवर्ती कितने क्षेत्र में कितने अनुत्तर, बड़े से बड़े महानरक कहे गये हैं, ऐसा प्रश्न करके उसका उत्तर भी पूर्ववत् कहना चाहिए। Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: द्वितीय उद्देशक ] विवेचन - पृथ्वियां कितनी हैं ? यह प्रश्न पहले किया जा चुका है और उसका उत्तर भी पूर्व में दिया जा चुका है कि पृथ्वियाँ सात हैं, यथा - रत्नप्रभा से लगाकर अधः सप्तम पृथ्वी तक । फिर यह प्रश्न दुबारा क्यों किया गया है, यह शंका सहज होती है। इसका समाधान करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है कि ' 'जो पूर्ववर्णित विषय पुनः कहा जाता है वह किसी विशेष कारण को लेकर होता है। यह विशेष कारण प्रतिषेध या अनुज्ञारूप भी हो सकता है और पूर्व विषय में विशेषता प्रतिपादन रूप भी हो सकता।' यहाँ दुबारा किया यह प्रश्न और पूर्ववर्णित विषय में अधिक और विशेष जानकारी देने के अभिप्राय से समझना चाहिए । [२२३ यहाँ विशेष प्रश्न यह है कि नरकावासों की स्थिति नरक - पृथ्वियों के कितने भाग में है तथा उन नरकावासों का आकार कैसा है तथा वहाँ के नारक जीव कैसी वेदना भोगते हैं ? इन प्रश्नों के संदर्भ में प्रभु ने फरमाया कि एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्य (मोटाई) वाली रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपरी भाग से एक हजार योजन की दूरी पार करने पर और अन्तभाग का एक हजार योजन प्रमाण भाग छोड़कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। यह कथन जैसे मैं कर रहा हूँ वैसा ही अतीत काल के तीर्थंकरों ने भी किया है । सब तीर्थंकरों के वचनों में अत्रिसंवादिता और एकरूपता होती है । ये नरकावास मध्य में गोल हैं और बाहर से चतुष्कोण हैं। पीठ के ऊपर वर्तमान जो मध्यभाग है उसको लेकर गोलाकृति कही गई है तथा सकलपीठादि की अपेक्षा से तो आवलिका प्रविष्ट नरकावास तिकोण, चतुष्कोण संस्थान वाले कहे गये हैं और जो पुष्पावकीर्ण नरकावास हैं वे अनेक प्रकार के हैं -सूत्र में आये हुए 'जाव असुभा' पद से २ टिप्पण में दिये पाठ का संग्रह हुआ है, जिसका अर्थ इस प्रकार है अहेखुरप्पसंठाणा - ये नरकावास नीचे के भाग से क्षुरा (उस्तरा ) के समान तीक्षण आकार के हैं। इसका अर्थ यह है कि इन नरकावासों का भूमितल चिकना या मुलायम नहीं है किन्तु कंकरों से युक्त है, जिनके स्पर्शमात्र से नारकियों के पांव कट जाते हैं - छिल जाते हैं और वे वेदना का अनुभव करते हैं । णिच्चधयार तमसा-उन नरकावासों में सदा गाढ अन्धकार बना रहता है। तीर्थंकरादि के जन्मादि प्रसंगों के अतिरिक्त वहाँ प्रकाश का सर्वथा अभाव होने से जात्यन्ध की भांति मेघाच्छन्न अर्धरात्रि के अन्धकार से भी अतिघना अन्धकार वहाँ सदाकाल व्याप्त रहता है, क्योंकि वहाँ प्रकाश करने वाले सूर्यादि हैं ही नहीं । इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिए आगे और विशेषण दिया है ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा -उन नरकावासों में ग्रह-चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र - तारा आदि ज्योतिष्कों का पथ संचार रास्ता नहीं है अर्थात् ये प्रकाश करने वाले तत्त्व वहाँ नहीं हैं । १. पुव्वभणियं पि जं पुण भण्णइ तत्थ कारणमत्थि । पडिसेहो य अणुण्णा कारणविसेसोवलंभो वा ॥ २. 'अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयारतमसा, ववगयगह चंद-सूर - नक्खत्तजोइसपहा, मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला, असुहबीभच्छा, परमदुब्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुहा नरएसु वेयणा । ' Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला- -उन नरकावासों का भूमितल मेद, चर्बी, पूर्ति (पीप), खून और मांस के कीचड़ से सना हुआ है, पुनः पुनः अनुलिप्त है । २२४ ] असुइबीभच्छा - मेदादि के कीचड़ के कारण अशुचिरूप होने से अत्यन्त घृणोत्पादक और बीभत्स हैं। उन्हें देखने मात्र से ही अत्यन्त ग्यानि होती है । परमदुब्भिगंधा- वे नरकावास अत्यन्त दुर्गन्ध वाले हैं। उनसे वैसी दुर्गन्ध निकलती रहती है जैसे मरे हुए जानवरों के कलेवरों से निकलती है । काऊ अगणिवण्णाभा - लोहे को धमधमाते समय जैसे अग्नि की ज्वाला का वर्ण बहुत काला हो जाता है - इस प्रकार के वर्ण के वे नरकावास हैं । अर्थात् वर्ण की अपेक्षा से अत्यन्त काले हैं । कक्खडफासा-उन नरकावासों का स्पर्श अत्यन्त कर्कश है । असिपत्र ( तलवार की धार ) की तरह वहाँ की स्पर्श अति दुःसह है । दुरहियासा- वे नरकावास इतने दुःखदायी है कि उन दुःखों को सहन करना बहुत ही कठिन होता है। असुभा वेयणा- वे नरकावास बहुत ही अशुभ हैं। देखने मात्र से ही उनकी अशुभता मालूम है। वहाँ के वर्ण, गंध, रस, स्पर्श और शब्द, सब अशुभ ही अशुभ हैं तथा वहाँ जीवों को जो वेदना होती है वह भी अतीव असातारूप होती है अतएव 'अशुभवेदना' ऐसा विशेषण दिया गया है। नरकावासों में उक्त प्रकार की तीव्र एवं दुःसह वेदनाएँ होती हैं । रत्नप्रभापृथ्वी को लेकर जो वक्तव्यता कही है, वही वक्तव्यता शर्करापृथ्वी के सम्बन्ध में भी है। केवल शर्करापृथ्वी की मोटाई तथा उसके नरकावासों की संख्या का विशेषण उसके साथ जोड़ना चाहिए । उदाहरण के लिए शर्कराप्रभा - पृथ्वी संबंधी पाठ इस प्रकार होगा ‘सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं केवइयं ओगाहित्ता हट्ठा केवइयं वज्जेत्ता मज्झे चेव केवइए केवइया णिरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! सक्करप्पभाए बत्तीसुत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरिं एगं जोयणसहस्समोगाहित्ता हट्ठा एगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मज्झे तीसुत्तर जोयणसयसहस्से, एत्थ णं सक्करप्पभाए पुढविनेरइयाणं पणवीसा नरयावाससयसहस्सा भवंति ति मक्खाय, ते णं णरगा अंतो वट्टा जाव असुभानरएसु वेयणा । ' इसी प्रकार बालुकाप्रभा, पंकप्रभा धूमप्रभा, और तमः प्रभा तथा अधः सप्तमपृथ्वी तक का पाठ कहना चाहिए। सब पृथ्वियों का बाहल्य और नरकावासों की संख्या निम्न कोष्ठक से जानना चाहिए - १. इस संबंध में निम्न संग्रहणी गाधाएँ उपयोगी हैं आसीयं बत्तीसं अट्ठावीसं तहेव वीसं च । अट्ठारस सोलसगं अट्ठत्तरमेव हिट्ठिमया ॥ १ ॥ अट्ठत्तरं च तीसं छव्वीसं चेव सयसहस्सं तु । अट्ठारस सोलसगं चोद्दसमहियं तु छट्ठीए ॥ २ ॥ अद्धतिवण्णसहस्सा उवरिमहे वज्जिऊण भणिया । मज्झे तिसु सहस्सेसु होंति निरया तमतमाए॥ ३॥ तीसा य पण्णवीसा पण्णरस दस चेव सयसहस्साइ । तिन्नि य पंचूणेगं पंचेव अणुत्तरा निरया ॥ ४ ॥ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: नरकावासों का संस्थान] [२२५ संख्या पृथ्वीनाम बाहल्य (योजन) । रत्नप्रभा शर्कराप्रभा बालुकाप्रभा पंकप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभा १,८०००० १,३२००० १, २८००० १, २०००० १, १८००० १, १६००० मध्यभाग पोलार (योजन) १,७८००० १,३०००० १, २६००० १, १८००० १,१६००० १, १४००० नरकावास संख्या तीस लाख पच्चीस लाख पन्द्रह लाख दस लाख तीन लाख निन्यानवै हजार नौ सौ पिच्यानवै पांच अधःसप्तम पृ. १, ०८००० ३००० नरकावासों का संस्थान . ८२. [१] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरका किंसंठिया पण्णता ? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-आवलियपविद्वा य आवलियबाहिरा या तत्थ णं जे ते आवलियपविट्ठा ते तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-वट्टा, तंसा, चउरंसा. तत्थ णं जे ते आवलियबाहिरा ते णाणासंठाणसंठिया पण्णत्ता, तंजहा-अयकोट्ठसंठिया,पिट्ठपयणगसंठिया, कंडूसंठिया, लोहीसंठिया, कडाहसंठिया, थालीसंठिया, पिढरगसंठिया, किमियडसंठिया, किन्नपुडगसंठिया, उडयसंठिया, मुरयसंठिया, मुयंगसंठिया, नंदिमुयंगसंठिया,आलिंगकसंठिया, सुघोससंठिया, दद्दरयसंठिया, पणवसंठिया, पडहसंठिया, भेरीसंठिया, झल्लरिसंठिया, कुतुंबकसंठिया, नालिसंठिया, एवं जाव तमाए। अहे सत्तमाए णं भंते ! पुढवीए णरका किंसंठिया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-वट्टे य तंसा य। [८२-१] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का आकार कैसा कहा गया है ? गौतम ! ये नरकावास दो तरह के हैं-१ आवलिकाप्रविष्ट और २ आवलिकाबाह्म। इनमें जो आवलिकाप्रविष्ट (श्रेणीबद्ध) हैं वे तीन प्रकार के हैं-१. गोल, २. त्रिकोण और ३. चतुष्कोण। जो आवलिका से बाहर (पुष्पावकीर्ण) हैं वे नाना प्रकार के आकारों के हैं, जैसे कोई लोहे की कोठी के आकार के हैं, कोई मदिरा बनाने हेतु पिष्ट आदि पकाने के बर्तन के आकार के हैं, कोई कंदू-हलवाई के पाकपात्र जैसे हैं, कोई लोही-तवा के आकार के हैं, कोई कडाही के आकार के हैं, कोई थाली-ओदन पकाने के बर्तन जैसे हैं, कोई पिठरक (जिसमें बहुत से मनुष्यों के लिए भोजन पकाया जाता है वह बर्तन) के आकार के हैं, कोई कृमिक (जीवविशेष) के आकार के हैं, कोई कीर्णपुटक जैसे हैं, कोई तापस के आश्रम जैसे, कोई Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र मुरज (वाद्यविशेष) जैसे, कोई मृदंग के आकार के, कोई नन्दिमृदंग (बारह प्रकार के वाद्यों में से एक) के आकार के, कोई आलिंगक (मिट्टी का मृदंग ) के जैसे, कोई सुघोषा के घंटे के समान, कोई दर्दर (वाद्यविशेष) के समान, कोई पणव (ढोलविशेष) जैसे, कोई पटह (ढोल) जैसे, भेरी जैसे, झल्लरी जैसे, कुस्तुम्बक (वाद्य-विशेष) जैसे और कोई नाडीघटिका जैसे हैं। इस प्रकार छठी नरक पृथ्वी तक कहना चाहिए । २२६ ] भगवन् ! सातवीं पृथ्वी के नरकावासों का संस्थान कैसा है ? गौतम वे दो प्रकार के हैं - वृत्त (गोल) और त्रिकोण । [ २ ] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! तिणि जोयणसहस्साइं बाहल्लेणं पण्णत्ता, तं जहा - हेट्ठा घणा सहस्सं मज्झे झुसिरा सहस्सं उप्पिं संकुइया सहस्सं; एवं जाव असत्तमाए । -विक्खंभेणं केवइयं गोमा ! दुविहा पत्ता, तं जहा - संखेज्जवित्थडा य असंखेज्जवित्थडा य । तत्थ णं जे संखेज्जवित्थडाणं संखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं संखेज्जाई जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता । तत्थ णं जे ते असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाइं जोयणसहस्साइं परिक्खेवेणं पण्णत्ता, एवं जाव तमाए । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरका केवइयं आयामपरिक्खेवेणं पण्णत्ता ? अहे सत्तमाए णं भंते ! पुच्छा; गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संखेज्जवित्थडे य, असंखेज्जवित्थडाय. तत्थ णं जे ते संखेज्जवित्थडे से णं एक्कं जोयणसहस्सं आयाम-विक्खंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साइं सोलस सहस्साइं दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि कोसे य अट्ठावीसं च धणुस तेरस य अंगुलाई अद्धंगुलयं च किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ता; तत्थ णं जे असंखेज्जवित्थडा ते णं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं असंखेज्जाई जाव परिक्खेवेणं पण्णत्ता । [८२-२] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की मोटाई कितनी कही गई है ? गौतम ! तीन हजार योजन की मोटाई है। वे नीचे एक हजार योजन तक घन है, मध्य में एक हजार योजन तक झुषिर (खाली) हैं और ऊपर एक हजार योजन तक संकुचित हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए । भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों की लम्बाई-चौड़ाई तथा परिक्षेप (परिधि) कितनी है? गौतम ! वे नरकावास दो प्रकार के हैं । यथा - १. संख्यात योजन के विस्तार वाले और २. असंख्यात योजन के विस्तार वाले। इनमें जो संख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम - विष्कंभ संख्यात हजार योजन है और परिधि भी संख्यात हजार योजन की है। उनमें जो असंख्यात योजन विस्तार वाले हैं, उनका Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :नरकावासों के वर्णादि] [२२७ आयाम-विष्कंभ असंख्यात हजार योजन और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। इसी तरह छठी पृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! सातवीं नरकपृथ्वी के नरकावासों का आयाम-विष्कंभ और परिधि कितनी है ? गौतम ! सातवीं पृथ्वी के नरकावास दो प्रकर के हैं-(१) संख्यात हजार योजन वाले और (२) असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले। इनमे जो संख्यात हजार योजन विस्तार वाला है वह एक लाख योजन आयाम-विष्कंभ वाला है उसकी परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष, साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। जो असंख्यात हजार योजन विस्तार वाले हैं, उनका आयाम-विष्कंभ असंख्यात हजार योजन का और परिधि भी असंख्यात हजार योजन की है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकावासों के संस्थान और आयाम-विष्कम्भ तथा परिधि बताई गई है। नरकावास दो प्रकार के हैं-आवलिकाप्रविष्ट और आवलिकाबाह्य । आठों दिशओं में जो समश्रेणी में (श्रेणीबद्धकतारबद्ध) हैं, वे आवलिकाप्रविष्ट कहलाते हैं। वे तीन प्रकार के हैं, वृत्त, तिकोन, और चौकोन। जो पुष्पों की तरह बिखरे-बिखरे हैं वे नरकावास नाना प्रकार के हैं। उन नाना प्रकारों को दो संग्रहणी गाथाओं में बताया गया हैं - लोहे की कोठी, मदिरा बनाने हेतु आटे को पकाने का बर्तन, हलवाई की भट्टी, तवा, कढाई, स्थाली (डेगची), पिठरक (बड़ा चरु), तापस का आश्रम, मुरज, नन्दीमृदंग, आलिंगक, मिट्टी का मृदंग, सुघोषा, दर्दर (वाद्यविशेष), पणव (भाण्डों का ढोल), पटह (सामान्य ढोल), झालर, भेरी, कुस्तुम्बक (वाद्यविशेष) और नाडी (घटिका) के आकार के नरकावास हैं। ऊपर से संकुचित और नीचे से विस्तीर्ण है वह मृदंग है और ऊपर और नीचे दोनों जगह सम हो वह मुरज है। ___ उक्त वक्तव्यता रत्नप्रभा से लेकर तमप्रभा नरकपृथ्वी के लिए समझनी चाहिए। सातवीं पृथ्वी के नरकावास आवलिकाप्रविष्ट ही हैं, आवलिकाबाह्य नहीं।आवलिकाप्रविष्ट ये नरकावास पांच हैं। चारों दिशाओं में चार हैं और मध्य में एक है। मध्य का अप्रतिष्ठान नरकावास गोल है और शेष ४ नरकावास तिकोन हैं। रत्नप्रभादि के नरकावासों का बाहल्य तीन हजार योजन का है। एक हजार योजन का नीचे का भाग घन है, एक हजार योजन मध्यभाग झुषिर है और ऊपर का एक हजार योजन का भाग संकुचित है। इसी तरह सातों पृथ्वियों के नरकावासों का बाहल्य है। आयाम-विष्कंभ और परिधि मूलपाठ से ही स्पष्ट है। नरकावासों के वर्णादि ८३. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरया केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता ? अय कोट्ठ पिट्ठपयणग कंडूलोही कडाह संठाणा। थालीपिहडग किण्ह(ग) उडए मुखे मुयंगे य॥१॥ नंदिमुइंगे आलिंग सुघोसे दद्दरे य पणवे य। पडहगझल्लरि भेरी कुत्धुंबग नाडिसंठाणा ॥२॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गोयमा ! काला कालावभासा गंभीरलोमहरिसा भोमा उत्तासणया परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता, एवं जाव अहे सत्तमाए । २२८ ] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा केरिसगा गंधेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहाणामए अहिमडेड वा गोमडेइ वा, सुणगमडेइ वा मज्जारमडेइ वा मणुस्समडेइ वा महिसमडेड़ वा मूसगमडेइ वा आसमडेइ वा हत्थिमडेइ वा सीहमडेइ वा वग्घमडेइ वा विगमडेइ वा दीवियमडेइ वा मयकुहियचिरविणकुणिम-वावण्णदुभिगंधे असुइविलीणविगिय - बीभत्थदरिसणिज्जे किमिजालाउलसंसत्ते, भवेयारूवे सिया ? इट्ठे समट्ठे, गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा एत्तो अणिट्ठतरका चेव अकंततरका चेव जाव अमणामतरा चेव गंधेणं पण्णत्ता । एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा केरिसया फासेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए असिपत्तेइ वा खुरपत्तेइ वा कलंबचीरियापत्तेइ वा, सत्तग्गेइ वा कुंतग्गेइ वा तोमरग्गेइ वा नारायग्गेइ वा सूलग्गेइ वा लउडग्गेइ वा भिंडिपालग्गेइ वा सूचिकलावेइ वा कवियच्छू वा विंचुयकंठएइ वा, इंगालेइ वा जालेइ वा मुम्मुरेइ वा अच्चिइ वा अलाएइ वासुद्धागणी इवाभवे एतारूवे सिया ? णो तिट्ठे समट्ठे गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा एत्तो अणिट्ठतरा चेव जाव अमणामतरका चेव फासेणं पण्णत्ता । एवं जाव अहे सत्तमाए पुढवीए । [८३] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकवास वर्ण की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम ! वे नरकावास काले हैं, अत्यन्तकाली कान्तिवाले हैं, नारक जीवों रोंगटे खड़े कर देने वाले हैं, भयानक हैं, नारक जीवों को अत्यन्त त्रास करने वाले है और परम काले है- इनसे बढकर और अधिक कालिमा कहीं नहीं है । इसी प्रकार सातों पृथ्वियों के नारकवासों के विषय में जानना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास गंध की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? > गौतम ! जैस सर्प का मृतकलेवर हो, गाय का मृतक लेवर हो, कुत्ते का मृतक लेवर हो, बिल्ली का मृतकलेवर हो, इसी प्रकार मनुष्य का, भैंस का चूहे का, घोड़े का, हाथी का, सिंह का, व्याघ्र का, भेड़िये का, चीते का मृतकलेवर हो जो धीरे धीरे सूज - फूलकर सड़ गया हो और जिसमें से दुर्गन्ध फूट रही हो, जिसका मांस सड़-गल गया हो, जो अत्यन्त अशुचिरूप होने से कोई उसके पास फटकना तक न चाहे ऐसा घृणोत्पादक और वीभत्सदर्शन वाला और जिसमें कीड़े बिलबिला रहे हों ऐसे मृतकलेवर होते हैं- (ऐसा कहते ही गौतम बोले कि) भगवन् ! क्या ऐसे दुर्गन्ध वाले नरकावास ? तो भगवान् ने कहा कि नहीं गौतम ! इससे अधिक अनिष्टतर, अकांततर यावत् अमनोज्ञ उन नरकावासों की गंध है। इसी प्रकार अधः सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए । हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नरकावास कितने बड़े हैं ?] [२२९ गौतम ! जैसे तलवार की धार का , उस्तरे की धार का, कदम्बचीरिका (तृणविशेष जो बहुत तीक्ष्ण होता है) के अग्रभाग का, शक्ति (शस्त्रविशेष के अग्रभाग का, भाले के अग्रभाग का, तोमर के अग्रभाग का, बाण के अग्रबाग का, शूल के अग्रभाग का, लगुड़ के अग्रभाग का, भिण्डीपाल के अग्रभाग का, सुइयों के समूह के अग्रभाग का, कपिकच्छु (खुजली पैदा करने वाली, वल्ली), बिच्छु का डंक, अंगार, ज्वाला, मुर्मुर (भोभर की अग्नि), अर्चि, अलात (जलती लकड़ी), शुद्धाग्नि (लोहपिण्ड की अग्नि) इन सबका जैसा स्पर्श होता है, क्या वैसा स्पर्श नरकावासों का है ? भगवान् ! ने कहा कि ऐसा नहीं है। इनसे भी अधिक अनिष्टतर यावत् अमणाम उनका स्पर्श होता है। इसी तरह अधःसप्तमपृथ्वी तक के नरकावासों का स्पर्श जानना चाहिए। नरकावास कितने बड़े हैं ? ८४. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नरगा केमहालिया पण्णत्ता? गोयमा ! अयं णं जंबुद्दीवे दीवे सव्वदीवसमुद्दाणं सव्वभंतरए सव्वखुड्डाए वट्टे, तेल्लापूयसंठासंठिए वट्टे, रथचक्कवालसंठिए वट्टे, पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे, पडिपुण्णचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणंजाव किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, देवेणं महड्डिए जाव महाणुभागे जाव इणामेव त्ति कटु इमं केवलकप्पं जंबुद्दीवं दीवं तिहिं अच्छरानिवाएहि तिसत्तक्खुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हव्वमागच्छेज्जा, से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए चवलाए चंडाए सिग्याए उद्धृयाए जयणाए छेगाए दिव्वाए दिव्वगईए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जहण्णेणं एगाहं वा दुयाहं वा तिआहं वा, उक्कोसेणं छम्मासेणं वीतिवएज्जा, अत्थेगइए वीइवएज्जा अत्थेगइए नो वीइवएज्जा, एमहालया णं गोयमा ! इमीसे णं रयणप्पभाए पुढवीए णरगा पण्णत्ता; एवं जाव अहे सत्तमाए, णवरं अहेसत्तमाए अत्थेगइयं नरगं वीइवएज्जा, अत्थेगइए नरगे नो वीतिवएज्जा। [८४] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास कितने बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! यह जम्बूद्वीप नाम का द्वीप जो सबसे आभ्यन्तर-अन्दर है, जो सब द्वीप-समुद्रों में छोटा है, जो गोल है क्योंकि तेल में तले हुए पूए के आकार का है, यह गोल है क्योंकि रथ के पहिये के आकार का है, यह गोल है क्योंकि कमल की कर्णिका के आकार का है, यह गोल है क्योंकि परिपूर्ण चन्द्रमा के आकार का हैं, जो एक लाख योजन का लम्बा-चौड़ा है, जिसकी परिधि (३ लाख १६ हजार २ सौ २७ योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष और साढे तेरह अंगुल से) कुछ अधिक है। उसे कोई देव जो महर्द्धिक यावत् महाप्रभाव वाला है, 'अभी-अभी' कहता हुआ (अवज्ञा से) तीन चुटकियाँ बजाने जितने काल में इस सम्पूर्ण जम्बूद्वीप के २१ चक्कर लगाकर आ जाता है, वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित, चपल, चण्ड, शीघ्र, उद्धत, वेगवाली, निपुण, ऐसी दिव्य देवगति से चलता हुआ एक दिन, दो दिन, तीन यावत् उत्कृष्ट छह मास पर्यन्त चलता रहे तो भी वह उन नरकावासों में से किसी को पार कर सकेगा और किसी को पार नहीं कर सकेगा। हे गौतम ! इतने विस्तार वाले इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास कहे गये हैं। इस Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३०] . [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रकार सप्तम पृथ्वी के नरकावासों के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि वह उसके किसी नरकावास को पार कर सकता है शेष किसी को पार नहीं कर सकता है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरकावासों का विस्तार उपमा द्वारा बताया गया है। नरकावासों के विस्तार के सम्बन्ध में पहले प्रश्न किया जा चुका है और उसका उत्तर देते हुए कहा गया है कि कोई नरकावास असंख्येय हजार योजन विस्तार वाले हैं। असंख्येय हजार योजन कहने से यह स्पष्ट नहीं होता की यह असंख्येयता कितनी है ? अतः उस असंख्येयता को स्पष्ट करते हुए भगवान् ने एक उपमा के द्वारा उसे स्पष्ट किया है। वह उपमा इस प्रकार है हम जहाँ रह रहे हैं वह द्वीप जम्बूद्वीप है। आठ योजन ऊँचे रत्नमय जम्बूवृक्ष को लेकर इस द्वीप का यह नामकरण है। यह जम्बूद्वीप सर्व द्वीपों और सर्व समुद्रों में आभ्यन्तर है अर्थात् आदिभूत है और उन सब द्वीप-समूहों में छोटा है। क्योंकि आगे के सब लवणादि समुद्र और धातकीखण्डादि द्वीप क्रमशः इस जम्बूद्वीप से दूने-दूने आयाम-विष्कम्भ वाले हैं। यह जम्बूद्वीप गोलाकार है क्योंकि यह तेल में तले हुए पूए के समान आकृति वाला है। यहाँ 'तेल से तले हुए' विशेषण देने का तात्पर्य यह है कि तेल में तला हुआ पूआ प्रायः जैसा गोल होता है वैसा घी में तला हुआ पूआ गोल नहीं होता। वह रथ के पहिए के समान, कमल की कर्णिका के समान तथा परिपूर्ण चन्द्रमा के समान गोल है। नाना देश के विनेयों को समझाने के लिए विभिन्न प्रकार के उपमान-उपमेय बताये गये हैं। इस जम्बूद्वीप का आयाम-विष्कम्भ एक लाख योजन है। इसकी परिधि (घेराव) तीन लाख, सोलह हजार दो सौ सत्तावीस योजन, तीन कोस एक सौ अट्ठावीस धनुष और साढे तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। ___ इतने विस्तारवाले इस जम्बूद्वीप को कोई देव जो बहुत बड़ी ऋद्धि का स्वामी है, महाद्युति वाला है, महाबल वाला है, महायशस्वी है, महा ईश है अर्थात् बहुत सामर्थ्य वाला है अथवा महा सुखी है अथवा महाश्वास है-जिसका मन और इन्द्रियां बहुत व्यापक और स्वविषय को भलीभांति ग्रहण करने वाली हैं, तथा जो विशिष्ट विक्रिया करने में अचिन्त्य शक्तिवाला है, वह अवज्ञापूर्वक (हेलया) 'अभी पार कर लेता हूँ' ऐसा कहकर तीन चुटुकियां बजाने में जितना समय लगता है उतने मात्र समय में उक्त जम्बूद्वीप के २१ चक्कर लगाकर वापस आ जावे-इतनी तीव्र गति से, इतनी उत्कृष्ट गति से, इतनी त्वरित गति से, इतनी चपल गति से, इतनी प्रचण्ड गति से, इतने वेग वाली गति से, इतनी उद्धृत गति से, इतनी दिव्य गति से यदि वह देव एक दिन से लगाकर छह मास पर्यन्त निरन्तर चलता रहे तो भी रत्नप्रभादि के नरकावासों में से किसी का तो वह पार पा सकता है और किसी का पार नहीं पा सकता. इतने विस्तार वाले वे नरकावास हैं। इसी तरह तमःप्रभा तक ऐसा ही कहना चाहिए।सातवीं पृथ्वी में ५ नरकावास हैं। उनमें से मध्यवर्ती एक अप्रतिष्ठान नामक नरकावास लाख योजन विस्तार वाला है अतः उसका पार पाया जा सकता है। शेष चार नरकावास असंख्यात कोटि-कोटि योजन प्रमाण होने से उनका पार पाना सम्भव नहीं है। इस तरह उपमान प्रमाण द्वारा नरकावासों का विस्तार कहा गया है। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उपपात] [२३१ नरकावासों में विकार ८५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णरगा किंमया ? गोयमा! सव्ववइरामया पण्णत्ता; तत्थणंणरएसुबहवे जीवाय पोग्गला य अवक्कमंति विउक्कमंति चयंति उववज्जति सासया णं ते णरगा दव्वट्ठयाए; वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जेवेहिं रसपज्जवेहिं फासपज्जवेहिं असासया। एवं जाव अहे सत्तमाए। [८५] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावास किसके बने हुए हैं ? गौतम ! वे नरकावास सम्पूर्ण रूप से वज्र के बने हुए हैं। उन नरकावासों में बहुत से (खरबादर पृथ्वीकायिक) जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं, पुराने निकलते हैं और नये आते हैं। द्रव्यार्थिकनय से वे नरकावास शाश्वत हैं परन्तु वर्णपर्यायों से, गंधपर्यायों से, रसपर्यायों से और स्पर्शपर्यायों से वे अशाश्वत हैं। ऐसा अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न है कि रत्नप्रभादि के नरकावास किंमय हैं अर्थात् किस वस्तु के बने हुए हैं ? उत्तर में कहा गया है कि वे सर्वथा वज्रमय हैं अर्थात् वज्र से बने हुए हैं। उनमें खरबादर पृथ्वीकाय के जीव और पुद्गल च्यवते हैं और उत्पन्न होते हैं। अर्थात् पहले वाले जीव निकलते हैं और नये जीव आकर उत्पन्न होते हैं। इसी तरह पुद्गल भी कोई च्यवते हैं और कोई नये आकर मिलते हैं। यह आनेजाने की प्रक्रिया वहाँ निरन्तर चलती रहती है। इसके बावजूद भी रत्नप्रभादि नरकों की रचना शाश्वत है। इसलिए द्रव्यनय की अपेक्षा से वे नित्य हैं, सदाकाल से थे, सदाकाल से हैं और सदाकाल रहेंगे। इस प्रकार द्रव्य से शाश्वत होते हुए भी उनमें वर्ण, गंध, रस और स्पर्श बदलते रहते हैं, इस अपेक्षा से वे अशाश्वत हैं। जैनसिद्धान्त विविध अपेक्षाओं से वस्तु को विविधरूप में मानता है। इसमें कोई विरोध नहीं है। अपेक्षा भेद से शाश्वत और अशाश्वत मानने में कोई विरोध नहीं है। स्याद्वाद सर्वथा सुसंगत सिद्धान्त है। उपपात ८६.[१] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया कओहिंतो उववजंति ? किं असण्णीहिंतो उववजंति, सरीसिवेहिंतो उववज्जति पक्खीहिंतो उववजंति चउप्पएहितो उववजंति उरगेहिंतो उववज्जति इत्थियाहिंतो उववजंति मच्छमणुएहिंतो उववज्जति ? गोयमा ! असण्णीहिंतो उववजंति जाव मच्छमणुएहितो वि उववज्जंति, असण्णी खलु पढमं दोच्चं च सरीसिवा ततिय पक्खी। सीहा जंति चउत्थिं उरगा पुण पंचमिं जंति ॥१॥ छट्टिं च इत्थियाओ मच्छा मणुया य सत्तमि जंति। जाव अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइया णो असण्णीहिंतो उववज्जंति जाव णो इत्थियाहिंतो उववजंति, मच्छमणुस्सेहिंतो उववजंति। १. सेसासु इमाए गाहाए अणुगंतव्वा, एवं एतेणं अभिलावेणं इमा गाथा घोसेयव्वा। Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [८६] (१) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ? क्या असंज्ञी जीवों से आकर उत्पन्न होते हैं, सरीसृपों से आकर उत्पन्न होते हैं, पक्षियों से आकर उत्पन्न होते हैं, चौपदों से आकर उत्पन्न होते हैं, (सर्पादि) उरगों से आकर उत्पन्न होते हैं, स्त्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं या मत्स्यों और मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! असंज्ञी जीवों से आकर भी उत्पन्न होते हैं और यावत् मत्स्य और मनुष्यों से आकर भी उत्पन्न होते हैं। (यहाँ यह गाथा अनुसरणीय है) असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक, सरीसृप दूसरी नरक तक, पक्षी तीसरी नरक तक, सिंह चौथी नरक तक, उरग पांचवी नरक तक, स्त्रियां छठी नरक तक और मत्स्य एवं मनुष्य सातवीं नरक तक जाते हैं। विवेचन-उपपात का वर्णन करते हुए इस सूत्र में जो दो गाथाएं दी गई हैं, उनका अर्थ यह समझना चाहिए कि असंज्ञी जीव प्रथम नरक तक ही जाते हैं, न कि असंज्ञीजीव ही प्रथम नरक में जाते हैं। इसी तरह सरीसृप-गोधा नकुल आदि दूसरी पृथ्वी तक ही जाते हैं, न कि सरीसृप ही दूसरी नरक में जाते हैं। पक्षी तीसरी नरक तक जाते हैं, न कि पक्षी ही तीसरी नरक में जाते हैं। इसी तरह आगे भी समझना चाहिए। शर्कराप्रभादि नरकपृथ्वी को लेकर पाठ इस प्रकार होगा 'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया किं असण्णीहिंतो उववज्जंति जाव मच्छमणुएहितो उववजंति ? गोयमा ! नो असन्नीहितो उववज्जंति सरीसिवेहिंतो उववज्जंति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उववज्जंति। बालुयप्पभाए णं भंते ! पुढवीए नेरइया किं असण्णीहिंतो उववज्जंति जाव मच्छमणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! नो असण्णीहिंतो उववजंति नो सरीसिवेहिंतो उववज्जंति, पक्खीहिंतो उववज्जंति जाव मच्छमणुस्सहिंतो उववज्जंति।' उक्त रीति से उत्तर-उत्तर पृथ्वी में पूर्व-पूर्व के प्रतिषेध सहित उत्तरप्रतिषेध तब तक कहना चाहिए जब तक कि सप्तम पृथ्वी में स्त्री का भी प्रतिषेध हो जाए। वह पाठ इस प्रकार होगा-'अहेसत्तमाए णं भंते पुढवीए नेरइया किं असण्णीहिंतो उववज्जति जाव मच्छमणुस्सहिंतो उववजंति ? गोयमा ! नो असण्णीहितो उववज्जति जाव नो इत्थीहिंतो उववज्जंति, मच्छमणुस्सेहिंतो उववज्जंति।' संख्याद्वार ८६[२] इमीसेणंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीएणेरइया एक्कसमयेणं केवइया उववज्जति? गोयमा ! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखिज्जा वा उववजंति, एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा केवइकालेणं अवहिया सिया? गोयमा ! ते णं असंखेज्जा समए समए अवहीरमाणा अवहीरमाणा असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणीओसप्पिणीहिं अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया। जाव अहेसत्तमाए। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: अवगाहनाद्वार] [८६] (२) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी में नारकजीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? गौतम ! जघन्य से एक, दो, तीन, उत्कृष्ट से संख्यात या असंख्यात भी उत्पन्न होते हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों का प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने पर कितने काल में यह रत्नप्रभापृथ्वी खाली हो सकती है ? [२३३ गौतम ! नैरयिक जीव असंख्यात हैं । प्रतिसमय एक-एक नैरयिक का अपहार किया जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणियां असंख्यात अवसर्पिणियां बीत जाने पर भी यह खाली नहीं हो सकते । इसी प्रकार सातवीं पृथ्वी तक कहना चाहिए । विवेचन - नारकजीवों की संख्या बताने के लिए असत्कल्पना के द्वारा यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रतिसमय एक-एक नारक का अपहार किया जाय तो असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां बीतने पर उनका अपहार होता है। इस प्रकार का अपहार न तो कभी हुआ, न होता है और न होगा ही । यह केवल कल्पना मात्र है, जो नारक जीवों की संख्या बताने के लिए की गई है। अवगाहनाद्वार ८६. [ ३ ] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ? गोयमा ! दुविहा सरीरोगाहणा पण्णत्ता, तं जहा - भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य । तत्थ जा सा भवधारणिज्जा सा जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं सत्त धणूइं तिण्णि य रयणीओ छच्च अंगुलाई । तत्थ णं जेसे उत्तरवेव्विए से जहन्नणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरस ई अड्डाइज्जाओ रयणीओ। दोच्चार, भवधारणिज्जे जहन्त्रेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं पण्णरस धणूइं अड्डाइज्जाओ रयणीओ, उत्तरवेउव्विया जहन्नेणं अंगुलस्स संखेज्जइभागं, उक्कोसेणं एक्कतीसं धणूइं एक्कारयणी । तच्चाए, भवधारणिजे एक्कतीसं धणू एक्का रयणी, उत्तरवेउव्विया बासड्डुिं धणूई दोण्णि रयणीओ । चउत्थीए, भवधारणिज्जे बासट्ठ धणूइं दोण्णि य रयणीओ, उत्तरवेउव्विया पणवीसं धणुस । पंचमीए भवधारणिजे पणवीसं धणुसयं, उत्तरवेउव्विया अड्डाइज्जाई धणुसयाई । छट्टीए भवधारणिज्जा अड्डाइज्जाई धणुसयाई, Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्तरवेउव्विया पंच धणुसयाई। सत्तमाए भवधारणिज्जा पंच धणुसयाई, उत्तरवेउव्विए धणुसहस्सं। [८६] (३) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की शरीर-अवगाहना कितनी कही गई है? गौतम ! दो प्रकार की शरीरावगाहना कही गई हैं, यथा-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल है। उत्तरवैक्रिय अवगाहना जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग, उत्कृष्ट से पन्द्रह धनुष, अढाई हाथ है। दूसरी शर्कराप्रभा के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग, उत्कृष्ट पन्द्रह धनुष अढाई हाथ है। उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग, उत्कृष्ट से इकतीस धनुष एक हाथ है। तीसरी नरक में भवधारणीय इकतीस धनुष, एक हाथ और उत्तरवैक्रिय बासठ धनुष दो हाथ है। चौथी नरक में भवधारणीय बासठ धनुष दो हाथ है और उत्तरवैक्रिय एक सौ पचीस धनुष है। पांचवी नरक में भवधारणीय एक सौ पचीस धनुष और उत्तरवैक्रिय अढाई सौ धनुष है। छठी नरक में भवधारणीय अढाई सौ धनुष और उत्तरवैक्रिय पांच सौ धनुष है। सातवीं नरक में भवधारणीय पांच सौ धनुष है और उत्तरवैक्रिय एक हजार धनुष है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों के शरीर की अवगाहना का कथन किया गया है। इनके शरीर. की अवगाहना दो प्रकार की है। एक भवधारण के समय होने वाली और दूसरी वैक्रियलब्धि से की जाने वाली उत्तरवैक्रियिकी। दोनों प्रकार की अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से दो प्रकार की है। इस तरह प्रत्येक नरक के नारक की चार तरह की अवगाहना का प्ररूपण किया गया है। (१) रत्नप्रभा के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग है और उत्कृष्ट से सात धनुष तीन हाथ और छह अंगुल है। उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्येय भाग और उत्कर्ष से पन्द्रह धनुष, दो हाथ और एक वेंत (दो वेंत का एक हाथ होता है) अतः मूल में ढाई हाथ कहा गया है। (२) शर्कराप्रभा में भवधारणीय जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कर्ष से १५ धनुष, २॥ हाथ है। उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कर्ष से ३१ धनुष १ हाथ है। इसी प्रकार आगे की पृथ्वियों में भी भवधारणीय जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्तरवैक्रिय जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग कहना चाहिए। क्योंकि तथाविध प्रयत्न के अभाव में उत्तरविक्रिया प्रथम समय में ही अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण ही होती है। इस प्रकार अतिदेश समझना चाहिए। अतः आगे की पृथ्वियों में उत्कृष्ट भवधारणीय और उत्कृष्ट उत्तरवैक्रिय अवगाहना का कथन मूल पाठ में किया गया है। Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : अवगाहनाद्वार] [२३५ (३) तीसरी बालुकाप्रभा में भवधारणीय उत्कृष्ट ३१ धनुष १ हाथ और उत्तरवैक्रिय ६२॥ धनुष (४) चौथी पंकप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय ६२ ।। धनुष है और उत्तरवैक्रिय १२५ धनुष है। (५) पांचवीं धूमप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय १२५ धनुष है और उत्तरवैक्रिय २५० धनुष है। (६) छठी तमःप्रभा में उत्कृष्ट भवधारणीय २५० धनुष है और उत्तरवैक्रिय पांच सौ धनुष है। (७) सातवीं तमस्तमःप्रभा में उत्कृष्ट भवधरणीय पांच सौ धनुष है और उत्तरवैक्रिय एक हजार धनुष है। प्रत्येक नरकपृथ्वी की उत्कृष्ट भवधारणीय अवगाहना पूर्व पृथ्वी से दुगनी-दुगनी है तथा प्रत्येक पृथ्वी के नैरयिकों की भवधारणीय अवगाहना से उनकी उत्तरवैक्रिय अवगाहना दुगुनी-दुगुनी है। निम्न यंत्र से अवगाहना जानने में सहूलियत होगी अवगाहना का यंत्र पृथ्वी का नाम उत्तरवैक्रिय भवधारणीय जघन्य उत्कृष्ट जघन्य उत्कृष्ट १. रत्नप्रभा अंगुल का असंख्यातवां ७ धनुष ३ हाथ ६अंगु. अंगुल का १५ध २॥ हाथ २. शर्कराप्रभा भाग १५ धनुष २॥ हाथ सं. भाग ३१ ध. १ हाथ ३. बालुकाप्रभा ३१ ध. १ हाथ ६२ ध. २ हाथ ४. पंकप्रभा ६२ ध.२ हाथ १२५ धनुष ५. धूमप्रभा १२५ धनुष २५० धनुष ६. तमःप्रभा २५० धनुष ५०० धनुष ७. तमस्तमःप्रभा ५०० धनुष १००० धनुष रत्नप्रभादि के प्रस्तटों में अवगाहना का प्रमाण इस प्रकार है-रत्नप्रभा के १३ प्रस्तट हैं। पहले प्रस्तट में उत्कृष्ट अवगाहना ३ हाथ की है। इसके बाद प्रत्येक प्रस्तट में ५६॥ अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए। इस मान से १३ प्रस्तटों की अवगाहना निम्न हैरत्नप्रभा के प्रस्तटों में अवगाहना अंगुल प्रस्तट Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र 5. G G mms - www २१॥ शर्कराप्रभा के ११ प्रस्तट हैं। इसके पहले प्रस्तट में वही अवगाहना है जो रत्नप्रभा के १३वें प्रस्तट में है अर्थात् ७ धनुष ३ हाथ और ६ अंगुल। इसके बाद प्रत्येक प्रस्तट में ३ हाथ ३ अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए तो उसका प्रमाण इस प्रकार होगा शर्कराप्रभा के प्रस्तटों में अवगाहना धनुष हाथ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: अवगाहनाद्वार] [२३७ . इसी प्रकार बालुकाप्रभा के प्रथम प्रस्तट में वही अवगाहना है जो दूसरी पृथ्वी के अन्तिम प्रस्तट में हैं-अर्थात् १५ धनुष २ हाथ और १२ अंगुल। इसके बाद प्रत्येक प्रस्तट में ७ हाथ १९॥ अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए। उसका प्रमाण इस प्रकार होगापहले प्रस्तट में १५ धनुष २ हाथ १२ अंगुल दूसरे प्रस्तट में १७ धनुष २ हाथ ७॥ अंगुल तीसरे प्रस्तट में १९ धनुष २ हाथ ३ अंगुल चौथे प्रस्तट में २१ धनुष १ हाथ २२॥ अंगुल पांचवें प्रस्तट में २३ धनुष १हाथ १८ अंगुल छठे प्रस्तट में २५ धनुष १हाथ १३ ॥ अंगुल सातवें प्रस्तट में २७ धनुष १ हाथ ९ अंगुल आठवें प्रस्तट में २९ धनुष १ हाथ ४॥ अंगुल नौवें में ३१ धनुष १हाथ ० अंगुल पंकप्रभा में सात प्रस्तट हैं। उनमें से प्रथम प्रस्तट में वही अवगाहना है जो पूर्व की बालुकाप्रभा के नौवें प्रस्तट की है। इसके आगे प्रत्येक में ५ धनुष २० अंगुल की वृद्धि कहनी चाहिए। प्रत्येक प्रस्तट की अवगाहना का प्रमाण इस प्रकार होगापहले प्रस्तट में ३१ धनुष १ हाथ ३६ धनुष १हाथ २० अंगुल तीसरे में ४१ धनुष २ हाथ १६ अंगुल चौथे में ४६ धनुष ३ हाथ १२ अंगुल पांचवें में ५२ धनुष ० हाथ ८ अंगुल छठे में ५७ धनुष १ हाथ ४ अंगुल सातवें में ६२ धनुष २ हाथ ० अंगुल धूमप्रभा के पांच प्रस्तट हैं। प्रथम प्रस्तट में वही अवगाहना है जो पूर्व की पृथ्वी के अन्तिम प्रस्तट की है। इसके बाद १५ धनुष २॥ हाथ प्रत्येक प्रस्तट में वृद्धि कहनी चाहिए। वह प्रमाण इस प्रकार होगापहले प्रस्तट में ६२ धनुष २ हाथ दूसरे में ७८ धनुष १ वितस्ति (बेंत-आधा हाथ) ९३ धनुष ३ हाथ चौथे में १०९ धनुष १ हाथ वितरित पांचवें में १२५ धनुष दूसरे में له سه तीसरें में Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तमःप्रभापृथ्वी के तीन प्रस्तट हैं। प्रथम प्रस्तट की वही अवगाहना है जो इसके पूर्व की पृथ्वी के अन्तिम प्रस्तट की है। इसके पश्चात् प्रत्येक प्रस्तट में ६२॥ धनुष की वृद्धि कहनी चाहिए। वह प्रमाण इस प्रकार होता है पहले प्रस्तट में १२५धनुष दूसरें में १८७॥ धनुष तीसरे में २५०धनुष तमस्तमा:पृथ्वी में प्रस्तट नहीं हैं। उनकी भवधारणीय उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष की है उत्तरवैक्रिय एक हजार योजन है। संहनन-संस्थान-द्वार ८७.[१] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्याणं सरीरया किंसंघयणी पण्णत्ता ? गोयमा! छण्हं संघयणाणं असंघयणा,णेवट्ठी,णेव छिरा,णेविण्हारु,णेव संघयणमत्थि, जे पोग्गला अणिट्ठा जाव अमणामा ते तेसिं सरीरसंघायत्ताए परिणमंति। एवंजाव अहेसत्तमाए। [८७] (१) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संहनन क्या है ? गौतम ! छह प्रकार के संहननों में से उनके कोई संहनन नहीं है, क्योंकि उनके शरीर में हड्डियां नहीं हैं, शिराएं नहीं हैं, स्नायु नहीं हैं। जो पुद्गल अनिष्ट और अमणाम होते हैं वे उनके शरीर रूप में एकत्रित हो जाते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। . ८७.[२] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरड्याणं सरीरा किसंठिया पण्णत्ता? गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, तं जहा भवधारणिज्जा य उत्तरवेउव्विया य।तत्थणंजेते भवधारणिज्जाते हंडसंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउव्विया ते वि हुंडसंठिया पण्णत्ता। एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पाभाए पुढवीए णेरइयाणं सरीरगा केरिसया वण्णेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! काला कालोभासा जाव परमकिण्हा वण्णेणं पण्णत्ता।एवंजाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरगा केरिसया गंधेणं पण्णत्ता ? गोयमा ! से जहानामए अहिमडेइ वा तं चेव जाव अहेसत्तमा। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं सरीरया केरिसया फासेणं पण्णत्ता? गोयमा ! फुडितच्छविविच्छविया खरफरुस झामभुसिरा फासेणं पण्णत्ता। एवं जाव अहेसत्तमा। [८७] (२) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का संस्थान कैसा है ? गौतम ! उनके संस्थान दो प्रकार के हैं-भवधारणीय और उत्तरवैक्रिय। भवधारणीय की अपेक्षा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति:लेश्यादिद्वार] [२३९ वे हुंडकसंस्थान वाले हैं और उत्तरवैक्रिय की अपेक्षा भी वे हुंडकसंस्थान वाले ही हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के संस्थान हैं। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीर वर्ण की अपेक्षा कैसे कहे गये हैं ? गौतम ! काले, काली छाया (कान्ति) वाले यावत् अत्यन्त काले कहे गये हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों का वर्ण जानना चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीर की गन्ध कैसी कही गई है ? गौतम ! जैसे कोई मरा हुआ सर्प हो, इत्यादि पूर्ववत् कथन करना चाहिए। सप्तमीपृथ्वी तक के नारकों की गन्ध इसी प्रकार जाननी चाहिए। भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के शरीरों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? गौतम ! उनके शरीर की चमड़ी फटी हुई होने से तथा झुर्रिया होने से कान्तिरहित है, कर्कश है, कठोर है, छेद वाली है और जली हुई वस्तु की तरह खुरदरी है। (पकी हुई ईंट की तरह खुरदरे शरीर है)। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। - विवेचन-इनका विवेचन पूर्व में किया जा चुका है। ८८.[१] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं केरिसया पोग्गला उसासत्ताए परिणमंति? गौतम ! जे पोग्गला अणिट्ठा जाव अमणामा ते तेसिं उसासत्ताए परिणमंति। एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं आहारस्सवि सत्तसु वि। [८८] (१) भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के रूप में कैसे पुद्गल परिणत होते हैं ? ___ गौतम ! जो पुद्गल अनिष्ट यावत् अमणाम होते हैं वे नैरयिकों के श्वासोच्छ्वास के रूप में परिणत होते हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों का कथन करना चाहिए। इसी प्रकार जो पुद्गल अनिष्ट एवं अमणाम होते हैं, वे नैरयिकों के आहार रूप में परिणत होते हैं। ऐसा ही कथन रत्नप्रभादि सातों नरकपृथ्वियों के नारकों के सम्बन्ध में जानना चाहिए। लेश्यादिद्वार ८८. [२] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं कति लेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! एक्का काउलेसा पण्णत्ता। एवं सक्करप्पभाए वि। बालुप्पभाए पुच्छा, दो लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-नीललेसा कापोतलेसा य। तत्थ जे काउलेसा ते बहुतरा, Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जे णीललेसा पण्णत्ता ते थोवा। पंकप्पभाए पुच्छा, एक्का नीललेसा पण्णत्ता, धूमप्पभाए पुच्छा, गोयमा ! दो लेस्साओ पण्णत्ताओ, तं जहा-किण्हलेस्सा य नीललेस्सा य। ते बहुयरगा जे नीललेस्सा, ते थोवतरगा जे किण्हलेसा। तमाए पुच्छा, गोयमा ! एक्का किण्हलेसा। अधेसत्तमाए एक्का परमकिण्हलेस्सा। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरड्या किं सम्मदिट्टी मिच्छदिट्ठी सम्मामिच्छदिट्ठी ? गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि सम्मामिच्छदिट्ठी वि, एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया किं णाणी अण्णाणी? गोयमा ! णाणी वि अण्णाणि वि। जे णाणी ते णियमा तिणाणी, तं. जहाआभिणिबोहियणाणी, सुयणाणी, अवधिणाणी। जे अण्णाणी ते अत्थेगइया दु अण्णाणि, अत्थेगइया ति अन्नाणी। जे दु अन्नाणि ते णियमा मतिअन्नाणी य सुय-अन्नाणी य। जे ति अन्नाणि ते णियमा मति-अन्नाणी, सुय-अन्नाणी, विभंगणाणी वि, सेसा णं णाणी वि अण्णाणी वि तिण्णि, जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी ? तिण्णि वि एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गोयमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता वि एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए। [इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरड्या ओहिणा केवइयं खेत्तं जाणंति पासंति ? गोयमा ! जहण्णेणं अधुट्ठगाउयाई उक्कोसेणं चत्तारि गाउयाइं। सक्करप्पभाए पु० जहन्नेणं तिन्नि गाउयाई, उक्कोसेणं अधुट्ठाई। एवं अद्धद्धगाउयं पारिहायइ जाव अधेसत्तमाए जहन्नेणं अद्धगाउयं उक्कोसेणं गाउयं।] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइयाणं कति समुग्धाता पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि समुग्धाता पण्णत्ता, तं जहा वेदणासमुग्याए, कसायसमुग्घाए, मारणंतियसमुग्घाए वेउव्वियसमुग्घाए। एवं जाव अहेसत्तमाए। [८८] (२) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में कितनी लेश्याएँ कही गई हैं ? गौतम ! एक कापोतलेश्या कही गई है। इसी प्रकार शर्कराप्रभा में भी कापोतलेश्या है। बालुकाप्रभा में भी दो लेश्याएँ हैं-नीललेश्या और कापोतलेश्या। कापोतलेश्या वाले अधिक हैं और नीललेश्या वाले थोड़े हैं। पंकप्रभा के प्रश्न में एक नीललेश्या कही गई है। धूमप्रभा के प्रश्न में दो लेश्याएँ कही गई हैं-कृष्णलेश्या Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति:लेश्यादिद्वार] [२४१ और नीललेश्या। नीललेश्या वाले अधिक हैं और कृष्णलेश्या वाले थोड़े हैं। तमःप्रभा में एक कृष्णलेश्या है। सातवीं पृथ्वी में एक परमकृष्णलेश्या है। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ? गौतम ! सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और सम्यग्मिथ्यादृष्टि भी हैं। इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे निश्चय से तीन ज्ञान वाले हैं-आभिनिबोधिकज्ञानी, श्रुतज्ञानी और अवधिज्ञानी। जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले हैं और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी हैं और जो तीन अज्ञान वाले हैं वे नियम से मति-अज्ञानी, श्रुत-अज्ञानी और विभंगज्ञानी हैं। शेष शर्कराप्रभा आदि पृथ्वियों के नारक ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी है वे तीनों ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे तीनों अज्ञान वाले हैं। सप्तमपृथ्वी तक के नारकों के लिए ऐसा ही कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक मनयोग वाले हैं, वचनयोग वाले हैं या काययोग वाले हैं? गौतम ! तीनों योग वाले हैं। सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना चाहिए। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नारक साकार उपयोग वाले हैं या अनाकार उपयोग वाले हैं? गौतम ! साकार उपयोग वाले भी हैं और अनाकार उपयोग वाले भी हैं। सप्तमपृथ्वी तक ऐसा ही कहना चाहिए । [हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक अवधि से कितना क्षेत्र जानते हैं, देखते हैं ? गौतम ! जघन्य से साढ़े तीन कोस, उत्कृष्ट से चार कोस क्षेत्र को जानते हैं, देखते हैं। शर्कराप्रभा के नैरयिक जघन्य तीन कोस, उत्कर्ष से साढ़े तीन कोस जानते-देखते हैं। इस प्रकार आधा-आधा कोस घटाकर कहना चाहिए यावत् अधःसप्तमपृथ्वी के नैरयिक जघन्य आधा कोस और उत्कर्ष से एक कोस क्षेत्र जानते-देखते हैं।] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? गौतम! चार समुद्घात कहे गये हैं-वेदनासमुद्घात, कषायसमुद्घात, मारणांतिकसमुद्घात और वैक्रियसमुद्घात। ऐसा ही सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों का कथन करना चाहिए। विवेचन-टीकाकार ने उल्लेख किया है कि यहाँ कई प्रतियों में कई तरह का पाठ है। उन सबका वाचनाभेद भी पूरा-पूरा नहीं बताया जा सकता। केवल जो पाठ बहुतसी प्रतियों में पाया गया और जो अविसंवादी है वही लिया गया है। पाठभेद होते हुए भी आशयभेद नहीं है। मूलपाठ में कोष्ठक के अन्तर्गत दिया गया पाठ टीका में नहीं है। Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रस्तुत सूत्र में प्रतिपद्य विषय पूर्व में स्पष्ट किये जा चुके हैं। लेश्याद्वार में श्री भगवतीसूत्र में कही हुई एक संग्रहणी गाथा इस प्रकार हैं काऊ दोसु तइयाए मीसिया नीलिया चउत्थीए। पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा॥ . अज्ञानद्वार में किन्ही में दो अज्ञान और किन्ही में तीन अज्ञान कहे गये हैं, उसका तात्पर्य यह है कि जो असंज्ञी पंचेन्द्रियों से आकर उत्पन्न होते हैं उनके अपर्याप्त अवस्था में विभंगज्ञान नहीं होता अतएव दो ही अज्ञान सम्भव हैं। शेषकाल में तीनों अज्ञान होते हैं। संज्ञी पंचेन्द्रियों से आकर जो उत्पन्न होते हैं उनके तो अपर्याप्त अवस्था में भी विभंग होता है, अतएव तीनों अज्ञान सदा सम्भव हैं। __ शर्कराप्रभा आदि आगे की नरकपृथ्वियों में संज्ञी पंचेन्द्रिय जीव ही उत्पन्न होते हैं। अतएव पहली रत्नप्रभापृथ्वी को छोड़कर शेष पृथ्वियों में तीनों अज्ञान पाये जाते हैं। शेष सब मूलपाठ से ही स्पष्ट है। नारकों की भूख-प्यास ८९. [१] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं खुहप्पिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! एगमेगस्स णं रयणप्पभापुढविनेरइयस्स असब्भावपट्ठवणाए सव्वोदधी वा सव्वपोग्गले वा आसगंसि पक्खिवेज्जा णो चेवणं से रयणप्पभापुढवीए नेरइए तित्ते व सिया, वितण्हे वा सिया, एरिसिया णं गोयमा। रयणप्पभाए णेरइया खुहप्पिवासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति एवं जाव अहेसत्तमाए। [८९] (१) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक भूख और प्यास की कैसी वेदना का अनुभव करते हैं ? " गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार यदि किसी एक रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक के मुख में सब समुद्रों का जल तथा सब खाद्यपुद्गलों को डाल दिया जाय तो भी उस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक की भूख तृप्त नहीं हो सकती और न उसकी प्यास शान्त हो सकती है। हे गौतम ! ऐसी तीव्र भूख-प्यास की वेदना उन रत्नप्रभा नारकियों को होती है। इसी तरह सप्तमपृथ्वी तक के नैरयिकों के सम्बन्ध में भी जानना चाहिए। एक-अनेक-विकुर्वणा ८९.[२] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं एगत्तं पभू विउव्वित्तए पुहुत्तं पि पभू विउव्वित्तए? ' __गौतम ! एगत्तं पिपभू पुहुत्तं पिपभूविउव्वित्तए। एगत्तं विउव्वेमाणा एगं महं मोग्गररूवं वा एवं भुसुंढि करवत असि सत्ती हल गया मुसल चक्कणाराय कुंत तोमर सूल लउउ भिंडमाला यजाव भिंडमालरूवं वा पुहुत्तं विउव्वेमाणा, मोग्गररूवाणि वा जाव भिंडमालरूवाणिवा ताई संखेज्जाइंणो असंखेज्जाई,संबद्धाइंनोअसंबद्धाइं, सरिसाइंनो असरिसाइंविउव्वंति, विउव्वित्ता Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एक-अनेक-विकुर्वणा] [२४३ अण्णमण्णस्स कायं अभिहणमाणाअभिहणमाणा वेयणं उदीरेंति विउलं पगाढं कक्कसं कडुयं फरुसं निठुरं चंडं तिव्वं दुग्गं दुरहियासं एवं जाव धूमप्पभाए पुढवीए।छट्ठसत्तमासुणं पुढवीसु नेरइया बहु महंताई लोहियकुंथुरूवाइंवइरामयतुंडाइंगोमयकीडसमाणाइं विउव्वंति, विउव्वित्ता अन्नमन्नस्स कायं समतुरंगेमाणा खायमाणा खायमाणा सयपोरागकिमिया विव चालेमाणा चालेमाणा अंतो अंतो अणुप्पविसमाणा अणुप्पविसमाणा वेदणं उदीरंति उज्जलं जावदुरहियासं। [८९] (२) हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या एक रूप बनाने में समर्थ हैं या बहुत से रूप बनाने में समर्थ हैं ? गौतम ! वे एक रूप भी बना सकते हैं और बहुत रूप भी बना सकते हैं। एक रूप बनाते हुए वे एक मुद्गर रूप बनाने में समर्थ हैं, इसी प्रकार एक भुसंढि (शस्त्रविशेष), करवत, तलवार, शक्ति, हल, गदा, मूसल, चक्र, बाण, भाला, तोमर, शूल, लकुट (लाठी) और भिण्डमाल (शस्त्रविशेष) बनाते हैं और बहुत रूप बनाते हुए बहुत से मुद्गर भूसंढी यावत् भिण्डमाल बनाते हैं। इन बहुत शस्त्र रूपों की विकुर्वणा करते हुए वे संख्यात शस्त्रों की ही विकुर्वणा कर सकते हैं, असंख्यात की नहीं। अपने शरीर से सम्बद्ध की विकुर्वणा कर सकते हैं, असम्बद्ध की नहीं, सदृश की रचना कर सकते हैं, असदृश की नहीं। इन विविध शस्त्रों की रचना करके एक दूसरे नैरयिक पर प्रहार करके वेदना उत्पन्न करते हैं। वह वेदना उज्ज्वल अर्थात् लेशमात्र भी सुख न होने से जाज्वल्यमान होती है उन्हें जलाती है, वह विपुल है-सकल शरीरव्यापी होने से विस्तीर्ण है, वह वेदना प्रगाढ़ है-मर्मदेशव्यापी होने से अतिगाढ़ होती है, वह कर्कश होती है (जैसेपाषाणखंड का संघर्ष शरीर के अवयवों को तोड़ देता है उसी तरह से वह वेदना आत्मप्रदेशों को तोड़सी देती है। वह कटुक औषधिपान की तरह कड़वी होती है, वह परुष-कठोर (मन में रूक्षता पैदा करने वाली) होती है, निष्ठुर होती है(अशक्य प्रतीकार होने से दुर्भेद्य होती है) चण्ड होती है (रौद्र अध्यवसाय का कारण होने से), वह तीव्र होती है (अत्यधिक होने से) वह दुःखरूप होती है, वह दुर्लध्य और दुःसह्य होती है। इस प्रकार धूमप्रभापृथ्वी (पांचवी नरक) तक कहना चाहिए। ___छठी और सातवीं पृथ्वी के नैरयिक बहुत और बड़े (गोबर के कीट केसमान) लाल कुन्थुओं की रचना करते हैं, जिनका मुख मानो वज्र जैसा होता है और जो गोबर के कीड़े जैसे होते हैं। ऐसे कुन्थुरूप की विकुर्वणा करके वे एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं, उनके शरीर को बार बार काटते हैं और सौ पर्व वाले इक्षु के कीड़ों की तरह भीतर ही भीतर सनसनाहट करते हुए घुस जाते हैं और उनको उज्ज्वल यावत् असह्य वेदना उत्पन्न करते हैं। ८९.[३] इमीसेणंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया किं सीयवेदणं वेदेति, उसिणवेयणं वेदेति, सीओसिणवेयणं वेदेति ? गोयमा !णो सीयंवेदणंवेदेति, उसिणंवेदणं वेदेति, णो सीयोसिणं,एवंजावबालुयप्पभाए। १. यहाँ प्रतियों में ('ते अप्पयरा उण्हजोणिया वेदेति')पाठ अधिक है जो संगत नहीं है। भूल से लिखा गया प्रतीत होता है। -संपादक Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पंकप्पभाए पुच्छा-गोयमा ! सीयं पि वेयणं वेदेति, उसिणं पि वेयणं वेयंति, नो सीओसिणवेयणं वेयंति।ते बहुतरगाजे उसिणं वेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे सीतं वेदणं वेयंति। धूमप्पभाए पुच्छा।गोयमा! सीतं पिवेदणं वेदेति उसिणं पि वेयणं वेयंति णो सीतोसिणं वेयणं वेदेति। ते बहुतरगा जे सीयवेदणं वेदेति, ते थोवयरगा जे उसिणवेयणं वेयंति। तमाए पुच्छा।गोयमा! सीयं वेयणं वेदेति णो उसिणं वेदणं वेदेति णो सीतोसिणं वेयणं वेदेति। एवं अहेसत्तमाए णवरं परमसीयं। [८९] (३) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक क्या शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं या शीतोष्ण वेदना वेदते हैं ? - गौतम ! वे शीत वेदना नहीं वेदते हैं, उष्ण वेदना वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। इस प्रकार शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा के नैरयिकों के संबंध में भी जानना चाहिए। पंकप्रभा के विषय में प्रश्न करने पर गौतम ! वे शीतवेदना भी वेदते हैं, उष्ण वेदना भी वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। वे नैरयिक बहुत हैं जो उष्णवेदना वेदते हैं और वे कम हैं जो शीत वेदना वेदते हैं। धूमप्रभा के विषय में प्रश्न किया तो हे गौतम! वे शीत वेदना भी वेदते हैं और उष्ण वेदना भी वेदते हैं, शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। वे नारकजीव अधिक हैं जो शीत वेदना वेदते हैं और वे थोड़े हैं जो उष्ण वेदना वेदते हैं। तमःप्रभा के प्रश्न पर वे हे गौतम ! वे शीत वेदना वेदते हैं, उष्ण वेदना नहीं वेदते हैं और शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। तमस्तमा पृथ्वी की पुच्छा में गौतम! परमशीत वेदना वेदते हैं उष्ण या शीतोष्ण वेदना नहीं वेदते हैं। ८९. [४] इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइया केरिसयं णिरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति ? गोयमा ! तेणं तत्थ णिच्चं भीता णिच्चं तसिया णिच्चं छुहिया उव्विग्गा निच्चं उवप्पुआ णिच्चं वहिया निच्चं परममसुभमउलमणुबद्धं निरयभवं पच्चणुभवमाणा विहरंति। एवं जाव अधेसत्तमाए णं पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया महाणरगा पन्नत्ता, तं जहाकालेमहाकालेरोरुए महारोरुए अप्पतिवाणे।तत्थइमे पंचमहापुरिसाअणुत्तरेहिंदंडसमादाणेहिंकालमासे कालंकिच्चाअप्पइट्ठाणेणरए णेरड्यत्ताए उववण्णा, तंजहा–१ रामेजमदग्गिपुत्ते २ दढाउलच्छइपुत्ते ३ वसु उवरिचरे ४ सुभूमे कोरव्वे ५ बंभदत्ते चुलणिसुए। तेणं तत्थ नेरइया जाया काला कालोभासा जाव परमकिण्हावण्णेणं पण्णत्ता,तंजहा तेणंतत्थ वेदणं वेदेति उज्जलं विउलं जावदुरहियासं। १. 'णिच्वं वहिया' यह पाठ टीका में नहीं है। -संपादक Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एक-अनेक-विकुर्वणा] [२४५ [८९] (४) हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के नरकभव का अनुभव करते हुए विचरते हैं ? गौतम ! वे वहाँ नित्य डरे हुए रहते हैं, नित्य त्रसित रहते हैं, नित्य भूखे रहते हैं, नित्य उद्विग्न रहते हैं, नित्य उपद्रवग्रस्त रहते हैं, नित्य वधिक के समान क्रूर परिणाम वाले, नित्य परम अशुभ, अनन्य सदृश अशुभ और निरन्तर अशुभ रूप से उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं । इसी प्रकार सप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। ___ सप्तम पृथ्वी में पांच अनुत्तर बड़े से बड़े महानरक कहे गये हैं, यथा-काल, महाकाल, रौरव, महारौरव और अप्रतिष्ठान । वहाँ ये पांच महापुरुष सर्वोत्कृष्ट हिंसादि पाप कर्मों को एकत्रित कर मृत्यु के समय मर कर अप्रतिष्ठान नरक में नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए,-१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, २. लच्छतिपुत्र दृढायु, ३. उपरिचर वसुराज, ४. कौरव्य सुभूम और ५. चुलणिसुत ब्रह्मदत्त। ये वहाँ नैरयिक के रूप में उत्पन्न हुए जो वर्ण से काले, काली छवि वाले यावत् अत्यन्त काले हैं, इत्यादि वर्णन करना चाहिए यावत् वे वहाँ अत्यन्त जाज्वल्यमान विपुल एवं यावत् असह्य वेदना को वेदते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नारक जीवों की भूख-प्यास संबंधी वेदना, एक-अनेक शस्त्रों की विकुर्वणा कर परस्पर दी गई वेदना, शीतवेदना, उष्णवेदना और नरकभव से होने वाली वेदनाओं का वर्णन किया है। भूखवेदना-नारक जीवों की भूख-प्यास को असत् कल्पना के द्वारा व्यक्त करते हुए कहा गया है कि यदि किसी एक नारक जीव के मुख में सर्व खाद्य पुद्गलों को डाला दिया जाय और सारे समुद्रों का पानी पिला दिया जाय तो भी न तो उसकी भूख शान्त होगी और न प्यास ही बुझ पायेगी। इसकी थोड़ी सी कल्पना हमें इस मनुष्यलोक में प्रबलतम भस्मक व्याधि वाले पुरुष की दशा से आ सकती हैं। ऐसी तीव्र भूख-प्यास की वेदना वे नारक जीव सहने को बाध्य हैं। शस्त्रविकुर्वणवेदना-वे नारक जीव एक प्रकार के और बहुत प्रकार के नाना शस्त्रों की विकुर्वणा करके एक दूसरे नारक जीव पर तीव्र प्रहार करते हैं। वे परस्पर में तीव्र वेदना देते हैं, इसलिए परस्पररोदीरित वेदना वाले हैं। पाठ में आया हुआ 'पुहुत्तं' शब्द बहुत्व का वाचक है। इस विक्रिया द्वारा वे दूसरों को उज्ज्वल, विपुल, प्रगाढ़, कर्कश, कटुक, परुष, निष्ठुर, चण्ड, तीव्र, दुःखरूप, दुर्लध्य और दुःसह्य वेदना देते हैं। यह विकुर्वणा रूप वेदना पांचवी नरक तक समझना चाहिए। छठी और सातवीं नरक में तो नारक जीव वज्रमय मुखवाले लाल और गोबर के कीड़े के समान, बड़े कुन्थुओं का रूप बनाकर एक दूसरे के शरीर पर चढ़ते हैं और काट-काट कर दूसरे नारक के शरीर में अन्दर तक प्रवेश करके इक्षु का कीड़ा जैसे इक्षु को खा-खाकर छलनी कर देता है, वैसे वे नारक के शरीर को छलनी करके वेदना पहुँचाते हैं। शीतादि वेदना-रत्नप्रभापृथ्वी के नारक शीतवेदना नहीं वेदते हैं, उष्णवेदना वेदते हैं, शीतोष्णवेदना नहीं वेदते हैं। वे नारक शीतयोनि वाले हैं। योनिस्थान के अतिरिक्त समस्त भूमि खैर के अंगारों से भी अधिक Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रतप्त है, अतएव वे नारक उष्णवेदना वेदते है; शीतवेदना नहीं। शीतोष्णस्वभाव वाली सम्मिलित वेदना का नरकों में मूल से ही अभाव है। __ शर्कराप्रभा और बालुकाप्रभा में भी उष्णवेदना ही है। पंकप्रभा में शीतवेदना भी और उष्णवेदना भी है। नरकावासों के भेद से कतिपय नारक शीतवेदना वेदते हैं और कतिपय नारक उष्णवेदना वेदते हैं. उष्णवेदना वाले नारक जीव अधिक हैं और शीतवेदना वाले कम हैं। धूमप्रभा में भी दोनों प्रकार की वेदनाएँ हैं परन्तु वहाँ शीतवेदना वाले अधिक हैं और उष्णवेदना वाले कम हैं। ___छठी नरक में शीत वेदना है। क्योंकि वहाँ के नारक उष्णयोनिक हैं । योनिस्थानों को छोड़कर सारा क्षेत्र अत्यन्त बर्फ की तरह ठंडा है, अतएव उन्हें शीतवेदना भोगनी पड़ती है। सातवीं पृथ्वी में अतिप्रबल शीतवेदना है। ' भवानुभववेदना-रत्नप्रभा आदि नरक भूमियों के नारक जीव क्षेत्रस्वभाव से ही अत्यन्त गाढ अन्धकार से व्याप्त भूमि को देखकर नित्य डरे हुए और शंकित रहते हैं। परमाधार्मिक देव तथा परस्परोदीरित दुःखसंघात से नित्य त्रस्त रहते हैं। वे नित्य दुःखानुभव के कारण उद्विग्न रहते हैं, वे नित्य उपद्रवग्रस्त होने से तनिक भी साता नहीं पाते हैं, वे सदा अशुभ, अशुभ रूप से अनन्यसदृश तथा अशुभरूप से निरन्तर उपचित नरकभव का अनुभव करते हैं। यह वक्तव्यता सब नरकों में है। सप्तमपृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में अत्यन्त क्रूर कर्म करने वाले जीव ही उत्पन्न होते हैं, अन्य नहीं। उदाहरण के रूप में यहाँ पांच महापुरुषों का उल्लेख किया गया है जो अत्यन्त उत्कृष्ट स्थिति के और उत्कृष्ट अनुभाग के बन्ध कराने वाले क्रूर कर्मों को बाँधकर सप्तमपृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुए। वे हैं-१. जमदग्नि का पुत्र परशुराम, २. लच्छति पुत्र दृढायु (टीकाकार के अनुसार छातीसुत दाढादाल), ३. उपरिचर वसुराजा, ४. कोरव्य गोत्रवाला अष्टमचक्रवर्ती सुभूम और ५. चुलनीसुत ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती। ऐसा कहा जाता है कि परशुराम ने २१ बार क्षत्रियों का नाश करके क्षत्रियहीन पृथ्वी कर दी थी। सुभूम आठवाँ चक्रवर्ती हुआ, इसने सात बार पृथ्वी को ब्राह्मणरहित किया, ऐसी किंवदन्ती है। तीव्र क्रूर अध्यवसायों से ही ऐसा हो सकता है। ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती अत्यन्त भोगासक्त था तथा उसके अध्यवसाय अत्यन्त क्रूर थे। वसु राजा उपरिचर के विषय में प्रसिद्ध है कि वह बहुत सत्यवादी था और इस कारण देवताधिष्ठित स्फटिक सिंहासन पर बैठा हुआ भी वह स्फटिक सिंहासन जनता को दृष्टिगोचर न होने से बात फैल गई थी कि राजा प्राण जाने पर भी असत्य भाषण नहीं करता। इसके प्रताप से वह भूमि से ऊपर उठकर अधर में स्थित होता है। एक बार पर्वत और नारद में वेद में आये हुए 'अज' शब्द के विषय में विवाद हुआ। पर्वत अज का अर्थ बकरा करता था और उससे यज्ञ करने का हिंसामय प्रतिपादन करता था। दोनों न्याय के लिए वसु राजा के पास आये। किन्हीं कारणों से वसु राजा ने पर्वत का पक्ष लिया, हिंसामय यज्ञ को प्रोत्साहित किया। इस झूठ के कारण देवता कुपित हुआ और उसे चपेटा मार कर सिंहासन से गिरा दिया। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :उष्णवेदना का स्वरूप] [२४७ वह रौद्रध्यान और क्रूर परिणामों से मरकर सप्तम पृथ्वी के अप्रतिष्ठान नरकावास में उत्पन्न हुआ। उक्त पंच महापुरुष और ऐसे ही अन्य अत्यन्त क्रूरकर्मा प्राणी सर्वोत्कृष्ट पाप कर्म का उपार्जन करके वहाँ उत्पन्न हुए और अशुभ वर्ण-गंध-स्पर्शादिक की उज्ज्वल, विपुल और दुःसह्य वेदना को भोग रहे हैं। उष्णवेदना का स्वरूप ८९. [५] उसिणवेदणिज्जेसु णं भंते ! णरएसु णेरइया केरिसयं उसिणवेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे बलवं जुगवं अप्पायंके थिरग्गहत्थे दढपाणिपादपास पिटुंतरोरु [ संघाय ] परिणए लंघण-पवण-जवण-वग्गण-पमद्दणसमत्थे तलजमलजुयल (फलिहणिभ) बाहू घणणिचियवलियवट्टखंधे, चम्मेलुगदुहणमुट्ठियसमाहयणिचितगत्तगत्ते उरस्स बल समण्णागए छेए दक्खे पटे कुसले णिउणे मेहावी णिउणसिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं उदगवारसमाणं गहाय तं ताविय ताविय कोट्टिय कोट्टिय उब्भिंदिय उब्भिंदिय चुण्णिय चुण्णिय जाव एगाहं वा दुयाहं या तियाहं वा उक्कोसेणं अद्धमासं संहणेज्जा, से णं तं सीतं सीतीभूतं अओमएणं संदंसएणं गहाय असब्भावपट्ठवणाए उसिणवेदणिज्जेसु णरएसु पक्खिवेज्जा, से णं तं उम्मिसिय णिमिसियंतरेण पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामित्तिकट्ट पविरायमेव पासेज्जा, पविलीणमेव पासेज्जा, पविद्धत्थमेव पासेज्जा णो चेव णं संचाएति अविरायं वा अविलीणं वा अविद्धत्थं वा पुणरवि पच्चद्धरित्तए। __ से जहावा मत्तमातंगे दिवे कुंजरे सट्ठिहायणे पढमसरयकालसमयंसि वा चरमनिदाघकालसमयंसि वा उण्हाभिहए तण्हभिहए दवग्गिजालाभिहए आउरे सुसिए पिवासिए दुब्बले किलंते एक्कं महं पुक्खरिणिं पासेज्जा चाउक्कोणं समतीरं अणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरशीतलजलं संछण्णपत्तंभिसमुणालं बहुउप्पलकुमुदणलिण-सुभग-सोगंधिय-पुंडरीय-महपुंडरीय-सयपत्तसहस्सयपत्त-केसर फुल्लोवचियं छप्पयपरिभुज्जमाणकमलंअच्छविमलसलिलपुण्णं परिहत्थभमंत मच्छ कच्छभं अणेगसउणिगणमिहुणय विरइय सदुन्नइयमहुरसरनाइयं तं पासइ, तं पासित्ता तं ओगाहइ, ओगाहित्ता सेणंतत्थ उण्हपि पविणेज्जा तिण्हंपि पविणेज्जा ख़हंपिपविणिजा जरंपि पविणेज्जा दाहं पि पविणेज्जा णिहाएज्ज वा पयलाएज्ज वा सई वा रइं वा धिई वा मतिं वा उवलभेज्जा, सीए सीयभूए संकममाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले यावि विहरिज्जा, एवामेव गोयमा ! असब्भावपट्ठवणाए उसिणवेयणिज्जेहिंतो णरएहितोणेरइए उव्वट्ठिए समाणे जाइंइमाइं मणुस्सलोयंसि भवंति गोलियालिंछाणि वा सेंडियालिंछाणिवा भिंडियालिंछाणि वा अयागराणि वा तंबागराणि वा तउयागराणि वा सीसागराणि वा रूप्यागराणि वा सुवन्नागराणि वा हिरण्णागराणि वा कुंभारागणीइ वा मुसागणी वा इट्टयागणी वा कर्वल्लुयागणी वा लोहारंबरीसे इवा हंडियलित्थाणि वा सोंडियलित्थाणि वा णलागणी इवा तिलागणी वा तुसागणी ति वा तत्ताइंसमज्जोईभूयाइं फुल्लाकिंसुय-समाणाई उक्कासहस्साई विणिम्मुयमाणाइजालासहस्साई Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पमुच्चमाणाई इंगालसहस्साइं पविक्खरमाणाई अंतो अंतो हुहुयमाणाइं चिट्ठति ताई पासइ, ताई पासित्ता ताई ओगाहइ, ताई ओगाहित्ता से णं तत्थ उण्हं पि पविणेज्जा तहं पि पविणेज्जा खुहं पि पविणेज्जा जरंपि पविणेज्जा दाहं पि पविणेज्जा णिद्दाएज्जा वा पयलाएज्जा वा सई वा रई वा धि वा मई वा उवलभेज्जा, सीए सीयभूयए संकममाणे संकममाणे सायासोक्खबहुले या वि विहरेज्जा, भवेयारूवे सिया ? णो इणट्टे समट्टे, गोयमा ! उसिणवेदणिज्जेसु णरएसु नेरइया एत्तो अणिट्ठतरियं चेव उसिण वेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति । [८९] (५) हे भगवन् ! उष्णवेदना वाले नरकों में नारक किस प्रकार की उष्णवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का, जो तरुण (युवा - विशिष्ट अभिनव वर्णादि वाला) हो, बलवान हो, युगवान् (कालदिजन्य उपद्रवों से रहित) हो, रोग रहित हो, जिसके दोनों हाथों का अग्रभाग स्थिर हो, जिसके हाथ, पांव, पसलियाँ, पीठ और जंघाए सुदृढ और मजबूत हों, जो लांघने में, कूदने में, वेग के साथ चलने में, फांदने में समर्थ हो और जो कठिन वस्तु को भी चूर-चूर कर सकता हो, जो दो ताल वृक्ष जैसे सरल लंबे पुष्ट बाह वाला हो, जिसके कंधे घने पुष्ट और गोल हों, ( व्यायाम के समय) चमडे की बेंत, मुदगर तथा मुट्ठी के आघात से घने और पुष्ट बने हुए अवयवों वाला हो, जो आन्तरिक उत्साह से युक्त हो, जो छेक (बहत्तर कला निपुण, दक्ष (शीघ्रता से काम करने वाला), प्रष्ठ - हितमितभाषी, कुशल (कार्य कुशल), निपुण, बुद्धिमान, निपुणशिल्पयुक्त हो वह एक छोटे घड़े के समान बड़े लोहे के पिण्ड को लेकर उसे तप-तपा कर कूट-कूट कर काट-काट कर उसका चूर्ण बनावे, ऐसा एक दिन, दो दिन, तीन दिन यावत् अधिक से अधिक पन्द्रह दिन तक ऐसा ही करता रहे। ( चूर्ण का गोला बनाकर उसी क्रम से चूर्णादि करता रहे और गोला बनाता रहे, ऐसा करने से वह मजबूत फौलाद का गोला बन जावेगा ) फिर उसे ठंडा करे । उस ठंडे लोहे के गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना से उष्णवेदना वाले नरकों में रख दे, इस विचार के साथ कि मैं एक उन्मेष - निमेष में (पलभर में) उसे फिर निकाल लूंगा । परन्तु वह क्ष भर में ही उसे फूटता हुआ देखता है, मक्खन की तरह पिघलता हुआ देखता है, सर्वथा भस्मीभूत होते हुए देखता है। वह लुहार का लड़का उस लोहे के गोले की अस्पुटित, अगलित और अविध्वस्त रूप में पुनः निकाल लेने में समर्थ नहीं होता । (तात्पर्य यह है कि वह फौलाद का गोला वहाँ की उष्णता से क्षणभर मे पिघल कर नष्ट हो जाता है, इतनी भीषण वहाँ की उष्णता है ।) २४८ ] (दूसरा दृष्टान्त) जैसे कोई मद वाला मातंग हाथी द्विप कुंजर जो साठ वर्ष का है प्रथम शरत्काल समय में (आश्विन मास में) अथवा अन्तिम ग्रीष्मकाल समय में (ज्येष्ठ मास में) गरमी से पीड़ित होकर तृषा से बाधित होकर, दावाग्नि की ज्वालाओं से झुलसता हुआ, आतुर, शुषित, पिपासित, दुर्बल और क्लान्त बना हुआ एक बड़ी पुष्करिणी ( सरोवर) को देखता है, जिसके चार कोने हैं, जो समान किनारे वाली है, जो क्रमशः आगे-आगे गहरी है, जिसका जलस्थान अथाह है, जिसका जल शीतल है, जो कमलपत्र, कंद और मृणाल से ढंकी हुई है। जो बहुत से खिले हुए केसर प्रधान उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगंधिक, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :शीतवेदना का स्वरूप] [२४९ पुण्डरीक, महापुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विवध कमल की जातियों से युक्त है, जिसके कमलों पर भ्रमर रसपान कर रहे हैं, जो स्वच्छ निर्मल जल से भरी हुई है, जिसमें बहुत से मच्छ और कछुए इधरऊधर घूम रहे हों, अनेक पक्षियों के जोड़ों के चहचहाने के शब्दों के कारण से जो मधुर स्वर से सुनिनादित (शब्दायमान) हो रही है, ऐसी पुष्करिणी को देखकर वह उसमें प्रवेश करता है, प्रवेश करके अपनी गरमी को शान्त करता है, तृषा को दूर करता है, भूख को मिटाता है, तापजनित ज्वर को नष्ट करता है और दाह को उपशान्त करता है। इस प्रकार उष्णता आदि के उपशान्त होने पर वहाँ निद्रा लेने लगता है, आँखें मूंदने लगता है, उसकी स्मृति, रति (आनन्द), धृति (धैर्य) तथा मति (चित्त की स्वस्थता) लौट आती है, वह इस प्रकार शीतल और शान्त होकर धीरे-धीरे वहाँ से निकलता-निकलता अत्यन्त साता-सुख का अनुभव करता है। इसी प्रकार हे गौतम ! असत्कल्पना के अनुसार उष्णवेदनीय नरकों से निकल कर कोई नैरयिक जीव इस मनुष्यलोक में जो गुड पकाने की भट्टियां, शराब बनाने की भट्टियां, बकरी की लिण्डियों की अग्निवाली भट्टियां, लोहा गलाने की भट्टियां, ताँबा गलाने की भट्टियां, इसी तरह रांगा, सीसा, चांदी, सोना, हिरण्य को गलाने की भट्टियां, कुम्भकार के भट्टे की अग्नि, मूस की अग्नि, ईंटें पकाने के भट्टे की अग्नि, कवेलू पकाने के भट्टे की अग्नि, लोहार के भट्टे की अग्नि, इक्षुरस पकाने की चूल की अग्नि, तिल की अग्नि, तुष की अग्नि, नड-बांस की अग्नि आदि जो अग्नि और अग्नि के स्थान हैं, जो तप्त हैं और तपकर अग्नि तुल्य हो गये हैं, फूले हुए पलास के फूलों की तरह लाल-लाल हो गये हैं, जिनमें से हजारों चिनगारियां निकल रही हैं, हजारों ज्वालाएँ निकल रही हैं, हजारों अंगारे जहाँ बिखर रहे हैं और जो अत्यन्त जाज्वल्यमान हैं, जो अन्दर ही अन्दर धू-धू धधकते हैं, ऐसे अग्निस्थानों और अग्नियों को वह नारक जीव देखे और उनमें प्रवेश करे तो वह अपनी उष्णता को (नरक की उष्णता को) शान्त करता है, तृषा, क्षुधा और दाह को दूर करता है और ऐसा होने से वह वहाँ नींद भी लेता है, आँखें भी मूंदता है, स्मृति, रति, धृति और मति (चित्त की स्वस्थता) प्राप्त करता है और ठंडा होकर अत्यन्त शान्ति का अनुभव करता हुआ धीरे-धीरे वहाँ से निकलता हुआ अत्यन्त सुख-साता का अनुभव करता है। भगवान् के ऐसा कहने पर गौतम ने पूछा कि भगवन् ! क्या नारकों की ऐसी उष्णवेदना है ? भगवान् ने कहा-नहीं, यह बात नहीं है; इससे भी अनिष्टतर उष्णवेदना को नारक जीव अनुभव करते हैं। शीतवेदना का स्वरूप ८९.[५] सीयवेदणिज्जेसुणंभंते ! णरएसु णेरड्य केरिसयंसीयवेयणं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! से जहानामए कम्मारदारए सिया तरुणे जुगवं बलवं जाव सिप्पोवगए एगं महं अयपिंडं दगवारसमाणं गहाय ताविय कोट्टिय जहन्नेणं एगाहं वा दुआरं वा तियाहं वा उक्कोसेणं मासंहणेज्जा, सेणं तं उसिणंउसिणभूतं अयोमएणं संदंसएणंगहाय असब्भावपट्ठवणाए सीयवेदणिज्जेसुणरएसु पक्खिवेज्जा, तं[ उमिसियनिमिसियंतरेणं पुणरवि पच्चुद्धरिस्सामि त्तिक१ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पविरायमेव पासेज्जा, तं चेव णं जाव णो चेव णं संचाएज्जा पुणरवि पच्चुद्धरित्तए । से णं से जहाणामए मत्तमायंगे तहेव जाव सोक्खबहुले यावि विहरेज्जा ] एवामेव गोयमा ! असब्भावपट्टवणाए सीयवेदणेहिंतो णरएहिंतो नेरइए उव्वट्टिए समाणे जाई इमाई इहं माणुस्लोए हवंति, तं जहा - हिमाणि वा हिमपुंजाणि वा हिमपउलाणि वा हिमपउलपुंजाणिवा, तुसाराणि वा, तुसारपुंजाणि वा, हिमकुंडाणि वा हिमकुंडपुंजाणि वा सीयणि वा ताई पासइ, पासिता ताई ओगाहति, ओगाहित्ता से णं तत्थ सीयं पि पविणेज्जा, तहं पि पविणेज्जा खुहं पि प० जरं पिप० दाहं पि पविणेज्जा निद्दाएज्ज वा पयलाएज्ज वा जाव उसिणे उसिणभूए संकसमाणें संकसमाणें सायासोक्खबहुले यावि विहरेज्जा । गोयमा ! सीयवेयणिज्जेसु नरएसु नेरइया एत्तो अणिट्ठतरियं चेव सीयवेयणं पच्चणुभवमाणा विहरंति । [८९] (५) हे भगवन् ! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक जीव कैसी शीतवेदना का अनुभव करते हैं ? गौतम ! जैसे कोई लुहार का लड़का जो तरुण, युगवान् बलवान् यावत् शिल्पयुक्त हो, एक बड़े लोहे के पिण्ड को जो पानी के छोटे घड़े के बाराबर हो, लेकर उसे तपा - तपाकर, कूट-कूटकर जघन्य एक दिन, दो दिन, तीन दिन, उत्कृष्ट से एक मास तक पूर्ववत् सब क्रियाएँ करता रहे तथा उस उष्ण और पूरी तरह उष्ण गोले को लोहे की संडासी से पकड़ कर असत् कल्पना द्वारा उसे शीतवेदनीय नरकों में डाले (मैं अभी उन्मेष-निमेष मात्र समय में उसे निकाल लूंगा, इस भावना से डाले परन्तु वह पल-भर बाद उसे फूटता हुआ, गलता हुआ, नष्ट होता हुआ देखता है, वह उसे अस्फुटित रूप से निकालने में समर्थ नहीं होता है । इत्यादि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। तथा मस्त हाथी का उदाहरण भी वैसे ही कहना चाहिए यावत् वह सरोवर से निकलकर सुखशान्ति से विचरता है।) इसी प्रकार हे गौतम! असत् कल्पना से शीतवेदना वाले नरकों से निकला हुआ नैरयिक इस मनुष्य लोक में शीतप्रधान जो स्थान हैं जैसे कि हिम, हिमपुंज, हिमपटल, हिमपटल के पुंज, तुषार, तुषार के पुंज, हिमकुण्ड, हिमकुण्ड के पुंज, शीत और शीतपुंज आदि को देखता है, देखकर उनमें प्रवेश करता है; वह वहाँ अपने नारकीय शीत को, तृषा को, भूख को, को, दाह को, मिटा लेता है और शान्ति के अनुभव से नींद भी लेता है, नींद से आंखें बन्द कर लेता है यावत् गरम होकर अति गरण होकर वहाँ से धीरे धीरे निकल कर साता सुख का अनुभव करता है । हे गौतम! शीतवेदनीय नरकों में नैरयिक इससे भी अनिष्टतर शीतवेदना का अनुभव करते हैं । नैरयिकों की स्थिति ज्वर ९०. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णेरइयाणं केवइयं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्त्रेण वि उक्कोसेण वि ठिई भाणियव्वा जाव अहेसत्तमाए । [९०] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की स्थिति कितनी कही गई है ? Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : उद्वर्तना] [२५१ गौतम ! जघन्य से और उत्कर्ष से पन्नवणा के स्थितिपद के अनुसार अधःसप्तमपृथ्वी तक स्थिति कहनी चाहिए। उद्वर्तना ९१. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए णेरड्या अणंतरं उव्वद्विय कहिं गच्छंति ? कहिं उववज्जति ? किं नेरइएसु उववज्जंति, किं तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, एवं उव्वट्टणा भाणियव्वा जहा वक्कंतीए तहा इह वि जाव अहेसत्तमाए। [९१] हे भगवन् ! रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक वहाँ से निकलकर सीधे कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, तिर्यक्योनियों में उत्पन्न होते हैं ? इस प्रकार उद्वर्तना कहनी चाहिए, जैसा कि प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद में कहा गया हैं वैसा यहाँ भी अधःसप्तमपृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नैरयिकों की स्थिति और उद्वर्तना के विषय में प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार वक्तव्यता जाननी चाहिए, ऐसा कहा गया है। प्रज्ञापना में क्या कहा गया है, वह यहाँ उल्लेखित किया जाना आवश्यक है। वह कथन इस प्रकार का हैपृथ्वी का नाम जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति रत्नप्रभा दस हजार वर्ष एक सागरोपम एक सागरोपम तीन सागरोपम बालुकाप्रभा तीन सागरोपम सात सागरोपम पंकप्रभा सात सागरोपम दस सागरोपम धूमप्रभा दस सागरोपम सत्रह सागरोपम तमःप्रभा सत्रह सागरोपम बावीस सागरोपम ७. तमस्तमःप्रभा बावीस सागरोपम तेतीस सागरोपम प्रस्तट के अनुसार स्थिति १. रत्नप्रभा के १३ प्रस्तट हैं, उनकी स्थिति इस प्रकार हैप्रस्तट जघन्य स्थिति उत्कृष्ट स्थिति (१) प्रथम प्रस्तट दस हजार वर्ष नब्बे हजार वर्ष दूसरा प्रस्तट दस लाख वर्ष नब्बे लाख वर्ष (३) तीसरा प्रस्तट नब्बे लाख वर्ष पूर्वकोटि (४) चौथा प्रस्तट पूर्वकोटि सागरोपम का दसवां भाग (५) पांचवां प्रस्तट सागरोपम के दसवां भाग सागरोपम के दो दशभाग (६) छठा प्रस्तट सागरोपम के दो दशभाग सागरोपम के तीन दशभाग (७) सातवां प्रस्तट सागरोपम के तीन दशभाग सागरोपम के चार दशभाग शर्कराप्रभा Mm> (२) Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ ] (८) आठवां प्रस्तट (९) नौवां प्रस्तट (१०) दसवां प्रस्तट (११) ग्यारहवां प्रस्तट (१२) बारहवां प्रस्तट (१३) तेरहवां प्रस्तट प्रस्तट पहला प्रस्तट दूसरा तीसरा चौथा पांचवां छठा "" सातवां आठवां नौवां दसवां ग्यारहवां प्रस्तट "" "" " "" "" "" "" "" प्रथम प्रस्तट द्वितीय तृतीय " " "" सागरोपम के चार दशभाग सागरोपम के पांच दशभाग सागरोपम के छह दशभाग सागरोपम के सात दशभाग सागरोपम के आठ दशभाग सागरोपम के नौ दशभाग २. शर्कराप्रभा की प्रस्तट के अनुसार स्थिति जघन्य एक सागरोपम १/ ११ १/ ११ ११ 21 ११ २१०/ २. ११ २/ ११ ११ ११ २७/ ११ २/ ११ "? जघन्य " " "" " "" "" " "" "" ३. बालुकाप्रभा ३ सागरोपम ३%, ३. ९ "" "" [जीवाजीवाभिगमसूत्र सागरोपम के पांच दशभाग सागरोपम के छह दशभाग सागरोपम के सात दशभाग सागरोपम के आठ दशभाग सागरोपम के नौ दशभाग सागरोपम के दस दशभाग अर्थात् पूरा एक सागरोपम उत्कृष्ट एक सागरोपम और /, सागरोपम १%, ११ १%, १% ११ ११ ११% ११ ११ २/, २%. ११ ११ " ३%, ३%, " "" "" "" " २%, २/ " ३ सागरोपम पूर्ण "" " उत्कृष्ट सागरोपम "" " Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: उद्वर्तना] [२५३ चतुर्थ पंचम छठा ६. सप्तम अष्टम नवम ७ सागरोपम पूर्ण ४. पंकप्रभा प्रस्तट जघन्य उत्कृष्ट प्रथम प्रस्तट ७ सागरोपम ७/ सागरोपम द्वितीय तृतीय , चतुर्थ पंचम छठा सप्तम १० सागरोपम परिपूर्ण ५. धूमप्रभा जघन्य • प्रस्तट उत्कृष्ट १० सागरोपम ११/, सागरोपम १२, पहला प्रस्तट दूसरा ॥ तीसरा चौथा पांचवां १२. " १४॥ १५ , १७ सागरोपम प्रतिपूर्ण प्रस्तट प्रथम प्रस्तट द्वितीय ६. तमःप्रभा जघन्य १७ सागरोपम उत्कृष्ट १८२, सागरोपम १८ ॥ २०१३ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ३ तृतीय , २०११ ॥ २२ सागरोपम प्रतिपूर्ण प्रस्तट एक ही प्रस्तट है तमस्तमःप्रभा जघन्य २२ सागरोपम उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम उद्वर्तना __ प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद के अनुसार उद्वर्तना कहनी चाहिए। वह बहुत विस्तृत है अतः वहीं से जानना चाहिए। संक्षेप में भावार्थ यह है कि प्रथम नरक पृथ्वी से लेकर छठी नरक पृथ्वी के नैरयिक वहाँ से सीधे निकलकर नैरयिक, देव, एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, संमूर्छिम पंचेन्द्रिय और असंख्येय वर्षायु वाले तिर्यंच मनुष्य को छोड़कर शेष तिर्यंचों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। सप्तम पृथ्वी के नैरयिक गर्भज तिर्यक् पंचेन्द्रियों में ही उत्पन्न होते हैं, शेष में नहीं। नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शादि निरूपण ___९२. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पुढविफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणामं । एवं जाव अहेसत्तमाए। इमीसेणं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं आउफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणाम। एवं जाव अहेसत्तमाए। एवं जाव वणप्फइफासं अहेसत्तमाए पुढवीए। इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु? हंता ! गोयमा ! इमा णं रयणप्पभाएपुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय जाव सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु। दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय सव्वमहंतिया बाहल्लेणं पुच्छा ? हंता गोयमा ! दोच्चा णं पुढवी जाव सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु। एवं एएणं अभिलावेणं जाव छट्ठिया पुढवी अहेसत्तमं पुढविं पणिहाय सव्वक्खुड्डिया सव्वंतेसु। [९२] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं ? गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमणाम भूमिस्पर्श का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहएि। हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के जलस्पर्श का अनुभव करते हैं ? Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नरकों में पृथ्वी आदि का स्पर्शदि प्ररूपण] [२५५ गौतम ! वे अनिष्ट यावत् अमणाम जलस्पर्श का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहएि। इसी प्रकार तेजस्, वायु और वनस्पति के स्पर्श के विषय में रत्नप्रभा से लेकर सप्तम पृथ्वी तक के नैरयिकों के विषय में जानना चाहिए। ___ हे भगवन् ! क्या यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य (मोटाई) में बड़ी है और सर्वान्तों में लम्बाई-चौड़ाई में सबसे छोटी है ? हाँ गौतम ! यह रत्नप्रभापृथ्वी दूसरी पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बडी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी हे भगवन् ! क्या शर्कराप्रभापृथ्वी नामक दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी और सर्वान्तों में छोटी है ? ___ हाँ गौतम ! दूसरी पृथ्वी तीसरी पृथ्वी से बाहल्य में बड़ी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी है। इसी प्रकार तब तक कहना चाहिए यावत् छठी पृथ्वी सातवीं पृथ्वी की अपेक्षा बाहल्य में बड़ी और लम्बाई-चौड़ाई में छोटी है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नरक-पृथ्वियों के भूमिस्पर्श, जलस्पर्श, तेजस्स्पर्श, वायुस्पर्श और वनस्पतिस्पर्श के विषय को लेकर नैरयिकों के अनुभव की चर्चा है। नैरयिक जीवों को तनिक भी सुख के निमित्त नहीं हैं अतएव उनको वहाँ की भूमि का स्पर्श आदि सब अनिष्ट, अकांत, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमणाम लगते हैं। यद्यपि नरकपृथ्वियों में साक्षात् बादरअग्निकाय नहीं है, तथापि उष्णरूपता में परिणत नरकभित्तियों का स्पर्श तथा परोदीरित वैक्रियरूप उष्णता वहाँ समझनी चाहिए। साथ ही इस सूत्र में यह भी बताया गया है कि यह रत्नप्रभापृथ्वी बाहल्य की अपेक्षा सबसे बड़ी है क्योंकि इसकी मोटाई १ लाख ८० हजार योजन है और आगे-आगे की पृथ्वियों की मोटाई कम है। दूसरी की १ लाख बत्तीस हजार, तीसरी की एक लाख अट्ठावीस हजार, चौथी की एक लाख बीस हजार, पांचवीं की एक लाख अठारह हजार, छठी की एक लाख सोलह हजार और सातवीं की मोटाई एक लाख आठ हजार है। लम्बाई-चौड़ाई में रत्नप्रभापृथ्वी सबसे छोटी है। इसकी लम्बाई-चौड़ाई एक राजू है। दूसरी पृथ्वी की लम्बाई-चौडाई दो राजू की है। तीसरी की तीन राजू, चौथी की ४ राजू, पांचवीं की ५ राजू, छठी की छह राजू और सातवीं की सात राजू लम्बाई-चौड़ाई है। बाहल्य में आगे-आगे की पृथ्वी छोटी हौ और लम्बाई-चौड़ाई में आगे-आगे की पृथ्वी बड़ी है। ९३. इमीसेणंभंते ! रयणप्पभाए पुढवीएतीसाए निरयावास-सयसहस्सेसुइक्कमिक्कंसि निरयावासंसि सव्वे पाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुव्वा ? हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो। एवं जाव अहेसत्तमाए पुढवीए णवरं जत्थ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जत्तिया णरका। इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु जे पुढविकाइया जाव वणप्फइकाइया, ते णं भंते ! जीवा महाकम्मतरा चेव महाकिरियतरा चेव महाआसवतरा चेव महावेयणतरा चेव ? ___ हंता गोयमा ! इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु तं चेव जाव महावेयणतरका चेव। एवं जाव अधेसत्तमाए। [९३] हे भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के तीस लाख नरकावासों में से प्रत्येक में सब प्राणी सब भूत, सब जीव, और सब सत्त्व पृथ्वीकायिक रूप में अप्कायिक रूप में वायुकायिक रूप में वनस्पतिकायिक रूप में और नैरयिक रूप में पूर्व में उत्पन्न हुए हैं क्या ? ___ हाँ गौतम ! अनेक बार अथवा अनंत बार उत्पन्न हुए हैं। इस प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विशेषता यह है-जिस पृथ्वी में जितने नरकावास हैं उनका उल्लेख वहाँ करना चाहिए। . भगवन् ! इस रत्नप्रभापृथ्वी के नरकावासों के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों में जो पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव हैं, वे जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले और महाआस्रव वाले और महा वेदना वाले हैं क्या ? हाँ, गौतम ! वे रत्नप्रभापृथ्वी के पर्यन्तवर्ती प्रदेशों के पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाआस्रव वाले और महावेदना वाले हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी तक कहना चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में दो महत्त्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर हैं। पहला प्रश्न है कि भगवन् ! उक्त प्रकार के नरकावासों में सब प्राणी, सब भूत, सब जीव और सब सत्त्व पहले उत्पन्न हुए हैं क्या? भगवान् ने कहा-हाँ गौतम ! सब संसारी जीव इन नरकावासों में प्रत्येक में अनेक बार अथवा अनन्त बार पूर्व में उत्पन्न हो चुके हैं। संसार अनादिकाल से है और अनादिकाल से सब संसारी जीव जन्म-मरण करते चले आ रहे हैं। अतएव वे बहुत बार अथवा अनन्त बार इन नरकावासों में उत्पन्न हुए हैं। कहा हैं 'न सा जाई न सा जोणी जत्थ जीवो न जायइ' ऐसी कोई जाति और ऐसी कोई योनि नहीं है जहाँ इस जीव नें अनन्तबार जन्म-मरण न किया हो। मूल पाठ में प्राण, भूत, जीव और सत्त्व शब्द आये हैं, इनका स्पष्टीकरण आचार्यों ने इस प्रकार किया है - 'द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों का ग्रहण 'प्राण' शब्द से, वनस्पति का ग्रहण 'भूत' शब्द से, पंचेन्द्रियों का ग्रहण 'जीव' शब्द से, शेष रहे पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय और वायुकाय के जीव 'सत्त्व' शब्द से गृहीत होते हैं।' १. प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः भूताश्च तरवः स्मृताः। जीवाः पंचेन्द्रिया ज्ञेयाः शेषाः सत्त्वा उदीरिताः॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: उद्देशकार्थसंग्रहणिगाथाएँ] [२५७ . प्रस्तुत सूत्र में 'पुढवीकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए' पाठ है। इससे सामान्यतया पृथ्वीकयिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक और वनस्पतिकायिक जीवों का ग्रहण होता है। यहाँ रत्नप्रभादि में तत् तत् रूप में उत्पन्न होने वाले जीवों के विषय में पृच्छा है। बादर तेजस्कायिक के रूप में जीव इन नरकपृथ्वियों में उत्पन्न नहीं होते अतएव उनको छोड़कर शेष के विषय में यह समझना चाहिए। वृत्तिकार ने ऐसा ही उल्लेख किया है। ' अतएव मूलार्थ में ऐसा ही अर्थ किया है। दूसरा प्रश्न यह कि क्या वे रत्नप्रभादि के पर्यन्तवर्ती पृथ्वीकायिक यावत् वनस्पतिकायिक जीव महाकर्म वाले, महाक्रिया वाले, महाआस्रव वाले और महावेदना वाले हैं ? भगवान् ने कहा-हाँ गौतम ! वे महाकर्म वाले यावत् महावेदना वाले हैं। प्रस्तुत प्रश्न का उद्भव इस शंका से होता है कि वे जीव अभी एकेन्द्रिय अवस्था में हैं। अभी वे इस स्थिति में नहीं हैं और न ऐसे साधन उनके पास हैं जिनसे वे महा पापकर्म और महारम्भ आदि कर सकें तो वे महाकर्म, महाक्रिया, महाआस्रव और महावेदना वाले कैसे हैं ? इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि उन जीवों ने पूर्वजन्म में जो प्राणातिपात आदि महाक्रिया की है उसके अध्यवसायों से वे निवृत्त नहीं हुए हैं। अतएव वे वर्तमान में भी महाक्रिया वाले हैं। महाक्रिया का हेतु महाआस्रव है। वह महाआस्रव भी पूर्वजन्म में उनके था इससे वे निवृत्त नहीं हुए अतएव महाआस्रव भी उनके मौजूद है। महाआस्रव और महाक्रिया के कारण असातावेदनीयकर्म उनके प्रचुरमात्रा में है, अतएव वे महाकर्म वाले हैं और इसी कारण वे महावेदना वाले भी है। उद्देशकार्थसंग्रहणी गाथाएँ ९४. पुढविं ओगाहित्ता नरगा संठाणमेव बाहल्लं। विक्खंभपरिक्खेवे वण्णो गंधो य फासो य ॥१॥ तेसिं महालयाए उवमा देवेण होइ कायव्या। जीवा य पोग्गला वक्कमति तह सासया निरया॥२॥ उववायपरीमाणं अवहारुच्चत्तमेव संघयणं। संठाण वण्ण गंधा फासा ऊसासमाहारे ॥३॥ लेसा दिट्ठी नाणे जोगुवओगे ता समुग्धाया । तत्तो खुहा पिवासा विउव्वणा वेयणा य भए ॥४॥ उववाओ पुरिसाणं ओवम्मं वेयणाए दुविहाए। उव्वट्टण पुढवी उ उववाओ सव्वजीवाणं ॥५॥ एयाओ संगहणिगाहाओ। ॥ बीओ उद्देसओ समत्तो॥ : १. 'पृथ्वीकायिकतया अप्कायिकतया वायुकायिकतया वनस्पतिकायिकतया नैरयिकतया उत्पन्नाः उत्पन्नपूर्वाः? भगवानाह-हंतेत्यादि।-मलयवृत्ति Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८) [जीवाजीवाभिगमसूत्र . [९४] इस उद्देश्क में निम्न विषयों का प्रतिपादन हुआ है-पृथ्वियों की संख्या, कितने क्षेत्र में नरकवास हैं, नारकों के संस्थान, तदनन्तर मोटाई, विष्कम्भ, परिक्षेप (लम्बाई-चौड़ाई और परिधि) वर्ण, गंध, स्पर्श, नरकों की विस्तीर्णता बताने हेतु देव की उपमा, जीव और पुद्गलों की उनमें व्युत्क्रान्ति, शाश्वत अशाश्वत प्ररूपणा, उपपात (कहाँ से आकर जन्म लेते हैं), एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं, अपहार, उच्चत्व, नारकों के संहनन, संस्थान, वर्ण, गंध, स्पर्श, उच्छ्वास, आहार, लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, समुद्घात, भूख-प्यास, विकुर्वणा, वेदना, भय, पांच महापुरुषों का सप्तम पृथ्वी में उपपात, द्विविध वेदनाउष्णवेदना शीतवेदना, स्थिति, उद्वर्तना, पृथ्वी का स्पर्श और सर्वजीवों का उपपात। ॥ द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति तृतीय उद्देशक नैरयिकों के विषय में और अधिक प्रतिपादन करने के लिए तृतीय उद्देशक का आरम्भ किया गया है। उसका आदिसूत्र इस प्रकार हैनारकों का पुद्गलपरिणाम ९५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्यणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणाम। एवं जाव अहेसत्तमाए एवं नेयव्वं । एत्थ किर अतिवयंति नरवसभा केसवा जलयरा य। मंडलिया रायाणो जे य महारंभ कोडंबी॥१॥ भिन्नमुहुत्तो नरएसु होई तिरियमणुएसु चत्तारि। देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउव्वणा भणिय॥२॥ जो पोग्गला अणिट्ठा नियमा सो तेसि होइ आहारो। संठाणं तु जहण्णं नियमा हुंडं तु नायव्वं ॥३॥ असुभा विउव्वणा खलु नेरइयाणं उ होइ सव्वेसिं। वेउव्वियं सरीरं असंघयण हुंडसंठाणं ॥४॥ अस्साओ उववण्णो अस्साओ चेव चयइ निरयभवं। सव्यपुढवीसु जीवो सव्वेसु ठिइ विसेसेसुं ॥५॥ उववाएण व सायं नेरइयो देव-कम्मुणा वावि। अज्झवसाण निमित्तं अहवा कम्माणुभावेणं ॥६॥ नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। दुक्खेणाभिदुयाणं वेयणसय संपगाढाणं ॥७॥ अच्छिनिमीलियमेत्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं। नरए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥८॥ तेयाकम्मसरीरी सुहमसरीरा य जे अपग्जत्ता। जीवेण मुक्कमेत्ता वच्चंति सहस्ससो भेयं ॥९॥ अतिसीयं अतिउण्हं अतिखुहा अतिभयं वा। निरये नेरइयाणं दुक्खसयाई अविस्सामं ॥१०॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र एत्थ य भिन्नमहत्तो पोग्गल असुहा य होई अस्साओ। उववाओ उप्पाओ अच्छिसरीरा उ बोद्धव्वा ॥११॥ नारयउद्देसओ तइओ। से तं नेरइया॥ [९५] हे भगवन् ! इस स्त्रप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ? गौतम ! अनिष्ट यावत् अमनाम पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों तक कहना चाहिए। इस सप्तमपृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ (लौकिक दृष्टि से वड़े समझे जाने वाले और अति भोगासक्त) वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा आरम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं ॥१॥ नारकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यक् और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में पन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है॥२॥ जो पुद्गल निश्चित रूप से अनिष्ट होते हैं, उन्हीं का नैरयिक आहार (ग्रहण) करते हैं। उनके शरीर की आकृति अति निकृष्ट और हुंडसंस्थान वाली होती है ॥ ३॥ सब नैरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है। उनका वैक्रियशरीर असंहनन वाला और हुंडसंस्थान वाला होता है॥ ४॥ नारक जीवों का-चाहे वे किसी भी नरकपृथ्वी के हों और चाहे जैसी स्थिति वाले हों-जन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है। (सुख का लेश भी वहाँ नहीं है।) ॥५॥ (उक्त कथन का अपवाद बताते हैं-) नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात (जन्म) के समय ही साता का वेदन करता है, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक थोड़े समय के लिए साता का . वेदन करता है, कोई नैरयिक सम्यक्त्व-उत्पत्तिकाल में शुभ अध्यवसायों के कारण साता का वेदन करता है अथवा कर्मानुभाव से-तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक के निमित्त से साता का वेदन करते हैं ॥६॥ सैकड़ों वेदनाओं के अवगाढ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक (दुःखों से छटपटाते हुए) उत्कृष्ट पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं ॥ ७॥ रात-दिन दुःखों से पचते हुए नैरयिकों को नरक में पलक मूंदने मात्र के लिए भी सुख नहीं है किन्तु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है॥ ८॥ तैजस-कार्मण शरीर, सूक्ष्मशरीर और अपर्याप्त जीवों के शरीर जीव के द्वारा छोड़े जाते ही तत्काल हजारों खण्डों में खण्डित होकर बिखर जाते हैं ॥ ९॥ नरक में नैरयिकों को अत्यन्त शीत, अत्यन्त उष्णता, अत्यन्त भूख, अत्यन्त प्यास और अत्यन्त भय Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: नारकों का पुद्गलपरिणाम ] और सैकड़ों दुःख निरन्तर (बिना रुके हुए लगातार) बने रहते हैं ॥ १० ॥ इन गाथाओं में विकुर्वणा का अवस्थानकाल, अनिष्ट पुद्गलों का परिणमन, अशुभ विकुर्वणा, नित्य असाता, उपपात काल में क्षणिक साता, ऊपर छटपटाते हुए उछलना, अक्षिनिमेष के लिए भी साता न होना, वैक्रियशरीर का बिखरना तथा नारकों को होने वाली सैकड़ों प्रकार की वेदनाओं का उल्लेख किया गया है॥ ११॥ [२६१ तृतीय नारक उद्देशक पूरा हुआ। नैरयिकों का वर्णन समाप्त हुआ । विवेचन- - इस सूत्र एवं गाथाओं मे नैरयिक जीवों के आहारादि पुद्गलों के परिणाम के विषय में उल्लेख किया गया है। नारक जीव जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उनका परिणमन अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, और अमनाम रूप में ही होता है। रत्नप्रभा से लेकर तमस्तमः प्रभा तक के नैरयिकों द्वारा गृहीत पुद्गलों का परिणमन अशुभ रूप में ही होता है । इसी प्रकार वेदना, लेश्या, नाम, गोत्र, अरति, भय, शोक, भूख, प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, अनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ, अहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा सम्बन्धी सूत्र भी कहने चाहिए । अर्थात् इन 'बीस का परिणमन भी नारकियों के लिए अशुभ होता है अर्थात् अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनाम रूप होता है । यहाँ परिग्रह संज्ञा परिणाम की वक्तव्यता में चरमसूत्र सप्तम पृथ्वी विषयक है और इसके आगे प्रथम गाथा कही गई है अतएव गाथा में आये हुए 'एत्थ' पद से सप्तम पृथ्वी का ग्रहण करना चाहिए। इस सप्तम पृथ्वी में प्राय: कैसे जीव जाते हैं, उसका उल्लेख प्रथम गाथा में किया गया है। जो नरवृषभ वासुदेव - जो बाह्य भौतिक दृष्टि से बहुत महिमा वाले, बल वाले, समृद्धि वाले, कामभोगादि में अत्यन्त आसक्त होते हैं, वे बहुत युद्ध आदि संहाररूप प्रवृत्तियों में तथा परिग्रह एव भोगादि में आसक्त होने के कारण प्रायः यहाँ सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं । इसी तरह तन्दुलमत्स्य जैसे भावहिंसा और क्रूर अध्यवसाय वाले, वसु आदि माण्डलिक राजा तथा सुभूम जैसे चक्रवर्ती तथा महारम्भ करने वाले कालसोकरिक सरीखे गृहस्थ प्राय: इस सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। गाथा में आया हुआ 'अतिवयंति' शब्द 'प्रायः' का सूचक है। (१) दूसरी गाथा में नैरयिकों की तथा प्रसंगवश अन्य की भी विकुर्वणा का उत्कृष्ट काल बताया हैनारकों की उत्कृष्ट विकुर्वणा अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है । तिर्यंच और मनुष्यों की विकुर्वणा उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त रहती है तथा देवों की विकुर्वणा उत्कृष्ट पन्द्रह दिन (अर्धमास) तक रहती है । (२) १. संग्रहणी गाथाएँ - पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेसा य नाम गोए य । अरई भए यसोगे, खुहा पिवासा य वाही य ॥ १॥ उसासे अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य । चत्तारि य सण्णाओ नेरइयाणं तु परिणामा ॥ २ ॥ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र जो पुद्गल अनिष्ट होते हैं वे ही नैरयिकों के द्वारा आहारादि रूप में ग्रहण किये जाते हैं । उनके शरीर का संस्थान हुंडक होता है और वह भी निकृष्टतम होता है। यह भवधारणीय को लेकर है क्योंकि उत्तरवैक्रिय संस्थान के विषय में आगे की गाथा में कहा गया हैं । (३) २६२ ] सब नैरयिकों की विकुर्वणा अशुभ ही होती है । यद्यपि वे अच्छी विक्रिया बनाने का विचार करते हैं तथापि प्रतिकूल कर्मोदय से उनकी वह विकुर्वणां निश्चित ही अशुभ होती है। उनका उत्तरवैक्रिय शरीर और उपलक्षण से भवधारणीय शरीर संहनन रहित होता है, क्योंकि उनमें हड्डियों का ही अभाव है तथा उत्तरवैक्रिय शरीर भी हुंडसंस्थान वाला है, क्योंकि उनके भवप्रत्यय से ही हुण्डसंस्थान नामकर्म का उदय होता है ॥ ४ ॥ रत्नप्रभादि सब नरकभूमियों में कोई जीव चाहे वह जघन्यस्थिति का हो या उत्कृष्ट स्थिति का हो, जन्म के समय भी असाता का ही वेदन करता है। पहले के भव में मरणकाल में अनुभव किये हुए महादुःखों की अनुवृत्ति होने के कारण वह जन्म से ही असाता का वेदन करता है, उत्पत्ति के पश्चात् भी असाता का ही अनुभव करता है और पूरा नारक का भव असाता में ही पूरा करता है । सुख का लेशमात्र भी नहीं है ॥ ५ ॥ यद्यपि ऊपर की गाथा में नारकियों को सदा दुःख ही दुःख होना कहा है, परन्तु उसका थोड़ा सा अपवाद भी है। वह इस छठी गाथा में बताया है उपपात से- कोई नारक जीव उपपात के समय में साता का वेदन करता है । जो पूर्व के भव में दाह या छेद आदि के बिना सहज रूप में मृत्यु को प्राप्त हुआ हो वह अधिक संक्लिष्ट परिणाम वाला नहीं होता है। उस समय उसके न तो पूर्वभव में बांधा हुआ आधिरूप (मानसिक) दुःख है और न क्षेत्रस्वभाव से होने वाली पीड़ा है और न परमाधार्मिक कृत या परस्परोदीरित वेदना ही है। इस स्थिति में दुःख का अभाव होने से कोई जीव साता का वेदन करता है । देवप्रभाव से - कोई जीव देव के प्रभाव से थोड़े समय से लिए साता का वेदन करता है । जैसे कृष्ण वासुदेव की वेदना के उपशम के लिए बलदेव नरक में गये थे। इसी प्रकार पूर्वसांगतिक देव के प्रभाव से थोड़े समय के लिए नैरयिकों को साता का अनुभव होता है। उसके बाद तो नियम से क्षेत्रस्वभाव से होने वाली या अन्य-अन्य वेदनाएँ उन्हें होती ही हैं । अध्यवसाय से - कोई नैरयिक सम्यक्त्व उत्पत्ति के काल में अथवा उसके बाद भी कदाचित् तथाविध विशिष्ट शुभ अध्यवसाय से बाह्य क्षेत्रज आदि वेदनाओं के होते हुए भी साता का अनुभव करता है । आगम में कहा है कि सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय जीव को वैसा ही प्रमोद होता है जैसे किसी जन्मान्ध को नेत्रलाभ होने से होता है । इसके बाद भी तीर्थंकरों के गुणानुमोदन आदि विशिष्ट भावना भाते हुए बाह्य क्षेत्रज वेदना के सहभाव में भी वे सातोदय का अनुभव करते हैं । कर्मानुभव से - तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक आदि बाह्य निमित्त को लेकर Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: नारकों का पुद्गलपरिणाम ] तथा तथाविध सातावेदनीयकर्म के विपाकोदय के निमित्त से नैरयिक जीव क्षणभर के लिए साता का अनुभव करते हैं ॥ ६ ॥ नैरयिक जीव कुंभियों में पकाये जाने पर तथा भाले आदि से भिद्यमान होने पर भय से त्रस्त होकर छटपटाते हुए पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं । जघन्य से एक कोस और उत्कर्ष से पांच सौ योजन उछलते है। ऐसा भी कहीं पाठ है ' ॥ ७ ॥ [२६३ नैरयिक जीवों को, जो रात - दिन नरकों में पचते रहते हैं, उन्हें आँख मूंदने जितने काल के लिए (निमेषमात्र के लिए) भी सुख नहीं है । वहाँ सदा दुःख ही दुःख है, निरन्तर दुःख है ॥ ८ ॥ नैरयिकों के वैक्रिय शरीर के पुद्गल उन जीवों द्वारा शरीर छोड़ते ही हजारों खण्डों में छिन्न-भिन्न होकर बिखर जाते हैं। इस प्रकार बिखरने वाले अन्य शरीरों का कथन भी प्रसंग से कर दिया है । तैजस कार्मण शरीर, सूक्ष्म शरीर अर्थात् सूक्ष्म नामकर्म के उदय वाले पर्याप्त और अपर्याप्त जीवों के शरीर, औदारिक शरीर, वैक्रिय और आहारक शरीर भी चर्मचक्षुओं द्वारा ग्राह्य ने होने से सूक्ष्म हैं तथा अपर्याप्त जीवों के शरीर जीवों द्वारा छोड़े जाते ही बिखर जाते हैं। उनके परमाणुओं का संघात छिन्न-भिन्न हो जाता है ॥ ९ ॥ उन नारक जीवों को नरकों में अति शीत, अति उष्णता, अति तृषा, अति भूख, अति भय आदि सैकड़ों प्रकार के दुःख निरन्तर होते रहते हैं ॥ १० ॥ उक्त दस गाथाओं के पश्चात् ग्यारहवीं गाथा में पूर्वोक्त सब गाथाओं में कही गई बातों का संकलन किया गया है जो मूलार्थ से ही स्पष्ट है। इस प्रकार नारक वर्णन का तृतीय उद्देशक पूर्ण । इसके साथ ही नैरयिकों का वर्णन भी पूरा हुआ ॥ १. 'नेरइयाणुप्पाओ गाउय उक्कोस पंचजोयणसयाई' इति क्वचित् पाठः । Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति तिर्यग्अधिकार तृतीय प्रतिपत्ति के नरकोद्देशक में तीन उद्देशक कहे गये हैं। उक्त तीन उद्देशकों में नरक और नारक के सम्बन्ध में विविध प्रकार की जानकारियाँ दी गई हैं। चार प्रकार के संसारसमापनक जीवों के प्रतिपत्ति में प्रथम भेदरूप नारक का वर्णन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त तिर्यंचों का अधिकार कहते हैंतिर्यक्योनिकों के भेद . ९६.[१] से किं तं तिरिक्खजोणिया? .. तिरिक्खजोणिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा एगिंदिय-तिरिक्खजोणिया, बेइंदिय-तिरिक्खजोणिया, तेइंदिय-तिरिक्खजोणिया, चरिदिय-तिरिक्खजोणिया, पंचिंदिय-तिरिक्खजोणिया। से किं तं एगिंदिय-तिरिक्खजोणिया ? एगिदिय-तिरिक्खजोणिया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा पुढविकाइय-एगिंदिय-तिरिक्खजोणिया जाव वणस्सइकाइय-एगिंदिय-तिरिक्खजोणिया। से किं तं पुढविकाइय-एगिदिय-तिरिक्खजोणिया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहुम पुढविकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया, बादर पुढविकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया य। से किं तं सुहुम पुढविकाइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया ? सुहुम पुढविकाइय एगिंदिय० दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्त सुहुम० अपज्जत्त सुहुम पुढवि० । से तं सुहुमा। से किं तं बादर पुढविकाइय० ? । बादर पुढविकाइय० दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्त बादर पु०, अपज्जत्त बादर पुढविकाइय एगिदिय तिरिक्खजोणिया। से तं पुढविकाइय एगिंदिय। से किं तं आउक्काइय एगिंदिय तिरिक्खजोणिया? आउक्काय एमिंदिय० दुविहा पण्णत्ता, एवं जहेव पुढविकाइयाणं तहेव चउक्कओ भेदो जाव वणस्सइकाइया। से तं वणस्सइकाइय एगिंदिया। [९६) (१) तिर्यक्योनिक जीवों का क्या स्वरूप है ? तिर्यक्योनिक जीव पांच प्रकार के कहे गये हैं, यथा Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति:तियंग अधिकार] [२६५ १. एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक, २. द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक, ३. त्रीन्द्रिय तिर्यक्योनिक, ४. चतुरिन्द्रिय तिर्यक्योनिक और ५. पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक। एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक का क्या स्वरूप है ? एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक पांच प्रकार के हैं, यथापृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय ति. यावत् वनस्पतिकायिक तिर्यक्योनिक। पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय ति. का क्या स्वरूप है ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ए. ति. और बादर पृथ्वीकायिक ए. ति.। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ए. ति. और अपर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वीकायिक ए. तिर्यक्योनिक। यह सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का वर्णन हुआ। बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं-पर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक और अपर्याप्त बादर पृथ्वीकायिक। यह बादर पृथ्वीकायिक ए. ति. का वर्णन हुआ। यह पृथ्वीकायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का वर्णन हुआ। अप्कायिक एकेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, इस प्रकार पृथ्वीकायिक की तरह चार भेद कहने चाहिए। वनस्पतिकाकि एके. तिर्यक्योनिक पर्यन्त ऐसे ही भेद कहने चाहिए। यह वनस्पतिकायिक एके. तिर्यक्योनिकों का कथन हुआ। ९६.[२] से किं तं बेइंदिय तिरिक्खजोणिया ? बेइंदिय तिरिक्खजोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जत्त बेइंदिय तिरिक्खजोणिया, अपज्जत्त बेइंदिय तिरिक्खजोणिया। से तं बेइंदिय तिरिक्खजोणिया एवं जाव चउरिदिया । पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया तिविहा पण्णत्ता, तं जहाजलयर पंचिंदिय ति० थलयर पंचिंदिय ति० खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया ? ' जलयर पंचिं ति० जोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा संमूच्छिमजलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया य गब्भवक्कंतियजलयरपंचिंदिय तिरिक्खजोणिया य। से किं तं सम्मुच्छिम जलयर पंचिं० ति० जोणिया ? संमुच्छिम जलयर पंचिं० ति० जोणिया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा पज्जत्तगसंमूच्छिम०, अपज्जत्तगसंमुच्छिम० जलयरा, सेतं समुच्छिम जलयर पंचिं० ति० जोणिया। से किं तं गब्भवक्कंतिय जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया ? Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गब्भवक्कंतिय जलयर० दुविधा पण्णत्ता, तं जहा पज्जत्तग गब्भवक्कंतिय०,अपज्जत्तग गब्भवक्कंतिय० ।से तंगब्भवक्कंतिय जलयरा। से तं जलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया ? थलयर पंचिंदिय ति० जो० दुविहा पण्णत्ता, तं जहाचउप्पयथलयरपंचिंदिय०, परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं चउप्पयथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया ? चउप्पयथलयर पं० ति० जो० दुविहा पण्णत्ता, तं जहा संमुच्छिम चठप्पयथलयर पंचिंदिय० गब्भवक्कंतिय चउप्पयथलयर पंचिंदिय िितरिक्खंजोणिया य। जहेव जलयराणं तहेव चउक्कओ भेदो, से तं चउप्पदथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं परिसप्प थलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया ? परिसप्पथलयर० दुधिहा पण्णत्ता, तं जहा-उरगपरिसप्पथलयर पंचिंदिय ति०, भुयगपरिसप्प थलयर पंचिंदिय ति०।। से किं तं उरगपरिसप्प थल० पं० तिरिक्खजोणिया ? उरगपरिसप्प ० दुविहा पण्णत्ता,तं जहा-जहेव जलयराणं तहेव चउक्कओ भेदो। एवं भुयगपरिसप्पाण विभाणियव्वं । सेतं भुयग परिसप्प०, सेतंथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया। से किं तं खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया ? खहयर० दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-संमुच्छिम खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया, गब्भवक्कंतिय खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया य। से किं तं संमुच्छिमखहयर० ? . संमुच्छिमखहयर० दुविहा पण्णत्ता, तं जहापज्जतत्तग संमुच्छिम खह०, अपज्जत्तग संमु० खह० य। एवं गब्भवक्कंतिया वि। खहयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणिया णं भंते ! कइविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णते, तं जहा-अंडया पोयया संमुच्छिमा। अंडया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। पोतया तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थी, पुरिसा, णपुंसगा। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे णपुंसगा। ९६. [२] द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिक जीवों का स्वरूप क्या है ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त द्वीन्द्रिय और अपर्याप्त द्वीन्द्रिय। यह द्वीन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का वर्णन हुआ। इसी प्रकार चतुरिन्द्रियों तक कहना चाहिए। Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति:तिर्यग् अधिकार] [२६७ पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे तीन प्रकार के हैं, यथा-जलचर पंचेन्द्रिय ति., स्थलचर पंचेन्द्रिय ति. और खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक। जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच। सम्मूर्छिम जलचर पंचे. ति. क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त संमूर्छिम और अपर्याप्त सम्मूर्छिम जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक। यह सम्मूर्छिम जलचरों का कथन हुआ। गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय ति. क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक और अपर्याप्त गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच। यह गर्भव्युत्क्रान्तिक जलचरों का वर्णन हुआ। स्थलचरपंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय और परिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक। चतुष्पद स्थलचर पंचेन्द्रिय क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय और गर्भव्युत्क्रान्तिक चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच। जैसा जलचरों के विषय में कहा वैसे चार भेद इनके भी जानने चाहिए। यह चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन हुआ। परिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-उरगपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच और भुजगपरिसर्प स्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंच। उरगपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-जैसे जलचरों के चार भेद कहे वैसे यहाँ भी कहने चाहिए। इसी तरह भुजगपरिसों के भी चार भेद कहने चाहिए। यह भुजगपरिसॉं का कथन हुआ। इसके साथ ही स्थल चेन्द्रिय तिर्यंचों का कथन भी पूरा हुआ। खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-सम्मूर्छिम खेचर पं. ति. और गर्भव्युत्क्रान्तिक खेचर पं. तिर्यक्योनिक। सम्मूर्छिम खेचर प. ति. क्या हैं ? वे दो प्रकार के हैं, यथा-पर्याप्तसम्मूर्छिम खेचर पं. ति. और अपर्याप्तसम्मूर्छिम खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिक। इसी प्रकार गर्भव्युत्क्रान्तिक के सम्बन्ध में भी कहना चाहिए। हे भगवन् ! खेचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का कहा गया है ? Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ गौतम ! तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा गया हैं, यथा-अण्डज, पोतज और सम्मूर्छिम । अण्डज तीन प्रकार के कहे गये हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक।पोतज तीन प्रकार के हैं स्त्री, पुरुष और नपुंसक. सम्मूर्छिम सब नपुंसक होते हैं। विवेचन-तिर्यक्योनिकों के भेद पाठसिद्ध ही हैं, अतएव स्पष्टता की आवश्यकता नहीं है। केवल योनिसंग्रह की स्पष्टता इस प्रकार है ___ योनिसंग्रह का अर्थ है-योनि (जन्म) को लेकर किया गया भेद। पक्षियों के जन्म तीन प्रकार के हैं-अण्ड से होने वाले, यथा मोर आदि; पोत से होने वाले वागुली आदि और सम्मूर्छिम जन्म वाले पक्षी हैं-खञ्जरीट आदि। वैसे सामान्यतया चार प्रकार का योनिसंग्रह है-१. जरायुज २. अण्डज ३. पोतज और ४.सम्मूर्छिम। पक्षियों में जरायुज की प्रसिद्धि नहीं है। फिर भी अण्डज को छोड़कर शेष सब जरायुज अजरायुज गर्भजों का पोतज में समावेश करने पर तीन प्रकार का योनिसंग्रह संगत होता है। अण्डज तीनों प्रकार के हैं-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। पोतज भी तीनों लिंग वाले हैं। सम्मूर्छिम जन्म वाले नपुंसक ही होते हैं, क्योंकि उनके नपुसंकवेद का उदय अवश्य ही होता है। द्वारप्ररूपणा ९७. [१] एएसिं णं भंते ! जीवाणं कतिलेसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! छल्लेसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-कण्हलेसा जाव सुक्कलेसा। ते णं भंते ! जीवा किं सम्मदिट्टी मिच्छादिट्ठी, सम्मामिच्छदिट्टी? गोयमा ! सम्मदिट्ठी वि मिच्छदिट्ठी वि सम्मामिच्छदिट्ठी वि। ते णं भंते ! जीवा किं णाणी अण्णाणी? गोयमा ! णाणी वि, अण्णाणी वि, तिण्णि णाणाई तिण्णि अण्णाणाइं भयणाए। ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी, वइजोगी, कायजोगी ? गोयमा ! तिविहा वि। भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता? गायमा ! सागारोवउत्ता वि अणागारोवउत्ता ते णं भंते ! जीवा कओ उववजंति, किं न तो उववजंति, तिरिक्खजोणिएहिं उववज्जति ? पुच्छा। गोयमा ! असंखेज वासाउय अकम्मभूमग अंतरदीवग वजेहिंतो उववति। अण्डज को छोड़कर शेष सब जरायु वाले या बिना जरायु वाले गर्भव्युत्क्रान्तिक पंचेन्द्रियों का पोतज में समावेश किया गया है। अतएव तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है, चार प्रकार का नहीं। वैसे पक्षियों में जरायुज होते ही नहीं हैं, अतएव यहां तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है। Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: तिर्यग् अधिकार ] तेसिं णं भंते! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहणेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागं । तेसिं णं भंते! जीवाणं कति समुग्धाया पण्णत्ता ? गोयमा ! पंच समुग्धाया पण्णत्ता, तं जहा - वेदणासमुग्धाए जाव तेयासमुग्धाए । ते णं भंते ! जीवा मारणांतियसमुग्धाएणं किं समोहया मरंति, असमोहया मंरति ? गोमा ! समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । णं भंते! जीवा अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववज्जंति ? किं नेरइएसु उववज्जंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जंति । पुच्छा ? गोमा ! एवं उव्ववट्टणा भाणियव्वा जहा वक्कंतीए तहेव । तेसिं णं भंते ! जीवाणं कइ जातिकुलकोडिजोणिपमुह सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! बारस जातिकुलकोडिजोणिपमुह सयसहस्सा । [९७] (१) हे भगवन् ! इन जीवों (पक्षियों) के कितनी लेश्याएँ हैं ? गौतम ! छह लेश्याएँ हो सकती हैं- कृष्णलेश्या यावत् शुक्ललेश्या । (द्रव्य और भाव से छहों लेश्यायें सम्भव हैं, क्योंकि वैसे परिणाम हो सकते हैं ।) हे भगवन् ! ये जीव सम्यग्दृष्टि है, मिथ्यादृष्टि हैं या सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं । गौतम ! सम्यग्दृष्टि भी हैं, मिथ्यादृष्टि भी हैं और मिश्रदृष्टि भी हैं। [२६९ भगवन् ! वे जीव ज्ञानी हैं या अज्ञानी हैं ? गौतम ! ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी है वे दो या तीन ज्ञान वाले हैं और जो अज्ञानी हैं वे दो या तीन अज्ञान वाले हैं। भगवन् ! वे जीव क्या मनयोगी, हैं, वचनयोगी हैं, काययोगी हैं ? गौतम ! वे तीनों योग वाले हैं। भगवन् ! वे जीव साकार - उपयोग वाले हैं या अनाकार - उपयोग वाले हैं ? गौतम ! साकार - उपयोग वाले भी हैं और अनाकार- उपयोग वाले भी हैं । भगवन् ! वे जीव कहाँ से आकर उत्पन्न होते हैं क्या नैरयिकों से आते हैं या तिर्यक्योनि से आते हैं इत्यादि प्रश्न कहना चाहिए । गौतम ! असंख्यात वर्ष की आयु वालों, अकर्मभूमिकों और अन्तद्वपिकों को छोड़कर सब जगह से उत्पन्न होते 1 हे भगवन् ! उन जीवों की स्थिति कितने काल की है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्यातवां भाग - प्रमाण स्थिति है । भगवन् ! उन जीवों के कितने समुद्घात कहे गये हैं ? Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! पांच समुद्घात कहे गये हैं, यथा-वेदनासमुद्घात यावत् तैजससमुद्घात । भगवन् ! वे जीव मारणांतिकसमुद्घात से समवहत होकर मरते हैं या असमवहत होकर मरते हैं? गौतम ! समवहत होकर भी मरते हैं और असमवहत होकर भी मरते हैं। भगवन् ! वे जीव मरकर अनन्तर कहाँ उत्पन्न होते हैं ? कहाँ जाते हैं ? क्या नैरयिकों में पैदा होते हैं, तिर्यक्योनिकों में पैदा होते हैं ? आदि प्रश्न करना चाहिए। ___ गौतम ! जैसे प्रज्ञापना के व्युत्क्रान्तिपद में कहा गया है, वैसा यहाँ कहना चाहिए। (दूसरी प्रतिपत्ति में वह कहा गया हैं, वहाँ देखें।) हे भगवन् ! उन जीवों की कितने लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं ? गौतम ! बारह लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोटि कही गई हैं । विवेचन-खेचर (पक्षियों) में पाये जाने वाले लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग आदि द्वारों की स्पष्टता मूल पाठ से ही सिद्ध है। व्युत्क्रान्तिपद से उद्वर्तना समझनी चाहिए, ऐसी सूचना यहाँ की गई है। प्रज्ञापनासूत्र में व्युत्क्रान्तिपद है और उसमें जो उद्वर्तना कही गई है वह यहाँ समझनी है। इसी जीवाभिगम सूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में उसको बताया गया है सो जिज्ञासु वहाँ भी देख सकते हैं। इस सूत्र में खेचर की योनिप्रमुख जातिकुलकोडी बारह लाख कही है। जातिकुलयोनि का स्थूल उदाहरण पूर्वाचार्यों ने इस प्रकार बताया है-जाति से भावार्थ है तिर्यग्जाति, उसके कुल हैं-कृमि, कीट, वृश्चिक आदि। ये कुल योनिप्रमुख हैं अर्थात् एक ही योनि में अनेक कुल होते हैं, जैसे छः गण योनि में कृमिकुल, कीटकुल, वृश्चिककुल आदि। अथवा 'जातिकुल' को एक पद माना जा सकता है। जातिकुल और योनि में परस्पर यह विशेषता है कि एक ही योनि में अनेक जातिकुल होते हैं-यथा एक ही छःगण योनि में कृमिजातिकुल, कीटजातिकुल और वृश्चिकजातिकुल इत्यादि। इस प्रकार एक ही योनि में अवान्तर जातिभेद होने से अनेक योनिप्रमुख जातिकुल होते हैं। द्वारों के सम्बन्ध में संग्रहणी गाथा इस प्रकार है जोणीसंगह लेस्सा दिट्ठी नाणे य जोग उवओगे। उववाय ठिई समुग्घाय चयणं जाई-कुलविही उ॥ पहले योनिसंग्रह, फिर लेश्या, दृष्टि, ज्ञान, योग, उपयोग, उपपात, स्थिति, समुद्घात, च्यवन, जातिकुलकोटि का इस सूत्र में प्रतिपादन किया गया है। ९७.[२] भुयंगपरिसप्पथलयर पंचिंदिय तिरिक्खयोणियाणं भंते ! कतिविहे जोणीसंगहे पण्णत्ते ? गोयमा ! तिविहे जोणिसंगहे पण्णत्ते, तं जहा-अंडया, पोयया संमुच्छिमा; एवं जहा खहयराणं तहेव ; णाणतं जहन्नेणं अंतोमुहुर्त उक्कोसेणं पुव्यकोडी। उव्वट्टित्ता दोच्चं पुढविं गच्छंति, णव जातिकुलकोडी जोणीपमुह सयसहस्सा भवंतीति मक्खायं, सेसं तहेव। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति:तियंग अधिकार] [२७१ उरगपरिसप्पथलयर पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं भंते ! पुच्छा, जहेव भुयगपरिसप्पाणं तहेव,णवरं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुषकोडी, उव्वट्टित्ताजावपंचमि पुढविंगच्छंति, दसजातिकुलकोडी। चउप्पयथलयर पंचिंदिय तिरिक्खजोणियाणं पुच्छा, गोयमा ! दुविहे, पण्णत्ते,तं जहाजराउया (पोयया) य सम्मुच्छिमा य। से किं तं जराउया (पोयया) ? तिविहा पण्णत्ता, तं जहा-इत्थी, पुरिसा, नपुंसगा। तत्थ णं जे ते संमुच्छिमा ते सव्वे नपुंसया। तेसिंणं भंते ! जीवाणं कति लेस्साओ पण्णत्ताओ? से जहा पक्खीणं। णाणतं ठिई जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तिण्णि पलिओवमाइं; उव्यट्टित्ता चउत्थिं पुढविं गच्छंति, दस जातिकुलकोडी। जलयरपंचिदिय तिरिक्खयोणियाणं पुच्छा,जहा भुयगपरिसप्पाणं,णवरं उव्वट्टित्ताजाव अहेसत्तमं पुढविं, अद्धतेरस जातिकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता । चरिंदियाणं भंते ! कइ जातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता ? • गोयमा ! नव जाइकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा समक्खाया। तेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! अट्ठ जाइकुल जाव समक्खाया। बेइंदियाणं भंते ! कइ जाइकुल पुच्छा, गोयमा ! सत्त जाइकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा, पण्णत्ता। [९७] (२) हे भगवन् ! भुजपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिकों का कितने प्रकार का योनिसंग्रह कह गया है ? गौतम ! तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा गया है, यथा-अण्डज, पोतज और सम्मूर्छिम। इस तरह जैसा खेचरों में कहा वैसा, यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है-इनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। ये मरकर चारों गति में जाते हैं। नरक में जाते हैं तो दूसरी पृथ्वी तक जाते हैं। इनकी नौ लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं। शेष पूर्ववत् । भगवन् ! उरपरिसर्पस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का योनिसंग्रह कितने प्रकार का है ? इत्यादि प्रश्न कहना चाहिए। गौतम ! जैसे भुजपरिसर्प का कथन किया, वैसा यहाँ भी कहना चाहिए। विशेषता यह है कि इनको स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट पूर्वकोटि है। ये मरकर यदि नरक में जावें तो पांचवीं पृथ्वी तक जाते हैं। इनकी दस लाख जातिकुलकोडी हैं। चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों की पृच्छा ? गौतम ! इनका योनिसंग्रह दो प्रकार का हैं, यथा जरायुज (पोतज) और सम्मूर्छिम। जरायुज तीन प्रकार के हैं, यथा-स्त्री, पुरुष और नपुंसक। जो सम्मूर्छिम हैं वे सब नपुंसक हैं । हे भगवन् ! उन जीवों Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र की कितनी लेश्याएं कही गई हैं, इत्यादि सब खेचरों की तरह कहना चाहिए। विशेषता इस प्रकार हैइनकी स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट तीन पल्योपम है। मरकर यदि नरक में जावें तो चौथी नरकपृथ्वी तक जाते हैं। इनकी दस लाख जातिकुलकोडी हैं । २७२ ] जलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों की पृच्छा ? गौतम ! जैसे भुजपरिसर्पों का कहा वैसे कहना । विशेषता यह है कि ये मरकर यदि नरक में जावें तो सप्तम पृथ्वी तक जाते हैं। इनकी साढ़े बारह लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं। हे भगवन् ! चतुरिन्द्रिय जीवों की कितनी जातिकुलकोडी कही गई हैं ? गौतम ! नौ लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं । हे भगवन् ! त्रीन्द्रिय जीवों की कितनी जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! आठ लाख जातिकुलकोडी कही हैं । भगवन् ! द्वीन्द्रियों की कितनी जातिकुलकोडी हैं ? गौतम ! सात लाख जातिकुं लकोडी हैं । विवेचन - अन्य सब कथन पाठसिद्ध ही है । केवल चतुष्पदस्थलचर पंचेन्द्रिय तिर्यक्योनिकों का योनिसंग्रह दो प्रकार का कहा है, यथा- पोयया य सम्मुच्छिमा य । यहाँ पोतज में अण्डजों से भिन्न जितने भी जरायुज या अजरायुज गर्भज जीव हैं उनका समावेश कर दिया गया है। अतएव दो प्रकार का योनिसंग्रह कहा है, अन्यथा गो आदि जरायुज हैं और सर्पादि अण्डज हैं- ये दो प्रकार और एक सम्मूर्च्छिम यों तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा जाता। लेकिन यहाँ दो ही प्रकार का कहा है, अतएव पोतज में जरायुज अजरायुज सब गर्भजों का समावेश समझना चाहिए। यहाँ तक योनि जातीय जातिकुलकोटि का कथन किया, अब भिन्न जातीय का अवसर प्राप्त है अतएव भिन्न जातीय गंधांगों का प्ररूपण करते हैं गंधांग प्ररूपण ९८. कइ णं भंते ! गंधा पण्णत्ता ? कइ णं भंते ! गंधसया पण्णत्ता ? गोयमा ! सत्तगंधा सत्तगंधसया पण्णत्ता । कणं भंते ! पुफ्फजाइ - कुलकोडीजोणिपमुह-सयसहस्सा पण्णत्ता ? गोयमा ! सोलस पुप्फजातिकुलकोडी जोणीपमुहसयसहस्सा पण्णत्ता, तं जहा - चत्तारि जलयाणं, चत्तारि थलयाणं, चत्तारि महारुक्खियाणं, चत्तारि महागुम्मियाणं । कइ णं भंते ! वल्लीओ कइ वल्लिसया पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि वल्लीओ चत्तारि वल्लिसया पण्णत्ता । कइ णं भंते ! लयाओ कति लयासया पण्णत्ता ? गोयमा ! अट्ठलयाओ, अट्ठलयासया पण्णत्ता । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: गंधांग प्ररूपण ] [ २७३ कइ णं भंते ! हरियकाया हरियकायसया पण्णत्ता ? गोयमा ! ओ हरियकाया तओ हरियकायसया पण्णत्ता-फलसहस्सं च विंटबद्धाणं, फलसहस्सं य णालबद्धाणं, ते सव्वे हरितकायमेव समोयरंति । ते एवं समणुगम्ममाणा समणुगम्ममाणा एवं समणुगाहिज्जमाणा २, एवं समणुपेहिज्जमाणा २, एवं समणुचिंतिज्जमाणा २, एएसु चेव दोसु कासु समोयरंति, तं जहा - तसकाए चेव थावरकाए चेव । एवमेव सपुव्वावरेणं आजीवियदिट्टंतेणं चउरासीति जातिकुलकोडी जोणिपमुहसयसहस्सा भवंतीति मक्खाया। हैं ।) [९८] हे भगवन् ! गंध (गंधांग) कितने कहे गये हैं ? हे भगवन् ! गन्धशत कितने हैं ? गौतम ! सात गंध (गंधांग) हैं और सात ही गन्धशत हैं । हे भगवन् ! फूलों की कितनी लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं ? गौतम ! फूलों की सोलह लाख जातिकुलकोडी कही गई हैं, यथा- चार लाख जलज पुष्पों की, चार लाख स्थलज पुष्पों की, चार लाख महावृक्षों के फूलों की और चार लाख महागुल्मिक फूलों की । हे भगवन् ! वल्लियाँ और वल्लिशत कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! वल्लियों के चार प्रकार हैं और चार वल्लिशत है । ( वल्लियों के चार सौ अवान्तर भेद हे भगवन् ! लताएँ कितनी हैं और लताशत कितने ? गौतम ! आठ प्रकार की लताएँ हैं और आठ लताशत हैं । अर्थात् ( आठ सौ लता के अवान्तर भेद हैं ।) भगवन् ! हरितकाय कितने हैं और हरितकायशत कितने हैं ? गौतम ! हरितका तीन प्रकार के हैं और तीन ही हरितकायशत हैं। (अर्थात् हरितकाय की तीन सौ अवान्तर जातियां हैं।) बिंटबद्ध फल के हजार प्रकार और नालबद्ध फल के हजार प्रकार, ये सब हरितकाय में ही समाविष्ट हैं। इस प्रकार सूत्र के द्वारा स्वयं समझे जाने पर, दूसरों द्वारा सूत्र से समझाये जाने पर, अर्थालोचन द्वारा चिन्तन किये जाने पर और युक्तियों द्वारा पुनः पुनः पर्यालोचन करने पर सब दो कायों मेंत्रसकाय और स्थावरकाय में समाविष्ट होते हैं । इस प्रकार पूर्वापर विचारणा करने पर समस्त संसारी जीवों की (आजीविक दृष्टान्त से) चौरासी लाख योनिप्रमुख जातिकुलकोडी होती हैं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है । विवेचन—–यहाँ मूलपाठ में 'गंधा' पाठ है, यह पद के एकदेश में पदसमुदाय के उपचार से 'गंधाङ्ग' का वाचक समझना चाहिए। अर्थात् 'गंधांग' कितने हैं, यह प्रश्न का भावार्थ है । दूसरा प्रश्न है कि गंधांग की कितनी सौ अवान्तर जातियां हैं। भगवान् ने कहा- गौतम ! सात गंधाङ्ग हैं और सातसौ गंधांग की उपजातियां हैं। मोटे रूप में सात गंधांग इस प्रकार बताये हैं - १. मूल, २. त्वक्, ३. काष्ठ, ४. निर्यास, ५. पत्र, ६. फूल और ७. फल । मुस्ता, वालुका, उसीर आदि 'मूल' शब्द से गृहीत हुए हैं। सुवर्ण छाल आदि त्वक् हैं । चन्दन, Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अगुरु आदि काष्ठ से लिये गये हैं। कपूर आदि निर्यास हैं। पत्र से जातिपत्र, तमालपत्र, का ग्रहण है। पुष्प से प्रियंगु, नागर का ग्रहण है। फल से जायफल, इलायची, लौंग आदि का ग्रहण हुआ है। ये सात मोटे रूप में गंधांग हैं। इन सात गंधांगों को पांच वर्ण से गुणित करने पर पैंतीस भेद हुए। ये सुरभिगंध वाले ही हैं अतः एक से गुणित करने पर (३५ x १= ३५) पैंतीस ही हुए। एक-एक वर्णभेद में द्रव्यभेद से पांच रस पाये जाते हैं अतः पूर्वोक्त ३५ को ५ से गुणित करें पर १७५ (३५ x ५= १७५) हुए। वैसे स्पर्श आठ होते हैं किन्तु यथोक्तरूप गंधांगों में प्रशस्त स्पर्शरूप मृदु-लघु-शीत-उष्ण ये चार स्पर्श ही व्यवहार से परिगणित होते हैं अतएव पूर्वोक्त १७५ भेदों को ४ से गुणित करने पर ७०० (१७५ x ४ = ७००) गंधांगों की अवान्तर जातियां होती हैं । इसके पश्चात् पुष्पों की कुलकोटि के विषय में प्रश्न किया गया है। उत्तर में प्रभु ने कहा कि फूलों की १६ लाख कुलकोटियां हैं। जल में उत्पन्न होने वाले कमल आदि फूलों की चार लाख कुलकोटि हैं। कोरण्ट आदि स्थलज फूलों की चार लाख कुलकोटि (उपजातियां) हैं। महुबा आदि महावृक्षों के फूलों की चार लाख कुलकोटि हैं और जाति आदि महागुल्मों के फूलों की चार लाख कुलकोटी हैं। इस प्रकार फूलों की सोलह लाख कुलकोटि गिनाई हैं। वल्लियों के चार प्रकार और चारसौ उपजातियां कही हैं । मूल रूप से वल्लियों के चार प्रकार हैं और अवान्तर जातिभेद से चारसौ प्रकार हैं। चार प्रकारों की स्पष्टता उपलब्ध नहीं है। मूल टीकाकार ने भी इनकी स्पष्टता नहीं की है। लता के मूलभेद आठ और उपजातियां आठसौ हैं हरितकाय के मूलतः तीन प्रकार और अवान्तर तीनसौ भेद हैं। हरितकाय के तीन प्रकार हैं-जलज, स्थलज और उभयज। प्रत्येक की सौ-सौ उपजातियां हैं, इसलिए हरितकाय के तीनसौ अवान्तर भेद कहे हैं। बैंगन आदि बीट वाले फलों के हजार प्रकार कहे हैं और नालबद्ध फलों के भी हजार प्रकार हैं। ये सब तीन सौ ही प्रकार और अन्य भी तथाप्रकार के फलादि सब हरितकाय के अन्तर्गत आते हैं। हरितकाय वनस्पतिकाय के अन्तर्गत और वनस्पति स्थावरकाय में और स्थावरकाय का जीवों में समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूत्रानुसार स्वयं समझने से या दूसरों के द्वारा समझाया जाने से अर्थालोचन रूप से विचार करने से, युक्ति आदि द्वारा गहन चिन्तन करने से, पूर्वापर पर्यालोचन से सब संसारी जीवों का इन दो-त्रसकाय १. मूलतयकट्ठनिज्जासपत्तपुप्फफलमेव गंधंगा। वण्णादुत्तरभेया गंधरसया मुणेयव्वा ॥१॥ अस्य व्याख्यानरूपं गाथाद्वयंमुत्थासुवण्णछल्ली अगुरु वाला तमालपत्तं च । तह य पियंगु जाईफलं च जाईए गंधंगा॥१॥ गुणणाए सत्तसया पंचहिं वण्णेहि सुरभिगंधेणं। रसपणएणं तह फासेहिं य चउहिं पसत्थेहिं ॥२॥ Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विमानों के विषय में प्रश्न] [२७५ और स्थावरकाय में समवतार होता है। इस विषय में आजीव दृष्टान्त समझना चाहिए। अर्थात् जिस प्रकार 'जीव' शब्द में समस्त त्रस, स्थावर, सूक्ष्म-बादर पर्याप्त-अपर्याप्त और षट्काय आदि का समावेश होता हैं, उसी प्रकार इन चौरासी लाख जीवयोनियों में समस्त संसारवर्ती जीवों का समावेश समझना चाहिए। ___ यहाँ जो चौरासी लाख योनियों का उल्लेख किया हैं, यह उपलक्षण है। इससे अन्यान्य भी जातिकुलकोटि समझना चाहिए। क्योंकि पक्षियों की बारह लाख, भुजपरिसर्प की नौ लाख, उरपरिसर्प की दश लाख, चतुष्पदों की दश लाख, जलचरों की साढे बारह लाख, चतुरिन्द्रियों की नौ लाख, त्रीन्द्रियों की आठ लाख, द्वीन्द्रियों की सात लाख, पुष्पजाति की सोलह लाख-इनको मिलाने से साढे तिरानवै लाख होती है, अतः यहाँ जो चौरासी लाख योनियों का कथन किया गया है वह उपलक्षणमात्र है। अन्यान्य बी कुलकोटियां होती हैं। अन्यत्र कुलकोटियां इस प्रकार गिनाई हैं पृथ्वीकाय की १२ लाख, अप्काय की सात लाख, तेजस्काय की तीन लाख, वायुकाय की सात लाख, वनस्पतिकाय की अट्ठावीस लाख, द्वीन्द्रिय की सात लाख, त्रीन्द्रिय की आठ लाख, चतुरिन्द्रिय की नौ लाख, जलचर की साढे बारह लाख, स्थलचर की दस लाख, खेचर की बारह लाख, उरपरिसर्प की दस लाख, भुजपरिसर्प की नौ लाख, नारक की पच्चीस लाख, देवता की छव्वीस लाख, मनुष्य की बारह लाख, कुल मिलाकर एक करोड़ साढे सित्याणु लाख कुलकोटियां हैं। ___ चौरासीलाख जीवयोनियों की परिगणना इस प्रकार भी संगत होती है-त्रस जीवों की जीवयोनियां ३२ लाख हैं। वह इस प्रकार-दो लाख द्वीन्द्रिय की, दो लाख त्रीन्द्रिय की, दो लाख चतुरिन्द्रिय की, चार लाख तिर्यक्पंचेन्द्रिय की, चार लाख नारक की, चार लाख देव की और चौदह लाख मनुष्यों की-ये कुल मिलाकर ३२ लाख त्रसजीवों की योनियां हैं। स्थावरजीवों की योनियां ५२ लाख हैं-सात लाख पृथ्वीकाय की , सात लाख अप्काय की,७ लाख तेजस्काय की, ७ लाख वायुकाय की, २४ लाख वनस्पति की-यों ५२ लाख स्थावरजीवों की योनियां हैं। त्रस की ३२ लाख और स्थावर की ५२ लाख मिलकर ८४ लाख जीवयोनियां हैं। विमानों के विषय में प्रश्न ९९. अत्थि णं भंते ! विमाणाई । सोत्थियाणि सोत्थियावत्ताई सोत्थियपभाई सोत्थियकन्ताइं, सोत्थियवन्नाइं, सोत्थियलेसाइंसोत्थियज्झयाइं सोत्थियसिंगाराई,सोत्थियकूडाई, सोत्थियसिट्ठाई सोत्थियउत्तरवडिंसगाई ? हंता अत्थि। ते णं विमाणा केमहालया पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइए णं सूरिए उवेइ जावइएणं य सूरिए अत्थमइ एवइया तिण्णोवासंतराइं अत्थेगइयस्स देवस्स एक्के विक्कमे सिया।से णं देवे ताए उक्किट्ठाए तुरियाए जाव दिव्वाए १. टीकाकर के अनुसार 'अच्चियाइं अच्चियावत्ताई' इत्यादि पाठ है। Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवगइए वीइवयमाणे वीइवयमाणे जाव एगाहं वा दुयाहं वा उक्कोसेणं छम्मासा वीइवएज्जा, अत्थेगइया विमाणं वीइवएज्जा अत्थेगइया विमाणं नो वीइवएज्जा, एमहालया णं गोयमा। ते विमाणा पण्णत्ता। अत्थि णं भंते ! विमाणाई 'अच्चीणि अच्चिरावत्ताइं तहेव जाव अच्चुत्तरवडिंसगाई ? हंता अत्थि। ते विमाणा केमहालया पण्णत्ता? गोयमा ! एवं जहा सोत्थियाईणि णवरं एवइयाइं पंच उवासंतराइं अत्थेगइयस्स देवस्स एगे विक्कमे सिया, सेसं तं चेव। अस्थि णं भंते ! विमाणाई कामाई कामावत्ताई जाव कामुत्तरवडिंसगाई ? हंता अत्थि। ते णं भंते ! विमाणा केमहालया पण्णत्ता ? गोयमा ! जहा सोत्थीणि णवरं सत्त उवासंतराइं विक्कमे, सेसं तहेव। अस्थि णं भंते ! विमाणाई विजयाई वेजयंताई जयंताई अपराजिताइं? हंता अत्थि। ते णं भंते ! विमाणा केमहालिया पण्णत्ता ? गोयमा ! जावइए सूरिए उदेह एवइयाइं नव ओवासंतराइं, सेसं तं चेव णो चेव णं ते विमाणे वीइवएग्जा एमहालया णं विमाणा पण्णत्ता, समणाउसो! . तिरिक्खजोणियउद्देसओ समत्तो। १ [९९] हे भगवन् ! क्या स्वस्तिक नामवाले, स्वस्तिकावर्त नामवाले, स्वस्तिकप्रभ, स्वस्तिककान्त, स्वस्तिकवर्ण, स्वस्तिकलेश्य, स्वस्तिकध्वज, स्वस्तिकशृंगार, स्वस्तिककूट, स्वस्तिकशिष्ट और स्वस्तिकोत्तरावतसंक नामक विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जितनी दूरी से सूर्य उदित होता दीखता है और जितनी दूरी से सूर्य अस्त होता दीखता है (यह एक अवकाशान्तर है), ऐसे तीन अवकाशान्तरप्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पदन्यास) हो और वह देव उस उत्कृष्ट, त्वरित यावत् दिव्य देवगति से चलता हुआ यावत् एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता जाय तो किसी विमान का तो पार पा सकता है और किसी विमान का पार नहीं पा सकता है। हे गौतम ! इतने बड़े वे विमान कहे गये हैं। हे भगवन् ! क्या अर्चि, अर्चिरावर्त आदि यावत् अर्चिरुत्तरावतंसक नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। १. टीकाकर के अनुसार 'सोत्थियाइ' आदि पाठ यहाँ है। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति:विमानों के विषय में प्रश्न [२७७ भगवन् ! वे विमान कितने बड़े कहे गये हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिक आदि विमानों की कही है, वैसी ही यहाँ कहना चाहिए। विशेषता यह है कि यहाँ वैसे पांच अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक पदन्यास (एक विक्रम) कहना चाहिए। शेष वही कथन है। हे भगवन् ! क्या काम, कामावर्त यावत् कामोत्तरावतंसक विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं ? गौतम ! जैसी वक्तव्यता स्वस्तिकादि विमानों की कही है वैसी ही कहना चाहिये। विशेषता यह है कि यहाँ वैसे सात अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी देव का एक विक्रम (पदन्यास) कहना चाहिए। शेष सब वही कथन है। है भगवन् ! क्या विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजित नाम के विमान हैं ? हाँ, गौतम ! हैं। • भगवन् ! वे विमान कितने बड़े हैं? गौतम ! वही वक्तव्यता कहनी चाहिए यावत् यहाँ नौ अवकाशान्तर प्रमाण क्षेत्र किसी एक देव का पदन्यास कहना चाहिए। इस तीव्र और दिव्यगति से वह देव एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो किन्हीं विमानों के पार पहुंच सकता है और किन्ही विमानों के पार नहीं पहुंच सकता है। हे आयुष्मन् श्रमण ! इतने बड़े विमान वे कहे गये हैं। प्रथम तिर्यक्योनिक उद्देशक पूर्ण। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में विशेष नाम वाले विमानों के विषय में तथा उनके विस्तार के सम्बन्ध में प्रश्नोत्तर हैं। 'विमान' शब्द की व्युत्पत्ति वृत्तिकार ने इस प्रकार की है-जहाँ वि-विशेषरूप से पुण्यशाली जीवों के द्वारा मन्यन्ते-तद्गत सुखों का अनुभव किया जाता है वे विमान हैं। ___ विमानों के नामों में यहाँ प्रथम स्वस्तिक आदि नाम कहे गये हैं, जबकि वृत्तिकार मलयगिरि ने पहले अर्चि, अर्चिरावर्त आदि पाठ मानकर व्याख्या की है। उन्होंने स्वस्तिक, स्वस्तिकावर्त आदि नामों का उल्लेख दूसरे नम्बर पर किया है। इस प्रकार नाम के क्रम में अन्तर है। वक्तव्यता एक ही है। विमानों की महत्ता को बताने के लिए देव की उपमा का सहारा लिया गया है। जैसे कोई देव सर्वोत्कृष्ट दिन में जितने क्षेत्र में सूर्य उदित होता है और जितने क्षेत्र में वह अस्त होता है इतने क्षेत्र को अवकाशान्तर कहा जता है, ऐसे तीन अवकाशान्तर जितने क्षेत्र को (वह देव) एक पदन्यास से पार कर लेता है। इस प्रकार की उत्कृष्ट, त्वरित और दिव्यगति से लगातार एक दिन, दो दिन और उत्कृष्ट छह मास तक चलता १. विशेषतः पुण्यप्राणिभिमन्यन्ते-तद्गतसौख्यानुभवनेनानुभूयन्ते इति विमानानि। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रहे तो भी वह किसी विमान के पार पहुंच जाता है और किसी विमान को पार नहीं कर सकता हैं । इतने बड़े वह विमान हैं। जम्बूद्वीप में सर्वोत्कृष्ट दिन में कर्कसक्रान्ति के प्रथम दिन में सूर्य सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन और एक योजन के २१/६० भाग ( इक्कीस साठिया भाग) जितनी दूरी से उदित होता हुआ दीखता है । १ ४७२६३२९/. योजन उसका उदयक्षेत्र है और इतना ही उसका अस्तक्षेत्र है। उदय और अस्तक्षेत्र मिलकर ९४५२६४९. योजन क्षेत्र का परिमाण होता है । यह एक अवकाशान्तर का परिमाण है। यहाँ ऐसे तीन अवकाशान्तर होने से उसका परिमाण अट्ठाईस लाख तीन हजार पांच सौ अस्सी योजन और एक योजन के /.. भाग (२८, ०३, ५८० / ) इतना उस देव के एक पदन्यास का परिमाण होता है। इतने सामर्थ्यवाला कोई देव लगातार एक दिन, दो दिन उत्कृष्ट छह मास तक चलता रहे तो भी उन विमानों में से किन्हीं का पार पा सकता है और किन्ही का नहीं । इतने बड़े वे विमान हैं। स्वस्तिक आदि विमानों की महत्ता के विषय में यह उपमा है। अर्चि; अर्चिरवर्त आदि की महत्ता के उत्तर में वही सब जानना चाहिए, अन्तर यह है कि यहाँ पांच अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण समझना चाहिए। काम, कामावर्त आदि विमानों की महत्ता में भी वही सब जानना चाहिए, केवल देव के पदन्यास का प्रमाण सात अवकाशान्तर समझना चाहिए । विजय, वैजयंत, जयंत और अपराजितों के विषय में भी वही जानना चाहिए। अन्तर यह है कि यहाँ नौ अवकाशान्तर जितना क्षेत्र उस देव के एक पदन्यास का प्रमाण समझना चाहिए। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे विमान इतने बड़े हैं । ॥ प्रथम तिर्यक् उद्देशक पूर्ण ॥ १. जावइ उदेइ सूरो जावइ सो अत्थमेइ अवरेणं । तियपणसत्तनवगुणं काठं पत्तेयं पत्तेयं ॥ १ ॥ सीयालीस सहस्सा दो य सया जोयणाण तेवट्ठा । इगवीस सट्टिभागा कक्खडमाइंमि पेच्छ नरा ॥ २ ॥ २. एवं दुगुणं काठं गुणिज्जए तिपणसत्तमाईहिं । आगयफलं च जं तं कमपरिमाणं वियाणाहि ।। ३ ॥ चत्तारि वि सकम्मेहिं, चंडाइगईहिं जंति छम्मासं । तहवि य न जंति पारं केसिंचि सुरा विमाणाइं ॥ ४ ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति तिर्यग्योनिक अधिकार का द्वितीयोद्देशक तिर्यक्योनि अधिकार में प्रथम उद्देशक कहने के बाद क्रमप्राप्त द्वितीय उद्देशक का अवसर है। उसका आदि सूत्र इस प्रकार है [१००] कइविहा णं भंते ! संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-पुढविकाइया जाव तसकाइया। से किं तं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-सुहमपुढविकाइया य बादरपुढविकाइया य। से किं तं सुहमपुढविकाइया ? सुहुमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपज्जतगा य । से तं सुहुमपुढविकाइया। से किं तं बादरपुढविकाइया ? बादरपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पज्जत्तगा य अपग्जत्तगा य। एवं जहा पण्णवणापदे, सण्हा सत्तविहा पण्णत्ता, खरा अणेगविहा पण्णत्ता, जाव असंखेग्जा, से तं बादरपुढविकाइया। से तं पुढविकाइया। एवं जहा पण्णवणापदे तहेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव वणप्फइकाइया, एवं जाव जत्थेको तत्थ सिया संखेज्जा सिया असंखेज्जा सिया अणंता। से तं बादरवणप्फइकाइया, से तं वणस्सइकाइया। से किं तं तसकाइया? तसकाइया चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-बेइंदिया, तेइंदिया, चारिदिया, पंचिंदिया। से किं तं बेइंदिया ? बेइंदिया अणेगविधा पण्णत्ता, एवं जं चेव पण्णवणापदे तं चेव निरवसेसं भाणियव्वं जाव सव्वट्ठसिद्धगदेवा, से तं अणुत्तरोववाइया, से तं देवा, से तं पंचेंदिया, से तं तसकाइया। [१००] हे भगवन् ! संसारसमापनक जीव कितने प्रकार के कहे गये हैं ? गौतम ! छह प्रकार के कहे गये हैं, यथा-पृथ्वीकायिक यावत् त्रसकायिक। पृथ्वीकायिक जीव कितने प्रकार के हैं ? पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के हैं-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकयिक। सूक्ष्मपृथ्वीकायिक कितने प्रकार के हैं ? सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । यह सूक्ष्मपृथ्वीकायिक का कथन हुआ। Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र बादर पृथ्वीकायिक क्या हैं ? बादरपृथ्वीकायिक दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त। इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा, वैसा कहना चाहिए। श्लक्ष्ण (मृदु) पृथ्वीकायिक सात प्रकार के हैं और खरपृथ्वीकायिक अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यावत् वे असंख्यात हैं। यह बादरपृथ्वीकायिकों का कथन हुआ। यह पृथ्वीकायिकों का कथन हुआ । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा वैसा पूरा कथन करना चाहिए। वनस्पतिकायिक तक ऐसा ही कहना चाहिए, यावत् जहाँ एक वनस्पतिकायिक जीव है वहाँ कदाचित् संख्यात, कदाचित् असंख्यात और कदाचित् अनन्त वनस्पतिकायिक जानना चाहिए। यह बादरवनस्पतिकायिक का कथन हुआ । यह वनस्पतिकायिकों का कथन हुआ । कायिक जीव क्या हैं ? वे चार प्रकार के कहे गये हैं, यथा-द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय जीव क्या हैं ? वे अनेक प्रकार के कहे गये हैं । इस प्रकार जैसा प्रज्ञापनापद में कहा गया हैं, वह सम्पूर्ण कथन तब तक करना चाहिए जब तक सर्वार्थसिद्ध देवों का अधिकार है। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। इसके साथ ही देवों का कथन हुआ, इसके साथ ही पंचेन्द्रियों का कथन हुआ और साथ ही सकाय का कथन भी पूरा हुआ। विवेचन - यहाँ छह प्रकार के संसारसमापन्नक जीव हैं, ऐसा प्रतिपादन करनेवाले आचार्यों का मन्तव्य बताया गया है । १. पृथ्वीकाय, २. अप्काय, ३. तेजस्काय, ४. वायुकाय, ५. वनस्पतिकाय और ६. त्रसकाय - इन छह भेदों में सब संसारी जीवों का समावेश हो जाता है। इस प्रसंग पर वही सब कहा गया हैं जो पहले त्रस और स्थावर की प्रतिपत्ति में कहा गया है। अतएव इनके विषय में प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में कही गई वक्तव्यता के अनुसार वक्तव्यता जाननी चाहिए, ऐसी सूचना सूत्रकार ने यहाँ प्रदान की है। जिज्ञासु जन वहाँ से विशेष जानकारी प्राप्त कर सकते हैं । पृथ्वीकायिकों के विषयमें विशेष जानकारी १०१. कइविहा णं भंते ! पुढवी पण्णत्ता ? गोयमा ! छव्विहा पुढवी पण्णत्ता, तं जहा - सण्हापुढवी, सुद्धपुढवी, बालुयापुढवी, मणोसिलापुढवी, सक्करापुढवी, खरपुढवी । सहा पुढवी णं भंते! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं एगं वाससहस्सं । सुद्धपुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बारसवाससहस्साईं। बालुयापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं चोद्दसवाससहस्साइं । मणोसिलापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्त्रेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं सोलसवाससहस्साइं । सक्करापुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अट्ठारसवाससहस्साइं । खरपुढवीए पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं बावीसवाससहस्साइं । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी] [२८१ नेरइयाणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! जहन्नेणं दसवाससहस्साइं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिई; एवं सव्वं भाणियव्वं जाव सव्वट्ठसिद्धदेवत्ति। जीवे णं भंते ! जीवे त्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं। पुढविकाइए णं भंते ! पुढविकाइएत्ति कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! सव्वद्धं । एवं जाव तसकाइए। [१०] हे भगवन् ! पृथ्वी कितने प्रकार की कही है ? गौतम ! पृथ्वी छह प्रकार की कही गई है, यथा-श्लक्ष्ण (मृदु) पृथ्वी, शुद्धपृथ्वी, बालुकापृथ्वी, मनःपृथ्वी, शर्करापृथ्वी और खरपृथ्वी। हे भगवन् ! श्लक्ष्णपृथ्वी की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एकहजार वर्ष । हे भगवन् ! शुद्धपृथ्वी की कितनी स्थिति है ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारहहजार वर्ष । हे भगवन् ! बालुकापृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौदहहजार वर्ष । हे भगवन् ! मनःशिलापृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सोलहहजार वर्ष । हे भगवन् ! शर्करापृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अठारहहजार वर्ष । हे भगवन् ! खरपृथ्वी की पृच्छा ? गौतम ! जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीसहजार वर्ष । भगवन् ! नैरयिकों की कितनी स्थिति कही है ?. गौतम ! जघन्य दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति है। इस प्रकार सर्वार्थसिद्ध के देवों तक की स्थिति (प्रज्ञापना के स्थिति पद के अनुसार) कहनी चाहिए। भगवन् ! जीव, जीव के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! सब काल तक जीव जीव ही रहता है। भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव पृथ्वीकायिक के रूप में कब तक रहता है ? गौतम ! (पृथ्वीकाय सामान्य की अपेक्षा) सर्वकाल तक रहता है। इस प्रकार त्रसकाय तक कहना Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ ] चाहिए । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में पृथ्वीकायिक आदि के विषय में कई विशिष्ट विषयों का उल्लेख करने लिए पुन: पृथ्वीविषयक प्रश्न किये गये हैं। पृथ्वी के प्रकारों के सम्बन्ध में किये गये प्रश्न के उत्तर में प्रभु ने फरमाया है कि पृथ्वी छह प्रकार की है १. श्लक्ष्णापृथ्वी- यह मृदु मुलायम मिट्टी का वाचक है। यह चूर्णित आटे के समान मुलायम होती है। २. शुद्धपृथ्वी - पर्वतादि के मध्य में जो मिट्टी है वह शुद्धपृथ्वी है । ३. बालुकापृथ्वी- बारीक रेत बालुकापृथ्वी है । ४. मनःशिलापृथ्वी - मैनशिल आदि मनःशिलापृथ्वी है। ५. शर्करापृथ्वी - कंकर, मुरुण्ड आदि शर्करापृथ्वी है। ६. खरपृथ्वी - पाषाण रूप पृथ्वी खरापृथ्वी है। उक्त छह प्रकार की पृथ्वी का निरूपण करने के पश्चात् उनकी कालस्थिति के विषय में प्रश्न किये गये हैं। उत्तर में कहा गया है कि [जीवाजीवाभिगमसूत्र १. श्लक्ष्णपृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट एक हजार वर्ष है। २. शुद्धपृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बारहहज़ार वर्ष है। ३. बालुकापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौदहहजार वर्ष है। ४. मनःशिलापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट सोलहहजार वर्ष है । ५. शर्करापृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अठारहहजार वर्ष है । ६. खरपृथ्वी की स्थिति जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बावीसहजार वर्ष है। १ पृथ्वीस्थिति यन्त्र जघन्य अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त पृथ्वी का प्रकार १. श्लक्ष्णपृथ्वी २. शुद्धपृथ्वी ३. बालुकापृथ्वी ४. मनःशिला पृथ्वी ५. शर्करापृथ्वी ६. खरपृथ्वी अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त अन्तर्मुहूर्त १. सहा य सुद्ध बालुअ मणोसिला सक्करा य खरपुढवी । इग बार चोदस सोलढार बावीस सयसहस्सा ॥ १॥ उत्कृष्ट स्थिति एक हजार वर्ष बारहहजार वर्ष चौदहहजार वर्ष सोलहहजार वर्ष अठारहहजार वर्ष बावीसहजार वर्ष स्थितिनिरूपण का प्रसंग होने से चौबीस दण्डक के क्रम से नैरयिकों आदि की स्थिति के विषय में प्रश्न हैं। ये प्रश्न और उनके उत्तर प्रज्ञापनापद के चतुर्थ स्थितिपद के अनुसार सर्वार्थसिद्ध के देवों तक Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी ] की स्थिति तक समझ लेना चाहिए। वहाँ विस्तार के साथ स्थिति का वर्णन है । अतएव यहाँ उसका उल्लेख न करते हुए वहाँ से जान लेने की सूचना की गई है। यह भवस्थिति विषयक कथन करने के पश्चात् कायस्थितिविषयक प्रश्न है कि जीव कितने समय तक जीवरूप में रहता है। कायस्थिति का अर्थ है - जीव की सामान्यरूप अथवा विशेषरूप से जो विवक्षित पर्याय है उसमें स्थित रहना । भवस्थिति में वर्तमान भव की स्थिति गृहीत होती है और कायस्थिति में जब तक जीव अपने जीवनरूप पर्याय से युक्त रहता है तब तक की स्थिति विवक्षित है। प्रकृत प्रसंग में जीव की कायस्थिति पूछी गई है । जो प्राणों को धारण करे वह जीव है । प्राण दो प्रकार के हैं - द्रव्यप्राण और भावप्राण। पांच इन्द्रियां, मन-वचन-कांय ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस द्रव्यप्राण हैं और ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चार भावप्राण है । ' यहाँ दोनों प्रकार के प्राणों का ग्रहण है। अतः प्रश्न का भाव यह हुआ कि जीव प्राण धारणरूप जीवत्व की अपेक्षा से कब तक रहता है ? भगवान् ने उत्तर दिया कि सर्वकाल के लिए जीवरूप में रहता है। वह संसारी अवस्था में द्रव्य-भावप्राणों को लेकर और मुक्तावस्था में भावप्राणों को लेकर जीवित रहता है, अतएव सर्वाद्धा के लिए जीव जीवरूप में रहता है। एक क्षण ऐसा नहीं है कि जीव अपनी इस जीवनावस्था से रहित हो जाय । अथवा 'जीव' पद से यहाँ किसी एक खास जीव का ग्रहण नहीं हुआ किन्तु जीव सामान्यं का ग्रहण हुआ है। अतएव प्राणधारण लक्षण जीवत्व मानने में भी कोई दोष नहीं है । अर्थात् जीव जीव के रूप में सदा रहेगा ही । वह सदा जिया है, जीता है और जीता रहेगा। इस प्रकार जीव को लेकर सामान्य जीव की अपेक्षा कायस्थिति कही गई है । इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि के विषय में भी सामान्य विवक्षा जाननी चाहिए। पृथ्वीकाय भी पृथ्वीकायरूप में सामान्यरूप से सदैव रहेगा ही कोई भी समय ऐसा नहीं होगा जब पृथ्वीकायिक जीव नहीं रहेंगे। इसलिए उनकी कायस्थिति सर्वाद्धा कही गई है। इस प्रकार गति, इन्द्रिय, कायादि द्वारों से जिस प्रकार प्रज्ञापना के अठारहवें 'कायस्थिति' नामक पद में कायस्थिति कहीं गई है, वह सब यहाँ कह लेनी चाहिए ।' द्वार बावीस हैं — [ २८३ १. जीव, २. गति, ३. इन्द्रिय, ४. काय, ५. योग, ६. वेद, ७. कषाय, ८. लेश्या, ९. सम्यक्त्व, १०. ज्ञान, ११. दर्शन, १२. संयत, १३. उपयोग, १४. आहार, १५. भाषक, १६. परित्त, १७. पर्याप्त, १८. सूक्ष्म, १९. संज्ञी, २० भवसिद्धिक, २१ अस्तिकाय और २२. चरम । इस प्रकार पृथ्वीका की तरह अप्, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रसकाय सम्बन्धी सूत्र भी समझ लेने चाहिए। १. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास- निःश्वासमथान्यदायुः । प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥ 'ज्ञानादयस्तु भावप्राणा, मुक्तोऽपि जीवति स तेहिं । ' २. जीव गइंदिय काए जोए वेए कसाय लेस्सा य । सम्मत्त नाणदंसण संजय उवओग आहारे ॥ १ ॥ भासग परित्तपज्जत्त सुहुमसण्णी भवत्थि चरिमे य । एएसिं तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वा ॥ २ ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र निर्लेप सम्बन्धी कथन १०१-२. पडप्पन्नपुढविकाइया णं भंते ! केवइकालस्स णिल्लेवा सिया ? गोयमा ! जहण्णपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि उक्कोसपए असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं , जहन्नपदओ उक्कोसपए असंखेज्जगुणो, एव जाव पडुप्पन्नवाउक्काइया। पडुप्पन्नवणप्फइकाइया णं भंते ! केवइकालस्स पिल्लेवा सिया ? गोयमा ! पडुप्पन्नवणप्फइकाइया जहण्णपदे अपदा उक्कोसपदे अपदा, पडुप्पन्नवणप्फइकाइया णं णत्थि निल्लेवणा। पडुप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोवमसयपुहुत्तस्स, उक्कोसपए सागरोवमसयपुहुत्तस्स, जहण्णपदा उक्कोसपए विसेसाहिया। [१०१-२] भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य से असंख्यात उरर्पिणी-अवसर्पिणी काल में और उत्कृष्ट से भी असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) हो सकते हैं। यहाँ जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में असंख्यातगुण अधिकता जाननी चाहिए। इसी प्रकार अभिनव वायुकायिक तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) वनस्पतिकायिक जीव कितने समय में निर्लेप हो सकते गौतम ! प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकों के लिए जघन्य और उत्कृष्ट, दोनों पदों में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये इतने समय में निर्लेप हो सकते हैं। इन जीवों की निर्लेपना नहीं हो सकती। (क्योंकि ये अनन्तानन्त हैं।) भगवन् ! प्रत्युत्पन्नत्रसयकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य पद में सागरोपम शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शतपृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं। जघन्यपद से उत्कृष्ट में विशेषाधिकता समझनी चाहिए। _ विवेचन-निर्लेपता का अर्थ है-यदि प्रतिसमय एक-एक जीव का अपहार किया जाय तो कितने समय में वे जीव सबके सब अपहृत हो जायें अर्थात् वह आधारस्थान उन जीवों से खाली हो जाय। प्रत्युत्पन्न अर्थात् अभिनव उत्पद्यमान पृथ्वीकायिक जीवों का यदि प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार किया जाय तो कितने समय में वे सबके सब अपहत हो सकेंगे, यह प्रश्न का आशय है। इसके उत्तर में कहा गया है कि जघन्य से अर्थात् जब एक समय में कम से कम उत्पन्न होते हैं, उस अपेक्षा से यदि प्रत्येक समय में एक-एक जीव अपहृत किया जावे तो उनके पूरे अपहरण होने में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: निर्लेप सम्बन्धी कथन ] अवसर्पिणियां समाप्त हो जावेंगी। इसी प्रकार उत्कृष्ट से एक ही काल में जब वे अधिक से अधिक उत्पन्न होते हैं उस अपेक्षा से भी यदि उनमें एक-एक समय में एक-एक जीव का अपहार किया जावे तो भी उनके पूरे अपहरण में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात अवसर्पिणियां समाप्त हो जावेंगी तब वे पूरे अपहृत होंगे। जघन्य पद वाले अभिनव उत्पद्यमान पृथ्वीकायिक जीवों की अपेक्ष जो उत्कृष्ट पदवर्ती अभिनव पृथ्वीकायिक जीव उत्पन्न होते हैं वे असंख्यातगुण अधिक हैं। क्योंकि जघन्य पदोक्त असंख्यात से उत्कृष्ट पदोक्त असंख्यात असंख्यातगुण अधिक है । [ २८५ इसी तरह अभिनव, अप्कायिक तेजस्कायिक और वायुकायिक जीवों की निर्लेपना समझनी चाहिए। अभिनव वनस्पतिकायिक जीवों की निर्लेपना सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में कहा गया है कि उन जीवों की न तो जघन्यपद में और न उत्कृष्टपद में निर्लेपना सम्भव है । क्योंकि वे जीव अनन्तानन्त हैं । अतएव वे 'इतने समय में निर्लिप्त या अपहृत हो जावेंगे' ऐसा कहना सम्भव नहीं है । उक्त पद द्वारा वे नहीं कहे जा सकते, अतएव उन्हें 'अपद' कहा गया है । प्रत्युपन्न त्रसकायिक जीवों की निर्लेपना का काल जघन्यपद में सागरोपमशतपृथक्त्व है अर्थात् दो सौ सांगरोपम से लेकर नौ सौ सागरोपम जितने काल में उन अभिनव त्रसकायिक जीवों का अपहार सम्भव है । उत्कृष्ट में भी यही सागरोपमशतपृथक्त्व निर्लेपना का काल जानना चाहिए, परन्तु यह उत्कृष्टपदोक्त काल जघन्यपदोक्त काल से विशेषाधिक जानना चाहिए । अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन १०३. अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणट्टे समट्टे । अविसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे असमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणट्ठे समट्ठे । अविसुद्धस्से णं भंते! अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? गोयमा ! नो इणट्टे समट्ठे । अविसुद्धलेस्से अणगारे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? नो इट्टे सट्टे । अविसुद्धलेस्से णं भंते! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नो तिणढे समढे। अविसुद्धलेस्से णंअणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविंअणगारं जाणइ पासइ ? नो तिणढे समढे। विसुद्धलेस्सेणं भंते ! अणगारे असमोहएणंअप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ? हंता, जाणइ पासइ। जहा अविसुद्धलेस्से णं आलावगा एवं विसुद्धलेसे णं वि छ आलावगा भाणियव्वा जाव विसुद्धलेस्से णं भंते ! अणगारे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेस्सं देवं देविं अणगारं जाणइ पासइ ? हंता ! जाणइ पासइ। [१०३] हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात से विहीन आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? __ हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है अर्थात् नहीं जानता-देखता है। भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि विहीन आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है । भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? . हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घातयुक्त आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ ठीक नहीं है। हे भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार जो वेदनादि समुद्घात से ना तो पूर्णतया युक्त है और न सर्वथा विहीन है, ऐसी आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले देव को, देवी को और अनगार को जानतादेखता है क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। भगवन् ! अविशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्धलेश्या वाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है । भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार वेदनादि समुद्घात असमवहत आत्मा द्वारा अविशुद्ध लेश्यावाले Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन] [२८७ देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हाँ , गौतम ! जानता-देखता है। जैसे अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए छह आलापक कहे हैं वैसे छह आलापक विशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए भी कहने चाहिए यावत् हे भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ? हाँ, गौतम ! जानता-देखता है। विवेचन-पूर्व सूत्र में स्थिति तथा निर्लेपना आदि का कथन किया गया । उस कथन को विशुद्धलेश्या वाला अनगार सम्यक् रूप से समझता है तथा अविशुद्धलेश्या वाला उसे सम्यक् रूप से नहीं समझता है। इस सम्बन्ध में यहाँ शुद्धलेश्या वाले और अशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर ज्ञान-दर्शनविषयक प्रश्न किये गये हैं। अविशुद्धलेश्या से तात्पर्य कृष्ण-नील-कापोत लेश्या से है। असमवहत का अर्थ वेदनादि समुद्घात से रहित और समवहत का अर्थ है वेदनादि समुद्घात से युक्त। समवहत-असमवहत का मतलब है वेदनादि समुद्घात से न तो पूर्णतया युक्त और न सर्वथा विहीन। अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के विषय में छह आलापक इस प्रकार कहे गये हैं(१) असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (२) असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (३) समवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (४) समवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (५) समवहत-असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना। (६) समवहत-असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना। उक्त छहों आलापकों में अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के जानने-देखने का निषेध किया गया है। क्योंकि अविशुद्धलेश्या होने से वह अनगार किसी वस्तु को सम्यक् रूप मे नहीं जानता है और नहीं देखता विशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर भी पूर्वोक्त रीति से छह आलापक कहने चाहिए और उन सब में देवादि को जानना-देखना कहना चाहिए। विशुद्धलेश्या वाला अनगार पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता और देखता है। विशुद्धलेश्या वाला होने से यथावस्थित ज्ञान-दर्शन होता है अन्यथा नहीं। मूल टीकाकार ने कहा है कि विशुद्धलेश्या वाला शोभन या अशोभन वस्तु को यथार्थ रूप में जानता है। समुद्घात भी उसका प्रतिबन्धक नहीं होता। उसका समुद्घात भी अत्यन्त अशोभन नहीं होता।' तात्पर्य यह है कि अविशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं जानता और नहीं देखता १. शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद् विशुद्धलेश्यो जानाति । समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एव। -मूलटीकायाम् Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जबकि विशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही रूप में जानता है और देखता है। सम्यग्-मिथ्याक्रिया का एक साथ न होना १०४.अण्णउत्थियाणंभंते ! एवमाइक्खंति एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति एवं परूवेंतिएवं खलु एगेजीवे एगेणंसमएणं दो किरियाओ पकरेइ, तंजहा-सम्मत्तकिरियंचमिच्छत्तकिरियं च। जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ। सम्मत्तकिरियापकरणताए मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणताए सम्मत्तकिरियंपकरेइ एवं खलुएगेजीवे एगेणं समएणंदो किरियाओ पकरेइ, तं जहा-सम्मत्तकिरियं च मिच्छत्तकिरियं च। से कहमेयं भंते ! एवं? गोयमा !जण्णं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति, एवं भासेंति, एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति एवं खलु एगेजीवे एगेणं समएणंदो किरियाओ पकरेइ तहेव जावसम्मत्तकिरियंचमिच्छत्तकिरियं च, जे ते एवमाहंसु तं णं मिच्छा; अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेई, तं जहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। जं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइनो तं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ।तं चेव जं समयं मिच्छत्तकिरियं पकरेइ नो तं समयं सम्मत्तकिरियं पकरेइ। सम्मत्तकिरियापकरणयाए नो मिच्छत्तकिरियं पकरेइ, मिच्छत्तकिरियापकरणयाए नो सम्मत्तकिरियं पकरेइ। एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एगं किरियं पकरेइ, तं जहा-सम्मत्तकिरियं वा मिच्छत्तकिरियं वा। सेत्तं तिरिक्खजोणिय-उद्देसओ बीओ समत्तो। [१०४] हे भगवन् ! अन्यतीर्थिक इस प्रकार कहते हैं, इस प्रकार बोलते हैं, इस प्रकार प्रज्ञापना करते हैं, इस प्रकार प्ररूपणा करते है कि 'एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है, यथा सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया। जिस समय सम्यक्रिया करता है उसी समय मिथ्याक्रिया भी करता है, और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है, उस समय सम्यक्क्रिया भी करता है। सम्यक्रिया करते हुए (उसके साथ ही) मिथ्यक्रिया भी करता है और मिथ्याक्रिया करने के साथ ही सम्यक्रिया भी करता है। इस प्रकार एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है, यथा-सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया।' हे भगवन् ! उनका यह कथन कैसा है ? हे गौतम ! जो वे अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं, ऐसा बोलते हैं, ऐसी प्रज्ञापना करते हैं और ऐसी प्ररूपणा करते हैं कि एक जीव एक समय में दो क्रियाएँ करता है-सम्यक्क्रिया और मिथ्याक्रिया। जो अन्यतीर्थिक ऐसा कहते हैं वे मिथ्या कथन करते हैं। गौतम ! मैं ऐसा कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि एक जीव एक समय में एक ही किया करता हैं, यथा सम्यक्क्रिया अथवा मिथ्याक्रिया। जिस समय सम्यक्रिया करता है उस समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सम्यक्क्रिया नहीं करता हैं और मिथ्याक्रिया Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: सम्यग्-मिथ्याक्रिया का एक साथ न होना] [२८९ करने के साथ सम्यक्रिया नहीं करता। इस प्रकार एक जीव एक समय में एक ही क्रिया करता है, यथासम्यक्क्रिया अथवा मिथ्याक्रिया। ॥ तिर्यक्योनिक अधिकार का द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया एक साथ एक जीव नहीं कर सकता, इस विषय को अन्यतीर्थिकों की मान्यता का पूर्वपक्ष के रूप में कथन करके उसका खण्डन किया गया है। अन्यतीर्थिक कहते हैं, विस्तार से व्यक्त करते हैं, अपनी बात दूसरों को समझाते हैं और निश्चित रूप से निरूपण करते हैं कि 'एक जीव एक समय में एक साथ सम्यक्रिया भी करता है और मिथ्याक्रिया भी करता है। सुन्दर अध्यवसाय वाली क्रिया सम्यक्रिया है और असुन्दर अध्यवसाय वाली क्रिया मिथ्याक्रिया है। जिस समय जीव सम्यक क्रिया करता है उसके साथ मिथ्याक्रिया भी करता है और जिस समय मिथ्याक्रिया करता है उस समय सम्यक्क्रिया भी करता है। क्योंकि जीव का स्वभाव उभयक्रिया करने का है। दोनों क्रियाओं को संबलित रूप में करने का जीव का स्वभाव है। अतः जीव जिस किसी भी अच्छी या बुरी क्रिया में प्रवृत्त होता है तो उसका उभयक्रिया करने का स्वभाव विद्यमान रहता है। उभयक्रिया करने का स्वभाव होने से उसकी क्रिया भी उभयरूप होती है। दूध और पानी मिला हुआ होने पर उसे उभयरूप कहना होगा, एकरूप नहीं। अतएव जिस समय जीव सम्यक्रिया कर रहा है उस समय उसके उभयक्रियाकरणस्वभाव की प्रवत्ति भी हो रही है. अन्यथा सर्वात्मना प्रवत्ति नहीं हो सकती। उभयकरणस्वभाव की प्रवत्ति होने से । उभयकरणस्वभाव की प्रवृत्ति होने से जिस समय सम्यक्रिया हो रही है उस समय मिथ्याक्रिया भी हो रही है और जिस समय मिथ्यक्रिया हो रही है उस समय सम्यक्क्रिया भी हो रही है अतः एक जीव एक समय में एक साथ दोनों क्रियाएं कर सकता है-सम्यक्रिया भी और मिथ्याक्रिया भी।' उक्त अन्यतीर्थिकों की मान्यता मिथ्या है। प्रभु फरमाते हैं कि गौतम ! एक जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है-सम्यक्रिया अथवा मिथ्याक्रिया। वह इन दोनों क्रियाओं को एक साथ नहीं कर सकता क्योंकि इन दोनों में परस्परपरिहाररूप विरोध है। सम्यक्क्रिया हो रही है तो मिथ्याक्रिया नहीं हो सकती और मिथ्याक्रिया हो रही है तो सम्यक्रिया नहीं हो सकती। जीव का उभयकरणस्वभाव है ही नहीं। यदि उभयकरणस्वभाव माना जाय तो मिथ्यात्व की कभी निवृत्ति नहीं होगी और ऐसी स्थिति में मोक्ष का अभाव हो जावेगा। अतएव यह सिद्ध होता है कि सम्यक्रिया करते समय मिथ्याक्रिया नहीं करता और मिथ्याक्रिया करते समय सम्यक्रिया नहीं करता। सम्यक्रिया और मिथ्याक्रिया एक दूसरे को छोड़कर रहती है, एक साथ नहीं रह सकती। अतएव यही सही सिद्धान्त हैं कि एक जीव एक समय में एक ही क्रिया कर सकता है-सम्यक्त्वक्रिया या मिथ्याक्रिया, दोनों क्रियाएं एक साथ कदापि सम्भव नहीं हैं। ॥ तृतीय प्रतिपत्ति के तिर्यक्योनिक अधिकार में द्वितीय उद्देशक समाप्त ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति मनुष्य का अधिकार तिर्यक्ोनिकों का कथन करने के पश्चात् अब क्रमप्राप्त मनुष्य का अधिकार चलता है। उसका आदिसूत्र है १०५. से किं तं मणुस्सा ? मस्सा दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - संमूच्छिममणुस्सा य गब्भवक्कंतियमणुस्सा य। [१०५] हे भगवन् ! मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! मनुष्य दो प्रकार के हैं, यथा - १. सम्मूर्च्छिममनुष्य और २. गर्भव्युत्क्रान्तिकमनुष्य । १०६. से किं तं संमुच्छिममणुस्सा ? संमुच्छिममणुस्सा एगागारा पण्णत्ता । कहिं णं भंते! संमुच्छिममणुस्सा संमुच्छंति ? गोयमा ! अंतोमणुस्सखेते जहा पण्णवणाए जाव से तं संमुच्छिममणुस्सा । [१०६] भगवन् ! सम्मूर्च्छिममनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! सम्मूर्च्छिममनुष्य एक ही प्रकार के कहे गये हैं । भगवन् ! ये सम्मूर्च्छिममनुष्य कहाँ पैदा होते हैं ? गौतम ! मनुष्यक्षेत्र में (१४ अशुचिस्थानों में उत्पन्न होते हैं) इत्यादि जो वर्णन प्रज्ञापनासूत्र में किया गया है, वह सम्पूर्ण यहाँ कहना चाहिए यावत् यह सम्मूर्च्छिममनुष्यों का कथन हुआ । विवेचन- सम्मूर्च्छिममनुष्यों के उत्पत्ति के १४ अशुचिस्थान तथा उनकी अन्तर्मुहूर्त मात्र आयु आदि के सम्बन्ध में प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद में विस्तृत वर्णन है तथा इसी जीवाजीवाभिगमसूत्र की द्वितीय प्रतिपत्ति में पहले इनका वर्णन किया जा चुका है। जिज्ञासु वहाँ देख सकते हैं। १०७. से किं तं गब्भवक्कंतियमणुस्सा ? गब्भवक्कंतियमणुस्सा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा - १. कम्मभूमगा, २. अकम्मभूमगा, ३. अंतरदीवगा । [१०७] हे भगवन् ! गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्य तीन प्रकार के हैं, यथा - १. कर्मभूमिक, २. अकर्मभूमिक और ३. आन्तर्द्वीपिक । १०८. से किं तं अंतरदीवगा ? Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :एकोरुकमनुष्यों के एकोरुकद्वीप का वर्णन] [२९१ अतंरदीवगा अट्ठावीसइविहापण्णत्ता, तंजहा-एगुरुआ आभासिया वेसाणियाणांगोली हयकण्णगा० आयंसमुहा० आसमुहा० आसकण्णा० उक्कामुहा० घणदंता जाव सुद्धदंता। [१०८] हे भगवन् ! आन्तींपिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! आन्तीपिक अट्ठवीस प्रकार के हैं, जैसे कि एकोरुक, आभाषिक, वैषाणिक, नांगोलिक, हयकर्ण, आदर्शमुख आदि, अश्वमुख आदि, अश्वकर्ण आदि, उल्कामुख आदि, घनदन्त आदि यावत् शुद्धदंत। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में गर्भज मनुष्यों के तीन प्रकार कर्मभूमिक, अकर्मभूमिक और आन्तर्दीपिकों का कथन करने के पश्चात् 'अस्त्यनानुपूर्व्यपि' अर्थात् अननुक्रम से भी कथन किया जाता है, इस न्याय से आन्तीपिकों के विषय में प्रश्न और उत्तर दिये गये हैं। लवणसमुद्र के अन्दर अन्तर्-अन्तर् पर द्वीप होने से ये अन्तद्वीप कहलाते हैं और इनमें रहने वाले मनुष्य 'तात्स्थ्यात्तद्व्यपदेशः' इस न्याय से आन्तीपिक कहे जाते हैं, जैसे पंजाब में रहने वाले पुरुष पंजाबी कहे जाते हैं। . आन्तीपिक मनुष्य अट्ठावीस प्रकार के हैं, यथा-१. एकोरुक, २. आभाषिक, ३. वैषाणिक, ४. नांगोलिक, ५. हयकर्ण, ६. गजकर्ण, ७. गोकर्ण, ८. शष्कुलीकर्ण, ९. आदर्शमुख, १०. मेण्ढमुख, ११. अयोमुख, १२. गोमुख, १३. अश्वमुख, १४. हस्तिमुख, १५. सिंहमुख, १६. व्याघ्रमुख, १७. अश्वकर्ण, १८. सिंहकर्ण, १९. अकर्ण, २०. कर्णप्रावरण, २१. उल्कामुख, २२. मेघमुख, २३. विद्युत्दंत, २४. विद्युजिह्व, २५. घनदन्त, २६. लष्टदन्त, २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त। इन द्वीपों में रहने वाले मनुष्य भी उसी नाम से जाने जाते हैं। इन आन्तीपिकों का आगे के सूत्र में विस्तार से वर्णन किया जा रहा है। एकोरुक मनुष्यों के एकोरुकद्वीप का वर्णन १०९. कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णाम दीवे पण्णत्ते ? - गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओलवणसमुहं तिनि जोयणसयाइंओगाहित्ता एत्थणंदाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते तिनि जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं णवएगूणपण्णजोयणसए किंचिविसेसेण परिक्खेवेणंएगाए पउमवरवेदियाए एगेणंच वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। साणं पउमवरवेदिया अट्ठजोयणाई उड्टुं उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं एगोरुदीवं समंता परिक्खेवेणं पण्णत्ता।तीसेणं पउमवरवेदियाए अयमेयारूवेवण्णावासेपण्णत्ते, तंजहावइरामया निम्मा एवं वेदियावण्णाओ जहा रायपसेणइए तहा भाणियव्यो। [१०९] हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहाँ रहा हुआ है ? Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में क्षुल्ल (चुल्ल) हिमवंत नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दक्षिणदिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहा गया है। वह द्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला तथा नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड है। वह पद्मवरवेदिका आठ योजन ऊंची, पांच सौ धनुष चौडाई वाली और एकोरुक द्वीप को सब तरफ से घेरे हुए है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है, यथा-उसकी नींव वज्रमय है आदि वेदिका का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र की तरह कहना चाहिए । विवेचन-यहाँ दक्षिण दिशा के एकोरुकमनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में कथन है। एकोरुकमनुष्य शिखरीपर्वत पर भी हैं किन्तु वे मेरुपर्वत के उत्तरदिशा में हैं। उनका व्यवच्छेद करने के लिए यहाँ 'दक्षिणदिशा के' ऐसा विशेषण दिया गया है। दक्षिणदिशा के एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप कहाँ है ? यह प्रश्न का भाव है। उत्तर में कहा गया है कि इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में तथा चुल्लहिमवान नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन आगे जाने पर दक्षिणात्य एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप है। वह एकोरुकद्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौडाई वाला और नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके आसपास चारों ओर एक पद्मवरवेदिका है, उसके चारों ओर एक वनखण्ड है। वह पद्मवरवेदिका आठ योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी है। उसका वर्णन राजप्रश्रीय सूत्र में किये गये पद्मवरवेदिका के समान जानना चाहिए, जैसे कि उसकी नींव वज्ररत्नों की है, आदि-आदि। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन आगे स्वयं सूत्रकार द्वारा कथित जंबूद्वीप की जगती के आगे की पद्मवरवेदिका और वनखण्ड के वर्णन के समान समझना चाहिए। अतएव यहाँ वह वर्णन नहीं दिया जा रहा है। ११०.साणं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खिता।सेणंवणसंडे देसूणाई दो जोयणाइं चक्कवालविक्खंभेणं वेड्यासमेणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ते णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे एवं जहा रायपसेणइएवणसंडवण्णओतहेव निरवसेसं भाणियव्वं, तणाण य वण्णगंधफासो सहो वावीओ उप्पायपव्वया पुढविसिलापट्टगा य भाणियव्या जाव एत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंति। - [११०] वह पद्मवरवेदिका एक वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोलाकार विस्तार वाला और वेदिका के तुल्य परिधि वाला है। वह वनखण्ड बहुत हरा-भरा और सघन होने से काला और कालीकान्ति वाला प्रतीत होता है, इस प्रकार राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार वनखण्ड का सब वर्णन जान लेना चाहिए। तृणों का वर्ण, गंध, स्पर्श, शब्द तथा बावडियाँ, उत्पातपर्वत, पृथ्वीशिलापट्टक आदि का भी वर्णन कहना चाहिए। यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां उठते-बैठते हैं, यावत् सुखानुभव करते हुए विचरण करते हैं। Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :एकोरुक द्वीप का वर्णन] [२९३ एकोरुकद्वीप का वर्णन १११.[१] एगोरुयदीवस्स णं भंते ! दीवस्स केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा! एगोरुयदीवस्सणंदीवस्स अंतो बहुसमरमणिग्जे भूमिभागेपण्णत्ते,सेजहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा, एवं सयणिजे भाणियव्वे जाव पुढविसिलापट्टगंसि तत्थ णं बहवे एगोरुयदीवया मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति जाव विहरंति।। [१११] (१) हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप की भूमि आदि का स्वरूप किस प्रकार का कहा गया है ? गौतम ! एकोरुकद्वीप का भीतरी भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय कहा गया है। जैसे मुरज (मृदंग विशेष) का चर्मपुट समतल होता है वैसा समतल वहाँ का भूमिभाग है-आदि। इसी प्रकार शय्या की मृदुता भी कहनी चाहिए यावत् पृथ्वीशिलापट्टक का भी वर्णन करना चाहिए। उस शिलापट्टक पर बहुत से एकोरुकद्वीप के मनुष्य और स्त्रियां उठते-बैठते हैं यावत् पूर्वकृत शुभ कर्मों के फल का अनुभव करते हुए विचरते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में एकोरुकद्वीप की भूमिरचना का वर्णन किया गया है। वहाँ का भूमिभाग एकदम समतल है। इस समतलता को बताने के लिए विविध उपमाओं का सहारा लिया गया है। सूत्र में साक्षात् रूप से 'आलिंगपुक्करेइ वा' कहा गया है जिसका अर्थ है-आलिंग अर्थात् मुरज। मुरज मृदंग का ही एक प्रकार है। पुष्कर का अर्थ है-चर्मपुटक। जैसे मुरज और मृदंग का चर्मपुट एकदम समतल होता है उसी प्रकार एकोरुकद्वीप का भूमिभाग एकदम समतल और रमणीय है यावत् शब्द से अन्य निम्न उपमाओं का ग्रहण समझना चाहिए जैसे मृदंग का मुख चिकना और समतल होता हैं, जैसे पानी से लबालब भरे तालाब का पानी समतल होता है, जैसे हथेली का तलिया, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, दर्पण का तल जैसे समतल होते हैं वैसे ही वहाँ का भूमिभाग समतल है। जैसे भेड़, बैल, सूअर, सिंह, व्याघ्र, वृक (भेड़िया) और चीता इनके चर्म को बड़ी-बड़ी कीलों द्वारा खींचकर अति समतल कर दिया जाता है वैसे ही वहाँ का भूमिभाग अति समतल और रमणीय है। वह भूमि आवर्त प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमान, वर्द्धमान, मत्स्याण्ड, मकराण्ड, जार-मार पुष्पावलि, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता, आदि नाना प्रकार के मांगलिक रूपों की रचना से चित्रित तथा सुन्दर दृश्य वाले, सुन्दर कान्ति, सुन्दर शोभा वाले, चमकती हुई उज्ज्वल किरणों वाले और प्रकाश वाले नाना प्रकार के पांच वर्णों वाले तृणों और मणियों से उपशोभित होती रहती है। वह भूमिभाग कोमलस्पर्श वाला है। उस कोमलस्पर्श को बताने के लिए शय्या का वर्णनक कहना चाहिए। तात्पर्य यह है कि आजिनक (मृगचर्म), रूई, बूर (वनस्पतिविशेष), मक्खन, तूल जैसे मुलायम स्पर्श वाली भूमि है। वह भूमिभाग रत्नमय, स्वच्छ, चिकना, घृष्ट (घिसा हुआ), मृष्ट (मंजा हुआ), रजरहित, निर्मल, निष्पंक, कंकररहित, सप्रभ, सश्रीक, उद्योतवाला प्रसाद पैदा करनेवाला दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। वहाँ पृथ्वीशिलापट्टक भी है जिसका वर्णन औपपातिकसूत्रानुसार जान लेना चाहिए। उस शिलापट्टक Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पर बहुत से एकोरुकद्वीपवासी स्त्री-पुरुष उठते-बैठते हैं, लेटते है, आराम करते हैं और पूर्वकृत शुभकर्मों के फल को भोगते हुए विचरण करते हैं। द्रुमादि वर्णन [२] एगोरुयदीवेणंदीवेतत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे उहालका कोहालका कयमाला णयमाला णट्टमाला सिंगमाला संखमाला दंतमाला सेलमालाणामदुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला मूलमंतो कंदमंतो जाव बीयमंतो पत्तेहि य पुप्फेहि य आछन्नपडिच्छण्णा सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति। . एगोरुयदीवेणंदीवेरुक्खा बहवे हेरुयालवणाभेरुयालवणा मेरुयालवणा सेरुयालवणा सालवणा सरलवणा सत्तवण्णवणा पूयफलिवणा खजूरीवणा णालिएरिवणा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति। एगोरुयदीवे णं तत्थ तत्थ बहवे तिलया, लवया, नग्गोहा जाव रायरुक्खाणंदिरुक्खा कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति। ____एगोरुयदीवेणं तत्थ बहुओ पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ एवं लयावण्णओ जहा उववाइए जाव पडिरूवाओ। ___एगोरुयदीवेणं तत्थ तत्थ बहवे सेरियागुम्मा जाव महाजाइगुम्मा, ते णं गुम्मा दसद्धवण्णं कुसुमं कुसुमंति विहुयग्गसाहाजेण वायविधूयग्गसाला एगोरुयदीवस्स बहुसमरमणिज्जभूमिभागं मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं करेंति। एगोरुयदीवेणं तत्थ तत्थ बहुओ वणराईओ पण्णत्ताओ, ताओणं वणराईओ किण्हाओ किण्होभासाओजावरम्माओ महामेहणिकुरंबभूयाओजाव महती गंधद्धणिं मुयंतीओ पासाईयाओ। [१११] (२) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक नामक द्वीप में स्थान-स्थान पर यहाँ-वहाँ बहुत से उद्दालक, कोद्दालक, कृतमाल, नतमाल, नृत्यमाल, शृंगमाल, शंखमाल, दंतमाल और शैलमाल नामक द्रुम (वृक्ष) कहे गये हैं। वे द्रुम कुश (दर्भ) और कांस से रहित मूल वाले हैं अर्थात् उनके आसपास दर्भ और कांस नहीं है। वे प्रशस्त मूल वाले, प्रशस्त कंद वाले यावत् प्रशन्त बीज वाले हैं और पत्रों तथा पुष्पों से आच्छन्न, प्रतिछन्न हैं, अर्थात् पत्रों और फूलों से लदे हुए हैं और शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं। उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से वृक्ष हैं। साथ ही हेरुतालवन, ' भेरुतालवन, मेरुतालवन, सेरुतालवन, सालवन, सरलवन, सप्तपर्णवन, सुपारी के वन, खजूर के वन और नारियल के वन हैं। ये वृक्ष और वन कुश और कांस से रहित यावत् शोभा से अतीव अतीव शोभायमान हैं। १.. वृक्षों के समुदाय को वन कहते हैं। . Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :दुमादि वर्णन] [२९५ ___ उस एगोरुकद्वीप मे स्थान-स्थान पर बहुत से तिलक, लवक, न्यग्रोध यावत् राजवृक्ष नंदिवृक्ष हैं जो दर्भ और कांस से रहित हैं यावत् श्री से अतीव शोभायमान हैं। उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत सी पद्मलताएँ यावत् श्यामलताएँ हैं जो नित्य कुसुमित रहती हैं-आदि लता का वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् वे अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से सेरिकागुल्म यावात् महाजातिगुल्म हैं। (जिनका स्कंध तो छोटा हो किन्तु शाखाएँ बड़ी-बड़ी हों और पत्र-पुष्पादि से लदे रहते हैं उन्हें गुल्म कहते हैं।) वे गुल्म पांच वर्गों के फूलों से नित्य कुसुमित रहते हैं। उनकी शाखाएँ पवन से हिलती रहती हैं जिससे उनके फूल एकोरुकद्वीप के भूमिभाग को आच्छादित करते रहते हैं। (ऐसा प्रतीत होता है मानो ये एकोरुकद्वीप के बहुसमरमणीय भूमिभाग पर फूलों की वर्षा कर रहे हों।) एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी वनराजियाँ हैं । वे वनराजियाँ अत्यन्त हरी-भरी होने से काली प्रतीत होती हैं, काली ही उनकी कान्ति है यावत् वे रम्य हैं और महामेघ के समुदायरूप प्रतीत होती हैं यावत् वे बहुत ही मोहक और तृप्तिकारक सुगंध छोड़ती हैं और वे अत्यन्त प्रसन्नता पैदा करने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। (वनों की पंक्तियों को वनराजि कहते हैं।) मत्तांग कल्पवृक्ष का वर्णन __ [३] एगोरुयदीवे तत्थ तत्थ वहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से चंदप्पभमणि सिलागवरसीधुपवरवारुणि सुजातफलपत्तपुष्फचोयणिज्जाससारबहुदव्वजुत्तिसंभारकाल संधियासवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजातीपसन्नमेल्लगसयाउ खजूरमुहियासारकाविसायण सुपक्कखोयरसवरसुरावण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मज्जविहित्थबहुप्पगारातदेवं ते मत्तंगया वि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससा परिणयाए मजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसटेंति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति ॥१॥ [१११] (३) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर मत्तांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे चन्द्रप्रभा, मणि-श्लाका श्रेष्ठ सीधु, प्रवरवारुणी, जातिवंत फल-पत्र-पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकाले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए आसव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्धतुल्यस्वाद वाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु, खजूर और मृद्विका (दाख) के रस, कपिश (धूम) वर्ण का गुड़ का रस, सुपक्व क्षोद (काष्ठादि चूर्णों का) रस, वरसुरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणमन होते हैं, वैसे ही वे मत्तांग वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाण वाली मद्यविधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं। वे कुश और कांस से रहित मूल वाले तथा शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं॥१॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भृतांग कल्पवृक्ष का वर्णन [४] एक्कोरुएदीवे तत्थ तत्थ बहवे भियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा सेवारगघडकरगकलसकक्करिपायकंचणि-उदंक-वद्धणि-सुपतिट्ठगपारीचसकभिंगारकरोडिसरग थरग पत्ती थाल मल्लग चवलिय दगवारक विचित्रवट्टक मणिवट्टक सुत्तिचारुपीणया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भायणविहिए बहुप्पगारा तहेव ते भियंगा वि दुमगणा अणेग बहुगविविहवीससा परिणमाए भायणविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसङ्गृति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥२॥ [१११] (४) हे आयुष्मन् श्रमण! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से भृत्तांग नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे वारक (मंगलघट), घट, करक, कलश, कर्करी (गगरी), पादकंचनिका, (पांव धोने की सोने की पात्री), उदंक (उलचना), वद्धणि (लोटा), सुप्रतिष्ठक (फूल रखने का पात्र), पारी, (घी-तेल का पात्र), चषक (पानपात्र-गिलास आदि), भिंगारक, (झारी), करोटि (कटोरा), शरक, थरक (पात्र विशेष), पात्री, थाली, जल भरने का घडा, विचित्र वर्तक (भोजनकाल में घृतादि रखने के पात्रविशेष), मणियों के वर्तक, शुक्ति (चन्दनादि घिसकर रखने का छोटा पात्र) आदि बर्तन जो सोने, मणिरत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये भृत्तांग कल्पवृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के विस्रसापरिणत भाजनों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं। ये कुश-कास से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव शोभायमान होते हैं ॥ २॥ त्रुटितांग कल्पवृक्ष [५] एगोरुयदीवेणंदीवे तत्थ तत्थ बहवे तुडियांगणामदुमगणापण्णत्ता समणाउसो! जहा से आलिंग-मुयंग-पणव-पडह-दद्दरग-करडिडिडिम-भंभाहोरंभ-कण्णियास्वरमुहि-मुगुंदसंखिय-परिलीवच्चग परिवाइणिवंसावेणु-वीणा सुघोस-विवंचि महति कच्छभिरगसरातलताल कंसताल सुसंपत्ता आतोज्ज विहिणिउणगंधव्वसमयकुसलेहि फंदिया तिट्ठाणसुद्धा तहेव ते तुडियंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविध वीससापरिणामाए ततविततघणसुसिराए चउविहाए आतोज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसटुंति कुस-विकुसविसुद्धरुक्खमूलाजाव चिट्ठन्ति॥३॥ - [१११] (५) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे त्रुटितांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे मुरज, मृदंग, प्रणव (छोटा ढोल), पटह (ढोल), दर्दरक (काष्ट की चौकी पर रख कर बजाया जाने वाला तथा गोधादि के चमड़े से मढा हुआ वाद्य), करटी, डिंडिम, भंभा-ढक्का, होरंभ (महाढक्का), क्वणित (वीणाविशेष), खरमुखी (काहला), मुकुंद (मृदंगविशेष), शंखिका (छोटा शंख), परिली-वच्चक (घास के तृणों को गूंथकर बनाये जाने वाले वाद्यविशेष), परिवादनी (सात तार वाली वीणा), वंश (बांसुरी), वीणा-सुघोषा-विपंची-महती-कच्छपी (ये सब वीणाओं के प्रकार हैं), रिगसका (घिसकर बजाये जाने वाला वाद्य), तलताल (हाथ से बजाई जाने वाली ताली), कांस्यताल (कांसी का वाद्य जो ताल देकर बजाया जाता है) आदि वादिंत्र जो सम्यक् प्रकार से बजाये जाते हैं, वाद्यकला में निपुण एवं गंधर्वशास्त्र में कुशल व्यक्तियों द्वारा जो स्पन्दित किये जाते हैं-बजाये जाते हैं, जो आदि-मध्य-अवसान रूप तीन स्थानों से शुद्ध Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : दीपशिखा व ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष] [२९७ हैं, वैसे ही ये त्रुटितांग कल्पवृक्ष नाना प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर तत-वितत-घन और शुषिर रूप चार प्रकार की वाद्यविधि से युक्त होते हैं। ये फलादि से लदे होते हैं, विकसित होते हैं। ये वृक्ष कुश-विकुश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥ ३॥ दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष [६] एगोरुयदीवेणंदीवेतत्थ तत्थ बहवेदीवसिहाणामदुमगणा पण्णत्ता,समणाउसो! जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपइणो दीविया चक्कवालविंदे पभूय वट्टिपलित्तणेहे धणि उज्जालियतिमिरमदद्दए कणगनिकर कुसुमित पालि जातय वणप्पगासे कंचनमणिरयण विमल महरिह तवणिज्जुज्जल विचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पजलियउसवियणिद्ध तेयदिप्पंतविमलगहगण समप्पहाहिं वितिमिरकरसूरपसरियउल्लोय चिल्लयाहिं जालुज्जल पहसियाभिरामेहिं सोभेमाणा तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणाअणेगबहुविविह वीससा परिणामाए उज्जोयविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसद्वृति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥४॥ [१११] (६) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे यहाँ संध्या से उपरान्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहाँ दीपिकाएं होती हैं जिनका प्रकाशमण्डल सब ओर फैला होता है तथा जिनमें बहुत सारी बत्तियाँ और भरपूर तेल भरा होता है, जो अपने घने प्रकाश से अन्धकार का मर्दन करती हैं, जिनका प्रकाश कनकनिका (स्वर्णसमूह) जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजात (देववृक्ष) के वन के प्रकाश जैसा होता है सोना मणिरत्न से बने हुए, विमल, बहुमूल्य या महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य, तपनीय-स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र जिनके दण्ड हैं, जिन दण्डों पर एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज खूब प्रदीप्त हो रहा है तथा जो निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित हैं तथा जो अन्धकार को दूर करने वाले सूर्य की फैली हुई प्रभा जैसी चमकीली हैं, जो अपनी उज्ज्वल ज्वाला (प्रभा) से मानो हँस रही हैं-ऐसी वे दीपिकाएँ शोभित होती हैं वैसे ही वे दीपशिखा नामक वृक्ष भी अनेक और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम वाली उद्योतविधि से (प्रकाशों से) युक्त हैं। वे फलों से पूर्ण हैं, विकसित हैं, कुशविकुश से विशुद्ध उनके मूल हैं यावत् वे श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं ॥ ४॥ ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष [७] एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से अच्चिरुग्गय सरयसूरमंडल घडत उक्कासहस्सदिप्पंत विज्जुग्जालहुयवहनिलूमजलियनिद्धंत धोय तत्त तवणिज्ज किंसुयासोयजवाकुसुमविमुउलिय पुंज मणिरयणकिरण जच्चहिंगुलय निगररूवाइरेकरूवा तहेव ते जोतिसिहा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए उज्जोयविहीए उववेया सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्सा कूडाय इव ठाणठिया अन्न १. जोइसिया-इति पाठान्तरम Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मन्नसमोगाढाहिं लेस्साए साए पभाए सपदेसे सव्वओ समंता ओभासेंति उज्जोवेति पभासेंति; कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥५॥ [१११] (७) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से ज्योतिशिखा (ज्योतिष्क) नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे तत्काल उदित हुआ शरत्कालीन सूर्यमण्डल, गिरती हुई हजार उल्काएँ, चमकती हुई बिजली, ज्वालासहित निर्धूम प्रदीप्त अग्नि, अग्नि से शुद्ध हुआ तप्त तपनीय स्वर्ण, विकसित हुए किंशुक के फूलों, अशोकपुष्पों और जपा-पुष्पों का समूह, मणिरत्न की किरणें, श्रेष्ठ हिंगलू का समुदाय अपने-अपने वर्ण एवं आभारूप से तेजस्वी लगते हैं, वैसे ही वे ज्योतिशिखा (ज्योतिष्क) कल्पवृक्ष अपने बहुत प्रकार के अनेक परिणाम से उद्योत विधि से (प्रकाशरूप से) युक्त होते हैं। उनका प्रकाश सुखकारी है, तीक्ष्ण न होकर मंद हैं, उनका आताप तीव्र नहीं है, जैसे पर्वत के शिखर एक स्थान पर रहते हैं, वैसे ये अपने ही स्थान पर स्थिर होते हैं, एक दूसरे से मिश्रित अपने प्रकाश द्वारा ये अपने प्रदेश में रहे हुए पदार्थों को सब तरफ से प्रकाशित करते हैं, उद्योतित करते हैं, प्रभासित करते हैं। ये कल्पवृक्ष कुश-विकुश आदि से रहित मूल वाले हैं यावत् श्री से अतीव शोभायमान हैं ॥ ५॥ चित्रांग नामक कल्पवृक्ष [८] एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे चित्तंगाणाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा सेपेच्छाघरे विचित्ते रम्मेवरकुसुमदाममालुज्जले भासंत मुक्कपुष्फपुंजोवयारकलिए विरल्लिय विचित्तमल्लसिरिदाम मल्लसिरिसमुदयप्पगब्भेगंथिम वेढिम पूरिम संघाइमेणंमल्लेणं छेयसिप्पियं विभागरइएणंसव्वतोचेवसमणुबद्धे पविरललंबंतविप्पइटेहिं पंचवण्णेहिंकुसुमदामेहिं सोभमाणेहि सोभमाणे वणमालकयगाए चेव दिप्पमाणे, तहेव ते चित्तंगा विदुमगणाअणेग बहुविविहवीससापरिणयाए मल्लविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति ॥६॥ [१११] (८) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में यहाँ वहाँ बहुत सारे चित्रांग नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे कोई प्रेक्षाघर (नाट्यशाला) नाना प्रकार के चित्रों से चित्रित, रम्य, श्रेष्ठ फूलों की मालाओं से उज्ज्वल, विकसित-प्रकाशित बिखरे हुए पुष्प-पुंजों से सुन्दर, विरल-पृथक्-पृथक्रूप से स्थापित हुई एवं विविध प्रकार की गूंथी हुई मालाओं की शोभा के प्रकर्ष से अतीव मनमोहक होता है, ग्रथित-वेष्टित-पूरित-संघातिम मालाएं जो चतुर कलाकारों द्वारा गूंथी गई हैं उन्हें बड़ी ही चतुराई के साथ सजाकर सब ओर रखी जाने से जिसका सौन्दर्य बढ़ गया है, अलग अलग रूप से दूर दूर लटकती हुई पांच वर्णों वाली फूलमालाओं से जो सजाया गया हो तथा अग्रभाग में लटकाई हुई वनमाला से जो दीप्तिमान हो रहा हो ऐसे प्रेक्षागृह के समान वे चित्रांग कल्पवृक्ष भी अनेक बहुत और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम से माल्यविधि (मालाओं) से युक्त हैं। वे कुश-विकुश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अतीव सुशोभित हैं ॥६॥ चित्ररस नामक कल्पवृक्ष [९] एगोरुयदीवेणं दीवे ! तत्थ तत्थ बहवे चित्तरसा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :मण्यंग नामक कल्पवृक्ष] [२९९ जहा से सुगंधवरकलमसालिविसिणिरुवहत दुद्धरद्धे सारयघयगुडखंडमहुमेलिए अतिरसे परमण्णे होज्ज उत्तमवण्णगंधमंते, रणो जहा वा चक्कवट्टिस्स, होज्ज निउणेहि सूयपुरिसेहिं सज्जिएहिं वाउकप्पसेअसित्ते इव ओदणे कलमसालि णिव्यत्तिए विपक्के सवप्फमिउविसयसगलसित्थे अणेगसालणगसंजुत्ते अहवा पडिपुण्ण दव्वुवक्खडेसु सक्कए वण्णगंधरसफरिसजुत्त बलवीरिय परिणामे इंदियबलपुट्टिवद्धणेखुप्पिवासमहणे पहाण-कुथियगुलखंडमच्छंडिघय-उवणीए पमोयगे सण्हसमियगब्भे हवेज्ज परमइटुंगसंजुत्ते तहेव ते चित्तरसा विदुमगणाअणेग बहुविविहवीससापरिणयाए भोयणविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति ॥७॥ । [१११] (९) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे चित्ररस नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे सुगन्धित श्रेष्ठ कलम जाति के चावल और विशेष प्रकार की गाय से निसृत दोष रहित शुद्ध दूध से पकाया हुआ, शरद ऋतु के घी-गुड-शक्कर और मधु से मिश्रित अति स्वादिष्ट और उत्तम वर्णगंध वाला परमान्न (पायस-खीर या दूधपाक) निष्पन्न किया जाता है, अथवा जैसे चक्रवर्ती राजा के कुशल सूपकारों (रसोइयों) द्वारा निष्पादित चार उकालों से (कल्पों से) सिका हुआ, कलम जाति के ओदन जिनका एक-एक दाना वाष्प से सीझ कर मृदु हो गया है, जिसमें अनेक प्रकार के मेवा-मसाले डाले गये हैं, इलायची आदि भरपूर सुगंधित द्रव्यों से जो संस्कारित किया गया है, जो श्रेष्ठ वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्श से युक्त होकर बल-वीर्य रूप में परिणत होता है, इन्द्रियों की शक्ति को बढ़ाने वाला है, भूख-प्यास को शान्त करने वाला है, प्रधानरूप से चासनी रूप बनाये हुए गुड, शक्कर या मिश्री से युक्त किया हुआ है, गर्म किया हुआ घी डाला गया है, जिसका अन्दरूनी भाग एकदम मुलायम एवं स्निग्ध हो गया है, जो अत्यन्त प्रियकारी द्रव्यों से युक्त किया गया है, ऐसा परम आनन्ददायक परमान्न (कल्याण भोजन) होता है, उस प्रकार की (भोजन विधि सामग्री) से युक्त वे चित्ररस नामक कल्पवृक्ष होते हैं। उन वृक्षों में यह सामग्री नाना प्रकार के विस्रसा परिणाम से होती है। वे वृक्ष कुश-काश आदि से रहित मूल वाले और श्री से अतीव सुशोभित होते हैं ॥७॥ मण्यंग नामक कल्पवृक्ष _[१०] एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे मणियंगा नाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से हारद्धहार वट्टणग मउड-कुंडलवामुत्तगहेमजाल मणिजाल कणगजालग-सुत्तग उच्चिइय कटगा खुडिय एकावलि कंठसुत्त मकरिय उरत्थगेवेज्ज सोणि सुत्तग चूलामणि कणग तिलगफुल्लसिद्धत्थय कण्णवालि ससिसूर उसभ चक्कग तलभंग हुडिय हत्थमालग वलक्ख दीणारमालिया चंदसूरमालिया हरिसय केयूर वलयपालंब अंगुलेज्जग कंची मेहला कलाव फ्यरगपायजालघंटिय खिंखिणि रयणोरजालस्थिमियवरणेउरचलणमालिया कणगनिगरमालिया कंचनमणि रयण भत्तिचित्ता भूसणविधी बहुपगारा तहेव ते मणियंगा विदुमगणाअणेगबहुविविह वीससा परिणयाए भूसणविहीए उववेया, कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति ॥८॥ [१११] (१०) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से मण्यंग नामक कल्पवृक्ष Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३००] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हैं। जिस प्रकार हार (अठारह लडियों वाला) अर्धहार (नौ लडियों वाला), वेष्टनक (कर्ण का आभूषण), मुकुट, कुण्डल, वामोत्तक (छिद्र-जाली वाला आभूषण), हेमजालमणिजाल-कनकजाल (ये कान के आभूषण हैं), सत्रक (सोने का डोरा-उपनयन), उच्चयित कटक (उठा हुआ कड़ा या चूड़ी), मुद्रिका (अंगूठी), एकावली (मणियों की एक सूत्री माला), कण्ठसूत्र, मकराकार आभूषण, उरःस्कन्ध ग्रैवेयक (गले का आभूषण), श्रोणीसूत्र (करधनी-कन्दौरा), चूडामणि (मस्तक का भूषण), सोने का तिलक (टीका), पुष्प के आकार का ललाट का आभरण (बिंदिया), सिद्धार्थक (सर्षप प्रमाण सोने के दानों से बना भूषण), कर्णपाली (लटकन), चन्द्र के आकार का भूषण, सूर्य के आकार का भूषण, (ये बालों में लगाये जाने वाले पिन जैसे हैं), वृषभ के आकार के , चक्र के आकार के भूषण, तल भंगक-त्रुटिक (ये भुजा के आभूषण-भुजबंद हैं), मालाकार हस्ताभूषण, वलक्ष (गले का भूषण), दीनार की आकृति की मणिमाला, चन्द्र-सूर्यमालिका, हर्षक, केयूर, वलय, प्रालम्बनक (झुमका), अंगुलीयक (मुद्रिका), काञ्ची, मेखला, कलाप, प्रतरक, प्रातिहारिक, पाँव में पहने जाने वाले धुंघरु, किंकणी (बिच्छुडी), रत्नमय कन्दौरा, नूपुर, चरणमाला, कनकनिकर माला आदि सोना-मणि रत्न आदि की रचना से चित्रित और सुन्दर आभूषणों के प्रकार हैं उसी तरह वे मण्यंग वृक्ष भी नाना प्रकार के बहुत से स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर नाना प्रकार के भूषणों से युक्त होते हैं। वे दर्भ, कांस आदि से रहित मूल वाले हैं और श्री से अतीव शोभायमान गेहाकार कल्पवृक्ष [११] एगोरुयदीवेणंदीवेतत्थतत्थ बहवेगेहागारानामदुमगणापण्णत्तासमणाउसो! जहा से पागाराट्टालक चरियंगोपुरपासायाकासतल मंडव एगसाल विसालगतिसालग चउरंस चउसालगभघर मोहणघर वलभिघर चित्तसाल मालय भत्तियर वट्टतंस चउरंस दियावत्त संठियायत पंडुरतल मुंडमालहम्मियं अहव णं धवलहरअद्धमागहविब्भमसेलद्धसेल संठिय कूडागारड्ड सुविहिकोट्ठगअणेगघर सरणलेणआवण विडंगजाल चंदणिज्जूहअपवरक दोवालि चंदसालियरूव विभत्तिकलिया भवणविही बहुविकप्पा तहेव ते गेहागारा वि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससा परिणयाए सुहारूहणेसुहोत्ताराए सुहनिक्खमणप्पवेसाए ददरसोपाणपंति कलियाए पइरिक्काए सुहविहाराए मणोणुकूलाए भवणविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति ॥९॥ [१११] (११) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत से गेहाकार नाम के कल्पवृक्ष कहे गये हैं। जैसे-प्राकार (परकोटा), अट्टालक (अटारी), चरिका (प्राकार और शहर के बीच आठ हाथ प्रमाण मार्ग) द्वार (दरवाजा) गोपुर (प्रधानद्वार) प्रासाद (राजमहल) आकाशतल (अगासी) मंडप (पाण्डाल) एक खण्ड वाले मकान, दो खण्ड वाले मकान, तीन खण्ड वाले मकान, चौकोन, चार खण्ड वाले मकान गर्भगृह (भौंहरा) मोहनगृह (शयनकक्ष) वलभिघर (छज्जा वाला घर) चित्रशाला से सजित प्रकोष्ठ गृह, भोजनालय, गोल, तिकोने, चौरस, नंदियावर्त आकार के गृह, पाण्डुर-तलमुण्डमाल (छत Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :अनग्न कल्पवृक्ष] [३०१ रहित शुभ्र आंगन वाला घर) हर्म्य (शिखर रहित हवेली) अथवा धवल गृह (सफेद पुते सौध), अर्धगृहमागधगृह-विभ्रमगृह (विशिष्ट प्रकार के गृह) पहाड़ के अर्धभाग जैसे आकार के, पहाड़ जैसे आकार के गृह, पर्वत के शिखर के आकार के गृह, सुविधिकोष्टक गृह (अच्छी तरह से बनाये हुए कोठों वाला गृह) अनेक कोठों वाला गृह, शरणगृह. शयनगृह आपणगृह(दुकान) विडंग (छज्जा वाले गृह) जाली वाले घर नियूह (दरवाजे के आगे निकला हुआ काष्ठ भाग) कमरों और द्वार वाले गृह और चाँदनी आदि से युक्त जो नाना प्रकार के भवन होते हैं, उस प्रकार वे गेहाकार वृक्ष भी विविध प्रकार के बहुत से स्वाभाविक परिणाम से परिणत भवनों और गृहों से युक्त होते हैं। उन भवनों में सुखपूर्वक चढ़ा जा सकता है और सुखपूर्वक उतरा जा सकता है, उनमें सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण हो सकता है, उन भवनों के चढाव के सोपान (पंक्तियां) समीप-समीप हैं, विशाल होने से उनमें सुखरूप गमनागमन होता है और वे मन के अनुकूप होते हैं। ऐसे नाना प्रकार के भवनों से युक्त वे गेहाकार वृक्ष हैं। उनके मूल कुश-विकुश से रहित हैं और वे श्री से अतीव शोभित हैं ॥९॥ अनग्न कल्पवृक्ष - [१२] एगोरुयदीवेणं दीवेतत्थतत्थ बहवेअणिगणाणामं दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से आजिणगखोम कंबल दुगुल्ल कोसेज्ज कालमिग पट्टचीणंसुय वरणातवार वणिगयतु आभरण चित्त सहिणग कल्लाणग भिंगिणीलकज्जल बहुवण्ण रत्तपीत सुक्किलमक्खय मिगलोम हेमरूप्पवण्णगअवरुत्तग सिंधुओस दामिल बंगकलिंग नेलिण तंतुमयभत्तिचित्ता वत्थविही बहुप्पकारा हवेज्ज वरपट्टणुग्गया वण्णरागकलिया तहेव ते अणिगणावि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए वत्थविहीए उववेया कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंतिः ॥१०॥ - [१११] (१२) हे आयुष्मन् श्रमण! उस एकोरुक द्वीप में जहां-तहाँ अनग्न नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे-यहाँ नाना प्रकार के आजिनक-चर्मवस्त्र, क्षोम-कपास के वस्त्र, कंबल-ऊन के वस्त्र, दुकूल-मुलायम बारीक वस्त्र, कोशेय-रेशमी कीड़ों से निर्मित वस्त्र, काले मृग के चर्म से बने वस्त्र, चीनांशुक-चीन देश में निर्मित वस्त्र, (वरणात वारवणिगयतु-यह पाठ अशुद्ध लगता है। नाना देश प्रसिद्ध वस्त्र का वाचक होना चाहिए।) आभूषणों के द्वारा चित्रित वस्त्र, श्लक्ष्ण-बारीक तन्तुओं से निष्पन्न वस्त्र, कल्याणक वस्त्र (महोत्सवादि पर पहनने योग्य उत्तमोत्तम वस्त्र) भंवरी नील और काजल जैसे वर्ण के वस्त्र, रंग-बिरंगे वस्त्र, लाल-पीले सफेद रंग के वस्त्र, स्निग्ध मृगरोम के वस्त्र, सोने चाँदी के तारों से बना वस्त्र, ऊपर-पश्चिम देश का बना वस्त्र, उत्तर देस का बना वस्त्र, सिन्धु ऋषभ तामिल बंग-कलिंग के देशों में बना हुआ सूक्ष्म तन्तुमय बारीक वस्त्र, इत्यादि नाना प्रकार के वस्त्र हैं जो श्रेष्ठ नगरों में कुशल कारीगरों द्वारा बनाये जाते हैं, सुन्दर वर्ण रंग वाले हैं-उसी प्रकार वे अनग्न वृक्ष भी अनेक और बहुत प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत विविध वस्त्रों से युक्त हैं। वे वृक्ष कुश-काश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं ॥१०॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ ] .. [जीवाजीवाभिगमसूत्र एकोरुक द्वीप के मनुष्यों का वर्णन [१३] एगोरुयदीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! ते णं मणुस्सा अणुवमतरसोमचारुरूवा, भोगुत्तमगयलक्खणा भोगसस्सिरीया सुजाय सव्वंगसुंदरंगा, सुपइट्ठिय कुम्मचारुचलणा, रत्तुप्पल पत्तमउय सुकुमाल कोमलतला नगनगर सागर मगर चक्कंक वरंक लक्खणंकियचलणा अणुपुव्व सुसंहतंगुलीया उन्नत तणु तंबणिद्धणखा संठिया सुसिलिट्ठगूढगुप्फा एणी कुरुविंदावत्तवट्टाणुपुव्वजंघा समुग्गणिमग्गगूढजाणू गयससणसुजात सण्णिभोरू वरवारणमत्ततुल्ल विक्कम विलासियगई सुजातवरतुरग गुज्झदेसा आइण्णहओव्व णिरुवलेवा, पमुइय वर तुरियसीह अतिरेग वट्टियकडी साहयसोणिंद मूसल दप्पणणिगरित वरकणगच्छरुसरिस वर वइरपलिय मज्झा, उज्जुय समसहित सुजात जच्चतणुकसिणणिद्ध आदेज लडह सुकुमाल मउय रमणिज्जरोमराई, गंगावत्त पयाहिणावत्त तरंग भंगुर रविकिरण तरुण बोधित अकोसायंत पउम गंभीर वियडनाभी झसविहग सुजात पीणकुच्छी, झसोयरा सुइकरणा पम्हवियडनाभा सण्णयपासा संगतपासा सुजातपासा मितमाइय पीणरइयपासा अकरुंडयणगरुयगनिम्मल सुजाय निरुवहयदेहधारी पसत्थ बत्तीस लक्खणधरा कणगसिलातलुज्जल पसत्थ समतलोवचिय विच्छिन्न पिहुलवच्छा सिरिवच्छंकिवच्छा पुरवरफलिह वट्टिय भुजा, भुयगीसर विपुलभोग आयाण फलिह उच्छूढ दीहबाहू, जुगसन्निभ पीणरइयपीवर पउट्ठसंठिय सुसिलिट्ठ विसिट्ठ घणथिर सुबद्ध निगूढ पव्वसंधी रत्ततलोवइय मउयमंसल पसत्थ लक्खण सुजाय अच्छिद्दयालपाणी, पीवरवट्टिय सुजाय कोमल वरंगुलीया तंबतलिन सुचिरुइरणिद्ध णक्खा चंदपाणिलेहा सूरपाणिलेहा संखपाणिलेहा, चक्कपाणिलेहा दिसासोत्थिय पाणिलेहा चंदसूरसंखचक्कदिसासोत्थिय पाणिलेहाअणेगवर लक्खणुत्तम पसत्थरइय पाणिलेहा वरमहिस वराहसीह सदूल उसमणागवर पडिपुन विउल उन्नत खंधा, चउरंगुल सुप्पमाण कंबुवर सरिसगीवा अवट्ठित सुविभत्त सुजात चित्तमंसुमंसल संठिय पसत्थ सर्दूलविपुल हणुया,ओतविय सिलप्पवाल विंबफल सन्निभाहरोट्ठा पंडुरससि सगल विमल निम्मल संखगोखीरफेण दगरय मुणालिया धवल दंतसेढी अखंडदंता अफुडियदंता अविरलदंता सुजातदंता एगदंतसेढिव्व अणेगदंता हुतवह निद्धंतधोत तत्तवणिज्जरत्ततलतालुजोहा गरुलायय उज्जुतुंगणासा अवदालिय पोंडरीयनयणा कोकासितधवलपत्तलच्छा आणामिय चावरुइर किण्हब्भराइय संठिय संगय आयत सुजात तणुकसिणनिद्ध भुमया अल्लीणप्पमाणजुत्त सवणा सुस्सवणा पीणमंसल कवोलदेसभागा अचिरुग्गय बालचंदसंठिय पसत्थ विच्छिन्नसमणिडाला, उडुवइपडिपुण्णसोमवदणा छत्तागारुत्तमंगदेसा, घणनिचिय सुबद्ध लक्खणुण्णय कूडागारणिभपिंडियसीसे दाडिमपुप्फपगास तवणिज्जसरिस निम्मल सुजाय केसंत केसभूमी सामलिय बोंड घणाणिचिय छोडियमिउविसयपसत्थ सुहुम लक्खण सुगंध सुन्दर भुययोयग भिंगिणीलकज्जल पहट्ट भमरगण णिद्धणिकुरंब निचियकुंचियपदाहिणावत्तमुद्धसिरया, लक्खणवंजणगुणोववेया सुजाय सुविभत्त सुरूवगा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :एकोरुक द्वीप के पुरुषों का वर्णन] [३०३ ते णं मणुया हंसस्सरा कोंचस्सरा नंदिघोसा सीहस्सरा सीहयोसा मंजुस्सरा मंजुघोसा सुस्सरा सुस्सरनिग्घोसा छायाउज्जोतियंगमंगा वज्जरिसभनारायसंघयणा, समचउरंससंठाणसंठिया सिणिद्धछवी णिरायंका उत्तमपसत्थ अइसेसनिरुवमतणु जल्लमलकलंक सेयरयदोस वज्जियसरीरा निरुवमलेवा अणुलोमवाउवेगा कंकग्गहणी कवोतपरिणामा सउणिव्व पोसचिट्ठेतरोरुपरिणया विग्गहिय उन्नयकुच्छी पउमुप्पलसरिस गंधणिस्सास सुरभिवदणा अट्ठधणुसयं ऊसिया। तेसिं मणुयाणं चउसट्टि पिट्टिकरंडगा पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं मणुया पगइभद्दगा पगतिविणीयगा पगइउवसंता पगइपयणु कोहमाणमायालोभामिउमद्दव संपण्णाअल्लीण भद्दगा विणीया अप्पिच्छा असंनिहिसंचया अचंडा विडिमंतरपरिवसणा जहिच्छियकामगामिणो य ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। तेसिं णं भंते ! मणुयाणं केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! चउत्थभत्तस्स आहारढे समुप्पज्जइ । [१११] (१३) हे भगवन् ! एकोरुकद्वीप में मनुष्यों का आकार-प्रकारादि स्वरूप कैसा है ? हे गौतम ! वे मनुष्य अनुपम सौम्य और सुन्दर रूप वाले हैं। उत्तम भोगों के सूचक लक्षणों वाले हैं, भोगजन्य शोभा से युक्त हैं। उनके अंग जन्म से ही श्रेष्ठ और सर्वांग सुन्दर हैं। उनके पांव सुप्रतिष्ठित और कछुए की तरह सुन्दर (उन्नत) हैं, उनके पांवों के तल लाल और उत्पल (कमल) के पत्ते के समान मृदु, मुलायम और कोमल हैं, उनके चरणों में पर्वत, नगर, समुद्र, मगर, चक्र, चन्द्रमा आदि के चिन्ह हैं, उनके चरणों की अंगुलियाँ क्रमशः बड़ी छोटी (प्रमाणोपेत) और मिली हुई हैं, उनकी अंगुलियों के नख उन्नत (उठे हुए) पतले ताम्रवर्ण के एवं स्निग्ध (कांति वाले) हैं । उनके गुल्फ (टखने) संस्थित (प्रमाणोपेत) घने और गूढ हैं, हरिणी और कुरुविंद (तृणविशेष) की तरह उनकी पिण्डलियां क्रमशः स्थूल-स्थूलतर और गोल हैं, उनके घुटने संपुट में रखे हुए की तरह गूढ (अनुपलक्ष्य) हैं, उनकी उरू-जांघे हाथी की सूंड की तरह सुन्दर, गोल और पुष्ट हैं, श्रेष्ठ मदोन्मत्त हाथी की चाल की तरह उनकी चाल है, श्रेष्ठ घोड़े की तरह उनका गुह्यदेश सुगुप्त है, आकीर्णक अश्व की तरह मलमूत्रादि के लेप से रहित है, उनकी कमर यौवनप्राप्त श्रेष्ठ घोड़े और सिंह की कमर जैसी पतली और गोल है, जैसे संकुचित की गई तिपाई, मूसल दर्पण का दण्ड और शुद्ध किये हुए सोने की मूंठ बीच में से पतले होते हैं उसी तरह उनकी कटि (मध्यभाग) पतली है, उनकी रोमराजि सरल-सम-सघन-सुन्दर-श्रेष्ठ, पतली, काली, स्निग्ध, आदेय, लावण्यमय, सुकुमार, सुकोमल और रमणीय है, उनकी नाभि गंगा के आवर्त की तरह दक्षिणावर्त तरंग (त्रिवली) की तरह वक्र और सूर्य की उगती किरणों से खिले हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल है। उनकी कुक्षि (पेट के दोनों भाग) मत्स्य और पक्षी की तरह सुन्दर और पुष्ट हैं, उनका पेट मछली की तरह कृश है, उनकी इन्द्रियां पवित्र हैं, इनकी नाभि कमल के समान विशाल है, इनके पार्श्वभाग नीचे नमे हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्म से सुन्दर हैं, परिमित मात्रा युक्त, स्थूल और आनन्द देने वाले हैं, उनकी पीठ की हड्डी मांसल होने से अनुपलक्षित Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र होती है, उनके शरीर कञ्चन की तरह कांति वाले निर्मल सुन्दर और निरुपहृत (स्वस्थ) होते हैं, वे शुभ बत्तीस लक्षणों से युक्त होते हैं, उनका वक्षः-स्थल कश्चन की शिलातल जैसा उज्ज्वल, प्रशस्त, समतल पुष्ट, विस्तीर्ण और मोटा होता है, उनकी छाती पर श्रीवत्स का चिन्ह अंकित होता है. उनकी भजा नगर की अर्गला के समान लम्बी होती है, इनके बाहु शेषनाग के विपुल-लम्बे शरीर तथा उठाई हुई अर्गला के समान लम्बे होते हैं। इनके हाथों की कलाइयां (प्रकोष्ठ) जूए के समान दृढ, आनन्द देने वाली, पुष्ट, सुस्थित, सुश्लिष्ट (सघन), विशिष्ट, घन, स्थिर, सुबद्ध और निगूढ पर्वसन्धियों वाली हैं। उनकी हथेलियां लाल वर्ण की, पुष्ट, कोमल, मांसल, प्रशस्त लक्षणयुक्त, सुन्दर और छिद्र जाल रहित अंगुलियाँ वाली हैं। उनके हाथों की अंगुलियाँ पुष्ट, गोल, सुजात और कोमल हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के, पतले, स्वच्छ, मनोहर और स्निग्ध होते हैं। इनके हाथों में चन्द्ररेखा, सूर्यरेखा, शंखरेखा, चक्ररेखा, दक्षिणावर्त स्वस्तिकरेखा, चन्द्र-सूर्य-शंख-चक्रदक्षिणावर्तस्वस्तिक की मिलीजुली रेखाएँ होती हैं। अनेक श्रेष्ठ, लक्षण युक्त उत्तम, प्रशस्त, स्वच्छ, आनन्दप्रद रेखाओं से युक्त उनके हाथ हैं। उनके स्कंध श्रेष्ठ भैंस, वराह, सिंह, शार्दूल (व्याघ्र), बैल और हाथी के स्कंध की तरह प्रतिपूर्ण, विपुल और उन्नत हैं। उनकी ग्रीवा चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख के समान है, उनकी ठुड्ढी (होठों के नीचे का भाग) अवस्थित-सदा एक समान रहने वाली, सुविभक्त-अलगअलग सुन्दररूप से उत्पन्न दाढ़ी के बालों से युक्त, मांसल, सुन्दर संस्थान युक्त, प्रशस्त और व्याघ्र की विपुल ठुड्ढी के समान है, उनके होठ परिकर्मित शिलाप्रवाल और बिंबफल के समान लाल हैं। उनके दांत सफेद चन्द्रमा के दुकडों जैसे विमल-निर्मल हैं और शंख, गाय का दूध, फेन, जलकण और मृणालिका के तंतुओं के समान सफेद हैं, उनके दांत अखण्डित होते हैं, टूटे हुए नहीं होते, अलग-अलग नहीं होते, वे सुन्दर दांत वाले हैं, उनके दांत अनेक होते हुए भी एक पंक्तिबद्ध हैं। उनकी जीभ और तालु अग्नि में तपाकर धोये गये और पुनः तप्त किये गये तपनीय स्वर्ण के समान लाल है। उनकी नासिका गरुड़ की नासिका जैसी लम्बी, सीधी और ऊँची होती है। उनकी आँखें सूर्यकिरणों से विकसित पुण्डरीक कमल जैसी होती हैं तथा वे खिले हुए श्वेतकमल जैसी कोनों पर लाल, बीच में काली और धवल तथा पश्मपुट वाली होती हैं। उनकी भौहें ईषत् आरोपित धनुष के समान वक्र, रमणीय, कृष्ण मेघराजि की तरह काली, संगत (प्रमाणोपेत), दीर्घ, सुजात, पतली, काली और स्निग्ध होती हैं। उनके कान मस्तक के भाग तक कुछ-कुछ लगे हुए और प्रमाणोपेत हैं। वे सुन्दर कानों वाले हैं अर्थात् भलीप्रकार श्रवण करने वाले है। उनके कपोल (गाल) पीन और मांसल होते हैं। उनका ललाट नवीन उदित बालचन्द्र (अष्टमी के चांद) जैसा प्रशस्त, विस्तीर्ण और समतल होता है। उनका मुख पूर्णिमा के चन्द्रमा जैसा सौम्य होता है। उनका मस्तक छत्राकार और उत्तम होता है। उनका सिर घन-निविड-सुबद्ध, प्रशस्त लक्षणों वाला, कूटाकार (पर्वतशिखर) की तरह उन्नत और पाषाण की पिण्डी की तरह गोल और मजबूत होता है। उनकी खोपड़ी की चमड़ी (केशान्तभूमि) दाडिम के फूल की तरह लाल, तपनीय सोने के समान निर्मल और सुन्दर होती है। उनके मस्तक के बाल खुले किये जाने पर भी शाल्मलि के फल की तरह घने और निविड होते हैं। वे बाल मृदु, निर्मल, प्रशस्त, सूक्ष्म, लक्षणयुक्त, सुगंधित, सुन्दर, भुजभोजक (रत्नविशेष), नीलमणि (मरकतमणि), भंवरी, नील और काजल के समान काले, हर्षित Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक स्त्रियों का वर्णन] [३०५ भ्रमरों के समान अत्यन्त काले, स्निग्ध और निचित-जमे हुए होते हैं, वे धुंघराले और दक्षिणावर्त होते हैं। वे मनुष्य लक्षण, व्यंजन और गुणों से युक्त होते हैं। वे सुन्दर और सुविभक्त स्वरूप वाले होते हैं। वे प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप होते हैं। ये मनुष्य हंस जैसे स्वर वाले, क्रौंच जैसे स्वर वाले, नंदी (बारह वाद्यों का समिश्रित स्वर) जैसे घोष करने वाले, सिंह के समान स्वर वाले और गर्जना करने वाले, मधुर स्वर वाले, मधुर घोष वाले, सुस्वर वाले, सुस्वर और सुघोष वाले, अंग-अंग में कान्ति वाले, वज्रऋषभनाराचसंहनन वाले, समचतुरस्रसंस्थान वाले, स्निग्धछवि वाले, रोगादि रहित, उत्तम प्रशस्त अतिशययुक्त और निरुपम शरीर वाले, स्वेद (पसीना) आदि मैल के कलंक से रहित और स्वेद-रज आदि दोषों से रहित शरीर वाले, उपलेप से रहित, अनुकूल वायु वेग वाले, कंक पक्षी की तरह निर्लेप गुदाभाग वाले, कबूतर की तरह सब पचा लेने वाले, पक्षी की तरह मलोत्सर्ग के लेप से रहित अपानदेश वाले, सुन्दर पृष्टभाग, उदर और जंघा वाले, उन्नत और मुष्टिग्राह्य कुक्षि वाले और पद्मकमल और उत्पलकमल जैसी सुगंधयुक्त श्वासोच्छ्वास से सुगंधित मुख वाले मनुष्य - उनकी ऊँचाईं आठ सौ धनुष की होती है । हे आयुष्मन् श्रमण ! उन मनुष्यों के चौसठ पृष्ठ करंडक (पसलियां) हैं। वे मनुष्य स्वभाव से भद्र, स्वभाव से विनीत, स्वभाव से शान्त, स्वभाव से अल्प क्रोधमान-माया, लोभ वाले, मृदुता और मार्दव से सम्पन्न होते हैं, अल्लोन (संयत चेष्टा वाले) हैं, भद्र, विनीत, अल्प, इच्छा वाले, संचय-संग्रह न करने वाले, क्रूर परिणामों से रहित, वृक्षों की शाखाओं के अन्दर रहने वाले तथा इच्छानुसार विचरण करने वाले वे एकोरुकद्वीप के मनुष्य हैं। हे भगवन् ! उन मनुष्यों को कितने काल के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है ? हे गौतम ! उन मनुष्यों को चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आहार की अभिलाषा होती है। एकोरुकस्त्रियों का वर्णन [१४] एगोरुयमणुई णं भंते ! केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्त ? गोयमा ! ताओ णं मणुईओ सुजायसव्वंगसुंदरीओ पहाणमहिलागुणेहिं जुत्ता अच्चंत विसप्पमाण पउम सुमाल कुम्मसंठिय विसिट्ठचलणाओ उज्जुमिउय पीवर निरंतर पुटु सोहियंगुलीआ उन्नयरइद तलिणतंबसुइणिद्धणखा रोमरहित वट्टलट्ठ संठियअजहण्ण पसत्थ लक्खण अकोप्पजंघयुगला सुणिम्मिय सुगूढजाणुमंडलसुबद्धसंधी कयलिक्खंभातिरेग संठियणिव्वण सुकुमाल मउयकोमल अविरल समसहितसुजात वट्ट पीवरणिरंतरोरु अट्ठावयवीचिपट्टसंठिय पसत्थ विच्छिन्न पिहुलसोणी वदणायामप्पमाणदुगुणित विसाल मंसल सुबद्ध जहणवरधारणीओ वजविराइयपसत्थलक्खणणिरोदरा तिवलि वलियतणुणमिय मज्झिमाओ उज्जुय समसंहित जच्चतणुकसिण णिद्धआदेज लडह सुविभत्त सुजात कंतसोभंत रुइल रमणिज्जरोमराई गंगावत्त Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पदाहिणावत्त तरंग भंगुररविकिरण तरुणबोधित अकोसायंत पउमवणगंभीरवियडनाभी अणुब्भडपसत्थ पीणकुच्छी सण्णयपासा संगयपासा सुजातपासा मितसाइयपीण रइयपासा अकरंडुय कणगरुयगनिम्मल सुजाय णिरुवहय गायलट्ठी कंचणकलससमपमाण समसंहितसुजात लट्ठचूचुयआमेलगजमल जुगल वट्टियअब्भुण्णयरइयसंठिय पयोधराओ भुयंगणुपुव्वतणुयगोपुच्छ वट्ट समसंहित णमिय आएज्ज ललिय बाहाओ तंबणहा मंसलग्गहत्था पीवरकोमल वरंगुलीओ णिद्धपाण्लेिहा रविससि संख चक्कसोत्थिय सुविभत्त सुविरइय पाणिलेहा पीणुण्णय कक्खवत्थिदेसा पडिपुण्णगल्लकवोला चउरंगुलप्पमाण कंबुवर सरिसगीवा मंसलसंठिय पसत्थ हणुया दाडिमपुप्फप्पगास पीवरकुंचियवराधरा सुंदरोत्तरोट्ठा दधिदगरय चंदकुंद वासंतिमउल अच्छिद्दविमलदसणा रत्तुप्पल पत्तमडय सुकुमाल तालुपीहा कणयवरमुउल अकुडिल अब्भुग्गय उज्जुतुंगनासा सारदनवकमलकुमुदकुवलय विमुक्कदलणिगर सरिस लक्खण अंकियकंतणयणा पत्तल चवलायंततं बलोयणाओ आणामिय चावरुइलकिण्हब्भराइसंठिय संगत आयय सुजाय कसिण णिद्धभमुया अल्लीणपमाणजुत्तसवणा पीणमट्ठरमणिज्ज गंडलेहा चउरंस पसत्थसमणिडाला कोमुइर यणिकरविमलपडि पुन्नसोमवयणा छत्तुन्नयउत्तिमंगा कुडिलसुसिणिद्धदीहसिरया, छत्तज्झयजुगथूभदामिणिकमंडलुकलसवाविसोत्थियपडागजवमच्छकुम्भरहवरमकरसुकथालअंकुसअट्ठावइवीइसुपइट्ठकमयूरसिरिदामाभिसेयतोरणमेइणिउदधिवरभवणगिरिवरआयंसललियगयउसभसीहयमरउत्तमपसत्थबत्तीसलक्खण धराओ, हंससरिसगईओ कोइलमधुरगिरसुस्सरीओ, कंता सव्वस्स अणुनयाओ, ववगतवलिपलिया, वंगदुव्वण्णवाहिदोभग्गसोगमुक्काओ उच्चात्तेणं य नराण थोवूणलूसियाओ सभावसिंगारागारचारुवेसा संगयगतहसितभामियचेट्ठियविलाससंलावणिउणजुत्तो वयारकुसला सुंदरथणजहणवदणकरचलणनयणमाला वण्णलावण्णजोवणविलासकलिया नंदणवण विवरचारिणीउव्व अच्छराओ अच्छेरगपेच्छणिज्जा पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ। तासिं णं भंते ! मणुईणिं केवइकालस्स आहारटे समुप्पज्जइ ? गोयमा ! चउत्थभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ। [१११] (१४) हे भगवन् ! इस एकोरुक-द्वीप की स्त्रियों का आकार-प्रकार-भाव कैसा कहा गया है? गौतम ! वे स्त्रियां श्रेष्ठ अवयवों द्वारा सर्वांगसुन्दर हैं, महिलाओं के श्रेष्ठ गुणों से युक्त हैं। उनके चरण अत्यन्त विकसित पद्मकमल की तरह सुकोमल और कछुए की तरह उन्नत होने से सुन्दर आकार के हैं। उनके पांवों की अंगुलियां सीधी, कोमल, स्थूल, निरन्तर, पुष्ट और मिली हुई हैं। उनके नख उन्नत, रति देने वाले, तलिन,-पतले ताम्र जैसे रक्त, स्वच्छ एवं स्निग्ध हैं। उनकी पिण्डलियां रोमरहित, गोल, सुन्दर, संस्थित, उत्कृष्ट शुभलक्षणवाली और प्रीतिकर होती हैं । उनके घुटने सुनिर्मित, सुगूढ और सुबद्धसंधि वाले Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: एकोरुक स्त्रियों का वर्णन] [३०७ हैं, उनकी जंघाएँ कदली के स्तम्भ से भी अधिक सुन्दर, व्रणादि रहित, सुकोमल, मृदु, कोमल, पास-पास, समान प्रमाणवाली, मिली हुई, सुजात, गोल, मोटी एवं निरन्तर हैं, उनका नितम्बभाग अष्टापद द्यूत के पट्ट के आकार का, शुभ, विस्तीर्ण और मोटा है, (बारह अंगुल) मुखप्रमाण से दूना चौबीस अंगुलप्रमाण, विशाल, मांसल एवं सुबद्ध उनका जघनप्रदेश है, उनका पेट वज्र की तरह सुशोभित, शुभ लक्षणों वाला और पतला होता है, उनकी कमर त्रिवली युक्त, पतली और लचीली होती है, उनकी रोमराजि सरल, सम, मिली हुई, जन्मजात पतली, काली, स्निग्ध, सुहावनी, सुन्दर, सुविभक्त, सुजात (जन्मदोषरहित), कांत, शोभायुक्त, रुचिर और रमणीय होती है। उनकी नाभि गंगा के आवर्त की तरह दक्षिणावर्त, तरंग भंगुर (त्रिवलि से विभक्त) सूर्य की किरणों से ताजे विकसित हुए कमल की तरह गंभीर और विशाल है। उनकी कुक्षि उग्रता रहित, प्रशस्त और स्थूल है। उनके पार्श्व कुछ झुके हुए हैं, प्रमाणोपेत हैं, सुन्दर हैं, जन्मजात सुन्दर हैं, परिमितमात्रायुक्त स्थूल और आनन्द देने वाले है। उनका शरीर इतना मांसल होता है कि उसमें पीठ की हड्डी और पसलियां दिखाई नहीं देतीं। उनका शरीर सोने जैसी कान्तिवाला, निर्मल, जन्मजात सुन्दर और ज्वरादि उपद्रवों से रहित होता है। उनके पयोधर (स्तन) सोने के कलश के समान प्रमाणोपेत, दोनों (स्तन) बराबर मिले हुए, सुजात और सुन्दर हैं, उनके चूचुक उन स्तनों पर मुकुट के समान लगते हैं। उनके दोनों स्तन एक साथ उत्पन्न होते हैं और एक साथ वृद्धिंगत होते हैं। वे गोल उन्नत (उठे हुए) और आकार-प्रकार से प्रीतिकारी होते हैं। उनकी दोनों बाहु भुजंग की तरह क्रमशः नीचे की ओर पतली गोपुच्छ की तरह गोल, आपस में समान, अपनी-अपनी संघियों से सटी हुई, नम्र और अति आदेय तथा सुन्दर होती हैं। उनके नख ताम्रवर्ण के होते हैं। इनका पंजा मांसल होता है, उनकी अंगुलियां पुष्ट, कोमल और श्रेष्ठ होती हैं। उनके हाथ की रेखायें स्निग्ध होती हैं। उनके हाथ में सूर्य, चन्द्र, शंख-चक्र-स्वस्तिक की अलग-अलग और सुविरचित रेखाएँ होती हैं। उनके कक्ष और वस्ति (नाभि के नीचे का भाग) पीन और उन्नत होता है। उनके गाल-कपोल भरे-भरे होते हैं, उनकी गर्दन चार अंगुल प्रमाण और श्रेष्ठ शंख की तरह होती है। उनकी ठुड्डी मांसल, सुन्दर आकार की तथा शुभ होती है। उनका नीचे का होठ दाडिम के फूल की तरह लाल और प्रकाशमान, पुष्ट और कुछ-कुछ वलित होने से अच्छा लगता है। उनका ऊपर का होठ सुन्दर होता है। उनके दांत दही, जलकण, चन्द्र, कुंद, वासंतीकली के समान सफेद और छेदविहीन होते हैं, उनका तालू और जीभ लाल कमल के पत्ते के समान लाल, मृदु और कोमल होते हैं। उनकी नाक कनेर की कली की तरह सीधी, उन्नत, ऋजु और तीखी होती है। उनके नेत्र शरदऋतु के कमल और चन्द्रविकासी नीलकमल के विमुक्त पत्रदल के समान कुछ श्वेत, कुछ लाल और कुछ कालिमा लिये हुए और बीच में काली पुतलियों से अंकित होने से सुन्दर लगते हैं। उनके लोचन पश्मपुटयुक्त, चंचल, कान तक लम्बे और ईषत् रक्त (ताम्रवत्) होते है। उनकी भौंहें कुछ नमे हुए धनुष ती तरह टेढी, सुन्दर, काली और मेघराजि के समान प्रमाणोपेत, लम्बी, सुजात, काली और स्निग्ध होती हैं। उनके कान मस्तक से कुछ लगे हुए और प्रमाणयुक्त होते हैं। उनकी गंडलेखा (गाल और कान के बीच का भाग) मांसल चिकनी और रमणीय होती है। उनका ललाट चौरस, प्रशस्त और समतल होता है, उनका मुख कार्तिकपूर्णिमा के चन्द्रमा की तरह निर्मल और परिपूर्ण होता है। उनका Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मस्तक छत्र के समान उन्नत होता है। उनके बाल धुंघराले स्निग्ध और लम्बे होते हैं । वे निम्नलिखित बत्तीस लक्षणों को धारण करने वाली हैं १ छत्र, २ ध्वज, ३ युग (जुआ), ४ स्तूप, ५ दामिनी (पुष्पमाला), ६ कमण्डलु, ७ कलश, ८ वापी (बावडी), ९ स्वस्तिक, १० पताका, ११ यव, १२ मत्स्य, १३ कुम्भ, १४ श्रेष्ठरथ, १५ मकर, १६ शुकस्थाल (तोते को चुगाने का पात्र), १७ अंकुश, १८ अष्टापदवीचिबूतफलक, १९ सुप्रतिष्ठक स्थापनक, २० मयूर, २१ श्रीदाम (मालाकार आभरण), २२ अभिषेक-लक्ष्मी का अभिषेक करते हुए हाथियों का चिन्ह, २३ तोरण, २४ मेदिनीपति-राजा, २५ समुद्र, २६ भवन, २७ प्रासाद, २८ दर्पण, २९ मनोज्ञ हाथी, ३० बैल, ३१ सिंह और ३२ चमर। वे एकोरुक द्वीप की स्त्रियां हंस के समान चाल वाली हैं। कोयल के समान मधुर वाणी और स्वर वाली, कमनीय और सबको प्रिय लगने वाली होती हैं। उनके शरीर में झुर्रियां नहीं पड़ती और बाल सफेद नहीं होते। वे व्यंग्य (विकृति), वर्णविकार, व्याधि, दौर्भाग्य और शोक से मुक्त होती हैं। वे ऊँचाईं में पुरुषों की अपेक्षा कुछ कम ऊँची होती हैं। वे स्वाभाविक शृंगार और श्रेष्ठ वेश वाली होती हैं। वे सुन्दर चाल, हास, बोलचाल, चेष्टा, विलास, संलाप में चतुर तथा योग्य उपचार-व्यवहार में कुशल होती हैं। उनके स्तन, जघन, मुख, हाथ, पाँव और नेत्र बहुत सुन्दर होते हैं । वे सुन्दर वर्ण वाली, लावण्य वाली, यौवन वाली और विलासयुक्त होती हैं। नंदनवन में विचरण करने वाली अप्सराओं की तरह वे आश्चर्य से दर्शनीय हैं । वे स्त्रियां देखने पर प्रसन्नता उत्पन्न करती हैं, वे दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। हे भगवन् ! उन स्त्रियों को कितने काल के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है ? गौतम ! चतुर्थभक्त अर्थात् एक दिन छोड़कर दूसरे दिन आहार की इच्छा होती है। १११. (१५) ते णं भंते ! मणुया किमाहारमाहारेंति ? गोयमा ! पुढविपुष्फफलाहारा ते मणुयगणा पण्णत्ता, समणाउसो ! तीसे णं भंते ! पुढवीए केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहाणामए गुलेइ वा खंडेइ वा सक्कराइ वा मच्छंडियाइ वा भिसकंदेइ वा पप्पडमोयएइवा, पुष्फउत्तराइ वा, पउमउत्तराइ वा, अकोसियाइवा, विजयाइवा, महाविजयाइ वा,आयंसोवमाइवा, अणोवमाइ वा, चाउरक्के गोखीरे चउठाणपरिणए गुडखंडमच्छंडि उवणीए . मंदग्गिकडीए वण्णेणं उववेए जाव फासेणं, भवेयारूवे सिया ? णो इण→ समढे ! तीसे णं पुढवीए एत्तो इट्ठतराए चेव मणामतराए चेव आसाए णं पण्णत्ते। तेसिं णं पुष्फफलाणं केरिसए आसाए पण्णत्ते ? गोयमा ! से जहानामए चाउरंतचक्कवट्टिस्स कल्लाणे पवरभोयणे सयसहस्सनिप्फन्ने वण्णेणं उववेते गंधेणं उववेते रसेण उववेते फासेणं उववेते आसाइणिज्जे वीसाइणिज्जे दीवणिज्जे विंहणिजे दप्पणिज्जे मयणिज्जे सव्विंदियगायपल्हाणिज्जे भवेयारूवे सिया ? Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन] [ ३०९ तट्ठे सट्टे ! स णं पुप्फफलाणं एत्तो इट्ठतराए चेव जाव आस्साए णं पण्णत्ते । णं भंते! मणुया तमाहारमाहारित्ता कहिं वसहिं उवेंति ? गोयमा ! रुक्खगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! ते णं भंते! रुक्खा किंसंठिया पण्णत्ता ? गोयमा ! कूडागारसंठिया पेच्छाघरसंठिया, छत्तागारसंठिया झयसंठिया थूमसंठिया तोरणसंठिया गोपुरवेइयचोपालगसंठिया, अट्टालकसंठिया पासादसंठिया हम्मतलसंठिया गवक्खसंठिया वाल्लगपोइयसंठिया वलभिसंठिया अण्णे तत्थ बहवे वरभवणसयणासणविसिट्ठ संठाणसंठिया सुहसीयलच्छाया णं ते दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! [१११] (१५) हे भगवन् ! वे मनुष्य कैसा आहार करते हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य पृथ्वी, पुष्प और फलों का आहार करते हैं । हे भगवन् ! उस पृथ्वी का स्वाद कैसा है ? गौतम ! जैसे गुड़, खांड, शक्कर, मिश्री, कमलकन्द, पर्पटमोदक, पुष्पविशेष से बनी शक्कर, कमलविशेष से बनी शक्कर, अकोशिता, विजया, महाविजया, आदर्शोपमा, अनोपमा (ये मधुर द्रव्य विशेष हैं) का स्वाद होता है वैसा उस मिट्टी का स्वाद है । अथवा ' चार बार परिणत एवं चतुःस्थान परिणत गाय दूध जो गुड़, शक्कर, मिश्री मिलाया हुआ, मंदाग्नि पर पकाया गया तथा शुभवर्ण, शुभगंध, शुभरस और शुभस्पर्श से युक्त हो, ऐसे गोक्षीर जैसा वह स्वाद होता है क्या ? गौतम ! यह बात समर्थित नहीं है । उस पृथ्वी का स्वाद इससे भी अधिक इष्टतर यावत् मनोज्ञतर होता है। हे भगवन् ! वहाँ के पुष्पों और फलों का स्वाद कैसा होता है ? गौतम ! जैसे चातुरंतचक्रवर्ती का भोजन जो कल्याणभोजन के नाम से प्रसिद्ध है, जो २ लाख गायों से निष्पन्न होता है, जो श्रेष्ठ वर्ण से गंध से, रस से और स्पर्श से युक्त है, आस्वादन के योग्य है, पुनः पुनः आस्वादन योग्य है, जो दीपनीय (जठराग्निवर्धक) है, वृंहणीय (धातुवृद्धिकारक ) है दर्पणीय (उत्साह आदि बढाने वाला) है, मदनीय ( मस्ती पैदा करने वाला) है और जो समस्त इन्द्रियों को और शरीर को आनन्ददायक होता है, क्या ऐसा उन पुष्पों और फलों का स्वाद है ? गौतम ! यह बात ठीक नहीं हैं। उन पुष्प फलों का स्वाद उससे भी अधिक इष्टतर, कान्ततर, ,प्रियतर, १. पौण्ड इक्षु चरने वाली चार गायों का धूध तीन गायों को पिलाया, तीन गायों का दूध दो गायों को पिलाना, उन दो गायों का दूध एक गाय को पिलाना, उसका जो दूध है वह चार बार परिणत और चतुःस्थानक परिणत कहलाता है। २. पुण्ड्र जाति के इक्षु को चरने वाली एक लाख गायों का दूध पचास हजार गायों को पिलाया जाय, उन पचास हजार गायों का दूध पच्चीस हजार गायों को पिलाया जाय, इस तरह से आधी-आधी गायों को पिलाने के क्रम से वैसे दूध को पी हुई गायों में की अन्तिम गाय का जो दूध हो, उस दूध से बनाई हुई खीर जिसमें विविध मेवे आदि द्रव्य डाले गये हों वह चक्रवर्ती का कल्याणभोजन कहलाता है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मनोज्ञतर और मनामतर होता है । हे भगवन् ! उक्त प्रकार के आहार का उपभोग करके वे कैसे निवासों में रहते हैं ? आयुष्मन् ! वे मनुष्य गेहाकार परिणत वृक्षों में रहते हैं । भगवन् ! उन वृक्षों का आकार कैसा होता है ? 2 गौतम ! वे पर्वत के शिखर के आकार के, नाट्यशाला के आकार के छत्र के आकार के, ध्वजा के आकार के, स्तूप के आकार के, तोरण के आकार के, गोपुर जैसे, वेदिका जैसे, चोप्याल ( मत्तहाथी) के आकार के, अट्टालिका के जैसे, राजमहल जैसे, हवेली जैसे, गवाक्ष जैसे, जल-प्रासाद जैसे, वल्लभी, (छज्जावाले घर) के आकार के हैं तथा हे आयुष्मन् श्रमण ! और भी वहाँ वृक्ष हैं जो विविध भवनों, शयनों आसनों आदि के विशिष्ट आकार वाले और सुखरूप शीतल छाया वाले हैं । १११. (१६) अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे गेहाणि वा गेहावणाणि वा ? णो तिणट्ठे समट्ठे । रुक्खगेहालया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे गामाइ वा नगराइ वा जाव सन्निवेसाइ वा ? णो तिट्ठे समट्ठे । जहिच्छिय कामगामिणो ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे असीइ वा मसीड़ वा कसीइ वा पणीइ वा वणिज्जाइ वा ? नो तिणट्ठे समट्ठे । ववगयअसिमसिकिसिपणियावणिज्जा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे दीवे हिरण्णेइ वा सुवण्णेइ वा कंसेइ वा दूसेइ वा मणीइ वा मुत्तिएइ वा विपुलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालसंतसारसावएज्जइ वा ? हंता अस्थि, णो चेवणं तेसिं मणुयाणं तिव्वे ममत्तभावे समुप्पज्जति । अस्थि भंते! एगोरुयदीवे राया इवा, जुवराया इ वा ईसरे इ वा तलवरे इ वा माडंबिया इवा कोडुंबिया इ वा इब्भा इ वा सेट्ठी इ वा सेणावई इ वा सत्थवाहा इ वा ? णो तिट्ठे समट्ठे । ववगतइड्डिसक्कारा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे दासाइ वा पेसाइ वा सिस्साइ वा भयगाइ वा भाइल्लगाइ वा कम्मरपुरिसा इ वा ? तो तिणट्ठे समट्ठे । ववगयआभिओगिया णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे माया इ वा पिया इ वा भाया इ वा भइणी इ वा भज्जाइ वा पुत्ताइ वा धूयाइ वा सुण्हाइ वा ? हंता अत्थि । नो चेव णं तेसिं मणुयाणं तिव्वे पेमबंधी समुप्पज्जति, पयणुपेज्जबंधणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे अरीइ वा वेरिएइ वा घायकाइ वा वहकाइ वा पडिणीयाइ वा पच्चमित्ताइ वा ? णो तिणट्ठे समट्ठे । ववगतवेराणुबंधा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन] [३११ - अत्थि णं भंते ! एगोरुए दीवे मित्ताइ वा वयंसाइ वा घडियाइ वा सहीइ वा सुहियाइ वा महाभागाइ वा संगइयाइ वा। णो तिणटे समढे। ववगयपेम्मा ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थिणं भंते ! एगोरुयदीवे आबाहाइ वा विवाहाइ वाजण्णाइ वा सड्ढाइ वा थालिपाका वा चोलोवणयणाइ वा, सीमंतुण्णयणाइ वा ' पिइपिंडनिवेयणाइ वा ? णो तिणढे समढे।ववगतआबाहविवाहजण्णसड्डथालिपागचोलोवणयणसीमंतुण्णयण' पिइपिंडनिवेदणा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे इंदमहाइ वा खंदमहाइ वा रुद्दमहाइ वा सिवमहाइ वा वेसमणमहाइ वा मुगुंदमहाइ वा णागमहाइ वा जक्खमहाइ वा भूयमहाइ वा कूवमहाइ वा तलायणईमहाइ वा दहमहाइ वा पव्वयमहाइ वा रुक्खरोवणमहाइ वा चेइयमहाइ वा थूब्भमहाइ वा? णो तिणढे समढे। ववगय महमहिमा णं ते मणुयगणा पत्ता समणाउसो! अत्थिणंभंते ! एगोरुयदीवेदीवेणंडपेच्छाइ वा णइपेच्छाइवाजल्लपेच्छाइ वा मल्लपेच्छाइ वा मुट्ठियपेच्छाइ वा विडंवगपेच्छाइ वा कहगपेच्छाइ वा पवगपेच्छाइ वा अक्खायगपेच्छाइ वा लासगपेच्छाइ वा लंखपेच्छाइ वा मंखपेच्छाइ वा, तूणइल्लपेच्छाइ वा तुंबवीणापेच्छाइ वा कावडपेच्छाइ वा मागहपेच्छाइ वा ? णो तिणढे समढे। ववगयकोउहल्ला णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! ___ अत्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे सगडाइ वा रहाइ वा जाणाइ वा जुग्गाइ वा गिल्लीइ वा थिल्लीइ वा पिल्लीइ वा पवहणाणि वा सिवियाइ वा संदमाणियाइ वा? णो तिणद्वे समढे ! पादचारविहारिणो णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे आसा इ वा हत्थी ति वा उट्टा इ वा गोणा इ वा महिसा इ वा खराइ वा घोडा इ वा अडा इ वा एला इ वा ? हंता अत्थि । नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे सीहाइ वा, वग्याइ वा विगाइ वा दीवियाइ वा अच्छा इवा परस्साइ वा तरच्छाइ वा विडालाइ वा सियालाइ वा सुणगाइ वा कोलसुणगाइ वा कोकंतियाइ वा ससगाइ वा चित्तला इ वा चिलल्लगाइ वा? हंता अत्थि। नो चेव णं ते अण्णमण्णस्स तेसिं वा मणुयाणं किं चि आबाहं वा पबाहं वा उप्पायंति वा छविच्छेदं वा करेंति, पगइभद्दका णं ते सावयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे सालीइ वा वीहीइ वा गोधूमाइ वा जवाइ वा तिलाइ वा इक्खूत्ति वा ? १. मयपिंड। २. मयपिंड। Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हंता अस्थि । नो चेव णं तेसिं मणुयाणं परिभोगत्ताए हव्वमागच्छंति। अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे गत्ताइ वा दरीइ वा घंसाइ वा भिगू इ वा उवाए इ वा विसमे इ वा, विज्जले इ वा धूली इ वा रेणू इ वा पंके इ वा चलणी इ वा? णो तिणढे समढे। एगोरुय दीवेणं दीवे बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णत्ते समणाउसो! अस्थि णं भंते ! एगोरुय दीवे-दीवे खाणूइ वा कंटएइ वा हीरएइ वा सक्कराइ वा तणकयवराइ वा पत्तकयवरा इ वा असुईइ वा पूतियाइ वा दुब्भिगंधाइ वा अचोक्खाइ वा ? _ णो तिणटेसमटे।ववगयकाणुकंटकहीरसक्करतणकयवरपत्तकयवरअसुइपूइदुब्भिगंधमचोक्खे णं एगोरुयदीवे पण्णत्ते समणाउसो! अस्थि णंभंते ! एगोरुय दीवे दीवे दंसाइ वा मसगाइ वा पिसुयाइ वा जूयाइ वा लिक्खाइ वा ढंकुणाइ वा? णो तिणढे समढे। ववगयदंसमसगपिसुयजूयलिक्खढंकुणे णं एगोरुय दीवे पण्णत्ते समणाउसो। अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे अहीइ वा, अयगराइ वा महोरगाइ वा? हंता अत्थि । णो चेव णं ते अन्नमन्नस्स तेसिंवा मणुयाणं किंचि आबाहं वा पबाहं वा छविच्छेयं वा करेंति। पगइभद्दगा णं ते वालग्गगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे गहदंडाइ वा गहमुसलाइ वा गहगज्जियाइ वा गहजुद्धाइ वा गहसंघाडगाइ वा गहअवसव्वाइ वा अब्भाइ वा अब्भरुक्खाइ वा संझाइ वा गंधव्वणगराइ वा गज्जियाइ वा विज्जुयाइ वा उक्कापाताइ वा दिसादाहाइ वा निग्यायाइ वा पंसुविट्ठीइ वा जुवगाइ वा जक्खालित्ताइ वा धूमियाइ वा महियाइ वा रउग्घायाइ वा चंदोवरागाइ वा सूरोवरागाइ वा चंदपरिवेसाइ वा सूरपरिवेसाइ वा पडिचंदाइ वा पडिसूराइ वा इंदधणूडू वा उदगमच्छाइ वा अमोहाइ वा कविहसियाइ वा पाईणवायाइ वा पडीणवायाइ वा जाव सुद्धवायाइ वा गामदाहाइ वा नगरदाहाइ वा जाव सण्णिवेसदाहाइ वा पाणक्खय-जणक्खय-कुलक्खय-धणवखयवसण-भूयमणारियाइ वा ? णो तिणटे समढे। अत्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे डिंबाइ वा डमराइ वा कलहाइ वा बोलाइ वा खाराइ वा वेराइ वा विरुद्धरज्जाइ वा ? णोतिणटेसमटे ।ववगयडिंबडमरकलहबोलखारवेरविरुद्धरजाणं ते मणुयगया पण्णत्ता समणाउसो! अस्थि भंते ! एगोरुयदीवेणं दीवे महाजुद्धाइ वा महासंगामाइ वा महासत्थनिवयणाइ वा महापुरिसवाणा इवा महारुधिरवाणा इ वा नागवाणा इवा खेवाणा इवा तामसवाणाइ वा? नो इणटे समटे ववगयवेराणुबंधा णं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थि णं भंते ! Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन] [३१३ एगोरुयदीवे दीवे दुब्भूइयाइ वा कुलरोगाइ गामरोगाइ वा णगररोगाइ वा मंडलरोगाइ वा सिरोवेयणाइ वा अच्छिवेयणाइ वा कण्णवेयणाइवाणक्कवेदणाइ वा दंतवेदणाइ वा नखवेदणाइ वा कासाइ वा सासाइ वा जराइ वा दाहाइ वा कच्छू वा खसराइ वा कुट्ठाइ वा कुडाइ वा दगोयराइ वा अरिसाइ वा अजीरगाइ वा भगंदराइ वा इंदग्गहाइ वा खंदग्गहाइ वा कुमारग्गहाइ वा णागग्गहाइ वा जक्खग्गहाइ वा भूतग्गहाइ वा उव्वेयग्गहाइ वा धणुग्गहाइवा एगाहियगाहाइ वा वेयाहियगहियाइ वा तेयाहियगहियाइ वा चाउत्थगहियाइ वा हिययसूलाइ वा मत्थगसूलाइ वा पाससूलाइ वा कुच्छिसूलाइ वा जोणिसूलाइ वा गाममारीइ वा जाव सन्निवेसमारीइ वा पाणक्खाय जाव वसणभूयमणारिया इ वा ? णो तिणटे समढे । ववगयरोगायंका णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अस्थि णं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे अइवासाइ वा मंदवासाइ वा सुवुट्ठीइ वा मंदवुट्ठीइ वा उद्धावाहाइ वा पवाहाइ वा दगुब्भेयाइ वा दगुप्पीलाइ वा गामवाहाइ वा जाव सन्निवेसवाहाइ वा पाणक्खय० जाव वसणभूयमणारियाइ वा ? णो तिणढे समटे । ववगयदगोवद्दवा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! अत्थिणं भंते ! एगोरुयदीवे दीवे अयागराइ वा तंबागराइ वा सीसागराइ वा सुवण्णागराइ वा रयणागराइ वा वइरागराइ वा वसुहाराइ वा हिरणवासाइ वा सुवण्णवासाइ वा रयणवासाइ वा वइरवासाइ वा आभरणवासाइ वा पत्तवासाइ वा पुप्फवासाइ वा फलवासाइ वा बीयवासाइ वा मल्लवासाइ वा गंधवासाइ वा वण्णवासाइ वा चुण्णवासाइ वा खीरवुट्ठीइ वा रयणवुट्ठीइ वा हिरणवुट्ठीइ वा सुवण्णवुट्ठीइ वा तहेव जाव चुण्णवुट्ठीइ वा सुकालाइ वा दुकालाइ वा सुभिक्खाइ वा दुब्भिक्खाइ वा अप्पग्धाइ वा महग्याइ वा कयाइ वा महाविक्कयाइवा, सण्णिहीइ वा संचयाइ वा निधीइ वा निहाणाइ वा, चिरपोराणाइ वा पहीणसामियाइ वा पहीणसेउयाइ वा पहीणगोत्तागाराइंवा जाइंइमाइंगामागरणगरखेडकब्बडमडंबदोणमुहपट्टणासमसंवाहसन्निवेसेसु सन्निक्खित्ताई चिटुंति ? . नो तिणढे समढे। [१११] (१६) हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घर और मार्ग हैं क्या ? हे गौतम ! यह अर्थ समर्थित नहीं है। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य गृहाकार बने हुए वृक्षों पर रहते हैं। भगवन् ! एकोरुक द्वीप में ग्राम, नगर यावत् सन्निवेश हैं ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ग्राम आदि नहीं हैं। वे मनुष्य इच्छानुसार गमन करने वाले हैं। Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र भगवन् ! एकोरुक द्वीप में असि-शस्त्र, मषि (लेखनादि) कृषि, पण्य (किराना आदि) और वाणिज्य-व्यापार है ? आयुष्मन् श्रमण ! ये वहाँ नहीं हैं। वे मनुष्य असि, मषि, कृषि-पण्य और वाणिज्य से रहित हैं। भगवन् ! एकोरुक द्वीप में हिरण्य (चांदी), स्वर्ण, कांसी, वस्त्र, मणि, मोती तथा विपुल धन सोना रत्न मणि, मोती शंख, शिलाप्रवाल आदि प्रधान द्रव्य हैं ? हाँ गौतम ! हैं, परन्तु उन मनुष्यों को उनमें तीव्र ममत्वभाव नहीं होता है। भगवन् ! एकोरुक द्वीप में राजा युवराज ईश्वर (भोगिक) तलवर (राजा द्वारा दिये गये स्वर्णपट्ट को धारण करने वाला अधिकारी) माडंविक (उजडी वसति का स्वामी) कौटुम्बिक इभ्य (धनिक) सेठ सेनापति सार्थवाह (अनेक व्यापारियों के साथ देशान्तर में व्यापार करने वाला प्रमुख व्यापारी) आदि हैं क्या ? आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं । वे मनुष्य ऋद्धि और सत्कार के व्यवहार से रहित हैं अर्थात् वहाँ सब बराबर हैं, विषमता नहीं है। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में दास, प्रेष्य (नौकर), शिष्य, वेतनभोगी भृत्य, भागीदार, कर्मचारी हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं। वहाँ नौकर कर्मचारी नहीं हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में माता, पिता, भाई, बहिन, भार्या, पुत्र, पुत्री और पुत्रवधू हैं क्या ? हाँ गौतम ! हैं परन्तु उनका माता-पितादि में तीव्र प्रेमबन्धन नहीं होता है। वे मनुष्य अल्परागबन्धन वाले हैं। ___हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में अरि, बैरी, घातक, वधक, प्रत्यनीक (विरोधी), प्रत्यमित्र (पहले मित्र रहकर अमित्र हुआ व्यक्ति या दुश्मन का सहायक) हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं। वे मनुष्य वैरभाव से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में मित्र, वयस्य, प्रेमी, सखा, सुहृद, महाभाग और सांगतिक (साथी) हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! नहीं हैं। वे मनुष्य प्रेमानुबन्ध रहित हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में आबाह (सगाई,) विवाह (परिणय), यज्ञ, श्राद्ध, स्थालीपाक (वरवधू भोज), चोलोपनयन (शिखाधारण संस्कार), सीमन्तोन्नयन (बाल उतारने का संस्कार), पितरों को पिण्डदान आदि संस्कार हैं क्या ? __हे आयुष्मन् श्रमण ! ये संस्कार वहाँ नहीं हैं। वे मनुष्य आबाह-विवाह, यज्ञ-श्राद्ध, भोज, चोलोपनयन सीमन्तोन्नयन पितृ-पिण्डदान आदि व्यवहार से रहित हैं। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक द्वीप का प्रकीर्णक वर्णन] [३१५ __ हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में इन्द्रमहोत्सव, स्कंद (कार्तिकेय) महोत्सव, रुद्र (यक्षाधिपति) महोत्सव, शिवमहोत्सव, वैश्रमण (कुबेर) महोत्सव, मुकुन्द (कृष्ण) महोत्सव, नाग, यक्ष, भूत, कूप, तालाब, नदी, द्रह (कुण्ड) पर्वत, वृक्षारोपण, चैत्य और स्तूप महोत्सव होते हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ये महोत्सव नहीं होते । वे मनुष्य महोत्सव की महिमा से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में नटों का खेल होता है, नृत्यों का आयोजन होता है, डोरी पर खेलने वालों का खेल होता हैं, कुश्तियाँ होती हैं, मुष्टिप्रहारादि का प्रदर्शन होता है, विदूषकों, कथाकारों, उछलकूद करने वालों, शुभाशुभ फल कहने वालों, रास गाने वालों, बाँस पर चढ़कर नाचने वालों, चित्रफलक हाथ में लेकर माँगने वालों, तूणा (वाद्य) बजाने वालों, वीणावादकों, कावड़ लेकर घूमने वालों, स्तुतिपाठकों का मेला लगता है क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वे मनुष्य कौतूहल से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में गाड़ी, रथ, यान (वाहन) युग्य (गोल्लदेशप्रसिद्ध) चतुष्कोण वेदिका वाली और दो पुरुषों द्वारा उठाई जाने वाली पालकी)गिल्ली, थिल्ली, पिपिल्ली, (लाटदेश प्रसिद्ध सावारी विशेष), प्रवहण (नौका-जहाज), शिबिका (पालखी), स्यन्दमानिका (छोटी पालखी) आदि वाहन हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ उक्त वाहन (सवारियाँ) नहीं हैं। वे मनुष्य पैदल चलने वाले होते है। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में घोड़ा, हाथी, ऊँट, बैल, भैंस-भैंसा, गधा, टट्ट, बकरा-बकरी और भेड़ होते हैं क्या ? हाँ गौतम ! होते तो हैं परन्तु उन मनुष्यों के उपभोग के लिए नहीं होते। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में सिंह, व्याघ्र, भेडिया, चीता, रीछ, गेंडा, तरक्ष (तेंदुआ) बिल्ली, सियाल, कुत्ता, सूअर, लोमड़ी, खरगोश, चित्तल (चितकबरा पशुविशेष) और चिल्लक (पशुविशेष) हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे पशु हैं परन्तु वे परस्पर या वहाँ के मनुष्यों को पीड़ा या बाधा नहीं देते हैं और उनके अवयवों का छेदन नहीं करते हैं क्योंकि वे श्वापद स्वभाव से भद्रिक होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में शालि, व्रीहि, गेहूं, जौ, तिल और इक्षु होते हैं क्या ? हाँ गौतम ! होते हैं किन्तु उन पुरुषों के उपभोग में नहीं आते। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में गड्ढे, बिल, दरारें, भृगु (पर्वतशिखर आदि ऊँचे स्थान), अवपात (गिरने की संभावना वाले स्थान), विषमस्थान, कीचड, धूल, रज, पंक-कीचड, कादव और चलनी (पाँव में चिपकने वाला कीचड) आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ ये गड्ढे आदि नहीं हैं। एकोरुक द्वीप का भू-भाग बहुत समतल और रमणीय है। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में स्थाणु (ढूंठ) काँटे, हीरक (तीखी लकड़ी का टुकडा) कंकर, तृण Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र का कचरा, पत्तों का कचरा, अशुचि, सडांध, दुर्गन्ध और अपवित्र पदार्थ हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में उक्त स्थाणु आदि नहीं हैं। वह द्वीप स्थाणु-कंटक-हीरक, कंकर-तृणकचरा, पत्रकचरा, अशुचि, पूति, दुर्गन्ध और अपवित्रता से रहित है। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में डांस, मच्छर, पिस्सू, जूं, लीख, माकण (खटमल) आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! यह अर्थ समर्थ नहीं है। वह द्वीप डांस, मच्छर, पिस्सू, जूं, लीख, खटमल से रहित है। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में सर्प, अजगर और महोरग हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! वे हैं तो सही परन्तु परस्पर या वहाँ के लोगों को बाधा-पीड़ा नहीं पहंचाते हैं। वे व्यालगण (सर्पादि) स्वभाव से ही भद्रिक होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में (अनिष्टसूचक) दण्डाकार ग्रहसमुदाय, मूसलाकार ग्रहसमुदाय, ग्रहों के संचार की ध्वनि, ग्रहयुद्ध (दो ग्रहों का एक स्थान पर होना) ग्रहसंघाटक (त्रिकोणाकार ग्रहसमुदाय), ग्रहापसव (ग्रहों का वक्री होना), मेघों का उत्पन्न होना, वृक्षाकार मेघों का होना, सन्ध्यालाल-नीले बादलों का परिणमन, गन्धर्वनगर (बादलों का नगरादि रूप में परिणमन), गर्जना, बिजली चमकना, उल्कापात (बिजली गिरना), दिग्दाह (किसी एक दिशा का एकदम अग्निज्वाला जैसा भयानक दिखना), निर्घात (बिजली का कड़कना), धूलि बरसना, यूपक (सन्ध्याप्रभा और चन्द्रप्रभा का मिश्रण होने पर सन्ध्या का पता न चलना), यक्षादीप्त (आकाश में अग्निसहित पिशाच का रूप दिखना), धूमिका (धुंधर), महिका (जलकणयुक्त धूंधर), रज-उद्घात (दिशाओं में धूल भर जाना), चन्द्रग्रहण, सूर्यग्रहण चन्द्र के आसपास मण्डल का होना, सूर्य के आसपास मण्डल का होना, दो चन्द्रों का दिखना, दो सूर्यों का दिखना, इन्द्रधनुष, उदकमत्स्य (इन्द्रधनुष का टुकड़ा), अमोघ (सूर्यास्त के बाद सूर्यबिम्ब से निकलने वाली श्यामादि वर्ण वाली रेखा), कपिहसित (आकाश में होने वाल भयंकर शब्द), पूर्ववात, पश्चिमवात यावत् शुद्धवात, ग्रामदाह, नगरदाह, यावत् सन्निवेशदाह (इनसे होने वाले) प्राणियों का क्षय, जनक्षय, कुलक्षय, धनक्षय आदि दुःख और अनार्य-उत्पात आदि वहाँ होते हैं क्या ? है गौतम ! उक्त सब उपद्रव वहाँ नहीं होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में डिंब (स्वदेश का विप्लव), डमर (अन्य देश द्वारा किया गया उपद्रव), कलह (वाग्युद्ध), आर्तनाद, मात्सर्य, वैर, विरोधीराज्य आदि हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब नहीं हैं। वे मनुष्य डिंब-डमर-कलह-बोल-क्षार-वैर और विरुद्धराज्य के उपद्रवों से रहित हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में महायुद्ध, महासंग्राम महाशस्त्रों का निपात, महापुरुषों (चक्रवर्तीबलदेव-वासुदेव) के बाण, महारुधिरबाण, नागबाण, आकाशबाण, तामस (अन्धकार कर देने वाला) बाण आदि है क्या ? Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :एकोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि] [३१७ हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब वहाँ नहीं हैं। क्योंकि वहाँ के मनुष्य वैरानुबंध से रहित होते हैं, अतएव महायुद्धादि नहीं होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में दुर्भूतिक (अशिव), कुलक्रमागतरोग, ग्रामरोग, नगररोग, मंडल (जिला) रोग, शिरोवेदना, आंखवेदना, कानवेदना, नाकवेदना, दांतवेदना, नखवेदना, खांसी, श्वास, ज्वर, दाह, खुजली, दाद, कोढ, कुड-डमरुवात, जलोदर, अर्श (बवासीर), अजीर्ण, भगंदर, इन्द्र के आवेश से होने वाला रोग, स्कन्दग्रह (कार्तिकेय के आवेश से होने वाला रोग), कुमारग्रह, नागग्रह, यक्षग्रह, भूतग्रह, उद्वेगग्रह, धनुग्रह (धनुर्वात), एकन्तर ज्वर, दो दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, तीन दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, चार दिन छोड़कर आने वाला ज्वर, हृदयशूल, मस्तकशूल, पार्श्वशूल (पसलियों का दर्द), कुक्षिशूल), योनिशूल, ग्राममारी यावत् सन्निवेशमारी और इनसे होने वाला प्राणों का क्षय यावत् दुःखरूप उपद्रवादि हैं क्या ? ___ हे आयुष्मन् श्रमण ! ये सब उपद्रव-रोगादि वहाँ नहीं है। वे मनुष्य सब तरह की व्याधियों से मुक्त होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, सुवृष्टि, दुर्वृष्टि, उद्वाह (तीव्रता से जल का बहना), प्रवाह, उदकभेद (ऊँचाई से जल गिरने से खड्डे पड़ जाना), उदकपीड़ा (जल का ऊपर उछलना), गांव को बहा ले जाने वाली वर्षा यावत् सन्निवेश को बहा ले जाने वाली वर्षा और उससे होने वाला प्राणक्षय यावत् दुःखरूप उपद्रवादि होते हैं क्या ? हे आयुष्मन् श्रमण ! ऐसा नहीं होता। वे मनुष्य जल से होने वाले उपद्रवों से रहित होते हैं। हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप में लोहे की खान, तांबे की खान, सीसे की खान, सोने की खान, रत्नों की खान, वज्र-हीरों की खान, वसुधारा (धन की धारा), सोने की वृष्टि, चांदी की वृष्टि, रत्नों की वृष्टि, वज्रों-हीरों की वृष्टि, आभरणों की वृष्टि, पत्र-पुष्प-फल-बीज-माल्य-गन्ध-वर्ण-चूर्ण की वृष्टि, दूध की वृष्टि, रत्नों की वर्षा, हिरण्य-सुवर्ण यावत् चूर्णों की वर्षा, सुकाल, दुष्काल, सुभिक्ष, दुर्भिक्ष, सस्तापन, महंगापन, क्रय, विक्रय, सन्निधि, संनिचय, निधि, निधान, बहुत पुराने, जिनके स्वामी नष्ट हो गये, जिनमें नया धन डालने वाला कोई न हो। जिनके गोत्री जन सब मर चुके हों ऐसे जो गांवों में, नगर में, आकर-खेट-कर्वट-मंडबद्रोणमुख-पट्टन, आश्रम, संबाह और सन्निवेशों में रखा हुआ, शृंगाटक (तिकोना मार्ग), त्रिक, चतुष्क, चत्वर, चतुर्मुख महामार्गों पर, नगर की गटरों में श्मशान में, पहाड़ की गुफाओं में, ऊँचे पर्वतों के उपस्थान और भवनगृहों में रखा हुआ-गड़ा हुआ धन है क्या ? ___ हे गौतम ! उक्त खान आदि और ऐसा धन वहाँ नहीं है। एकोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि १११.[१७] एगोरुयदीवे णं भंते ! दीवे मणुयाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा !जहन्नेणं पलिओवमस्सअसंखेज्जइभागं असंखेज्जइभागेणंऊणगं, उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ते णं मणुस्सा कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छंति कहिं उववजंति ? गोयमा ! तेणं मणुया छम्मासावसेसाउया मिहुणाई पसवंति,अउणासीइंराइंदियाइं मिहुणाई सारक्खंति संगोविंति यासारक्खित्ता संगोवित्ता उस्ससित्ता निस्ससित्ता कासित्ता छीइत्ता अक्किटा अव्वहिया, अपरियाविया ( पलिओवमस्स असंखेज्जइ भागं परियाविय) सुहंसुहेण कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसुदेवलोएसुदेवत्ताए उववत्तारो भवंति।देवलोयपरिग्गहाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो। [१११] (१७) हे भगवन् ! एकोरुक द्वीप के मनुष्यों की स्थिति कितनी कही है ? हे गौतम ! जघन्य से असंख्यातवां भाग कम पल्योपम का असंख्यातवां भाग और उत्कर्ष से पल्योपम का असंख्यातवां भाग प्रमाण स्थिति है। हे भगवन् ! वे मनुष्य कालमास में काल करके-मरकर कहाँ जाते हैं, कहां उत्पन्न होते हैं ? हे गौतम ! वे मनुष्य छह मास की आयु शेष रहने पर एक मिथुनक (युगलिक) को जन्म देते हैं। उन्न्यासी रात्रिदिन तक उसका संरक्षण और संगोपन करते हैं। संरक्षण और संगोपन करके ऊर्ध्वश्वास लेकर या निश्वास लेकर या खांसकर या छींककर बिना किसी कष्ट के, बिना किसी दुःख के, बिना किसी परिताप के (पल्योपम का असंख्यातवां भाग आयुष्य भोगकर) सुखपूर्वक मृत्यु के अवसर पर मरकर किसी भी देवलोक में देव के रूप में उत्पन्न होते हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य मरकर देवलोक में ही जाते हैं। . '१११.(१८) कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं आभासियमणुस्साणं आभासियदीवेणामं दीवे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं आभासियमणुस्साणं आभासियदीवे णामंदीवे पण्णत्ते, सेसं जहा एगोरुयाणं णिरवसेसं सव्वं। कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं णंगोलिमणुस्साणं पुच्छा ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं तिण्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता सेसं जहा एगोरुयमणुस्साणं। कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं वेसाणियमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं चुल्लहिमवंतस्स वासधरपव्वयस्स दाहिणपच्चथिमिल्लाओचरिमंताओलवणसमुदं तिण्णिजोयणसयाइंओगाहित्तासेसंजहा एगोरुयाणं। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि] [३१९ _ [१११] (१८) हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के आभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नाम का द्वीप कहाँ गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में चुल्लहिमवान् वर्षधरपर्वत के दक्षिण-पूर्व (अग्निकोण) चरमांत से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर वहाँ आभाषिक मनुष्यों का आभाषिक नामक द्वीप है। शेष समस्त वक्तव्यता एकोरुक द्वीप की तरह कहनी चाहिए। हे भगवन् ! दाक्षिणात्य लांगलिक मनुष्यों का लांगलिक द्वीप कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) चरमांत से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर वहाँ लांगूलिक मनुष्यों का लांगूलिक द्वीप है। शेष वक्त व्यता एकोरुक द्वीपवत्। हे भगवन् ! दाक्षिणात्य वैषाणिक मनुष्यों का वैषाणिक द्वीप कहाँ है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में और चुल्लहिमवन्त वर्षधर पर्वत के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) के चरमांत से तीन सौ योजन जाने पर वहाँ वैषाणिक मनुष्यों का वैषाणिक नामक द्वीप है। शेष वक्तव्यता एकोरुकद्वीप की तरह जानना चाहिए। विवेचन-अन्तर्द्वीप हिमवान और शिखरी इन दो पर्वतों की लवणसमुद्र में निकली दाढ़ाओं पर स्थित हैं । हिमवान पर्वत की दाढा पर अट्ठाईस अन्तद्वीप हैं और शिखरीपर्वत की दाढ़ा पर अट्ठाईस अन्तर्वीप हैं-यों छप्पन अन्तर्वीप हैं। हिमवान पर्वत जम्बूद्वीप में भरत और हैमवत क्षेत्रों की सीमा करने वाला है। वह पूर्व-पश्चिम के छोरों से लवणसमुद्र का स्पर्श करता है। लवणसमुद्र के जल स्पर्श से लेकर पूर्व-पश्चिम दिशा में जो गजदन्ताकार दाढ़ें निकली हैं। उनमें से ईशानकोण में जो दाढा निकली है उस पर हिमवान पर्वत से तीन.सौ योजन की दूरी पर लवणसमुद्र में ३०० योजन लम्बा-चौड़ा और ९४९ योजन से कुछ अधिक की परिधि वाला एकोरुक नाम का द्वीप है। जो ३०० धनुष विस्तृत, दो कोस ऊँची पद्मवरवेदिका से चारों और से मण्डित है। उसी हिमवान पर्वत के पर्यन्त भाग से दक्षिणपूर्वकोण में तीन सौ योजन दूर लवणसमुद्र में अवगाहन करते ही दूसरी दाढा आती है जिस पर एकोरुक द्वीप जितना लम्बा-चौड़ा आभाषिक नामक द्वीप है। उसी हिमवान पर्वत के पश्चिम दिशा के छोर से लेकर दक्षिण-पश्चिमदिशा (नैऋत्यकोण) में तीन सौ योजन लवणसमुद्र में अवगाहन करने के बाद एक दाढ आती है जिस पर उसी प्रमाण का लांगूलिक नाम का द्वीप है एवं उसी हिमवान पर्वत के पश्चिमदिशा के छोर से लेकर पश्चिमोत्तरदिशा (वायव्यकोण) में तीन सौ योजन दूर लवणसमुद्र में एक दाढा आती है, जिस पर पूर्वोक्त प्रमाण वाला वैषाणिक द्वीप आता है। इस प्रकार ये चारों द्वीप हिमवान पर्वत से चारों विदिशाओं में हैं और समान प्रमाण वाले हैं। इनका आकार, भाव, प्रत्यवतार मूलपाठानुसार स्पष्ट ही है। ११२. कहिणं भंते ! दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवेणामंदीवे पण्णत्ते? गोयमा ! एगोरुयदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जोयणसयाइं ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं हयकण्णमणुस्साणं हयकण्णदीवे णामं दीवे पण्णत्ते, चत्तारि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं बारस जोयणसया पन्नट्ठी किंचिविसेसूणा परिक्खेवेणं। से णं एगाए पउमवरवेदियाए अवसेसं जहा एगोरुयाणं। कहिं णं भंते ! दाहिणिल्लाणं गजकण्णमणुस्साणं पुच्छा। गोयमा ! आभासियदीवस्स दाहिणपुरथिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं। .. एवं गोकण्णमणुस्साणं पुच्छा? वेसाणियदीवस्स दाहिणपच्चत्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं चत्तारि जोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं। सक्कुलिकण्णाणं पुच्छा ? गोयमा ! णंगोलियदीवस्स उत्तरपच्चस्थिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं चत्तारिजोयणसयाई सेसं जहा हयकण्णाणं। आयंसमुहाणं पुच्छा? हयकण्णदीवस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ पंच जोयणसयाइं ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आयंसमुहमणुस्साणं आयंसमुहदीवे णामं दीवे पण्णत्ते। पंचजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं; आसमुहाईणं छसया आसकन्नाईणं सत्त, उक्कामुहाईणं अट्ठ, घणदंताईणं जाव नव जोयणसयाई एगोरुय परिक्खेवो नव चेव सयाई अउणपन्नाई। बारसपन्नट्ठाइं हयकण्णाईणं परिक्खेवो॥१॥ आयंसमुहाईणं पन्नरसेकासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं; एवं एएण कमेण उवउज्जिउणणेयव्वा चत्तारि चत्तारि एग पमाणा। णाणत्तं ओगाहे विक्खंभे परिक्खेवे पढम-बीय-तइय-चउक्काणं उग्गहो विक्खंभो परिक्खेवो भणिओ। चउत्थ चउक्के छजोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं अट्ठारससत्ताणउए जोयणसए परिक्खवेणं।पंचम चउक्के सत्तजोयणसयाइं आयाम-विक्खंभेणं बावीसं तेरसोत्तरे जोयणसए परिक्खेवेणं। छट्ट चउक्के अट्ठजोयणसयाइं आयाम-विक्खंभेणं पणुवीसं एगुणतीस जोयणसए परिक्खेवेणं।सत्तम चउक्के नवजोयणसयाइं आयाम-विक्खंभेणं दो जोयणसहस्साइं अट्ठपणयाले जोयणसए परिक्खेवेणं। जस्स य जो विक्खंभो उग्गहो तस्स तत्तिओ चेव। पढमाइयाण परिरओ जाव सेसाण अहिओ उ ॥२॥ सेसा जहा एगोरुयदीवस्स जाव सुद्धदंतदीवे देवलोकपरिग्गहाणं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो! कहिं णं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे णामं दीवे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्ययस्स उत्तरेणं सिहरिस्स वासधरपव्वयस्स Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३२१ तृतीय प्रतिपत्ति : एकोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि ] उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुहं तिण्णि जोयणसयाई ओगाहित्ता एवं जहा दाहिणिल्लाणं तहा उत्तरिल्लाणं भाणियव्वं । णवरं सिहरिस्स वासहरपव्वयस्स विदिसासु; एवं जाव सुद्धदंतदीवेत्ति जाव से त्तं अंतरदीवगा । [११२] हे भगवान् ! दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहाँ कहा गया है? गौतम ! एकोरुक द्वीप के उत्तरपूर्वी (ईशानकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सौ योजन आगे जाने पर वहाँ दाक्षिणात्य हयकर्ण मनुष्यों का हयकर्ण नामक द्वीप कहा गया है। वह चार सौ योजन प्रमाण लम्बा-चौड़ा है और बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह एक पद्मवरवेदिका मण्डित है। शेष वर्णन एकोरुक द्वीप की तरह जानना चाहिए । हे भगवन् ! दाक्षिणात्य गजकर्ण मनुष्यों का गजकर्ण द्वीप कहाँ है आदि पृच्छा ? गौतम ! आभाषिक द्वीप के दक्षिण-पूर्वी (आग्नेयकोण के) चरमान्त से लवणसमुद्र में चार सौ योजन आगे जाने पर गजकर्ण द्वीप है। शेष वर्णन हयकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए । इसी तरह गोकर्ण मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! वैषाणिक द्वीप के दक्षिण-पश्चिमी (नैऋत्यकोण के) चरमांत से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर वहाँ गोकर्णद्वीप है । शेष वर्णन हयकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए । भगवन् ! शष्कुलिकर्ण मनुष्य की पृच्छा । गौतम ! लांगलिक द्वीप के उत्तर-पश्चिमी ( वायव्यकोण के) चरमांत से लवणसमुद्र में चार सौ योजन जाने पर शष्कुलिकर्ण नामक द्वीप है । शेष वर्णन हयकर्ण मनुष्यों की तरह जानना चाहिए । हे भगवन् ! आदर्शमुख मनुष्यों की पृच्छा ? गौतम ! हयकर्णद्वीप के उत्तरपूर्वी चरमांत से पांच सौ योजन आगे जाने पर वहाँ दाक्षिणात्य आदर्शमुख मनुष्यों का आदर्शमुख नामक द्वीप है, वहा पांच सौ योजन का लम्बा-चौड़ा है। अश्वमुख आदि चार द्वीप छह सौ योजन आगे जाने पर, अश्वकर्ण आदि चार द्वीप सात सौ योजन आगे जाने पर, उल्कामुख आदि चार द्वीप आठ सौ योजन आगे जाने पर और घनदंत आदि चार द्वीप नौ सौ योजन आगे जाने पर वहाँ स्थित हैं 1 कोक द्वीप आदि की परिधि नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक, हयकर्ण आदि की परिधि बारह सौ पैंसठ योजन से कुछ अधिक जाननी चाहिए ॥ १ ॥ आदर्शमुख आदि की परिधि पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक है। इस प्रकार इस क्रम से चार-चार द्वीप एक समान प्रमाण वाले हैं। अवगाहन, विष्कंभ और परिधि में अन्तर समझना चाहिए। प्रथमद्वितीय तृतीय - चतुष्क का अवगाहन, विष्कंभ और परिधि का कथन कर दिया गया है। चौथे चतुष्क में छह सौ योजन का आयाम-विष्कंभ और १८९७ योजन से कुछ अधिक परिधि है। पंचम चतुष्क में सात सौ योजन का आयाम विष्कंभ और २२१३ योजन से कुछ अधिक की परिधि है । छठे चतुष्क में आठ सौ योजन Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र ITI आयाम - विष्कंभ और २५२९ योजन से कुछ अधिक की परिधि है। सातवें चतुष्क में नौ सौ योजन का आयाम - विष्कंभ और २८४५ योजन से कुछ विशेष की परिधि है। जिसका जो आयाम - विष्कंभ है वही उसका अवगाहन है। (प्रथम चतुष्क से द्वितीय चतुष्क की परिधि ३१६ योजन अधिक, इसी क्रम से ३१६३१६ योजन की परिधि बढ़ाना चाहिए। विशेषाधिक पद सबके साथ कहना चाहिए ) ॥ २ ॥ ३२२ ] आयुष्मन् श्रमण ! शेष वर्णन एकोरुकद्वीप की तरह शुद्धदंतद्वीप पर्यन्त समझ लेना चाहिए यावत् वे मनुष्य देवलोक में उत्पन्न होते हैं। हे भगवन् ! उत्तरदिशा में एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में शिखरी वर्षधरपर्वत के उत्तरपूर्वी चरमान्त से लवणसमुद्र तीन सौ योजन आगे जाने पर वहाँ उत्तरदिशा के एकोरुक द्वीप के मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप हैइत्यादि सब वर्णन दक्षिणदिशा के एकोरुक द्वीप की तरह जानना चाहिए, अन्तर यह है कि यहाँ शिखरी वर्षधरपर्वत की विदिशाओं में ये स्थित हैं, ऐसा कहना चाहिए। इस प्रकार शुद्धदंतद्वीप पर्यन्त कथन करना चाहिए। यह अन्तर्खीपक मनुष्यों का वर्णन पूरा हुआ । विवेचन - एकोरुक, आभाषिक, लांगूलिक, और वैषाणिक इन चार अन्तद्वीपों का वर्णन इसके पूर्ववर्ती सूत्र के विवेचन में किया है। इन्हीं एकोरुक आदि चारो द्वीपों के आगे यथाक्रम से पूर्वोत्तर आदि प्रत्येक विदिशा में चार-चार सौ योजन आगे चलने पर चार-चार सौ योजन लम्बे-चौड़े और कुछ अधिक १२६५ योजन की परिधि वाले पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से सुशोभित तथा जम्बूद्वीप की वेदिका से ४०० योजन प्रमाण दूर हयकर्ण, गजकर्ण, गोकर्ण और शष्कुलिकर्ण नामक चार द्वीप हैं । एकोरुक द्वीप के आगे हयकर्ण है, आभाषिक के आगे गजकर्ण, वैषाणिक के आगे गोकर्ण और लांगूलिक के आगे कुलकर्ण द्वीप है। इसके अनन्तर इन हयकर्ण आदि चारों द्वीपों से आगे पांच-पांच सौ योजन की दूरी पर चार द्वीप हैं - जो पांच-पांच सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और पूर्ववत् चारों विदिशाओं में स्थित हैं। इनकी परिधि विशेषाधिक १५२१ योजन की है। ये पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका तथा वनखण्ड से सुशोभित हैं। जम्बूद्वीप की वेदिका से ये ५०० योजनप्रमाण अन्तर वाले हैं। इनके नाम हैं- आदर्शमुख, मेण्द्रमुख, अयोमुख और गोमुख । इनमें से हयकर्ण के आगे आदर्शमुख, गजकर्ण के आगे मेण्ढ्रमुख, गोकर्ण के आगे अयोमुख और शष्कुलिकर्ण के आगे गोमुख द्वीप हैं। इन आदर्शमुख आदि चारों द्वीपों के आदे छह-छह सौ योजन की दूरी पर पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में फिर चार द्वीप हैं - अश्वमुख, हस्तिमुख, सिंहमुख और व्याघ्रमुख । ये चारों द्वीप छह सौ योजन लम्बेचौड़े और १८९७ योजन से कुछ अधिक परिधि वाले हैं। पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका और वनखंड से शोभित हैं। जम्बूद्वीप की वेदिका से ६०० योजन की दूरी पर स्थित है । इन अश्वमुख आदि चारों द्वीपों के आगे क्रमशः पूर्वोत्तरादि विदिशओं में ७००-७०० योजन की दूरी Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: एकोरुक मनुष्यों की स्थिति आदि ] पर ७०० योजन लम्बे-चौड़े और २२१३ योजन से कुछ अधिक की परिधि वाले पूर्वोक्त पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरे हुए एवं जम्बूद्वीप की वेदिका से ७०० योजन के अन्तर पर अश्वकर्ण हरिकर्ण, अकर्ण और कर्णप्रावरण नाम के चार द्वीप हैं । [३२३ फिर इन्हीं अश्वकर्ण आदि चार द्वीपों के आगे यथाक्रम से पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में ८००-८०० योजन दूर जाने पर आठ सौ योजन लम्बे-चौड़े, २५२९ योजन से कुछ अधिक परिधि वाले, पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से सुशोभित, जम्बूद्वीप की वेदिका से ८०० योजन दूरी पर उल्कामुख, मेघमुख, विद्युन्मुख और विद्युद्दन्त नाम के चार द्वीप हैं । तदनन्तर इन्हीं उल्कामुख आदि चारों द्वीपों के आगे क्रमशः पूर्वोत्तरादि विदिशाओं में ९००-९०० योजन की दूरी पर नौ सौ योजन लम्बे-चौड़े तथा २८४५ योजन से कुछ अधिक परिधि वाले, पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से परिमंडित, जम्बूद्वीप की वेदिका से ९०० योजन के अन्तर पर चार द्वीप और हैं, जिनके नाम क्रमश: ये हैं - घनदन्त, लष्टदन्त, गूढदन्त और शुद्धदन्त । हिमवान् पर्वत की दाढ़ों पर चारों विदिशाओं में स्थित ये सब द्वीप (७ x ४ = २८) अट्ठाईस हैं। शिखरी पर्वत की दाढ़ों पर भी इसी प्रकार २८ अन्तर्वीप हैं। शिखरीपर्वत की लवणसमुद्र में गई दाढ़ों पर, लवणसमुद्र के जलस्पर्श से लेकर पूर्वोक्त दूरी पर पूर्वोक्त प्रमाण वाले, चारों विदिशाओं में स्थित एकोरुक आदि उन्हीं नामों वाले अट्ठाईस द्वीप हैं। इनकी लम्बाईचौड़ाई, परिधि, नाम आदि सब पूर्ववत् हैं। दोनों मिलाकर छप्पन अन्तर्द्धप हैं। इन द्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर्द्धपिक मनुष्य कहे जाते हैं । यहाँ अन्तर्द्धपिकों का वर्णन पूरा होता है । ११३. से किं तं अकम्मभूभगमणुस्सा ? अकम्मभूमगमणुस्सा तीसविहा पण्णत्ता, तं जहा - पंचहिं हेमवएहिं, एवं जहा पण्णवणापदे जाव पंचहिँ उत्तरकुरुहिं से त्तं अकम्मभूमगा । से किं तं कम्मभूमगा ? कम्मभूमगा पण्णरसविहा पण्णत्ता, तं जहा - पंचहिं, भरहेहिं, पंचहिं एरवएहिं, पंचहिं महाविदेहेहिं । ते समासओ दुविहा पण्णत्ता, तं जहा - आरिया मिलेच्छा, एवं जहा पण्णवणापदे जाव से त्तं आरिया, से त्तं गब्भवक्कंतिया, से त्तं मणुस्सा । [११३] हे भगवन् ! अकर्मभूमिक मनुष्य कितने प्रकार के हैं ? गौतम ! अकर्मभूमिक मनुष्य तीस प्रकार के हैं, यथा- पांच हैमवत में (पांच हैरण्यवत, पांच हरिवर्ष, पांच रम्यकवर्ष, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु क्षेत्र में) रहने वाले मनुष्य । इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना चाहिए। यह तीस प्रकार के अकर्मभूमिक मनुष्यों का कथन हुआ । हे भगवन् ! कर्मभूमिक मनुष्यों के कितने प्रकार हैं ? गौतम ! कर्मभूमिक मनुष्य पन्द्रह प्रकार के हैं, यथा- पांच भरत, पांच ऐरवत और पांच महाविदेह के मनुष्य। वे संक्षेप से दो प्रकार के हैं, यथा-आर्य और म्लेच्छ । इस प्रकार प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चाहिए। यावत् यह आर्यों का कथन हुआ। यह गर्भव्युत्क्रान्तिकों का कथन हुआ और उसके साथ ही मनुष्यों का कथन भी सम्पूर्ण हुआ। अट्ठाईस अन्तद्धीपिकों के कोष्टक (१) प्रथम चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम मेरु के दक्षिण में क्षुद्रहिमवान के उत्तरपूर्व ३०० योजन ३०० योजन ९४९ यो. विशेषाधिक एकोरुक दक्षिणपूर्व आभाषिक दक्षिणपश्चिम , वैषाणिक उत्तरपश्चिम लांगूलिक द्वीप नाम । एकोरुक आभाषिक वैषाणिक लांगूलिक विदिशा उत्तरपूर्व दक्षिणपूर्व दक्षिणपश्चिम उत्तरपश्चिम (२) द्वितीय चतुष्क अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम ४०० योजन ४०० योजन १२६५ यो. विशेषाधिक हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुलीकण विदिशा उत्तरपूर्व (३) तृतीय चतुष्क अवगाहन आयाम परिधि ५०० योजन ५०० योजन १५८१यो. विशेषाधिक द्वीप नाम आदर्शमुख द्वीप नाम हयकर्ण गजकर्ण गोकर्ण शष्कुलीकर्ण दक्षिणपूर्व मेण्द्रमुख दक्षिणपश्चिम उत्तरपश्चिम , अयोमुख गोमुख द्वीप नाम आदर्शमुख मेण्द्रमुख अयोमुख (४) चतुर्थ चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम उत्तरपूर्व ६०० योजन ६०० योजन १८९७ यो. विशेषाधिक अश्वमुख दक्षिणपूर्वी हस्तिमुख दक्षिणपश्चिम सिंहमुख उत्तरपश्चिम व्याघ्रमुख गोमुख Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: देववर्णन] [३२५ द्वीप नाम अश्वमुख हस्तिमुख सिंहमुख व्याघ्रमुख विदिशा उत्तरपूर्व दक्षिणपूर्व दक्षिणपश्चिम उत्तरपश्चिम (५) पंचम चतुष्क अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम। ७०० योजन ७०० योजन २२१३ यो. विशेषाधिक अश्वकर्ण सिंहकर्ण अकर्ण कर्णप्रावरण विदिशा द्वीप नाम अश्वकर्ण सिंहकर्ण अकर्ण कर्णप्रावरण (६) षष्ठ चतुष्क अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम उत्तरपूर्व ८०० योजन ८०० योजन २५२९ यो. विशेषाधिक उल्कामुख दक्षिणपूर्व मेघमुख दक्षिणपश्चिम विद्युन्मुख उत्तरपश्चिम विद्युद्दन्त द्वीप नाम उल्कामुख मेघमुख विद्युन्मुख विद्युदन्त (७) सप्तम चतुष्क विदिशा अवगाहन आयाम परिधि द्वीप नाम उत्तरपूर्व ९०० योजन ९०० योजन २८४५ यो. विशेषाधिक घनदन्त दक्षिणपूर्व , लष्टदन्त दक्षिणपश्चिम . , गूढदन्त उत्तरपश्चिम शुद्धदन्त देववर्णन ११४. से किं तं देवा? देवा चउव्विहा पण्णत्ता, तं जहा-भवणवासी, वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया। [११४] देव कितने प्रकार के हैं ? देव चार प्रकार के हैं, यथा-१. भवनवासी, २. वानव्यंतर, ३. ज्योतिष्क और ४. वैमानिक। ११५. से किं तं भवणवासी ? भवणवासी दसविहा पण्णत्ता,तं जहा-असुरकुमारा जहा पण्णवणापदे देवाणं भेओ तहा भाणियव्वो जाव अणुत्तरोववाइया पंचविहा पण्णत्ता, तं जहा-विजय वेजयंत जाव सव्वट्ठसिद्धगा, से तं अणुत्तरोववाइया। Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [११५] भवनवासी देवों के कितने प्रकार हैं ? भवनवासी देव दस प्रकार के हैं, यथा-असुरकुमार आदि प्रज्ञापनापद में कहे हुए देवों के भेद का कथन करना चाहिए यावत् अनुत्तरोपपातिक देव पांच प्रकार के हैं, यथा-विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध। यह अनुत्तरोपपातिक देवों का कथन हुआ। ११६. कहिणं भंते ! भवणवासिदेवाणं भवणा पण्णत्ता? कहिं णं भंते ! भवणवासी देवा परिवसंति ? गोयमा ! इमीसे रयणप्पहाए पुढवीए असीउत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए, एवं जहा पण्णवणाए जाव भवणवासइया, तत्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ वावत्तरि भवणवाससयसहस्सा भवंति त्तिमक्खाया।तत्थ णं बहवे भवणवासी देवा परिवसंति-असुरा नाग सुवन्ना य जहा पण्णवणाए जाव विहरंति। [११६] हे भगवन् ! भवनवासी देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? हे भगवन् ! वे भवनवासी देव कहाँ रहते हैं ? हे गौतम ! इस एक लाख अस्सी हजार योजन की मोटाई वाली रत्नप्रभा पृथ्वी के एक हजार योजन ऊपर और एक हजार योजन नीचे के भाग को छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाणक्षेत्र में भवनावास कहे गये हैं आदि वर्णन प्रज्ञापनापद के अनुसार जानना चाहिए। वहाँ भवनवासी देवों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं। उनमें बहुत से भवनवासी देव रहते हैं, यथा-असुरकुमार, नागकुमार, सुपर्णकुमार आदि वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। ___११७. कहिं णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता ? पुच्छा ? एवं जहा पण्णवणाठाणपदे जाव विहरंति। कति णं भंते ! दाहिणिल्लाणं असुरकुमारदेवाणंभवणा पुच्छा? एवं जहा ठाणपदे जाव चमरे, तत्थ असुरकुमारिंदे परिवसइ जाव विहरइ। [११७] हे भगवन् ! असुरकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? गौतम ! जैसा प्रज्ञापना के स्थानपद में कहा गया है, वैसा ही कथन यहाँ समझना चाहिए यावत् दिव्य-भोगों को भोगते हुए वे विचरण करते हैं। हे भगवन् ! दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के भवनों के संबन्ध में प्रश्न है ? गौतम ! जैसा स्थानपद में कहा, वैसा कथन यहाँ कर लेना चाहिए यावत् असुरकुमारों का इन्द्र चमर वहाँ भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। विवेचन-देवाधिकार का प्रारम्भ करते हुए देवों के ४ भेद बताये गये हैं-भवनवासी, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक। तदनन्तर इनके अवान्तर भेदों के विषय में प्रज्ञापना के प्रथमपद के अनुसार कहने Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: देववर्णन] [३२७ की सूचना दी गई है। प्रज्ञापना में वे भेद इस प्रकार कहे हैं भवनपति के १० भेद हैं-१. असुरकुमार, २. नागकुमार, ३. सुपर्णकुमार, ४. विद्युत्कुमार, ५. अग्निकुमार, ६.द्वीपकुमार, ७. उदधिकुमार, ८. दिशाकुमार, ९. पवनकुमार, १०. स्तनितकुमार। इन दस के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के भेद से २० भेद हुए। वानव्यन्तर के ८ भेद हैं- १. किन्नर, २. किंपुरुष, ३. महोरग, ४. गंधर्व, ५. यक्ष, ६. राक्षस, ७. भूत, ८. पिशाच। इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक भेद से १६ भेद हुए। ज्योतिष्क के पांच प्रकार हैं-१. चन्द्र, २. सूर्य, ३. ग्रह, ४. नक्षत्र और ५. तारे। इनके पर्याप्तक और अपर्याप्तक। वैमानिक दो प्रकार के हैं-१. कल्पोपपन्न और २. कल्पातीत। कल्पोपन्न १२ प्रकार के हैं-१. सौधर्म, २. ईशान, ३. सनत्कुमार, ४. माहेन्द्र, ५. ब्रह्मलोक, ६. लान्तक,७. महाशुक्र, ८. सहस्रार, ९. आनत, १०. प्राणत, ११. आरण और.१२. अच्युत। . कल्पातीत दो प्रकार के हैं-ग्रैवेयक और अनुत्तरोपपातिक।ग्रैवेयक के ९ भेद हैं-१.अधस्तानाधस्तन, २.अधस्तनमध्यम, ३. अधस्तनउपरितन, ४. मध्यमअधस्तन, ५. मध्यम-मध्यम, ६. मध्यमोपरितन,७. उपरिमअधस्तन, ८. उपरिम-मध्यम और ९. उपरितनोपरितन। अनुत्तरोपपातिक पांच प्रकार के हैं-१.विजय, २. वैजयंत, ३. जयन्त, ४. अपराजित और सर्वाथसिद्ध। उपर्युक्त सब वैमानिकों के पर्याप्तक और अपर्याप्तक के रूप में दो-दो भेद हैं। उक्त रीति से भेदकथन के पश्चात् भवनवासी देवों के भवनों और उनके निवासों को लेकर प्रश्न किये गये हैं। इसके उत्तर में कहा गया है कि हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं उस रत्नप्रभापृथ्वी का बाहल्य (मोटाई) एक लाख अस्सी हजार योजन का है। उसके एक हजार योजन के ऊपरी भाग को और एक हजार योजन के अघोवर्ती भाग को छोड़कर एक लाख अठहत्तर हजार योजन जितने भाग में भवनवासी देवों के ७ करोड़ और ७२ लाख भवनावास हैं। दस प्रकार के भवनवासी देवों के भवनावासों की संख्या अलग-अलग इस प्रकार है १. असुरकुमार के ६४ लाख २. नागकुमार के ८४ लाख ३. सुपर्णकुमार के ७२ लाख ४. विद्युत्कुमार के ७६ लाख ५. अग्निकुमार के ७६ लाख ६. द्वीपकुमार के ७६ लाख ७. उदधिकुमार के ७६ लाख Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ ] ८. दिक्कुमार के ७६ लाख ९. पवनकुमार के ९६ लाख १०. स्तनितकुमार के ७६ लाख [जीवाजीवाभिगमसूत्र कुल मिलाकर भवनवासियों के सात करोड़ बहत्तर लाख भवनावास कहे गये हैं । वे भवन बाहर से गोल और भीतर से समचौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार के हैं। उन भवनों के चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयां और परिखाएँ खुदी हुई हैं, जिनका अन्तर स्पष्ट प्रतीत होता है। यथास्थान परकोटों, अटारियों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से वे सुशोभित हैं। वे भवन विविध यन्त्रों, शतघ्नियों (महाशिलाओं या महायष्टियों, मूसलों, मुसंडियों आदि शस्त्रों) से वेष्टित हैं। वे शत्रुओं द्वारा अयुध्य (युद्ध न करने योग्य) सदा जयशील, सदा सुरक्षित एवं अडतालीस कोठों से रचित, अडतालीस वनमालाओं से सुसज्जित, क्षेममय, शिवमय, किंकर देवों के दण्डों से उपरक्षित हैं । लीपने और पोतने से वे प्रशस्त हैं। उन पर गोशीर्षचन्दन और सरस रक्तचन्दन से पांचों अंगुलियों के छापे लगे हुए हैं । यथास्थान चन्दन के कलश रखे हुए हैं। उनके तोरण प्रतिद्वार देश के भाग चंदन के घड़ों से सुशोभित होते हैं । वे भवन ऊपर से नीचे तक लटकती हुई लम्बी, विपुल एवं गोलाकार मालाओं से युक्त हैं तथा पंचरंग के ताजे सरस सुगंधित पुष्पों के उपचार से युक्त होते हैं। वे काले अगर, श्रेष्ठ चीड, लोबान तथा धूप की महकती हुई सुगंध से रमणीय, उत्तम सुगंधित होने से गंधबट्टी के समान लगते हैं। वे अप्सरागण के संघातों से व्याप्त, दिव्य वाद्यों के शब्दों से भली-भांति शब्दायमान, सर्वरत्नमय, स्वच्छ, स्निग्ध, कोमल, घिसे हुए, पौंछे हुए, रज से रहित, निर्मल, निष्पंक, आवरणरहित कान्ति वाले, प्रभायुक्त, श्रीसम्पन्न, किरणों से युक्त, उद्योत (शीतल प्रकाश) युक्त, प्रसन्न करने वाले दर्शनीय, अभिरूप ( अतिरमणीय) और प्रतिरूप ( सुरूप ) हैं । इन भवनों में पूर्वोक्त बहुत से भवनवासी देव रहते हैं । उन भवनवासी देवों की दस जातियां हैंअसुरकुमार यावत् स्तनितकुमार। उन दसों जातियों के देवों के मुकुट या आभूषणों में अंकित चिह्न क्रमशः इस प्रकार हैं १. चूडामणि, २. नाग का फन, ३. गरुड, ४. वज्र, ५. पूर्णकलश से अंकित मुकुट, ६. सिंह, ७. मकर, ८ . हास्ति का चिह्न, ९. श्रेष्ठ अश्व और १०. वर्द्धमानक ( सिकोरा ) । वे भवनवासी देव उक्त चिह्नों से अंकित, सुरूप, महर्द्धिक, महाद्युति वाले, महान् बलशाली, महायशस्वी, महान् अनुभाग (प्रभाव) व अति सुख वाले, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले, कड़ों और बाजूबंदों से स्तम्भित भुजा वाले, कपोलों को छूने वाले कुण्डल अंगद, तथा कर्णपीठ के धारक, हाथों में विचित्र ( नानारूप) आभूषण वाले, विचित्र पुष्पमाला और मस्तक पर मुकुट धारण किये हुए, कल्याणकारी उत्तम वस्त्र पहने हुए, कल्याणकारी श्रेष्ठ माला और अनुलेपन के धारक, दैदीप्यमान शरीर वाले, लम्बी वनमाला के धारक तथा दिव्य वर्ण से, दिव्य गंध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन (शक्ति) से, दिव्य आकृति से, दिव्य ऋद्धि दिव्य द्युति से दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (शोभा) से, दिव्य अर्चि (ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: देववर्णन] [३२९ लेश्या से दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हुए, सुशोभित करते हुए वे अपने वहाँ अपने-अपने भवनावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपने-अपने त्रायस्त्रिंश देवों का, अपने-अपने लोकपालों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी-अपनी परिषदाओं का, अपने-अपने सैन्यों (अनीकों) का, अपनेअपने सेनाधिपतियों का, अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से भवनवासी देवों और देवियों का आधिपत्य, पोरोहित्य (महानता), आज्ञैश्वरत्व (आज्ञा पालन कराने का प्रभुत्व) एवं सेनापतित्व आदि करते-कराते हुए तथा पालन करते कराते हुए अहत (अव्याहत-व्याघात रहित) नृत्य, गीत, वादिंत्र, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित (वाद्य) और घनमृदंग बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य एवं उपभोग्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। सामान्यतया भवनवासी देवों के आवास-निवास सम्बन्धी प्रश्नोत्तर के बाद विशेष विवक्षा में असुरकुमारों के.आवास-निवास सम्बन्धी प्रश्न किया गया है। इसके उत्तर में कहा गया है कि रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपर व नीचे के एक-एक हजार योजन छोड़कर शेष एक लाख अठहत्तर हजार योजन के देशभाग में असुरकुमार देवों के चौसठ लाख भवनावास हैं। वे भवन बाहर से गोल, अन्दर से चौरस, नीचे से कमल की कर्णिका के आकार के हैं-आदि भवनावासों का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। __उन भवनावासों में बहुत से असुरकुमार देव रहते हैं। जो काले, लोहिताक्ष रत्न तथा बिम्बफल के समान ओठों वाले, श्वेत पुष्पों के समान दांत वाले, काले केशों वाले, बाएँ एक कुण्डल के धारक, गीले चन्दन से लिप्त शरीरवाले, शिलिन्ध्र-पुष्प के समान किंचित् रक्त तथा संक्लेश उत्पन्न न करने वाले सूक्ष्म अतीव उत्तम वस्त्र पहने हुए, प्रथम (कुमार) वय को पार किये हुए और द्वितीय वय को अप्राप्त-भद्रयौवन में वर्तमान होते हैं। वे तलभंगक (भुजा का भूषण) त्रुटित (बाहरक्षक) एवं अन्यान्य श्रेष्ठ आभूषणों से जटित निर्मल मणियों तथा रत्नों से मण्डित भुजाओं वाले, दस मुद्रिकाओं से सुशोभित अंगुलियों वाले, चूडामणि चिह्न वाले, सुरूप, महर्द्धिक महाद्युतिमान, महायशस्वी, महाप्रभावयुक्त, महासुखी, हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले आदि पूर्ववत् वर्णन यावत् दिव्य एवं उपभोग्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। इन्हीं स्थानों में दो असुरकुमारों के राजा चमरेन्द्र और बलीन्द्र निवास करते हैं। वे काले, महानील के समान, नील की गोली, गवल (भैंसे का सींग), अलसी के फूल के समान रंगवाले, विकसित कमल के समान निर्मल, कहीं श्वेत-रक्त एवं ताम्र वर्ण के नेत्रों वाले, गरुड़ के समान ऊँची नाक वाले, पुष्ट या तेजस्वी मूंगा तथा बिम्बफल के समान अधरोष्ठ वाले, श्वेत विमल चन्द्रखण्ड, जमे हुए दही, शंख, गाय के दूध, कुन्द, जलकण और मृणालिका के समान धवल दंतपंक्ति वाले, अग्नि में तपाये और धोये हुए सोने के समान लाल तलवों, तालू तथा जिह्वा वाले, अञ्जन तथा मेघ के समान काले रुचक रत्न के समान रमणीय एवं स्निग्ध बाल वाले, बाएं एक कान में कुण्डल के धारक आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् वे दिव्य उपभोग्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। दक्षिण दिशा के असुरकुमार देवों के चौंतीस लाख भवनावास हैं। असुरकुमारेन्द्र, असुरकुमार राजा Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र चमर वहाँ निवास करता है। वह ६४ हजार सामानिक देवों, तेतीस त्रायस्त्रिंशक देव, चार लोकपाल, सपरिवार, पांच अग्रमहिषियों तीन पर्षदा, सात अनीक, सात अनिकाधिपति, चार ६४ हजार (अर्थात् दो लाख छप्पन हजार) आत्मरक्षक देव और अन्य बहुत से दक्षिण दिशा के देव-देवियां का आधिपत्य करता हुआ विचरता उत्तर दिशा के असुरकुमारों के तीस लाख भवनावास हैं। उन तीस लाख भवनावासों का, साठ हजार सामानिक देवों का, चार लोकपालों का, सपरिवार पांच अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का, चार साठ हजार (दो लाख चालीस हजार) आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से उत्तर दिशा के असुरकुमार देव-देवियों का आधिपत्य करता हुआ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलीन्द्र वहाँ निवास करता है। चमरेन्द्र की परिषद् का वर्णन [११८] चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरनो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-समिया, चंडा, जाया। अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा बाहिरिया जाया। चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए कइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? मज्झिमपरिसाए कइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ? बाहिरियाए परिसाए कइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरपरिसाए चउवीसं देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ,मज्झिमाए परिसाए अट्ठावीसंदेवसाहस्सीओपण्णत्ताओ, बाहिरियाए परिसाए बत्तीसं देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। चमरस्सणंभंते!असुरिंदस्सअसुररण्णोअभितरियाएपरिसाए क्हदेविसयापण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता? बाहिरियाएपरिसाए कतिदेविसया पण्णत्ता? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरियाए परिसाए अद्भुट्ठा देविसया पण्णत्ता मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि देविसया पण्णत्ता बाहिरियाए अड्डाइज्जा देविसया पण्णत्ता। चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररण्णो अभितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं ठिई पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए० बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? अब्भिंतरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइज्जाइं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं दो पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता। बाहिरियाए परिसाए देवाणं दिवड्ढं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता।अभितरियाए परिसाए देवीणं दिवड्ढं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : चमरेन्द्र की परिषद् का वर्णन] [३३१ बाहिरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता । सेकेणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ, चमरस्सअसुरिंदस्सअसुररन्नो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-समिया चंडा जाया ? अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया ? गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अब्भितरपरिसादेवा वाहिया हव्वमागच्छंति णो अव्वाहिता, मज्झिमपरिसाए देवा वाहिया हव्वमागच्छंति अव्वाहिया वि, बाहिरपरिसा देवा अव्वाहिया हव्वमागच्छंति। ___अदुत्तरं च णं गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया अन्नयरेसु उच्चावएसु कज्जकोडुंबेसु समुप्पन्नेसु अभितरियाए परिसाए सद्धिं संमइसंपुच्छणाबहुले विहरइ, मज्झिमपरिसाए सद्धिं पर्य एवं पवंचेमाणं पवंचेमाणे विहरइ, बाहिरियाए परिसाए सद्धिं पयंडेमाणे पयंडेमाणे विहरइ। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ-चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तओ परिसाओ पण्णत्ताओ समिया चंडा जाया; अभितरिया समिया, मज्झिमिया चंडा, बाहिरिया जाया। [११८] हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की कितनी परिषदाएँ कही गई हैं ? गौतम ! तीन पर्षदाएँ कही गई हैं, यथा-समिता, चंडा और जाता।आभ्यन्तर पर्षदा समिता कहलाती है। मध्यम परिषदा चंडा और बाह्य परिषदा जाया कहलाती है। हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव हैं ? मध्यम परिषदा में कितने हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में कितने हजार देव हैं ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा में चौबीस हजार देव हैं, मध्यम परिषदा में अट्ठावीस हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में बत्तीस हजार देव हैं। हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा में कितनी देवियाँ हैं ? मध्यम परिषदा में कितनी देवियाँ हैं और बाह्य परिषदा में कितनी देवियाँ हैं ? हे गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषद् में साढे तीन सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषद् में तीन सौ और बाह्य परिषद् में ढाई सौ देवियाँ हैं । __ हे भगवन् ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की, मध्यम परिषद् की देवियों की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कितनी कही गई है? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की स्थिति ढ़ाई पल्योपम, मध्यम पर्षदा के देवों की दो पल्योपम और बाह्य परिषदा के देवों की डेढ़ पल्योपम की स्थिति है। आभ्यन्तर पर्षदा की देवियों की डेढ़ पल्योपम, मध्यम परिषदा की देवियों की एक पल्योपम की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति आधे पल्योपम की है। हे भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन पर्षदा हैं Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र समिता, चंडा और जाता। आभ्यन्तर पर्षदा समिता कहलाती है, मध्यम पर्षदा चंडा कहलाती है और बाह्य परिषद् जाता कहलाती है ? गौतम ! असुरेन्द्र असुरराज चमर की आभ्यन्तर परिषदा के देव बुलाये जाने पर आते हैं, बिना बुलाये नहीं आते। मध्यम परिषद् के देव बुलाने पर भी आते हैं और बिना बुलाये भी आते हैं। बाह्य परिषद् के देव बिना बुलाये आते हैं। गौतम ! दूसरा कारण यह है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर किसी प्रकार के ऊँचेनीचे, शोभन-अशोभन कौटुम्बिक कार्य आ पड़ने पर आभ्यन्तर परिषद् के साथ विचारणा करता है, उनकी सम्मति लेता है। मध्यम परिषदा को अपने निश्चित किये कार्य की सूचना देकर उन्हें स्पष्टता के साथ कारणादि समझाता है और बाह्य परिषदा को आज्ञा देता हुआ विचरता है। इस कारण हे गौतम ! ऐसा कहा जाता है कि असुरेन्द्र असुरराज चमर की तीन परिषदाएँ हैं-समिता, चंडा और जाता। आभ्यन्तर परिषद् समिता कहलाती है, मध्यम परिषद् चंडा कही जाती है और बाह्य परिषद् को जाता कहते हैं।' [११९].कहिं णं भंते ! उत्तरिल्लाणं असुरकुमाराणं भवणा पण्णत्ता? जहा ठाणपदे जाव बली एत्थ वइरोयणिंदे वइरोयणराया परिवसइ जाव विहरइ। बलिस्स णं भंते ! वयरोणिंदस्स वइरोयणरन्नो कइ परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा!तिणिपरिसाओ,तंजा-समियाचंडाजाया।अभितरियासमिया,मझमियाचंड बाहिरिया जाया।बलिस्सणंवइरोयणिंदस्सवइरोयणरन्नो अभितरपारिसाएकतिदेवसहस्सा? मज्झिमियाए परिसाए कति देवसहस्सा जाव बाहिरियाए परिसाए कति देविसया पण्णत्ता ? ___गोयमा ! बलिस्सणं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो अभितरियाए परिसाए वीसंदेवसहस्सा पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए चउवीसं देवसहस्सा पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अट्ठावीसं देवसहस्सा पण्णत्ता।अभिंतरियाए परिसाए अद्धपंचमा देविसया, मज्झिमियाए परिसाए चत्तारि देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए अधुढा देविसया पण्णत्ता। बलिस्स ठितीए पुच्छा जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! बलिस्स णं वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो अभितरियाए परिसाए देवाणं अद्भुट्ठपलिओवमा ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए तिन्नि पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं अड्डाइज्जाइं पलिओवमाई ठिई पण्णत्ता, अभितरियाए परिसाए देवीणं अड्डाइज्जाइं पलिओवमाइं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं दो पलिओवमाई १. परिषद् की संख्या और स्थिति बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ चउवीस अट्ठवीसा बत्तीस सहस्स देव चमरस्स, अट्ठा तिन्नि तहा अड्डाइज्जा य देविसया। अढाइज्जा य दोत्रि य दिवङ्कपलियं कमेण देवठिई, पलियं दिवड्डमेगं अद्धो देवीण परिसासु॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : नागकुमारों की वक्तव्यता] [३३३ ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं दिवढें पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, सेसं जहा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो। [११९] हे भगवन् ! उत्तर दिशा के असुरकुमारों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? गौतम ! जैसा स्थान पद में कहा गया है, वह कथन कहना चाहिए यावत् वहाँ वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि निवास करता है यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की कितनी पर्षदा कही गई हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा-समिता, चंडा और जाता। आभ्यन्तर परिषदा समिता कहलाती है, मध्यम परिषदा चण्डा है और बाह्य परिषदा जाता है। हे भगवन् ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषदा में कितने हजार देव हैं ? मध्यम परिषदा में कितने हजार देव हैं यावत् बाह्य परिषदा में कितनी सौ देवियाँ हैं ? गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषद् में बीस हजार देव हैं, मध्यम परिषदा में चौबीस हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में अट्ठावीस हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् मे साढ़े चार सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषदा में चार सौ देवियाँ हैं। बाह्य परिषदा में साढ़े तीन सौ देवियाँ हैं। हे भगवन् ! बलि की परिषदा की स्थिति के विषय में प्रश्न है यावत् बाह्य परिषदा की देवियों की स्थिति कितनी है ?. गौतम ! वैरोचनेन्द्र वैरोचनराज बलि की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति साढ़े तीन पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति तीन पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति ढाई पल्योपम की है। आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति ढाई पल्योपम की है। मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति दो पल्योपम की और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति डेढ़ पल्योपम की है, शेष वक्तव्यता असुरेन्द्र असुरकुमारराज चमर की तरह कहनी चाहिए।' नागकुमारों की वक्तव्यता [१२०.] कहिं णं भंते ! नागकुमाराणं देवाणं भवणा पण्णत्ता? जहा ठाणपदे जाव दाहिणिल्लावि पुच्छियव्वा जावधरणे इत्थ नागकुमारिंदे नागकुमाररांया परिवसइ जाव विहरइ। धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा तिण्णि परिसाओ ताओ चेव जहा चमरस्स। १. देवदेविसंख्यास्थिति विषयक संग्रहणिगाथा बीस चउवीस अट्ठावीस सहस्साण होन्ति देवाणं। अद्धपण चउठा देविसय बलिस्स परिसास ॥१॥ अद्भुट्ठ तिन्नि अड्ढाइज्जाइं होंति पलिय देव ठिई। अड्ढाइज्जा दोण्णि य दिवड्ढ देवीण ठिई कमसो ॥२॥ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र धरणस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्स णागकुमाररन्नो अब्भितरियाए परिसाए कई देवसहस्सा पण्णत्ता ? जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देवीसया पण्णत्ता ? गोयमा ! धरणस्स णं णागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अब्भितरियाए परिसाए सट्ठि देवसहस्साइं मज्झिमियाए परिसाए सत्तरिं देवसहस्साइं बाहिरियाए असीति देवसहस्साइं अब्भितरपरिसाए पण्णसतरं देविसयं पण्णत्तं, मज्झिमियाए परिसाए पण्णासे देविसयं पण्णत्तं, बाहिरियाए परिसाए पणवीसं देविसयं पण्णत्तं । धरणस्स णं रन्नो अब्भितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? मज्झमिया परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? अब्भितरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? मज्झिमियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठि पण्णत्ता ? ३३४ ] " गोयमा ! धरणस्स णं रण्णो अब्भितरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं देणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अब्भितरियाए परिसाए देवीणं देणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवीणं सातिरेगं चउब्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरिया परिसाए देवीणं चउब्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अट्ठो जहा चमरस्स । कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाणं णागकुमारणं ? जहा ठाणपदे जाव विहरति । भूयाणंदस्स णं भंते ! णागकुमारिंदस्स नागकुमाररण्णो अब्भितरियाए परिसाए कइ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ? मज्झिमियाए परिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ ? बाहिरियाए परिसाए कई देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ अब्भितरियाए परिसाए कई देविसया पण्णत्ता ? मज्झिमियाए परिसाए कई देविसया पण्णत्ता ? बहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता ? गोयमा ! भूयानंदस्स णं नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो अब्भितरियाए परिसाए पन्नासं देवसहस्सा पण्णत्ता । मज्झमियाए परिसाए सट्ठि देवसहस्सा पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए सत्तरं देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । अब्भितरियाए परिसाए दो पणवीसं देविसया णं पण्णत्ता, मज्झमिया परिसाए दो देविसया पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए पण्णत्तरं देविसयं पण्णत्तं । भूयानंदस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स नागकुमारण्णो अब्भितरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ? जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता । गोयमा ! भूयानंदस्स णं अब्भितरियाए परिसाए देवाणं देसूणं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झिमिया परिसाए देवाणं साइरेगं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अब्भितरियाए परिसाए देवीणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, मज्झमिया परिसाए देवीणं देसूणं अद्धपलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवीणं साइरेगं चउब्भागपलिओवमं ठिती पण्णत्ता । अत्थो जहा चमरस्स । अवसेसाणं वेणुदेवादीणं Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति :नागकुमारों की वक्तव्यता] [३३५ महाघोसपज्जवसाणाणं ठाणपदवत्तव्वया णिरवयवा भाणियव्वा, परिसाओ जहा धरणभूयानंदाणं।(सेसाणंभवणवईणं) दाहिणिल्लाणं जहा धरणस्स उत्तरिल्लाणंजहा भूयाणंदस्स, परिमाणं पि ठिती वि॥ [१२०] हे भगवन् ! नागकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? गौतम ! जैसे स्थानपद में कहा है वैसी वक्तव्यता जानना चाहिए यावत् दक्षिणदिशवर्ती नागकुमारों के आवास का प्रश्न भी पूछना चाहिए यावत् वहाँ नागकुमारेन्द्र और नागकुमारराज धरण रहता है यावत् दिव्यभोगों को भोगता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की कितनी परिषदाएँ हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं । उनके नाम वे ही हैं जो चमरेन्द्र की परिषदा के कहे हैं। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागराज धरण की आभ्यन्तर परिषद् में कितने हजार देव हैं ? यावत् बाह्य परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? __ गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज धरण की आभ्यन्तर परिषदा में साठ हजार देव हैं, मध्यम परिषदा में सत्तर हजार देव हैं और बाह्य परिषदा में अस्सी हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् में १७५ देवियाँ हैं, मध्यम परिषद् में १५० और बाह्य परिषद् में १२५ देवियाँ हैं। ____ धरणेन्द्र नागराज की आभ्यन्तर परिषदा के देवों की कितने काल की स्थिति कही गई हैं ? मध्यम परिषदा के देवों की स्थिति और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही गई है ? आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कितनी कही गई है ? - गौतम ! नागराज धरणेन्द्र की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है, बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कुछ कम आधे पल्योपम की है। आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम की है। तीन प्रकार की पर्षदाओं का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह जानना। हे भगवन् ! उत्तर दिशा के नागकुमार देवों के भवन कहाँ कहे गये हैं आदि वर्णन स्थानपद के अनुसार जानना चाहिए यावत् वहाँ भूतानन्द नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज रहता है यावत् भोगों का उपभोग करता हुआ विचरता है। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषद् में कितने हजार देव हैं, मध्यम परिषद् में कितने हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में कितने हजार देव हैं? आभ्यन्तर परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? और बाह्य परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? गौतम ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषद् में पचास हजार देव हैं, मध्यम Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र परिषद् में साठ हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में सत्तर हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषद् की देवियाँ २२५ हैं, मध्यम परिषद् की देवियाँ २०० हैं तथा बाह्य परिषद् की देवियाँ १७५ हैं। हे भगवन् ! नागकुमारेन्द्र नागकुमारारज भूतानन्द की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी कही है ? यावत् बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कितनी कही है ? गौतम ! भूतानन्द के आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति देशोन पल्योपम है, मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक आधे पल्योपम की है और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है। आभ्यन्तर परिषद् की देवियों की स्थिति आधे पल्योपम की है, मध्यम परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन आधे पल्योपम की है और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम है। परिषदों का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह जानना। शेष वेणुदेव से लगाकर महाघोष पर्यन्त की वक्तव्यता स्थानपद के अनुसार पूरी-पूरी कहना चाहिए। परिषद् के विषय में भिन्नता है वह इस प्रकार है-दक्षिण दिशा के भवनपति इन्द्रों की परिषद् धरणेन्द्र की तरह और उत्तर दिशा के भवनपति इन्द्रों की परिषदा भूतानन्द की तरह कहनी चाहिए। परिषदों, देव-देवियों की संख्या तथा स्थिति भी उसी तरह जान लेनी चाहिए। विवेचन-प्रस्तुत सूत्रों में असुरकुमार और नागकुमार भवनपतिदेवों के भवन, परिषदा, परिषदा का प्रमाण और स्थिति का वर्णन किया गया है जो मूलपाठ से ही स्पष्ट है। आगे के सुपर्णकुमार आदि भवनवासियों के लिए धरणेन्द्र और भूतानन्द की तरह जानने की सूचना है। दक्षिण दिशा के भवनपतियों का वर्णन धरणेन्द्र की तरह और उत्तर दिशा के भवनपतियों की वर्णन भूतानन्द की तरह जानना चाहिए। इन भवनपतियों में भवनों की संख्या, इन्दों के नाम और परिमाण आदि में भिन्नता है वह पूर्वांचार्यों ने सात गाथाओं में बताई हैं जिनका भावार्थ इस प्रकार हैं - ___ असुरकुमारों के ६४ लाख भवन हैं, नागकुमारों के ८४ लाख, सुपर्णकुमारों के ७२ लाख, वायुकुमारों के९६ लाख, द्वीपकुमार, दिक्कुमार, उदधिकुमार, विद्युत्कुमार, स्तनितकुमार और अग्निकुमार इन छह भवनपतियों के प्रत्येक के ७६-७६ लाख भवन हैं। (१-२) दक्षिण और उत्तर दिशाओं के भवनवासियों के भवनों की अलग-अलग संख्या इस प्रकार है दक्षिण दिशा के असुरकुमारों के ३४ लाख भवन, नागकुमशों के ४४ लाख, सुपर्णकुमारों के ३८ लाख, वायुकुमारों के ५० लाख, शेष ६ द्वीप-दिशा-उदधि, विद्युत, स्तनित, अग्निकुमरों के प्रत्येक के ४०४० लाख भवन हैं। (३) १. चउसट्ठी असुराणं चुलसीइ चेव होइ नागाणं । बावत्तरि सुवन्ने वायुकुमाराण छनउह॥१॥ दीव दिस उदहीणं विज्जुकुमारिंद थणियमग्गीणं । छण्हं पि जुयलयाणं छावत्तरिओ सयसहस्सा ॥२॥ चोत्तीसा चोयाला अट्ठतीसं च सयसहस्साई। पण्णा चत्तालीसा दाहिणओ होंति भवणाई॥३॥ (शेष अगले पृष्ठ पर) Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३३७ तृतीय प्रतिपत्ति: नागकुमारों की वक्तव्यता ] उत्तर दिशा के असुरकुमारों के भवन ३० लाख, नागकुमारों के ४० लाख, सुपर्णकुमारों के ३४ लाख, वायुकुमारों ४६ लाख शेष छहों के प्रत्येक के ३६- ३६ लाख भवन हैं। इस प्रकार दक्षिण और उत्तर दोनों दिशाओं के भवनपतियों के भवनों की संख्या मिलाकर कुल भवनसंख्या प्रथम और दूसरी गाथा में कही गई है। भवनपति इन्द्रों के नाम को बताने वाली गाथाओं में पहले दक्षिण दिशा के इन्द्रों के नाम बताये हैं दक्षिण दिशा के असुरकुमारों का इन्द्र चमर है । नागकुमारों का धरण, सुपर्णकुमारों का वेणुदेव, विद्युत्कुमारों का हरिकान्त, अग्निकुमारों का अग्निशिख, द्वीपकुमारों का पूर्ण, उदधिकुमारों का जलकान्त, दिक्कुमारों का अमितगति, वायुकुमारों का वेलम्ब और स्तनितकुमारों का घोष इन्द्र है । उत्तर दिशा के असुरकुमारों का इन्द्र बलि है। नागकुमारों का भूतानन्द, सुपर्णकुमारों का वेणुदाली, विद्युत्कुमारों का हरिस्सह, अग्निकुमारों का अग्निमाणव, द्वीपकुमारों का विशिष्ट, उदधिकुमारों का जलप्रभ, दिककुमारों का अमितवाहन, वायुकुमारों का प्रभंजन और स्तनितकुमारों का महाघोष है । भवनादि - दर्शक यंत्र इन्द्र भवनपति दक्षिण उत्तर नाम के भवन के भवन असुरकुमार ३४लाख ३० लाख नागकुमार ४४ लाख ४० लाख सुपर्णकुमार ३८,, ३४ विद्युत्कुमार ४० अग्निकुमार ४० ३६ कुमार ४० उदधिकुमार ४० दिक्कुमार ४० वायुकुमार ५० स्तनितकुमार ४० "" "" "" "" "" "" "" "" " ३६ " ३६ " ३६ "" ३६ " ४६” ३६ "1 कुल भवन ६४ लाख ८४ लाख ७२ ७६ ७६ ७६ ७६ ७६ ९६ ७६ "" "" "" "" "2 "" "" "" तीसा चत्तालीसा चोत्तीसं चेव सयसहस्साइं । छायाला छत्तीसा उत्तरओ होंति भवणाई ॥ ४ ॥ चमरे धरणे तह वेणुदेव हरिकंत अग्गिसिहे य । पुणे जलकंते अमिए वेलंब घोसे य ॥ ५ ॥ बलि भूयाणंदे वेणुदालि हरिस्सह अग्गिमाणव विसिट्ठे । जलप्पभ अमियवाहण पभंजणे चेव महघोसे ॥ ६ ॥ दक्षिण चमर धरण भूतानंद वेणुदेव वेणुदाि हरिकांत हरिस्सह अग्निशिख अग्निमाणव पूर्ण विशिष्ट जलकांत जलप्रभ अमितगति अमितवाहन उत्तर बलि लंब प्रभंजन महाघोष घोष चउसट्ठी सट्ठी खलु छच्च सहस्सा उ असुरवज्जाणं । सामाणियां उ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥ ७ ॥ - संग्रहणी गाथाएँ समानिकदेव आत्मरक्षक देव चमर के २ लाख छप्पन हजार बलि के २ लाख चालीस हजार २४ हजार चमर के ६४ हजार बलि के ६० हजार शेष सब के ६००० " "" "" "" "" "2 "" "" " " "" Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति वानव्यन्तरों का अधिकार १२१. कहिं णं भंते ! वाणमंतराणं देवाणं भवणा ( भोमेजणगरा) पण्णत्ता ? जहा ठाणपदे जाव विहरंति। कहिं णं भंते ! पिसायाणं देवाणं भवणा पण्णत्ता ? जहा ठाणपदे जाव विहरंति। कालमहाकाला य तत्थ दुवे पिसायकुमाररायाणो परिवसंति जाव विहरंति। कहिं गंभंते ! दाहिणिल्लाणं पिसायकुमाराणंजाव विहरंति काले य एत्थ पिसायकुमारिंदे पिसायकुमारराया परिवसइ महड्डिए जाव विहरति। कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ ? गोयमा !तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ तं जहा-ईसा तुडिया दढरहा।अभितरिया ईसा, मज्झिमिया तुडिया, बाहिरिया दढरहा। कालस्स णं भंते ! पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरपरिसाए कति देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ? जाव बाहिरियाए परिसाए कइ देविसया पण्णत्ता ? गोयमा.! कालस्स णं पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररायस्स अधिभतरपरिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ। मज्झिमपरिसाए दस देवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ बाहिरियपरिसाए बारस देव साहस्सीओ पण्णत्ताओ। अभितरपरिसाए एगं देविसयं पण्णत्तं। मज्झिमियाए परिसाए एगं देविसयं पण्णत्तं। बाहिरियाए परिसाए एगं देविसयं पण्णत्तं। कालस्सणंभंते ! पिसायकुमारिदस्स पिसायकुमाररण्णोअभितरपरिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? मज्झिमियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता? बाहिरियाए परिसाए देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? जाव बाहिरियाए परिसाए देवीणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! कालस्स णं पिसायकुमारिंदस्स पिसायकुमाररण्णो अभितरपरिसाए देवाणं अद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, मज्झिमियाए परिसाए देवाणं देसूणंअद्धपलिओवमं ठिई पण्णत्ता, बाहिरियाए परिसाए देवाणं सातिरेगं चउब्भाग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता।अभितरपरिसाए देवीणं सातिरेगंचउब्भागपलिओवमंठिती पण्णत्ता, मज्झिमपरिसाए देवीणंचउब्भाग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, बाहिरपरिसाए देवीणं देसूणंचउब्भाग पलिओवमंठिती पण्णत्ता।अट्ठोजोचेव चमरस्स। एवं उत्तरस्स वि एवं णिरंतरं जाव गीयजसस्स। [१२१] हे भगवन् ! वानव्यन्तर देवों के भवन (भौमेयनगर) कहाँ कहे गये हैं ? Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: वानव्यन्तरों का अधिकार] [३३९ जैसा स्थानपद में कहा वैसा कथन कर लेना चाहिए यावत् दिव्य भोग भोगते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! पिशाचदेवों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? जैसा स्थानपद में कहा वैसा कथन कर लेना चाहिए यावत् दिव्य भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। वहाँ काल और महाकाल नाम के दो पिशाचकुमारराज रहते हैं यावत् विचरते हैं। __ हे भगवन् दक्षिण दिशा के पिशाचकुमारों के भवन कहाँ कहे गये हैं ? इत्यादि कथन कर लेना चाहिए यावत् भोग भोगते हुए विचरते हैं। वहाँ महर्द्धिक पिशाचकुमार इन्द्र पिशाचकुमारराज रहते हैं यावत् भोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचकुमारराज काल की कितनी परिषदाएँ हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ हैं। वे इस प्रकार हैं-ईशा, त्रुटिता और दृढरथा। आभ्यन्तर परिषद् ईशा कहलाती है। मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद् दृढरथा कहलाती है। हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यन्तर परिषद् में कितने हजार देव हैं ? यावत् बाह्य परिषद् में कितनी सौ देवियाँ हैं ? गौतम ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यन्तर परिषद् में आठ हजार देव हैं, मध्यम परिषद् में दस हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में बारह हजार देव हैं। आभ्यन्तर परिषदा में एक सौ देवियाँ हैं, मध्यम परिषदा में एक सौ और बाह्य परिषदा में भी एक सौ देवियाँ हैं। हे भगवन् ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? मध्यम परिषद् के और बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कितनी है ? यावत् बाह्य परिषदा की देवियों की स्थिति कितनी हैं ? गौतम ! पिशाचकुमारेन्द्र पिशाचराज काल की आभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है, मध्यमपरिषद् के देवों की देशोन आधा पल्योपम और बाह्यपरिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है। आभ्यन्तरपरिषद् की देवियों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम, मध्यमपरिषद् की देवियों की स्थिति पाव पल्योपम और बाह्य परिषद् की देवियों की स्थिति देशोन पाव पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ आदि कथन चमरेन्द्र की तरह कहना चाहिए। इसी प्रकार उत्तर दिशा के वानव्यन्तरों के विषय में भी कहना चाहिए। उक्त सब कथन गीतयश नामक गन्धर्वइन्द्र पर्यन्त कहना चाहिए । विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वानव्यन्तरों की भौमेयनगरों के विषय में प्रश्नोत्तर हैं। प्रश्न किया गया है कि वानव्यन्तर देवों के भवन (भौमेयनगर) कहाँ हैं। उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद के अनुसार वक्तव्यता कहने की सूचना दी गई है। संक्षेप में प्रज्ञापनासूत्र में किया गया वर्णन इस प्रकार है इस रत्नप्रभापृथ्वी के एक हजार योजन मोटे रत्नमय काण्ड के ऊपर से एक सौ योजन अवगाहन करने के बाद तथा नीचे से भी एक सौ योजन छोड़कर बीच में आठ सौ योजन में वानव्यन्तर देवों के तिरछे असंख्यात भौमेय (भूमिगृह समान) लाखों नगरावास हैं। Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वे भौमेयनगर बाहर से गोल, अन्दर से चौरस तथा नीचे से कमल की कर्णिका के आकार से संस्थित हैं। उनके चारों ओर गहरी और विस्तीर्ण खाइयाँ और परिखाएं खुदी हुई हैं । वे यथास्थान प्राकारों, अट्टालकों, कपाटों, तोरणों और प्रतिद्वारों से युक्त हैं । इत्यादि वर्णन सूत्र ११७ के विवेचन के अनुसार समझ लेना चाहिए। यावत् वे भवन प्रसन्नता उत्पन्न करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन नगरावासों में बहुत से पिशाच आदि वानव्यन्तर देव रहते हैं। वे देव अनवस्थित चित्त केहोने से अत्यन्त चपल, क्रीडातत्पर, और परिहास-प्रिय होते हैं । गंभीर हास्य, गीत और नृत्य में इनकी अनुरक्ति रहती है। वनमाला, कलंगी, मुकुट, कुण्डल तथा इच्छानुसार विकुर्वित आभूषणों से वे भली-भाँति मण्डित रहते हैं। सभी ऋतुओं में होने वाले सुगन्धित पुष्पों से रचित, लम्बी, शोभनीय, सुन्दर एवं खिली हुई विचित्र वनमाला से उनका वक्ष-स्थल सुशोभित रहता है। अपनी कामनानुसार काम-भोगों का सेवन करने वाले, इच्छानुसार रूप एवं देह के धारक, नाना प्रकार के वर्णों वाले श्रेष्ठ विचित्र चमकीले वस्त्रों के धारक, विविध देशों की वेशभूषा धारण करने वाले होते हैं। इन्हें प्रमोद, कन्दर्प (कामक्रीड़ा) कलह, केलि और कोलाहल प्रिय है। इनमें हास्य और बोल-चाल बहुत होता है। इनके हाथों में खड्ग, मुद्गर, शक्ति और भाले भी रहते है। ये अनेक मणियों और रत्नों के विविध चिह्न वाले होते हैं। वे महर्द्धिक, महाद्युतिमान्, महायशस्वी, महाबलवान्, महानुभाव, महासामर्थ्यशाली, महासुखी और हार से सुशोभित वक्षःस्थल वाले होते हैं। कड़े और बाजूबन्द से उनकी भुजाएँ स्तब्ध रहती है। अंगद और कुण्डल इनके कपोलस्थल को स्पर्श किये रहते हैं। ये कानों में कर्णपीठ धारण किये रहते हैं। इनके शरीर अत्यन्त देदीप्यमान होते हैं। वे लम्बी वनमालाएँ धारण करते हैं। दिव्य वर्ण से, दिव्य गन्ध से, दिव्य स्पर्श से, दिव्य संहनन से, दिव्य संस्थान से, दिव्य ऋद्धि से, दिव्य द्युति से , दिव्य प्रभा से, दिव्य छाया (कांति) से, दिव्य अर्चि(ज्योति) से, दिव्य तेज से एवं दिव्य लेश्या से दसों दिशाओं को उद्योतित एवं प्रभासित करते हुए विचरते हैं। वे अपने लाखों भौमेयनगरावासों का, अपने-अपने हजारों सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्र महिषियों का, अपनी-अपनी परिषदों का, अपनी-अपनी सेनाओं का, अपने-अपने सेनाधिपति देवों का, अपने-अपने आत्मरक्षकों और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य, पौरपत्य, स्वामित्व, भर्तृत्व, महत्तरकत्व, आज्ञैश्वरत्व एवं सेनापतित्व करते-कराते तथा उनका पालन करते कराते हुए, महान् उत्सव के साथ नृत्य, गीत और वीणा, तल, ताल, त्रुटित घन मृदंग आदि वाद्यों को बजाने से उत्पन्न महाध्वनि के साथ दिव्य भोगों को भोगते हुए रहते हैं। उक्त वर्णन सामान्यरूप से वानव्यन्तरों के लिए है। विशेष विवक्षा में पिशाच आदि वानव्यन्तरों का वर्णन भी इसी प्रकार जानना चाहिए। अर्थात् उन भौमेयनगरों में पिशाचदेव अपने अपने भवन, सामानिक आदि देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। इन नगरावासों में दो पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल और महाकाल निवास करते है। वे महर्द्धिक महाद्युतिमान यावत् दिव्य भोगों को भोगते हुए विचरते हैं। दक्षिणवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल है और उत्तरवर्ती क्षेत्र का इन्द्र पिशाचेन्द्र पिशाचराज महाकाल है। Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वानव्यन्तरों का अधिकार] [३४१ वह पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल तिरछे असंख्यात भूमिगृह जैसे लाखों नागरावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेनाओं का, सात सेनाधिपतियों का सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का और बहुत से दक्षिणदिशा के वाणव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ विचरता है। पिशाचेन्द्र पिशाचराज काल की तीन परिषदाएं हैं-ईशा, त्रुटिता और दृढरथा। आभ्यन्तर परिषद् को ईशा कहते हैं, मध्यम परिषद् को त्रुटिता और बाह्य परिषद को दृढरथा कहा जाता है। आभ्यन्तर परिषद् में देवों की संख्या आठ हजार है, मध्यम परिषद् में दस हजार देव हैं और बाह्य परिषद् में बारह हजार देव हैं। तीनों परिषदों में देवियों की संख्या एक सौ-एकसौ है। उनकी स्थिति इस प्रकार हैआभ्यन्तर परिषद् के देवों की स्थिति आधे पल्योपम की है। मध्यम परिषद् के देवों की स्थिति देशोन आधे पल्योपम की है। बाह्य परिषद् के देवों की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है। आभ्यन्तर परिषद् की देवी की स्थिति कुछ अधिक पाव पल्योपम की है। मध्यम परिषद की देवी की स्थिति पाव पल्योपम की है। बाह्य परिषद् की देवी की स्थिति देशोन पाव पल्योपम की है। परिषदों का अर्थ आदि वक्तव्यता जैसे चमरेन्द्र के विषय में कही गई है वही सब यहां समझना चाहिए। उत्तरवर्ती पिशाचकुमार देवों की वक्तव्यता भी दक्षिणात्य जैसी ही है। उनका इन्द्र महाकाल है। काल के समान ही महाकाल की वक्तव्यता भी है। इसी प्रकार की वक्तव्यता भूतों से लेकर गन्धर्वदेवों के इन्द्र गीतयश तक की है। इस वक्तव्यता में अपने-अपने इन्द्रों को लेकर भिन्नता है। इन्द्रों की भिन्नता दो गाथाओं में इस प्रकार कही गई है - (१) पिशाचों के दो इन्द्र-काल और महाकाल (२) भूतों के दो इन्द्र-सुरूप और प्रतिरूप (३) यक्षों के दो इन्द्र-पूर्णभद्र और माणिभद्र (४) राक्षसों के दो इन्द्र-भीम और महाभीम (५) किन्नरों के दो इन्द्र-किन्नर और किंपुरुष १. काले य महाकाले सुरूव-पडिरूव पुण्णभद्दे य। अमरवइ माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे ॥१॥ किनर किंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अइकाय महाकाए गीयरई चेव गीतजसे ॥२॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र (६) किंपुरुषों के दो इन्द्र-सत्पुरुष और महापुरुष (७) महोरगों के दो इन्द्र-अतिकाय और महाकाय (८) गन्धर्षों के दो इन्द्र-गीतरति और गीतयश उक्त दो-दो इन्द्रों में से प्रथम दक्षिणशिावर्ती देवों का इन्द्र हैं और दूसरा उत्तरदिशावर्ती वानव्यन्तर देवों का इन्द्र है। यहाँ वानव्यन्तर देवों का अधिकार पूरा होता है। आगे ज्योतिष्क देवों की जानकारी दी गई है। ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन १२२. कहिं णं भंते ! जोइसियाणं देवाणं विमाणा पण्णत्ता ? कहिं णं भंते जोइसिया देवा परिवसंति? गोयमा ! उप्पिं दीवसमुद्दाणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ सत्तणउए जोयणसए उड्ढं उप्पइत्ता दसुत्तरसया जोयणबाहल्लेणं, तत्थ णंजोइसियाणं देवाणं तिरियमसंखेज्जा जोतिसियविमाणावाससयसहस्सा भवंतीतिमक्खायं। तेणं विमाणा अद्धकविट्ठकसंठाणसंठिया एवं जहा ठाणपदे जाव चंदिमसूरिया य तत्थ णं जोइसिंदा जोइसरायाणो परिवसंति महिड्डिया जाव विहरंति। सरस्स णं भंते ! जोतिसिंदस्स जोतिसरण्णो कति परिसाओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! तिण्णि परिसाओ पण्णत्ताओ, तं जहा-तुंबा, तुडिया, पेच्चा। अभितरिया तुंबा, मज्झिमिया, तुडिया, बाहिरिया पेच्चा। सेसं जहा कालस्स परिमाणं ठिई वि।अट्ठो जहा चमरस्स। चंदस्स वि एवं चेव। [२२] हे भगवन् ! ज्योतिष्क देवों के विमान कहाँ कहे गये हैं। हे भगवन् ! ज्योतिष्क देव कहाँ रहते हैं ? गौतम ! द्वीपसमुद्रों से ऊपर और इस रत्नप्रभापृथ्वी के बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग से सात सौ नब्बे योजन ऊपर जाने पर एक सौ दस योजन प्रमाण ऊँचाईरूप क्षेत्र में तिरछे ज्योतिष्क देवों के असंख्यात लाख विमानावास कहे गये हैं। (ऐसा मैने और अन्य पूर्ववर्ती तीर्थंकरों ने कहा है)। ये विमान आधे कबीठ के आकार के हैं-इत्यादि जैसा वर्णन स्थानपद में किया है वैसा यहाँ भी कहना यावत् वहाँ ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्र और सूर्य दो इन्द्र रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् दिव्यभोगों का उपभोग करते हुए विचरते हैं। हे भगवन् ! ज्येतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज सूर्य की कितनी परिषदाएँ हैं ? गौतम ! तीन परिषदाएँ कही गई हैं, यथा-तुंबा, त्रुटिता और प्रेत्या। आभ्यन्तर परिषदा का नाम तुंबा है, मध्यम परिषदा का नाम त्रुटिता है और बाह्य परिषद् का नाम प्रेत्या है। शेष वर्णन काल इन्द्र की तरह जानना। उनका परिमाण (देव-देवी संख्या) और स्थिति भी वैसी ही जानना चाहिए। परिषद् का अर्थ चमरेन्द्र की तरह जानना चाहिए। Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: ज्योतिष्क देवों के विमानों का वर्णन] [३४३ सूर्य की वक्तव्यता के अनुसार चन्द्र की वक्तव्यता जाननी चाहिए। विवेचन-इस रत्नप्रभा पृथ्वी के अत्यन्त सम एवं रमणीय भूभाग से सात सौ नब्बे (७९०) योजन की ऊँचाई पर एक सौ दस योजन के बाहल्य में एवं तिरछे असंख्यात योजन में ज्योतिष्क क्षेत्र है, जहाँ ज्योतिष्क देवों के तिरछे, असंख्यात लाख ज्योतिष्क विमानावास हैं। वे विमान आधे कबीठ के आकार के हैं और पूर्णरूप से स्फटिकमय हैं। वे सामने से चारों ओर ऊपर उठे (निकले) हुए, सभी दिशाओं में फैले हुए तथा प्रभा से श्वेत हैं। विविध मणियों, स्वर्ण और रत्नों की छटा से वे चित्र विचित्र हैं, हवा में उड़ती हुई विजय-वैजयंती, पताका, छत्र पर छत्र (अतिछत्र) से युक्त हैं। वे बहुत ऊँचे गगनतलचुंबी शिखरों वाले हैं। उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं तथा वे विमान पिंजरा (आच्छादन) हटाने पर प्रकट हुई वस्तु की तरह चमकदार हैं। वे मणियों और रत्नों की स्तूपिकाओं से युक्त हैं। उनमें शतपत्र और पुण्डरीक कमल खिले हुए हैं। तिलकों और रत्नमय अर्धचन्द्रों से वे चित्रविचित्र हैं तथा नानामणिमय मालाओं से सुशोभित हैं। वे अन्दर और बाहर से चिकने हैं। उनके प्रस्तर सोने की रुचिर बालूवाले हैं। वे सुखद स्पर्शवाले, श्री से सम्पन्न, सुरूप, प्रसन्नता पैदा करने वाले, दर्शनीय, अभिरूप (अतिरमणीय) और अतिरूप (बहुत सुन्दर) हैं। इन विमानों में बहुत से ज्योतिष्क देव निवास करते हैं । वे इस प्रकार हैं-वृहस्पति, चन्द्र, सूर्य, शुक्र, शनैश्चर, राहू, धूमकेतु, बुध एवं अंगारक (मंगल)। ये तपे हुए तपनीय स्वर्ण के समान वर्णवाले (किंचित् रक्त वर्ण) हैं। तथा ज्योतिष्क क्षेत्र में विचरण करने वाले ग्रह, गति में रत रहने वाला केतु, अट्ठाईस प्रकार के नक्षत्रगण, नामा आकारों के पांच वर्णो के तारे तथा स्थितलेश्या वाले, संचार करने वाले, अविश्रान्त मण्डलाकार गति करने वाले ये सब ज्योतिष्कदेव इन विमानों में रहते हैं। इन सबके मुकुट में अपने अपने नाम का चिह्न होता है। ये महर्द्धिक होते हैं यावत् दसों दिशाओं को प्रभासित करते हुए विचरते हैं। ये ज्योतिष्क देव वहाँ अपने अपने लाखों विमानावासों का, अपने हजारों समानिक देवों का, अपनी अग्रमहिषियों, अपनी परिषदों का, अपनी सेना और सेनाधिपति देवों का, हजारों आत्मक्षक देवों का और बहुत से ज्योतिष्क देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए रहते हैं। इन्हीं में ज्योतिष्केन्द्र ज्योतिष्कराज चन्द्रमा और सूर्य दो इन्द्र हैं, जो महर्द्धिक यावत् दसों दिशाओं को प्रकाशित करते हैं। वे अपने लाखों विमानावासों का, चार हजार सामानिक देवों का, चार अग्रमहिषियों का, तीन परिषदों का, सात सेना और सेनाधिपतियों का सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा अन्य बहुत से ज्योतिष्क देव-देवियों का आधिपत्य करते हुए विचरते हैं। इन सूर्य और चन्द्र इन्द्रों की तीन तीन परिषदाएँ हैं। उनके नाम तुंबा, त्रुटिता, और प्रेत्या हैं। आभ्यन्तर परिषद् तुंबा कहलाती हैं, मध्यम परिषद् त्रुटिता है और बाह्य परिषद प्रेत्या है। इन परिषदों में देवों और देवियों की संख्या तथा उनकी स्थिति पूर्ववर्णित काल इन्द्र की तरह जाननी चाहिए। परिषदों का अर्थ आदि अधिकार चमरेन्द्र के वर्णन के अनुसार जानना चाहिए। सूर्य की तरह ही चन्द्रमा का अधिकार भी समझ लेना चाहिए। Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र-वक्तव्यता १२३. कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता? केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता ? केमहालया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता ? किंसंठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता ? किमाकारभावपडोयाराणंभंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता? गोयमा! जंबुद्दीवाइया दीवालवणाइया समुद्दा संठाणओ एकविहविहाणा वित्थारओ अणेगविधविहाणा दुगुणा दुगुणे पडुप्पाएमाणा पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणाओभासमाणा वीचिया बहुउप्पलपउमकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयमहापोंडरीयसतपत्तसहस्सपत्त पप्फुल्लकेसरोवचिया पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयंपत्तेयंवणखंडपरिक्खित्ता अस्सिं तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो ! _ [१२३] हे भगवन्! द्वीप समुद्र कहाँ अवस्थित हैं ? भगवन् ! द्वीप समुद्र कितने हैं ? भगवन् ! वे द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? भगवन् ! उनका आकार कैसा है ? भंते ! उनका आकारभाव प्रत्यवतार (स्वरूप) कैसा हैं ? गौतम ! जम्बूद्वीप से आरम्भ होने वाले द्वीप है और लवणसमुद्र से आरम्भ होने वाले समुद्र हैं। वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं अर्थात् दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुशोभित हैं। ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं। विवेचन-ज्योतिष्क देव तिर्यक्लोक में हैं, अतएव तिर्यक्लोक से सम्बन्धित द्वीपों और समुद्रों की वक्तव्यता इस सूत्र में कही गई है। श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि द्वीप और समुद्र कहाँ स्थित हैं ? वे कितने हैं ? कितने बड़े हैं ? उनका आकार कैसा है और उनका आकार भाव प्रत्यवतार अर्थात् स्वरूप किस प्रकार का है ? इस तरह अवस्थिति, संख्या, प्रमाण संस्थान और स्वरूप को लेकर द्वीप-समुद्रों की पृच्छा की गई है। भगवान् ने इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व द्वीप-समुद्रों की आदि बताई है। आदि के विषय में प्रश्न न होने पर भी आगे उपयोगी होने से पहले आदि बताई है। साथ ही यह भी सूचित किया है कि गुणवान शिष्य को उसके द्वारा न पूछे जाने पर भी तत्त्वकथन करना चाहिए। प्रभु ने फरमाया कि सब द्वीपों की आदि में जम्बूद्वीप है और सब समुद्रों की आदि में लवणसमुद्र है। सब द्वीप और समुद्र वृत्त (गोलाकार) होने से एक प्रकार के संस्थान वाले हैं परन्तु विस्तार की भिन्नता के कारण वे अनेक प्रकार के हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार वाला है। उसको घेरे हुए दो लाख योजन का लवणसमुद्र है, उसको घेरे हुए चार लाख योजन का धातकीखण्ड द्वीप है। इस प्रकार आगे आगे द्वीप और समुद्र दुगुने-दुगुने विस्तार वाले हैं। अर्थात् ये द्वीप और समुद्र दूने दूने विस्तार वाले होते जाते हैं। ये द्वीप और समुद्र दृश्यमान जलतरंगों से तरंगित हैं। यह विशेषण समुद्रों पर तो स्पष्टतया संगत है ही किन्तु द्वीपों पर भी संगत है क्योंकि द्वीपों Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप वर्णन ] [ ३४५ में भी नदी, तालाब तथा जलाशयों में तरंगों का सद्भाव है ही । ये द्वीप समूह नाना - जातियों के कमलों से शोभायमान हैं। सामान्य कमल को उत्पल कहते हैं । सूर्यविकासी कमल को पद्म तथा चन्द्रविकासी कमल को कुमुद, ईषद् रक्त कमल को नलिन कहते हैं । सुभग और सौगन्धिक भी कमल की जातियां हैं। पुण्डरीक और महापुण्डरीक कमल श्वेत वर्ण के होते हैं । सौ पत्तों वाला कमल शतपत्र है और हजार पत्तों वाला कमल सहस्रपत्र है। विकसित केसरों (परागों) से वे द्वीप समुद्र अत्यन्त शोभनीय हैं। ये प्रत्येक द्वीप और समुद्र एक पद्मवरवेदिका से और एक वनखण्ड से परिमण्डित हैं ( घिरे हुए हैं) । इस तिर्यक्लोक में एक द्वीप और एक समुद्र के क्रम से असंख्यात द्वीप और समुद्र हैं। सबसे अन्त में स्वयंभूरमण समुद्र है। इस प्रकार अवस्थिति, संख्या, प्रमाण और संस्थान का कथन किया। आकार भाव प्रत्यवतार का कथन अगले सूत्र में किया गया है। जम्बूद्वीप वर्णन १२४. तत्थ णं अयं जंबुद्दीवे णामं दीवे दीवसमुद्दाणं अब्भितरिए सव्वखुड्डाए वट्टे तेल्लापूयसंठाणसंठिए वट्टे, रहचक्कवालसंठाणसंठिए वट्टे, पुक्खरकण्णियासंठाणसंठिए वट्टे, पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए एक्कं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खभेणं तिणि जोयणसहस्साई सोलस य सहस्साइं दोण्णि ये सत्तावीसे जोयणसए तिण्णि य कोसे अट्ठावीसं च धणुसयं तेरस अंगुलाई अर्द्धगुलकं च किं चि विसेसाहियं परिक्खेवेणं पण्णत्ते । सेणं एक्काए जगतीए सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते । सा णं जगती अट्ठ जोयणाई उड्ढ उच्चत्तेणं, मूले वारस जोयणाइं विक्खंभेणं मज्झे अट्ठजोयणाइं विक्खंभेणं उप्पिं चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पे तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्ववइरामई अच्छा सण्हा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिकक्कंडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासादीया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा । साणं जगती एक्केणं जालकडएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। से णं जालकडए णं अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं, पंच धणुसया विक्खंभेणं सव्वरयणामए अच्छे सण्हे लहे जाव पडिरूवे । [१२४] उन द्वीप समुद्रों में यह जम्बूद्वीप नामक द्वीप सबसे आभ्यन्तर ( भीतर का) है, सबसे छोटा हैं, गोलाकार है, तेल में तले हुए पूए के आकार का गोल है, रथ के पहिये के समान गोल है, कमल की कर्णिका के आकार का गोल है, पूनम के चांद के समान गोल है। यह एक लाख योजन का लम्बा चौड़ा है । तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस (३, १६, २२७) योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठाईस धनुष, साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक परिधि वाला है। यह जम्बूद्वीप एक जगती से चारों ओर से घिरा हुआ है। वह जगती आठ योजन ऊंची है। उसका विस्तार मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर चार योजन है। मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतली है । वह गाय की पूंछ के आकार की है। वह पूरी तरह वज्ररत्न की बनी हुई है। वह स्फटिक की तरह स्वच्छ है, चिकनी है, घिसी हुई होने से मृदु है। वह घिसी हुई, मंजी हुई (पालिश की हुई) रजरहित, Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र निर्मल, पंकरहित, निरुपघात दीप्ति वाली, प्रभा वाली, किरणों वाली, उद्योत वाली, प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीय, सुन्दर और अति सुन्दर है। वह जगती एक जालियों के समूह से सब दिशाओं में घिरी हुई है (अर्थात् उसमें सब तरफ झरोखे और रोशनदान हैं)। वह जाल - समूह आधा योजन ऊँचा, पांच सौ धनुष विस्तार वाला है, सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, मृदु है, चिकना है यावत् सुन्दर और बहुत सुन्दर है । विवेचन - तिर्यक्लोक के द्वीप- समुद्रों में हमारा यह जम्बूद्वीप सर्वप्रथम है। इससे ही द्वीप - समुद्रों आदि है और स्वयंभूरमणसमुद्र में उनकी परिसमाप्ति है। अतएव यह जम्बूद्वीप सब द्वीप - समुद्रों में सबसे आभ्यन्तर है। सबसे अन्दर का है। यह द्वीप सबसे छोटा है क्योंकि इसके आगे के जितने भी समुद्र और द्वीप हैं वे सब दूने-दूने विस्तार वाले हैं। जम्बूद्वीप के आगे लवणसमुद्र है, वह दो लाख योजन का है। उससे आगे धातकीखण्ड है, वह चार लाख योजन का है। इस तरह दूना - दूना विस्तार आगे-आगे होता जाता है। यह जम्बूद्वीप गोलाकार संस्थान से स्थित है । उस गोलाई को उपमाओं से स्पष्ट किया गया है। तेल में पकाये गये मालपुए की तरह यह गोल है। घी में पकाये हुए मालपुए में वैसी गोलाई नहीं होती जैसी तेल में पकाये हुए पुए में होती है, इसलिए 'तेल्लापूय' विशेषण दिया गया है। दूसरी उपमा है रथ के पहिये की । रथ का पहिया जैसा गोल होता है वैसा यह जम्बूद्वीप गोल है। तीसरी उपमा है कमल की कर्णिका की । कमल की कर्णिका की तरह वह गोल है। चौथी उपमा है परिपूर्ण चन्द्रमण्डल की। पूनम . के चाँद की तरह यह जम्बूद्वीप गोल है । यह चूड़ी के आकार का गोल नहीं है । यह जम्बूद्वीप एक लाख योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला है तथा इसकी परिधि (परिक्षेप घेराव) तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस (३१६२२७) योजन, तीन कोस, एक सौ अट्ठावीस धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। (आयाम - विष्कंभ से परिधि लगभग तीन गुनी होती है) । इस जम्बूद्वीप के चारों ओर एक जगती है जो किसी सुनगर के प्राकार की भांति अवस्थित है। वह जगती ऊँचाई में आठ योजन है तथा विस्तार में मूल में बारह योजन, मध्य में आठ योजन और ऊपर चार योजन है अर्थात् वह ऊँची उठी हुई गोपुच्छ के आकार की है । वह सर्वात्मना वज्ररत्नमय है। आकाश और स्फटिकमणि के समान वह स्वच्छ है, चिकने स्पर्श वाले पुद्गलों से निर्मित होने से चिकने तन्तुओं से बने वस्त्र की तरह श्लक्ष्ण है, घुटे हुए वस्त्र की तरह मसृण है । सान से घिसी हुई पाषाण-प्रतिमा की तरह घृष्ट है और सुकुमार सान से रगड़ी पाषाण-प्रतिमा की तरह मृष्ट है, स्वाभाविक रज से रहित होने से नीरज है, आगन्तुक मैल से हीन होने से निर्मल है, कालिमादि कलंक से विकल होने से निष्पंक है, निरुपघात दीप्तिवाली होने के कारण निष्कंटक छायावाली है, स्वरूप की अपेक्षा प्रभावशाली है, विशिष्ट शोभा सम्पन्न होने से सश्रीक है और किरणों का जाल बाहर निकलने से समरीचि है, बहि:स्थित वस्तुओं को प्रकाशित करने से सोद्योत है, मन को प्रसन्न करने वाली है, इसे देखते-देखते न मन थकता है और न नेत्र ही थकते हैं, अत: यह दर्शनीय है। देखने वालों को इसका स्वरूप बहुत ही कमनीय लगता है। प्रतिक्षण नया जैसा ही इसका रूप रहता है, अतएव यह प्रतिरूप है। 1 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ३४७ तृतीय प्रतिपत्ति: पद्मवरवेदिका का वर्णन] यह जगती एक जालकटक से घिरी हुई है । जैसे भवन की भित्तियों में झरोखे और रोशनदान होते हैं वैसी जालियां जगह-जगह सब ओर बनी हुई हैं । यह जालसमूह दो कोस ऊंचा और पांच सौ धनुष का विस्तार वाला है । यह प्रमाण एक जाली का है। यह जालकटक ( जाल - समूह ) सर्वात्मना रत्नमय है, स्वच्छ है, शलक्ष्ण है और मृदु है, यावत् यह अभिरूप और प्रतिरूप है । यहाँ यावत् पद से 'घट्टे मट्ठे नीरए निम्मले निप्पंके निक्कंकडच्छाए सप्पभे समरीए सउज्जोए पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे' का ग्रहण किया गया है । पद्मवरवेदिका का वर्णन १२५. तीसे णं जगतीए उप्पिं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महई पउमवरवेदिया पण्णत्ता । साणं पउमवरवेदिया अद्धजोयणं उड्ढं उच्चत्तेणं पंच धणुसयाइं विक्खंभेणं (सव्वरयणामए) जगतीसमिया परिक्खेवेणं सव्वरयणामई० । तीसे णं पउमवरवेइयाए अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - वइामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियमया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया कलेवरा कलेवरसंघाडा णाणामणिमया रूवा नाणामणिमया रूवसंघाडा अंकामया पक्खा पक्खबाहाओ जोतिरसामया वंसा वंसकवेलुया य रययामईओ पट्टियाओ जातरूवमईओ ओहाडणीओ वइरामईओ उवरिपुञ्छणीओ सव्वसेए रययामए छादणे। सा णं पउंमवरवेइया एगमेगेणं हेमजालेणं एगमेगेणं गवक्खजालेणं एगमेगेणं खिंखिणिजाणं जाव मणिजालेणं (कणयजालेणं रयणजालेणं) एगमेगेणं पउमवरजालेणं सव्वरयणामएणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता । ते णं जाला तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारउवसोभितसमुदया ईसिं अण्णमण्णमसंपत्ता पुव्वावरदाहिणउत्तरागएहिं वाएहिं मंदागं मंदागं एज्जमाणा एज्जमाणा कंपिज्जमाणा २ लंबमाणा २ पझंझमाणा २ सद्दायमाणा २ तेणं ओरालेणं मणं कण्णमणणिव्वइकरेणं सद्देणं सव्वओ समंता आपूरेमाणा सिरीए अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिट्ठति । तीस णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे हयसंघाडा गयसंघाडा नरसंघाडा किण्णरसंघाडा किंपुरिससंघाडा महोरगसंघाडा गंधव्वसंघाडा वसहसंघाडा सव्वरयणामया अच्छा सहा लण्हा घट्टा मट्ठा णीरया णिम्मला णिप्पंका णिक्कंकडच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । तीसे णं पउमवरवेड्याए तत्थ तत्थ देसे तर्हि बहवे हयपंतीओ तहेव जाव पडिरूवाओ । एवं हवीहीओ जाव पडिरूवाओ । एवं हयमिहुणाई जाव पडिरूवाइं । तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहिं बहवे पउमलयाओ नागलयाओ एवं Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र असोग० चंपग० चूयवण वासंति० अतिमुत्तग० कुंदलयाओ सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव सुविहत्तपिंडमंजरिवडिंसकधरीओ सव्वरयणामईओ सण्हाओ लण्हाओ घट्ठाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिशाओणिक्कंकडच्छयाओ सप्पभाओ समिरीयाओ सउज्जोयाओ पासाईयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ।[ तीसे णं पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे अक्खयसोत्थिया पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा।] से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-पउमवरवेइया पउमवरवेइया ? गोयमा ! पउमवरवेइयाए तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वेदियासु वेदियाबाहासु वेदियासीसफलएसुवेदियापुडंतरेसुखंभेसुखंभबाहासुखंभसीसेसुखंभपुडंतरेसुसूईसु सूईमुहेसु सूईफलएसु सूईपुडंतरेसु पक्खेसु पक्खबाहासु पक्खपेरंतरेसु बहूइं उप्पलाई पउमाई जाव सयसहस्सपत्ताई सव्वरयणामयाइं अच्छाई सण्हाइं लण्हाइं घट्ठाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पंकाई निक्कंकडच्छायाइं सप्पभाई समिरीयाई सउज्जोयाई पासादीयाई दरिसणिज्जाई अभिरूवाइं पडिरूवाइं महया महया बासिक्कच्छत्तसमयाइं पण्णत्ताईसमणाउसो ! से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ पउमवरवेइया पउमवरवेइया। पउमवरवेइया णं भंते ! किं सासया असासया? गोयमा !सिय सासया सिय असासया। से केणढेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय असासया ? गोयमा ! दव्वट्ठयाए सासया; वण्णपज्जवेहिं गंधपज्जवेहिं रसपजवेहिं फासपजवेहिं असासया; से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-सिय सासया सिय असासया। पउमवरवेइया णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ ? गोयमा ! ण कयावि णासी, ण कयाविणत्थि, ण कयावि न भविस्सइ। भुविंच, भवइ य, भविस्सइ य।धुवा नियया सासया अक्खया अव्वया अवट्ठिया णिच्चा पउमवरवेदिया॥ (१२५) उस जगती के ऊपर ठीक मध्यभाग में एक विशाल पद्मवरवेदिका कही गई है। वह पद्मवरवेदिका आधा योजन ऊंची और पांच सौ धनुष विस्तार वाली है। वह सर्वरत्नमय है। उसकी परिधि जगती के मध्यभाग की परिधि के बराबर है। यह पद्मवरवेदिका सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है, यावत् अभिरूप, प्रतिरूप है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है-उसके नेम (भूमिभाग के ऊपर निकले हुए प्रदेश) वज्ररत्न के बने हुए हैं, उसके मूलपाद (मूलपाये) रिष्टरत्न के बने हुए हैं, इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं, उसके फलक (पटिये) सोने चाँदी के हैं, उसकी संधियाँ वज्रमय हैं, लोहिताक्षरत्न की बनी उसकी सूचियाँ हैं (ये सूचियाँ पादुकातुल्य होती हैं जो पाटियों को जोड़े रखती हैं, विघटित नहीं होने देती)। यहाँ जो मनुष्यादि शरीर के चित्र बने हैं वे अनेक प्रकार की मणियों से बने हुए हैं तथा स्त्री-पुरुष युग्म की जोड़ी के जो चित्र बने हुए हैं वे भी अनेकविध मणियों के बने हुए हैं। मनुष्यचित्रों के अतिरिक्त जो चित्र बने हैं वे सब अनेक प्रकार की मणियों से बने हुए हैं। अनेक जीवों की जोड़ी के चित्र भी विविध मणियों से बने हुए हैं। उसके Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: पद्मवरवेदिका का वर्णन ] पक्ष - आजू-बाजू के भाग अंकरत्नों के बने हुए है। बड़े बड़े पृष्ठवंश ज्योतिरत्न नामक रत्न के हैं। बड़े वंशों को स्थिर रखने के लिए उनकी दोनों ओर तिरछे रूप में लगये गये बांस भी ज्योतिरत्न के हैं। बांसों के ऊपर छप्पर पर दी जाने वाली लम्बी लकड़ी की पट्टिकाएँ चाँदी की बनी हैं। कंबाओं को ढांकने के लिए उनके ऊपर जो ओहाडणियाँ (आच्छादन देतु बड़ी किमडियां ) हैं वे सोने की हैं और पुंछनियाँ (निबिड आच्छादन के लिए मुलायम तृणविशेष तुल्य छोटी किमडियाँ वज्ररत्न की हैं, पुञ्छनी के ऊपर और कवेलू के नीचे का आच्छादन श्वेत चाँदी का बना हुआ है । [ ३४९ वह पद्मवरवेदिका कहीं पूरी तरह सोने के लटकते हुए मालसमूह से, कहीं गवाक्ष की आकृति के रत्नों के लटकते मालासमूह से, कहीं किंकणी (छोटी घंटियाँ) और कहीं बड़ी घंटियों के आकार की मालाओं से, कहीं मोतियों की लटकती मालाओं से, कहीं मणियों की मालाओं से, कहीं सोने की मालाओं से, कहीं रत्नमय पद्म की आकृति वाली मालाओं से सब दिशा - विदिशाओं में व्याप्त है 1 वे मालाएँ तपे हुए स्वर्ण के लम्बूसग (पेण्डल) वाली हैं, सोने के पतरे से मंडित हैं, नाना प्रकार के मणिरत्नों के विविध हार -अर्धहारों से सुशोभित हैं, ये एक दूसरी से कुछ ही दूरी पर हैं ( पास-पास हैं), पूर्व-पश्चिम - उत्तर-दक्षिण दिशा से आगत वायु से मन्द मन्द रूप से हिल रहीं हैं, कंपित हो रही हैं, (हिलने और कंपित होने से) लम्बी-लम्बी फैल रही हैं, परस्पर टकराने से शब्दायमान हो रही हैं। उन मालाओं से निकला हुआ शब्द जोरदार होकर भी मनोज्ञ, मनोहर और श्रोताओं के कान एवं मन को सुख देने वाला होता है। वे मालाएँ मनोज्ञ शब्दों से सब दिशाओं एवं विदिशाओं को आपूरित करती हुई : अतीव सुशोभित हो रही हैं। उस पद्मवरेवदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं पर अनेक घोड़ों की जोड़, हाथी की जोड़, नर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व और बैलों की जोड़ उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों की पंक्तियाँ (एक दिशावर्ती श्रेणियां) यावत् कहीं बैलों की पंक्तियां आदि उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों की वीथियां (दो श्रेणिरूप) यावत् कहीं बैलों की वीथियां उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उस पद्मवरवेदिका के अलग-अलग स्थानों पर कहीं घोड़ों के मिथुनक (स्त्री-पुरुषयुग्म) यावत् कहीं बैलों के मिथुनक उत्कीर्ण हैं जो सर्वरत्नमय हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । उस पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर बहुत-सी पद्मलता, नागलता, अशोकलता, चम्पकलता, चूतवनलता, वासंतीलता, अतिमुक्तकलता, कुंदलता, श्यामलता, नित्य कुसुमित रहती हैं यावत् सुविभक्त एवं विशिष्ट मंजरी रूप मुकुट को धारण करने वाली हैं। ये लताएँ सर्वरत्नमय हैं, श्लक्ष्ण हैं, मृदु हैं, घृष्ट हैं, मृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पंक हैं, निष्कलंक छवि वाली हैं, प्रभामय हैं, किरणमय हैं, उद्योतमय हैं, प्रसन्नता Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पैदा करने वाली हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। (उस पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर बहुत से स्वस्तिक कहे गये हैं, जो सर्वरत्नमय और स्वच्छ हैं।) हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका क्यों कहा जाता हैं ? गौतम ! पद्मवरवेदिका में स्थान-स्थान पर वेदिकाओं (बैठने योग्य मत्तवारणरूप स्थानों) में, वेदिका के आजू-बाजू में, दो वेदिकाओं के बीच के स्थानों में, स्तम्भों के आसपास, स्तम्भों के ऊपरी भाग पर, दो स्तम्भों के बीच के अन्तरों में, दो पाटियों को जोड़नेवाली सूचियों पर, सूचियों के मुखों पर, सूचियों के नीचे और ऊपर, दो सूचियों के अन्तरों में, वेदिका के पक्षों में, पक्षों के एक देश में, दो पक्षों के अन्तराल में बहुत सारे उत्पल (कमल), पद्म (सूर्यविकासी कमल), कुमुद, (चन्द्रविकासी कमल), नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक (श्वेतकमल), महापुण्डरीक (बड़े श्वेतकमल), शतपत्र, सहस्रपत्र आदि विविध कमल विद्यमान हैं। वे कमल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् अभिरूप हैं, प्रतिरूप हैं। ये सब कमल वर्षाकाल के समय लगाये गये बड़े छत्रों (छतरियों) के आकार के हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! इस कारण से पद्मवरवेदिका को पद्मवरवेदिका कहा जाता है। हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका शाश्वत है या अशाश्वत है ? गौतम ! वह कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। हे भगवन्! ऐसा क्यों कहा जाता हैं कि पद्मवखेदिका कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है ? गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा शाश्वत है और वर्णपर्यायों से, रसपर्यायों से, गंधपर्यायों से, और स्पर्शपर्यायों से अशाश्वत है। इसलिए हे गौतम ! ऐसा कहा जाता हैं कि पद्मवरवेदिका कथञ्चित् शाश्वत है और कथञ्चित् अशाश्वत है। हे भगवन् ! पद्मवरवेदिका काल की अपेक्षा कब तक रहने वाली है ? गौतम ! वह 'कभी नहीं थी'-ऐसा नहीं है 'कभी नहीं है' ऐसा नहीं है, 'कभी नहीं रहेगी' ऐसा नहीं है। वह थी, है और सदा रहेगी। वह ध्रुव है, नियत हैं, शाश्वत है, अक्षय है, अव्यय है, अवस्थित है और नित्य है। यह पद्मवरवेदिका का वर्णन हुआ। वनखण्ड-वर्णन १२६. [१] तीसे णं जगईए उप्पिं बाहिं पउमवरवेदियाए एत्थ णं एगे महं वनसंडे पण्णत्ते, देसूणाइंदोजोयणाइंचक्कवालविक्खंभेणंजगतीसमए परिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे जाव [ ते णं पायवा मूलवंता कंदवंता खंधवंता तयावंता सालवंता पवालवंता पत्तपुप्फफलबीयवंता अणुपुव्वसुजायरुइलवट्टभावपरिणया एगखंधी अणेगसाहप्पसाहविडिमा, अणेगणरव्वामसुपसारियगेज्झ-घणविउलवट्टखंधा अच्छिद्दपत्ता अविरलपत्ता अवाईणपत्ता अणईपत्ता णिधूयजरढपंडुरपत्ता, नवहरियभिसंतपत्तंधयारगंभीरदरिसणिज्जा उवविणिग्गयणव Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड-वर्णन] [३५१ तरुणपत्तपल्लवकोमलुज्जलचलंतकिसलयसुकुमालसोहियवरंकुरग्गसिहरा, णिच्चं कुसुमिआ णिच्चं मउलिया णिच्चं लवइया निच्चं थवइया, णिच्चंगोच्छिया निच्चं जमलिया पिच्चं जुयलिया निच्चं विणमिया निच्चं पणमिआ निच्चं कुसुमिय-मउलिय-लवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छियजमलिय-जुगलियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरा सुय-बरहिण-मयणसलागाकोइल-कोरग-भिंगारग-कोडलग-जीवंजीवग-णंदिमुह-कबिल-पिंगलक्ख-कारंडवचक्कवाग-कलहंस-सारसाणेगसउणगणमिहुण विचारिय सदुन्नइय-महुरसनाइय-सुरम्मा संपिंडियदप्पियभमर-महुयरीपहकरा परिलीयमाणमत्तछप्पय-कुसुमासवलोल-महुरगुमगुमायंतगुंजंतदेसभागा अब्भितरपुप्फफला बाहिरपत्तछन्ना णीरोगा अकंटगा साउफला णिद्धफला णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेउबहुला वावी-पुक्खरिणि-दीहिया सुनिवेसिय रम्यजालघरगा पिंडिमं,सुहसुरहिमणोहरं महया गंधद्धणि णिच्चं मुंचमाणा सुहसेउकेउ बहुला....।] अणेगसगड-रह-जाण-जुग्ग (सिविय-संदमाणिय) परिमोयणे सुरम्मे पासाईए सण्हे लण्हे घटे मढे नीरए निप्पंके निम्मले निक्कंकडच्छाए सप्पभेसमिरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे। तस्स णंवणसंडस्सअंतो बहुसमरमणिज्जे भूमियाए पण्णत्ते, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा आयसमंडलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा, उसभचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा विगचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड-पच्चावड सेढीपसेढीसोत्थियसोवत्थियपूसमाण-वद्धमाणमच्छंडक-मकरंडक-जारमार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागरतरंग-वासंतिलय-पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं समिरीएहि नानाविहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य उवसोहिए तं जहाकिण्हेहिं जाव सुक्किलेहि। [१२६] (१) उस जगती (प्राकारकल्प) के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बड़ा विशाल वनखण्ड १ कहा गया है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्तार वाला है और उसकी परिधि जगती की परिधि के समान ही है। वह वनखण्ड खूब हरा भरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला ही दिखाई देता है। यावत् [उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त कंद वाले, प्रशस्त स्कन्ध वाले, प्रशस्त छाल वाले, प्रशस्त शाखा वाले, प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्र वाले और प्रशस्त फूल-फल और बीज वाले हैं। वे सब पादप समस्त दिशाओं में और विदिशाओं में अपनी-अपनी शाखा-प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं। वे मूलादि क्रम से सुन्दर, सुजात और रुचिर (सुहावने) प्रतीत होते हैं। ये वृक्ष एक-एक स्कन्ध वाले हैं। इनका गोल स्कन्ध इतना विशाल है कि पुरुष भी अपनी फैलायी हुई बाहुओं में उसे ग्रहण नहीं कर १. 'एगजाइएहिं रुक्खेहिं वणं अणेगजाइएहिं उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे'-एक सरीखे वृक्ष जहाँ हो वह वन और अनेक जाति के उत्तम वृक्ष जहाँ हों वह वनखण्ड है। -वृत्ति Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सकते। इन वृक्षों के पत्ते छिद्ररहित हैं, अविरल हैं-इस तरह सटे हुए हैं कि अन्तराल में छेद नहीं दिखाई देता। इनके पत्ते वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में ईति रोग नहीं होता । इन वृक्षों के जो पत्ते पुराने पड़ जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं। नये और हरेक दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीयदर्शनीय लगते हैं। इनके अग्रशिखर निरन्तर निकलने वाले पल्लवों और कोमल-उज्ज्वल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं। ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते है, नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं। इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् प्रणमित बने हुए वे वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं। इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोडे, मयूरों के जोड़े, मदनशलाका-मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोड़े, सारस के जोड़े इत्यादि अनेक पक्षियों के जोड़े बैठे-बैठे बहुत दूर तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते रहते हैं-चहचहाते रहते हैं, इससे इन वृक्षों की सुन्दरता में विशेषतः आ जाती है। मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से आ-आकर मधुपान से उन्मत्त भंवरे पुष्पपराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं। इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं। ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से आच्छादित रहते हैं। ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, कांटों से रहित हैं। इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं। ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं। इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर बावड़ियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीर्घिकाओं में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती। इन वृक्षों की क्यारियां शुभ हैं और उन पर जो ध्वजाएँ हैं वे भी अनेक रूप वाली हैं।] अनेक गाड़ियाँ, रथ, यान, युग्य (गोल्लदेश प्रसिद्ध जम्पान), शिविका और स्यन्दमानिकाएँ उनके नीचे (छाया अधिक होने से) छोड़ी जाती हैं। वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता पैदा करने वाला है, श्लक्ष्ण है, स्निग्ध है, घृष्ट है, मृष्ट है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कान्ति वाला है, प्रभा वाला है, किरणों वाला है, उद्योत करने वाला है, प्रासादिक है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है। उस वनखण्ड के अन्दर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मुरुज (वाद्यविशेष) के मढे हुए चमड़े के समान समतल है, मृदंग के मढे हुए चमड़े के समान समतल है, पानी से भरे सरोवर के तल के समान, हथेली के समान, दर्पणतल के समान, चन्द्रमण्डल के समान, सूर्यमण्डल के समान, उरभ्र (घेटा) के चमड़े के समान, बैल के चमड़े के समान, वराह (सूअर) के चर्म के समान, सिंह के चर्म के समान, व्याघ्रचर्म के समान, भेड़िये के चर्म के समान और चीते के चमड़े के समान समतल है। इन सब पशुओं का चमड़ा जब शंकु प्रमाण हजारों कीलों से ताड़ित होता है-खींचा जाता है तब वह बिल्कुल समतल Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड-वर्णन] [३५३ हो जाता है (अतएव उस भूमिभाग की समतलता को बताने के लिए ये उपमाएँ हैं।) वह वनखण्ड आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमाणव, वर्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक, जारमारलक्षण वाली मणियों, नाना विध पंचवर्ण वाली मणियों, पुष्पावली, पद्मपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि विविध चित्रों से युक्त मणियों और तृणों से सुशोभित है। वे मणियाँ कान्ति वाली, किरणों वाली, उद्योत करने वाली और कृष्ण यावत् शुक्लरूप पंचवर्णों वाली हैं। ऐसे पंचवर्णी मणियों और तृणों से वह वनखण्ड सुशोभित है। _ विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में वनखण्ड का वर्णन किया गया है। कुछ कम दो योजन प्रमाण विस्तार वाला और जगती के समान ही परिधि वाला यह वनखण्ड खूब हराभरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला दिखाई देता है। इसके आगे 'यावत्' शब्द दिया गया है, उससे अन्यत्र दिये गये अन्य विशेषण इस प्रकार जानने चाहिए हरिए हरिओभासे-कहीं-कहीं वनखण्ड हरित है और हरितरूप में ही उसका प्रतिभास होता है। नीले नोलोभास-कहीं-कहीं वनखण्ड नीला है और नीला ही प्रतिभासित होता है। हरित अवस्था को पार कर कृष्ण अवस्था को नहीं प्राप्त हुए पत्र नीले कहे जाते हैं। इनके योग से उस वनखण्ड को नील और नीलावभास कहा गया है। सीए सीओभासे-वह वनखण्ड शीत और शीतावभास है। जब पत्ते बाल्यावस्था पार कर जाते हैं तब वे शीतलता देने वाले हो जाते हैं। उनके योग से वह वनखण्ड भी शीतलता देने वाला है और शीतल ही प्रतीत होता है। __णिद्धे णिद्धोभासे, तिव्वे तिव्वोभासे-ये काले नीले हरे रंग अपने स्वरूप में उत्कट, स्निग्ध और तीव्र कहे जाते हैं। इस कारण इनके योग से वह वनखण्ड भी स्निग्ध, स्निग्धावभास, तीव्र, तीव्रावभास कहा गया है। अवभास भ्रान्त भी होता है। जैसे मरु-मरीचिका में जल का अवभाव भ्रान्त है। अतएव भ्रान्त अवभाव का निराकरण करते हुए अन्य विशेषण दिये गये हैं, यथा किण्हे किण्हछाए-वह वनखण्ड सबको समानरूप से काला और काली छाया वाला प्रतीत होता है। सबको समानरूप से ऐसा प्रतीत होने से उसकी अविसंवादिता प्रकट की है। जो भ्रान्त अवभास होता है वह सबको एक सरीखा प्रतीत नहीं होता है। नीले नीलच्छाए, सीए सीयच्छाए-वह वनखण्ड नीली और नीली छाया वाला है। शीतल और शीतल छाया वाला है। यहाँ छाया शब्द आतप का प्रतिपक्षी वस्तुवाची समझना चाहिए। घणकडियच्छाए-इस वनखण्ड के वृक्षों की छाया मध्यभाग में अति घनी है क्योंकि मध्यभाग में बहुत-सी शाखा-प्रशाखाएँ फैली हुई होती हैं। इससे उनकी छाया घनी होती है। Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र रम् - यह वनखण्ड रमणीय है । महामेहनिकुरंबभूए- - वह वनखण्ड जल से भरे हुए महामेघों के समुदाय के समान है। वनखण्ड के वृक्षों का वर्णन मूलपाठ से ही स्पष्ट है जो कोष्ठक में दिया गया है। उस वनखण्ड का भूमिभाग अत्यन्त रमणीय और समतल है । उस समतलता को बताने के लिए विविध उपमाएँ दी गई हैं। मुरज, मृदंग, सरोवर, करतल, आदर्शमण्डल, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल, उरभ्रचर्म, वृषभचर्म आदि विविध पशुओं के खींचे हुए चर्म के तल से उस भूभाग की समतलता की तुलना की गई है । उक्त पशुओं के चर्म को कीलों की सहायता से खींचने पर वह एकदम सलरहित होकर समतल - एकसरीखा तल वाला होता है, वैसा ही वह भूभाग ऊबड़-खाबड या ऊँचा-नीचा और विषम न होकर समतल है, अतएव अत्यन्त रमणीय है। इतना ही नहीं उस समतल भूमिभाग पर विविध भांति के चित्र चित्रित हैं। इन चित्रों में आवर्त, प्रत्यावर्त, श्रेणी, प्रश्रेणी, स्वस्तिक, सौवस्तिक, पुष्यमाणव, वर्द्धमानक, मत्स्यंडक, मकरंडक जारमार लक्षण वाली पांच वर्ण की मणियों से निर्मित चित्र हैं। पुष्पावली, पक्षपत्र, सागरतरंग, वासन्तीलता, पद्मलता आदि के विविध चित्र पांच वर्ण वाली मणियों और तृणों से चित्रित हैं। वे मणियां पांच रंगों की हैं, कान्तिवाली, किरणोंवाली हैं। उद्योत करने वाली हैं। अगले सूत्रखण्ड में पांच वर्णों की मणियों एवं तृणों का उपमानों द्वारा वर्णन किया गया है, वह इस प्रकार है-— १२६. [ २ ] तत्थ णं जे ते किण्हा तणा य मणि य तेसिं णं अयमेयारूवे वण्णावसे पण्णत्ते, जे जहाणामए जीमूएइ वा, अंजणेइ वा, खंजणेइ वा, कज्जलेइ वा, १ मसीइ वा, गुलिया वा, गवलेइवा, गवलगुलियाइ वा, भमरेइ वा, भमरावलियाइ वा, भमरपत्तगयसारेइ वा, जंबूफलेइ वा, अद्दारिट्ठेइ वा, परपुट्ठेइ वा, गएइ वा, गयकलभेइ वा, कण्हसप्पेड़ वा, कण्हकेसरेइ वा, आगासथिग्गलेइ वा, कण्हासोएइ वा, कण्हकणवीरेइ वा, कण्हबंधुजीवएइ वा, भवे एयारूवे सिया ? गोयमा ! णो तिणट्ठे समट्ठे । तेसिं णं कण्हाणं तणाणं मणीण य इत्तो इट्ठतराए चेव कंततराए चेव पियतराए चेव मणुण्णतराए चेव मणामतराए चेव वण्णे णं पण्णत्ते । [१२६] (२) उन तृणों और मणियों में जो काले वर्ण के तृण और मणियां हैं, उनका वर्णावास इस प्रकार कहा गया है - जैसे वर्षाकाल के प्रारम्भ में जल भरा बादल हो, सौबीर अंजन अथवा अञ्जन रत्न हो, खञ्जन (दीपमल्लि का मैल, गाड़ी का कीट) हो, काजल हो, काली स्याही हो, (घुला हुआ काजल), घुले हुए काजल की गोली हो, भैंसे का श्रृंग हो, भैंसे के श्रृंग से बनी गोली हो, भंवरा हो, भौंरों की पंक्ति हो, भंवरों के पंखों के बीच का स्थान हो, जम्बू का फल हो, गीला अरीठा हो, कोयल हो, हाथी हो, हाथी का बच्चा हो, काला सांप हो, काला बकुल हो, बादलों से मुक्त आकाशखण्ड हो, काला अशोक, काला कनेर और काला बन्धुजीव (वृक्ष) हो । हे भगवन् ! ऐसा काला वर्ण उन तृणों और मणियों का होता है क्या ? हे गौतम ! ऐसी नहीं है। इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उनका वर्ण होता है । Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड-वर्णन] [३५५ १२६.[३] तत्थ णं जे ते णीलगा तणा य मणी य तेसिं णं इमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहानामए भिंगे इवा, भिंगपत्ते इ वा, चासे इ वा, चासपिच्छे इ वा, सुए इ वा, सुयपिच्छे इ वा, णीली इवा, णीलीभेए इ वा, णीलीगुलिया इ वा, सामाए इ वा, उच्चतर इवा, वणराई इ वा, हलधरवसणे इ वा, मोरग्गीवा इ वा, पारेवयगीवा इवा, अयसिकुसुमे इवा, अंजणकेसिगाकुसुमे इ वा, णीलुप्पले इ वा, णीलासोए इ वा, णीलकणवीरे इ वा, णीलबंधुजीवए इवा, भवे एयारूवे सिया? णो इणठे समढें । तेसिंणंणीलगाणं तणाणं मणीण य एत्तो इट्ठतराए चेव कंततराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते। [१२६] (३) उन तृणों और मणियों में जो नीली मणियां और नीले तृण हैं, उनका वर्ण इस प्रकार का है-जैसे नीला भंग (भिंगोडी-पंखवाला लघु जन्तु-नीला भंवरा) हो, नीले भ्रंग का पंख हो, चास (पक्षिविशेष) हो, चास का पंख हो, नीले वर्ण का शुक (तोता) हो, शुक का पंख हो, नील हो, नीलखण्ड हो, नील की गुटिका हो, श्यामाक (धान्य विशेष) हो, नीला दंतराग हो, नीली वनराजि हो, बलभद्र का नीला वस्त्र हो, मयूर की ग्रीवा हो, कबूतर की ग्रीवा हो, अलसी का फूल हो, अञ्जनकेशिका वनस्पति का फूल हो, नीलकमल हो, नीला अशोक हो, नीला कनेर हो, नीला बन्धुजीवक हो, भगवन् ! क्या ऐसा नीला उनका वर्ण होता है ? गौतम ! यह बात नहीं है। इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन नीले तृणमणियों का वर्ण होता है। १२६.[४] तत्थ णं जे ते लोहितगा तणा य मणी य तेसिंणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहानामए ससकरुहिरे इवा, उरभरुहिरे इवा, णररुहिरे इवा, वराहरुहिरे इवा, महिसरुहिरे इवा, बालिंदगोवए इवा, बालदिवागरे इवा, संझब्भरागे इवा, गुंजद्धरागे इवा, जातिहिंगुलुए इवा, सिलप्पवाले इ वा, पवालंकुरे इ वा, लोहितक्खमणी इवा, लक्खारसए इवा, किमिरागेइवा, रत्तकंबले इवा, चीणपिट्ठरासी इवा, जासुयणकुसुमे इवा, किंसुअकुसुमे इवा, पारिजायकुसुमे इ वा, रत्तुप्पले इ वा, रत्तासोगे इ वा, रत्तकणयारे इवा, रत्तबंधुजीवे इवा, भवे एयारूवे सिया? _____ नो तिणढे समढे । तेसिं णं लोहियगाणं तणाण य मणीण य एत्तो इट्ठयराए चेव जाव वण्णे णं पण्णत्ते। __ [१२६] (४) उन तृणों और मणियों में जो लाल वर्ण के तृण और मणियां हैं, उनका वर्ण इस प्रकार का कहा गया है-जैसे खरगोश का रुधिर हो, भेड़ का खून हो, मनुष्य का रक्त हो, सूअर का रुधिर हो, भैंस का रुधिर हो, सद्य:जात इन्द्रगोप (लाल वर्ण का कीड़ा) हो, उदीयमान सूर्य हो, संध्याराग हो, गुंजा का अर्धभाग हो, उत्तम जाति का हिंगुल हो, शिलाप्रवाल (मूंगा) हो, प्रवालांकुर (नवीन प्रवाल का किशलय) हो, लोहिताक्ष मणि हो, लाख का रस हो, कृमिराग हो, लाल कंबल हो, चीनधान्य का पीसा Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र हुआ आटा हो, जपा का फूल हो, किंशुक का फूल हो, पारिजात का फूल हो, लाल कमल हो, लाल अशोक हो, लाल कनेर हो, लाल बन्धुजीवक हो, भगवन् ! क्या ऐसा उन तृणों, मणियों का वर्ण है ? गौतम ! यह यथार्थ नहीं है । उन लाल तृणों और मणियों का वर्ण इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर कहा गया है। १२६.(५) तत्थ णं जे ते हालिद्दगा तणा य मणी य तेसिंणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहानामए चंपए इवा, चंपगच्छल्ली इवा, चंपगभेए इवा, हालिहाइवा, हालिद्दभेए इवा, हालिहगुलिया इ वा, हरियाले इ वा, हरियालभेए इ वा, हरियालगुलिया इ वा, चिउरे इवा, चिउरंगरागे इ वा, वरकणए इ वा, वरकणगनिघसे इ वा (सुवण्णसिप्पिए इवा) वरपुरिसवसणे इवा, सल्लइकुसुमे इवा, चंपककुसुमे इवा, कुहुंडियाकुसुमे इवा, (कोरंटकदामे इवा) तडउडाकुसुमे इवा, घोसाडियाकुसुमे इवा, सुवण्णजूहियाकुसुमे इवा, सुहरिन्नयाकुसुमे इवा (कोरिंटवरमल्लदामे इ वा), बीयगकुसुमे इ वा, पीयासोए इवा, पीयकणवीरे इवा, पीयबंधुजीवए इवा, भवे एयारूवे सिया? नो इणढे समटे ।ते णं हालिहा तणा यमणी य एत्तो इट्ठयरा चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ता। [१२६] (५) उन तृणों और मणियों में जो पीले वर्ण के तृण और मणियां हैं उनका वर्ण इस प्रकार का कहा गया है, जैसे सुवर्णचम्पक का वृक्ष हो, सुवर्णचम्पक की छाल हो, सुवर्णचम्पक का खण्ड हो, हल्दी, हल्दी क टुकड़ा हो, हल्दी के सार की गुटिका हो, हरिताल (पृथ्वीविकार रूप द्रव्य) हो, हरिताल का टुकड़ा हो, हरिताल की गुटिका हो, चिकुर (रागद्रव्यविशेष) हो, चिकुर से बना हुआ वस्त्रादि पर रंग हो, श्रेष्ठ स्वर्ण हो, कसौटी पर घिसे हुए स्वर्ण की रेखा हो, (स्वर्ण की सीप हो), वसुदेव का वस्त्र हो, सल्लकी का फूल हो, स्वर्णचम्पक का फूल हो, कूष्माण्ड का फूल हो, कोरन्टपुष्प की माला हो, तडवडा (आवली) का फूल हो, घोषातकी का फूल हो, सुवर्णयूथिका का फूल हो, सुहरण्यिका का फूल हो, बीजकवृक्ष का फूल हो, पीला अशोक हो, पीला कनेर हो, पीला बन्धुजीवक हो। भगवन् ! उन पीले तृणों और मणियों का ऐसा वर्ण है क्या ? गौतम ! ऐसा नहीं है। वे पीले तृण और मणियां इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, और मनोहर वर्ण वाली हैं। १२६.(६) तत्थ णंजे ते सुक्किलगा तणा य मणी य तेसिं णं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते-से जहाणामए अंके इवा, संखे इवा, चंदे इवा, कुंदे इवा, कुमुए इवा, दयरए इ वा, (दहिघणे इ वा, खीरे इ वा, खीरपूरे इ वा), हंसावली इवा, कोंचावली इवा, हारावली इवा, बलयावली इवा, चंदावली इवा, सारइयबलाहए इवा, धंतधोयरुप्पपट्टे इवा, सालिपिट्ठरासी इवा, कुंदपुष्फरासी इवा, कुमुयरासीइ वा, सुक्कछिवाडी इ वा, पेहणमिंजा इवा, बिसे इवा, मिणालिया इवा, गयदंते इ वा, लवंगदले इवा, पोंडरीयदले इवा, सिंदुवारमल्लदामे इवा, सेतासोए इ वा, सेयकणवीरे इ वा, सेयबंधुजीवए इ वा, भवे एयारूवे सिया ? Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड-वर्णन] [३५७ णो तिण्टे समढे । तेसिं णं सुक्किलाणं तणाण मणीण य एत्तो इट्ठयराए चेव जाव वण्णेणं पण्णत्ते। [१२६] (६) उन तृणों और मणियों में जो सफेद वर्ण वाले तृण और मणियां हैं उनका वर्ण इस प्रकार कहा गया है-जैसे अंक रत्न हो, शंख हो, चन्द्र हो, कुंद का फूल हो, कुमुद (श्वेत कमल) हो, पानी का बिन्दु हो, (जमा हुआ दही हो, दूध हो, दूध का समूह-प्रवाह हो), हंसों की पंक्ति हो, क्रौंचपक्षियों की पंक्ति हो, मुक्ताहारों की पंक्ति हो, चांदी से बने कंकणों की पंक्ति हो, सरोवर की तरंगों में प्रतिबिम्बित चन्द्रों की पंक्ति हो, शरदऋतु के बादल हों, अग्नि में तपाकर धोया हुआ चांदी का पाट हो, चावलों का पिसा हुआ आटा हो, कुन्द के फूलों का समुदाय हो, कुमुदों का समुदाय हो, सूखी हुई सेम की फली हो, मयूरपिच्छ की मध्यवर्ती मिंजा हो, मृणाल हो, मृणालिका हो, हाथी का दांत हो, लबंग का पत्ता हो पुण्डरीक (श्वेतकमल) की पंखुडियां हों , सिन्दुवार के फूलों की माला हो, सफेद अशोक हो, सफेद कनेर हो, सफेद बंजजीवक हो, भगवान् ! उन सफेद तुणों और मणियों का ऐसा वर्ण है क्या? गौतम ! यह यथार्थ नहीं है। इनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का वर्ण कहा गया १२६.(७) तेसिंणं भंते ! तणाण यमणीण य केरिसए गंधे पण्णत्ते ? से जहाणामएकोट्ठपुडाण वा, पत्तपुडाण वा, चोयपुडाण वा, तगरपुडाण वा, एलापुडाण वा, चंदणपुडाण वा, कुंकुमपुडाण वा, उसीरपुडाण वा, चंपकपुडाण वा, मरुयपुडाण वा, दमणपुडाण वा, जातिपुडाणवा, जूहियापुडाणवा, मल्लियपुडाण वा, णोमालियपुडाणवा, वासंतिपुडाण वा, केयइपुडाण वा, कप्पूरपुडाण वा, अणुवायंसि उब्भिज्जमाणाण य णिब्भिज्जमाणाण य कोट्टेज्जमाणाण वा रुविज्जमाणाण वा उक्किरिज्जमाणाण वा विकिरिज्जमाणाण वा परिभुज्जमाणाण वा भंडाओ भंडं साहरिज्जमाणाण वा ओराला मणुण्णा घाणमणनिव्वुइकरा सव्वओ समंता गंधा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया ? णो तिणढे समढे । तेसिं णं तणाणं मणीण य एत्तो उ इट्ठतराए चेव जाव मणामतराए चेव गंधे पण्णत्ते। । [१२६] (७) हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों की गंध कैसी कही गई है ? जैसे कोष्ट (गंधद्रव्यविशेष) पुटों, पत्रपुटों, चोयपुटों (गंधद्रव्यविशेष), तगरपुटों, इलायचीपुटों, चंदनपुटों, कुंकुमपुटों, उशीरपुटों (खस) चंपकपुटों, मरवापुटों, दमनकपुटों, जातिपुटों (चमेली), जूहीपुटों, मल्लिकापुटों(मोगरा), नवमल्लिकापुटों, वासन्तीलतापुटों, केवडा के पुटों और कपूर के पुटों को अनुकूल वायु होने पर उघाड़े जाने पर, भेदे जाने पर, काटे जाने पर, छोटे-छोटे खण्ड किये जाने पर, बिखेरे जाने पर, ऊपर उछाले जाने पर, इनका उपभोग-परिभोग किये जाने पर और एक बर्तन से दूसरे बर्तन में डाले जाने पर जैसी व्यापक और १. 'किरिमेरिपुडाण वा' क्वचित् पाठो दृश्यते। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मनोज्ञ तथा नाक और मन को तृप्त करने वाली गंध निकलकर चारों तरफ फैल जाती है, हे भगवन् ! क्या वैसी गंध उन तृणों और मणियों की है ? गौतम ! यह बात यथार्थ नहीं है। इससे भी इष्टतर, कान्ततर, प्रियतर, मनोज्ञतर और मनामतर गंध उन तृणों और मणियों की कही गई है । १२६. ( ८ ) तेसिं णं भंते ! तणाण य मणीण य केरिसए फासे पण्णत्ते ? से जहाणामएआई इवा, रुए इवा, बूरे इ वा, णवणीए इ वा, हंसगब्भतूली इ वा, सिरीसकुसुमणिचए इवा, बालकुमुद पत्तरासी इ वा भवे एयारूवे सिया ? 7 णो तिट्टे सट्टे । तेसिं णं तणाण य मणीण य एत्तो इट्ठतराए चेव जाव फासे णं पण्णत्ते । [१२६] (८) हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों का स्पर्श कैसा कहा गया है ? जैसे - आजिनक (मृदु चर्ममय वस्त्र), रुई, बूर, वनस्पति, मक्खन, हंसगर्भतूलिका, सिरीष फूलों का संग्रह, नवजात कुमुद के पत्रों की राशि का कोमल स्पर्श होता है, ऐसा उनका स्पर्श है क्या ? गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है। उन तृणों और मणियों का स्पर्श उनसे भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मणाम ( मनोहर ) है । १२६. ( ९ ) तेसिं णं भंते !' तणाण य मणीण य पुव्वावरदाहिणउत्तरागएहिं वाएहिं मंदायं मंदायं एइयाणं वेइयाणं कंपियाणं खोभियाणं चालियाणं फंदियाणं घट्टियाणं उदीरियाणं केरिसए सद्दे पण्णत्ते ? से जहानामए - सिबियाए वा, संदमाणीयाए वा, रहवरस्स वा, सच्छत्तस्स सज्झयस्स संघटयस्स सतोरणवरस्स सणंदिघोसस्स सखिंखिणिहेमजालपेरंतपरिक्खित्तस्स हेमवयखेत्त चित्तविचित्त तिणिसकणगनिज्जुत्तदारुयागस्स सुपिणद्धारकमंडलधुरागस्स कालायससुकयणेमिजंतकम्मस्स आइण्णवरतुरगसुसंपउत्तस्स कुसलणरछेयसारहिसुसंपरिगहियस्स सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियस्स सकंकडवडिंसगस्स सचावसरपहरणावरणभरियस्स जोहजद्धस्स रायंगणंसि वा अंतेउरंसि वा रम्मंसि मणिकोट्टिमतलंसि अभिक्खणं अभिक्खणं अभिघट्टिज्जमाणस्स वाणियट्टिज्जमाणस्स वा ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वइकरा सव्वओ सता सद्दा अभिणिस्सवंति, भवे एयारूवे सिया ? णो तिट्ठे सट्टे । से जहानामए - वेयालियाए वीणाए उत्तरमंदामुच्छिताए अंके सुपइट्टियाए चंदणसारकोणपडिघट्टियाए कुसलणरणारिसंपरिगहियाए पदोस-पच्चूसकालसमयंसि मंदं मंदं एइयाए वेइयाए खोभियाए उदीरियाए ओराला मणुण्णा कण्णमणणिव्वुइकरा सव्वओ समंता सद्दा अभिणिस्सर्वति, भवे यावे सिया ? णो तिट्टे समट्ठे । तणाणं पुव्वा. इत्येव पाठः । १. Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड-वर्णन] [३५९ से जहाणामए - किण्णराण वा किंपुरिसाण वा महोरगाण वा गंधव्वाण वा भद्दसालवणगयाण वा नंदणवणगयाण वा सोमणसवणगयाण वा पंडगवणगयाण वा हिमवंतमलय-मंदर - गिरि-गुहसमण्णागयाण वा एगओ सहियाणं सम्मुहागयाणं समुविद्वाणं सन्निविद्वाणं पमुदियपक्कीलियाणं गीयरतिगंधव्वहरिसियमणाणं गेज्जं पज्जं कत्थं पयबद्धं पायबद्धं उक्खित्तयं पवत्तयं मंदायं रोचियावसाणं सत्तसरसमण्णागयं अट्ठरससुसंपउत्तं छद्दोसविप्पमुक्कं एकारसगुणालंकार-अट्ठगुणोववेयं गुंजंतवंसकुहरोवगूढं रत्तं तित्थाणकरणसुद्धं मधुरं समं सुललियं सकुहरगुंजंत-वंस-तंतीसुपउत्तं तालसुसंपउत्तं लयसुसंपउत्तं गहसुसंपउत्तं मणोहरं मउयरिभियपयसंचारं सुरइं सुणई वरचारु रूवं दिव्यं गेयं पगीयाणं, भवे एयारूवे सिया ? हंता गोयमा ! एवंभूए सिया । [१२६] (९) हे भगवन् ! उन तृणों और मणियों के पूर्व - पश्चिम-दक्षिण-उत्तर दिशा से आगत वायु द्वारा मंद-मंद कम्पित होने से, विशेषरूप से कम्पित होने से, बार-बार कंपित होने से, क्षोभित, चालित, और स्पंदित होने से तथा प्रेरित किये जाने पर कैसा शब्द होता है ? जैसे शिबिका (ऊपर से आच्छादित कोष्टाकार पालखी विशेष ), स्यन्दमानिका ( बड़ी पालखी - पुरुष प्रमाण जम्पान विशेष) और संग्राम रथ (जिसका फलकवेदिका पुरुष की कटि - प्रमाण होती है) जो छत्र सहित है, ध्वजा सहित है, दोनों तरफ लटकते हुए बड़े-बड़े घंटों से युक्त है, जो श्रेष्ठ तोरण से युक्त है, नन्दिघोष (बारह प्रकार के वाद्यों के शब्द) से युक्त है, जो छोटी-छोटी घंटियों (घुंघरूओं) से युक्त, स्वर्ण की माला - समूहों से सब ओर से व्याप्त है, जो हिमवन पर्वत के चित्र-विचित्र मनोहर चित्रों से युक्त तिनिश की लकड़ी से बना हुआ, सोने से खचित (मढ़ा हुआ) है, जिसेक आरे बहुत ही अच्छी तरह लगे हुए हों तथा जिसकी धुरा मजबूत हो, जिसके पहियों पर लोह की पट्टी चढ़ाई गई हो, आकीर्ण- गुणों से युक्त श्रेष्ठ घोड़े जिसमें जुते हुए हों, कुशल एवं दक्ष सारथी से युक्त हो, प्रत्येक में सौ-सौ बाण वाले बत्तीस तूणीर जिसमें सब ओर लगे हुए हों कवच जिसका मुकुट हो, धनुष सहित बाण और भाले आदि विविध शस्त्रों तथा उनके आवरणों से जो परिपूर्ण हो तथा योद्धाओं के युद्ध निमित्त जो सजाया गया हो, (ऐसा संग्राम रथ) जब राजांगण में या अन्तःपुर में या मणियों से जड़े हुए भूमितल में बार-बार वेग में चलता हो, आता-जाता हो, तब जो उदार, मनोज्ञ और कान एवं मन को तृप्त करने वाले चौतरफा शब्द निकलते हैं, क्या उन तृणों और मणियों का ऐसा शब्द होता है ? हे गौतम ! यह अर्थ यथार्थ नहीं है । भगवन् ! जैसे ताल के अभाव में भी बजायी जाने वाली वैतालिका (मंगलपाठिका) वीणा जब ( गान्धार स्वर के अन्तर्गत) उत्तरामंदा नामक मूर्छना से युक्त होती है, बजाने वाले व्यक्ति की गोद में भलीभांति विधिपूर्वक रखी हुई होती है, चन्दन के सार से निर्मित कोण ( वादनदण्ड) से घर्षित की जाती है, बजाने में कुशल नर-नारी द्वारा संप्रग्रहीत हो ( ऐसी वीणा को ) प्रातः काल और संध्याकाल के समय मन्द मन्द और विशेषरूप से कम्पित करने पर, बजाने पर क्षोभित, चालित और स्पंदित, घर्षित और उदीरित (प्रेरित) करने पर जैसा उदार, मनोज्ञ, कान और मन को तृप्ति करने वाला शब्द चौतरफा निकलता है, क्या ऐसा Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन तृणों और मणियों का शब्द है ? गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं है । भगवन् ! जैसे किन्नर, किंपुरुष, महोरग और गंधर्व-जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन और पंडकवन में स्थित हों, जो हिमवान् पर्वत, मलयपर्वत या मेरुपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के सन्मुख बैठे हों, परस्पर रगड़ से रहित सुखपूर्वक आसीन हों, समस्थान पर स्थित हों, जो प्रमुदित और क्रीड़ा में मग्न हों, गीत में जिनकी रति हो और गन्धर्व नाट्य आदि करने से जिनका मन हर्षित हो रहा हो, उन गन्धर्वादि के गद्य, पद्य, कथ्य, पद्बद्ध (एकाक्षरादिरूप), पादबद्ध(श्लोक का चतुर्भाग), उत्क्षिप्त (प्रथम आरम्भ किया हुआ), प्रवर्तक (प्रथम आरम्भ से ऊपर आक्षेप पूर्वक होने वाला), मंदाक (मध्यभाग में मन्द-मन्द रूप से स्वरित) इन आठ प्रकार के गेय को, रुचिकर, अन्त वाले गेय को, सात स्वरों से युक्त गेय को, आठ रसों से युक्त गेय को, छह दोषों से रहित, ग्यारह अलंकारों से युक्त, आठ गुणों से युक्त, बांसुरी की सुरीली आवाज से गाये गये गेय को, राग से अनुरक्त, उर-कण्ठ-शिर ऐसे त्रिस्थान शुद्ध गेय को, मधुर, सम, सुललित, एक तरफ बांसुरी और दूसरी तरफ तन्त्री (वीणा) बजाने पर दोनों में मेल के साथ गाया गया गेय, तालसंप्रयुक्त, लयसंप्रयुक्त, ग्रहसंप्रयुक्त (बांसुरी तन्त्री आदि के पूर्वगृहीतस्वर के अनुसार गाया जाने वाला), मनोहर, मृदु और रिभित (तन्त्री आदि के स्वर से मेल खाते हुए) पद संचार वाले, श्रोताओं को आनन्द देने वाले, अंगों के सुन्दर झुकाव वाले, श्रेष्ठ सुन्दर ऐसे दिव्य गीतों के गाने वाले उन किन्नर आदि के मुख से जो शब्द निकलते हैं, वैसा उन तृणों और मणियों का शब्द होता है क्या ? हां गौतम ! उन तृणों और मणियों के कम्पन से होने वाला शब्द इस प्रकार का होता है। विवेचन-उस वनखण्ड के भूमिभाग में जो तृण और मणियां हैं, उनके वायु द्वारा कम्पित और प्रेरित होने पर जैसा मधुर स्वर निकलता है उसका वर्णन इस सूत्रखण्ड में किया गया है। श्री गौतम स्वामी ने उस स्वर की उपमा के लिए तीन उपमानों का उल्लेख किया है। पहला उपमान है-कोई पालखी (शिबिका या जम्पान) या संग्राम रथ जिसमें विविधि प्रकार के शस्त्रास्त्र सजे हुए हैं, जिसके चक्रों पर लोहे की पट्टियां जड़ी हुई हों, जो श्रेष्ठ घोड़ों और सारथी से युक्त हो, जो छत्र-ध्वजा से युक्त हो, जो दोनों ओर बड़े-बड़े घन्टों से युक्त हो, जिसमें नन्दिघोष (बारह प्रकार के वाद्यों का निनाद) हो रहा हो-ऐसा रथ या पालखी जब राजांगण में, अन्तःपुर में या मणियों से जड़े हुए आंगन में वेग से चलता है तब जो शब्द होता है क्या वैसा शब्द उन तृणों और मणियों का है ? भगवान् ने कहा-नहीं। इससे भी अधिक इष्ट, कान्त,प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर वह शब्द होता है। इसके पश्चात् श्री गौतमस्वामी ने दूसरे उपमान का उल्लेख किया। वह इस प्रकार हैं-हे भगवन्! प्रात:काल अथवा सन्ध्या के समय वैतालिका (मंगलपाठिका) वीणा (जो ताल के अभाव में भी बजाई जाती है-जब गान्धार स्वर की उत्तरमन्दा नाम की सप्तमी मूर्छना से युक्त होती है जब उस वीणा का कुशलवादक उस वीणा को अपनी गोद में अच्छे ढंग से स्थापित कर चन्दन के सार से निर्मित वादन-दण्ड से बजाता है तब उस वीणा से जो कान और मन को तृप्त करने वाला शब्द निकलता है क्या वैसा उन तृणों मणियों Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड-वर्णन] का शब्द है ? गान्धार स्वर की सात मूर्छनाएँ होती हैंनंदी य खुट्टिमा पूरिमा या चोत्थी असुद्धगन्धारा । उत्तरगन्धारा वि हवइ सा पंचमी मुच्छा ॥ १॥ सुहुमुत्तर आयामा छट्ठी सा नियमसो उ बोद्धाव्वा ॥ २॥ [३६१ नन्दी, क्षुद्रा, पूर्णा, अशुद्धगान्धारा, उत्तरगान्धारा, सूक्ष्मोत्तर - आयामा और उत्तरमन्दा- ये सात मूर्छनाएँ हैं। ये मूर्छनाएँ इसलिए सार्थक हैं कि ये गाने वाले को और सुनने वाले को अन्य-अन्य से विशिष्ट होकर मूर्छित जैसा कर देती हैं । कहा है अन्नन्नसरविसेसं उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कन्ता वि मुच्छिओ इव कुणए मुच्छंव सो वेति ॥ गान्धारस्वर के अन्तर्गत मूर्च्छनाओं के बीच में उत्तरमन्दा नाम की मूर्छना जब अति प्रकर्ष को प्राप्त जाती है तब वह श्रोताजनों को मूर्छित-सा बना देती है। इतना ही नहीं किन्तु स्वरविशेषों को करता हुआ गायक भी मूर्छित के समान हो जाता है । ऐसी उत्तरमन्दा मूर्च्छना से युक्त वीणा का जैसा शब्द निकलता है क्या वैसा शब्द उन तृणों और मणियों का है ? ऐसा श्री गौतमस्वामी के कहने पर भगवान् कहते हैं - नहीं इस स्वर से भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का शब्द होता है । पुन: श्री गौतमस्वामी तीसरा उपमान कहते हैं- भगवान् ! जैसा किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों या गन्धर्वों का, जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन, पण्डकवन में स्थित हों अथवा हिमवान्पर्वत या मलयपर्वत या मन्दरपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के समक्ष बैठे हों, इस ढंग से बैठे हों कि किसी को दूसरे की रगड़ से बाधा न हो, स्वयं को भी किसी अपने ही अंग से बाधा न पहुँच रही हो, हर्ष जिनके शरीर पर खेल रहा हो, जो आनन्द के साथ क्रीड़ा करने में रत हों, गीत में जिनकी रति हो, नाट्यादि द्वारा जिनका मन हर्षित हो रहा हो - (ऐसे गन्धर्वों का ) आठ प्रकार के गेय से तथा आगे उल्लिखित गेय के गुणों से सहित और दोषों से रहित ताल एवं लय से युक्त गीतों के गाने से जो स्वर निकलता है क्या वैसा उन तृण और मणियों का शब्द होता है ? गेय आठ प्रकार के हैं - १ गद्य-जो स्वर संचार से गाया जाता हैं, २ पद्य - जो छन्दादिरूप हो, ३ कथ्य - कथात्मक गीत, ४ पदबद्ध - जो एकाक्षरादि रूप हो यथा - 'ते', ५ पादबद्ध - श्लोक का चतुर्थ भाग रूप हो, ६ उत्क्षिप्त—जो पहले आरम्भ किया हुआ हो, ७ प्रवर्तक - प्रथम आरम्भ से ऊपर आक्षेपपूर्वक होने वाला, ८ मन्दाक - मध्यभाग में सकल मूर्च्छानादि गुणोपेत तथा मन्द मन्द स्वर से संचरित हो । वह आठ प्रकार का गेय रोचितावसान वाला हो, अर्थात् जिस गीत का अन्त रुचिकर ढंग से शनै: Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र शनैः होता हो तथा जो सप्तस्वरों से युक्त हो। गेय के सात स्वर इस प्रकार हैं सज्जे रिसह गन्धारे मज्झिमे पंचमे सरे। धेवए चेव नेसाए सरा सत्त वियाहिया॥ षड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और नैषाद, ये सात स्वर हैं। ये सात स्वर पुरुष के या स्त्री के नाभिदेश से निकलते हैं, जैसा कि कहा है-'सप्तसरा नाभिओ'। अष्टरस-संप्रयुक्त-वह गेय श्रृंगार आदि आठ रसों से युक्त हो। षड्दोष-विप्रयुक्त-वह गेय छह दोषों से रहित हो। वे छह दोष इस प्रकार हैं भीयं दुयमुप्पित्थमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं । कागस्सरमणुणासं छद्दोसा होति गेयस्स॥ भीत, द्रुत, उप्पिच्छ, (आकुलतायुक्त), उत्ताल, काकस्वर और अनुनास (नाक से गाना) ये गेय के छह दोष हैं। एकादशगुणालंकार-पूर्वो के अन्तर्गत स्वरप्राभूत में गेय के ग्यारह गुणों का विस्तार से वर्णन है। वर्तमान में पूर्व विच्छिन्न हैं अतएव आंशिक रूप में पूर्वो से विनिर्गत जो भरत, विशाखिल आदि गेय शास्त्र हैं, उनसे इनका ज्ञान करना चाहिए। अष्टगुणोपेत-गेय के आठ गुण इस प्रकार हैं पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविघुटं। महुरं समं सुललियं अट्ठगुणा होति गेयस्स॥ १ पूर्ण-जो स्वर कलाओं से परिपूर्ण हो, २ रक्त-राग से अनुरक्त होकर जो गाया जाए, ३ अलंकृतपरिवेष रूप स्वर से जो गाया जाय, ४ व्यक्त-जिसमें अक्षर और स्वर स्पष्ट रूप से गाये जायें, ५ अविघुष्टजो विस्वर और आक्रोश युक्त न हो, ६ मधुर-जो मधुर स्वर से गाया जाय, ७ सम-जो ताल, वंश, स्वर आदि से मेल खाता हुआ गाया जाय, ८ सुललित-जो श्रेष्ठ घोलना प्रकार से श्रोत्रेन्द्रिय को सुखद लगे, इस प्रकार गाया जाय। ये गेय के आठ गुण हैं। गुंजंत वंसकुहरम्-जो बांसुरी में तीन सुरीली आवाज से गाया गया हो, ऐसा गेय। रत्त-राग से अनुरक्त गेय। त्रिस्थानकरणशुद्ध-जो गेय उर, कंठ और सिर इन तीन स्थानों से शुद्ध हो। अर्थात् उर और कंठ श्लेष्मवर्जित हो और सिर अव्याकुलित हो। इस तरह गाया गया गेय त्रिस्थानकरणशुद्ध होता है। सकुहरगुजंतवंसतंतीसुसंपउत्त-जिस गान में एक तरफ तो बांसुरी बजाई जा रहा हो और दूसरी ओर तन्त्री (वीणा) बजाई चा रही हो, इनके स्वर से जो गान अविरुद्ध हो अर्थात् इनके स्वरों से मिलता हुआ गाया जा रहा हो। Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड की बावड़ियों आदि का वर्णन] [३६३ तालसुसंप्रयुक्त-हाथ की तालियों से मेल खाता हुआ गाया जा रहा हो। तालसमं लयसंप्रयुक्त ग्रहसुसंप्रयुक्त-ताल, लय तथा वीणादि के स्वर से मेल खाता हुआ गाया जाने वाले गेय। मणोहरं-मन को हरने वाला गेय। मृदुरिभितपदसंचार-मृदु स्वर से युक्त, तंत्री आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पदसंचार वाले गेय। सुरई-श्रोताओं को आनन्द देने वाला गेय।। सुनतिं-अंगों के सुन्दर हावभाव से युक्त गेय। वरचारुरूपं-विशिष्ट सुन्दर रूप वाला गेय। उक्त विशेषणों से युक्त गेय को जब पूर्वोक्त व्यन्तर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व प्रमुदित होकर गाते हैं तब उनसे जो शब्द निकलता है, ऐसा मनोहर शब्द उन तृणों और मणियों का है क्या ? ऐसा श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया। इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हाँ-गौतम ! उन तृणों और मणियों का इतना सुन्दर शब्द होता है। - सूत्र में आये हुए भद्रशाल आदि वनों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है। भद्रशाल आदि चार वन सुमेरु पर्वत पर हैं। इनमें भद्रशालवन मेरु पर्वत की नीचे की भूमि पर है, नन्दनवन मेरु की प्रथम मेखला पर है, दूसरी मेखला पर सोमनसवन है और चूलिका के पार्श्वभाग में चारों तरफ पण्डकवन है। महाहिमवान् हेमवत क्षेत्र की उत्तर दिशा में है। यह उसकी सीमा करने वाला होने से वर्षधर पर्वत कहलाता है। वनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन १२७.(१)तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डा खुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ गुंजालियाओ दीहियाओसराओ सरपंतियाओसरसरपंतीओ बिलपंतीओ अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतीराओ वइरामयपासाणाओ, तवणिज्जमयतलाओ वेरुलियमणिफालियपडल पच्चोयडाओणवणीयतलाओ सुवण्ण-सुज्झरयय-मणिवालुयाओ सुहोयाराओ सुउत्ताराओ, णाणामणितित्थसुबद्धाओ चउक्कोणाओ समतीराओ, आणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पल-कुमुय-णलिणसुभग-सोगंधिय-पोंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्तफुल्लकेसरी-बइयाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थ भमंतमच्छकच्छभ अणेगसउणमिहुणपरिचरियाओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगइयाओ आसवोदाओ अप्पेगइयाओ वारुणोदाओ अप्पेगइयाओ खीरोदाओ अप्पेगइयाओ घओदाओ अप्पेगइयाओ खोदोदाओ अप्पेगइयाओ अमयरससमरसोदाओ, अप्पेगइयाओ पगइएउदग (अमय) रसेणं पण्णत्ताओ, पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ। [१२७] (१) उस वनखण्ड के मध्य में उस-उस भाग में उस उस स्थान पर बहुत सी छोटी Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र छोटी चौकीन वावडियाँ हैं, गोल-गोल अथवा कमल वाली पुष्करिणियाँ हैं, जगह-जगह नहरों वाली दीर्घिकाएँ हैं, टेढ़ीमेढ़ी गुंजालिकाएँ हैं, जगह-जगह सरोवरों की पंक्तियाँ हैं, अनेक सरसर पंक्तियां (जिन तालाबों में कुएं का पानी नालियों द्वारा लाया जाता है) और बहुत से कुओं की पंक्तियाँ हैं। वे स्वच्छ हैं, मृदु पुद्गलों से निर्मित हैं। इनके तीर सम हैं, इनके किनारे चांदी के बने हैं, किनारे पर लगे पाषाण वज्रमय हैं। इनका तलभाग तपनीय (स्वर्ण) का बना हुआ है। इनके तटवर्ती अति उन्नत प्रदेश वैडूर्यमणि एवं स्फटिक के बने हैं। मक्खन के समान इनके सुकोमल तल हैं। स्वर्ण और ' शुद्ध चांदी की रेत है। ये सब जलाशय सुखपूर्वक प्रवेश और निष्क्रमण योग्य हैं। नाना प्रकार की मणियों से इनके घाट मजबूत बने हुए हैं। कुएं और बावडियां चौकोन हैं। इनका वप्र-जलस्थान क्रमशः नीचे-नीचे गहरा होता है और उनका जल अगाध और शीतल है। इनमें जो पद्मिनी के पत्र, कन्द और पद्मनाल हैं वे जल से ढंके हुए हैं। उनमें बहुत से उत्पल, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, शतपत्र, सहस्रपत्र फूले रहते हैं और पराग से सम्पन्न हैं, ये सब कमल भ्रमरों से परिभुज्यमान हैं अर्थात् भंवरे उनका रसपान करते रहते हैं। ये सब जलाशय स्वच्छ और निर्मल जल से परिपूर्ण हैं। परिहत्थ २ (बहुत से) मत्स्य और कच्छप इधर-उधर घूमते रहते हैं, अनेक पक्षियों के जोड़े भी इधर-उधर भ्रमण करते रहते हैं। इन जलाशयों में से प्रत्येक जलाशय वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है और प्रत्येक जलाशय पद्मवरवेदिका से युक्त है। इन जलाशयों में से कितनेक का पानी आसव जैसे स्वाद वाला है, किन्हीं का वारुणसमुद्र के जल जैसा है, किन्ही का जल दूध जैसे स्वाद वाला हैं, किन्हीं का जल घी जैसे स्वाद वाला है, किन्हीं का जल इक्षुरस जैसा है, किन्ही के जल का स्वाद अमृतरस जैसा है और किन्ही का जल स्वभावतः उदकरस जैसा है। ये सब जलाशय प्रसन्नता पैदा करने वाले हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। १२७.(२) तासिंणं खुड्डियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं जाव बहवे तिसोवाणपडिरूवगापण्णत्ता।तेसिंणं तिसोवाणपडिरूवगाणं अयमेयारूवेवण्णावासे पण्णत्ते,तं जहा-वइरामया नेमा रिट्ठामया पइट्ठाणा वेरुलियमया खंभा सुवण्णरुप्पमया फलगा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सुईओ णाणामणिमया अवलंबणा अवलंबणबाहाओ। तेसिं णं तिसोपाणपडिरूवगाणं पुरओ पत्तेयं तोरणा पण्णत्ता। ते णं तोरणा णाणामणिमयखंभेसु उवणिविट्ठसण्णिविट्ठा विविहमुत्तरोवइया विविहतारारूवोवचियाईहामियउसभ-सुग-णर-मगर-विहग-वालग-किण्णर-रुरु-सरभ-चमर-कुंजर-वणलयपउमलयभत्तिचित्ता खंभुग्गयवइरवेइयापरिगताभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविव आच्चिसहस्समालणीयाभिसमाणाभिब्भिसमाणा चक्खुल्लोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाइया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेसिंणंतोरणाणं उप्पिं वहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता, सोत्थिय-सिरिवच्छ-णंदियावत्त १. वृत्ति के अनुसार 'सुज्झ' का अर्थ रजतविशेष है। २. 'परिहत्थ' अर्थात् बहुत सारे। Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड की बावड़ियों आदि का वर्णन] वद्धमाण-भद्दासण-कलस-मच्छ-दप्पणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा । तेसिं णं तोरणाणं उप्पि किण्हचामरज्झया नीलचामरज्झया लोहियचामरज्झया हारिद्दचामरज्झया सुक्किलचामरज्झया अच्छा सण्हा रुप्पपडा वइरदंडा जलयामलगंधीया सुरूवा पासाइया जाव पडिरूवा । [३६५ तेसिं णं तोरणाणं उप्पि बहवे छत्ताइछत्ता । पडागाइपडागा घंटाजुयला चामरजुयला उप्पलहत्थगा जाव सयसहस्सपत्तहत्थगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । [१२७] (२) उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपों में यहाँ वहाँ उन उन भागों में बहुत से विशिष्ट स्वरूप वाले त्रिसोपान कहे गये हैं । उन विशिष्ट त्रिसोपानों का वर्णन इस प्रकार है- वज्रमय उनकी नीवें है, रिष्टरत्नों के उसके पाये हैं, वैडूर्यरत्न के स्तम्भ हैं, सोने और चांदी के पटिये हैं, वज्रमय उनकी संधियां हैं, लोहिताक्ष रत्नों की सूइयां (कीलें ) हैं, नाना मणियों के अवलम्बन हैं (उतरने चढ़ने के लिए आजू-बाजू हुदण्डमा आधार, जिन्हें पकड़कर चढ़ना-उतरना होता है), नाना मणियों की बनी हुई आलम्बन बाहा हैं (अवलम्बन जिनके सहारे पर रहता है वे दोनों ओर के भींत समान स्थान ) । उन विशिष्ट त्रिसोपानों के आगे प्रत्येक के तोरण कहे गये हैं । उन तोरणों का वर्णन इस प्रकार हैवे तोरण नाना प्रकार की मणियों के बने हुए हैं। वे तोरण नाना मणियों से बने हुए स्तंभों पर स्थापित हैं, निश्चलरूप से रखे हुए हैं, अनेक प्रकार की रचनाओं से युक्त मोती उनके बीच-बीच में लगे हुए हैं, नाना प्रकार के ताराओं से वे तोरण उपचित (सुशोभित ) हैं । उन तोरणों में ईहामृग (वृक), घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, व्याल (सर्प), किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), हाथी, वनलता और पद्मलता के चित्र बने हुए हैं। इन तोरणों के स्तम्भों पर वज्रमयी वेदिकाएँ हैं, इस कारण ये तोरण बहुत ही सुन्दर लगते हैं । समश्रेणी विद्याधरों के युगलों के यन्त्रों (शक्तिविशेष) के प्रभाव से ये तोरण हजारों किरणों से प्रभावित हो रहे हैं । (ये तोरण इतने अधिक प्रभासमुदाय से युक्त हैं कि इन्हें देखकर ऐसा भासित होता हैं कि ये स्वभावतः नहीं किन्तु किन्हीं विशिष्ट विद्याशक्ति के धारकों के यांत्रिक प्रभाव के कारण इतने अधिक प्रभासित हो रहे हैं) ये तोरण हजारों रूपकों से युक्त हैं, दीप्यमान हैं, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उन्हीं पर टिक जाते हैं। उन तोरणों का स्पर्श बहुत ही शुभ है, उनका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है । वे तोरण प्रासादिक, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है । उन तोरणों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल कहे गये हैं-१ स्वस्तिक, २ श्रीवत्स, ३. नंदिकावर्त, ४ वर्धमान, ५ भद्रासन, ६ कलश, ७ मत्स्य और ८ दर्पण । ये सब आठ मंगल सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, प्रासादिक हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन तोरणों के ऊर्ध्वभाग में अनेकों कृष्ण कान्तिवाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, नील वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, लाल वर्ण वाले चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं, पीले वर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं और सफेद वर्ण के चामरों से युक्त ध्वजाएँ हैं । ये सब ध्वजाएँ स्वच्छ हैं, मृदु हैं, वज्रदण्ड के ऊपर का Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र पट्ट चांदी का है, इन ध्वजाओं के दण्ड वज्ररत्न के हैं, इनकी गन्ध कमल के समान है, अतएव ये सुरम्य हैं, सुन्दर हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं एवं प्रतिरूप हैं। ३६६ ] इन तोरणों के ऊपर एक छत्र के ऊपर दूसरा छत्र, दूसरे पर तीसरा छत्र - इस तरह अनेक छत्र हैं, एक पताका पर दूसरी पताका, दूसरी पर तीसरी पताका - इस तरह अनेक पताकाएँ हैं । इन तोरणों पर अनेक घंटायुगल हैं, अनेक चामरयुगल हैं और अनेक उत्पलहस्तक ( कमलों के समूह ) हैं यावत् शतपत्र - सहस्रपत्र कमलों के समूह हैं। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप ( बहुत सुन्दर ) हैं । १२७. (३) तासिं णं खुडियाणं वावीणं जाव बिलपंतियाणं तत्थ तत्थ देसे तर्हि तहिं बहवे उप्पायपव्वयाणियइपव्वया जगतिपव्वया दारुपव्वयगा दगमंडवगा दगमंचका दगमालका दगपासायगा ऊसढा खुल्ला खडहडगा आंदोलगा पक्खंदोलगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पाडवा | तेसु णं उप्पायपव्वसु जाव पक्खंदोलएसु बहवे हंसासणाई कोंचासणाई गरुलासणाई उण्णयासणाइं पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाइम मगरासणाई उसभासणाई सीहासणाइ पउमासणाई दिसासोवत्थियासणाइं सव्वरयणामयाइं अच्छाई सण्हाई लण्हाई घट्टाई मट्ठाई णीरयाई णिम्मलाई निप्पंकाई निक्कंकडच्छायाइं सप्पभाई समिरीयाई, सउज्जोयाइं पासादीयाइं दरिसणिज्जाइं अभिरूवाइं पडिरूवाइं । [१२७] (३) उन छोटी बावड़ियों यावत् कूपपंक्तियों में उन-उन स्थानों में उन-उन भागों में बहुत से उत्पातपर्वत हैं, (जहाँ व्यन्तर देव - देवियां आकर क्रीडानिमित्त उत्तरवैक्रिय की रचना करते हैं), बहुत से नियतिपर्वत हैं (जो वानव्यंतर देव-देवियों के नियतरूप से भोगने में आते हैं) जगतीपर्वत हैं, दारुपर्वत हैं। (जो लकड़ी के बने हुए जैसे लगते हैं), स्फटिक के मण्डप हैं, स्फटिकरत्न के मंच हैं, स्फटिक के माले हैं, स्फटिक के महल हैं, जो कोई तो ऊंचे हैं, कोई छोटे हैं, कितनेक छोटे किन्तु लंबे हैं, वहाँ बहुत से आंदोलक (झूले) हैं, पक्षियों के आन्दोलक (झूले) हैं। ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । उन उत्पातपर्वतों में यावत् पक्षियों के आन्दोलकों (झूलों) में बहुत से हंसासन (जिस आसन के नीचे भाग में हंस का चित्र हो ), क्रोंचासन, गरुड़ासन, उन्नतासन, प्रणतासन, दीर्घासन, भद्रासन, पक्ष्यासन, मकरासन, वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन, और दिशास्वस्तिकासन हैं । ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, स्निग्ध हैं, घृष्ट हैं, नीरज हैं, निर्मल हैं, निष्पंक हैं, अप्रतिहत कान्ति वाले हैं, प्रभामय हैं, किरणों वाले हैं, उद्योत वाले हैं, प्रासादिक हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं । १२७. ( ४ ) तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तर्हि बहवे आलिघरा मालिघरा कयलिघरा लयागरा अच्छणघरा पेच्छणघरा मज्जणघरगा पसाहणघरगा गब्भघरगा मोहणघरगा सालघरगा जालघरगा कुसुमघरगा चित्तघरगा गंधव्वघरगा आयंसघरगा सव्वरयणामया अच्छा सहा जाव पडिरूवा । Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड की बावड़ियों आदि का वर्णन] [३६७ तेसु णं आलिघरएसु जाव आयंसघरएसु बहूइं हंसासणाइं जाव दिसासोवत्थियासणाई सव्वरयणामयाइं जाव पडिरूवाई। तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे जाइमंडवगा जूहियामंडवगा मल्लियामंडवगा णवमालियमंडवगा वासंतीमंडवगा दधिवासुयामंडवगा सूरिल्लिमंडवगा, तंबोलीमंडवगा मुद्दियामंडवगाणागलयामंडवगा अतिमुत्तमंडवगा अप्पोयामंडवगा मालुयामंडवगा सामलयामंडवगा णिच्चं कुसुमिया जाय पडिरूवा। तेसुणं जातिमंडवएसु (जाव सामलयामंडवएसु) बहवे पुढविसिलापट्टगा पण्णत्ता, तं जहा-हंसासणसंठिया गरुलासणसंठिया उण्णयासणसंठिया पणयासणसंठिया दीहासणसंठिया भद्दासणसंठिया पक्खासणसंठिया मगरासणसंठिया उसभासणसंठिया, सीहासणसंठिया पउमासणसंठिया दिसासोत्थियासणसंठिया पण्णत्ता। तत्थ बहवे वरसयणासणविसिट्ठसंठाणसंठिया पण्णत्ता समणाउसो ! आइण्णग-रूय-बूर-णवणीयतूलफासा मउया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। ___ तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसयंति सयंति चिट्ठति णिसीदंति तुयलैंति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरिक्कंताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। __ [१२७] (४) उस वनखण्ड के उन-उन स्थानों और भागों में बहुत से आलिघर (आली नामक वनस्पतिप्रधान घर) हैं, मालिघर (माली नामक वनस्पतिप्रधान घर) हैं, कदलीघर हैं, लताघर हैं, ठहरने के घर (धर्मशालावत्) हैं, नाटकघर हैं, स्नानघर, प्रसाधन (शृंगारघर), गर्भगृह (भौयरा), मोहनघर (वासभवनरतिक्रीडार्थ घर) हैं, शालागृह (पट्टशाला), जालिप्रधानगृह, फूलप्रधानगृह, चित्रप्रधानगृह, गन्धर्वगृह (गीतनृत्य के अभ्यास योग्य घर) और आदर्शघर (काचप्रधान गृह) हैं। ये सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् बहुत सुन्दर उन आलिघरों यावत् आदर्शघरों में बहुत से हंसासन यावत् दिशास्वस्तिकासन रखे हुए हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् सुन्दर हैं. उस वनखण्ड के उन उन स्थानों और भागों में बहुत से जाई (चमेली के फूलों से लदे हुए मण्डप (कुंज) हैं, जूही के मण्डप हैं, मल्लिका के मण्डप हैं, नवमालिका के मण्डप हैं, वासन्तीलता के मण्डप हैं, दधिवासुका नामक वनस्पति के मण्डप हैं, सूरिल्ली-वनस्पति के मण्डप हैं, तांबूली-नागवल्ली के मण्डप है, मुद्रिका-द्राक्षा के मण्डप हैं, नागलतामण्डप, अतिमुक्तकमण्डप, अप्फोया वनस्पति विशेष के मण्डप, लुकामण्डप, (एक गुठली वाले फलों के वृक्ष) और श्यामलतामण्डप हैं। ' ये नित्य कुसुमित रहते हैं, कुलित रहते हैं, पल्लवित रहते हैं यावत् ये सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। वृत्ति में 'सामलयामंडवा' पाठ नहीं है। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन जाइमण्डपादि यावत् श्यामलतामण्डपों में बहुत से पृथ्वीशिलापट्टक हैं, जिनमें से कोई हंसासन के समान है (हंसासन की आकृति वाले हैं) कोई, क्रौंचासन के समान हैं, कोई गरुड़ासन की आकृति के हैं, कोई उन्नतासन के समान हैं, कितनेक प्रणतासन के समान हैं, कितनेक भद्रासन के समान, कितनेक दीर्घासन के समान, कितनेक पक्ष्यासन के समान, कितनेक मकरासन , वृषभासन, सिंहासन, पद्मासन के समान हैं और कितनेक दिशा-स्वस्तिकासन के समान हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वहाँ पर अनेक पृथ्वीशिलापट्टक जितने विशिष्ट चिह्न और नाम हैं तथा जितने प्रधान शयन और आसन हैं-उनके समान आकृति वाले हैं। उनका स्पर्श आजिनक (मृगचर्म), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन तथा हंसतूल के समान मुलायम हैं, मृदु हैं। वे सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप )सुन्दर हैं। . वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ सुखपूर्वक विश्राम करती हैं, लेटती हैं, खड़ी रहती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, इच्छानुसार आचरण करती हैं, क्रीड़ा करती हैं, रतिक्रीड़ा करती हैं। इस प्रकार वे वानव्यन्तर देवियां और देव पूर्व भव में किये हुए धर्मानुष्ठानों का, तपश्चरणादि शुभ पराक्रमों का अच्छे और कल्याणकारी कर्मों के फलविपाक का अनुभव करते हुए विचरते हैं। १२७. (५) तीसे णं जगतीए उप्पि अंतो पउमवरवेइयाए एत्थ णं एगे महं वणसंडे पण्णत्ते, देसूणाई दो जोयणाई विक्कंभेणं वेदिया समएणं परिक्खेवेणं किण्हे किण्होभासे वणसंडवण्णओ तणमाणिसद्दविहूणो णेयव्यो। तत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा देवीओ य आसंयति सयंति चिटुंति णिसीयंति तुयटॅति रमंति ललंति कीडंति मोहंति पुरा पोराणाणं सुचिण्णाणंसुपरिक्कंताणंसुभाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति। [१२७] (५) उस जगती के ऊपर और पद्मवरवेदिका के अन्दर के भाग में एक बड़ा वनखंड कहा गया है, जो कुछ कम दो योजन विस्तारवाला वेदिका के परिक्षेप के समान परिधि वाला है। जो काला और काली कान्ति वाला है इत्यादि पूर्वोक्त वनखण्ड का वर्णन यहाँ कह लेना चाहिए। केवल यहाँ तृणों और मणियों के शब्द का वर्णन नहीं कहना चाहिए(क्योंकि यहाँ पद्मवरवेदिका का व्यवधान होने से तथाविध वायु का आघात न होने से शब्द नहीं होता है)। ___यहाँ बहुते से वानव्यन्तर देव और देवियां स्थित होते हैं, लेटते हैं, खड़े रहते हैं, बैठते हैं, करवट बदलते हैं, रमण करते हैं, इच्छानुसार क्रियाएँ करते हैं, क्रीडा करते हैं, रतिक्रीड़ा करते हैं और अपने पूर्वभव में किये गये पुराने अच्छे धर्माचरणों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और शुभ पुण्यों का, किये गये शुभकर्मों का कल्याणकारी फल-विपाक का अनुभव करते हुए विचरण करते हैं। विवेचन-पूर्व में पद्मवरवेदिका के बाहर के वनखण्ड का वर्णन किया गया था। इस सूत्र में पद्मवरवेदिका के पहले और जगती के ऊपर जो वनखण्ड है उसका उल्लेख किया गया है। १. क्वचित् मांसलसुघुविसिट्ठसंठाणसंठिया पाठ भी है। वे शिलापट्टक मांसल हैं-कठोर नहीं हैं, अत्यन्त स्निग्ध हैं और विशिष्ट आकृति वाले हैं। Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [३६९ जंबूद्वीप के द्वारों की संख्या १२८. जंबूद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स कति दारा पण्णत्ता ? गोयमा ! चत्तारि दारा पण्णत्ता, तं जहा-विजए, वेजयंते, जयंते अपराजिए। [१२८] हे भगवन् ! जंबूद्वीप नामक द्वीप के कितने द्वार हैं ? गौतम ! जंबूद्वीप के चार द्वार हैं, यथा-विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित। १२९. (१) कहिं णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पुरत्थिमेणं पणयालीसंजोयणसहस्साइं अबाहाए जंबुद्दीवे दीवे पुरच्छिमपेरन्ते लवणसमुद्दपुरच्छिमद्धस्स पच्चत्थिमेणं सीताए महाणदीए उप्पिं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स विजए णामं दारे पण्णत्ते, अट्ठजोयणाइं उठें उच्चत्तेणं, चत्तारि जोयणाई विक्खंभेणं, तावइयं चेव पवेसेणं, सेए वरकणयथूभियागे ईहामियउसभतुरगनरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभ-चमरकुंजर-वणलय-पउमलयभत्तिचित्ते खंभुग्गयवइरवेदियापरिगताभिरामे विजाहरजमलजुयलजंतजुत्ते इव अच्चिसहस्समालिणीए रूवगसहस्सकलिए भिसमाणेभिब्भिसमाणे चक्खुल्लोयणलेसे सुहफासे सस्सिरीयरूवे।वण्णो दारस्स तस्सिमो होइ, तंजहा-वइरामया णिम्मा रिट्ठामया पतिढाणा वेरुलियमया खंभा जायरूवोवचियपवरपंचवण्णमणिरयणकोट्टिमतले, हंसगब्भमए एलुए गोमेज्जमए इंदक्खीले लोहितक्खमईओ दारचेडीओ जोतिरसामए उत्तरंगे वेरुलियामया कवाडा वइरामया संधी लोहितक्खमईओ सूईओ णाणामणिमया समुग्गा वइरामई अग्गलाओ अग्गलपासाया वइरामई आवत्तणपेढिया अंकुत्तरपासाए णिरंतरितघणकवाडे,भित्तीसु चेवभित्तीगुलिया छप्पणणा तिण्णि होन्ति गोमाणसी, तत्तियाणाणामणिरयणवालरूवगलीलट्ठिय सालभंजिया, वइरामए कूडे रययामए उस्सेहे सव्वतवणिज्जमए उल्लोए णाणामणिरयणजाल पंजरमणिवंसग लोहितक्ख पडिवंसग रययभोम्मे, अंकामया पक्खबाहाओ जोतिरसामया वंसा वंसकवेल्लुगा य रययामईओ पट्टियाओ जायरूवमई ओहाडणी वइरामई उवरिपुच्छणी सव्वसेयरययमए छायणे अंकमयकणगकूडतवणिज्ज-थूभियाए सेए संखतलविमलणिम्मलदधिघण गोखीर फेणरययणिगरप्पगासेतिलग-रयणद्धचंदचित्तेणाणामाणिमयदामालंकिए अंतोयबहिंयसण्हे तवणिज्जरुइलवालुयापत्थडे सुहप्फासे सस्सिरीयरूवे पासाइए दरिसणिज्जे अभिरूवे पडिरूवे। भगवान ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप का विजयद्वार कहाँ कहा गया है ? [१२९] (१) गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के पूर्व में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर तथा जंबूद्वीप के पूर्वान्त में तथा लवणसमुद्र के पूर्वार्ध के पश्चिम भाग में सीता महानदी के ऊपर जंबूद्वीप का विजयद्वार कहा गया है। यह द्वार आठ योजन का ऊँचा, चार योजन का चौड़ा और इतना ही (चार योजन का) इसका प्रवेश है। यह द्वार श्वेतवर्ण का है, इसका शिखर श्रेष्ठ सोने का है। इस द्वार पर ईहामृग, वृषभ, घोड़ा, मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टपद), चमर, हाथी, वनलता और पद्मलता के विविध चित्र बने हुए हैं। इसके खंभों पर बनी हुई वज्रवेदिकाओं से युक्त होने के कारण Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र बहुत ही आकर्षक है। यह द्वार इतने अधिक प्रभासमुदाय से युक्त है कि यह स्वभाव से नहीं किन्तु विशिष्ट विद्याशक्ति के धारक समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रप्रभाव (शक्तिविशेष) से इतना प्रभासित हो रहा है-ऐसा लगता है। यह द्वार हजारों रूपकों से युक्त है। यह दीप्तिमान है, विशेष दीप्तिमान है, देखने वालों के नेत्र इसी पर टिक जाते हैं। इस द्वार का स्पर्श बहुत ही शुभ है या सुखरूप है। इसका रूप बहुत ही शोभायुक्त लगता है। यह द्वार प्रसन्नता पैदा करने वाला, दर्शनीय, सुन्दर है और बहुत ही मनोहर है। उस द्वार का विशेष वर्णनक इस प्रकार है इसकी नींव वज्रमय है। इसके पाये रिष्टरत्न के बने हैं। इसके स्तम्भ वैडूर्यरत्न के हैं। इसका बद्धभूमितल (फर्श) स्वर्ण से उपचित (रचित) और प्रधान पाँच वर्गों की मणियों और रत्नों से जटित है। इसकी देहली हंसगर्भ नामक रत्न की बनी हुई है। गोमेयक रत्न का इन्द्रकील है और लोहिताक्ष रत्नों की द्वारशाखाएँ हैं। इसका उत्तरंग (द्वार पर तिर्यक् रखा हुआ काष्ठ) ज्योतिरस रत्न का है। इसके किवाड वैडूर्यमणि के हैं, दो पाटियों को जोड़ने वाली कीलें लोहिताक्षरत्न की हैं, वज्रमय संधियां हैं, अर्थात् सांधों में वज्ररत्न भरे हुए हैं, इनके समुद्गक (सूतिकागृह) नाना मणियों के हैं, इसकी अर्गला और अर्गला रखने का स्थान वज्ररत्नों का है। इसकी आवर्तनपीठिका (जहाँ इन्द्रकील होता है) वज्ररत्न की है। किवाड़ों की भीतरी भाग अंकरत्न का है। इसके दोनों किवाड़ अन्तररहित और सघन हैं। उस द्वार के दोनों तरफ की भित्तियों में १६८ भित्तिगुलिका (पीठक तुल्य आलिया) हैं और उतनी ही (१६८) गोमानसी (शय्याएँ) हैं। इस द्वार पर नाना मणिरत्नों के व्याल-सों के चित्र बने हैं तथा लीला करती हुई पुत्तलियां भी नाना मणिरत्नों की बनी हुई हैं। इस द्वार का माडभाग वज्ररत्नमय हैं और उस माडभाग २ का शिखर चांदी का है। उस द्वार की छत के नीचे का भाग तपनीय स्वर्ण का है। इस द्वार के झरोखे मणिमय बांस वाले और लोहिताक्षमय प्रतिबांस वाले तथा रजतमय भूमि वाले हैं। इसके पक्ष और पक्षवाह अंकरत्न के बने हुए हैं। ज्योतिरसरत्न के बांस और बांसकवेलु (छप्पर) हैं, रजतमयी पट्टिकाएँ हैं, जातरूप स्वर्ण की ओहाडणी (विरल आच्छादन) हैं, वज्ररत्नमय ऊपर की पंछणी (अविरल आच्छादन) हैं और सर्वश्वेत रजतमय आच्छादन हैं। बाहल्य से अंकरत्नमय. कनकमय कूट तथा स्वर्णमय स्तूपिका (लघु शिखर) वाला यह विजयद्वार है। उस द्वार की सफेदी शंखतल, विमलनिर्मल जमे हुए दही, गाय के दूध, फेन और चांदी के समुदाय के समान है, तिलकरत्नों और अर्धचन्द्रों से वह नानारूप वाली है, नाना प्रकार की मणियों की माला से वह अलंकृत है, अन्दर और बाहर से कोमलमृदु पुद्गलस्कधों से बना हुआ है, तपनीय (स्वर्ण) की रेत का जिसमें प्रस्तर-प्रस्तार है। ऐसा वह विजयद्वार सुखद और शुभस्पर्श वाला, सश्रीक रूप वाला, प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप है। १२९.(२)विजयस्सणंदारस्स उभओ पासिंदुहओ णिसीहियाए दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ।तेणंचंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा सुरभिवरवारिपडिपुण्णा चंदणक १. वृत्ति में 'रययामयी आवत्तणपेढिया' पाठ है। अर्थात् आवर्तनपीठिका चांदी की है। २. आह मूलटीकाकार:-कूडो-माडभागः उच्छ्रयः शिखरमिति। केवलं शिखरमत्र माढभागस्य सम्बन्धि दृष्टव्यं न द्वारस्य, तस्य प्रागेव प्रोक्तत्वात् । -टीका। Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्तीय प्रतिपत्ति नम्बबीप के द्वारा की संख्या] [३७१ पधागा, आबद्धकंठेगुणा पउमुप्पलपिहाणा सव्वरयणामया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा महया महया महिवकुंभ समाणा पण्णत्ता समणाउसो! विजयस्स गंदारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो नागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ।तेणंणागवंतगामुत्ताजालंतरुसितहेमजालगवक्खजालखिंखिणिघंटाजालपरिक्खित्ता अब्भुग्गया अभिनिसिडा तिरिय सुसंपग्गहिता अहे पण्णगद्धरूवा, पण्णगद्धसंठाणसंठिया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया गयदंतसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! तेसुणंणागदंतएसुबहवे किण्हसुत्तबद्धवग्धारियमल्लदामकलावा जाव सुक्किलसुत्तबद्धवग्यारियमल्लदामकलावा। ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपतरकमंडिया णाणामणिरयणविविहहारद्धहारोसोभियसमुदया जाव सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति। ___ तेसिं णं णागदंताणं उवरि अण्णओ दो दो नागदंतपरिवाडीओ पण्णत्ताओ। ते णं नागदंतणा मुत्ताजालंतरूसिया तहेव जाव समणाउसो ! - तेसु णं नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवघडीओ पण्णत्ताओ।ताओणंधूवघडीओ कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामाओ सुगंधवरगंधगंधियाओ गंधवट्टिभूयाओ ओरालेणंमणुण्णणं घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणंतप्पएसे सव्वओ समंता आपूरेमाणीओ आपूरेमणीओ अईव अईव सिरीए उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति। _ [१२९] (२) उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाएं हैं-बैठने के स्थान हैं (एक-एक दोनों तरफ हैं)। उन दो नैषेधिकाओं में दो -दो चन्दन के कलशों की पंक्तियां कही गई है। वे चन्दन के कलश श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं, सुगन्धित और श्रेष्ठ जल से भरे हुए हैं, उन पर चन्दन का लेप किया हुआ है। उनके कंठों में मौली (लच्छा) बंधी हुई है, पद्मकमलों का उन पर ढक्कन है, वे सर्वरत्नों के बने हुए हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण (मृदु पुद्गलों से निर्मित) हैं। यावत् बहुत सुन्दर हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे कलश बड़ेबड़े महेन्द्रकुम्भ (महाकलश) के समान हैं। उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाओं में दो-दो नागदंतों (खूटियों) की पंक्तियां हैं। वे नागदन्त मुक्ताजालों के अन्दर लटकती हुई स्वर्ण की मालाओं और गवाक्ष की आकृति की रत्नमालाओं और छोटी-छोटी घण्टिकाओं (धुंघरुओं) से युक्त हैं, आगे के भाग में ये कुछ ऊँचाई लिये हुई हैं। ऊपर के भाग में आगे निकली हुई हैं और अच्छी तरह ठुकी हुई हैं, सर्प के निचले आधे भाग की तरह उनका रूप है अर्थात् अति सरल और दीर्घ है इसलिए सर्प के निचले आधे भाग की आकृति वाला हैं, सर्वथा वज्ररत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, यावत् प्रतिरूप हैं । हे आयुष्मन् श्रमण ! वे नागदन्त बड़े बड़े गजदन्त (हाथी के दांत) के समामन कहे गये हैं। Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन नागदन्तकों में बहुत सी काले डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएँ लटक रहीं हैं, बहुत सी नीले डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएँ लटक रही हैं, यावत् शुक्ल वर्ण के डोरे में पिरोयी हुई पुष्पमालाएँ लटक रही हैं। उन मालाओं में सुवर्ण का लंबूसक (पेन्डल- लटकन) है, आजू-बाजू वे स्वर्ण प्रतरक से मण्डित हैं, नाना प्रकार के मणि रत्नों के विविध हार और अर्धहारों से वे मालाओं के समुदाय सुशोभित हैं यावत् श्री से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं । ३७२ ] 1 उन नागदंतकों के ऊपर अन्य दो और नागदंतकों की पंक्तियां हैं। वे नागदन्तक मुक्ताजालों के अन्दर लटकती हुई स्वर्ण की मालाओं और गवाक्ष की आकृति की रत्नमालाओं और छोटी छोटी घण्टिकाओं (घुंघरूओं) से युक्त हैं यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे नागदन्तक बड़े बड़े गजदन्त के समान कहे गये हैं। उन नागदन्तकों में बहुत से रजतमय छींके कहे गये हैं । उन रजतमय छींकों में वैडूर्यरन की धूपघटिकाएँ (धूपनियाँ) हैं। वे धूपघटिकाएँ काले अगर, श्रेष्ठ चीड और लोभान के धूप की मघमघाती सुगन्ध के फैलाव से मनोरम हैं, शोभन गंध वाले पदार्थों की गंध जैसी सुगंध उनसे निकल रही है, वे सुगन्ध की टिका जैसी प्रतीत होती हैं। वे अपनी उदार (विस्तृत), मनोज्ञ और नाक एवं मन को तृप्ति देने वाली सुगंध से आसपास के प्रदेशों को व्याप्त करती हुई अतीव सुशोभित हो रही हैं। १२९. (३) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाएं दो दो सालभंजियापरिवाडीओ पण्णत्ताओ, २ ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपइट्ठियाओ सुअलंकियाओ णाणागारवसणओ णाणामल्लपिणद्धिओ मुट्ठिगेज्झमज्झाओ आमेलगजमलजुयलवट्टिअब्भुण्णयपीणरइयसंठियपओहराओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउविसदपसत्थलक्खणसंवेल्लितग्गसिरयाओ, ईसिं असोगवरपादवसमुट्ठियाओ वामहत्थगहीयग्गसालाओ ईसिं अद्धच्छिकडक्खविद्धिएहिं लूसेमाणीओ इव चक्खुल्लोयणलेसाहिं अण्णमण्णं खिज्जमाणीओ इव पुढविपरिणामाओ सासयभावमवगयाओ चंदाणणाओ चंदविलासिणीओ चंदद्धसमनिडालाओ चंदाहियसोमदंसणाओ उक्का इव उज्जोएमाणीओ विज्जुघणमरीचि - सूरदिप्पंततेयअहिययरसन्निकासाओ सिंगारागारचारुवेसाओ पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ तेयसा अतीव अतीव सोभेमाणीओ सोभेमाणीओ चिट्ठति । [१२९] (३) उस विजयद्वार के दोनों ओर नैषेधिकाओं में दो दो सालभंजिकाओं (पुतलियों) की पंक्तियां कही गई हैं। वे पुतलियाँ लीला करती हुई ( सुन्दर अंगचेष्टाएँ करती हुई) चित्रित की गई हैं, सुप्रतिष्ठित-सुन्दर ढंग से स्थित की गई हैं, ये सुन्दर वेशभूषा से अलंकृत हैं, ये रंगबिरंगे कपड़ों से सज्जित १. किन्हीं प्रतियों में ' रयणमय' पाठ है। तदनुसार रत्नमय छींके हैं. वृत्ति में रत्नमय अर्थ किया गया है। २. वृत्ति के अनुसार सालभंजिकाओं के वर्णन का पाठ इस प्रकार है-ताओ णं सालभंजियाओ लीलट्ठियाओ सुपयट्ठियाओ सुअलंकियाओ णाणाविहरागवसणाओ रत्तावंगाओ असियकेसीओ मिउविसयपसत्थलक्खणसंवेल्लियग्गसिरयाओ नानामलपिणद्धाओ मुट्ठिगेज्झमज्झाओ आमेलगजमलवट्टियअब्भुण्णयरइयसंठियपयोहराओ ईसिं असोगवरपायवसमुट्ठियाओ...... । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [३७३ हैं, अनेक मालाएँ उन्हें पहनायी गई हैं, उनकी कमर इतनी पतली है कि मुट्ठी में आ सकती है। उनके पयोधर (स्तन) समश्रेणिक चुचुकयुगल से युक्त हैं, कठिन होने से गोलाकार हैं, ये सामने की ओर उठे हुए हैं, पुष्ट हैं अतएव रति-उत्पादक हैं, इन पुतलियों के नेत्रों के कोने लाल हैं, उनके बाल काले हैं तथा कोमल हैं, विशद-स्वच्छ हैं, प्रशस्त लक्षणवाले हैं और उनका अग्रभाग मुकुट से आवृत है। ये पुतलियाँ अशोकवृक्ष का कुछ सहारा लिये हुए खड़ी हैं । वामहस्त से इन्होंने अशोक वृक्ष की शाखा के अग्रभाग को पकड़ रखा है। ये अपने तिरछे कटाक्षों से दर्शकों के मन को मानो चुरा रही हैं। परस्पर के तिरछे अवलोकन से ऐसा प्रतीत होता है कि मानो ये (एक दूसरे के सौभाग्य को सहन न करती हुई) एक दूसरी को खिन्न कर रही हों। ये पुत्तलिकाएँ पृथ्वीकाय का परिणामरूप हैं और शाश्वत भाव को प्राप्त हैं। इन पुतलियों का मुख चन्द्रमा जैसा है। ये चन्द्रमा की भांति शोभा देती हैं, आधे चन्द्र की तरह उनका ललाट है, उनका दर्शन चन्द्रमा से भी अधिक सौम्य है, उल्का (मूल से विच्छिन्न जाज्वल्यमान अग्निपुंज-चिनगारी) के समान ये चमकीली हैं, इनका प्रकाश बिजली की प्रगाढ़ किरणों और अनावृत सूर्य के तेज से भी अधिक है। उनकी आकृति शृंगार-प्रधान है और उनकी वेशभूषा बहुत ही सुहावनी है। ये प्रसन्नता पैदा करने वाली, दर्शनीया, अभिरूपा और प्रतिरूपा हैं। ये अपने तेज से अतीव अतीव सुशोभित हो रही हैं। १२९. (४) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो जालकडगा पण्णत्ता। ते णं जालकडगा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्सणंदारस्स उभओ पासिंदुहओ णिसीहियाए दोदो घंटापरिवाडीओ पण्णत्ताओ। तासि णंघंटाणं अयमेयारूवेवण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-जंबूणयमईओघंटाओ, वइरामईओ लालाओ णाणामणिमया घंटापासगा, तवणिज्जमईओ संकलाओ रययामईओ रज्जूओ।ताओ णं घंटाओ ओहस्सराओ मेहस्सराओ हंसस्सराओ कोंचस्सराओ णंदिस्सराओ णंदिघोसाओ सीहस्सराओ सीहघोसाओ मंजुस्सराओ मंजुघोसाओ सुस्सराओ सुस्सरणिग्घोसाओ ते पएसे ओरालेणं मणुण्णेणं कण्णमणनिव्वुइकरेणं सद्देण जाव चिटुंति। विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो वणमालापरिवाडीओ पण्णत्ताओ।ताओणं वणमालाओणाणादुमलयाकिसलयपल्लवसमाउलाओ छप्पयपरभुिज्जमाण कमलसोभंतसस्सिरीयाओ पासाइयाओ० ते पएसे उरालेण जाव गंधेणं आपूरेमाणीओ जाव चिट्ठति। [१२९] (४) उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाओं में दो दो जालकटक (जालियों वाले रम्य स्थान) कहे गये हैं। ये जालकटक सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उस विजयद्वार के दोनों तरफ दो नैषेधिकाओं में दो घंटाओं की पंक्तियां कही गई हैं। उन घंटाओं का वर्णनक इस प्रकार है-वे घंटाएं सोने की बनी हुई हैं, वज्ररत्न की उनकी लालाएँ-लटकन हैं, अनेक मणियों से बने हुए घंटाओं के पार्श्वभाग हैं, तपे हुए सोने की उनकी सांकलें हैं, घंटा बजाने के लिए खींची जाने वाली रज्जु चांदी की बनी हुई है। इन घंटाओं का स्वर ओघस्वर है-अर्थात् एक बार बजाने पर बहुत Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देर तक उनकी ध्वनि सुनाई पड़ती है । मेघ समान गंभीर है, हंस के स्वर के समान मधुर है, क्रौंच पक्षी स्वर के समान कोमल है, दुन्दुभि के स्वर के तुल्य होने से नन्दिस्वर है, बारह प्रकार के बाघों के संघात के स्वर जैसा होने से नन्दिघोष है, सिंह की गर्जना के समान होने से सिंहस्वर है। उन घंटाओं का स्वर बड़ा ही प्रिय होने से मंजुस्वर है, उनका निनाद बहुत प्यारा होता है, अतएव मंजुघोष है। उन घंटाओं का स्वर अत्यन्त श्रेष्ठ है, उनका स्वर और निर्घोष अत्यन्त सुहावना है। ये घंटाएँ अपने उदार, मनोज्ञ एवं कान और मन को तृप्त करने वाले शब्द से आसपास के प्रदेशों को व्याप्त करती हुई अति विशिष्ट शोभा से सम्पन्न हैं । उस विजयद्वार की दोनों ओर नैषेधिकाओं में दो दो वनमालाओं की कतार हैं। ये वनमालाएँ अनेक वृक्षों और लताओं के किसलयरूप पल्लवों - कोमल पत्तों से युक्त हैं और भ्रमरों द्वारा भुज्यमान कमलों से सुशोभित और सीक हैं । ये वनमालाएँ प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं तथा अपनी उदार, मनोज्ञ और नाक तथा मन को तृप्ति देने वाली गंध से आसपास के प्रदेश को व्याप्त करती हुई अतीव अतीव शोभित होती हुई स्थित हैं। १३०. विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो पगंठगा पण्णत्ता । ते णं पगंठगा चत्तारि जोयणाई आयामविक्खंभेणं दो जोयणाई बाहल्लेणं सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा । सिं णं पगंठगाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता । ते णं पासायवडिंगा चत्तारि जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसियपहसिताविव विविहमणिरयणभत्तिचित्ता वाउयविजयवेजयंती पडाग - छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगनतलमणुलिहंतसिहरा ' जालंतररयणपंजरुम्मिलितव्व मणिकणगथ्रुभियागा वियसियसयपत्तपोंडरीय तिलक - रयणद्धचंदचित्ता णाणामणिमयदामालंकिया अंतो य बाहि य सहा तवणिज्जरुइलवालुयापत्थडगा सुहफासा सस्सिरीयरूवा पासाईया दरिसणिज्जा अभिनवा पडिरूवा । तेसिं णं पासायवडिं सगाणं उल्लोया पउमलया जाव सामलयाभत्तिचित्ता सव्वतवणिज्जमया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसिं णं पासायवडिंसगाणं पत्तेयं पत्तेयं अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते; से जहाणामए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणिहिं उवसोभिए । मणीण गंधो वण्णो फासो य नेयव्वो । सिंणं बहुसमरमणिजाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ । ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वरयणामईओ जाव पडिरूवाओ। १. 'गगनतलमभिलंघमाणसिहरा' इत्यपि पाठः । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या ] तासिं णं मणिपेढियाणं उवरिं पत्तेयं पत्तेयं सीहसणे पण्णत्ते । तेसिं णं सीहासणाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - रययामया सीहा तवणिज्जमया चक्कवाला सोवण्णिया पादा णाणामणिमयाइं पायसीसगाई जंबूणदमयाइं गत्ताइं वइरामया संधी नानामणिमए वेच्चे । ते णं सीहासणा ईहामिय-उसभ जाव पउमलयभत्तिचित्ता ससारसारोवइयविविहमणिरयणपादपीढा अच्छरगमिउमसूरगनवतयकु संतलिच्चसीहके सर पच्चुत्थयाभिरामा उवचियखोमदुगुल्लय पडिच्छायणा सुविरइयर यत्ताणा रत्तं सुयसंवुया सुरम्मा आईणगबूरणवणीयतूलमउयफासा मउया पासाईया दरिसणिज्जा अभिरुवा पडिरूवा । 1 [ ३७५ तेसिं णं सीहासणाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं विजयसे पण्णत्ते । ते णं विजयसा सेया संखकुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । तेसिं णं विजयदूसाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामया अंकुसा पण्णत्ता । तेसु णं वइरामएसु अंकुसेसु पत्तेयं पत्तेयं कुंभिका मुत्तादामा पण्णत्ता । ते णं कुंभिका मुत्तादामा अन्नेहिं चउहिं चउहिं तदद्धुच्चप्पमाणमेत्ताहिं अर्द्धकुंभिक्केहिं मुत्तादामेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता । ते णं दामा तवणिज्जलंबूसगा सुवण्णपयरगमंडिया जाव चिट्ठति । तेसिं णं पासावडिंसगाणं उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा पण्णत्ता सोत्थिय तहेव जाव छत्ता । १३०. उस विजयद्वार के दोनों तरफ दोनों नैषेधिकाओं में दो प्रकण्ठक १ (पीठविशेष) कहे गये हैं। ये प्रकण्ठक चार योजन के लम्बे-चौड़े और दो योजन की मोटाई वाले हैं। ये सर्व वज्ररत्न के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप (मनोज्ञ) हैं। इन प्रकण्ठकों के ऊपर अलग-अलग प्रासादावतंसक ( प्रासादों के बीच में मुकुटरूप प्रासाद) कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक चार योजन के ऊंचे और दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं । ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हुई और सब दिशाओं में फैलती हुई प्रभा से बँधे हुए हों ऐसे प्रतीत होते हैं अथवा चारों तरफ से निकलती हुई श्वेत प्रभापटल से हँसते हुए-से प्रतीत होते हैं । ये विविध प्रकार की मणियों और रत्नों की रचनाओं से विविध रूप वाले हैं अथवा विविध रत्नों की रचनाओं से आश्चर्य पैदा करने वाले हैं। वे वायु से कम्पित और विजय की सूचक वैजयन्ती नाम की पताका, सामान्य पताका और छत्रों पर छत्र से शोभित हैं, वे ऊँचे हैं, उनके शिखर आकाश को छू रहे हैं अथवा आसमान को लांघ रहे हैं। उनकी जालियों में रत्न जड़े हुए हैं, वे आवरण से बाहर निकली हुई वस्तु की तरह नये नेये लगते हैं, उनके शिखर मणियों और सोने के हैं, विकसित शतपत्र, पुण्डरीक, तिलकरत्न और अर्धचन्द्र के चित्रों से चित्रित हैं, नाना प्रकार की मणियों की मालाओं से अलंकृत हैं, अन्दर और बाहर से श्लक्ष्ण - चिकने हैं, तपनीय स्वर्ण की बालुका इनके आंगन में बिछी हुई है। इनका स्पर्श अत्यन्त सुखदायक है। इनका रूप लुभावना है। ये प्रासादावतंसक प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं । उन प्रासादावतंसकों के ऊपरी भाग पद्मलता, अशोकलता यावत् श्यामलता के चित्रों से चित्रित हैं १. 'प्रकण्ठौ पीठविशेषौ ' इति मूलटीकाकारः । चूर्णिकारस्तु एवमाह – आदर्शवृत्तौपर्यन्तावनतप्रदेशौ पीठौ प्रकण्ठाविति । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ ] और वे सर्वात्मना स्वर्ण के हैं । वे स्वच्छ, चिकने यावत् प्रतिरूप हैं । उन प्रासादावतंसकों में अलग-अलग बहुत सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मृदंग पर चढ़े हुए चर्म के समान समतल है यावत् मणियों से उपशोभित है। यहाँ मणियों के गन्ध, वर्ण और स्पर्श का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए । [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन एकदम समतल और रमणीय भूमिभागों के एकदम मध्यभाग में अलग- अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटाई वाली हैं। वे सर्वरत्नमयी यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं । उन सिंहासनों का वर्णन इस प्रकार कहा गया है - उन सिंहासनों के सिंह रजतमय हैं, स्वर्ण के उनके पाये हैं, तपनीय स्वर्ण के पायों के अधः प्रदेश हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जंबूनद स्वर्ण के उनके गात्र (ईसें) हैं, वज्रमय उनकी संधियां हैं, नाना मणियों से उनका मध्यभाग २ बुना गया है। वे सिंहासन ईहामृग, वृषभ यावत् पद्मलता आदि की रचनाओं से चित्रित हैं, प्रधान- प्रधान विविध मणिरत्नों से उनके पादपीठ उपचित (शोभित) हैं, उन सिंहासनों पर मृदु स्पर्शवाले आस्तरक (आच्छादन, अस्तर) युक्त गद्दे जिनमें नवीन छालवाले मुलायम-मुलायम दर्भाग्र (ब) और अतिकोमल केसर भरे हैं, बिछे होने से वे सुन्दर लग रहे हैं, उन गद्दों पर बेलबूटों से युक्त सूती वस्त्र की चादर (पलंगपोस) बिछी हुई है, उनके ऊपर धूल न लगे इसलिए रजस्त्राण लगाया हुआ है । रमणीय लाल वस्त्र से आच्छादित हैं, सुरम्य हैं, आजनिक ( मृगचर्ण), रुई, बूर वनस्पति, मक्खन और अर्कतूल के समान मुलायम स्पर्शवाले हैं । वे सिंहासन प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन सिंहासनों के ऊपर अलग-अलग विजयदृष्य (वस्त्रविशेष) कहे गये हैं । वे विजयदृष्य सफेद हैं, शंख, कुंद (मोगरे का फूल ), जलबिन्दु, क्षीरोदधि के जल को मथित करने से उठने वाले फेनपुंज के समान (श्वेत) हैं, सुवर्णरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । विजयदृष्यों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग वज्रमय अंकुश (हुक तुल्य) कहे गये हैं। उन वज्रमय अंकुशों में अलग अलग कुंभिका (मगधदेशप्रसिद्धप्रमाण विशेष ) प्रमाण मोतियों की मालाएँ लटक रही हैं। वे कुंभिकाप्रमाण मुक्तामालाएँ अन्य उनसे आधी ऊँचाई वाली अर्धकुंभिका प्रमाण चार चार मोतियों की मालाओं से सब ओर से वेष्ठित हैं । उन मुक्तामालाओं में तपनीय स्वर्ण के लंबूसक (पेण्डल) हैं, वे स्वर्ण के प्रतरक से मंडित हैं यावत् श्री से अतीव अतीव सुशोभित हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल कहे गये हैं, यथा - स्वस्तिक यावत् छत्र । १३१. ( १ ) विजयस्स णं दारस्स उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो तोरणा पण्णत्ता, १. टीका में 'अट्ठजोयणबाहल्लेणं' 'अष्ट योजनानि बाहल्येन' पाठ है। २. 'वेच्वं' व्यूतं वानमित्यर्थः । आह च चूर्णिकृत् ' वेच्चे वाणक्कतेणं' । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [३७७ तेणं तोरणा णाणामणिमया तहेव जाव अट्ठट्ठमंगलगाय छत्तातिछत्ता।तेसिंणं तोरणाणं पुरओ दो दो सालभंजियाओ पण्णत्ताओ,जहेवणं हेट्ठा तहेव।तेसिंणंतोरणाणं पुरओदो दो नागदंतगा पण्णत्ता, ते णं णागदंतगा मुत्ताजालरुसिया तहेव। तेसु णं णागदंतएसु बहवे किण्हे सुत्तवट्टवग्धारितमल्लदामकलावा जाव चिटुंति। तेसिंणंतोरणाणं पुरओ दो दो हयसंघाडगा पण्णत्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। एवं पंतीओ, वीहीओ, मिहुणगा; दो दो पउमलयाओ जाव पडिरूवाओ।तेसिंणंतोरणाणं पुरओ अक्खयसोवत्थिया सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिं णं तोरणाणं पुरओ दो दो चंदणकलसा वरकमलपइट्ठाणा तहेव सव्वरयणामया जाव पडिरूवा समणाउसो ! तेसिंणंतोरणाणं पुरओ दो दो भिंगारगा पण्णत्ता, वरकमलपइट्ठाणा जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया मत्तगयमुहागिइसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! तेसिं णं तोरणाणं पुरओ दो दो आयंसगा पण्णत्ता, तेसिं णं आयंसगाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-तवणिज्जमया पगंठगा वेरुलियमया छरुहा ( थंभया), वइरामया वरंगाणाणामणिमया वलक्खा अंकमया मंडला अणोग्घसियनिम्मलासाए छायाए सव्वओ चेव समणुबद्धा चंदमंडलपडिणिकासा महया महया अद्धकायसमाणा पण्णत्ता समणाउसो ! तेसिं ण तोरणाणं पुरओ दो दो वइरणाभे १ थाले पण्णत्ते; ते णं थाला अच्छतिच्छडियसालितंदुलनहसंदट्ठ बहुपडिपुण्णा इव चिटुंति सव्वजंबूणदमया अच्छा जाव पडिरूवा महया महया रहचक्कसमाणा समणाउसो ! तेसिं णं तोरणाणं पुरओ दो दो पातीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं पातीओ अच्छोदयपडिहत्थाओ णाणाविहपंचवण्णस्स फलहरितगस्स बहुपडिपुण्णाओ विव चिटुंति सव्वरयणामईओ जाव पडिरूवाओ महया महया गोकलिंजगचक्कसमाणाओ पण्णत्ताओ समणाउसो! __ [१३१] (१) उस विजयद्वार के दोनों ओर दोनों नैषधिकाओं में दो दो तोरण कहे गये हैं। वे तोरण नाना मणियों के बने हुए हैं इत्यादि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् उन पर आठ-आठ मंगलद्रव्य और छत्रातिछत्र हैं। उन तोरणों के आगे दो दो शालभंजिकाएँ (पुत्तलियां) कही गई हैं। जैसा वर्णन उन शालभंजिकाओं का पूर्व में किया गया है, वैसा ही यहाँ कह लेना चाहिए। उन तोरणों के आगे दो दो नागदंतक (खूटियां) हैं। वे नागदंतक मुक्ताजाल के अन्दर लटकती हुई मालाओं से युक्त हैं आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उन नागदंतकों में बहुत सी काले सूत में गूंथी हुई विस्तृत पुष्पमालाओं के समुदाय हैं यावत् वे अतीव शोभा से युक्त हैं। उन तोरणों के आगे दो दो घोड़ो के जोड़े (संघाटक) कहे गये हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् १. 'वइरामए थाले' ऐसा पाठ भी कहीं कहीं है । वज्ररत्न के थाल हैं। Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र प्रतिरूप हैं। इसी प्रकार हयों (घोड़ों) की पंक्तियाँ (एक दिशा में जो कतारें होती हैं) और हयों की वीथियाँ (आजू-बाजू की कतारें) और हयों के मिथुनक (स्त्री-पुरुष के जोड़े) भी हैं। उन तोरणों के आगे दो दो पद्मलताएँ चित्रित हैं यावत् वे प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे अक्षत के स्वस्तिक चित्रित हैं जो सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । ३७८ ] उन तोरणों के आगे दो दो चन्दनकलश कहे गये हैं। वे चन्दनकलश श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे सर्वरत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो दो भृंगारक (झारी) कहे गये हैं । ये भृंगारक श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित हैं यावत् सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं और हे आयुष्मन् श्रमण ! वे भृंगारक बड़े बड़े और मत्त हाथी के मुख की आकृति वाले हैं। उन तोरणों के आगे दो दो आदर्शक (दर्पण) कहे गये हैं। उन आदर्शकों का वर्णनक इस प्रकार है- इन दर्पणों के प्रकण्ठक (पीठविशेष) तपनीय स्वर्ण के बने हुए हैं, इनके स्तम्भ (जहाँ से दर्पण मुट्ठी में पकड़ा जाता है वह स्थान) बैडूर्यरल के हैं, इनके वरांग (गण्ड-फ्रेम) वज्ररत्नमय हैं, इनके वलक्ष (सांकलरूप अवलम्बन) नाना मणियों के हैं, इनके मण्डल (जहाँ प्रतिबिम्ब पड़ता है) अंक रत्न के हैं। ये दर्पण अनवघर्षित ( मांजे बिना ही - स्वाभाविक) और निर्मल छाया - कान्ति से युक्त हैं, चन्द्रमण्डल की तरह गोलाकार हैं। हे आयुष्मन् श्रमण । ये दर्पण बड़े-बड़े और दर्शक की आधी काया के प्रमाण वाले कहे गये हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो वज्रनाभ ' स्थाल कहे गये हैं। वे स्थाल स्वच्छ, तीन बार सूप आदि से फटकार कर साफ किये हुए और मूसलादि द्वारा खंडे हुए शुद्ध स्फटिक जैसे चावलों से भरे हुए हों, ऐसे प्रतीत होते हैं। वे सब स्वर्णमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! वे स्थाल बड़े बड़े रथ के चक्र के समान कहे गये हैं। उन तोरणों के भागे दो-दो पात्रियां कही गई हैं। ये पात्रियां स्वच्छ जल से परिपूर्ण हैं। नानाविध पांच रंग के हरे फलों से भरी हुई हौ- ऐसी प्रतीत होती हैं (साक्षात् जल या फल नहीं है, किन्तु वैसी प्रतीत होती हैं। वे पृथ्वीपरिणामस्वरूप और शाश्वत हैं। केवल बैसी उपमा दी गई है।) वे स्थाल सर्वरत्नमय यावत् प्रतिरूप हैं और बड़े-बड़े गोकलिंजर (बांस का टोपला अथवा ) चक्र के समान कहे गये हैं। १३९. ( १ ) तेसिं णं तोरणाणं पुरओ दो दो सुपतिट्ठगा पण्णत्ता । ते णं सुपतिट्ठगा णाणाविह (पंचवण्ण) पसाहणगर्भडविरचिया सब्बीसहिपडिपुण्णा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिला । पिणं तोरणाणं पुरभी दो दो मणीगुलियाओ पण्णत्ताओ, तासु णं मणोगुलियासु बहवे सुवण्ण-रुप्पामग्रा फलगा पण्णत्ता। तेसु णं सुचपणरुप्यामएसु फलगेसु बहवे व रामया णागदंतगा १. वृत्ति में 'वज्रनाभ स्थाल' कहा है। अन्यत्र 'वइरामए थाले' ऐस पाठ है। Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [३७९ मुत्ताजालंतररुसिता हेम जाव गयदंत समाणा पण्णत्ता। तेसु णं वइरामएस नागदतएसु बहवे रपयामया सिक्कया षषणात्ता। तेसु णं रययामाएसु सिक्कएसु बहबे वायकरगा पण्णत्ता। ते वायकरगा किण्हसुत्तसिक्कगबत्थिया जाव सुक्किलसुससिक्कगवत्थिया सव्वे घेरुलियामया अच्छा जाच पडिरूवा। तेसिं ण तोरणाणं पुरओ दो-दो चित्ता रयणकरंडगा पण्णत्ता। से जहाणामए रपणो चाउरंतचक्कवट्टिस्स चित्ते रयणकरंडे वेरुलियमणिफालिय पड़लपच्चोयडे साए पभाए पएसे सध्यओ समता ओभासइ उज्जौबेड़ तावेइ पभासेड़, एवामेव ते चित्तरयणकरंडगा पपणत्ता बेरुलिषपड़लपच्चोयाडसाए पभाए ते पएसे सव्वओ समंता ओभासेइ। तेसिंणं तोरणा पुरओ दो दो हयकंठगा जाब दो दो उसभकंठगा पण्पात्ता सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसु णं हयकंठएसु जाव उसभकठएसु दो दो पुष्फचंगेरीओ, एवं मल्लगंधचुपपावत्थाभरणचंगरीओ सिद्धत्थचंगेरीओ लोमहत्थचंगेरीओ सव्वरयणामईओ अच्छाओ जाब पडिरूवाओ। तेसिं थे तोरणाणं पुरओ दो दो पुष्फपड़लाई जाव लोमहत्थपडलाई सव्वरयणामयाई जाब पडिरूवाई। तेसिंणं तोरणाणं पुरओ दी दो सीहासणाई पण्णत्ताई। तेसिंणं सीहासणाणं अयमेयारूवे वपणाखासे पणणते तहेव जाब पासाईया ४। तेसिं थे तोरपाणं पुरओ दो दो रुप्पच्छदा छत्ता पण्णत्ता, ते णं छत्ता बेरुलिपभिसंतविमलदंडाजंबूपायकनिका बइरसंधी मुत्ताजालपरिगया अट्ठसहस्सवरकंचणसलागा दहरमलग्रसुगंधी सब्बोडअसुरभिसीयलच्छाया मंगलभत्तिचित्ता चंदागीरोवमा वट्टा। तेर्सि णंतोरणार्ण पुरओ दो दो चामराओ पण्णत्ताओ।ताओणंचामराओ'चंदप्पभवइरबेरुलिय-नानामणिरयणखचियदंडाओ संखंक-कुंद-दगरय-अमयमहिय-फेणपुंजसपिणकासाओ सुहुमरययदीहबालाओ सव्वरयणामयाओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तैसिं ण तोरणाणं पुरओ दो दो तिल्लसमुग्गा कोट्ठसमुग्गा पत्तसमुग्गा चीयसमुग्गा तपरसमुग्गा एलासमुग्गा हरियालसमुग्गा मणोसिलासमुग्गा अंजणसमुग्गा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिलया। [१३१] (२) उन तोरणों के आगे वो दी सुप्रतिष्ठक (शृंगारदान) कहे गये हैं। वे सुप्रतिष्ठक्क नाना प्रकार के पांच वर्णों की प्रसाधन-सामग्री और सर्व औषधियों से परिपूर्ण लगते हैं, वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। १. णाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवधिज्जुज्जल विचित्तदंडाओ चिल्लियाओ इति पाठान्तरम् । Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन तोरणों के आगे दो दो मनोगुलिका १ (पीठिका) कही गई हैं। उन मनोगुलिकाओं में बहुते से सोने-चांदी के फलक (पटिये) हैं। उन सोने-चांदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक (खूटियां) हैं। ये नागदंतक मुक्ताजाल के अन्दर लटकती हुई मालाओं से युक्त हैं यावत् हाथी के दांत के समान कही गई हैं। उन वज्रमय नागदंतकों में बहुत से चांदी के सीके कहे गये हैं। उन चांदी के सींकों में बहुत से वातकरक (जलशून्य घड़े) हैं। ये जलशून्य घड़े काले सूत्र के बने हुए ढक्कन से यावत् सफेद सूत्र के बने हुए ढक्कन से आच्छादित हैं। ये सब वैडूर्यमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो दो चित्रवर्ण के रत्नकरण्डक कहे गये हैं। जैसे-किसी चातुरन्त (चारों दिशाओं की पृथ्वी पर्यन्त) चक्रवर्ती का नाना मणिमय होने से नानावर्ण का अथवा आश्चर्यभूत रत्नकरण्डक जिस पर वैडूर्यमणि और स्फटिक मणियों का ढक्कन लगा हुआ है, अपनी प्रभा से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित करता है, उद्योतित करता है, प्रदीप्त करता है, प्रकाशित करता हैं, इसी तरह वे विचित्र रत्नकरंडक वैडर्यरत्न के ढक्कन से युक्त होकर अपनी प्रभा से उस प्रदेश को सब ओर से अवभासित करते हैं। उन तोरणों के आगे दो दो हयकंठक २ (रत्नविशेष) यावत् दो दो वृषभकंठक कहे गये हैं। वे सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन हयकंठकों में यावत् वृषभकंठकों में दो दो फूलों की चंगेरियाँ (छाबड़ियाँ) कही गई हैं। इसी तरह माल्यों-मालाओं, गंध, चूर्ण, वस्त्र एवं आभरणों की दो-दो चंगेरियाँ कही गई हैं। इसी तरह सिद्धार्थ (सरसों) और लोमहस्तक (मयूरपिच्छ) चंगेरियाँ भी दो-दो हैं। ये सब सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो पुष्प-पटल यावत् दो-दो लोमहस्त-पटल कहे गये हैं, जो सर्वरत्नमय हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे दो-दो सिंहासन हैं। उन सिंहासनों का वर्णनक इस प्रकार है आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् वे प्रासादीय, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन तोरणों के आगे चांदी के आच्छादन वाले छत्र कहे गये हैं। उन छत्रों के दण्ड वैडूर्यमणि के हैं, चमकीले और निर्मल हैं, उनकी कर्णिका (जहाँ तानियाँ तार में पिरोयी रहती है) स्वर्ण की है, उनकी संधियाँ वज्ररत्न से पूरित हैं, वे छत्र मोतियों की मालाओं से युक्त हैं। एक हजार आठ शलाकाओं (तानियों) से युक्त हैं, जो श्रेष्ठ स्वर्ण की बनी हुई हैं । कपड़े से छने हुए चन्दन की गंध के समान सुगन्धित और सर्वऋतुओं में सुगन्धित रहने वाली उनकी शीतल छाया है। उन छत्रों पर नाना प्रकार के मंगल चित्रित हैं और वे चन्द्रमा के आकार के समान गोल हैं। ___ उन तोरणों के आगे दो-दो चामर कहे गये हैं। वे चामर चन्द्रकान्तमणि, वज्रमणि, वैडूर्यमणि आदि १. मनोगुलिकपीठिकेति मूलटीकायाम्। २. 'हयकण्ठौ हयकण्ठप्रमाणौ रत्नविशेषौ' इति मूलटीकायाम् Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या ] नाना मणिरत्नों से जटित दण्ड वाले हैं । (जिनके दण्ड नाना प्रकार की मणियों, स्वर्ण, रत्नों से जटित हैं, विमल हैं, बहुमूल्य स्वर्ण के समान उज्ज्वल एवं चित्रित हैं, चमकीले हैं) वे चामर शंख, अंकरत्न कुंद (मोगरे के फूल) दगरज (जलकण) अमृत (क्षीरोदधि) के मथित फेनपुंज के समान श्वेत हैं, सूक्ष्म और रजत के लम्बे-लम्बे बाल वाले हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। [३८१ उन तोरणों के आगे दो-दो तैलसमुद्गक ' ( आधारविशेष) कोष्टसमुद्गक, पत्रसमुद्गक, चोयसमुद्गक, तगरसमुद्गक, इलायचीसमुद्गक, हरितालसमुद्गक, हिंगुलुसमुद्गक, मनःशिलासमुद्गक और अंजनसमुद्गक हैं। (सर्व सुगंधित द्रव्य हैं। इनके रखने के आधार को समुद्गक कहते हैं ।) ये सर्व समुद्गक सर्वरत्नमय हैं स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। १३२. विजए णं दारे अट्ठसयं चक्कज्झयाणं अट्ठसयं मिगज्झयाणं अट्ठसयं गरुडज्झयाणं (अट्ठसयं विगज्झयाणं) अट्ठसयं रुरुयज्झयाणं अट्ठसयं छत्तज्झयाणं अट्ठसयं पिच्छज्झयाणं अट्ठसयं सउणिज्झयाणं अट्ठसयं सीहज्झयाणं अट्ठसयं उसभज्झयाणं अट्ठसयं सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं एवामेव सपुव्वावरेणं विजयदारे य असीयं केउसहस्सं भवतीतिमक्खायं । विजए णं दारे णव भोमा पण्णत्ता । तेसिं णं भोमाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पत्ता जाव मणीणं फासो । तेसिं णं भोमाणं उप्पिं उल्लोया पउमलया जाव सामलताभत्तिचित्ता जाव सव्वतवणिज्जमया अच्छा जाव पडिरूवा । संभमाणं बहुमज्झदेसभाए जे से पंचमे भोमे तस्स णं भोमस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते। सीहासणवण्णओ विजयदूसे जाव अंकुसे जाव दामा चिट्ठति । तस्स णं सीहासणस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउन्हं सामाणियसहस्साणं चत्तारि भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । तस्स णं सीहासणस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चत्तारि भद्दासणा पण्णत्ता । तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपुरत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स अब्धिंतरियाए परिसाए अट्ठण्हं देवसाहस्सीणं अट्ठण्हं भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । तस्स णं सीहासणस्स दाहिणेणं विजयस्स देवस्स मज्झिमाए परिसाए दसण्हं देवसाहस्सीणं दस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । तस्स णं सीहासणस्स दाहिणपच्चत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स बाहिरियाए बारसण्हं देवसाहस्सीणं बारसभद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ । तस्स णं सीहासणस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सत्तण्हं अणियाहिवईणं सत्त भद्दासणा पण्णत्ता । तस्स णं सीहासणस्स पुरत्थिमेणं दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीणं सोलस भद्दासणसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, १. 'तैलसमुद्गकौ सुगंधिततैलाधारविशेषौ ' इति वृत्तिः । २. तेल्लो कोठसमुग्गा पत्ते चोए य तगर एला य । हरियाले हिंगुलए मणोसिला अंजणसमग्गो ।' संग्रहणी गाथा । Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८२ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तं जहा - पुरत्थिमेणं चत्तारि साहस्सीओ एवं चउसुवि जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ। अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भहासणा पण्णत्ता । [१३२] उस विजयद्वार पर एक सौ आठ चक्र से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ मृग से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ गरुड से अंकित ध्वजाएँ, (एक सौ आठ वृक ' ( भेडिया) से अंकित ध्वजाएँ), एक सौ आठ रुरु (मृगविशेष ) से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ छत्रांकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ पिच्छ से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ शकुनिं (पक्षी) से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ सिंह से अंकित ध्वजाएँ, एक सौ आठ वृषभ से अंकित ध्वजाएँ और एक सौ आठ सफेद चार दांत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएँ,इस प्रकार आगे-पीछे सब मिलाकर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ विजयद्वार पर कही गई हैं। (ऐसा मैने और अन्य तीर्थकरों ने कहा है ।) उस विजयद्वार के आगे नौ भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं। उन भौमों के अन्दर एकदम समतल और रमणीय भूमिभाग कहे गये हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् यावत् मणियों के स्पर्श तक जानना चाहिए। उन भौमों की भीतरी छत पर पद्मलता यावत् श्यामलताओं के विविध चित्र बने हुए हैं, यावत् वे स्वर्ण के हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । उन भौमों के एकदम मध्यभाग में जो पांचवां भौम है उस भौम के ठीक मध्यभाग में एक बड़ा सिंहासन कहा गया है, उस सिंहासन का वर्णन, देवदूष्प का वर्णन यावत् वहाँ अंकुशों में मालाएँ लटक रही हैं, यह सब पूर्ववत् कहना चाहिए। उस सिंहासन के पश्चिम-उत्तर (वायव्यकोण) में, उत्तर में, उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में विजयदेव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासनं पूर्व में विजयदेव की चार सपरिवार अग्रमहिषियों के चार भद्रासन कहे गये हैं। उस सिंहासन के दक्षिणपूर्व में (आग्नेयकोण में) विजयदेव की आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देवों के आठ हजार भद्रासन कहे गये हैं । उस सिंहासन के दक्षिण में विजयदेव की मध्यम पर्षदा के दस हजार देवों के दस हजार भद्रासन कहे गये हैं । उस सिंहासन के दक्षिण-पश्चिम (नैऋत्यकोण) में विजयदेव की बाह्य पर्षदा के बारह हजार देवों के बारह हजार भद्रासन कहे गये हैं । उस सिंहासन के पश्चिम में विजयदेव के सात अनीकाधिपतियों के सात भद्रासन कहे गये हैं । उस सिंहासन के पूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में विजयदेव के सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के सोलह हजार सिंहासन हैं । पूर्व में चार हजार, इसी तरह चारों दिशाओं में चार-चार हाजर यावत् उत्तर में चार हजार सिंहासन कहे गये हैं । भौमों में प्रत्येक में भद्रासन कहे गये हैं । (ये भद्रासन - सामानिकादि देव परिवारों से रहित जानने चाहिए ।) १. वृत्ति में वृक से अंकित पाठ नहीं है। वहाँ रुरु से अंकित पाठ मान्य किया गया है। किन्हीं प्रतियों में 'रुरु' पाठ नहीं है। कही दोनों हैं। इन दोनों में से एक को स्वीकार करने से ही कुल संख्या १०८० होती है। - सम्पादक Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या ] १३३. विजयस्स णं दारस्स उवरिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उनसोभिता, तं जहारयणेहिं वेरुलिएहिं जाव रिट्ठेहिं । विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा पण्णत्ता, तं जहा- सोत्थिय - सिरिवच्छ जाव दप्पणा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा । विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे कण्हचामरज्झया जाव सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। विजयस्स णं दारस्स उप्पिं बहवे छत्ताइछत्ता तहेव । [३८३ [१३३] उस विजयद्वार का ऊपरी आकार (उत्तरांगादि) सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है। जैसे वज्ररत्र, वैडूर्यरल, यावत् रिष्टरत्न । ' उस विजयद्वार पर बहुत से आठ-आठ मंगल - स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण कहे गये हैं। ये सर्वरत्नमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से कृष्ण चामर के चिह्न से अंकित ध्वजाएँ हैं । यावत् वे ध्वजाएँ सर्वरत्नमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उस विजयद्वार के ऊपर बहुत से छत्रातिछत्र कहे गये हैं । इन सबका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए । १३४. से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ विजए णं दारे विजए णं दारे ? गोयमा ! विजए णं दारे विजए णाम देवे महिड्ढीए महज्जुईए जाव महाणुभावे पलिओवमट्ठिए परिवसति । से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं, चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं, तिण्हं परिसाणं, सत्तण्हं आणियाणं सत्तण्हं आणियाहिवईणं, सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं, विजयस्स णं दारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसिं च बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव दिव्वाइं भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ । सेट्टे गोयमा ! एवं वुच्चइ - विजएदारे विजएदारे । अदुत्तरं च णं गोयमा ! विजयस्स णं दारस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जं ण कयाइणासी, ण कया णत्थि, ण कयावि ण भविस्सइ जाव अवट्ठिए णिच्चे विजयदारे । [१३४] हे भगवन् ! विजयद्वार को विजयद्वार क्यों कहा जाता हैं ? गौतम ! विजयद्वार में विजय नाम का महर्द्धिक, महाद्युति वाला यावत् महान् प्रभाव वाला और एक पल्योपम की स्थिति वाला देव रहता है। वह चार हजार सामानिक देवों, चार सपरिवार अग्रमहिषियों, तीन पर्षदाओं, सात अनीकों (सेनाओं ), सात अनीकाधिपतियों और सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, विजयद्वार का, विजय राजधानी का और अन्य बहुत सारे विजय राजधानी के निवासी देवों और देवियों का आधिपत्य करता हुआ यावत् दिव्य २ भोगोपभोगों को भोगता हुआ विचरता है। इस कारण हे गौतम ! विजयद्वार को विजयद्वार कहा जाता है । १. सोलह रत्नों के नाम- १. रत्न- सामान्य कर्केतनादि, २. वज्र, ३. वैडूर्य, ४. लोहिताक्ष, ५. मसारगल्ल, ६. हंसगर्भ, ७. पुलक, ८. सौगंधिक, ९. ज्योतिरस, १० अंक, ११. अंजन, १२. रजत, १३. जातरूप, १४. अंजनपुलक, १५. स्फटिक, १६. रिष्ट । २. भोगभोगाई अर्थात् भोग योग्य शब्दादि भोगों को । Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र गौतम ! विजयद्वार यह नाम शाश्वत है। यह पहले नहीं था ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं ऐसा नहीं और भविष्य में नहीं होगा - ऐसा भी नहीं, यावत् यह अवस्थित और नित्य है । ३८४ ] १३५. (१) कहिं णं भंते ! विजयस्स देवस्स विजयाणाम रायहाणी पण्णत्ता ? गोमा ! विजय दास्स पुरत्थिमेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णम्मि जंबूद्दीवे दीवे बारस जोयणसहस्साइं ओगाहित्ता एत्थ णं विजयस्स देवस्स विजयाणाम रायहाणी पण्णत्ता, बारस जोयणसहस्साइं आयाम-विक्खंभेणं सत्ततीसं जोयणसहस्साइं नव य अडयाले जोयसर किंचि विसेसाहिया परिक्खेवेणं पण्णत्ता । साणं एगेणं पागारेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता । से णं पागारे सत्ततीसं जोयणाई अद्धजोयणं य उड्डुं उच्चत्तेणं, मूले अद्धतेरस जोयणाइं विक्खंभेणं मज्झे सक्कोसाइं जोयणाई विक्खंभेणं उप्पि तिणि सद्धकोसाइं जोयणाइं विक्खंभेणं, मुले वित्थिपणे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए बाहिं वट्टे अंतो चउरंसे गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वकणगामए अच्छे जाव पडिरूवे । सेणं पागारे णाणाविहपंचवण्णेहिं कविसीसएहिं उवसोभिए, तं जहा - किण्हेहिं जाव सुक्किलेहिं । तेणं कविसीसगा अद्धकोसं आयामेणं पंचधणुसयाइं विक्खंभेणं देसूणमद्धको सं उड्डुं उच्चत्तेणं सव्वमणिमया अच्छा जाव पडिरूवा । [१३५] (१) हे भगवन् ! विजयदेव की विजया नामक राजधानी कहाँ कही है ? गौतम ! विजयद्वार के पूर्व में तिरछे असंख्य द्वीप - समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जंबूद्वीप १ नाम के द्वीप में बारह हजार योजन जाने पर विजयदेव की विजया राजधानी है जो बारह हजार योजन की लम्बी-चौड़ी है तथा सैंतीस हजार नौ सौ अड़तालीस योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है । वह विजया राजधानी चारों ओर से एक प्राकार ( परकोटे) से घिरी हुई है । वह प्राकार साढ़े सैंतीस योजन ऊँचा है, उसका विष्कंभ (चौड़ाई) मूल में साढ़े बारह योजन, मध्य में छह योजन एक कोस और ऊपर तीन योजन आधा कोस है; इस तरह वह मूल में विस्तृत हैं, मध्य में संक्षिप्त है और ऊपर तनु ( कम ) है । वह बाहर से गोल अन्दर से चौकोन, गाय की पूंछ के आकार का है । वह सर्व स्वर्णमय है स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह प्राकार नाना प्रकार के पांच वर्णों के कपिशीर्षकों (कंगूरों) से सुशोभित है, यथा - कृष्ण यावत् सफेद कंगूरों से। वे कंगूरे लम्बाई में आधा कोस, चौड़ाई में पांच सौ धनुष, ऊंचाई नें कुछ कम आधा कोस हैं। वे कंगूरे सर्व मणिमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं । १३५. ( २ ) विजयाए णं रायहाणीए एगमेगाए बाहाए पणुवीसं पणुवीसं दारसयं भवतीति मक्खायं । १. जम्बूद्वीप नाम के असंख्यात द्वीप हैं। सबसे आभ्यन्तर जंबूद्वीप से यहाँ मतलब नहीं है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [३८५ ते णं दारा बावढि जोयणाइं अद्धजोयणं च उड्ढं उच्चत्तेणं एक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूभियागा ईहामिय० तहेव जहा विजएदारे जाव तवाणिज्जबालुगपत्थडा सुहफासा सस्सिरीया सुरूवा पासाईया ४। तेसिं णं दाराणं उभओ पासिं दुहओ णिसीहियाए दो दो चंदणकलसपरिवाडीओ पण्णत्ताओ तहेव भाणियव्वं जाव वणमालाओ।तेसिंणंदाराणं उभओ पासिंदुहओ णिसीहियाए दो-दो पगंठगा पण्णत्ता। तेणं पगंठगा एक्कतीसंजोयणाइंकोसंचआयामविक्खंभेणं पन्नरस जोयणाई अड्ढाइज्जे कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ता सव्ववइरामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिं णं पगंठगाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता। ते णं पासायवडिंसगा एक्कतीसंजोयणाइंकोसंच उढे उच्चत्तेणं पन्नरस जोयणाई अड्डाइझे यकोसे आयामविक्खंभेणं सेसं तं चेव जाव समुग्गया णवरं बहुवयणं भाणियव्वं। विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे अट्ठसयं चक्कझयाणं जाव अट्ठसयं सेयाणं चउविसाणाणं णागवरकेऊणं एवामेव सपुव्वावरेणं विजयाए रायहाणीए एगमेगे दारे असीयं असीयं केउसहस्सं भवतीति मक्खायं। विजयाए णं रायहाणीए एगमेगे दारे (तेसिं च दाराणं पुरओ) सत्तरस सत्तरस भोमा पण्णत्ता। तेसिं णं भोमाणं ( भूमिभागा) उल्लोया (य) पडमलया० भत्तिचित्ता। तेसिंणंभोमाणं बहुमज्झदेसभाए जे ते नवमनवमा भोमा तेसिंणं भोमाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता। सीहासणवण्णओ जाव दामा जहा हेट्ठा। एत्थ णं अवसेसेसु भोमेसु पत्तेयं पत्तेयं भद्दासणा पण्णत्ता।तेसिंणं दाराणं उवरिमागारा सोलसविहेहिं उवसोभिया। तंचेव जाव छत्ताइछत्ता। एवामेव पुव्वावरेण विजयाए रायहाणीए पंचदारसया भवंतीत मक्खाया। [१३५] (२) विजया राजधानी की एक-एक बाहा (दिशा) में एक सौ पच्चीस, एकसौ पच्चीस द्वार कहे गये हैं। ऐसा मैने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है। ये द्वार साढ़े बासठ योजन के ऊँचे हैं, इनकी चौड़ाई इकतीस योजन और एक कोस है और इतना ही इनका प्रवेश है। ये द्वार श्वेत वर्ण के हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका (शिखर) है, उन पर ईहामृग आदि के चित्र बने हैं-इत्यादि वर्णन विजयद्वार की तरह कहना चाहिए यावत् उनके प्रस्तर (आंगन) में स्वर्णमय बालुका बिछी हुई है। उनका स्पर्श शुभ और सुखद है, वे शोभायुक्त सुन्दर प्रासादीय दर्शनीय अभिरूप और प्रतिरूप हैं। उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नैषेधिकाओं में दो-दो चन्दन-कलश की परिपाटी कही गई हैं-इत्यादि वनमालाओं तक का वर्णन विजयद्वार के समान कहना चाहिए। उन द्वारों के दोनों तरफ दोनों नैषेधिकाओं में दो-दो प्रकण्ठक (पीठविशेष) कहे गये है। वे प्रकंठक इकतीस योजन और एक कोस लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, उनकी मोटाई पन्द्रह योजन और ढ़ाई कोस है, वे सर्व वज्रमय स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। उन प्रकण्ठकों के ऊपर प्रत्येक पर अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र इकतीस योजन एक कोस ऊंचे हैं, पन्द्रह योजन ढाई कोस लम्बे-चौड़े हैं। शेष वर्णन समुद्गक पर्यन्त विजयद्वार के समान ही कहना चाहिए, विशेषता यह है कि वे सब बहुवचन रूप कहने चाहिए । उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर १०८ चक्र से चिह्नित ध्वजाएँ यावत् १०८ श्वेत और चार दांत वाले हाथी से अंकित ध्वजाएँ कही गई हैं। ये सब आगे-पीछे की ध्वजाएँ मिलाकर विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर एक हजार अस्सी ध्वजाएँ कही गई हैं। विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर ( उन द्वारों के आगे) सत्रह भौम (विशिष्टस्थान) कहे गये हैं। उन भौमों के भूमिभाग और अन्दर की छतें पद्मलता आदि विविध चित्रों से चित्रित हैं। उन भौमों के बहुमध्य भाग में जो नौवें भौम हैं, उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग सिंहासन कहे गये हैं । यहाँ सिंहासन का पूर्ववर्णित वर्णनक कहना चाहिए यावत् सिंहासनों में मालाएँ लटक रही हैं। शेष भौमों में अलग-अलग भद्रासन कहे गये हैं । उन द्वारों के ऊपरी भाग सोलह प्रकार के रत्नों से शोभित हैं, आदि वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं। इस प्रकार सब मिलाकर विजया राजधानी के पांच सौ द्वार होते हैं। ऐसा मैने और अन्य तीर्थंकरों ने कहा है । विवेचन - प्रस्तुत सूत्र में विजया राजधानी का वर्णन करते हुए अनेक स्थानों पर विजयद्वार का अतिदेश किया गया है। 'जहा विजयदारे' कहकर यह अतिदेश किया गया है । इस अतिदेश के पाठों में विभिन्न प्रतियों में विविध पाठ हैं। श्री मलयगिरि की वृत्ति के पढ़ने पर स्पष्ट हो जाता है कि उन आचार्यश्री के सम्मुख कोई दूसरी प्रति थी जो अब उपलब्ध नहीं है। क्योंकि इस सूत्र की वृत्ति में आचार्यश्री ने उल्लेख किया है - ' शेषमपि तोरणादिकं विजयद्वारवदिमाभिर्वक्ष्यमाणाभिर्गाथाभिरनुगन्तव्यम्, ता एव गाथा आह'तोरणे', इत्यादि गाथात्रयम्' अर्थात् शेष तोरणादिक का कथन विजयद्वार की तरह इन तीन गाथाओं से जानना चाहिए। वे गाथाएँ इस प्रकार हैं 'तोरण' आदि । वृत्तिकार ने तीन गाथाओं की वृत्ति की है इससे सिद्ध होता है कि उनके सन्मुख जो प्रति थी उसमें उक्त तीन गाथाएँ मूल पाठ में होनी चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध प्रतियों में ये तीन गाथाएँ नहीं मिलती हैं । वृत्ति के अनुसार उन गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है उस विजया राजधानी के द्वारों में प्रत्येक नैषेधिकी में दो-दो तोरण कहे गये हैं। उन तोरणों के ऊपर प्रत्येक पर आठ-आठ मंगल हैं, उन तोरणों पर कृष्ण चामर आदि से अंकित ध्वजाएँ हैं। उसके बाद तोरणों के आगे शालभंजिकाएँ हैं, तदनन्तर नागदंतक हैं। नागदन्तकों में मालाएँ हैं । तदनन्तर हयसंघाटादि संघाटक हैं, तदनन्तर हयपंक्तियाँ, तदनन्तर हयवीथियाँ आदि, तदनन्तर हयमिथुनकादि, तदनन्तर पद्मलतादि लताएँ, तदनन्तर चतुर्दिक स्वस्तिक, तदनन्तर चन्दनकलश, तदनन्तर भृंगारक, तदनन्तर आदर्शक, फिर स्थाल, फिर पात्रियाँ, फिर सुप्रतिष्ठक, तदनन्तर मनोगुलिका, उनमें जलशून्य वातकरक (घड़े), तदनन्तर रत्नकरण्डक, फिर हयकण्ठ, गजकण्ठ, नरकण्ठ, किन्नर - किंपुरुष - महोरग - गन्धर्व - वृषभ - कण्ठ क्रम से कहने चाहिये । तदनन्तर पुष्पचंगेरियां कहनी चाहिए। फिर पुष्पादि पटल, सिंहासन, छत्र, चामर, तैलसमुद्गक आदि कहने चाहिए और फिर ध्वजाएँ कहनी चाहिए। ध्वजाएँ का चरम सूत्र है-उस विजया राजधानी के एक-एक द्वार पर Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या ] एक हजार अस्सी ध्वजाएँ मैंने और अन्य तीर्थंकरों ने कही हैं। ध्वजासूत्र के बाद भौम कहने चाहिए । भौमों के भूमिभाग और उल्लोकों (भीतरी छतों) का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उन भौमों के ठीक मध्यभाग में नवमे - नवमे भौम के मध्यभाग में विजयदेव के योग्य सिंहासन हैं जैसे कि विजयद्वार के पांचवें भौम में हैं किन्तु सपरिवार सिंहासन कहने चाहिए। शेष भौमों में सपरिवार भद्रासन कहने चाहिए। उन द्वारों का ऊपरी आकार सोलह प्रकार के रत्नों से उपशोभित है। सोलह रत्नों के नाम पूर्व में कहे जा चुके हैं । यावत् उन पर छत्र पर छत्र लगे हुए हैं। इस प्रकार सब मिलाकर (विजय) राजधानी के पांच सौ द्वार कहे गये हैं । [३८७ १३६. [ १ ] विजयाए णं रायहाणीए चउद्दिसिं पंचपंचजोयणसयाई अबाहाए, एत्थ णं चत्तारि वणसंडा पण्णत्ता, तं जहा - असोगवणे सत्तिवण्णवणे चंपकवणे चूयवणे । पुरत्थिमेणं असोगवणे, दाहिणेणं सत्तिवण्णवणे, पच्चत्थिमेणं चंपगवणे उत्तरेणं चूयवणे । ते णं वणसंडा साइरेगाई दुवालसजोयणसहस्साइं आयामेणं पंचजोयणसयाइं विक्खंभेणं पण्णत्ता पत्तेयं पत्तेयं पागारपरिक्खित्ता किण्हा किण्होभासा वणसंडवण्णओ भाणियव्वो जाव बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति सयंति चिठ्ठति णिसीयंति तुयट्टंति रमंति ललंति कीलंति मोहंति पुरापोराणाणं सुचिण्णाणं सुपरक्कंताणं सुभाणं कम्माणं कडाणं कल्लाणाणं फलवित्तिविसेसं पच्चणुभवमाणा विहरति । तेसिं णं वणसंडाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडिंसगा पण्णत्ता, ते णं पासायवडिंसगा वावट्ठि जोयणाई अद्धजोयणं च उड्डुं उच्चत्तेणं, एक्कतीसं जोयणाई कोसं च आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमुस्सिअ० तहेव जाव अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा पण्णत्ता उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता भाणियव्वा । तेसिं णं पासायवडिंसगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणा पण्णत्ता वण्णावासो सपरिवारा । तेसिं णं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अठ्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता । तत्थ णं चत्तारि देवा महिड्डिया जाव पनिओवमट्ठिझ्या परिवसंति, तं जहा - असोए, सत्तिवण्णे, चंपए, चूए। तत्थ णं ते साणं साणं वणसंडाणं साणं साणं पासायवडेंसयाणं साणं साणं सामाणियाणं साणं साणं अग्गमहिसीणं साणं साणं परिसाणं साणं साणं आयरक्खदेवाणं आहेवच्चं जाव विहरंति । [१३६] (१) उस विजया राजधानी की चारों दिशाओं में पांच-पांच सौ योजन के अपान्तराल को छोड़ने के बाद चार वनखंड कहे गये हैं, यथा-१ अशोकवन, २ सप्तपर्णवन ३ चम्पकवन और ४ आम्रवन । पूर्वदिशा में अशोकवन है, दक्षिणदिशा में सप्तपर्णवन है। पश्चिम दिशा में चंपकवन है और उत्तरदिशा में आम्रवन है । वे वनखण्ड कुछ अधिक बारह हजार योजन के लम्बे और पांच सौ योजन के चौड़े हैं। प्रत्येक एक-एक प्राकार से परिवेष्ठित हैं, काले हैं, काले ही प्रतिभासित होते हैं - इत्यादि वनखंड का वर्णनक कह लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यंतर देव और देवियाँ स्थित होती हैं, सोती हैं (लेटती हैं क्योंकि Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र देवयोनि में निद्रा नहीं होती), ठहरती हैं, बैठती हैं, करवट बदलती हैं, रमण करती हैं, लीला करती हैं, क्रीडा करती है, कामक्रीडा करती हैं और अपने पूर्व जन्म में पुराने अच्छे अनुष्ठानों का, सुपराक्रान्त तप आदि का और किये हुए शुभ कर्मों का कल्याणकारी फलविपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। __उन वनखण्डों के ठीक मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादावतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढ़े बासठ योजन ऊँचे, इकतीस योजन और एक कोस लम्बे-चौड़े हैं। ये प्रासादावतंसक चारों तरफ से निकलती हुई प्रभा से बंधे हुए हों अथवा श्वेतप्रभा पटल से हंसते हुए से प्रतीत होते हैं, इत्यादि वर्णन जानना चाहिए यावत् उनके अन्दर बहुत समतल एवं रमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतों पर पद्मलता आदि के विविध चित्र बने हुए हैं। उन प्रासादावतंसकों के ठीक मध्यभाग में अलग अलग सिंहासन कहे गये हैं। उनका वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए यावत् सपरिवार सिंहासन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलक हैं, ध्वजाएँ हैं और छत्रों पर छत्र हैं। __वहाँ चार देव रहते हैं जो महर्द्धिक यावत् पल्योपम की स्थिति वाले हैं, उनके नाम हैं-१ अशोक, २ सप्तपर्ण, ३ चंपक और ४ आम्र। वे अपने-अपने वनखण्ड का, अपने-अपने प्रासादावतंसक का, अपनेअपने सामानिक देवों का, अपनी-अपनी अग्रमहिषियों का, अपनी अपनी पर्षदा का और अपने-अपने आत्मरक्षक देवों का आधिपत्य करते हुए यावत् विचरते हैं। १३६.(२) विजयाए णं रायहाणीए अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव पंचवण्णेहिं मणीहिं उवसोभिए तणसद्दविहूणे जाव देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंति। तस्सणंबहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणं एगे महं ओवरियालेणे पण्णत्ते, बारस जोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं तिन्नि जोयणसहस्साई सत्त य पंचाणउए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं अद्धकोसं बाहल्लेणं सव्वजम्बूणदमए णं अच्छे जाव पडिरूवे। से णं एगाए पउमवरवेइयाए, एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंत्ता संपरिक्खित्ते । पउमवरवेइयाएवण्णओ, वणसंडवण्णओ, जाव विहरंति।से णं वणसंडे देसूणाइंदो जोयणाई चक्कवालविक्खंभेणं ओवारियालयणसमे परिक्खेवेणं, तस्स णं ओवारियालयणस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ।तेसिंणं तिसोवाणपिडरूवगाणं पुरओ पत्तेयं पत्तयं तोरणा पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। तस्स णं ओवारियालयणस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिहिं उवसोभिए मणिवण्णओ,गंधरसफासो।तस्सणंबहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं एगे महं मूलपासायवडिंसए पण्णत्ते। से णं पासायवडिंसए बावटुिंजोयणाइं अद्धजोयणंच उड्ढे उच्चत्तेणं एक्कतीसंजोयणाई Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : जम्बूद्वीप के द्वारों की संख्या] [३८९ कोसं य आयाम-विक्खंभेणं अब्भग्गयमसियप्पहसिए तहेव। तस्स णं पासायवडिंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिफासे उल्लोए। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णंएगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता।साच एगंजोयणमायामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा सण्हा। ___ तीसेणं मणिपेढियाए उवरि एगे महं सीहासणे पण्णत्ते, एवं सीहासणवण्णओ सपरिवारो। तस्स णं पासायवडिंसगस्स उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा झया, छत्ताइछत्ता। से णं पासायवडिंसए अण्णेहिं चउहिं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडिसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, ते णं पासायवडिंसगा एक्कतीसं जोयणाई कोसं य उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धसोलसजोयणाइंअद्धकोसंयआयाम-विक्खंभेणंअब्भुग्गय तहेव तेसिंणंपासायवडिंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया। तेसिं णं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमझदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं सीहासणं पण्णत्तं, वण्णओ।तेसिं परिवारभूया भद्दासणा पण्णत्ता। तेसिं णं अट्ठमंगलगा, झया, छत्ताइछत्ता। . ते णं पासायवडिंसगा अण्णेहिं चउहिं चाहिं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता।तेणं पासायवडिंसगाअद्धसोलसजोयणाइंअद्धकोसंयउटुंउच्चत्तेणं देसूणाई अट्ठजोयणाई आयाम-विक्खंभेणं अब्भुग्गय० तहेव। तेसिं णं पासायवडेंसगाणं अंतो बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा उल्लोया।तेसिंणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणंबहुमज्झभाए पत्तेयं पत्तेयं पउमासणा पण्णत्ता।तेसिंणं पासायवडिंसगाणं उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। तेणं पासायवडेंसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता।ते णं पासायवडेंसगा देसूणाई अट्ठजोयणाई उ8 उच्चत्तेणं देसूणाई चत्तारि जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं अब्भुग्गय० तहेव भूमिभागा उल्लोया। भद्दासणाई उवरिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। तेणं पासायवडेंसगा अण्णेहिं चउहिं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्तेहिं पासायवडेंसएहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं पासायवडिंसगा देसूणाइं चत्तारि जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं देसूणाई दो जोयणाई आयाम-विक्खंभेणं अब्भुग्गयमुस्सिय० भूमिभागा उल्लोया। पउमासणाई उवरि अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। [१३६] (२) विजय राजधानी के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् वह पांच वर्णों की मणियों से शोभित है। तृण-शब्दरहित मणियों का स्पर्श यावत् देव-देवियां वहाँ उठती-बैठती हैं यावत् पुण्य कर्मों का फल भोगती हुई विचरती हैं। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ा उपकारिकालयन १ -विश्रामस्थल १. वृत्तिकार में 'राजधानी के प्रासादावतंसकादि की पीठिका' ऐसा अर्थ करते हुए लिखा है कि अन्यत्र इसे उपकार्योपकारका कहा है। कहा है-'गृहस्थानं स्मृतं राज्ञामुपकार्योपकारका' इति । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कहा गया हैं जो बारह सौ योजन का लम्बा-चौड़ा और तीन हजार सात सौ पिचानवै योजन से कुछ अधिक की उसकी परिधि है। आधा कोस (एक हजार धनुष) की उसकी मोटाई है। वह पूर्णतया स्वर्ण का है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह उपकारिकालयन एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों ओर से परिवेष्ठित है। पद्मवरवेदिका का वर्णनक और वनखंड का वर्णनक कहना चाहिए यावत् वहाँ वानव्यन्तर देव-देवियां कल्याणकारी पुण्यफलों का अनुभव करती हुई विचरती हैं। ___ वह वनखंड कुछ कम दो योजन चक्रवाल विष्कंभ वाला (घेरेवाला) और उपकारिकालयन के परिक्षेप के तुल्य ( ३७९५ योजन से कुछ अधिक) परिक्षेप वाला है। उस उपकारिकालयन के चारों दिशाओं में चार त्रिसोपनप्रतिरूपक कहे गये हैं। उनका वर्णनक कहना चाहिए। उन त्रिसोपानप्रतिरूपकों के आगे अलग-अलग तोरण कहे गये हैं यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस उपकारिकालयन के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है यावत् वह मणियों से उपशोभित है। मणियों का वर्णनक कहना चाहिए। मणियों के गंध, रस और स्पर्श का कथन कर लेना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक बड़ा मूल प्रासादावतंसक कहा गया है। वह प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊँचा और इकतीस योजन एक कोस की लंबाई-चौडाई वाला है। वह सब ओर से निकलती हुई प्रभाकिरणों से हँसता हुआ सा लगता है आदि वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। उस प्रासादावतंसक के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा है यावत् मणियों का स्पर्श और भीतों पर विविध चित्र हैं। .. उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधा योजन की मोटाई वाली है। वह सर्वमणिमय, स्वच्छ और मृदु है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है। सिंहासन का सपरिवार वर्णनक कहना चाहिए। उस प्रासादावतंसक के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगलक, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक अन्य उनसे आधी ऊँचाई वाले चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक इकतीय योजन एक कोस की ऊँचाई वाले साढे पन्द्रह योजन और आधा कोस के लम्बेचौड़े, किरणों से युक्त आदि वैसा ही वर्णन कर लेना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग यावत् चित्रित भीतरी छत है। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के बहुमध्यदेशभाग में प्रत्येक में अलगअलग सिंहासन हैं। सिंहासन का वर्णनक कहना चाहिए। उन सिंहासनों के परिवार के तुल्य वहाँ भद्रासन' कहे गये हैं। इन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से वेष्ठित हैं। वे प्रासादावतंसक साढे पन्द्रह योजन और आधे कोस के ऊँचे और कुछ कम आठ योजन की लम्बाई-चौड़ाई १. वृत्ति में कहा गया है कि 'नवरमत्र सिंहासनानां शेषाणि परिवार भूतानि न वक्तव्यानि।' Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :सुधर्मा सभा का वर्णन] [३९१ वाले हैं, किरणों से युक्त आदि पूर्ववत् वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के अन्दर बहुसमरमणीय भूमिभाग है और चित्रित छतों के भीतरी भाग है। उन बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में अलगअलग पद्मासन कहे गये हैं। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएं और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से सब ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक कुछ कम आठ योजन की ऊँचाई वाले और कुछ कम चार योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाले हैं, किरणों से व्याप्त हैं। भूमिभाग, उल्लोक और भद्रासन का वर्णन जानना चाहिए। उन प्रासादावतंसकों पर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं। वे प्रासादावतंसक उनसे आधी ऊँचाई वाले अन्य चार प्रासादावतंसकों से चारों ओर से घिरे हुए हैं। वे प्रासादावतंसक कुछ कम चार योजन के ऊँचे और कुछ कम दो योजन के लम्बे-चौड़े हैं, किरणों से युक्त हैं आदि वर्णन कर लेना चाहिए। उन प्रसादावतंसकों के अन्दर भूमिभाग, उल्लोक, और पद्मासनादि कहने चाहिए। उन प्रासादावतंसकों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं।' सुधर्मा सभा का वर्णन १३७.(१) तस्स णं मूलपासायवडेंसगस्स उत्तरपुरस्थिमेणं, एत्थ णं विजयस्स देवस्स सभा सुधम्मा पण्णत्ता, अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ सक्कोसाइंजोयणाई विक्खंभेणंणव जोयणाइं उर्दू उच्चत्तेणं, अणेगखंभसयसन्निविट्ठा, अब्भुग्गयसुकयवइरवेदियातोरणवररइयसालभंजिया सुसिलिट्ठविसिट्ठलट्ठसंठियपसत्थवेरुलियविमलखंभा णाणामणिकणगरयणखइयउज्जल-बहुसमसुविभत्तचित्त (णिचिय) रमणिजकुट्टिमतलाईहामियउसभतुरगणरमगरविहगवालगकिण्णररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ता, थंभुग्गयवइरवेदियापरिगयाभिरामा विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्ताविवअच्चिसहस्समालणीया रूवगसहस्सकलिया भिसमाणी भिब्भिसमाणी चक्खुलोयणलेसा सुहफासा सस्सिरीयरूवा कंचणमणिरयणथूभियागाणाणाविहपंचवण्णघंटापडागपडिमंडितग्गसिहरा धवला मिरीइकवचं विणिम्मुयंती लाउल्लोइयमहिया गोसीससरसरत्तचंदणदद्दरदिन्नपंचंगुलितला उवचियचंदणकलसा चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागा आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावा पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फ पुंजोवयारकलिया कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधद्धयाभिरामा सुगंधवरगंधिया गंधवट्टिभूयाअच्छरगणसंघविकिन्ना दिव्यतुडियमधुरसद्दसंपणादिया सुरम्मा सव्वरयणामई अच्छा जाव पडिरूवा। [१३७] (१) उस मूल प्रासादावतंसक के उत्तर-पूर्व (ईशानकोण) में विजयदेव की सुधर्मा नामक सभा है जो साढ़े बारह योजन लम्बी, छह योजन और एक कोस की चौड़ी तथा नौ योजन की ऊँची है। १. वृत्तिकार ने कहा है कि इस प्रकार प्रासादावतंसकों की चार परिपाटियां होती हैं। कहीं तीन ही परिपाटियां कही गई हैं; चौथी परिपाटी नहीं कही हैं।' -(तदेवं चतस्रः प्रासादावतंसकपरिपाट्यो भवन्ति, क्वचित्तिस्रः एव दृश्यन्ते, न चतुर्थी।) २. 'रमणिज्जभूभिभागा' इति वृत्तौ। Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र वह सैकड़ों खंभों पर स्थित है, दर्शकों की नजरों में चढ़ी हुई (मनोहर) और भलीभांति बनाई हुई उसकी वज्रवेदिका है, श्रेष्ठ तोरण पर रति पैदा करने वाली शालभंजिकायें (पुत्तलिकायें) लगी हुई हैं, सुसंबद्ध, प्रधान और मनोज्ञ आकृति वाले प्रशस्त वैडूर्यरत्न के निर्मल उसके स्तम्भ हैं, उसका भूमिभाग नाना प्रकार के मणि, कनक और रत्नों से खचित है, निर्मल है, समतल है, सुविभक्त, निबिड और रमणीय है। ईहामृग, बैल, घोड़ा मनुष्य, मगर, पक्षी, सर्प, किन्नर, रुरु (मृग), सरभ (अष्टापद), चमर, हाथी, वनलता, पद्मलता आदि के चित्र उस सभा में बने हुए हैं, अतएव वह बहुत आकर्षक है। उसके स्तम्भों पर वज्र की वेदिका बनी हुई होने से वह बहुत सुन्दर लगती है। समश्रेणी के विद्याधरों के युगलों के यंत्रों (शक्तिविशेष) के प्रभाव से यह सभा हजारों किरणों से प्रभासित हो रही है। यह हजारों रूपकों से युक्त है, दीप्यमान है, विशेष दीप्यमान हैं, देखने वालों के नेत्र उसी पर टिक जाते हैं, उसका स्पर्श बहुत ही शुभ और सुखद है, वह बहुत ही शोभायुक्त है। उसके स्तूप का अग्रभाग (शिखर) सोने से. मणियों से और रत्नों से बना हआ है. उसके शिखर का अग्रभाग नाना प्रकार के पांच वर्णों की घंटाओं और पताकाओं से परिमंडित है, वह सभा श्वेतवर्ण की है, वह किरणों के समूह को छोड़ती हुई प्रतीत होती है, वह लिपी हुई और पुती हुई है, गोशीर्ष चन्दन और सरस लाल चन्दन से बड़े बड़े हाथ के छापे लगाये हुए हैं, उसमें चन्दनकलश अथवा वन्दन (मंगल) कलश स्थापित किये हुए हैं, उसके द्वारभाग पर चन्दन के कलशों से तोरण सुशोभित किये गये हैं, ऊपर से लेकर नीचे तक विस्तृत, गोलाकार और लटकती हुई पुष्पमालाओं से वह युक्त है, पांच वर्ण के सरस-सुगंधित फूलों के पुंज से वह सुशोभित है, काला अगर, श्रेष्ठ कुन्दुरुक (गन्धद्रव्य) और तुरुष्क (लोभान) के धूप की गंध से वह महक रही है, श्रेष्ठ सुगंधित द्रव्यों की गंध से वह सुगन्धित है, सुगन्ध की गुटिका के समान सुगन्ध फैला रही है। वह सुधर्मा सभा अप्सराओं के समुदायों से व्याप्त है, दिव्यवाद्यों के शब्दों से वह निनादित हो रही है-गूंज रही है। वह सुरम्य है, सर्वरत्नमयी है, स्वच्छ है, यावत् प्रतिरूप है। ___१३७. (२) तीसे णं सुहम्माए सभाए तिदिसिं तओ दारा पण्णत्ता । ते णं दारा पत्तेयं पत्तेयं दो दो जोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं एगं जोयणं विक्खंभेणं तावइयं चेव पवेसेणं सेया वरकणगथूभियागा जाव वणमाला-दार-वण्णओ। तेसिंणंदाराणं पुरओ मुहमंडवा पण्णत्ता। तेणंमुहमंडवा अद्धतेरस जोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाइं विक्खंभेणं साइरेगाइं दो जोयणाई उड्ढं उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसन्निविट्ठा जाव उल्लोया भूमिभागवण्णओ। तेसिंणं मुहमंडवाणं उपरिपत्तेयंपत्तेयं अट्ठमंगलगापण्णत्ता सोत्थियजावदप्पणा ।तेसिंणंमुहमंडवाणं पुरओ पत्तेयं पत्तेयं पेच्छाघरमंडवा पण्णत्ता; ते णं पेच्छाघरमंडवा अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं जाव दो जोयणाई उड्ढें उच्चत्तेणं जाव मणिफासो। तेसिंणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं वइरामयअक्खाडगा पण्णत्ता।तेसिंणं वइरामयाणं अक्खाडगाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं मणिपीढिया पण्णत्ता। ताओ णं मणिपीढियाओ जोयणमेगंआयाम-विक्खंभेणंअद्धजोयण बाहल्लेणंसव्वमणिमईओ अच्छाओजाव पडिरूवाओ १. मच्छ०। Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३९३ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मा सभा का वर्णन] तासिंणं मणिपीढियाणं उप्पि पत्तेयं पत्तयं सीहासणा पण्णत्ता, सीहासणवण्णओ जाव दामा परिवारो। तेसिंणं पेच्छाघरमंडवाणं उप्पिं अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता।तेसिंणं पेच्छाघरमंडवाणं पुरओ तिदिसिंतओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ।ताओणं मणिपेढियाओदो दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयण बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तासिं णं मणिपेढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं चेइयथूभा पण्णत्ता। ते णं चेइयथूभा दो जोयणाइं आयामविक्खंभेणं सातिरेगाइंदो जोयणाई उड्ढे उच्चतेणं सेया संखंककुंददगरयामयमहितफेणपुंजसन्निकासा सव्वरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा। तेसिं णं चेइयथूभाणं उप्पिं अट्ठट्ठमंगलगा बहुकिण्ह चामरझया पण्णत्ता छत्ताइछत्ता। तेसिंणं चेइयथूभाणं चउद्दिसिं पत्तेयं पत्तयं चत्तारि मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ।ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ। तासिंणं मणिपेढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयंचत्तारिजिणपडिमाओ।जिणुस्सेहपमाणमेत्ताओ पलियंकणिसन्नाओ थूभाभिमुहीओ सन्निविट्ठाओ चिटुंति तं जहा-उसभा वद्धमाणा चंदाणणा वारिसेणा। [१३७] (२) उस सुधर्मा सभा की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं। वे प्रत्येक द्वार दोदो योजन के ऊँचे, एक योजन विस्तार वाले और इतने ही प्रवेश वाले हैं। वे श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तुपिका वाले हैं इत्यादि पूर्वोक्त द्वारवर्णन वनमाला पर्यन्त कहना चाहिए। उन द्वाराों के आगे मुखमंडप कहे गये हैं। वे मुखमण्डप साढे बारह योजन लम्बे, छह योजन और एक कोस चौड़े, कुछ अधिक दो योजन उँचे, अनेक सैकड़ों खम्भों पर स्थित हैं यावत् उल्लोक (छत) और भूमिभाग का वर्णन कहना चाहिए। उन मुखमण्डपों के ऊपर प्रत्येक पर आठ-आठ मंगल-स्वस्तिक यावत् दपर्ण कहे गये हैं। उन मुखमण्डपों के आगे अलग-अलग प्रेक्षाघरमण्डप कहे गये हैं। वे प्रेक्षाघरमण्डप साढ़े बारह योजन लम्बे, छह योजन एक कोस चौड़े और कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं, मणियों के स्पर्श वर्णन तक प्रेक्षाघरमण्डपों और भूमिभाग का वर्णन कर लेना चाहिए। उनके ठीक मध्यभाग में अलग-अलग वज्रमय अक्षपाटक (चौक, अखाडा) कहे गये हैं। उन वज्रमय अक्षपाटकों के बहुमध्य भाग में अलग-अलग मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी चौड़ी, आधा योजन मोटी हैं, सर्वमणियों की बनी हुई हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग सिंहासन हैं। यहाँ सिंहासन का वर्णन, मालाओं का वर्णन, परिवार का वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। उन प्रेक्षाघरमण्डपों के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रों पर छत्र हैं। उन प्रेक्षाघरमण्डपों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएँ हैं। वे मणिपीठिकाएं दो योजन लम्बी-चौड़ी और एक योजन मोटी हैं, सर्वमणिमय, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्यस्तूप कहे गये हैं। वे चैत्यस्तूप दो योजन लम्बेचौड़े और कुछ अधिक दो योजन ऊँचे हैं। वे शंख, अंकरत्न, कुंद (मोगरे का फूल), दगरज (जलबिन्दु), क्षीरोदधि के मथित फेनपुंज के समान सफेद हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं यावत् प्रतिरूप हैं। उन चैत्यस्तूपों के ऊपर आठ-आठ मंगल, बहुत सी कृष्णचामर से अंकित ध्वजाएँ आदि और छत्रातिछत्र कहे गये हैं। उन चैत्यस्तूपों के चारों दिशाओं में अलग-अलग चार मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी सर्वमणिमय हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चार जिन-प्रतिमाएँ कही गई हैं जो जिनोत्सेधप्रमाण (उत्कृष्ट पांच सौ धनुष और जघन्य सात हाथ; यहाँ पांच सौ धनुष समझना चाहिए) हैं, पर्यकासन (पालथी), से बैठी हुई हैं, उनका मुख स्तूप की ओर है। इन प्रतिमाओं के नाम हैं-ऋषभ, वर्द्धमान, चन्द्रानन और वारिषेण। १३७.(३)तेसिंणंचेइयथूभाणं पुस्ओ तिदिसिंपत्तेयं पत्तेयं मणिपेढियाओपण्णत्ताओ. ताओणं मणिपेढियाओ दो दो जोयणाई आयामविक्खंभेणंजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ लण्हाओ सहाओ घट्ठाओ मट्ठाओ निप्पंकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ। तासिं णं मणिपेढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं चेइयरुक्खा पण्णत्ता। ते णं चेइयरुक्खा अदुजोयणाई उड्डूं उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं दो जोयणाइं खंधी अद्धजोयणं विक्खंभेणं छजोयणाई विडिमा वहुमझदेसभाए अट्ठजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ठजोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता। तेसिं णं चेइयरुक्खाणं अयमेयारुवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-वइरामयामूला रययसुपइट्टिया विडिमा रिट्ठामयविपुलकंदवेरुलियरुइलखंधा सुजातरुवपढमगविसालसाला नानामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुयिपत्ततवणिज्जपत्तवेंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवसोभंतवरंकुरग्गसिहरा विचित्तमणिरयणसुरभिकुसुमफलभरणमियसाला सच्छाया सप्पभा समिरीया सउज्जोया अमयरससमरसफला अहियं णयणमणणिव्वुइकरा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। तेणंचेइयरुक्खाअन्नेहिं बहूहिं तिलय-लवय-छत्तोवग-सिरीस-सत्तवण्ण-दहिवण्णलोद्ध-धव-चन्दन-नीव-कुडय-कयंब-पणस-ताल-तमाल-पियाल-पियंगु-पारावयरायरुक्ख-नंदिरुक्खेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा मूलवंता कंदवंता जाव सुरम्मा। ते णं तिलया जाव नंदिरुक्खा अन्नेहिं बहूहिं पउमलयाहिं जाव सामलयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ताओ णं पउमलयाओ जाव सामलयाओ णिच्चं कुसुमियाओ जाव पडिरूवाओ। १. वरंकुधरा इति पाठान्तरम्। Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मा सभा का वर्णन] [३९५ तेसिं णं चेइयरुक्खाणं उप्पिं बहवे अट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। [१३७] (३) उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्यवृक्ष कहे गये हैं, वे चैत्यवृक्ष आठ योजन ऊँचे हैं, आधा योजन जमीन में हैं, दो योजन ऊँचा उनका स्कन्ध (धड़, तना) है, आधा योजन उस स्कन्ध का विस्तार है, मध्यभाग में ऊर्ध्व विनिर्गत शाखा (विडिमा) छह योजन ऊँची है, उस विडिमा का विस्तार अर्धयोजन का है, सब मिलाकर वे चैत्यवृक्ष आठ योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं। उन चैत्यवृक्षों का वर्णन इस प्रकार कहा है-उनके मूल वज्ररत्न के हैं, उनकी ऊर्ध्व विनिर्गत शाखाएँ रजत की हैं और सुप्रतिष्ठित हैं, उनका कन्द रिष्टरत्नमय है, उनका स्कंध वैडूर्यरत्न का है और रुचिर है, उनकी मूलभूत विशाल शाखाएँ शुद्ध और श्रेष्ठ स्वर्ण की हैं, उनकी विविध शाखा-प्रशाखाएँ नाना मणिरत्नों की हैं, उनके पत्ते वैडूर्यरत्न के हैं, उनके पत्तों के वृन्त तपनीय स्वर्ण के हैं। जम्बूनद जाति के स्वर्ण के समान लाल, मृदु, सुकुमार प्रवाल (पत्र के पूर्व की स्थिति) और पल्लव तथा प्रथम उगने वाले अंकुरों को धारण करने वाले हैं (अथवा उनके शिखर तथाविध प्रवाल-पल्लव-अंकुरों से सुशोभित हैं), उन चैत्य॒वक्षों की शाखाएँ विचित्र मणिरत्नों के सुगन्धित फूल और फलों के भार से झूकी हुई हैं। वे चैत्यवृक्ष सुन्दर छाया वाले, सुन्दर कान्ति वाले, किरणों से युक्त और उद्योत करने वाले हैं। अमृतरस के समान उनकों फलों का रस है। वे नेत्र और मन को अत्यन्त तृप्ति देने वाले हैं, प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। वे चैत्यवृक्ष अन्य बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नीप, कुटज, कदम्ब, पनस, ताल, तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारापत, राजवृक्ष और नन्दिवृक्षों से सब ओर से घिरे हुए हैं। वे तिलक यावत् नन्दिवृक्ष मूलवाले हैं, कन्दवाले हैं इत्यादि वृक्षों का वर्णन करना चाहिए यावत् वे सुरम्य हैं। वे तिलकवृक्ष यावत् नन्दिवृक्ष अन्य बहुत-सी पद्मलताओं यावत् श्यामलताओं से घिरे हुए हैं। वे पद्मलताएँ यावत् श्यामलताएँ नित्य कुसुमित रहती हैं। यावत् वे प्रतिरूप हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रों पर छत्र हैं। १३७. (४) तेसिं णं चेइयरुक्खाणं पुरओ तिदिसिं तओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ; ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तासिंणं मणिपेढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं महिंदझये पण्णत्ते। तेणं महिंदण्झया अद्धट्ठमाई जोयणाई उ8 उच्चत्तेणं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्टपुरइट्ठिया अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया जाव पडिरूवा। तेसिंणं महिंदज्झयाणं उप्पिं अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता।तेसिंणं महिंदज्झयाणं पुरओ तिदिसिं तओ णंदाओ पुक्खरणीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं पुक्खरणीओ अद्धरतेरस जोयणाई १. क्वचित् ‘विसिट्ठा' इत्यपि दृश्यते। Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र आयामेणं सक्कोसाइं छजोयणाई विक्खंभेणं दसजोयणाई उव्वेहेणं अच्छाओ सण्हाओ पुक्खरिणीवण्णओ, पत्तेयं पत्तेयं परमवरवेइयापरिक्खित्ताओ, पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ वण्णओ जाव पडिरूवाओ। तासिंणं पुक्खरिणीणं पत्तेयं पत्तेयं तिदिसिं तिसोवाणपडिरूवगा, वण्णओ। तोरणा भाणियव्वा जाव छत्ताइछत्ता। सभाए णं सुहम्माए छ मणोगलिया साहस्सीओ पण्णत्ताओ,तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सीओ, पच्चत्थिमेणं दो साहस्सीओ, दाहिणेणं एग साहस्सी, उत्तरेणं एगा साहस्सी। तासु णं मणोगुलिकासु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता, तेसु णं सुवण्णरुप्पामएसु फलगेसुबहवेवइरामया णागदंतगा पण्णत्ता, तेसुणं वइरामएसु नागदंतगेसु बहवे किण्हसुत्तवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा जाव सुक्किलवट्टवग्धारियमल्लदामकलावा। ते णं तवणिज्जलंबूसगा जाव चिटुंति। ___ सभाए सुहम्माए छ गोमाणसीसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तं जहा-पुरस्थिमेणं दो साहस्सीओ, एवं पच्चत्थिमेणं वि दाहिणेणं सहस्सं एवं उत्तरेणवि। तासु णं गोमाणसीसु बहवे सुवण्णरुप्पामया फलगा पण्णत्ता जाव तेसु णं वइरामएसु नागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कया पण्णत्ता। तेसु णं रययामयासिक्कएसु बहवे वेरुलियामईओ धूवघडियाओ पण्णत्ताओ। ताओ णं धूवघडियाओ कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्क जाव घाणमणणिव्वुइकरेणं गंधेणं सव्वओ समंता आपूरेमाणीओ चिटुंति। सभाए णं सुधम्माए अंतो बहूसमरमाणिज्जे भूमिभाए पण्णत्तेजावमणीणं फासे, उल्लोया पउमलयाभत्तिचित्ता जाव सव्वतपणिज्जमए अच्छे जाव पडिरूवे। [१३७] (४) उन चैत्यवृक्षों के आगे तीन दिशाओं में तीन मणिपीठिकाएँ कही गई हैं। वे मणिपीठिकाएँ एक-एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी हैं। वे सर्वमणिमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं। उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग महेन्द्रध्वज हैं जो साढ़े सात योजन ऊँचे, आधा कोस ऊंडे (जमीन के अन्दर), आधा कोस विस्तार वाले, वज्रमय, गोल, सुन्दर आकारवाले, सुसम्बद्ध, घृष्ट, मृष्ट और सुस्थिर हैं, अनेक श्रेष्ठ पांच वर्षों की लघुपताकाओं से परिमण्डित होने से सुन्दर हैं, वायु से उड़ती हुई विजय की सूचक वैजयन्ती पताकाओं से युक्त हैं, छत्रों पर छत्र से युक्त हैं, ऊँचे हैं, उनके शिखर आकाश को लांघ रहे हैं, वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं। उन महेन्द्रध्वजों के ऊपर आठ-आठ मंगल हैं, ध्वजाएँ हैं और छत्रातिछत्र हैं। उन महेन्द्रध्वजों के आगे तीन दिशाओं में तीन नन्दा पुष्करिणियाँ हैं। वे नन्दा पुष्करिणियाँ साढ़े बारह योजन लम्बी हैं, सवा छह योजन की चौड़ी हैं, दस योजन ऊँडी हैं, स्वच्छ हैं, श्लष्ण (मृदु) हैं इत्यादि पुष्करिणी का वर्णनक कहना चाहिए। वे प्रत्येक पुष्करिणियाँ पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरी हुई हैं। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कर लेना चाहिए यावत् वे पुष्करिणियाँ दर्शनीय यावत् प्रतिरूप हैं। उन पुष्करिणियों की तीन दिशाओं में अलग-अलग त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उन LY Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :सुधर्मा सभा का वर्णन] [३९७ त्रिसोपानप्रतिरूपकों का वर्णनक कहना चाहिए। तोरणों का वर्णन यावत् छत्रों पर छत्र हैं। उस सुधर्मा सभा में छह हजार मनोगुलिकाएँ (बैठक) कही गई हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार। उन मनोगुलिकाओं में बहुत से सोने चांदी के फलक (पाटिये) हैं। उन सोने-चांदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदंतक (खूटियां) हैं। उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत सी काले सूत्र में पिरोई हुई गोल और लटकती हुई पुष्पमालाओं के समुदाय हैं यावत् सफेद डोरे में पिरोई हुई गोल और लटकती हुई पुष्पमालाओं के समुदाय हैं। वे पुष्पमालाएँ सोने के लम्बूसक (पेन्डल) वाली हैं यावत् सब दिशाओं को सुगन्ध से भरती हुई स्थित हैं। ___ उस सुधर्मा सभा में छ हजार गोमाणसियां (शय्यारूप स्थान) कही गई हैं, यथा-पूर्व में दो हजार, पश्चिम में दो हजार, दक्षिण में एक हजार और उत्तर में एक हजार। उन गोमाणसियों में बहुत-से सोने -चांदी के फलक हैं, उन फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं, उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत से चांदी के सींके हैं। उन रजतमय सींकों में बहुत-सी वैडूर्यरत्न की धूपघटिकाएँ कही गई हैं। वे धूपघटिकाएं काले अगर श्रेष्ठ कुंदुरुक्क और लोभान के धूप की नाक और मन को तृप्ति देवे वाली सुगन्ध से आसपास के क्षेत्र को भरती हुई स्थित हैं। उस सुधर्मा सभा में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा जाता है। यावत् मणियों का स्पर्श, भीतरी छत, पद्मलता आदि के विविध चित्र आदि का वर्णन करना चाहिए। यावत् वह भूमिभाग तपनीय स्वर्ण का है, स्वच्छ है और प्रतिरूप है। १३८. तस्सणंबहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणंएगा मणिपीढिया पण्णत्ता। साणं मणिपीढिया दो जोयणाई आयामविक्खंभेणंजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमया। तीसे णं मणिपीढियाए उप्पिं एत्थ णं माणवए णाम चेइयखंभे पण्णत्ते, अद्धदमाई जोयणाई उर्दू उच्चत्तेणं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं छकोडीए छलंसे छविग्गहिए वइरामयवट्टलट्ठसंटिए, एवं जहा महिंदज्झयस्स वण्णओ जाव पासाईए। तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स उवरि छक्कोसे ओगाहित्ता हेट्ठावि छक्कोसे वजित्ता मज्झे अद्धपंचमेसु जोयणेसु एत्थ णं बहवे सुवण्णरुप्पमया फलगा पण्णत्ता।तेसुणंसुवण्णरुप्पमएसुफलगेसुबहवेवइरामया णागदंता पण्णत्ता। तेसु णं वइरामएसु णागदंतएसु बहवे रययामया सिक्कगा पण्णत्ता। तेसु णं रययामएसु सिक्कएसु बहवे वइरामया गोलवट्टसमुग्गका पण्णत्ता; तेसु णं वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहवे जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिटुंति। जाओ णं विजयस्स देवस्स अण्णेहिं च बहूणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण यअच्चणिज्जाओ वंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओ सक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओकल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ।माणवगस्स णं चेइयखंभस्स उवरिं अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। तस्स णं माणवगस्स चेइयखंभस्स पुरच्छिमेणं एत्थ णं एगा महामणिपेढिया पण्णत्ता। साणं मणिपेढियादो जोयणाइं आयामविक्खंभेणंजोयणं बाहल्लेणंसव्वमणिमई जावपडित्वा। Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं सीहासणे पण्णत्ते। सीहासणवण्णओ। तस्सणं माणवगस्स चेइयखंभस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं एगा महा मणिपेढिया पण्णत्ता, जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थणं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते।तस्स णं देवसयणिज्जस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते,तं जहा-णाणामणिमया' पडिपाया, सोवणिया पाया,णाणामणिमया, पायसीसा, जंबूणदमयाइं गत्ताई वइरामया संधी णाणामणिमए विच्चे, रययामया तूली, लोहियक्खमया बिव्वोयणा तवणिज्जमई गंडोवहाणिया। से णं देवसयणिज्जे उभओ बिव्वोयणे दुहओ उण्णए माझे णयगंभीरे सालिंगणवट्टिए गंगापुलिणवालुउद्दालसारिसए ओयवियक्खोमदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे सुविरचियरयत्ताणे रत्तंसुयसंबुए सुरम्मे आईणगरूयवूरणवणीयतूलफासमउए पासाईए। तस्स णं देवसयणिज्जस्स उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं महई एगा मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणमेगं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमई जाव अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पि एगं महं खुड्डए महिंदज्झए पण्णत्ते, अट्ठमाइं जोयणाई उटुं उच्चत्तेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वेरुलियामयवट्टलट्ठसंठिए तहेव जाव मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। तस्स णं खुड्डमहिंदज्झयस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं विजयस्स देवस्स चुप्पालए नाम पहरणकोसे पण्णत्ते। तत्थ णं विजयस्स देवस्स फलिहरयणपामोक्खा बहवे पहरणरयणा सन्निक्खित्ता चिटुंति, उज्जलसुणिसियसुतिक्खधारा पासाईया। तीसे णं सभाए सुहम्माए उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता। [१३८] उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक मणिपीठिका कही गई है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बी-चौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है। उस मणिपीठिका के ऊपर माणवक नामक चैत्यस्तम्भ कहा गया है। वह साढे सात योजन ऊँचा, आधा कोस ऊँडा और आधा कोस चौड़ा है। उसकी छह कोटियाँ हैं, छह कोण है और छह भाग हैं, वह वज्र का है, गोल है और सुन्दर आकृति वाला है, इस प्रकार महेन्द्रध्वज के समान वर्णन करना चाहिए यावत् वह प्रासादीय (यावत् प्रतिरूप) है। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के ऊपर छह कोस ऊपर और छह कोस नीचे छोड़ कर बीच के साढे चार योजन में बहुत से सोने-चांदी के फलक कहे गये है। उन सोने चांदी के फलकों में बहुत से वज्रमय नागदन्तक हैं। उन वज्रमय नागदन्तकों में बहुत से चांदी के छीकें कहे गये है। उन रजतमय छींकों में बहुत-से वज्रमय गोल-वर्तुल समुद्गक (मंजूषा) कहे गये है। उन वज्रमय गोल-वर्तुल समुद्गकों में बहुत सी जिन-अस्थियाँ रखी हुई हैं। वे विजयदेव और अन्य बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारयोग्य, सन्मानयोग्य, कल्याणरूप, मगंलरूप, देवरूप, चैत्यरूप, और पर्युपासनायोग्य हैं। उस माणवक १. 'णाणा मणिमया पायसीसा' यह पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: सिद्धायतन वर्णन] [३९९ चैत्यस्तम्भ के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पूर्व में एक बडी मणिपीठिका है। वह मणिपीठिका दो योजन लम्बीचौड़ी, एक योजन मोटी और सर्वमणिमय है यावत् प्रतिरूप है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन कहा गया है। उस माणवक चैत्यस्तम्भ के पश्चिम में एक बड़ी मणिपीठिका है जो एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, जो सर्वमणिमय है और स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय कहा गया है। देवशयनीय का वर्णन इस प्रकार है, यथा नाना मणियों के उसके प्रतिपाद (मूलपायों को स्थिर रखने वाले पाये) हैं, उसके मूल पाये सोने के हैं, नाना मणियों के पायों के ऊपरी भाग हैं, जम्बूनद स्वर्ण की उसकी ईसें हैं, वज्रमय संधियाँ हैं, नाना मणियों से वह बुना (व्युत) हुआ हैं, चाँदी की गादी है, लोहिताक्ष रत्नों के तकिये ' हैं तपनीय स्वर्ण का गलमसूरिया है। वह देवशयनीय दोनों ओर (सिर और पांव की तरफ) तकियों वाला है, शरीरप्रमाण तकियों वाला (मसनंद-बड़े गोल तकिये) है, वह दोनों तरफ से उन्नत और मध्य में नत (नीचा) और गहरा है, गंगा नदी के किनारे की बालुका में पैर रखते ही जैसे वह अन्दर उतर जाता हैं वैसे ही वह शय्या उस पर सोते ही नीचे बैठ जाती है, उस पर बेल-बूटे निकाला हुआ सूती वस्त्र (पलंगपोस) बिछा हुआ है, उस पर रजस्त्राण लगाया हुआ है, लाल वस्त्र से वह ढका हुआ है, सुरम्य है, मृगचर्म, रुई, बूर वनस्पति और मक्खन के समान उसका मृदुल स्पर्श है, वह प्रासादीय यावत् प्रतिरूप है। उस देवशयनीय के उत्तर-पूर्व में (ईशानकोण में) एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन की लम्बी-चौड़ी और आधे योजन की मोटी तथा सर्व मणिमय यावत् स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक छोटा महेन्द्रध्वज कह गया है जो साढे सात योजन ऊँचा, आधा कोस ऊँडा और आधा कोस चौड़ा है। वह वैडूर्यरत्न का हैं, गोल है और सुन्दर आकार का है, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। उस छोटे महेन्द्रध्वज के पश्चिम में विजयदेव का चौपाल नामक शस्त्रागार है। वहां विजय देव के परिघरत्न आदि शस्त्ररत्न रखे हुए हैं। वे शस्त्र उज्ज्वल, अति तेज और तीखी धार वाले हैं। वे प्रासादीय यावत् प्रतिरूप हैं। उस सुधर्मा सभा के ऊपर बहुत सारे आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं। २ सिद्धायतन-वर्णन १. 'बिब्बोयणा-उपधानकानि उच्यन्ते' इति मूल टीकाकारः। २. वृत्ति में 'यावत् बहुत से सहस्रपत्र समुदाय हैं, सर्वरत्नमय हैं, स्वच्छ हैं, यावत् प्रतिरूप हैं' ऐसा पाठ है। Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र १३९.(१) सभाए णं सुधम्माए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थ णं एगे महं सिद्धाययणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सकोसाइं विक्खभेणं नवजोयणाइँ उड्ढे उच्चत्तेणं जाव गोमाणसिया वत्तव्वया।जा चेव सहाए सुहम्माए वत्तव्वया सा चेव निवसेसा भाणियव्वा तहेवदारा मुहमंडवा पेच्छाघरमंडवा झया थूभा चेइयरुक्खा महिंदज्झया णंदाओ पुक्खरिणीओ। तओ य सुधम्माए जहा पमाणं मणोगुलियाणं गोमाणसीया, धूवयघडीओ तहेव भूमिभागे उल्लोए य जाव मणिफासे। तस्स णं सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमयी अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थणंएगे महं देवच्छंदए पण्णत्ते, दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइंदो जोयणाई उड्डूं उच्चत्तेणं सव्वरयणामए अच्छे । तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठ सयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहप्पमाणमेत्ताणं सण्णिक्खित्तं चिट्ठइ। __तासिं णं जिणपडिमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-तवणिज्जमया हत्थतला, अंकामयाईणक्खाइं अंतोलोहियक्खपरिसेयाइं कणगमया पादा कणगामया गोप्फा कणगामईओ जंघाओ कणगामया जाणूकणगामया ऊरु कणगामईओ गायलट्ठीओ, तवणिज्जमईओ णाभीओ रिट्ठामईओ रोमराईओ, तवणिज्जमया चुच्चुया तवणिज्जमया सिरिवच्छा, कणगमयाओ बाहाओ कणगमईओ पासाओ कणगमईओगीवाओ रिट्ठामए मंसु, सिलप्पवालमया उट्ठा, फलिहामया दंता, तवणिजमईओ जीहाओ, तवणिज्जमया तालुया कणगमईओ णासाओ अंतोलोहियक्खपरिसेयाओ अंकामयाइं अच्छीणि, अंतोलोहितक्खपरिसेयाई (पुलगमईओ दिट्ठीओ) रिट्ठामईओ तारगाओ रिट्ठामयाइं अच्छिपत्ताइं रिट्ठामईओ भभुहाओ कणगामया कवोला कणगामया सवणा कणगामया णिडाला वट्टा वइरामईओ सीसघडीओ, तवणिज्जमईओ केसंतकेसभूमीओ रिट्ठामया उवरिमुद्धजा। _[१३९] (१) सुधर्मासभा के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में एक विशाल सिद्धायतन कहा गया है जो साढे बारह योजन का लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और नौ योजन ऊँचा है। इस प्रकार पूर्वोक्त सुधर्मासभा का जो वर्णन किया गया है तदनुसार गोमाणसी (शय्या) पर्यन्त सारी वक्तव्यता कहनी चाहिए। वैसे ही द्वार, मुखमण्डप, प्रेक्षागृहमण्डप, ध्वजा, स्तूप, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज, नन्दा पुष्करिणियाँ, मनोगुलकिाओं का प्रमाण, गोमाणसी, धूपघटिकाएँ, भूमिभाग, उल्लोक (भीतरी छत) आदि का वर्णन यावत् मणियों के स्पर्श आदि सुधर्मासभा के समान कहने चाहिए। उस सिद्धायतन के बहुमध्य में देशभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो दो योजन लम्बीचौड़ी, एक योजन मोटी है, सर्व मणियों की बनी हुई है, स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल १. कोष्ठकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :सिद्धायतन वर्णन] [४०१ देवच्छंदक (आसनविशेष) कहा गया है, जो दो योजन का लम्बा-चौड़ा और कुछ अधिक दो योजन का ऊँचा है, सर्वात्मना रत्नमय है और स्वच्छ स्फटिक के समान है। उस देवच्छंदक में जिनोत्सेधप्रमाण (उत्कृष्ट पाचं सौ धनुष, जघन्य सात हाथ) एक सौ आठ जिन-प्रतिमाएँ रखी हुई हैं। उन जिन-प्रतिमाओं का वर्णन इस प्रकार कहा गया है-उनके हस्ततल तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके नख अंकरत्नों के हैं और उनका मध्यभाग लोहिताक्ष रत्नों की ललाई से युक्त है, उनके पांव स्वर्ण के हैं, उनके गुल्फ (टखने) कनकमय हैं, उनकी जंघाए (पिण्डलियाँ) कनकमयी हैं, इनके जानु (घुटने) कनकमय हैं, उनके ऊरु (जंघाएं) कनकमय हैं, उनकी गात्रयष्टि कनकमयी है, उनकी नाभियां तपनीय स्वर्ण की हैं, उनकी रोमराजि रिष्टरत्नों की है, उनके चूचुक (स्तनों के अग्रभाग) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनके श्रीवत्स (छाती पर अंकित चिह्न) तपनीय स्वर्ण के हैं, उनकी भुजाएँ कनकमयी हैं, उनकी पसलियाँ कनकमयी हैं. उनकी ग्रीवा कनकमयी है, उनकी मूछे रिष्टरत्न की हैं, उनके होठ विद्रुममय (प्रवालरत्न के ) हैं, उनके दांत स्फटिकरत्न के हैं, तपनीय स्वर्ण की जिह्वाएँ हैं, तपनीय स्वर्ण की तालु हैं, कनकमयी उनकी नासिका है, जिसका मध्यभाग लोहिताक्षरत्नों की ललाई से युक्त है, उनकी आँखें अंकरत्न की हैं और उनका मध्यभाग लोहिताक्ष रत्न की ललाई से युक्त है, उनकी दृष्टि पुलकित (प्रसन्न) है, उनकी आँखों की तारिका (कीकी) रिष्टरत्नों की है, उनके अक्षिपत्र (पक्ष्म) रिष्टरत्नों के हैं, उनकी भौहैं रिष्टरत्नों की हैं, उनके गाल स्वर्ण के हैं, उनके कान स्वर्ण के हैं, उनके ललाट कनकमय हैं, उनके शीर्ष गोल वज्ररत्न के हैं, केशों की भूमि तपनीय स्वर्ण की है और केश रिष्टरत्नों के बने हुए हैं। १३९.(२) तासिंणं जिणपडिमाणं पिट्ठओ पत्तेयं पत्तेयं छत्तधारपडिमाओ पण्णत्ताओ. ताओणं छत्तधारपडिमाओ हिमरययकुंदेंदुसप्पकासाइंसकोरंटमल्लदामधवलाइंआतपत्ताइसलीलं ओहारेमाणीओ चिटुंति। तासिंणं जिणपडिमाणं उभओ पासिं पत्तेयं पत्तेयं चामरधारपडिमाओ पण्णत्ताओ।ताओणंचामरधारपडिमाओ चंदप्पहवइरवेरुलियनानामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तदंडाओ चिल्लियाओ संखंककुंददगरय-अमयमथिअफेणपुंजसण्णिकासाओ, सुहुमरययदीहवालाओ धवलाओ चामराओ सलीलं ओहारेमाणीओ चिट्ठति। तासिं णं जिणपडिमाणं पुरओ दो दो नागपडिमाओ, दो दो जक्खपडिमाओ, दो दो भूतपडिमाओ दो दो कुंडधारपडिमाओ (विणयोवणयाओ पायवडियाओ पंजलिउडाओ) सण्णिक्खित्ताओ चिटुंति, सव्वरयणामईओ, अच्छाओ सण्हाओ लण्हाओ घट्ठाओ मट्ठाओ णीरयाओ णिप्पंकाओ जाव पडिरूवाओ। तासिं णं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठसयं घंटाणं, अट्ठसयं चंदणकलसाणं एवं अट्ठसयं भिंगारगाणं, एवं आयंसगाणं थालाणं सुपइट्ठकाणं मणोगुलियाणं वातकरगाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं हयकंठगाणं जाव उसभकंठगाणं पुप्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुप्फपडलगाणं अट्ठसयं तेलसमुग्गाणं जाव धूवकडुच्छुयाणं सण्णिक्खित्तं चिट्ठइ। तस्स णं सिद्धायतणस्स उप्पिं बहवे अट्ठट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता उत्तिमागारा Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सोलसविहेहिं रयणेहिं उवसोभिया तं जहा-रयणेहिं जाव रिटेहिं। _[१३९] (२) उन जिनप्रतिमाओं के पीछे अलग-अलग छत्रधारिणी प्रतिमाएं कही गई हैं। वे छत्रधारण करने वाली प्रतिमाएं लीलापूर्वक कोरंट पुष्प की मालाओं से युक्त हिम, रजत, कुन्द और चन्द्र के समान सफेद आतपत्रों (छत्रों) को धारण किये हुये खड़ी हैं। उन जिनप्रतिमाओं के दोनों पार्श्वभाग में अलग-अलग चंवर धारण करने वाली प्रतिमाएँ कही गई हैं। वे चामरधारिणी प्रतिमाएँ चन्द्रकान्त मणि, वज्र, वैडूर्य आदि नाना मणिरत्नों व सोने से खचित और निर्मल बहुमूल्य तपनीय स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र दंडों एवं शंख-अंकरन-कुंद-जलकण, चांदी एवं क्षीरोदधि को मथने से उत्पन्न फेनपुंज के समान श्वेत, सूक्ष्म और चांदी के दीर्घ बाल वाले धवल चामरों को लीलापूर्वक धारण करती हुई स्थित हैं। उन जिनप्रतिमाओं के आगे दो-दो नाग प्रतिमाएँ, दो-दो यक्ष प्रतिमाएँ, दो-दो भूत प्रतिमाएँ, दोदो कुण्डधार प्रतिमाएँ (विनययुक्त पादपतित और हाथ जोड़े हुई) रखी हुई हैं। वे सर्वात्मना रत्नमयी हैं, स्वच्छ हैं, मृदु हैं, सूक्ष्म पुद्गलों से निर्मित हैं, घृष्ट-मृष्ट,नीरजस्क, निष्पंक यावत् प्रतिरूप हैं। उन जिनप्रतिमाओं के आगे एक सौ आठ घंटा, एक सौ आठ चन्दनकलश, एक सौ आठ झारियां तथा इसी तरह आदर्शक, स्थाल, पात्रियां, सुप्रतिष्ठक, मनोगुलिका, जलशून्य घड़े, चित्र, रत्नकरण्डक, हयकंठक यावत् वृषभकंठक, पुष्पचंगेरियाँ यावत् लोमहस्तचंगेरियाँ, पुष्पपटलक, तेलसमुद्गक यावत् धूप के कडुच्छुक-ये सब एक सौ आठ, एक सौ आठ वहाँ रखे हुए हैं। उस सिद्धायतन के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं, जो उत्तम आकार के सोलह रत्न यावत् रिष्टरत्नों से उपशोभित हैं। २ उपपातादि सभा-वर्णन १४०. तस्सणं सिद्धाययणस्सणं उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थणंएगा महं उववायसभा पण्णत्ता। जहा सुधम्मा तहेव जाव गोमाणसीओ। उयवायसभाए वि दारा मुहमंडवा सव्वं भूमिभागे तहेव जाव मणिफासो। (सुहम्मासभावत्तव्वया भाणियव्वा जाव भूमीए फासो।) तस्स णं बहुसमरमणिज्जस भूमिभागस्स बहुमज्जदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमयो अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते।तस्स णं देवसयणिज्जस्स वण्णओ उववायसभाए णं उप्पिं अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता जाव उत्तिमागारा। तीसेणं उववायसभाए उत्तरपुरस्थिमेणं एत्थणंएगे महं हरए पण्णत्ते।सेणंहरए अद्धतेरस १. कोष्ठकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है। २. अत्र संग्रहणिगाथे चंदणकलसा भिंगारगा य आयंसगा य थाला य। पाईओ सुपइट्ठा मणगुलिया वायकरगा य ॥१॥ चित्ता रयणकरंडा हय-गय-नर-कंठगा य चंगेरी। पडला सीहासण-छत्त-चामरा समुग्गकजुया य॥२॥ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: उपपातादिसभा-वर्णन] जोयणाई आयामेणं छ जोयणाई सक्कोसाइं विक्खंभेणं दस जोयणाइं उव्वेहेणं अच्छे सण्हे वण्णओ जहेव णंदाणं पुक्खरिणीणं जाव तोरण वण्णओ । [४०३ तस्स णं हरयस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एग महं अभिसेयसभा पण्णत्ता जहा सभा सुहम्मा तं चेव निरवसेसं जाव गोमाणसीओ भूमिभाए उल्लोए तहेव । तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता, जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमया अच्छा। तीसे णं मणिपेढियाए उप्पिं एत्थ णं महं एगे सीहासणे पण्णत्ते सीहासणवण्णओ अपरिवारो । तत्थ णं विजयदेवस्स सुबहु अभिसेक्के भंडे सण्णिक्खित्ते चिट्ठति । अभिसेयसभाए उप्पिं अट्ठट्ठमंगलगा जाव उत्तिमागारा सोलसविधेहिं रयणेहिं उवसोहिए । तीसे णं अभिसेयसहाए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं अलंकारियसभा वत्तव्वया भाणियव्वा जाव गोमाणसीओ मणिपेढियाओ जहा अभिसेयसभाए उप्पिं सीहासणं अपरिवारं । तत्थ णं विजयदेवस्स सुबहु अलंकारिए भंडे सन्निक्खित्ते चिट्ठइ । अलंकारियसभाए उप्पिं अट्टमंगलगा झया जाव छत्ताइछत्ता उत्तमगारा० । तीसे णं अलंकारियसहाए उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा महं ववसायसभा पण्णत्ता । अभिसेयसभावत्तव्वया जाव सीहासणं अपरिवारं । तत्थ णं विजयस्स देवस्स एगं महं पोत्थयरयणं सन्निक्खित्ते चिट्ठ । तस्स णं पोत्थयरयणस्स अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा - रिट्ठामईओ कंबियाओ रययामयाइं पत्तकाइं रिट्ठामयाई अक्खराइं ' तवणिज्जमए दोरे णाणामणिमए गंठी, वेरुलियए लिप्पासणे तवणिज्जमई संकला रिट्ठमए छादने रिट्ठामई मसी वइरामई लेहणी, धम्मिए सत्थे। ववसायसभाए णं उप्पिं अट्ठट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता उत्तिमागारेति । .ती से णं ववसायसभाए ? उत्तरपुरत्थिमेणं एगे महं बलिपेढे पण्णत्ते दो जोयणाई आयामविक्खंभेणं जोयणं बाहल्लेणं सव्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे । तस्स णं बलिपेढस्स उत्तरपुरत्थिमेणं एत्थ णं एगा मह णंदापुक्खरणी पण्णत्ता जं चेव माणं हरयस्स तं चैव सव्वं । [१४०] उस सिद्धायतन के उत्तरपूर्व दिशा ( ईशानकोण) में एक बड़ी उपपातसभा कही गई है। सुधर्मासभा की तरह गोमाणसी पर्यन्त सब वर्णन यहाँ भी कर लेना चाहिए। उपपातसभा में भी द्वार, मुखमण्डप आदि सब वर्णन, भूमिभाग, यावत् मणियों का स्पर्श आदि कह लेना चाहिए। (यहाँ सुधर्मासभा की वक्तव्यता भूमिभाग और मणियों के स्पर्शपर्यन्त कहनी चाहिए ।) १. अंकमयाई पत्ताई इति पाठान्तरम् । 'अंकमयाई पत्ताइं रिट्ठामयाई अक्खराई, अयं पाठः वइरामई लेहमी' – इत्यस्यानन्तरं वृत्तौ व्याख्यातः । २. 'उववाय सभाए' इति वृत्तौ पाठः । ३. अत्र प्रथमं जीर्णपुस्तके नन्दापुष्करीणीविवेचनं वर्तते पश्चात् वलिपीठस्य परं च टीकायां प्रथमं बलिपीठस्य पश्चात् नंदायाः । Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उस बहुसमरणीय भूमिभाग के मध्य में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन लम्बीचौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्वरत्नमय और स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा देवशयनीय कहा गया है। उस देवशयनीय का वर्णन पूर्ववत् कह लेना चाहिए। उस उपपातसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजा और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के हैं और रत्नों से सुशोभित हैं। उस उपपातसभा के उत्तर-पूर्व में एक बड़ा सरोवर कहा गया है। वह सरोवर साढे बारह योजन लम्बा, छह योजन एक कोस चौड़ा और दस योजन ऊँड़ा है। वह स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है आदि नन्दापुष्करिणीवत् वर्णन करना चाहिए। (वह सरोवर एक पद्मवरवेदिका और वनखण्ड से घिरा हुआ है। यहाँ पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन कर लेना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियां स्थित होती हैं यावत् पूर्वकृत पुण्यकर्मों के विपाक का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उस हृद की तीन दिशाओं में त्रिसोपानप्रतिरूपक हैं। यहाँ त्रिसोपानप्रतिरूपकों का वर्णन कहना चाहिए यावत् तोरणों का वर्णन कहना चाहिए। ऐसा वृत्ति में उल्लेख है।) उस सरोवर के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी अभिषेकसभा कही गई है। सुधर्मासभा की तरह उसका पूरा वर्णन कर लेना चाहिए। गोमाणसी, भूमिभाग, उल्लोक आदि सब सुधर्मासभा की तरह जानना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक बड़ी मणिपीठिका कही गई है। वह एक योजन लम्बी-चौड़ी और आधा योजन मोटी है, सर्व मणिमय और स्वच्छ है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक बड़ा सिंहासन है। यहाँ सिंहासन का वर्णन करना चाहिए, परिवार का कथन नहीं करना चाहिए। उस सिंहासन पर विजयदेव के अभिषेक के योग्य सामग्री रखी हुई है। अभिषेकसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ, छत्रातिछत्र कहने चाहिए, जो उत्तम आकार के और सोलह रनों से उपशोभित हैं। उस अभिषेकसभा के उत्तरपूर्व में एक विशाल अलंकारसभा है। उसकी वक्तव्यता गोमाणसी पर्यन्त अभिषेकसभा की तरह कहनी चाहिए। मणिपीठिका का वर्णन भी अभिषेकसभा की तरह जानना चाहिए। उस मणिपीठिका पर सपरिवार सिंहासन का कथन करना चाहिए। उस सिंहासन पर विजयदेव के अलंकार के योग्य बहुत सी सामग्री रखी हुई है। उस अलंकारसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार के और रत्नों से सुशोभित हैं। उस अलंकारिक सभा के उत्तरपूर्व में एक बड़ी व्यवसायसभा कही गई है। परिवार रहित सिंहासन पर्यन्त सब वक्तव्यता अभिषेकसभा की तरह कहनी चाहिए। उस सिंहासन पर विजयदेव का पुस्तकरत्न रखा हुआ है। उस पुस्तकरत्न का वर्णन इस प्रकार है-रिष्टरत्न की उसकी कंबिका (पुढे) हैं, चांदी के उसके पन्ने हैं, रिष्टरत्नों के अक्षर हैं, तपनीय स्वर्ण का डोरा है (जिसमें पन्ने पिरोये हुए हैं), नानामणियों की उस डोरे में गांठे हैं (ताकि पन्ने अलग अलग न हों), वैडूर्यरत्न का मषिपात्र (दावात) है, तपनीय स्वर्ण की उस दावात की सांकल हैं, रिष्टरत्न का ढक्कन है, रिष्टरत्न की स्याही है, वज्ररत्न की लेखनी है। वह ग्रन्थ धार्मिक शास्त्र है। उस व्यवसायसभा के ऊपर आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रातिछत्र हैं जो उत्तम आकार Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४०५ के हैं यावत् रत्नों से शोभित हैं। उस ' व्यवसायसभा के उत्तर-पूर्व में एक विशाल बलिपीठ है। वह दो योजन लम्बा-चौड़ा और एक योजन मोटा है। वह सर्वरत्नमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। उस बलिपीठ के उत्तर-पूर्व में एक बड़ी नन्दापुष्करिणी कही गई है। उसका प्रमाण आदि वर्णन पूर्व वर्णित हृद के समान जानना चाहिए। विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक १४१.(१) तेणं कालेणं तेणं समएणं विजए देवे विजयाए रायहाणीए उववातसभाए देवसयणिज्जंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्सअसंखेज्जइभागमेत्तीए बोंदीए विजयदेवत्ताए उववण्णे। तए णं से विजए देवे अहुणोववण्णमेत्तए चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपजत्तीए, सरीरपज्जत्तीए, इंदियपज्जत्तीए आणापाणुपज्जत्तीए भासामणपज्जतीए। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तीभावं गयस्स इमेएयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-किं मे पुव्वं सेयं कि मे पच्छा सेयं, किं मे पुव्वि करणिज्जं किं मे पच्छा करणिज्जं किं मे पुव्वि वा पच्छा वा हियाए सुहाए खेमाए णिस्सेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सतीति कटु एवं संपेहेइ। तए णं तस्स विजयदेवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा विजयस्सदेवस्स इमं एयारूवं अज्झत्थियं चिंतियं पत्थियं मणोगयं संकप्पं समुप्पणं जाणित्ता जेणामेव से विजए देवे तेणामेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं देवं करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं वद्धति, जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी-एवं खलु देवणुप्पियाणं विजयाए रायहाणीए सिद्धायतणंसि अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणुस्सेहपमाणमेत्ताणं सन्निक्खित्तं चिट्ठइ, सभाए य सुधम्माए माणवए चेइयखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु बहूओ जिणसकहाओ सन्निक्खित्ताओ चिटुंति, जाओ णं देवाणुप्पियाणं अन्नेसि य बहूणं विजयराजहाणिवत्थव्वाणं देवाणंदेवीणय अच्चणिज्जाओवंदणिज्जाओ पूयणिज्जाओसक्कारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासणिज्जाओ। एतं णं देवाणुप्पियाणं पुवि पि सेयं, एतं णं देवाणुप्पियाणं पच्छा वि सेयं, एयं णं देवाणुप्पियाणं पुट्विं करणिज्जं पच्छा करणिज्जं एयं णं देवाणुप्पियाणं पुट्वि वा जाव आणुगामियत्ताए भविस्सइ त्ति कटु महया महया जयजयसई पउंजंति। __ [१४१] (१) उस काल और उस समय में विजयदेव विजया राजधानी की उपपातसभा में देवशयनीय में देवदूष्य के अन्दर अंगुल के असंख्यातवें भागप्रमाण शरीर में विजयदेव के रूप में उत्पन्न हुआ। तब वह विजयदेव उत्पत्ति के अनन्तर (उत्पन्न होते ही) पांच प्रकार की पर्याप्तियों से पूर्ण हुआ। वे पांच पर्याप्तियाँ इस प्रकार हैं-१ आहारपर्याप्ति, २ शरीरपर्याप्ति, ३ इन्द्रियपर्याप्ति, ४ आनप्राणपर्याप्ति और ५ भाषामनपर्याप्ति। १. भाषा और मनःपर्याप्ति-एक साथ पूर्ण होने के कारण उनके एकत्व की विवक्षा की गई है। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तदनन्तर पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुए विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयस्कर है, पश्चात क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, मुझे पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिए पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा। वह इस प्रकार चिन्तन करता है। तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव के उस प्रकार के अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को उत्पन्न हुआ जानकर जिस ओर विजयदेव था उस ओर वे आते हैं और आकर विजयदेव को हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं। बधाकर वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत सी जिन अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहने वाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप हैं तथा पर्युपासना करने योग्य हैं। यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी श्रेयस्कर हैं, पश्चात् भी श्रेयस्कर हैं; यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी करणीय हैं और पश्चात् भी करणीय हैं; यह आप देवानुप्रिय के लिए पहले और बाद में हितकारी यावत् साथ में चलने वाला होगा, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से जलजयकार शब्द का प्रयोग करते हैं। १४१. [२] तए णं से विजए देवे तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमढेसोच्चाणिसम्म हट्टतुटुजाव हियए देवसयणिज्जाओअब्भुढेइ अब्भुद्वित्ता, दिव्वं देवदूसजुयलं परिहेइ, परिहेइत्ता देवसयणिज्जाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता उववायभाओ पुरत्थिमेणं दारेणं णिग्गच्छइ,णिग्गच्छित्ता जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताहरयंअणुपयाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरथिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता पुरत्थिमेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता हरयं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलावगाहणं करेइ, करित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता जलकिट्ठे करेइ, करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए हरआओ पच्चुत्तरइ पच्चुत्तरित्ता जेणामेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिसेयसभं पदाहिणं करेमाणे पुरस्थिमिल्लेणं दारेण अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसण्णे। [१४१] (२) उन सामानिक पर्षदा के देवों से ऐसा सुनकर वह विजयदेव हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ। वह देवशयनीय से उठता है और उठकर देवदूष्य युगल धारण करता है, धारण करके देवशयनीय से नीचे उतरता है, उतर कर उपपातसभा से पूर्व के द्वार से बाहर निकलता है और जिधर ह्रद (सरोवर) है उधर जाता है, हृद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है और पूर्वदिशा के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतरता है और जल में अवगाहन करता है। जलावगाहन करके जलमज्जन (जल में डुबकी लगाना) और जलक्रीड़ा करता है । इस प्रकार अत्यन्त पवित्र और शुचिभूत होकर Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४०७ ह्रद से बाहर निकलता है और जिधर अभिषेकसभा है उधर जाता है। अभिषेकसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है और जिस ओर सिंहासन रखा है उधर जाता है और पूर्वदिशा की ओर मुख करके सिंहासन पर बैठ जाता है। १४१.[३] तए णं तस्स विजयदेवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आभिओगिए देवे सद्दावेंति सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं इंदाभिसेयं उवट्टवेह। तए णं ते आभिओगिया देवा सामाणियपरिसोववण्णगेहिं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ तुटु जाव हियया करतलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कटु एवं देवा! तहत्ति आणाए विणएणं वयणं पडिसुणंति, पडिसुणित्ता उत्तरपुरस्थिमं दिसिभागं अवक्कमंति, अवक्कमित्ता वेउव्वियसमुग्घाएणं समोहणंति समोहणित्ता संखेन्जाइं जोयणाई दंडं णिस्सरंति, तहाविहे रयणाणं जाव रिट्ठाणं अहाबायरे पोग्गले परिसाडंति परिसाडित्ता अहासुहमे पोग्गले परियायंति परियाइत्ता दोच्चंपिवेउव्वियसमुग्घाएणंसमोहणंति समोहणित्ता अट्ठसहस्संसोवणियाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं रुप्पामयाणं कलसाणं, अट्ठसहस्सं मणिमयाणं, अट्ठसहस्सं सुवण्णरूप्पामयाणं अट्ठसहस्सं सुवण्णमाणिमयाणं अट्ठसहस्सं रूप्पामणिमयाणं अट्ठसहस्सं भोमेज्जाणं अट्ठसहस्सं भिंगारागाणं एवं आयंसगाणं थालाणं पासाई सुपतिट्ठकाणं चित्ताणं रयणकरंडगाणं पुष्फचंगेरीणं जाव लोमहत्थचंगेरीणं पुष्फपडलगाणं जाव लोमहत्थपडलगाणं अट्ठसयं सीहासणाणं छत्ताणंचामराणं अवपडगाणं ( वट्टकाणं तवसिप्पाणं खोरकाणं पीणकाणं) तेलसमुग्गकाणं अट्ठसयं धूवकडुच्छुयाणं विउव्वंति, ते साभाविए विउव्विए ये कलसे य जाव धूवकडुच्छए य गेण्हंति, गेण्हित्ता विजयाओ रायहाणीओ पडिणिक्खमंति, पडिणिक्खमित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव उद्धयाए दिव्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं मझेणं वीयीवयमाणा वीयीवयमाणा जेणेव खीरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति। तेणेव उवागच्छित्ता खीरोदय गिण्हित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति, गिण्हत्ता जेणेव पुक्खरोदे समुद्दे तेणेव उवागच्छंति उवागच्छित्ता पुक्खरोदगं गेण्हंति, पुक्खरोदगं गिण्हित्ता जाइं तत्थ उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई ताई गिण्हंति गिण्हित्ता जोणेव समयखेत्ते जेणेव भरहेरवयाई वासाइं जेणेव मागधवरदामपभासाइं तित्थाई तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता तित्थोदगं गिण्हंति, गिणिहत्ता तित्थमट्टियं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव गंगासिंधुरत्तरात्तवईसलिला तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सरितोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता उभओ तडमट्टियं गेण्हंति गेण्हित्ता जेणेव चुल्लहिमवंतसिहरिवासधरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य सव्वपुप्फे य सव्वगंधे य सव्वमल्ले य सव्वोसहिसिद्धत्थए गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव पउमद्दह-पुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता दहोदगं गेण्हंति, जाइं तत्थ उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई ताइं गेहंति, ताई गेण्हित्ता जेणेव हेमवय-हेरण्यवयाइं जेणेवरोहिय-रोहितंस-सुवण्णकूल-रुप्पकूलाओ तेणेव १. कोष्टाकान्तर्गत पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र ४०८ ] उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेण्हंति, गेण्हित्ता उभओ तडमट्टियं गिण्हंति गेण्हित्ता जेणेव सद्दावातिमालवंतपरियागा वट्टवेतढपव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतूवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव महाहिमवंत - रुप्पिवासधरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य तं चेव जेणेव महापउमद्दह - महापुंडरीयद्दहा तेणेव उवागच्छंति, तेणेव उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पलाइं तं चेव, तेणेव हरिवासे रम्मावासे त्ति जेणेव हरकंत-हरिकंत णरकंत-नारिकंताओ सलिलाओ तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सलिलोदगं गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव वियडावइ-गंधावइ वट्टवेयड्ढपव्वया तेणेव उवागच्छंति सव्वपुप्फे य तं चेव जेणेव णिसह - नीलवंत वासहरपव्वया तेणेव उवागच्छंति, सव्वतुवरे य तहेव जेणेव तिगिच्छिदहकेसरिद्दहा तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता जाई तत्थ उप्पालाई तं चेव, जेणेव पुव्वविदेहावरविदेहवासाइं जेणेव सीया- सीयोदाओ महाणईओ जहा णईओ, जेणेव सव्वचक्कवाट्टिविजया जेणेव सव्वमागह- वरदामपभासाइं तित्थाइं तहेव, जेणेव सव्ववक्खारपव्वया सव्वतुवरे य, जेणेव सव्वंतरणदीओ सलिलोदगं गेण्हांत तं चेव । जेणेव मंदरे पव्वए जेणेव भद्दासालवणे तेणेव उवागच्छंति, सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए गेहंति, गेण्हित्ता जेणेव णंदणवणे तेणेव उवागच्छंति, सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसं गोसीसचंदणं गिण्हंति, गिण्हित्ता जेणेव सोमणसवणे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता सव्वतुवरे य जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए य सरसगोसीसचंदणं दिव्वं य सुमणदामं गेण्हंति, गेण्हित्ता जेणेव पंडगवणे तेणामेव समुवागच्छंति समुवागच्छित्ता सव्वतुवरे जाव सव्वोसहिसिद्धत्थए सरसं य गोसीसचंदणं दिव्वं ये सुमणोदामं दद्दरयमलयसुगंधिए य गंधे गेण्हंति, गेण्हित्ता एगओ मिलंति, मिलित्ता जंबूद्दीवस्स पुरत्थिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छंति, निग्गच्छित्ता ताए उक्किट्ठाए जाव दिव्वाए देवगईए तिरियमसंखेज्जाणं दीवसमुद्दाणं मज्झं-मज्झेणं वीयीवयमाणा वीड्वयमाणा जेणेव विजया रायहाणी तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता विजयं रायहाणिं अणुप्पयाहिणं करेमाणा करेमाणा जेणेव अभिसेयसभा जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु जएणं विजएणं वद्धावेंति; विजयस्स देवस्स तं महत्थं महग्घं महरिहं विउलं अभिसेयं उवट्टवेंति । [१४१] (३) तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देवों ने अपने आभियोगिक (सेवक) देवों को बुलाया और कहा हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव के महार्थ (जिसमें बहुत रत्नादिक धन का उपयोग हो), महार्घ (महापूजा योग्य), महार्ष ( महोत्सव योग्य) और विपुल इन्द्राभिषेक की तैयारी करो । तब वे आभियोगिक देव सामानिक पर्षदा के देवों द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए यावत् उनका हृदय विकसित हुआ । हाथ जोड़कर मस्तक पर अंजलि लगाकर 'देव ! आपकी आज्ञा प्रमाण है' ऐसा कहकर विनयपूर्वक उन्होंने उस आज्ञा को स्वीकार किया। वे उत्तरपूर्व दिशाभाग में जाते हैं, वैक्रिय-समुद्घात से समवहत होकर संख्यात योजन का दण्ड निकालते हैं (अर्थात् आत्मप्रदेशों को शरीरप्रमाण बाहल्य में संख्यात योजन तक ऊँचे-नीचे दण्डाकृति में शरीर से बाहर निकालते हैं - फैलाते हैं) रत्नों से यावत् रिष्टरत्नों के Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४०९ तथाविध बादर पुद्गलों को छोड़ते हैं और यथासूक्ष्म पुद्गलों को ग्रहण करते है। तदनन्तर दुबारा वेक्रिय समवहत होते हैं और एक हजार आठ सोने के कलश, एक हजार आठ चाँदी के कलश, एक हजार आठ मणियों के कलश, एक हजार आठ सोने-चांदी के कलश, एक हजार आठ सोने-मणियों के कलश, एक हजार आठ चांदी-मणियों के कलश, एक हजार आठ मिट्टी के कलश, एक हजार आठ झारियां, इसी प्रकार आदर्शक, स्थाल, पात्री, सुप्रतिष्ठक, चित्र, रत्नकरण्डक, पुष्पचंगेरियां यावत् लोमहस्तकचंगेरियां, पुष्पपटलक यावत् लोमहस्तपटलक, एक सौ आठ सिंहासन, छत्र, चामर, ध्वजा, (वर्तक, तपःसिप्र, क्षौरक, पीनक), तेलसमुद्गक और एक सौ आठ धूप के कडुच्छुक (धूपाणिये) अपनी विक्रिया से बनाते हैं। उन स्वाभाविक और वैक्रिय से निर्मित कलशों यावत् धूपकडुच्छुकों को लेकर विजया राजधानी से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् उद्धृत (तेज) दिव्य देवगति से तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप समुद्रों के मध्य से गुजरते हुए जहाँ क्षीरोदसमुद्र है वहाँ आते हैं और वहाँ का क्षीरोदक लेकर वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्रों को ग्रहण करते हैं। वहाँ से पुष्करोसमुद्र की ओर जाते हैं और वहाँ का पुष्करोदक और वहाँ के उत्पल, कमल यावत् शतपत्र, सहस्रपत्रों के लेते हैं । वहाँ से वे समयक्षेत्र में जहाँ भरत-ऐरवत वर्ष (क्षेत्र) है और जहाँ मागध, वरदाम और प्रभास तीर्थ हैं वहाँ आकर तीर्थोदक को ग्रहण करते हैं तथा तीर्थों की मिट्टी लेकर जहाँ गंगा-सिन्धु, रक्ता-रक्तवती महानदियाँ हैं वहाँ आकर उनका जल ग्रहण करते हैं और नदीतटों की मिट्टी लेकर जहाँ क्षुल्ल हिमवंत और शिखरी वर्षधर पर्वत हैं ऊधर आते हैं और वहाँ से सर्व ऋतुओं के श्रेष्ठ सब जाति के फूलों, सब जाति के गंधों, सब जाति के माल्यों (गूंथी हुई मालाओं), सब प्रकार की औषधियों और सिद्धार्थकों (सरसों) को लेते हैं। वहाँ से पद्मद्रह और पुण्डरीकद्रह की ओर जाते हैं और वहाँ से द्रहों का जल लेते हैं और वहाँ के उत्पल कमलों यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेते हैं। वहाँ से हेमवत और हैरण्यवत क्षेत्रों में रोहित-रोहितांशा, सुवर्णकूला और रूप्यकूला महानदियों पर आते हैं और वहाँ का जल और दोनों किनारों की मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहाँ से शब्दापति और माल्यवंत नाम के वट्टवैताढ्य पर्वतों पर जाते हैं और वहाँ के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों यावत् सर्वोषधि और सिद्धर्थकों के लेते हैं। वहाँ से महाहिमवंत और रुक्मि पर्वतों पर जाते हैं, वहाँ के सब ऋतुओं के पुष्पादि लेते हैं। वहाँ से महापद्मद्रह और महापुंडरीकद्रह पर आते हैं, वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं। वहाँ से हरिवर्ष रम्यकवर्ष की हरकान्त-हरिकान्त-नरकान्त-नारिकान्त नदियों पर आते हैं और वहाँ का जल ग्रहण करते हैं । वहाँ से विकटापाति और गंधापाति वट्ट वैताढ्यं पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों को ग्रहण करते हैं। वहाँ से निषध और नीलवंत वर्षधर पर्वतों पर आते हैं और सब ऋतुओं के पुष्पादि ग्रहण करते है। वहाँ से तिगिंछद्रह और केसरिद्रह पर आते हैं और वहाँ के उत्पल कमलादि ग्रहण करते हैं । वहाँ से पूर्वविदेह और पश्चिम विदेह की शीता, शीतोदा महानदियों का जल और दोनों तट की मिट्टी ग्रहण करते हैं । वहाँ से सब चक्रवर्ती विजयों (विजेतव्यों) के सब मागध, वरदाम और प्रभास नामक तीर्थों पर आते हैं और तीर्थों का पानी और मिट्टी ग्रहण करते हैं। वहाँ से सब वक्षस्कार पर्वतों पर जाते हैं। वहाँ के सब ऋतुओं के फल आदि ग्रहण करते हैं। वहाँ से सब अन्तर नदियों पर आकर वहाँ का जल और तटों की Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र मिट्टी ग्रहण करते हैं। इनके बाद वे मेरुपर्वत के भद्रशालवन में आते हैं। वहां के सर्व ऋतुओं के फूल यावत् सर्वोषधि और सिद्धार्थक ग्रहण करते हैं । वहाँ से नन्दनवन में आते हैं, वहाँ के सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूल यावत् सर्वोषधियाँ और सिद्धार्थक तथा सरस गोशीर्ष चन्दन ग्रहण करते हैं। वहाँ से सौमनसवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल यावत् सौषधियाँ, सिद्धार्थक और सरस गोशीर्ष चन्दन तथा दिव्य फूलों की मालाएँ ग्रहण करते हैं। वहाँ से पण्डकवन में आते हैं और सब ऋतुओं के फूल, सर्वौषधियाँ, सिद्धार्थक, सरस गोशीर्ष चन्दन, दिव्य फूलों की माला और कपडछन्न किया हुआ मलय-चन्दन का चूर्ण आदि सुगन्धित द्रव्यों को ग्रहण करते हैं। तदनन्तर सब आभियोगिक देव एकत्रित होकर जम्बूद्वीप के पूर्वदिशा के द्वार से निकलते हैं और उस उत्कृष्ट यावत् दिव्य तेजगति से चलते हुए तिरछी दिशा में असंख्यात द्वीप-समुद्रों के मध्य होते हुए विजया राजधानी में आते हैं। विजया राजधानी की प्रदक्षिणा करते हुए अभिषेकसभा में विजयदेव के पास आते हैं और हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय के शब्दों से उसे बधाते हैं। वे महार्थ, महार्घ और महार्ह विपुल अभिषेक सामग्री को उपस्थित करते हैं । १४१.[४] तते णं तं विजयदेवं चत्तारि य सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ तिणि परिसाओ सत्त अणीया सत्त अणीयाहिवई सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अन्ने य बहवे विजयारायहाणिवत्थव्वगा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं साभाविएहिँ उत्तरवेउव्विएहिं य वरकमलपइट्ठाणेहिं सुरभिवरवारिपडिपुण्णेहिं चंदणकयचच्चाएहिं आविद्धकंठगुणेहिं पउमुप्पलपिधाणेहिं करतलसुकुमालकोमलपरिग्गहिएहिं अट्ठसहस्साणं सोवणियाणं कलसाणं रुप्पमयाणं जाव अट्ठसहस्साणं भोमेजाणं कलसाणं सव्वोदएहिं सव्वमट्टियाहिँ सव्वतुवरेहिं सव्वपुफेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सविडीए सव्वजईए सव्वबलेणं सव्वसमुदएणं सव्वायरेणं सव्वविभूईए सव्वविभूयाए सव्वसंभमेणं (सव्वारोहेणं सव्वणाडएहिं) सव्वपुप्फगंधमल्लालंकारविभूसाए सव्वदिव्वतुडियणिणाएणं महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं महया तुरिय-जमगसमगपडुप्पवाइतरवेणं संख-पणव-पडह-भेरी-झल्लरिखरमुहि-हुडुक्क-मुरज-मुयंग-दुंदुहि निग्योससन्निनाइयरवेणं महया महया इंदाभिसेगेणं अभिसिंचंति। [१४१] (४) तदनन्तर चार हजार सामानिक देव, सपरिवार चार अग्रमहिषियाँ, तीन पर्षदाओं के (यथाक्रम आठ हजार, दश हजार और बारह हजार) देव, सात अनीक, सात अनीकाधिपति, सोलह हजार आत्मरक्षक देव और अन्य बहुत से विजया राजधानी के निवासी देव-देवियाँ उन स्वाभाविक और उत्तरवैक्रिय से निर्मित श्रेष्ठ कमल के आधार वाले, सुगन्धित श्रेष्ठ जल से भरे, चन्दन से चर्चित, गलों में मौलि बंधे हुए, पद्मकमल के ढक्कन वाले, सुकुमार और मृदु करतलों में परिगृहीत एक हजार आठ सोने के, एक हजार आठ चाँदी के यावत् एक हजार आठ मिट्टी के कलशों के सर्वजल से, सर्व मिट्टी से, सर्व ऋतु के श्रेष्ठ सर्व पुष्पों से यावत् सौषधि और सरसों से सम्पूर्ण परिवारादि ऋद्धि के साथ, सम्पूर्ण द्युति के साथ, सम्पूर्ण हस्ती आदि सेना के साथ, सम्पूर्ण आभियोग्य समुदय (परिवार) के साथ, समस्त आदर से, समस्त विभूति १. 'सव्वारोहेण सव्णाडएहिं' पाठ वृत्ति में नहीं है। Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेवका उपपात और उसका अभिषेक] [४११ से, समस्त विभूषा से, समस्त संभ्रम (उत्साह) से (सर्वारोहण सर्व स्वरसामग्री से सर्व नाटकों से) समस्त पुष्प-गंध-माल्य अलंकार रूप विभूषा से, सर्व दिव्य वाद्यों की ध्वनि से, महती (बहुत बड़ी) ऋद्धि, महती द्युति, महान् बल (सैन्य) महान् समुदय (आभियोग्य परिवार), महान् एक साथ पटु पुरुषों से बजाये गये वाद्यों के शब्द से, शंख, पणव (ढोल), नगाडा, झेरी, झल्लरी, खरमुही (काहला), हुडुक्क (बड़ा मृदंग), मुरज, मृदंग एवं दुंदुभि के निनाद और गूंज के साथ उस विजयदेव को बहुत उल्लास के साथ इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त करते हैं। १४१.[५] तए णंतस्स विजयदेवस्स महया महया इंदाभिसेगंसि वट्टमाणंसि अप्पेगइया देवा णच्चोदगंणातिमट्टियं पविरलफुसियं दिव्वं सुरभिं रयरेणुविणासणं गंधोदगवासं वासंति। अप्पेगइया देवा णिहत्तरयं ण?रयं भट्ठरयं पसंतरयं उवसंतरयं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं सब्भितरबाहिरियं आसित्तसम्मज्जितोवलित्तं सित्तसुइम्मट्ठरत्थंतरावणवीहियं करेंति। अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं मंचातिमंचकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं णाणाविहरागरंजियऊसिय जयविजयवेजयन्तीपडागाइपडागमंडियं करेंति।अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं लाउल्लोइयमहियं करेंति।अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं गोसीससरसरत्तचंदणददरदिण्णपंचंगुलितलं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं उवचियचंदणकलसं चंदणघडसुकयतोरणपडिदुवारदेसभागं करेंति।अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं आसत्तोसत्तविपुलवट्टवग्धारिमल्लदामकलावं करेंति, अप्पेगइया देवा विजयं रायहाणिं पंचवण्णसरससुरभिमुक्कपुष्फपुंजोवयारकलियं करेंति, अप्पेगइया देवा कालागुरुपवरकुंदरुक्कतुरुक्कधूवडज्झंतमघमधेतगंधद्धयाभिरामं सुगंधवरगंधियं गंधवट्टिभूयं करेंति। अप्पेगइया देवा हिरण्णवासं वासंति, अप्पेगइया देवा सुवणवासं वासंति, अप्पेगइया देवा एवं रयणवासं वइरवासं पुप्फवासं मल्लवासं गंधवासं चुण्णवासं वत्थवासं आभरणवासं। अप्पेगइया देवा हिरण्णविधिं भाइंति, एवं सुवण्णविधिं रयणविधिं वइरविधिं पुष्फविधिं चुण्णविधि गंधविधिं वत्थविधिं आभरणविधिं भाइंति। ___अप्पेगइया देवा दुयं णट्टविधिं उवदंसेंति, अप्पेगइया विलंबितं णट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगइया देवा दुयविलंबितं णट्टविधिं उवदंसेंति, अप्पेगइया देवा अंचियं नट्टविधिं उवदंसेंति, अप्पेगडया देवा रिभियंणडविधिं उवदंसेंति, अप्पेगडया देवाअंचियरिभितं णामं दिव्वंणटविधिं उवदंसेंति।अप्पेगइया देवा आरभडं णट्टविहिं उवदंसेंति,अप्पेगइया देवा भसोलंणट्टविहिं उवदंसेंति, अप्पेगइया देवा आरभडभसोलंणामं दिव्वंणट्टविहिं उवदंसेंति।अप्पेगइया देवा उप्पायणिवायपवुत्तं संकुचियपसारियं रियारियं भंतसंभंतं णामं दिव्वं नट्टविधिं उवदंसेंति।अप्पेगइया देवा चउव्विहं वाइयं वादेंति, तं जहा-ततं विततं घणं झुसिरं।अप्पेगइया देवा चउव्विहं गेयं गायंति, तं जहा-. उक्खित्तयं, पवत्तयं, मंदायं, रोइयावसाणं।अप्पेगइया देवा चउव्विहं अभिणयं अभिणयंति, तं जहा-दिटुंतियं, पाडंतियं सामंतोपणिवाइयं, लोगमज्झावसाणियं। Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र अप्पेगइया देवा पीणंति,अप्पेगइया देवा बुक्कारेंति,अप्पेगइया देवा तंडवेंति,अप्पेगइया देवा लासेंति, अप्पेगइया देवा पीणंति बुक्कारेंति तंडवेंति, लासेंति, अप्पेगइया देवा अप्फोडंति, अप्पेगइया देवा वग्गंति, अप्पेगइया देवा तिवतिं छिंदंति, अप्पेगइया देवा अप्फोडेंति वग्गंति तिवतिं छिंदंति, अप्पेगइया देवा हयहेसियं करेंति, अप्पेगइया देवा हत्थिगुलगुलाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा हयहेसियं करेंति हत्थिगुलगुलाइयं करेंति रहघणघणाइयं करेंति, अप्पेगइया देवा उच्छोलेंति, अप्पेगइया देवा पच्छोलेति, अप्पेगइया देवा उक्किट्ठिओ करेंति, अप्पेगइया देवा उच्छोलेंति पच्छोलेंति उक्किट्ठिओ करेंति, अप्पेगइया देवा सीहणादं करेंति, अप्पेगइया देवा पाददद्दरयं करेंति,अप्पेगइया देवा भूमिचवेडं दलयंति, अप्पेगइया देवा सीहणादं पाददद्दरयं भूमिचवेडं दलयंति,अप्पेगइया देवा हक्कारेंति अप्पेगइया देवा बुक्कारेंति, अप्पेगइया देवा थक्कारेंति,अप्पेगइया देवा पुक्कारेंति, अप्पेगइया देवानामाइं सावेंति, अप्पेगइया देवा हक्करेंति बुक्कारेंतिथक्कारेंति पुक्कारेंतिणामाइंसाति;अप्पेगइया देवा उप्पतंति अप्पेगइया देवाणिवयंति, अप्पेगइया देवा परिवयंति,अप्पेगइया देवा उप्पयंति णिवयंति परिवयंति, अप्पेगइया देवा जलंति, अप्पेगइया देवा तवंति, अप्पेगइया देवा पतवंति, अप्पेगइया देवा जलंति तवंति पतवंति,अप्पेगइया देवा गज्जेंति,अप्पेगइया देवा विज्जुयायंति,अप्पेगइया देवा वासंति, अप्पेगइया देवा गज्जति विजुयायंति वासंति, अप्पेगइया देवा सन्निवायं करेंति, अप्पेगइया देवा देवुक्कलियं करेंति, अप्पेगइया देवा देवकहकहं करेंति अप्पेगइया देवा दुहदुहं करेंति, अप्पेगइया देवा देवसन्निवायं देवउक्कलियं देवकहकहं देव दुहदुहं करेंति। अप्पेगइया देवा देवुज्जोयं करेंति अप्पेगइया देवा विज्जुयारं करेंति, अप्पेगइया देवा चेलुक्खेवं करेंति अप्पेगइया देवा देवुज्जोयं विजुयारं चेलुक्खेवं करेंति, अप्पेगइया देवा उप्पलहत्थगया जाव सहस्सपत्तहत्थगया घंटाहत्थगया-कलसहत्थगया जाव धूवकडुच्छगया हट्टतुट्ठा जाव हरिसवसविसप्पमाणहियया विजयाए रायहाणीए सव्वओ समंता आधाति परिधावेंति। [१४१] (५) तदनन्तर उस विजयदेव के महान् इन्द्राभिषेक के चलते हुए कोई देव दिव्य सुगन्धित जल की वर्षा इस ढंग से करते हैं जिससे न तो पानी अधिक होकर बहता है, न कीचड़ होता है अपितु विरल बूंदोंवाला छिड़काव होता है। जिससे रजकण और धूलि दब जाती है। कोई देव उस विजया राजधानी को निहतरजवाली, नष्टरज वाली, भ्रष्टरज वाली, प्रशान्तरज वाली, उपशान्तजल वाली बनाते हैं। कोई देव उस विजया राजधानी को अन्दर और बाहर से जल का छिड़काव कर, सम्मान (झाड़-बुहार) कर, गोमयादि से लीपकर तथा उसकी गलियों और बाजारों को छिड़काव से शुद्ध कर साफ-सुथरा करने में लगे हुए हैं। कोई देव विजया राजधानी में मंच पर मंच बनाने में लगे हुए हैं। कोई देव अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई एवं जयसूचक विजयवैजयन्ती नामक पताकाओं पर पताकाएँ लगाकर विजया राजधानी को सजाने में लगे हुए हैं, कोई देव विजया राजधानी को चूना आदि से पोतने में और चंदरवा आदि बांधने में तत्पर हैं। कोई देव गोशीर्ष चन्दन, सरस लाल चन्दन और चन्दन के चूरे के लेपों से अपने हाथों को लिप्त करके पांचों अंगुलियों के छापे लगा रहे हैं। कोई देव विजया राजधानी के घर-घर दरवाजों पर चन्दन के कलश रख Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४१३ रहे हैं। कोई देव चन्दन घट और तोरणों से घर-घर के दरवाजे सजा रहे हैं, कोई देव ऊपर से नीचे तक लटकने वाली बड़ी बड़ी गोलाकार पुष्पमालाओं से उस राजधानी को सजा रहे हैं, कोई देव पांच वर्णों के श्रेष्ठ सुगन्धित पुष्पों के पुंजों से युक्त कर रहे हैं, कोई देव उस विजया राजधानी को काले अगुरु उत्तम कुन्दुरुक्क एवं लोभान जला जलाकर उससे उठती हुई सुगन्ध से उस मघमंघायमान कर रहे हैं अतएव वह राजधानी अत्यन्त सुगन्ध से अभिराम बनी हुई है और विशिष्ट गन्ध की बत्ती सी बन रही है। कोई देव स्वर्ण की वर्षा कर रहे हैं, कोई चांदी की वर्षा कर रहे हैं, कोई रत्न की, कोई वज्र की वर्षा कर रहे हैं, कोई फूल बरसा रहे हैं, कोई मालाएँ बरसा रहे हैं, कोई सुगन्धित द्रव्य, कोई सुगन्धित चूर्ण, कोई वस्त्र और कोई आभरणों की वर्षा कर रहे है। कोई देव हिरण्य (चांदी) बांट रहे हैं, कोई स्वर्ण, कोई रत्न, कोई वज्र, कोई फूल, कोई माल्य, कोई चूर्ण, कोई गंध, कोई वस्त्र और कोई देव आभरण बांट रहे हैं। (परस्पर आदान प्रदान कर रहे हैं।) कोई देव द्रुत नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं, कोई देव विलम्बित नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं, कोई देव द्रुतविलम्बित नामक नाट्यविधि का प्रदर्शन करते हैं, कोई देव अंचित नामक नाट्यविधि, कोई रिभित नाट्यविधि, कोई अंचित-रिभित नाट्यविधि, कोई आरभट नाट्यविधि, कोई भसोल नाट्यविधि कोई आरभट-भसोल नाट्यविधि, कोई उत्पात-निपातप्रवृत्त, संकुचित-प्रसारित, रेक्करचित (गमनागमन) भ्रान्त-संभ्रान्त नामक नाट्यविधियाँ प्रदर्शित करते हैं। कोई देव चार प्रकार के वादिंत्र बजाते हैं । वे चार प्रकार ये हैं-तत, वितत, घन और झुषिर। कोई देव चार प्रकार के गेय गाते हैं। वे चार गेय ये हैं-उत्क्षिप्त, प्रवृत्त, मंद और रोचितावसान। कोई देव चार प्रकार के अभिनय करते हैं। वे चार प्रकार हैं-दार्टन्तिक, प्रतिश्रुतिक, सामान्यतोविनिपातिक और लोकमध्यावसान। . कोई देव स्वयं को पीन (स्थूल) बना लेते हैं-फुला लेते हैं, कोई देव ताण्डवनृत्य करते हैं, कोई देव लास्यनृत्य करते हैं, कोई देव छु-छु करते हैं, कोई देव उक्त चारों क्रियाएँ करते हैं, कोई देव आस्फोटन (भूमि पर पैर फटकारना) करते है, कई देव वल्गन (कूदना) करते हैं, कई देव त्रिपदीछेदन (ताल ठोकना) करते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएँ करते हैं। कोई देव घोड़े की तरह हिनहिनाते हैं, कोई हाथी की तरह गुड़गुड़ आवाज करते हैं, कोई रथ की आवाज की तरह आवाज निकालते हैं, कोई देव उक्त तीनों तरह की आवाजें निकलते हैं, कोई देव उछलते हैं, कोई देव विशेष रूप से उछलते हैं, कोई देव उत्कृष्टि अर्थात् छलांग लगाते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएँ करते हैं, कोई देव सिंहनाद करते हैं, कोई देव भूमि पर पांव से आघात करते हैं, कोई देव भूमि पर हाथ से प्रहार करते हैं, कोई देव उक्त तीनों क्रियाएँ करते हैं। कोई देव हक्कार करते हैं, कोई देव बुक्कार करते हैं, कोई देव थक्कार कहते हैं, कोई देव पुत्कार (फुफु) करते हैं, कोई देव नाम सुनाने लगते है, कोई देव उक्त सब क्रियाएँ करते हैं। कोई देव ऊपर उछलते हैं, कोई देव नीचे गिरते हैं, कोई देव तिरछे गिरते हैं, कोई देव ये तीनों क्रियाएँ करते हैं। कोई देव जलने लगते हैं, कोई देव ताप से तप्त होने लगते हैं, कोई खूब तपने लगते हैं, कोई देव Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र जलते-तपते-विशेष तपने लगते हैं, कोई देव गर्जना करते हैं, कोई देव बिजलियाँ चमकाते हैं, कोई देव वर्षा करने लगते हैं, कोई देव गर्जना, बिजली चमकाना और बरसाना तीनों काम करते हैं, कोई देव देवों का सम्मेलन करते हैं, कोई देव देवों को हवा में नचाते हैं, कोई देव देवों में कहकहा मचाते हैं, कोई देव हु हु हु हु करते हुए हर्षोल्लास प्रकट करते हैं, कोई देव उक्त सभी क्रियाएँ करते हैं, कोई देव देवोद्योत करते हैं, कोई देव विद्युत का चमत्कार करते हैं, कोई देव चेलोत्क्षेप (वस्त्रों को हवा में फहराना) करते हैं। कोई देव उक्त सब क्रियाएँ करते हैं। किन्हीं देवों के हथों में उत्पल कमल हैं यावत् किन्हीं के हाथों में सहस्रपत्र कमल हैं, किन्हीं के हाथों में घंटाएँ हैं, किन्हीं के हाथों में कलश हैं, यावत् किन्हीं के हाथों में धूप के कडुच्छक हैं। इस प्रकार वे देव हृष्ट-तुष्ट हैं यावत् हर्ष के कारण उनके हृदय विकसित हो रहे हैं। वे उस विजया राजधानी में चारों ओर इधर-उधर दौड़ रहे हैं-भाग रहे हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में कतिपय नाट्यविधियों, वाद्यविधियों, गेयों और अभिनयों का उल्लेख है। राजप्रश्नीयसूत्र में सूर्याभ देव के द्वारा भगवान् श्री महावीर स्वामी के सन्मुख बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियों का प्रदर्शन करने का उल्लेख है। वे बत्तीस नाट्यविधियाँ इस प्रकार हैं १. स्वस्तिकादि अष्टमंगलाकार अभिनयरूप प्रथम नाट्यविधि। २. आवर्त प्रत्यावर्त यावत् पद्मलताभक्ति चित्राभिनयरूप द्वितीय नाट्यविधि। ३. ईहामृगवृषभतुरगनर यावत् पद्मलताभक्ति चित्रात्मक तृतीय नाट्यविधि। ४. एकताचक्र द्विधाचक्र यावत् अर्धचक्रवालाभिनय रूप। ५. चन्द्रावलिप्रविभक्ति सूर्योद्गमप्रविभक्ति यावत् पुष्पावलिप्रविभक्ति रूप। ६. चन्द्रोद्गमप्रविभक्ति सूर्योद्गमप्रविभक्ति अभिनयरूप। ७. चन्द्रागमन-सूर्यागमनप्रविभक्ति अभिनयरूप। ८. चन्द्रावरणप्रविभक्ति सूर्यावरणप्रविभक्ति अभिनय रूप। ९. चन्द्रास्तमयनप्रविभक्ति सूर्यास्तमयनप्रविभक्ति अभिनय। १०. चन्द्रमण्डलप्रविभक्ति सूर्यमण्डलप्रविभक्ति यावत् भूतमण्डलप्रविभक्तिरूप अभिनय। ११. ऋषभमण्डलप्रविभक्ति सिंहमण्डलप्रविभक्ति यावत् मत्तगजविलम्बित अभिनय रूप द्रुतविलम्बित नाट्यविधि। १२. सागरप्रविभक्ति नागप्रविभक्ति अभिनय रूप। १३. नन्दाप्रविभक्ति चम्पाप्रविभक्ति रूप अभिनय। १४. मत्स्याण्डकप्रविभक्ति यावत् जारमारप्रविभक्ति रूप अभिनय। १५. ककारप्रविभक्ति यावत् डकारप्रविभक्ति रूप अभिनय। १६. चकारप्रविभक्ति यावत् बकारप्रविभक्ति रूप अभिनय। १७. टकारप्रविभक्ति यावत् णकारप्रविभक्ति । १८. तकारप्रविभक्ति यावत् नकारप्रविभक्ति। Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति :विजयदेवका उपपात और उसका अभिषेक] [४१५ १९. पकारप्रविभक्ति यावत् मकार प्रविभक्ति। २०. अशोकपल्लवप्रविभक्ति यावत् कोशाम्बपल्लवप्रविभक्ति। २१. पद्मलताप्रविभक्ति यावत् श्यामलताप्रविभक्ति रूप अभिनय। २२. द्रुत नामक नाट्यविधि। २३. विलम्बित नामक नाट्यविधि। २४. द्रुतविलम्बित नामक नाट्यविधि। २५. अंचित नामक नाट्यविधि। २६. रिभित नामक नाट्यविधि। २७. अंचित-रिभित नामक नाट्यविधि। २८. आरभट नामक नाट्यविधि। २९. भसोल नामक नाट्यविधि। ३०. आरभट-भसोल नामक नाट्यविधि। ३१. उत्पातनिपातप्रसक्त संकुचितप्रसारित रेकरचित (रियारिय) भ्रान्त-सम्भ्रान्त नामक नाट्यविधि। ३२. चरमचरमनामानिबद्धनामा-भगवान वर्धमान स्वामी का चरम पूर्व मनुष्यभव, चरम देवलोक भव, चरम च्यवन, चरम गर्भसंहरण, चरम तीर्थंकर जन्माभिषेक, चरम बालभाव, चरम यौवन, चरम निष्क्रमण, चरम तपश्चरण, चरम ज्ञानोत्पाद, चरम तीर्थप्रवर्तन, चरम परिनिर्वाण को बताने वाला अभिनय। उक्त बत्तीस प्रकार की नाट्यविधियों में से कुछ का ही उल्लेख इस सूत्र में किया गया है। वाद्य चार प्रकार के हैं- (१) तत-मृदंग, पटह आदि। (२) वितत-वीणा आदि। (३) घन-कंसिका आदि। (४) शुषिर-बांसुरी (काहला) आदि। गेय चार प्रकार के हैं (१) उत्क्षिप्त-प्रथम आरंभिक रूप। (२) प्रवृत्त-उत्क्षिप्त अवस्था से अधिक ऊँचे स्वर से गेय। (३) मन्दाय-मध्यभाग में मूर्छनादियुक्त मंद-मंद घोलनात्मक गेय। (४) रोचितावसान-जिस गेय का अवसान यथोचित रूप से किया गया हो। अभिनेय के चार प्रकार हैं (१) दार्टान्तिक (२) प्रतिश्रुतिक (३) सामान्यतोविनिपातिक और (४) लोकमध्यावसान । इनका स्वरूप नाट्यकुशलों द्वारा जानना चाहिए। Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र १४१.[६] तए णं तं विजयं देवं चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ चत्तारि अग्गमहिसीओ सपरिवाराओ जाव सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ अण्णे य बहवे विजयरायहाणीवत्थव्वा वाणमंतरा देवा य देवीओ य तेहिं वरकमलपइट्ठणेहिं जाव अट्ठसएणं सोवण्णयाणं कलसाणं तं चेव जाव अट्ठसएणं भोमेज्जाणं कलसाणं सव्वोदगेहिं सव्वमट्टियाहिं सव्वतुवरेहिं सव्वपुप्फेहिं जाव सव्वोसहिसिद्धत्थएहिं सव्विड्डीए जाव निग्घोसनाइयरवेणं महया महाया इंदाभिसेएणं अभिसिंचंति।अभिसिंचित्ता पत्तेयं पत्तेयं सिरसावत्तं अंजलिं कटु एवं वयासी-जय जय नंदा! जय जय भद्दा ! जयजय नंदभद्दा ! ते अजियं जिणेहि जियं पालयाहि,अजितं जिणेहि सत्तुपक्खं, जितं पालेहि मित्तपक्खं,जियमझे वसाहि तं देव! निरुवसग्गं इंदो इव देवाणं, चंदो इव ताराणं, चमरो इव असुराणं,धरणो इव नागाणंभरहो इव मणुयाणंबहूणि पलिओवमाइंबहूइंसागरोवमाणि चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जाव आयरक्खदेवसाहस्सीणं (विजयस्स देवस्स) विजयाए रायहाणीए अण्णेसिं च बहूणं विजयारायहाणिवत्थव्वाणं वाणमंतराणं देवाण य देवीण य आहेवच्चं जाव आणाईसरं सेणावच्चं करेमाणे पालेमाणे विहराहि त्ति कट्ट महया महया सद्देणं जय जय सदं पउंजंति। [१४१] (६) तदनन्तर वे चार हजार सामानिक देव, परिवार सहित चार अगमहिषियाँ यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देव तथा विजया राजधानी के निवासी बहुत से वाणव्यन्तर देव-देवियाँ उन श्रेष्ठ कमलों पर प्रतिष्ठित यावत् एक सौ आठ स्वर्णकलशों यावत् एक सौ आठ मिट्टी के कलशों से, सर्वोदक से, सब मिट्टियों से, सब ऋतुओं के श्रेष्ठ फूलों से यावत् सौषधियों और सिद्धार्थकों में सर्व ऋद्धि के साथ यावत् वाद्यों की ध्वनि के साथ भारी उत्साहपूर्वक उस विजयदेव का इन्द्र के रूप में अभिषेक करते हैं। अभिषेक करके वे सब अलग-अलग सिर पर अंजलि लगाकर इस प्रकार कहते हैं-हे नंद ! आपकी जय हो विजय हो ! हे भद्र ! आपकी जय विजय हो ! हे नन्द ! हे भद्र ! आपकी जय-विजय हो। आप नहीं जीते हुओं को जीतिये, जीते हुओं का पालन कीजिये, अजित शत्रु पक्ष को जीतिये और विजितों का पालन कीजिये, हे देव ! जितमित्र पक्ष का पालन कीजिए और उनके मध्य में रहिए। देवों में इन्द्र की तरह, असुरों में चमरेन्द्र की तरह, नागकुमारों में धरणेन्द्र की तरह, मनुष्यों में भरत चक्रवर्ती की तरह आप उपसर्ग रहित हों ! बहुत से पल्योपम और बहुत से सागरोपम तक चार हजार सामानिक देवों का, यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का, इस विजया राजधानी का और इस राजधानी में निवास करने वाले अन्य बहुत से वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य यावत् आज्ञा-ऐश्वर्य और सेनाधिपत्य करते हुए, उनका पालन करते हुए आप विचरें। ऐसा कहकर बहुत जोर-जोर से जय-जय शब्दों का प्रयोग करते हैं-जय-जयकार करते हैं। १४२. [१] तएं णं से विजए देवे महया महया इंदाभिसेएणं अभिसित्ते समाणा सीहासणाओ अब्भुट्टेइ, सीहासणाओ अब्भुट्टित्ताअभिसेयसभाओ पुरथिमेणंदारेणं पडिनिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता जेणामेव अलंकारियसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अलंकारियसभं अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरत्थिमेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४१७ उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सन्निसण्णे। तएणं तस्स विजयस्स देवस्स सामाणियपरिसोववण्णगा देवा आभिजोगिए देवे सद्दावेंति, सद्दावित्ता एवं वयासी-खिप्पामेव देवणुप्पिया ! विजयस्स देवस्स अंलकारियं भंडं उवणेह। तहेव ते अलंकारियं भंडं जाव उवट्ठवेंति। तए णं से विजए देवे तप्पढमयाए पम्हलसूमालाए दिव्वाए सुरभीए गंधकासाईए गायाई लूहेइ, गायाइं लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता (तओऽणंतरं च णं) नासाणीसासवायवोझं चक्खहरं वण्णफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखइयंतकम्मं आगासफलिहसरिसप्पभं अहयं दिव्वं देवदूसजुयलं णियंसेइ णियंसेत्ता हारं पिणद्धेइ, पिणिवेत्ता एवं एकावलिं पिणद्धेइ, एवं एएणं आभिलावेणं मुत्तावलिं रयणावलिं कडगाइंतुडियाइं अंगयाइं केयूराइंदसमुद्दियाणंतकं कडिसुत्तकं (तेअस्थिसुत्तगं) मुरविं कंठमुरविं पालंबंसि कुंडलाइं चूडामणिचित्तरयणुक्कडं मउडं पिणद्धेइ पिणिद्धित्ता १ गंठिमवेढिमपूरिमसंघाइमेणं चउव्विहेणं मल्लेणं कप्परुक्खयंपिव अप्पाणं अलंकिय विभूसियं करेइ, करेत्ता दद्दरमलयसुगंधगंधिएहिं गंधेहिं गायाई सुक्किडइ, सुक्किडित्ता दिव्वं च सुमणदामं पिणद्धेइ। तए णं से विजए देवे केसालंकारेण वत्थालंकारेण मल्लालंकारेण आभरणालंकारेण चउव्विहेण अलंकारेण विभूसिए समाणे पडिपुण्णालंकारे सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता अलंकारियसभाओ पुरथिमिल्लेणंदारेणं पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ताजेणेव ववसायसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता ववसायसभं अणुप्पदाहिणं करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरत्थाभिमुहे सण्णिसण्णे। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स आहिओगिया देवा पोत्थयरयणं उवणेति। तए णं से विजए देवे पोत्थयरयणं गेण्हइ, गेण्हित्ता पोत्थयरयणं मुयइ, पोत्थयरयणं मुएत्ता पोत्थयरयणं विहाडेइ, विहाडेत्ता पोत्थयरयणंवाएइ, वाएत्ता धम्मियं ववसायं पगेण्हइ, पगेण्हित्ता पोत्थयरयणं पडिणिक्खवेइ, पडिणिक्खवित्ता सीहासणाओ अब्भुढेइ, अब्भुट्टित्ता ववसायसहाओ पुरथिमिल्लेणंदारेणं पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ताजेणेवणंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवगच्छित्ता णंदं पुक्खरिणिं अणुप्पयाहिणी करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता पुरथिमिल्लेणं तिसोपाणपडिरूवगेणं पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता हत्थं पायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता एगं महं रययामयं विमलसलिलपुण्णं मत्तगयमहामुहागिइसमाणं भिंगारं पगिण्हइ, भिंगारं पगिण्हित्ता जाइं तत्थ उप्पलाइं पउमाइं जाव सयपत्तसहस्सपत्ताइं ताई गिण्हइ, गिण्हित्ता णंदाओ पुक्खरिणीओ पच्चुत्तरेइ पच्चुत्तरित्ताजेणेव सिद्धायतणे तेणेव पहारेत्थ गमणाए। १. अत्र 'दिव्वं च सुमणदामं पिणद्धेई इत्येवं पाठः दृश्यते वृत्यनुसारेण । 'गंठिम० इत्यादि यावत् अलंकियविभूसियं करेइ करेत्ता परिपुण्णालंकारे सीहसणाओ अब्भुटेइ' एवंभूतो पाठः संभाव्यते वृत्तिव्याख्यानुसारेण। Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. ४१८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [१४२] (१) तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठता है और उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर निकलता है और अलंकारसभा की ओर जाता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। प्रवेश कर जिस ओर सिंहासन था उस ओर आकर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा। ____ तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और ऐसा कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड (सिंगारदान) लाओ।' वे आभियोगिक देव आलंकारिक भाण्ड लाते हैं। तब विजयदेव ने सर्वप्रथम रोएदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंधकाषायिक (तौलिये) से अपने शरीर को पोंछा। शरीर पोंछ कर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया। लेप लगाने के पश्चात् श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े की लाला (लार) से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, आकाश और स्फटिकरत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य-युगल को धारण किया। तदनन्तर हार पहना, और एकावली, मुक्तावली, कनकावली और रत्नावली हार पहने, कडे, त्रुटित (भुजबंद), अंगद (बाहु का आभरण) केयूर दसों अंगुलियों में अंगूठियाँ, कटिसूत्र (करधनी-कंदोरा), त्रि-अस्थिसूत्र (आभरण विशेष) मुरवी, कंठमुरवी, प्रालंब (शरीर प्रमाण स्वर्णाभूषण) कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहुत रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट धारण किया। ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम, और संघातिम-इस प्रकार चार तरह की मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया। फिर दर्दर मलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमनरत्न (फूलों की माला) को धारण किया। तदनन्तर वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार-ऐसे चार अलंकारों से अलंकृत होकर और परिपूर्ण अलंकारों से सज्जित होकर सिंहासन से उठा और आलंकारिक सभा के पूर्व के द्वार से निकलकर जिस ओर व्यवसायसभा है, उस ओर आया। व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ और जहाँ सिंहासन था उस ओर जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। तदनन्तर. उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न लाकर उसे अर्पित करते हैं। तब वह विजयदेव उस पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है, पुस्तकरत्न को अपनी गोद में लेता है, पुस्तकरत्न को खोलता है और पुस्तकरत्न का वाचन करता है। पुस्तकरत्न का वाचन करके उसके धार्मिक मर्म को ग्रहण करता है (उसमें अंकित धर्मानुगत व्यवसाय को करने की इच्छ करता है)। तदनन्तर पुस्तकरत्न को वहाँ रखकर सिंहासन से उठता है और व्यवसायसभा के पूर्ववर्ती द्वार से बाहर निकल कर जहाँ नन्दापुष्करिणी है, वहाँ आता है। नंदापुष्करिणी की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। पूर्व के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतर कर हाथ-पांव धोता है और एक बड़ी श्वेत चांदी की मत्त हाथी के मुख की आकृति की विमलजल से भरी हुई झारी को ग्रहण करता है और वहाँ के उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेता है और नंदापुष्करिणी से बाहर निकल कर जिस ओर सिद्धायतन है उस ओर जाने का संकल्प किया (उधर जाने लगा। Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक ] १४२. [२] तए णं तस्स विजयदेवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ जाव अण्णे य बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य अप्पेगड्या उप्पलहत्थगया जाव (सयसहस्सपत्त ) हत्थगया विजयं देवं पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छंति । तए णं तस्स विजयस्स देवस्स बहवे आभिओगिया देवा य देवीओ य कलसहत्थगया जाव धूवकडुच्छयहत्थगया विजयं देवं पिट्ठओ पिट्ठओ अणुगच्छंति । [४१९ तए णं से विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव अण्णेहिं य बहूहिं वाणमंतरेहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे सव्विड्डीए सव्वज्जुईए जाव णिग्घोसणादियरवेणं जेणेव सिद्धाययणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे करेमाणे पुरथिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव देवच्छंदए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए जिणपडिमाणं पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थगं गेण्हति लोमहत्थगं गेण्हित्ता जिणपडिमाओ लोमहत्थएणं पमज्जति, पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदएणं ण्हाणेइ ण्हाणित्ता दिव्वाए सुरभिगंधकासाइएणं गायाइं लूहेइ, लूहित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाइं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता जिणपडिमाणं अहयाइं सेयाइं दिव्वाइं देवदूसजुयलाई णियंसेइ, णियंसित्ता अग्गेहिं वरेहिं ये गंधेहि य मल्लेहि य अच्चेइ, अच्चित्ता पुप्फारुहणं गंधारुहणं मल्लारुहणं वण्णारुहणं चुण्णारुहणं आभरणारुहणं करेइ, करित्ता आसत्तोसत्त - विउल - वट्टवग्घारियमल्ल-दामकलावंकरेड़, करित्ता अच्छेहिं सण्हेहिं ( सेएहिं ) रययामएहिं अच्छरसातंदुलेहिं जिणपडिमाणं पुरओ अट्ठट्ठमंगल आलिहति सोत्थिय सिखिच्छ जाव दप्पणा, आलिहित्ता कयग्गाहगहियकरतलपब्भट्ठविप्पमुक्केणं दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फ पुंजोवयारकलियं करेइ, करेत्ता चंदप्पभवइरवेरुलियविमलदंडं कंचणमणिरयणभत्तिचित्तं कालागुरुपवरकुंदुरुक्क धूवगंधुत्तमाणुविद्धं धूमवहिं विणिमयंत वेरुलियामयं कडुच्छुयं पग्गहित्तु पयत्तेणं धूवं दाऊण सत्तट्ठपयाइं ओसरइ ओसरित्ता जिणवराणं अट्ठसयविसुद्धगंथजुत्तेहिं महावित्तेहिं अत्थजुत्तेहिं अपुणरुत्तेहिं संथुणइ, संथुणित्ता वामं जाणं अंचेइ, अंचित्ता दाहिणं जाणुं धरणितलंसि णिवावेइ तिक्खुत्तो मुद्धाणं धरणियसि मेई, मित्ता ईसिं पच्चण्णमइ, पच्चुण्णमित्ता कडयतुडियथंभियाओ भुयाओ पडिसाहरइ, पडिसाहरित्ता करयलपरिग्गहियं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कट्टु एवं वयासी - 'णमोत्थु णं अरिहंताणं भगवंताणं जाव सिद्धिगइणामधेयं ठाणं संपत्ताणं' तिकट्टु वंदति णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता जेणेव सिद्धायतणस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइँ, उवागच्छित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खड़, अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलं आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, चच्चए दलइत्ता कयग्गाहग्गहियकरतलपब्भट्ठविमुक्केणं दसद्धवण्णेणं कुसुमेणं मुक्कपुप्फपुंजोवयारकलियं करेइ, करित्ता धूवं दलयइ, दलइत्ता जेणेव सिद्धायतणस्स दाहिणिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थयं गेण्हइ, गेण्हित्ता दारचेडीओ य सालभंजियाओ य वालरूवए य लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता बहुमज्झदेसभा सरसेणं गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं अणुलिंपइ, अणुलिंपित्ता चच्चइ दलयइ, दलइत्ता पुप्फारुहणं जाव आभरणारुहणं करेइ, करित्ता आसत्तोसत्तविउलवट्टवग्घारियमल्लदामकलावं Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र करेइ, करित्ता कयग्गाहगहिय जाव पुष्फपुंजोवयारकलियं करेइ, करेत्ता धूवं दलयइ, दलइत्ता जेणेव मुहमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहुमज्झदेसभाए लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता सरसेण गोसीसचंदणेणं पंचंगुलितलेणं मंडलगं आलिहइ, आलिहित्ता चच्चए दलयइ, कयग्गाह० जाव धूवं दलयइ, दलइत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स पच्चत्थिमिल्ले दारे तेणेव उवागच्छइ। _ [१४२] (२) तदनन्तर विजयदेव के चार हजार सामानिक देव यावत् और अन्य भी बहुत सारे वानव्यन्तर देव और देवियां कोई हाथ में उत्पल कमल लेकर यावत् कोई शतपत्र सहस्रपत्र कमल हाथों में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। उस विजयदेव के बहुत सारे आभियोगिक देव और देवियां कोई हाथ में कलश लेकर यावत् धूप का कडुच्छुक हाथ में लेकर विजयदेव के पीछे-पीछे चलते हैं। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् अन्य बहुत सारे वानव्यन्तर देवों और देवियों के साथ और उनसे घिरे हुए सब प्रकार की ऋद्धि और सब प्रकार की युति के साथ यावत् वाद्यों की गूंजती हुई ध्वनि के बीच जिस ओर सिद्धायतन था, उस ओर आता है और सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से सिद्धायतन में प्रवेश करता है और जहां देवछंदक था वहाँ आता है और जिन प्रतिमाओं को देखते ही प्रणाम करता है। फिर लोमहस्तक लेकर जिन प्रतिमाओं का प्रमार्जन करता है और सुगंधित गंधोदक से उन्हें नहलाता है, दिव्य सुगंधित गंधकाषायिक (तौलिए) से उनके अवयवों को पोंछता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का उनके अंगों पर लेप करता है, फिर जिनप्रतिमाओं को अक्षत, श्वेत और दिव्य देवदूष्य-युगल पहनाता है और श्रेष्ठ, प्रधान गंधों से, माल्यों से उन्हें पूजता है; पूजकर फूल चढ़ाता है, गंध चढाता है, मालाएँ चढ़ाता है-वर्णक (केसरादि) चूर्ण और आभरण चढ़ाता है। फिर ऊपर से नीचे तक लटकती हुई, विपुल और गोल बड़ी-बड़ी मालाएं चढ़ाता है। तत्पश्चात् स्वच्छ, सफेद, रजतमय और चमकदार चावलों से जिनप्रतिमाओं के आगे आठ-आठ मंगलों का आलेखन करता है। वे आठ मंगल हैंस्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण। आठ मंगलों का आलेखन करके कचग्राह से गृहीत और करतल से मुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है (फूल पूजा करता है)। चन्द्रकान्त मणिवज्रमणि और वैडूर्यमणि से युक्त निर्मल दण्ड वाले, कंचन मणि और रत्नों से विविधरूपों में चित्रित, काला अगुरु श्रेष्ठ कुंदरुक्क और लोभान के धूप की उत्तम गंध से युक्त, धूप की वाती को छोड़ते हुए वैडूर्यमय कडुच्छक को लेकर सावधानी के साथ धूप देकर साथ आठ पांव पीछे सरक कर जिनवरों की एक सौ आठ विशुद्ध ग्रन्थ (शब्द संदर्भ) युक्त, महाछन्दों वाले, अर्थयुक्त और अपुनरुक्त स्तोत्रों से स्तुति करता है। स्तुति करके बायें घुटने को ऊँचा रखकर तथा दक्षिण (दायें) घुटने को जमीन से लगाकर तीन बार अपने मस्तक को जमीन पर नमाता है, फिर थोड़ा ऊँचा उठाकर अपनी कटक और त्रुटित (बाजूबंद) से स्तंभित भुजाओं को संकुचित कर हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि करके इस प्रकार बोलता है-'नमस्कार हो अरिहन्त भगवन्तों को यावत् जो सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त हुए हैं।' ऐसा कहकर वन्दन करता है, नमस्कार करता है। वन्दन-नमस्कार करके जहाँ सिद्धायतन का मध्यभाग है वहाँ आता है और दिव्य जल की धारा से उसका Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति :विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४२१ सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से हाथों को लिप्तकर पांचों अंगुलियों से एक मंडल बनता है, उसकी अर्चना करता है और कचग्राह ग्रहीत और करतल से विमुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्षों के फूलों से उसको पुष्पोपचारयुक्त करता है और धूप देता है। धूप देकर जिधर सिद्धायतन का दक्षिण दिशा का द्वार है उधर जाता है। वहां जाकर लोमहस्तक लेकर द्वारशाखा, शालभंजिका तथा व्यालरूपक का प्रमार्जन करता है, उसके मध्यभाग को सरस गोशीर्ष चन्दन से लिप्त हाथों से लेप लगाता है, अर्चना करता है, फूल चढ़ाता हैं, यावत् आभरण चढ़ाता है, ऊपर से लेकर जमीन तक लटकती बड़ी बड़ी मालाएँ रखता है और कचग्राह ग्रहीत और करतल विप्रमुक्त फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है और जिधर मुखमण्डप का बहुमध्यभाग है वहां जाकर लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से लिप्त पंचागुलितल से मण्डल का आलेखन करता है, अर्चना करता है, कचग्राहग्रहीत और करतलविमुक्त होकर बिखरे हुए पांच वर्गों के फूलों का ढेर लगाता है, धूप देता है और जिधर मुखमण्डप का पश्चिम दिशा का द्वार है, उधर जाता है। १४२.[३] उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हइ, गेण्हित्ता दारचेडीओ य सालभंजियाओ य वालरूवए यलोमहत्थगेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं जाव चच्चए दलयइ, दलइत्ता आसतोसत्त० कयग्गाह० धूवं दलयइ, धूवंदलइत्ता जेणेव मुहमंडवगस्स उत्तरिल्लाणं खंभपंती तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं परामुसइ, सालभंजियाओ दिव्वाए उदगधाराए० सरसेणं गोसीसचंदणेणं पुप्फारुहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवंदलयइ, जेणेव मुहमंडवस्स पुरथिमिल्लेदारेतं चेव सव्वं भाणियव्वं जावदारस्स अच्चणिया।जेणेव दाहिणिल्ले दारे तं चेव पेच्छाघरमंडवस्स बहुमज्झदेसभाए जेणेव वइरामए अक्खाडए जेणेवमणिपेढिया जेणेव सीहासणेतेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गिण्हइ,गिणिहत्ता अक्खाडगंय सीहासणंय लोमहत्थगेण पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ० पुप्फारुहणं जाव धूवं दलयइ। जेणेव पेच्छाघरमण्डवस्स पच्चत्थिमिल्ले दारे दारच्चणिया उत्तरिल्ला खंभपंती तहेव पुरथिमिल्ले दारे तहेव जेणेव दाहिणिल्ले दारे तहेव जेणेव चेइयथूभे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगं गेण्हइ, गेण्हित्ता चेइयथूभेलोमहत्थेणं पमज्जइं, दिव्वाए दगधाराए० सरसेणं० पुप्फारुहणं आसत्तोसत्त० जाव धूवं दलयइ, दलयित्ता जेणेव पच्चत्थिमिल्ला मणिपेढिया जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आलोए पणामं करेइ, करित्ता लोमहत्थगं गेण्हइ, गेण्हित्ता तं चेव सव्वं जं जिणपडिमाणं जाव सिद्धगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं वंदति णमंसइ। एवं उत्तरिल्लाए वि, एवं पुरथिमिल्लाए वि, एवं दाहिणिल्लाए वि।जेणेव चेइयरुक्खा दारविही य मणिपेढिया जेणेव महिंदज्झए दारविही, जेणेव दहिणिल्ला नंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, लोमहत्थगं गेण्हइ, चेइयाओ य तिसोवाणपडिरूवए य तोरणे य सालभंजियाओ य वालरूवए यलोमहत्थगेण पमज्जइ, दिव्वाए दगधाराए सिंचइ सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ, पुण्फारुहणं जाव धूवं दलयइ, दलइत्ता सिद्धायतणं अणुप्पयाहिणं करेमाणे जेणेव उत्तरिल्ला गंदा पुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, तहेव Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र महिंदज्झया चेइयरुक्खो चेइयथ्रुभो, पच्चत्थिमिल्ला मणिपेढिया जिणपडिमा उत्तरिल्ला पुरथिमिल्ला दक्खिणिल्ला पेच्छाघरमंडवस्स वि तहेव जहा दक्खिणिल्लस्स पच्चत्थिमिल्ले दारे जाव दक्खिणिल्ला णं खंभपंती मुहमंडवस्स वि तिण्हं दाराणं अच्चणिया भाणिऊणं दक्खिणिल्लाणं खंभपंती उत्तरे दारे पुरच्छिमे दारे सेसं तेणेव कमेण जाव पुरथिमिल्ला दापुक्खरिणी जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए । ४२२ ] [१४२] (३) (मुखमण्डप के पश्चिम दिशा के द्वार पर) आकर लोमहस्तक लेता है और द्वारशाखाओं, शालभंजिकाओं और व्यालरूपक का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है यावत् अर्चन करता है, ऊपर से नीचे तक लम्बी लटकती हई बड़ी बड़ी मालाएँ रखता है, कचग्राहग्रहीत करतलविमुक्त पांच वर्णों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है । फिर मुखमंडप की उत्तर दिशा की स्तंभपंक्ति की ओर जाता हैं, लोमहस्तक से शालभंजिकाओं का प्रमार्जन करता है, दिव्य जलधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, फूल चढ़ाता यावत् बड़ी बड़ी मालाएं रखता है, कचग्राहग्रहीत करतलविमुक्त होकर बिखरे फूलो से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है। फिर मुखमण्डप के पूर्व के द्वार की ओर जाता है और वह सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए यावत् द्वार की अर्चना करता है । इसी तरह दक्षिण दिशा के द्वार में वैसा ही कथन करना चाहिए । फिर प्रेक्षाघरमण्डप के बहुमध्यभाग में जहाँ वज्रमय अखाड़ा है, जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ सिंहासन है वहाँ आता हैं, लोमहस्तक लेता है, अखाडा, मणिपीठिका और सिंहासन का प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन करता है, फूल चढ़ाता है यावत् धूप देता है। फिर प्रेक्षाघरमण्डप के पश्चिम द्वार में द्वारपूजा, उत्तर की खंभपंक्ति में वैसा ही कथन, पूर्व के द्वार में वैसा ही कथन, . दक्षिण के द्वार में भी वही कथन करना चाहिए । फिर जहाँ चैत्यस्तूप है वहाँ आता है, लोमहस्तक से चैत्यस्तूप का प्रमार्जन, उदकधारा से सिंचन, सरस चन्दन से लेप, पुष्प चढ़ाना, मालाएँ रखना, धूप देना आदि विधि करता है । फिर पश्चिम की मणिपीठिका और जिनप्रतिमा है वहाँ जाकर जिनप्रतिमा को देखते ही नमस्कार करता है, लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है आदि कथन यावत् सिद्धिगति नामक स्थान को प्राप्त अरिहन्त भगवन्तों को वन्दन करता है, नमस्कार करता है । इसी तरह उत्तर की, पूर्व की और दक्षिण की मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं के विषय में भी कहना चाहिए। फिर जहाँ दाक्षिणात्य चैत्यवृक्ष है वहाँ जाता है, वहाँ पूर्ववत् अर्चना करता है । वहाँ से महेन्द्रध्वज के पास आकर पूर्ववत् अर्चना करता है । वहाँ से दाक्षिणात्य नंदापुष्करिणी के पास आता है, लोमहस्तक लेता है और चैत्यों, त्रिसोपानप्रतिरूपक, तोरण, शालभंजिकाओं और व्यालरूपकों का प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन से लेप करता है, फूल चढ़ाता है यावत् धूप देता है । तदनन्तर सिद्धायतन की प्रदक्षिणा करता हुआ जिधर उत्तर दिशा की नंदापुष्करिणी है उधर जाता है । उसी तरह महेन्द्रध्वज चैत्यवृक्ष, चैत्यस्तूप, पश्चिम की मणीपीठिका और जिनप्रतिमा, उत्तर पूर्व और दक्षिण की मणिपीठिका और जिनप्रतिमाओं का कथन करना चाहिए। तदनन्तर उत्तर के प्रेक्षाघरमण्डप में आता है, वहाँ दक्षिण के प्रेक्षागृहमण्डप की तरह सब कथन करना चाहिए। वहाँ से उत्तरद्वार से निकलकर उत्तर के 1 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४२३ मुखमण्डप में आता है। वहाँ दक्षिण के मुखमण्डप की भांति सब विधि करके उत्तर द्वार से निकल कर सिद्धायतन के पूर्वद्वार पर आता है। वहाँ पूर्ववत् अर्चना करके पूर्व के मुखमण्डप के दक्षिण, उत्तर और पूर्ववर्ती द्वारों में क्रम से पूर्वोक्त रीति से पूजा करके पूर्वद्वार से निकल कर पूर्वप्रेक्षामण्डप में आकर पूर्ववत् अर्चना करता है। फिर पूर्व रीति से क्रमशः चैत्यस्तूप, जिनप्रतिमा, चैत्यवृक्ष, माहेन्द्रध्वज और नन्दापुष्करिणी की पूजा-अर्चना करता है। वहाँ से सुधर्मा सभा की ओर आने का संकल्प करता है। १४२. [४] तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ एयप्पभिई जाव सव्विड्डीए जावणाइयरवेणं जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तं णं सभं सुहम्मं अणुप्पयाहिणीकरेमाणे पुरथिमिल्लेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता आलोए जिणसकहाणं पणामं करेइ, करित्ताजेणेव मणिपेढिया जेणेव माणवचेइयखंभेजेणेव वइरामया गोलवट्टसमुग्गका तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता लोमहत्थगंगेण्हइ, गेण्हित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए लोमहत्थएण पमज्जइ, पमज्जित्ता वइरामए गोलवट्टसमुग्गए विहाडेइ, विहाडित्ता, जिणसकहाओ लोमहत्थेणं पमज्जइ, पमज्जित्ता सुरभिणा गंधोदगेणं तिसत्तखुत्तो जिणसकहाओ पक्खालेइ, पक्खालित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ अणुलिंपित्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहिं य अच्चिणइ, अच्चिणित्ता धूवंदलयइ, दलइत्ता वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसु पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता माणवकं चेइयखंभं लोमहत्थएणं पमज्जइ, पमज्जित्ता दिव्वाए उदगधाराए अब्भुक्खेइ, अब्भुक्खित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं चच्चए दलयइ, दलइत्ता पुप्फारुहणं जाव आसत्तोसत्त० कयग्गाह० धूवंदलयइ, दलइत्ता जेणेव सभाए सुहम्माए बहुमज्झदेसभाए तं चेव, जेणेव सीहासणे तेणेव जहा दारच्चणिया जेणेव देवसयणिज्जे तं चेव, जेणेव खुड्डागे महिंदज्झए तं चेव, जेणेव पहरणकोसे चोप्पाले तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पत्तेयं पत्तेयं पहरणाईलोमहत्थएणं पमज्जइं, पमज्जित्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं तहेव सव्वं सेसं पि दक्खिणदारं आदिकाउं तहेव णेयव्वं जाव पुरच्छिमिल्ला णंदापुक्खरिणी। सव्वाणं सभाणं जहा सुहम्माए सभाए तह अच्चणिया उववायसभाए णवरि देवसयणिज्जस्स अच्चणिया, सेसासु सीहासणाण अच्चणिया, हरयस्स जहा णंदाए पुक्खरिणीए अच्चणिया, ववसायसभाए पोत्थयरयणं लोम० दिव्वाए उदगधाराए सरसेणं गोसीसचंदणेणं अणुलिंपइ, अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं य मल्लेहिं य अच्चिणइ, अच्चिणित्ता सीहासणं लोमहत्थएणं पमज्जइ जाव धूवं दलयइ सेसं तं चेव, णंदाए जहा हरयस्स तहा जेणेव बलिपीढं तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता आभिओगिए देवे सद्दावेइ, सद्दावित्ता एवं वयासीखिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य चउक्केसु य चच्चरेसु य चउम्मुहेसुये महापहपहेसुय पासाएसु य पागारेसुय अट्टालएसु य चरियासुय दारेसु य गोपुरेसु यतोरणेसुयवावीसु य पुक्खरिणीसुय जाव बिलपंतियासु य आरामेसु य उज्जाणेसु य काणणेसु य वणेसु य वणसंडेसु य वणराईसु य अच्चणियं करेह करित्ता ममेयमाणत्तियं खिप्पामेव पच्चप्पिणह। तए णं ते आभिओगिआ देवा विजएणं देवेणं एवं वुत्ता समाणा जाव हट्ठतुट्ठा विणएणं Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पडिसुणंति, पडिसुणित्ता विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य जाव अच्चणियं करेत्ता जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। तए णं से विजए देवे तेसिंणं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म हट्ठतुटुचित्तमाणंदिए जाव हयहियए जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए णंदापुक्खरिणीओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्त जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सव्विडीए जाव णिग्योसणादियरवेणंजेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणंदारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरच्छिमाभिमुहे सण्णिसण्णे। [१४२] (४) तब वह विजयदेव अपने चार हजार सामानिक देवों आदि अपने समस्त परिवार के साथ, यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा की ओर आता है और उसकी प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। प्रवेश करने पर जिन-अस्थियों को देखते ही प्रणाम करता है और जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ माणवक चैत्यस्तंभ है और जहाँ वज्ररत्न की गोल वर्तुल मंजूषाएँ हैं, वहाँ आता है और लोमहस्तक लेकर उन गोल-वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन करता हैं और उनको खोलता है, उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगन्धित गंधोदक से इक्कीस बार उनको धोता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, प्रधान और श्रेष्ठ गंधों और मालाओं से पूजता है और धूप देता है। तदनन्तर उनको उन गोल वर्तुलाकार मंजूषाओं में रख देता है। इसके बाद माणवक चैत्यस्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, फूल चढ़ाता है, यावत् लम्बी लटकती हुई फूलमालाएँ रखता है। कचग्राहग्रहीत और करतल से विमुक्त हुए बिखरे पांच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है। इसके बाद सुधर्मासभा के मध्यभाग में जहाँ सिंहासन है वहाँ आकर सिंहासन का प्रमार्जन आदि पूर्ववत् अर्चना करता है। इसके बाद जहाँ मणिपीठिका और देवशयनीय है वहाँ आकर पूर्ववत् पूजा करता है। इसी प्रकार क्षुल्लक महेन्द्रध्वज की पूजा करता है। इसके बाद जहाँ चौपालक नामक प्रहरणकोष [शस्त्रागार] है वहाँ आकर शस्त्रों का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन कर, चन्दन का लेप लगाकर, पुष्पादि चढ़ाकर धूप देता है। इसके पश्चात् सुधर्मासभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है, फिर दक्षिण द्रार से निकलता है। इससे आगे सारी वक्तव्यता सिद्धायतन की तरह कहना चाहिए यावत् पूर्वदिशा की नंदापुष्करिणी की अर्चना करता है। सब सभाओं की पूजा का कथन सुधर्मासभा की तरह जानना चाहिए। अन्तर यह है कि उपपातसभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करता चाहिए और शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना चाहिए। ह्रद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए। व्यवसायसभा में पुस्तकरत्न का लोमहस्तक से प्रमार्जन, दिव्य उदकधारा से सिंचन, सरस गोशीर्ष चन्दन से अनुलिपन, प्रधान Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति : विजयदेव का उपपात और उसका अभिषेक] [४२५ एवं श्रेष्ठ गंधों और माल्यों से अर्चन करता है। तदनन्तर सिंहासन का प्रमार्जन यावत् धूप देता है। शेष सब कथन पूर्ववत् करना चाहिए। हृद का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए। तदनन्तर जहाँ बलिपीठ है, वहाँ जाता है और वहाँ अर्चादि करके आभियोगिक देवों को बुलाता है और उन्हें कहता है कि 'हे देवानुप्रियो ! विजया राजधानी के शृंगाटकों [त्रिकोणस्थानों] त्रिकों [जहाँ तीन रास्ते मिलते हैं] चतुष्कों [जहाँ चार रास्ते मिलते हैं] चत्वरों [बहुत से रास्ते जहाँ मिलते हैं] चतुर्मुखों [जहाँ से चारों दिशाओं में रास्ते जाते हैं] महापथों [राजपथों] और सामान्य पथों में, प्रासादों में, प्राकारों में, अट्टालिकाओं में, चर्याओं [नगर और प्राकार के बीच आठ हाथ प्रमाण चौड़े अन्तराल मार्ग] में, द्वारों में, गोपुरों [प्राकार में द्वारों] में, तोरणों में, बावड़ियों में, पुष्करिणीओं में, यावत् सरोवरों की पंक्तियों में, आरामों में [लतागृहों में], उद्यानों में, काननों [नगर के समीप के वनों] में, वनों में [नगर से दूर जंगलों में], वनखण्डों [अनेक जाति के वृक्षसमूहों] में, वनराजियों [एकजातीय उत्तम वृक्षसमूहों] मं पूजा अर्चना करो और यह कार्य सम्पन्न कर मुझे मेरी आज्ञा सौंपो अर्थात् कार्यसमाप्ति की सूचना दो।' __तब वे आभियोगिकदेव विजयदेव द्वारा ऐसा कहे जाने पर हृष्ट-तुष्ट हुए और उसकी आज्ञा को स्वीकार कर विजया राजधानी के श्रृंगारकों में यावत् वनखण्डों में पूजा-अर्चना करके विजयदेव के पास आकर कार्य सम्पन्न करने की सूचना देते हैं। तब वह विजयदेव उन आभियोगिक देवों से यह बात सुनकर हृष्ट-तुष्ट और आनन्दित हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ। तदनन्तर वह नन्दापुष्करिणी की ओर जाता है और पूर्व के तोरण से उसमें प्रवेश करता है यावत् हाथ-पांव धोकर, आचमन करके स्वच्छ और परम शुचिभूत होकर नंदापुष्करिणी से बाहर आता है और सुधर्मासभा की ओर जाने का संकल्प करता है। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों के साथ यावत् सोलह हजार आत्मरक्षक देवों के साथ सर्वऋद्धिपूर्वक यावत् वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा की ओर आता है और सुधर्मा सभा के पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है तथा जहाँ मणिपीठिका है वहाँ जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठता है। १४३. तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि सामाणियसाहस्सीओ अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पत्तेय पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स चत्तारि अग्गमहिसीओ पुरथिमेणं पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति।तए णं तस्स विजयस्स देवस्स दाहिणपुरस्थिमेणं अब्भिंतरियाए परिसाए अट्ठ देवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं जाव णिसीयंत्ति। एवं दक्खिणेणं मज्झिमियाए परिसाए दस देवसाहस्सीओ जाव णिसीयंति। दाहिणपच्चत्थिमेणं बाहिरियाए परिसाए बारस देवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं जाव णिसीदंति। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पच्चत्थिमेणं सत्त अणियाहिवई पत्तेयं पत्तेयं जाव Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र णिसीयंति। तए णं तस्स विजयस्स देवस्स पुरत्थिमेणं दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं सोलस आयरक्खदेवसाहस्सीओ पत्तेयं पत्तेयं पुव्वणत्थेसु भद्दासणेसु णिसीयंति; तं जहा-पुरत्थिमेण चत्तारि साहस्सीओ जाव उत्तरेणं चत्तारि साहस्सीओ। तेणंआयरक्खा सन्नद्धबद्धवम्मियकवया, उप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगेवेज्जविमलवरचिंघपट्टा, गहियाउहपहरणा तिणयाइं तिसंधीणि वइरामया कोडीणि धणूई अहिगिज्झ परियाइयकंडकलावा णीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो चावपाणिणो चारुपाणिणो चम्मपाणिणो खग्गपाणिणो दंडपाणिणो पासपाणिणो णीलपीयरत्तचावचारुचम्मखग्गदंडपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगा गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेयं समयओ विणयओ किंकरभूयाविव चिट्ठति। तए णं से विजए देवे चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं सोलसण्हं आयरक्खदेवसाहस्सीणं विजयस्सणंदारस्स विजयाए रायहाणीए, अण्णेसिंच बहूणं विजयाए रायहाणीए वत्थव्वगाणं देवाणं देवीण य आहेवच्चं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टित्तं महत्तरगत्तं आणा-ईसर सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे महयाहयनट्टगीय-वाइय-तंती-तल-ताल-तुडिय-घण-मुइंग-पडुप्पवाइयरवेणं दिव्वाइं भोग-भोगाइं भुंजमाणे विहरइ। विजयस्स णं भंते ! देवस्स केवतियं कालं ठिई पण्णत्ता ? गोयमा ! एगं पलिओवमं ठिई पण्णत्ता। विजयस्सणंदेवस्स सामाणियाणं देवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता? एगं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता। एवं महड्डिए एवं महज्जुई एवं महब्बले एवं महायसे एवं महासुक्खे एवं महाणुभागे विजए देवे देवे। [१४३] तब उस विजयदेव के चार हजार सामानिक देव पश्चिमोत्तर, उत्तर और उत्तरपूर्व में पहले से रखे हुए चार हजार भद्रासनों पर अलग-अलग बैठते हैं । उस विजयदेव की चार अग्रमहिषियाँ पूर्वदिशा में पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठती हैं। उस विजयदेव के दक्षिणपूर्व दिशा में आभ्यन्तर पर्षदा के आठ हजार देव अलग-अलग पूर्व में ही रखे हुए भद्रासनों पर बैठते हैं। उस विजयदेव की दक्षिण दिशा में मध्यम पर्षदा के दस हजार देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं । दक्षिण-पश्चिम की ओर बाह्य पर्षदा के बारह हजार देव पहले से रखे अलग अलग भद्रासनों पर बैठते है। उस विजयदेव के पश्चिम दिशा में सात अनीकधिपति पूर्व में रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। उस विजयदेव के पूर्व में, दक्षिण में पश्चिम में और उत्तर में सोलह हजार आत्मरक्षक देव पहले से ही रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। पूर्व में चार हजार आत्मरक्षक देव, दक्षिण में चार हजार Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: वैजयंत आदिद्वार] [४२७ आत्मरक्षक देव, पश्चिम में चार हजार आत्मरक्षक देव और उत्तर में चार हजार आत्मरक्षक देव पहले से रखे हुए अलग-अलग भद्रासनों पर बैठते हैं। __ वे आत्मरक्षक देव लोहे की कीलों से युक्त कवच को शरीर पर कस कर पहने हुए हैं, धनुष की पट्टिका (मुष्ठिग्रहण स्थान) को मजबूती से पकड़े हुए हैं, उन्होंने गले में ग्रैवेयक (ग्रीवाभरण) और विमल सुभट चिह्नपट्ट को धारण कर रखा है। उन्होंने आयुधों और शस्त्रों को धारण कर रखा है, आदि मध्य और अन्त–इन तीन स्थानों में नमे हुए और तीन संधियों वाले और वज्रमय कोटि वाले धनुषों को लिये हुए हैं और उनके तूणीरों में नाना प्रकार के बाण भरे हैं। किन्हीं के हाथ में नीले बाण हैं, किन्हीं के हाथ में पीले बाण हैं, किन्हीं के हाथों में लाल बाण हैं, किन्हीं के हाथों में धनुष है, किन्हीं के हाथों में चारु (प्रहरण विशेष) है, किन्हीं के हाथों में चर्म (अंगूठों और अंगुलियों का आच्छादन रूप) है, किन्हीं के हाथों में दण्ड है, किन्हीं के हाथों में तलवार है, किन्हीं के हाथों में पाश (चाबुक) है और किन्हीं के हाथों में उक्त सब शस्त्रादि हैं। वे आत्मरक्षक देव रक्षा करने में दत्तचित्त हैं, गुप्त हैं (स्वामी का भेद प्रकट कने वाले नहीं हैं) उनके सेतु दूसरों के द्वारा गम्य नहीं हैं, वे युक्त हैं (सेवक गुणापेत हैं), उनके सेतु परस्पर संबद्ध हैंबहुत दूर नहीं हैं। वे अपने आचरण और विनय से मानो किंकरभूत हैं (वे किंकर नहीं हैं, पृथक् आसन प्रदान द्वारा वे मान्य हैं किन्तु शिष्टाचारवश विनम्र हैं)। तब वह विजयदेव चार हजार सामानिक देवों, सपरिवार चार अग्रमहिषियों, तीन परिपदों, सात अनीकों, सात अनीकाधिपतियों, सोलह हजार आत्मरक्षक देवों का तथा विजयद्वार, विजया राजधानी एवं विजया राजधानी के निवासी बहुत से देवों और देवियों का आधिपत्य, पुरवर्तित्व, स्वामित्व, भट्टित्व, महत्तरकत्व, आज्ञा-ईश्वर-सेनाधिपतित्व करता हुआ और सब का पालन करता हुआ, जोर से बजाए हुए वाद्यों, नृत्य, गीत, तंत्री, तल, ताल, त्रुटित, घन मृदंग आदि की ध्वनि के साथ दिव्य भोगोपभोग भोगता हुआ रहता है। भंते ! विजय देव की आयु कितने समय की कही गई है ? गौतम ! एक पल्योपम की आयु कही है। हे भगवन् ! विजयदेव के सामानिक देवों की कितने समय की स्थिति कही गई है ? गौतम ! एक पल्योपम की स्थिति कही गई है। ___ इस प्रकार वह विजयदेव ऐसी महर्द्धि वाला, महाद्युति वाला, महाबल वाला, महायश वाला महासुख वाला और ऐसा महान् प्रभावशाली है। वैजयंत आदि द्वार १४४. कहिं णं भंते ! जर्बुद्दीवस्स णं दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते? गोयमा!जंबूद्दीवेदीवेमंदरस्स पव्वयस्स दक्खिणेणं पणयालीसंजोयणसहस्साइंअबाहाए जंबुद्दीवदीवदाहिणपेरन्ते लवणसमुद्ददाहिणद्धस्स उत्तरेणं एत्थ णं जंबुद्दीवस्स दीवस्स वेजयंते णामं दारे पण्णत्ते, अटुं जोयणाइं उर्दू उच्चत्तेणं सच्चेव सव्या वत्तव्वया जाव णिच्चे। Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कहिं णं भंते ! ० रायहाणी ? दाहिणेणं जाव वेजयंते देवे देवे । कहिं णं भंते ! • जंबुद्दीवस्स दीवस्स जयंते णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स पच्चत्थिमेणं पणयालीसं जोयणसहस्साइं जंबुद्दीवपच्चत्थिमपेरंते लवणसमुद्दपच्चत्थिमद्धस्स पुरच्छिमेणं सीओदाए महाणईए उप्पिं एत्थ णं जम्बुद्दीवस्स जयंते णामं दारे पण्णत्ते, तं चेव से पमाणे जयंते देव पच्चत्थिमेणं से रायहाणी जाव महिड्डिए । कहिं णं भंते ! जंबुद्दीवस्स दीवस्स अपराइए णामं दारे पण्णत्ते ? गोयमा ! मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं पणयालीसं जोयणसहस्साइं अबाहाए जंबुद्दीवे दीवे उत्तरपेरंते लवणसमुद्दस्स उत्तरद्धस्स दाहिणेणं एत्थ णं जंबुद्दीवे दीवे अपराइए णामं दारे पण्णत्ते । तं चेव पमाणं । राहाणी उत्तरेणं जाव अपराइए देवे, चउण्हवि अण्णंमि जंबुद्दीवे । [१४४] हे भगवन् ! जम्बूदीप नामक द्वीप का वैजयन्त नाम का द्वार कहाँ कहा गया है ? गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में मेरुपर्वत के दक्षिण में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर उस द्वीप की दक्षिण दिशा के अन्त में तथा दक्षिण दिशा के लवणसमुद्र से उत्तर में जम्बूद्वीप नामक द्वीप का वैजयन्त द्वार कहा गया है। यह आठ योजन ऊँचा और चार योजन चौड़ा है - आदि सब वक्तव्यता वही कहना चाहिए जो विजयद्वार के लिए कही गई है यावत् यह वैजयन्त द्वार नित्य है । भगवन् ! वैजयन्त देव की वैजयंती नाम की राजधानी कहाँ है ? गौतम ! वैजयन्त द्वार की दक्षिण दिशा में तिर्यक् असंख्येय द्वीप समुद्रों को पार करने पर आदि वर्णन विजयद्वार के तुल्य कहना चाहिए यावत् वहाँ वैजयंत नाम का महर्द्धिक देव है । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का जयन्त नाम का द्वार कहाँ है ? गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के पश्चिम में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की पश्चिम दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के पश्चिमार्ध के पूर्व में शीतोदा महानदी के आगे जम्बूद्वीप का जयन्त नाम का द्वार है । वही वक्तव्यता कहानी चाहिए यावत् वहाँ जयन्त नाम का महर्द्धिक देव है और उसकी राजधानी जयन्त द्वार के पश्चिम में तिर्यक् असंख्य द्वीप - समुद्रों को पार करने पर आदि वर्णन विजयद्वार के समान है । 1 हे भगवन् ! जम्बूद्वीप का अपराजित नाम का द्वार कहाँ कहा गया है ? गौतम ! मेरुपर्वत के उत्तर में पैंतालीस हजार योजन आगे जाने पर जम्बूद्वीप की उत्तर दिशा के अन्त में तथा लवणसमुद्र के उत्तरार्ध दक्षिण में जम्बूद्वीप का अपराजित नाम का द्वार है । उसका प्रमाण विजयद्वार के समान है । उसकी राजधानी अपराजित द्वार के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समूहों को लांघने के बाद आदि वर्णन विजया राजधानी के समान है यावत् वहाँ अपराजित नाम का महर्द्धिक देव है। ये चारों राजधानियां इस प्रसिद्ध जम्बूद्वीप में न होकर दूसरे जम्बूद्वीप में हैं । १४५. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स दारस्स य दारस्स य एस णं केवइए अबाहाए अंतरे पण्णत्ते ? Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ततीय प्रतिपत्ति: वैजयंत आदि द्वार] [४२९ गोयमा ! अउणासिइंजोयणसहस्सााइंबावण्णं यजोयणाइंदेसूणंच अद्धजोयणंदारस्स य दारस्स य अबाहए अंतरे पण्णत्ते। [१४५] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप के इन द्वारों में एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर कितना कहा गया है ? गौतम ! उन्यासी हजार बावन योजन और देशोन आधा योजन का अन्तर कहा गया है। [७९०५२ योजन और देशोन आधा योजन]। विवेचन-एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर उन्यासी हजार बावन योजन और देशोन आधा योजन बताया है, उसका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है प्रत्येक द्वार की शाखारूप कुड्य (भीत) एक एक कोस की मोटी है और प्रत्येक द्वार का विस्तार चार-चार योजन का है। इस तरह चारों द्वारों में कुड्य और द्वारप्रमाण १८ योजन का होता है। जम्बूद्वीप की परिधि तीन लाख सोलह हजार दो सौ सत्तावीस (३१६२२७) योजन तीन कोस एक सौ आठ धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से कुछ अधिक है। इसमें से चारों द्वारों और शाखाद्वारों का १८ योजन प्रमाण घटाने पर परिधि का प्रमाण ३१६२०९ योजन तीन कोस एक सौ आठ धनुष और साढ़े तेरह अंगुल से अधिक शेष रहता है। इसके चार भाग करने पर ७९०५२ योजन १ कोस १५३२ धनुष ३ अंगुल और ३ यव आता है। इतना एक द्वार से दूसरे द्वार का अन्तर समझना चाहिए। इसी बात को निम्न दो गाथाओं में प्रकट किया गया है कुड्डुदुवारपमाणं अट्ठारस जोयणाइं परिहीए। सो हि य चउहि विभत्तं इणमो दारंतरं होइ ॥ १॥ अउन्नसीई सहस्सा बावण्णा अद्धजोयणं नूणं। दारस्स य दारस्स य अंतरमेयं विणिद्दिढें ॥२॥ १४६. जंबुद्दीवस्स णं भंते ! दीवस्स पएसा लवणं समुहं पुट्ठा ? हंता, पुट्ठा। ते णं भंते ! किं जंबुद्दीवे दीवे लवणसमुद्दे वा? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे, नो खलु ते लवणसमुहे। लवणस्स णं भंते ! समुहस्स पएसा जंबुद्दीदं दीवं पुट्ठा? हंता, पुट्ठा। ते णं भंते ! किं लवणसमुद्दे जंबुद्दीवे दीवे वा ? गोयमा ! लवणे णं ते समुद्दे, नो खलु ते जंबुद्दीवे दीवे॥ जंबुद्दीवे ण भंते ! दीवे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता लवणसमुद्दे पच्चायति ? गोयमा ! अत्थेगइया पच्चायंति, अत्थेगइया नो पच्चायंति। लवणे णं भंते ! समुद्दे जीवा उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता जम्बुद्दीवे दीवे पच्चायंति ? गोयमा ! अत्यंगइया पच्चायंति, अत्थेगइया नो पच्चायंति। Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [१४६] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के प्रदेश लवणसमुद्र से स्पृष्ट हैं क्या ? हाँ, गौतम ! स्पृष्ट हैं। भगवन् ! वे स्पष्ट प्रदेश जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप ? गौतम ! वे जम्बूद्वीप रूप हैं, लवणसमुद्र रूप नहीं हैं। हे भगवन् ! लवणसमुद्र के प्रदेश जम्बूद्वीप के छुए हुए हैं क्या ? हाँ, गौतम ! छुए हुए हैं। हे भगवन् ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवणसमुद्र रूप हैं या जम्बूद्वीप रूप ? गौतम ! वे स्पृष्ट प्रदेश लवणसमुद्र रूप हैं, जम्बूद्वीप रूप नहीं । हे भगवन् ! जम्बूद्वीप में मर कर जीव लवणसमुद्र में पैदा होते हैं क्या ? गौतम ! कोई उत्पन्न होते हैं, कोई उत्पन्न नहीं होते हैं। हे भगवन् ! लवणसमुद्र में मर कर जीव जम्बूद्वीप में पैदा होते हैं क्या ? गौतम ! कोई पैदा होते हैं, कोई पैदा नहीं होते हैं। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में प्रश्न किया गया है कि जम्बूद्वीप के लवणसमुद्र से स्पृष्ट-छुए हुए प्रदेश जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप? इसका आशय यह है कि स्वसीमागत जो चरम प्रदेश हैं वे क्या जम्बूद्वीप रूप हैं या लवणसमुद्र रूप? क्योंकि जो जिससे स्पृष्ट होता है वह किसी अपेक्षा से उस रूप में व्यपदेश वाला हो जाता हैं, जैसे सौराष्ट्र से संक्रान्त मगध देश सौराष्ट्र कहलाता है। किसी अपेक्षा से वैसा व्यपदेश नहीं भी होता है, जैसे तर्जनी अंगुलि से संस्पृष्ट ज्येष्ठा अंगुलि तर्जनी नहीं कही जाती है। दोनों प्रकार की स्थितियाँ होने से यहाँ उक्त प्रकार का प्रश्न किया गया है। इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि वे जम्बूद्वीप के चरम स्पृष्ट प्रदेश जम्बूद्वीप के ही हैं, लवणसमुद्र के नहीं । यही बात लवणसमुद्र के प्रदेशों के विषय में भी समझनी चाहिए। जम्बूद्वीप से मर कर लवणसमुद्र में पैदा होने और लवणसमुद्र से मर कर जम्बूद्वीप में पैदा होने संबंधी प्रश्रों के विषय में कहा गया है कि कोई-कोई जीव वहाँ पैदा होते हैं और कोई-कोई पैदा नहीं होते, क्योंकि जीव अपने किये हुए विविध कर्मों के कारण विविध गतियों में जाते हैं। जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? । १४७. से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबुद्दीवे दीवे ? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरेणं णीलवंतस्स दाहिणेणं मालवंतस्स वक्खारपव्ययस्स पच्चत्थिमेणं, गंधमायणस्स वक्खारपव्ययस्स पुरथिमेणं, एत्थ णं उत्तरकुरा णामंकुरा पण्णत्ता, पाईणपडीणायता उदीणदाहिणवित्थिण्णा अद्धचंदसंठाणसंठिया एक्कारसजोयणसहस्साइं अट्ठबायाले जोयणसए दोण्णि य एकोणवीसइभागे जोयणस्स विक्खंभेणं। तीसे जीवा पाईणपडीणायता दुहओ वक्खारपव्ययं पुट्ठा, पुरथिमिल्लाए कोडीए पुरथिमिल्लं Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४३१ वक्खारपव्वयं पुट्ठा, पच्चथिमिल्लेणं कोडीए पच्चत्थिमिल्लं वक्खारपव्वयं पुट्ठा, तेवण्णं जोयणसहस्साई आयामेणं, तीसे धणुपुटुं दाहिणेणं सटुिं जोयणसहस्साइंचत्तारि य अट्ठारसुत्तरे दुवालस य एगूण वीसइ भाए जोयणस्स परिक्खेवेणं पण्णत्ते। उत्तरकुराए णं भंते कुराए केरिसए आगारभावपडोयारे पण्णत्ते ? गोयमा ! बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते। से जहाणामए आलिंगपुक्खरेइ वा जाव एक्कोरुयदीववत्तव्वया जाव देवलोगपरिग्गहा णं ते मणुयगणा पण्णत्ता समणाउसो ! णवरि इमं णाणतं ___छधणुसहस्समूसिया दो छप्पन्ना पिट्ठकरंडसया अट्ठमभत्तस्स आहारट्टे समुप्पज्जइ,तिण्णि पलिओवमाई देसूणाई पलिओवमस्सासंखिज्जइ भागेणं ऊणगाइं जहन्नेणं, तिन्नि पलिओवमाइं उक्कोसेणं, एकूणपणराइंदियाइं अणुपालणा; सेसं जहा एगूरुयाणं। उत्तरकुराए णं कुराए छव्विहा मणुस्सा अणुसज्जति,तं जहा–१. पम्हगंधा, २.मियगंधा, ३. अममा, ४. सहा, ५. तेयालीसे, ६. सणिचारी। [१४७] हे भगवन् ! जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप क्यों कहलाता है ? हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के उत्तर में, नीलवंत पर्वत के दक्षिण में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में एवं गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में उत्तरकुरा नामक कुरा (क्षेत्र) है। वह पूर्व से पश्चिम तक लम्बा और उत्तर से दक्षिण तक चौड़ा है, अष्टमी के चाँद की तरह अर्ध गोलाकार है। इसका विष्कंभ (विस्तार-चौड़ाई) ग्यारह हजार आठ सौ बयालीस योजन और एक योजन का २/.. भाग (११८४२ २४. योजन) है। इसकी जीवा पूर्व-पश्चिम तक लम्बी है। और दोनों ओर से वक्षस्कार पर्वतों को छूती है। पूर्वदिशा के छोर से पूर्वदिशा के वक्षस्कार पर्वत को और पश्चिमदिशा के छोर से पश्चिमदिशा के वक्षस्कार पर्वत को छूती है। यह जीवा तिरेपन हजार (५३०००) योजन लम्बी है। इस उत्तरकुरा का धनुष्पृष्ठ दक्षिण दिशा में साठ हजार चार सौ अठारह योजन और १२), योजन (६०४१८ १२/.. योजन) है। यह धनुष्पृष्ठ परिधि रूप है। हे भगवन् ! उत्तरकुरा का आकारभाव-प्रत्यवतार (स्वरूप) कैसा कहा गया है ? गौतम ! उत्तरकुरा का भूमिभाग बहुत सम और रमणीय है। वह भूमिभाग आलिंगपुष्कर (मुरजमृदंग) के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है-इत्यादि सब वर्णन एकोरुक द्वीप की वक्तव्यता के अनुसार कहना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे मनुष्य मर कर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। अन्तर इतना है कि इनकी ऊँचाई छह हजार धनुष (तीन कोस) की होती है। दो सौ छप्पन इनकी पसलियाँ होती हैं। तीन दिन के बाद इन्हें आहार की इच्छा होती है। इनकी जघन्य स्थिति पल्योपम का असंख्यातवां भाग कमदेशोन तीन पल्योपम की है और उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्योपम की है। ये ४९ दिन तक अपत्य की अनुपालना करते हैं। शेष एकोरुक मनुष्यों के समान जानना चाहिए। उत्तरकुरा क्षेत्र में छह प्रकार के मनुष्य पैदा होते हैं, यथा-१. पद्मगंध, २. मृगगंध, ३. अमम, ४. Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सह, ५. तेयालीस (तेजस्वी) और ६. शनैश्चारी। विवेचन-उत्तरकुरु क्षेत्र पूर्व से पश्चिम तक लम्बा है और उत्तर से दक्षिण तक फैला हुआ (चौड़ा) है। अतः महाविदेह क्षेत्र का जो विस्तार है उसमें से मेरुपर्वत के विस्तार को कम कर देने से जीवा का विस्तार बनता है। उसे आधा करने पर जो प्रमाण आता है वह दक्षिणकुरु और उत्तरकुरु का विस्तार होता महाविदेह क्षेत्र का विस्तार ३३६८४ १. योजन है। इसमें मेरु का विस्तार १०००० योजन घटा देना चाहिए, तब २३६८४. बनते हैं। इसके दो भाग करने पर ११८४२२।.योजन होता है। यही उत्तरकुरु और दक्षिणकुरु का विस्तार है। इसकी जीवा (प्रत्यंचा) उत्तर में नील वर्षधर पर्वत के समीप तक विस्तृत है और पूर्व पश्चिम तक लम्बी है। यह अपने पूर्व दिशा के छोर से माल्यवंत वक्षस्कार पर्वत को छूती है और पश्चिम दिशा के छोर से गन्धमादन वक्षस्कार पर्वत को छूती है। यह जीवा ५३००० (तिस्पन हजार) योजन लम्बी है। इसकी लम्बाई का प्रमाण इस प्रकार फलित होता है २–मेरुपर्वत की पूर्वदिशा और पश्चिम दिशा के भद्रशाल वनों की प्रत्येक की लम्बाई २२००० (बावीस हजार) योजन की है, दोनों की ४४००० योजन हुई इसमें मेरुपर्वत के विष्कंभ १०००० (दसहजार) योजन मिला देने से ५४००० (चौपन हजार) योजन होते हैं । इस प्रमाण में से दोनों वक्षस्कार पर्वतों का ५००-५०० योजन का प्रमाण घटा देने से तिरपन हजार योजन आते हैं। यही प्रमाण जीवा का है। उत्तरकुरुओं का धनुष्पृष्ठ दक्षिण में ६०४१८ १२). योजन है। गन्धमादन और माल्यवन्त वक्षस्कार पर्वतों की लम्बाई का जो परिमाण है वही उत्तरकुरुओं का धनुपृष्ठ (परिधि) है। गंधमादन और माल्यवंत पर्वत का प्रत्येक का आयाम ३०२०९ ६.योजन है। दोनों का कुल प्रमाण ६०४१८ १२/..योजन होता है। यही प्रमाण उत्तरकुरुओं के धनुष्पृष्ठ का है। उत्तरकुरु क्षेत्र के स्वरूप के विषय में प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप की वक्तव्यता का अतिदेश किया है। अर्थात् पूर्वोक्त एकोरुक द्वीप के समान ही सब वक्तव्यता जाननी चाहिए। जो अन्तर है उसे सूत्रकार में साक्षात् सूत्र द्वारा प्रकट किया है जो इस प्रकार है ___ वे उत्तरकुरु के मनुष्य छह हजार धनुष अर्थात् तीन कोस के लम्बे हैं, २५६ उनके पसलियाँ होती हैं, तीन दिन के अन्तर से आहार की अभिलाषा होती है, पल्योपमासंख्येय भाग कम (देशोन) तीन पल्योपम 'वइदेहा विक्खंभा मंदरविक्खंभ सोहियअद्धतं कुरुविक्खंभ जाणसु'। २. 'मंदरपुव्वेणायया वीससहस्स भद्दसालवणं दुगुणं मंदरसहियं दुसेलसहियं य कुरुजीवा।' ३. 'आयामो सेलाणं दोण्हवि मिलिओ कुरुणधण पुटुं।' ४. वृत्तिकार ने उत्तरकुरु के आकार-भाव-प्रत्यावतार की मूल पाठ सहित विस्तृत व्याख्या की है। इससे प्रतीत होता हैं कि उनके सामने जो मूलप्रतियां रही हैं उनमें मूलपाठ में ही पूरा वर्णन होना चाहिए। वर्तमान में उपलब्ध प्रतियों में अतिदेश वाला पाठ है। सूत्रकार ने एकोरुक द्वीप का जहाँ वर्णन किया है वहाँ वृत्तिकार ने उसकी व्याख्या न करते हुए केवल यह लिखा है कि उत्तरकुरु वाली व्याख्या समझ लेनी चाहिए। यहाँ विचारणीय यह है कि आगे आने वाले विषय का पहले अतिदेश क्यों किया है वृत्तिकार ने? Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४३३ की जघन्य स्थिति और परिपूर्ण तीन पल्योपम की उत्कृष्ट आयु है और ४९ दिन तक अपत्य-पालना करते हैं। शेष एकोरुक द्वीप के मनुष्यो की वक्तव्यतानुसार जानना चाहिए यावत् वे मनुष्य मर कर देवलोक में ही जाते हैं। उत्तरकुरुओं में जातिभेद को लेकर छह प्रकार के मनुष्य रहते हैं-१. पद्मगंध (पद्म जैसी गंध वाले), २. मृगगन्ध (मृग जैसी गंध वाले), ३. अमम (ममत्वहीन), ४. सह (सहनशील), ५. तेयालीसे (तेजस्वी) और ६. शनैश्चारी (धीरे चलने वाले)। वृत्ति के अनुसार उत्तरकुरु क्षेत्र को लेकर जो-जो विषय कहे गये हैं, उनको संकलित करने वाली तीन गाथाएँ इस प्रकार हैं उसुजीवाधणपढे भूमी गुम्मा य हेरुउद्दाला। तिलगलावणराई रुक्खा मणुया य आहारे।। १॥ गेहा गामा य असी हिरण्णराया य दास माया य। अरिवेरिए य मित्ते विवाह मह नट्ट सगडा य ॥ २॥ आसा गावो सीहा साली खाणू य गड्डदंसाही । गहजुद्ध रोगठिइ उव्वट्टणा य अणुसज्जणा चेव ॥ ३॥ उक्त गाथाओं का भावार्थ इस प्रकार है सबसे प्रथम उत्तरकुरु के विषय में इषु, जीवा और धनुपृष्ठ का प्रतिपादन है। फिर भूमि विषयक कथन है, तदनन्तर गुल्म का वर्णन, तदनन्तर हेरुताल आदि वनों का वर्णन, फिर उद्दाल आदि द्रुमों का वर्णन, फिर तिलक आदि वक्षों का, लताओं का और वनराजि का वर्णन है। इसके बाद १० प्रकार के कल्पवृक्षों का वर्णन है, इसके बाद वहाँ के मनुष्यों, स्त्रियों और स्त्री-पुरुष दोनों का सम्मिलित वर्णन है। इसके बाद आहार.विषयक सूत्र है। इसके बाद गृहाकार वृक्षों का वर्णन है। इसके पश्चात् गृह, ग्राम, असि (शस्त्रादि), हिरण्य, राजा, दास, माता, अरि-वैरी, मित्र, विवाह, उत्सव, नृत्य, शकट (गाडी आदि सवारी) का वहाँ अभाव है, ऐसा कहा गया है। तदनन्तर घोड़े, गाय, सिंह, आदि पशुओं का अस्तित्व तो है परन्तु मनुष्यों के परिभोग में आने वाले या उन्हें बाधा पहुंचाने वाले नहीं हैं। इसके बाद शालि आदि के उपभोग के प्रतिषेधक सूत्र हैं, स्थाणु आदि के प्रतिषेधक सूत्र हैं, गर्त-डांस-मच्छर आदि के प्रतिषेधक सूत्र हैं, तदनन्तर सर्पादि हैं परन्तु बाधा देने वाले नहीं हैं ऐसा कथन किया गया है। तदनन्तर ग्रहों सम्बन्धी अनर्थ के अभाव, युद्धों के अभाव और रोगों के अभाव का कथन किया गया है। इसके बाद स्थिति, उद्वर्तना और अनुषजन (उत्पत्ति) का कथन किया गया है। १४८. कहिं णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जमगा नाम दुवे पव्वया पण्णत्ता ? गोयमा ! नीलवंतस्स वासहरपब्वयस्स दाहिणेणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसए चत्तारि यसत्त भागे जोयणस्स अबाहाए सीताए महाणईए (पुष्व-पच्छिमेणं) उभओ कूले एत्थ णं उत्तरकुराए जमगाणामंदुवे पव्वया पण्णता, एगमेगंजोयणसहस्सं उड्डे उच्चत्तेणं अड्डाइग्जाइंजोयणसयाणि Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र उव्वेहेणं, मूले एगमेगंजोयणसहस्संआयामविक्खंभेणं मज्झे अद्धट्ठमाइंजोयणसयाई आयामविक्खंभेणं, उवरिं पंचजोयणसयाइं आयाम-विक्खंभेणं; मूले तिण्णि जोयणसहस्साइं एगंच बावढि जोयणसयं किंचिविसेसाहियं परिक्खेवेणं, मज्झे दो जोयणसहस्साइं तिण्णिय बावत्तरे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते, उवरिं पन्नरसं एक्कासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं पण्णत्ते।मूले विच्छिण्णा मज्झे संखित्ता उप्पिंतणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्वकणगमया अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा। पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता, पत्तेयं पत्तेयं वणसंड परिक्खित्ता, वण्णओ दोण्ह वि। तेसिं णं जमगपव्वयाणं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, वण्णओ जाव आसयंति०। तेसिंणं बहुसमरमणिज्जाणं भूमिभागाणं बहुमज्झदेसभाए पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा पण्णत्ता।तेणंपासायवडेंसगा बावटुिंजोयणाइं अद्धजोयणंच उड़े उच्चत्तेणं एकत्तीसंजोयणाई कोसंयविक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसिआवण्णओ।भूमिभागा उल्लोया दो जोयणाई मणिपेढियाओ वरसीहासणा सपरिवारा जाव जमगा चिटुंति। से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जमगा पव्वया जमगा पव्वया ? .. ___ गोयमा ! जमगेसु पव्वएसु तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं वहुईओ खुड्डाखुड्डियाओ वावीओ जाव बिलपंतियासु, तासु णं खुड्डाखुड्डियासु जाव बिलपंतियासु बहूइं उप्पलाइं जाव सयसहस्सपत्ताई जमगप्पमाइं जमगवण्णाइं, जमगा य एत्थ दो देवा महिड्डिया जाव पलिओवमट्रिईया परिवसंति। तेणं तत्थ पत्तेयं पत्तेयं चउण्हं सामाणियसहस्सीणंजाव जमगाणं पव्वयाणंजमगाण य रायधाणीणंअण्णेसिंच बहूणं वाणमंतराणं देवाण यदेवीण य आहेवच्चं जाव पालेमाणा विहरंति।से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जमग पव्वया जमग पव्वया ! अदुत्तरं च णं गोयमा ! जाव णिच्चा। कहिं णं भंते ! जमगाणं देवाणं जमगाओ णाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! जमगाणं पव्वयाणं उत्तरेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीइवइत्ता अण्णम्मि जंबुद्दीवे दीवबारसजोयणसहस्साइंओगाहित्ता एत्थणंजमगाणं देवाणंजमगाओणाम रायहाणीओ पण्णत्ताओ बारस जोयणसहस्साओ जहा विजयस्स जाव महिड्डिया जमगा देवा जमगा देवा। [१४८] हे भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में यमक नामक दो पर्वत कहाँ पर कहे गये हैं ? गौतम ! नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और एक योजन के / भाग आने पर शीता नामक महानदी के पूर्व-पश्चिम के दोनों किनारों पर उत्तरकुरु क्षेत्र में दो यमक नाम के पर्वत कहे गये हैं। ये एक-एक हजार योजन ऊँचे हैं, २५० योजन जमीन में हैं, मूल में एक-एक हजार योजन लम्बे-चौड़े हैं, मध्य में साढे सात सौ योजन लम्बे-चौड़े हैं और ऊपर पांच सौ योजन आयाम-विष्कंभ वाले Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४३५ हैं। मूल में इनकी परिधि तीन हजार एक सौ बासठ योजन से कुछ अधिक है। मध्य में इनकी परिधि दो हजार तीन सौ बहत्तर योजन से कुछ अधिक है और ऊपर पन्द्रह सौ इक्यासी योजन से कुछ अधिक की परिधि है। ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर में पतले हैं। ये गोपुच्छ के आकार के हैं, सर्वत्मना कनकमय हैं, स्वच्छ हैं, श्लक्ष्ण (मृदु) हैं यावत् प्रतिरूप हैं । ये प्रत्येक पर्वत पद्मवरवेदिका से परिक्षिप्त (घिरे हुए) हैं और प्रत्येक पर्वत वनखंड से युक्त हैं। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उन यमक पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है। उसका वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियाँ ठहरती हैं, लेटती हैं यावत् पुण्य-फल का अनुभव करती हुई विचरती हैं। उन दोनों बहुसमरमणीय भूमिभागों के मध्यभाग में अलग-अलग प्रासादवतंसक कहे गये हैं। वे प्रासादावतंसक साढे बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस के चौड़े हैं, ये गगनचुम्बी और ऊँचे हैं आदि वर्णनक कहना चाहिए। इनके भूमिभागों का, ऊपरी भीतरी छतों आदि का वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। वहाँ दो योजन की मणिपीठिका है। उस पर श्रेष्ठ सिंहासन है। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिक आदि देवों के भद्रासनों से युक्त हैं। यावत् उन पर यमक देव बैठते हैं। हे भगवन् ! ये यमक पर्वत यमक पर्वत क्यों कहलाते हैं ? गौतम ! उन यमक पर्वतों पर जगह-जगह यहाँ-वहाँ बहुत सी छोटी छोटी बावडियां हैं, यावत् बिलपंक्तियां हैं, उनमें बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र हैं जो यमक (पक्षिविशेष) के आकार के हैं, यमक के समान वर्ण वाले हैं और यावत् पल्योपम की स्थिति वाले दो महान् ऋद्धि वाले देव रहते हैं । वे देव वहाँ अपने चार हजार सामानिक देवों यावत् यमक पर्वतों का, यमक राजधानियों का और बहुत से अन्य वानव्यन्तर देवों और देवियों का आधिपत्य करते हुए यावत् उनका पालन करते हुए विचरते हैं। इसलिए हे गौतम ! वे यमक पर्वत यमक पर्वत कहलाते हैं। दूसरी बात हे गौतम ! ऐसी है कि ये यमक पर्वत शाश्वत हैं यावत् नित्य हैं। (अर्थात् इनका 'यमक' नाम शाश्वत है-सदा से है, सदा रहेगा।) हे भगवन् ! इन यमक देवों की यमका नामक राजधानियां कहाँ हैं ? गौतम ! इन यमक पर्वतों के उत्तर में तिर्यक् असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के पश्चात् प्रसिद्ध जम्बूद्वीप से भिन्न अन्य जम्बूद्वीप में बारह हजार योजन आगे जाने पर यमक देवों की यमका नाम की राजधानियां हैं जो बारह हजार योजनप्रमाण वाली हैं आदि सब वर्णन विजया राजधानीवत् कहना चाहिए यावत् यमक नाम के दो महर्द्धिक देव उनके अधिपति हैं। इस कारण से ये यमक देव यमक देव कहलाते हैं। १४९. (१) कहिं णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए नीलवंतदहे णाम दहे पण्णत्ते ? गोयमा ! जमगपव्वयाणंदाहिणेणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसए चत्तारि सत्तभागा जोयणस्स अबाहाए सीताए महाणईए बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं उत्तरकुराए कुराए नीलवंतदहे णामं दहे Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पण्णत्ते; उत्तरदक्खिणायए पाईणपडीणविच्छिन्ने एगंजोयणसहस्सं आयामेणं पंच जोयणसयाई विक्खंभेणं दस जोयणाइं उव्वेहेणं अच्छे सण्हे रययामयकूले चउक्कोणे समतीरे जाव पडिरूवे। उभओ पासिंदोहिंय पउमवरवेइयाहिं वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, दोण्हविवण्णओ। नीलवंतदहस्सणं दहस्स तत्थ तत्थ जाव बहवे तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता, वण्णओ भाणियव्यो जाव तोरण त्ति। तस्सणं नीलवंतदहस्सणंदहस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणंएगे महं पउमे पण्णत्ते, जोयणं आयाम-विक्खंभेणंतं तिगुणंसविसेसं परिक्खेवेणंअद्धजोयणं बाहल्लेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं दो कोसे ऊसिए जलंताओ, साइरेगाइं दसद्धजोयणाइं सव्वग्गेणं पण्णत्ते। तस्स णं पउमस्स अयमेयारूवेवण्णावासे पण्णत्ते,तं जहा-वइरामया मूला, रिट्ठामए कंदे, वेरुलियामए नाले वेरुलियमया बाहिरपत्ताजंबूणयमयाअब्भिंतरपत्ता तवणिज्जमया केसरा कणगामई कणिया नानामणिमया पुक्खरस्थिभुया। साणं कणिया अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं तं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं सव्वप्पणा कणगमई अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा। तीसे णं कण्णियाए उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव मणिहिं०।तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थणंएगे महं भवणे पण्णत्ते, कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणं कोसं उड्डेउच्चत्तेणं अणेगखंभसयसन्निविटुं जाव वण्णओ। तस्सणं भवणस्स तिदिसिंतओ दारा पण्णत्ता पुरथिमेणंदाहिणेणं उत्तरेणं।ते णं दारा पंचधणुसयाइं उ8उच्चत्तेणंअड्डाइज्जाइंधणुसयाई विक्खंभेणं तावइयंचेव पवेसेणं सेया वरकणगथूभियागा जाव वणमालाओ त्ति। [१४९] (१) भगवन् ! उत्तरकुरु नामक क्षेत्र में नीलवंतद्रह नाम का द्रह कहाँ कहा गया है? गौतम ! यमक पर्वतों के दक्षिण में आठ सौ चौतीस और / योजन आगे जाने पर सीता महानदी के ठीक मध्य में उत्तरकुरु-क्षेत्र का नीलवंतद्रह नाम का द्रह कहा गया है। यह उत्तर से दक्षिण तक लम्बा और पूर्व-पश्चिम में चौड़ा है। एक हजार योजन इसकी लम्बाई और पांच सौ योजन की चौड़ाई है। यह दस योजन ऊँचा (गहरा) है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है, रजतमय इसके किनारे हैं, यह चतुष्कोण और समतीर है यावत् प्रतिरूप है। यह दोनों ओर से पद्मवरवेदिकाओं और वनखण्डों से चौतरफा घिरा हुआ है। दोनों का वर्णनक यहाँ कहना चाहिए। नीलवंत नामक द्रह में यहाँ वहाँ बहुत से त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं। उनका वर्णनक तोरण पर्यन्त कहना चाहिए। उन नीलवंत नामक द्रह के मध्यभाग में एक बड़ा कमल कहा गया है। वह कमल एक योजन का लम्बा और एक योजन का चौड़ा है। उसकी परिधि इससे तिगुनी से कुछ अधिक है। इसकी मोटाई Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४३७ आधा योजन है। यह दस योजन जल के अन्दर है और दो कोस (आधा योजन) जल से ऊपर है। दोनों मिलाकर साढे दस योजन की इसकी ऊँचाई है। उस कमल का स्वरूप-वर्णन इस प्रकार है-उसका मूल वज्रमय है, कुंद रिष्टरत्नों का है, नाल वैडूर्यरत्नों की है, बाहर के पत्ते वैडूर्यमय हैं, आभ्यन्तर पत्ते जंबूनद (स्वर्ण) के हैं, उसके केसर तपनीय स्वर्ण के हैं, स्वर्ण की कर्णिका है और नानामणियों की पुष्कर-स्तिबूका है। वह कर्णिका आधा योजन की लम्बी-चौड़ी है, इससे तिगुनी से कुछ अधिक इसकी परिधि है, एक कोस की मोटाई है, यह पूर्णरूप से कनकमयी है, स्वच्छ है, श्लष्ण है यावत् प्रतिरूप है। उस कर्णिका के ऊपर एक बहुसमरमणीय भूमिभाग है इसका वर्णन मणियों की स्पर्शवक्तव्यता तक कहना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक विशाल भवन कहा गया है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और एक कोस से कुछ कम ऊँचा है। वह अनेक सैकड़ों स्तम्भों पर आधारित है आदि वर्णनक कहना चाहिए। . उस भवन की तीन दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं-पूर्व में, दक्षिण में और उत्तर में। वे द्वार पांच सौ धनुष ऊँचे हैं, ढाई सौ धनुष चौड़े हैं और इतना ही इनका प्रवेश है। ये श्वेत हैं, श्रेष्ठ स्वर्ण की स्तूपिका से युक्त हैं यावत् उन पर वनमालाएँ लटक रही हैं। १४९.(२)तस्सणंभवणस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागेपण्णत्ते, से जहानामएआलिंगपुक्खरेइ व जाव मणीणं वण्णओ। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं मणिपेढिया पण्णत्ता, पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं अड्डाइज्जाइं धणुसयाई बाहल्लेणं सव्वमणिमई। तीसे णं मणिपेढियाए उवरि एत्थ णं एगे महं देवसयणिज्जे पण्णत्ते। देवसयणिज्जस्स वण्णओ। से णं पउमे अण्णेणं अट्ठसएणं तदद्धच्चत्तप्पमाणमेत्ताणं पउमाणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते। तेणं पउमा अद्धजोयणं आयामविक्खंभेणं ते तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं कोसं बाहल्लेणं दस जोयणाई उव्वेहेणं कोसंऊसिया जलंताओ, साइरेगाइं ते दस जोयणाइं सव्वग्गेणं पण्णत्ताई। तेसिं णं पउमाणं अयमेयारूवे वण्णावासे पण्णत्ते, तं जहा-वइरामया मूला जाव णाणामणिमया पुक्खरस्थिभुगा।ताओणं कण्णियाओ कोसंआयामविक्खंभेणंतं तिगुणं सविसेसं परिक्खेवेणं अद्धकोसंबाहल्लेणंसव्वकणगामईओअच्छाओ जावपडिरूवाओ।तासिंकणियाणं उप्पिं बहुसमरमणिज्जा भूमिभागा जाव मणीणं वण्णो गंधो फासो। ___ तस्स णं पउमस्स अवरुत्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतहहस्स कुमारस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चत्तारि पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवं (एतेणं) सव्यो परिवारो नब्ररि पउमाणं भाणियव्यो। Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र से पउमे अण्णेहिं तिहिं पउमवरपरिक्खेवेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, तं जहाअब्धिंतरेणं मज्झिमेणं बाहिरएणं । अब्धिंतरए णं पउमपरिक्खेवे बत्तीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, मज्झिमए णं पउमपरिक्खेवे चत्तालीसं पउमसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, बाहिरए णं पउमपरिक्खेवे अडयालीसं पउमसयसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, एवामेव सपुव्वावरेणं एगं पउमकोडी वीसं च पउमसयसहस्सा भवतीति मक्खाया। ४३८ ] सेकेणणं भंते! एवं वुच्चइ - णीलवंतद्दहे णीलवंतद्दहे ? गोयमा ! नीलवंतद्दहे णं दहे तत्थ जाई उप्पलाई जाव सयसहस्सपत्ताइं नीलवंतप्पभाई नीलवंतद्दहकुमारे य सो चेव गमो जाव नीलवंतद्दहे नीलवंतद्दहे । [१४९] (२) उस भवन में बहुसमरमणीय भूमिभाग कहा गया है । वह आलिंगपुष्कर (मुरजमृदंग) पर चढ़े हुए चमड़े के समान समतल है आदि वर्णन करना चाहिए। यह वर्णन मणियों के वर्ण, गंध, और स्पर्श पर्यन्त पूर्ववत् करना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्य में एक मणिपीठिका है, जो पांच सौ धनुष की लम्बी चौड़ी है और ढाई सौ धनुष मोटी है और सर्वमणियों की बनी हुई है। उस मणिपीठिका के ऊपर एक विशाल देवशयनीय है, उसका वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए । वह कमल दूसरे एक सौ आठ कमलों से सब ओर से घिरा हुआ है । वे कमल उस कमल से ऊँचे प्रमाण वाले हैं। वे कमल आधा योजन लम्बे-चौड़े और इससे तिगुने से कुछ अधिक परिधि वाले हैं। उनकी मोटाई एक कोस की है। वे दस योजन पानी में ऊँडे (गहरे ) हैं और जलतल से एक कोस ऊँचे हैं। जलांत से लेकर ऊपर तक समग्ररूप में वे कुछ अधिक (एक कोस अधिक) दस योजन के हैं। उन कमलों का स्वरूप वर्णन इस प्रकार है- वज्ररत्नों के उनके मूल हैं, यावत् नानामणियों की पुष्करस्तिबुका है । कमल की कर्णिकाएँ एक कोस लम्बी-चौड़ी हैं और उससे तिगुने से अधिक उनकी परिधि है । आधा कोस की मोटाई है, सर्व कनकमयी हैं, स्वच्छ यावत् प्रतिरूप हैं । उन कर्णिकाओं के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है यावत् मणियों के वर्ण, गंध और स्पर्श की वक्तव्यता कहनी चाहिए । उस कमल के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में नीलवंतद्रह के नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार पद्म (पद्मरूप आसन) कहे गये हैं। इसी तरह सब परिवार के योग्य पद्मों (पद्मरूप आसनों) का कथन करना चाहिए । वह कमल अन्य तीन पद्मवरपरिक्षेप (परिवेश) से सब ओर से घिरा हुआ है । वे परिवेश हैंआभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य । आभ्यन्तर पद्म परिवेश में बत्तीस लाख पद्म हैं, मध्यम पद्मपरिवेश में चालीस लाख पद्म हैं और बाह्य पद्मपरिवेश में अड़तालीस लाख पद्म हैं। इस प्रकार सब पद्मों की संख्या एक करोड़ बीस लाख कही गई है। हे भगवन् ! नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह क्यों कहलाता है ? गौतम ! नीलवंतद्रह में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर नीलवर्ण के उत्पल कमल यावत् शतपत्र - सहस्रपत्र कमल खिले हुए हैं तथा वहाँ नीलवंत नामक नागकुमारेन्द्र नागकुमारराज महर्द्धिक देव रहता है, इस कारण Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ? ] नीलवंतद्रह नीलवंतद्रह कहा जाता है । (इसके पश्चात् वृत्ति के अनुसार नीलवंतकुमार की नीलवंता राजधानी विषयक सूत्र हैं। उसका कथन विजया राजधानी की तरह कल लेना चाहिए ।) १ काञ्चन पर्वतों का अधिकार [ ४३९ १५०. नीलवंतद्दहस्स णं पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं दस जोयणाइं अबाहाए एत्थ णं दस दस कंचणगपव्वया पण्णत्ता । ते णं कंचणगपव्वया एगमेगं जोयणसयं उड्डुं उच्चत्तेणं, पणवीसं पणवीसं पण्णासं जोयणाइं उव्वेहेणं, मूले एगमेगं जोयणसयं विक्खंभेणं मज्झे पण्णत्तरि जोयणाई विक्खंभेणं उवरिंपण्णास जोयणाइं विक्खंभेणं मूले तिण्णि सोलसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, मज्झे दोन्नि सत्ततीसे जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं, उवरिं एगं अट्ठावण्णं जोयणसयं किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं; मूले विच्छिण्णा, मज्झे संखित्ता उप्पि तणुया गोपुच्छसंठाणसंठिया सव्वकंचणमया, अच्छा, पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ता । तेसिं णं कंचणगपव्वयाणं उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव आसयंति० । तेसिं णं कंचणगपव्वयाणं पत्तेयं पत्तेयं पासायवडेंसगा सड्ढ बावट्ठि जोयणाई उड्डुं उच्चत्तेणं इक्कतीसं जोयणाई कोसं च विक्खंभेणं मणिपेढिया दो जोयणिया सीहासणं सपरिवारं । सेकेणणं भंते ! एवं वुच्चइ - कंचणगपव्वया कंचणगपव्वया ? गोयमा ! कंचणगेसु णं पव्वएसु तत्थ तत्थ वावीसु उप्पलाई जाव कंचणगवण्णाभाई कंचणगा जाव देवा महिड्डिया जाव विहरंति । उत्तरेणं कंचणगाणं कंचणियाओ रायहाणीओ अण्णम्मि जंबुद्दीवे तहेव सव्वं भाणियव्वं । कहिं णं भंते ! उत्तराए कुराए उत्तरकुरुद्दहे पण्णत्ते ? गोयमा ! नीलवंतद्दहस्स दाहिणेणं अट्ठचोत्तीसे जोयणसए एवं सो चेव गमो णेयव्वो जो णीलवंतद्दहस्स सव्वेसिं सरिसगो दहसरि स नामा य देवा, सव्वेसिं पुरत्थिम-पच्चत्थिमेणं कंचणगपव्वया दस दस एकप्पमाणा उत्तरेणं रायहाणीओ अण्णम्मि जंबुद्दीवे । कहिं णं भंते ! चंदद्दहे एरावणद्दहे मालवंतद्दहे एवं एक्केक्को णेयव्वो । [१५०] नीलवंतद्रह के पूर्व-पश्चिम में दस योजन आगे जाने पर दस दस काञ्चनपर्वत कहे गये है । (ये दक्षिण और उत्तर श्रेणी में व्यवस्थित हैं ) । ये कांचन पर्वत एक सौ एक सौ योजन ऊँचे, पच्चीस पच्चीस योजन भूमि में, मूल में एक-एक सौ योजन चौड़े, मध्य में पचहत्तर योजन चौड़े और ऊपर पचासपचास योजन चौड़े हैं। इनकी परिधि मूल में तीन सौ सोलह योजन से कुछ अधिक, मध्य में दो सौ सैंतीस योजन से कुछ अधिक और ऊपर एक सौ अट्ठावन योजन से कुछ अधिक है । ये मूल में विस्तीर्ण, मध्य उपलब्ध प्रतियों में राजधानी विषयक पाठ छूटा हुआ लगता है। वृत्ति के अनुसार राजधानी विषयक पाठ होना चाहिए । १. Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र में संक्षिप्त और ऊपर पतले हैं, गोपुच्छ के आकार में संस्थित हैं, ये सर्वात्मना कंचनमय हैं, स्वच्छ हैं। इनके प्रत्येक के चारों ओर पद्मवरवेदिकाएँ और वनखण्ड हैं। उन कांचन पर्वतों के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है, यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव-देवियाँ बैठती हैं आदि। उन प्रत्येक भूमिभागों में प्रासादावतंसक कहे गये हैं। ये प्रासादावतंसक साढ़े बासठ योजन ऊँचे और इकतीस योजन एक कोस चौड़े हैं। इनमें दो योजन की मणिपीठिकाएँ हैं और सिंहासंन हैं। ये सिंहासन सपरिवार हैं अर्थात् सामानिकदेव, अग्रमहिषियाँ आदि परिवार के भद्रासनों से युक्त हैं। हे भगवन् ! ये कांचनपर्वत कांचनपर्वत क्यों कहे जाते हैं ? ____ गौतम ! इन कांचनपर्वतों की वाबडियों में बहुत से उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमल हैं जो स्वर्ण की कान्ति और स्वर्ण-वर्ण वाले हैं यावत् वहाँ कांचनक नाम के महर्द्धिक देव रहते हैं, यावत् विचरते हैं। इसलिए वे कांचनपर्वत कहे जाते हैं। इन कांचनक देवों की कांचनिका राजधानियां इन कांचनक पर्वतों से उत्तर में असंख्यात द्वीप-समुद्रों को पार करने के बाद अन्य जम्बूद्वीप में कही गई हैं आदि वर्णन विजया राजधानी की तरह कहना चाहिए। हे भगवन् उत्तरकुरु क्षेत्र का उत्तरकुरुद्रह कहाँ कहा गया है ? गौतम् ! नीलवंतद्रह के दक्षिण में आठ सौ चौतीस योजन और / योजन दूर उत्तरकुरुद्रह है, आदि सब वर्णन नीलवंतद्रह की तरह जानना चाहिए। सब द्रहों में उसी-उसी नाम के देव हैं। सब द्रहों के पूर्व में और पश्चिम में दस-दस कांचनक पर्वत हैं जिनका प्रमाण समान है। इनकी राजधानियाँ उत्तर की ओर असंख्य द्वीप-समुद्र पार करने पर अन्य जम्बूद्वीप में हैं, उनका वर्णन विजया राजधानी की तरह जानना चाहिए। इसी प्रकार चन्द्रद्रह, एरावतद्रह और मालवंतद्रह के विषय में भी यही सब वक्तव्यता कहनी चाहिए। जंबूवृक्ष वक्तव्यता १५१. कहिं णं भंते ! उत्तरकुराए कुराए जंबु-सुदंसणाए जंबुपेढे नाम पेढे पण्णत्ते? गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पव्वयस्स उत्तरपुरच्छिमेणं नीलवंतस्स वासहरपव्वयस्स दाहिणेणं मालवंतस्स वक्खारपव्वयस्स पच्चत्थिमेणं, गंधमादणस्स वक्खारपव्वयस्स पुरथिमेणं सीताए महाणईए पुरथिमिल्ले कूले एत्थणं उत्तरकुराए कुराए जंबूपेढे नामं पेढे पंचजोयणसयाई आयाम-विक्खंभेणं पण्णरस एक्कासीए जोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खेवेणं बहुमज्झदेसभागे बारस जोयणाई बाहल्लेणं तयाणंतरं च णं मायाए मायाए पएसपरिहाणीए सव्वेसु चरमंतेसु दो कोसे बाहल्लेणं पण्णत्ते, सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे। __से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण यवणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते, वण्णओ दोण्हवि। तस्स णं जंबूपेढस्स चउद्दिसिं चत्तारि तिसोवाणपडिरूवगा पण्णत्ता तं चेव जाव तोरणा जाव छत्ताइछत्ता। Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूवृक्ष वक्तव्यता] [४४१ तस्सणंजंबूपेढस्स उप्पिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागेपण्णत्ते से जहाणामए आलिंगपुक्खरे इ वा जाव मणीणं फासो। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं एगा महं मणिपेढिया पण्णत्ता अट्ठ जोयणाई आयामविक्खंभेणं चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं मणिमई अच्छा सण्हा जाव पडिरूवा। तीसे णं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं महं जंबूसुदंसणा पण्णत्ता अट्ठजोयणाई उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धजोयणं उव्वेहेणं दो जोयणाइं खंधे अट्ठजोयणाई विक्खंभेणं छजोयणाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए अट्ठजोयणाइविक्खंभेणं साइरेगाइं अट्ठजोयणाई सव्वग्गेणं पण्णत्ता; वइरामयमूला रययसुपइट्ठियविडिमा एवं चेइयरुक्खवण्णओ सव्वो जाव रिट्ठामयविउलकंदा, वेरुलियरुइरक्खंधा सुजायवरजायरुवपढमगविसालसाला नाणामणिरयणविविहसाहप्पसाहवेरुलियपत्ततवणिज्जपत्तविंटा जंबूणयरत्तमउयसुकुमालपवालपल्लवंकुरधरा विचित्तमणिरयणसुरहिकुसुमा फलभारनमियसाला सच्छाया सप्पभा सस्सिरीया सउज्जोया अहियं मणोनिव्वुइकरा पासाईया दरिसणिज्जा अभिरूवा पडिरूवा। __[१५१] हे भगवन् ! उत्तरकुरु क्षेत्र में सुदर्शना अपर नाम जम्बू का जम्बूपीठ नाम का पीठ कहाँ कहा गया है। __ हे गौतम ! जम्बूद्वीप के मेरुपर्वत के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) में, नीलवंत वर्षधर पर्वत के दक्षिण में, मालवंत वक्षस्कार पर्वत के पश्चिम में, गंधमादन वक्षस्कार पर्वत के पूर्व में शीता महानदी के पूर्वीय किनारे पर उत्तरकुरु क्षेत्र का जम्बूद्वीप नामक पीठ है जो पांच सौ योजन लम्बा चौड़ा है, पन्द्रह सौ इक सी योजन से कुछ अधिक उसकी परिधि है। वह मध्यभाग में बारह योजन की मोटाई वाला है, उसके बाद क्रमशः प्रदेशहानि होने से थोड़ा थोड़ा कम होता होता सब चरमान्तों में दो कोस का मोटा रह जाता है। वह सर्व जम्बूनद (स्वर्ण) मय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह जम्बूपीठ एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड द्वारा सब ओर से घिरा हुआ है। दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उस जम्बूपीठ की चारों दिशाओं में चार त्रिसोपानप्रतिरूपक कहे गये हैं आदि सब वर्णन पूर्ववत् करना चाहिए। तोरणों का यावत् छत्रातिछत्रों का कथन करना चाहिए। उस जम्बूपीठ के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है जो आलिंगपुष्कर (मुरज-मृदंग) के मढ़े हुए चमड़े के समान समतल है, आदि कथन मणियों के स्पर्श पर्यन्त पूर्ववत् जानना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के ठीक मध्यभाग में एक विशाल मणिपीठिका कही गई है जो आठ योजन की लम्बी-चौड़ी और चार योजन की मोटी है, मणिमय है, स्वच्छ है, श्लक्ष्ण है यावत् प्रतिरूप है । उस मणिपीठिका के ऊपर विशाल जम्बू सुदर्शना (सुदर्शना अपर नाम जम्बू) है-जम्बूवृक्ष है। वह जम्बूवृक्ष आठ योजन ऊँचा है, आधा योजन जमीन में है, दो योजन का उसका स्कंध (धड़) है, आठ योजन उसकी चौड़ाई है, छह योजन तक उसकी शाखाएँ फैली हुई हैं, मध्यभाग में आठ योजन चौड़ा है, (उद्वेध और बाहर की ऊँचाई) मिलाकर आठ योजन से अधिक (साढे आठ योजन) ऊँचा है। इसके मूल वज्ररत्न के हैं, इसकी शाखाएँ रजत (चांदी) की हैं और ऊँची निकली हुई हैं, इस प्रकार चैत्यवृक्ष का वर्णनक कहना चाहिए यावत् उसके कन्द विपुल Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र और रिष्टरत्नों के हैं, उसके स्कंध रुचिर (सुन्दर) और वैडूर्यरत्न के हैं, इसकी मूलभूत शाखाएँ सुन्दर श्रेष्ठ चांदी की हैं, अनेक प्रकार के रत्नों और मणियों से इसकी शाखा-प्रशाखाएं बनी हुई हैं, वैडूर्यरत्नों के पत्ते हैं और तपनीय स्वर्ण के इसके पत्रवृन्त (वींट) हैं, इसके प्रवाल और पल्लवांकुर जम्बूनद नामक स्वर्ण के हैं, लाल हैं, सुकोमल हैं और मृदुस्पर्श वाले हैं। ' नानाप्रकार के मणिरत्नों के फूल हैं। वे फूल सुगन्धित हैं। उसकी शाखाएँ फल के भार से नमी हुई हैं। वह जम्बूवृक्ष सुन्दर छाया वाला, सुन्दर कान्ति वाला, शोभा वाला, उद्योत वाला और मन को अत्यन्त तृप्ति देने वाला है। वह प्रासादीय है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है। १५२.[१]जंबूए णं सुदंसणाए चउद्दिसिंचत्तारि साला पण्णत्ता,तं जहा-पुरस्थिमेणं दक्खिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं। तत्थ णं जे से पुरथिमिल्ले साले एत्थ णं एगे महं भवणे पण्णत्ते, एगं कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणं कोसं उड्डे उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसण्णिविटेवण्णओ जाव भवणस्सदारंतंचेव पमाणं पंचधणुसयाई उद्धं उच्चत्तेणं अड्डाइज्जाइंधणुसयाई विक्खंभेणं जाव वणमालाओ भूमिभागा उल्लोया मणिपेढिया पंचधणुसइया देवसयाणिज्जं भाणियव्वं। __ तत्थ णं जे से दाहिणिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए पण्णत्ते, कोसं च उड्ढे उच्चत्तेणं अद्धकोसं आयामविक्खंभेणं अब्भुग्गयमूसिय० अंतो बहुसम० उल्लोया। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं। तत्थणंजे से पच्चथिमिल्ले साले एत्थणं पासायवडेंसए पण्णत्तेतंचेव पमाणंसीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं। तत्थ णं जे से उत्तरिल्ले साले एत्थ णं एगे महं पासायवडेंसए पण्णत्ते तं चेव पमाणं सीहासणं सपरिवारं। तत्थ णं जे से उवरिमविडिमे एत्थ णं एगे महं सिद्धायतणे कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं देसूणं कोसं उ8 उच्चत्तेणं अणेगखंभसयसन्निविटे वण्णओ। तिदिसिं तओ दारा पंचधणुसया अड्डाइज्जधणुसयविक्खंभा मणिपेढिया पंचधणुसइया देवच्छंदओ पंचधणुसयाई आयामविक्खंभेणं साइरेगपंचधणुसयाइमुच्चत्तेणं। तत्थ णं देवच्छंदए अट्ठसयं जिणपडिमाणं जिणस्सेहपमाणाणं, एवं सव्वा सिद्धायतण वत्तव्वया भाणियव्वा जाव धूवकडुच्छाया उत्तिमागारा सोलसविहेहिं रयणेहिं उवेए चेव। १. वृत्तिकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए लिखा है-'अपरे सौवर्णिक्यो मूलशाखाः प्रशाखा रजतमय्यः इत्युचुः।' अन्ये तु जम्बूनदमया अग्रप्रवाला अंकुरापरपर्याया राजता इत्याहु । इस विषयक संग्रहणी गाथाएं इस प्रकार हैंमूला वइरमया से कंदो खंधो य रिट्ठवेरुलिओ। सोवण्णियसाहप्पसाह तह जायरूवा य ॥१॥ विडिमा रयय वेरुलिय पत्त तवणिज्ज पत्तविंटा य। पल्लव अग्गपवाला जम्बूणय रायया तीसे ॥२॥ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४४३ [१५२] (१) सुदर्शना अपर नाम जम्बू की चारों दिशाओं में चार-चार शाखाएँ कही गई हैं, यथापूर्व में, दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में। उनमें से पूर्व की शाखा पर एक विशाल भवन कहा गया है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा, देशोन एक कोस ऊँचा है, अनेक सैकड़ों खंभों पर आधारित है आदि वर्णन भवन के द्वार तक करना चाहिए। वे द्वार पाँच सौ धनुष के ऊँचे, ढाई सौ धनुष के चौड़े यावत् वनमालाओं, भूमिभागों, ऊपरीछतों और पांच सौ धनुष की मणिपीठिका और देवशयनीय का पूर्ववत् वर्णन करना चाहिए। उस जम्बू की दक्षिणी शाखा पर एक विशाल प्रासादावतंसक है, जो एक कोस ऊँचा, आधा कोस लम्बा-चौड़ा हैं, आकाश को छूता हुआ और उन्नत है। उसमें बहुसमरमणीय भूमिभाग है, भीतरी छतें चित्रित हैं आदि वर्णन जानना चाहिए। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में सिंहासन है, वह सिंहासन सपरिवार है अर्थात् उसके आसपास अन्य सामानिक देवों आदि के भद्रासन हैं। यह सब वर्णन पूर्ववत् कहना चाहिए। उस जम्बू की पश्चिमी शाखा पर एक विशाल प्रासादावतंसक है। उसका वही प्रमाण है और सब वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए यावत् वहाँ सपरिवार सिंहासन कहा गया है। ___उस जम्बू की उत्तरी शाखा पर भी एक विशाल प्रासादावतंसक है आदि सब कथन-प्रमाण, सपरिवार सिंहासन आदि पूर्ववत् जानना चाहिए। उस जम्बूवृक्ष की ऊपरी शाखा पर एक विशाल सिद्धायतन है जो एक कोस लम्बा, आधा कोस चौड़ा और देशोन एक कोस ऊँचा है और अनेक सौ स्तम्भों पर आधारित है आदि वर्णन करना चाहिए। उसकी तीनों दिशाओं में तीन द्वार कहे गये हैं जो पांच सौ धनुष ऊँचे, ढाई सौ धनुष चौड़े हैं। पांच सौ धनुष की मणिपीठिका है। उस पर पांच सौ धनुष चौड़ा और कुछ अधिक पांच सौ धनुष ऊँचा देवच्छंदक है। उस देवच्छंदक मे जिनोत्सेध प्रमाण एक सौ आठ जिनप्रतिमाएँ हैं। इस प्रकार पूरी सिद्धायतन वक्तव्यता कहना चाहिए। यावत् वहाँ धूपकडुच्छुक है। वह उत्तम आकार का है और सोलह प्रकार के रत्नों से युक्त १५२.(२) जंबूणंसुदंसणा मूले बारसहिं पउमवरवेइयाहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। ताओ णं पउमवरवेइयाओ अद्धजोयणं उ8 उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खंभेणं, वण्णओ। जंबू णं सुदंसणा अण्णेणं अट्ठसएणं जंबूणं तयद्भुच्चत्तप्पमाणमेत्तेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता।ताओणं जंबूओचत्तारि जोयणाई उड्डे उच्चत्तेणं कोसंच उव्वेहेणंजोयणं खंधो, कोसं विक्खंभेणं तिण्णिजोयणाई विडिमा, बहुमज्झदेसभाए चत्तारिजोयणाई आयामविक्खंभेणं साइरेगाइं चत्तारि जोयणाई सव्वग्गेणं, वइरामयमूला सो चेव चेइयरुक्खवण्णओ। ___ जंबूए णं सुदंसणाए अवरुतरेणं उत्तरेणं उत्तरपत्थिमेणं एत्थ णं अणढियस्स चउण्हं सामाणियसहस्सीणं चत्तारि जंबूसाहस्सीओ पण्णत्ताओ।जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमेणं एत्थ णं अणढियस्स देवस्स चउण्हे अग्गमहिसीणं चत्तारि जंबूओ पण्णत्ताओ। एवं परिवारो सव्वो Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ ] भाणियव्वो जंबूए जाव आयरक्खाणं । जंबू णं सुंदसणा तिहिं जोयणसइएहिं वणसंडेहिं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता, तं जहापढमेणं दोच्चेणं तच्चेणं । जंबूए णं सुदंसणाए पुरत्थिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं एगे महं भवणं पण्णत्ते, पुरत्थिमिल्ले भवणसरिसे भाणियव्वे जाव सयणिज्जं । एवं दाहिणेणं पच्चत्थिमेणं उत्तरेणं । [जीवाजीवाभिगमसूत्र जंबू ण सुदंसणा उत्तरपुरत्थिमेणं पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता चत्तारि नंदापुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - पउमा पउमप्पभा चेव कुमुदा कुमयप्पभा । ताओ णं णंदापुक्खरिणीओ कोसं आयामेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं पंचधणुसयाई उव्वेहेणं अच्छाओ सहाओ लहाओ घट्टाओ मट्ठाओ णिप्पंकाओ णीरयाओ जाव पडिरूवाओ। वण्णओ भाणियव्वो जाव तोरणत्ति । तासिं णं णंदापुक्खरिणीणं बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं पासायवडेंसए पण्णत्ते कोसप्पमाणे अद्धकोसं विक्खंभो सो चेव वण्णओ जाव सीहासणं सपरिवारं । एवं दक्खिण- पुरत्थिमेण वि पण्णासं जोयणाई ओगहित्ता चत्तारि णंदापुक्खरिणीओ उप्पलगुम्मा, नलिणा उप्पला, उप्पलुज्जला, तं चेव पमाणं तहेव पासायवडेंसगो तप्पमाणो । एवं दक्खिण-पच्चत्थिमेण वि पण्णासं जोयणाणं नवरं भिंगा भिंगाणिमा चेव अंजणा कज्जलप्पभा । सेसं तं चेव । जंबू णं सुदंसणा उत्तरपुरत्थिमे पढमं वणसंडं पण्णासं जोयणाई ओगाहित्ता एत्थ णं चत्तारि णंदाओ पुक्खरिणीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - सिरिकंता सिरिमहिया सिरिचंदा चेव तह य सिरिणिलया । तं चेव पमाणं तहेव पासायवडिंसओ । [१५२] (२) यह सुदर्शना जम्बू मूल में बारह पद्मवरवेदिकाओं से चारों ओर से घिरी हुई है। वे पद्मवरवेदिकाएँ आधा योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी हैं। यहाँ पद्मवरवेदिका का वर्णनक कहना चाहिए । यह जम्बूसुदर्शना एक सौ आठ अन्य उससे आधी ऊँचाई वाली जंबुओं से चारों ओर घिरी हुई है । जम्बू चार योजन ऊँची, एक कोस जमीन में गहर हैं, एक योजन का उनका स्कन्ध, एक योजन का विष्कंभ है, तीन योजन तक फैली हुई शाखाएँ हैं। उनका मध्यभाग में चार योजन का विष्कंभ है और चार योजन से अधिक उनकी समग्र ऊँचाई है। वज्रमय उनके मूल हैं, आदि चैत्यवृक्ष का वर्णनक यहाँ कहना चाहिए । जम्बूसुदर्शना के पश्चिमोत्तर में, उत्तर में और उत्तरपूर्व में अनाहत देव के चार हजार सामानिक देवों के चार हजार जम्बू हैं। जम्बूसुदर्शना के पूर्व में अनाहत देव की चार अग्रमहिषियों के चार जम्बू हैं । इस प्रकार समस्त परिवार यावत् आत्मरक्षकों के जंबुओं का कथन करना चाहिए । जंबूसुदर्शना सौ-सौ योजन के तीन वनखण्डों से चारों ओर घिरी हुई है, यथा- प्रथम वनखंड, द्वितीय Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४४५ वनखंड और तृतीय वनखंड। जंबूसुदर्शना के पूर्वीय प्रथम वनखण्ड में पचास योजन आगे जाने पर एक विशाल भवन है; पूर्व के भवन के समान ही शयनीय पर्यन्त सब वर्णन जान लेना चाहिए। इसी प्रकार दक्षिण में, पश्चिम में और उत्तर में भी भवन समझने चाहिए। जम्बूसुदर्शना के उत्तरपूर्व के प्रथम वनखंड में पचास योजन आगे जाने पर चार नंदापुष्करिणियां कही गई हैं, उनके नाम हैं-पद्मा, पद्मप्रभा, कुमुदा और कुमुदप्रभा। वे नंदापुष्करिणियां एक कोस लम्बी, आधा कोस चौड़ी, पांच सौ धनुष गहरी हैं। वे स्वच्छ, श्लक्ष्ण, धृष्ट, मृष्ट, निष्पंक, नीरजस्क हैं यावत् प्रतिरूप हैं, इत्यादि वर्णनक तोरण पर्यन्त कहना चाहिए। ___उन नंदापुष्करिणियों के बहुमध्यदेशभाग में प्रासादावतंसक कहा गया है जो एक कोस ऊँचा है, आधा कोस का चौड़ा है, इत्यादि वही वर्णनक सपरिवार सिंहासन तक कहना चाहिए। ___ इसी प्रकार दक्षिण-पूर्व में भी पचास योजन जाने पर चार नंदापुष्करिणियां हैं, यथा-उत्पल-गुल्मा, नलिना, उत्पला, उत्पलोज्ज्वला। उनका प्रमाण, प्रासादावतंसक और उसका प्रमाण पूर्ववत् है। इसी प्रकार दक्षिण-पश्चिम में भी पचास योजन आगे जाने पर चार पुष्करिणियां हैं, यथा-भुंगा, ,गिनिया, अंजना एवं कज्जलप्रभा। शेष सब पूर्ववत् । जम्बूसुदर्शनी के उत्तर-पूर्व में प्रथम वनखंड में पचास योजन आगे जाने पर चार नंदापुष्करिणियां हैं, उनके नाम हैं-श्रीकान्ता, श्रीमहिता, श्रीचंद्रा और श्रीनिलया। वही प्रमाण और प्रासादावतंसक तथा उसका प्रमाण भी वही है। १५२. [३] जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमिल्लस्स भवणस्स उत्तरेणं उत्तरपुरस्थिमस्स पासायवडेंसगस्स दाहिणेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते अट्ट जोयणाई उड्डूं उच्चत्तेणं मूले बारस जोयणाइं विक्खंभेणंमाझे अट्ठजोयणाइं(आयाम)विक्खंभेण उवरिंचत्तारिजोयणाई(आयाम) विक्खंभेणं मूले साइरेगाई सत्ततीसं जोयणाई परिक्खेवेणं, मझे साइरेगाइं पणुवीसं जोयणाई परिक्खेवेणं उवरिं साइरेगाइं बारसजोयणाइं परिक्खेवेणं मूले विच्छिण्णे मज्झे संखित्ते उप्पिं तणुए गोपुच्छसंठाणसंठिए सव्वजंबूणयामए अच्छे जाव पडिरूवे।सेणंएगाए पउमवरवेइयाए एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खित्ते; दोण्हवि वण्णओ। तस्स णं कूडस्स उवरिं बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते जाव आसयंतिः। तस्स णं बहुसमरमणिज्जस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एगं सिद्धायतणं कोसप्पमाणं सव्वा १. वृत्ति के अनुसार इनके नामों का क्रम इस प्रकार है श्रीकान्ता, श्रीचन्द्रा श्रीनिलया और श्रीमहिता। उक्तं चपउमा पउमप्पभा चेव कुमुया कुमुयप्पभा। उप्पलगुम्मा नलिणा उप्पला उप्पलुज्जला ॥१॥ भिंगा भिंगनिभा चेव अंजण्ण कज्जलप्पभा। सिरिकंता सिरिचंदा सिरिनिलया सिरिमहिया॥२॥ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सिद्धयतणवत्तव्वया। जंबूए णं सुदंसणाए पुरथिमस्स भवणस्स दाहिणेणं दाहिणपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं य।। जंबूए णं सुदंसणाए दाहिणिल्लस्स भवणस्स पुरत्थिमेणं दाहिणपुरस्थिमस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णंएगे महं कूडे पण्णत्ते।दाहिणस्स भवणस्स परओ दाहिणपच्चत्थिमिल्लस्स पासायवडिंसगस्स पुरथिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते। जंबूओ पच्चथिमिल्लस्स भवणस्सदाहिणेणंदाहिणपच्चथिमिल्लस्स पासायवडिंसगस्स उत्तरेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते; तं चेव पमाणं सिद्धायतणं य। जंबूए पच्चत्थिमभवणउत्तरेणं उत्तरपच्चस्थिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स दाहिणेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं सिद्धायतणं च। ___ जंबूए उत्तरस्स भवणस्स पच्चत्थिमेणं उत्तरपच्चत्थिमस्स पासायवडेंसगस्स पुरथिमेणं एत्थ णं एगे कूडे पण्णत्ते, तं चेव। जंबूए उत्तरभवणस्स पुरथिमेणं उत्तरपुरथिमिल्लस्स पासायवडेंसगस्स पच्चत्थिमेणं एत्थ णं एगे महं कूडे पण्णत्ते तं चेव पमाणं तहेव सिद्धायतणं। १५२. [३] जम्बूसुदर्शना के पूर्वदिशा के भवन के उत्तर में और उत्तरपूर्व के प्रासादावतंसक के दक्षिण में एक विशाल कूट कहा गया है जो आठ योजन ऊँचा, मूल में बारह योजन चौड़ा, मध्य में आठ योजन चौड़ा ऊपर चार योजन चौड़ा, मूल में कुछ अधिक सैंतीस योजन की परिधि वाला, मध्य में कुछ अधिक पच्चीस योजन की परिधि वाला और ऊपर कुछ अधिक बारह योजन की परिधि वाला-मूल में विस्तृत, मध्य में संक्षिप्त और ऊपर पतला, गोपुच्छ आकार से संस्थित है, सर्वात्मना जाम्बूनद स्वर्णमय है, स्वच्छ है यावत् प्रतिरूप है। वह कूट एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड से चारों और से घिर हुआ है। पद्मवरवेदिका और वनखंड-दोनों का वर्णनक कहना चाहिए। उस कूट के ऊपर बहुसमरमणीय भूमिभाग है आदि पूर्ववत् वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां उठती-बैठती हैं आदि। उस बहुसमरमणीय भूमिभाग के मध्य में एक सिद्धायतन कहा गया है जो एक कोस प्रमाण वाला है-आदि सब सिद्धायतन की वक्तव्यता पूर्ववत् कहनी चाहिए। उन जम्बूसुदर्शना के पूर्वदिशा के भवन से दक्षिण में और दक्षिण-पूर्व के प्रासादावतंसक के उत्तर में एक विशाल कूट है। उसका प्रमाण वही हैं यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बूसुदर्शना के दक्षिण दिशा के भवन के पूर्व में और दक्षिण-पूर्व के प्रासादावतंसक के पश्चिम में एक विशाल कूट है। इसी तरह दाक्षिणात्य भवन के पश्चिम में और दक्षिण-पश्चिम प्रासादावतंसक के पूर्व में एक विशाल कूट है। उस जम्बूसुदर्शना के पश्चिमी भवन के दक्षिण में और दक्षिण-पश्चिम के प्रासादावतंसक के उत्तर Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति: जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] में एक विशाल कूट है। उसका प्रमाण वही है यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बूसुदर्शना के पश्चिमी भवन के उत्तर में और उत्तर-पश्चिम के प्रासादावतंसक के दक्षिण में एक विशाल कूट है। वही प्रमाण है यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बूसुदर्शना के उत्तर दिशा के भवन के पश्चिम में और उत्तर-पश्चिम के प्रासादावतंसक के पूर्व में एक विशाल कूट है आदि वर्णन करना चाहिए यावत् वहाँ सिद्धायतन है। उस जम्बूसुदर्शना के उत्तर दिशा के भवन के पूर्व में और उत्तरपूर्व के प्रासादावतंसक के पश्चिम में एक महान् कूट कहा गया है। उसका प्रमाण वही है यावत् वहाँ सिद्धायतन है। १५२. (४) जंबू णं सुदंसणा अण्णेहिं बहूहिं तिलएहिं लउएहिं जाव रायरुक्खेहिं हिंगुरुक्खेहिं जाव सव्वओ समंता संपरिक्खित्ता। जंबूए णं सुदंसणाए उवरिं बहवे अट्ठमंगलगा पण्णत्ता तं जहा-सोत्थिय सिरिवच्छ० किण्हा चामरज्झया जाव छत्ताइछत्ता। जंबूए णं सुदंसणाए दुवालस णामधेज्जा पण्णत्ता, तं जहासुदंसणा अमोहा य सुप्पबुद्धा जसोधरा। विदेह जंबू सोमणसा णियया णिच्चमंडिया॥१॥ सुभद्दा य विसाला य सुजाया सुमणीवि य। सुदंसणाए जंबूए नामधेज्जा दुवालस॥२॥ से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ-जंबू सुदंसणा जंबू सुदंसणा? गोयमा ! जंबूए णंसुदंसणाए जंबूदीवाईअणाढिए णामं देवे महिड्डिए जाव पलिओवमईिए परिवसइ।से णं तत्थ चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं जावजंबूदीवस्स जंबूए सुदंसणा अणाढियाए य रायहाणीए जाव विहरइ। कहिं णं भंते ! अणाढियस्स जाव समत्ता वत्तव्वया रायहाणीए, महिड्डिए। अदुत्तरं य णंगोयमा ! जंबूहीवे दीवे तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे जंबूरुक्खाजंबूवणा जंबूवणसंडाणिच्चं कुसुमिया जाव सिरीए अईव उवसोभेमाणा उवसोभेमाणा चिटुंति। से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइं-जंबुद्दीवे जंबुद्दीवे। अदुत्तरं च णं गोयमा ! जंबुद्दीवस्स सासए णामधेज्जे पण्णत्ते जन्न कयावि णासि जाव णिच्चे। [१५२-४] वह जंबूसुदर्शना अन्य बहुत से तिलक वृक्षों, लकुट वृक्षों यावत् राय वृक्षों और हिंगु वृक्षों से सब ओर से घिरी हुई है। जंबूसुदर्शना के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल-स्वस्तिक, श्रीवत्स यावत् दर्पण, कृष्ण चामर ध्वज यावत् छत्रातिछत्र हैं-यह सब वर्णन पूर्ववत् जानना चाहिए। जंबूसुदर्शना के बारह नाम हैं, यथा-१. सुदर्शना, २. अमोहा, ३. सुप्रबुद्धा, ४. यशोधरा, ५. विदेहजंबू, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४८ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ६. सौमनस्या, ७. नियता, ८. नित्यमंडिता, ९. सुभद्रा, १०. विशाला, ११. सुजाता, १२. सुमना । सुदर्शना जंबू के ये १२ पर्यायवाची नाम हैं । हे भगवन् ! जंबूसुदर्शना को जंबूसुदर्शना क्यों कहा जाता है ? गौतम ! जंबूसुदर्शना में जंबूद्वीप का अधिपति अनादृत नाम का महर्द्धिक देव रहता है। यावत् उसकी एक पल्योपम की स्थिति है। वह चार हजार सामानिक देवों यावत् जंबूद्वीप की जंबूसुदर्शना का और अनादृता राजधानी का यावत् आधिपत्य करता हुआ विचरता है । हे भगवन् ! अनादृत देव की अनादृता राजधानी कहाँ है ? गौतम ! पूर्व में कही हुई विजया राजधानी की पूरी वक्तव्यता यहाँ कहनी चाहिए यावत् वहां महर्द्धिक देव रहता है । गौतम ! अन्य कारण यह है कि जम्बूद्वीप नामक द्वीप में यहाँ वहाँ स्थान स्थान पर जम्बूवृक्ष, जंबूवन और जंबूवनखंड हैं जो नित्य कुसुमित रहते है यावत् श्री से अतीव अतीव उपशोभित होते विद्यमान हैं। इस कारण गौतम ! जम्बूद्वीप, जम्बूद्वीप कहलाता है। अथवा यह भी कारण है कि जम्बूद्वीप यह शाश्वत नामधेय है । यह पहले नहीं था - ऐसा नहीं, वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं और भविष्य में नहीं होगा ऐसा नहीं, यावत् यह नित्य है । विवेचन प्रस्तुत सूत्र में जम्बूसुदर्शना के बारह नाम बताये गये हैं। वे नाम सार्थक नाम हैं और विशेष अभिप्रायों को लिये हैं । उन नामों की सार्थकता इस प्रकार है १. सुदर्शना - अति सुन्दर और नयन मनोहारी होने से यह सुदर्शना कही जाती है । २. अमोघा - अपने नाम को सफल करने वाली होने से यह अमोघा कहलाती है । इसके होने से ही जम्बूद्वीप का आधिपत्य सार्थक और सफल होता है, अन्यथा नहीं । अतः यह अमोघा ऐसे सार्थक नाम वाली है । ३. सुप्रबुद्धा - मणि, कनक और रत्नों से सदा जगमगाती रहती है, अतएव यह सुप्रबुद्धा - उन्निद्र है। ४. यशोधरा - इसके कारण ही जम्बूद्वीप का यश त्रिभुवन में व्याप्त है अतएव इसे यशोधरा कहना उचित ही है। ५. विदेहजम्बू - विदेह के अन्तर्गत जम्बूद्वीप के उत्तरकुरुक्षेत्र में होने के कारण विदेहजम्बू है । ६. सौमनस्या - मन की प्रसन्नता का कारण होने से सौमनस्या है। ७. नियता - सर्वकाल अवस्थित होने से नियता है । ८. नित्यमंडिता - सदा भूषणों से भूषित होने से नित्यमंडिता है । ९. सुभद्रा - सदाकाल कल्याण - भागिनी है । इसका अधिष्ठाता महर्द्धिक देव होने से यह कदापि उपद्रवग्रस्त नहीं होती । Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय प्रतिपत्ति :जंबूद्वीप क्यों कहलाता हैं ?] [४४९ १०. विशाला-आठ योजनप्रमाण विशाल होने से यह विशाला-विस्तृता कही जाती है। ११. सुजाता-विशुद्ध मणि, कनक, रत्न आदि से निर्मित होने से यह सुजाता है, जन्मदोष रहिता है। १२. सुमना-जिसके कारण से मन शोभन-अच्छा होता है वह सुमना है। वृत्तिकार के अनुसार इन नामों का क्रम इस प्रकार है-१. सुदर्शना, २. अमोघा, ३. सुप्रबुद्धा, ४. यशोधरा, ५. सुभद्रा, ६. विशाला, ७. सुजाता, ८. सुमना, ९. विहेहजम्बू, १०. सौमनस्या, ११. नियता, १२. नित्यमंडिता। जम्बूद्वीप को जम्बूद्वीप कहने के कारण इस प्रकार बताये हैं-(१) जंबूवृक्ष से उपलक्षित होने के कारण यह जम्बूद्वीप कहलाता है। (२) जम्बूद्वीप के उत्तरकुरु क्षेत्र में यहाँ वहाँ स्थान-स्थान पर बहुत से जम्बूवृक्ष, जम्बूवन और जम्बूवनखण्ड हैं इसलिए भी यह जम्बूद्वीप कहलाता है। एक जातीय वृक्षसमुदाय को वन कहते हैं और अनेक जातीय वृक्षसमूह को वनखण्ड कहते हैं। (३) जम्बू नाम शाश्वत होने से भी यह जम्बूद्वीप कहलाता है। जम्बूद्वीप में चन्द्रादि की संख्या १५२. जंबूद्दीवेणं भंते ! दीवे कति चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासिस्संति वा? कति सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा ? कति नक्खत्ता जोयं जोयंसु वा जोयंति वा जोयस्संति वा ? कति महग्गहा चारं चरिंसु वा चरिंति वा चरिस्संति वा ? केवइयाओ तारागणकोडाकोडीओ सोहंसु वा सोहंति वा सोहेस्संति वा? गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे दो चंदा पभासिंसु वा, पभासेंति वा पभासिस्संति वा। दो सूरिया तविंसुवा तवेंति वा तविस्संति वा ।छप्पन्नं नक्खत्ताजोगंजोएंसुवाजोएंति वा जोइस्संति वा। छावत्तरं गहसयं चारं चरिंसु वा चरेंति वा चरिस्संति वा। एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साइं। णव य सया पन्नासा तारागणकोडकोडीणं॥१॥ सोभिंसु वा सोभंति वा सोभिस्संति वा। १५३. हे भगवन् ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप में कितने चन्द्र चमकते थे, चमकते हैं-उद्योत करते हैं और चमकेंगे? कितने सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे? कितने नक्षत्र (चन्द्रमा के साथ) योग करते थे, करते हैं, करेंगे? कितने महाग्रह आकाश में चलते थे, चलते हैं और चलेंगे? कितने कोडाकोडी तारागण शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे? गौतम ! जंबूद्वीप में दो चन्द्रमा उद्योत करते थे, करते हैं और करेंगे। दो सूर्य तपते थे, तपते हैं और तपेंगे। छप्पन नक्षत्र चन्द्रमा से योग करते थे, योग करते हैं और योग करेंगे। एक सौ छियत्तर महाग्रह आकाश में विचरण करते थे, करते हैं और विचरण करेंगे। एक लाख तेतीस हजार नौ सौ पचास कोडाकोडी तारागण आकाश में शोभित होते थे, शोभित होते हैं और शोभित होंगे। Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र विवेचन - जम्बूद्वीप में दो चन्द्र और दो सूर्य हैं। प्रत्येक चन्द्र के परिवार में २८ नक्षत्र, ८८ ग्रह और ६६९७५ कोडाकोडी तारागण हैं। ' दो चन्द्रमा होने से ५६ नक्षत्र, १७६ ग्रह और १, ३३, ९५० कोडाकोडी तारागण हैं । ४५० ] ॥ जम्बूद्वीप का वर्णन समाप्त ॥ १. छावट्ठिसहस्साइं नव चेव सयाई पंचसयराई । एकससीपरिवारो तारागण कोडिकोडीणं ॥ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनध्यायकाल [स्व. आचार्यप्रवर श्री आत्मारामजी म. द्वारा सम्पादित नन्दीसूत्र से उद्धृत] स्वाध्याय के लिए आगमों में जो समय बताया गया है, उसी समय शास्त्रों का स्वाध्याय करना चाहिए। अनध्यायकाल में स्वाध्याय वर्जित है। मनुस्मृति आदि स्मृतियों में भी अनध्यायकाल का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। वैदिक लोग भी वेद के अनध्यायों का उल्लेख करते हैं। इसी प्रकार अन्य आर्ष ग्रन्थों का भी अनध्याय माना जाता है। जैनागम भी सर्वज्ञोक्त, देवाधिष्ठित तथा स्वरविद्या संयुक्त होने के कारण, इनका भी आगमों में अनध्यायकाल वर्णित किया गया है, जैसे कि दसविधे अंतलिक्खिते असज्झाए पण्णत्ते, तं जहा- उक्कावाते, दिसिदाघे, गजिते, विज्जुते, निग्घाते, जुवते, जक्खालित्ते, धूमिता, महिता, रयउग्घाते। दसविहे ओरालिते असज्झातिते, तं जहा- अट्ठी, मंसं, सोणिते, असुचिसामंते, सुसाणसामंते, चंदोवराते, सूरोवराते, पडने, रायवुग्गहे, उवस्सयस्स अंतो ओरालिए सरीरगे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान १० नोकप्पति निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा चउहिं महापाडिवएहिं सज्झायंकरित्तए, तं जहा-आसाढपाडिवए इंदमहपाडिवए कत्तिअपाडिवए सुगिम्हपाडिवए। नो कप्पइ निग्गंथाण वा निग्गंथीण वा, चउहिं संझाहिं सज्झायं करेत्तए,तं जहा-पढिमाते, पच्छिमाते, मज्झण्हे अट्टरत्ते।कप्पई निग्गंथाण वा, निग्गंथीण वा, चाउक्कालं सज्झायं करेत्तए, तं जहा-पुव्वण्हे अवरण्हे, पओसे, पच्चूसे। -स्थानाङ्गसूत्र, स्थान ४, उद्देश २ उपरोक्त सूत्रपाठ के अनुसार दस आकाश से सम्बन्धित, दस औदारिक शरीर से सम्बन्धित, चार महाप्रतिपदा, चार महाप्रतिपदा की पूर्णिमा और चार सन्ध्या, इस प्रकार बत्तीस अनध्याय माने गए हैं, जिनका संक्षेप में निम्न प्रकार से वर्णन है, जैसेआकाश सम्बन्धी दस अनध्याय १. उल्कापात-तारापतन-यदि महत् तारापतन हुआ है तो एक प्रहर पर्यन्त शास्त्र स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। २.दिग्दाह-जब तक दिशा रक्तवर्ण की हो अर्थात् ऐसा मालूम पड़े कि दिशा में आग सी लगी है, तब भी स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ३.गर्जित-बादलों के गर्जन पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे।। ४. विद्युत-बिजली चमकने पर एक प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय न करे। किन्तु गर्जन और विद्युत का अस्वाध्याय चातुर्मास में नहीं मानना चाहिए। क्योंकि वह गर्जन और विद्युत प्रायः ऋतु स्वभाव से ही होता है। अत: आर्द्रा से स्वाति नक्षत्र पर्यन्त अनध्याय नहीं माना जाता। ५.निर्घात-बिना बादल के आकाश में व्यन्तरादिकृत घोर गर्जन होने पर, या बादलों सहित आकाश में कड़कने पर दो प्रहर तक अस्वाध्याय काल है। ६.यूपक- शुक्ल पक्ष में प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया की सन्ध्या, चन्द्रप्रभा के मिलने को यूपक कहा जाता है। इन दिनों प्रहर रात्रि पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ७. यक्षादीप्त-कभी किसी दिशा में बिजली चमकने जैसा, थोड़े-थोड़े समय पीछे जो प्रकाश होता है वह यक्षादीप्त कहलाता है। अतः आकाश में जब तक यक्षाकार दीखता रहे तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. धूमिका - कृष्ण - - कार्तिक से लेकर माघ तक का समय मेघों का गर्भमास होता है। इसमें धूम्र वर्ण की सूक्ष्म जलरूप धुंध पड़ती है। वह धूमिका-कृष्ण कहलाती है। जब तक यह धुंध पड़ती रहे, तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। ९. मिहिका श्वेत - शीतकाल में श्वेत वर्ण का सूक्ष्म जलरूप धुन्ध मिहिका कहलाती है। जब तक यह गिरती रहे, तब तक अस्वाध्याय काल है। १०. रज-उद्घात – वायु के कारण आकाश में चारों ओर धूलि छा जाती है। जब तक यह धूलि फैली रहती है, स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। उपरोक्त दस कारण आकाश सम्बन्धी अस्वाध्याय के हैं। औदारिक सम्बन्धी दस अनध्याय ११-१२-१३. हड्डी, मांस और रुधिर - पंचेन्द्रिय तिर्यंच की हड्डी, मांस और रुधिर यदि सामने दिखाई दें, तो जब तक वहाँ से वह वस्तुएँ उठाई न जाएँ, तब तक अस्वाध्याय है। वृत्तिकार आस-पास के ६० हाथ तक इन वस्तुओं के होने पर अस्वाध्याय मानते हैं। इसी प्रकार मनुष्य सम्बन्धी अस्थि, मांस और रुधिर का भी अनध्याय माना जाता है। विशेषता इतनी है कि इनका अस्वाध्याय सौ हाथ तक तथा एक दिन-रात का होता है। स्त्री के मासिक धर्म का अस्वाध्याय तीन दिन तक । बालक एवं बालिका के जन्म का अस्वाध्याय क्रमशः सात एवं आठ दिन पर्यन्त का माना जाता है। १४. अशुचि - मल-मूत्र सामने दिखाई देने तक अस्वाध्याय है। १५. श्मशान - श्मशानभूमि के चारों ओर सौ-सौ हाथ पर्यन्त अस्वाध्याय माना जाता है। १६. चन्द्रग्रहण – चन्द्रग्रहण होने पर जघन्य आठ, मध्यम बारह और उत्कृष्ट सोलह प्रहर पर्यन्त स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। १७. सूर्यग्रहण - माना गया है। - - सूर्यग्रहण होने पर भी क्रमशः आठ, बारह और सोलह प्रहर पर्यन्त अस्वाध्यायकाल १८. पतन – किसी बड़े मान्य राजा अथवा राष्ट्रपुरुष का निधन होने पर जब तक उसका दाहसंस्कार न हो तब तक स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। अथवा जब तक दूसरा अधिकारी सत्तारूढ न हो तब तक शनैः शनैः स्वाध्याय करना चाहिए । १९. राजव्युद्ग्रह-समीपस्थ राजाओं में परस्पर युद्ध होने पर जब तक शान्ति न हो जाए, तब तक उसके पश्चात् भी एक दिन-रात्रि स्वाध्याय नहीं करें। २०. औदारिक शरीर - उपाश्रय के भीतर पंचेन्द्रिय जीव का वध हो जाने पर जब तक कलेवर पड़ा रहे, तब तक तथा १०० हाथ तक यदि निर्जीव कलेवर पड़ा हो तो स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। - अस्वाध्याय के उपरोक्त १० कारण औदारिक शरीर सम्बन्धी कहे गये हैं। २१-२८. चार महोत्सव और चार महाप्रतिपदा- - आषाढपूर्णिमा, आश्विनपूर्णिमा, कार्तिकपूर्णिमा और चैत्र पूर्णिमा ये चार महोत्सव हैं। इन पूर्णिमाओं के पश्चात् आने वाली प्रतिपदा को महाप्रतिपदा कहते हैं। इनमें स्वाध्याय करने का निषेध है। २९-३२. प्रातः सायं मध्याह्न और अर्धरात्रि- - प्रातः सूर्य उगने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। 1 सूर्यास्त होने से एक घड़ी पहिले तथा एक घड़ी पीछे। मध्याह्न अर्थात् दोपहर में एक घड़ी आगे और एक घड़ी पीछे एवं अर्धरात्रि में भी एक घड़ी आगे तथा एक घड़ी पीछे स्वाध्याय नहीं करना चाहिए। Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ■ सदस्य-सूची / श्री आगमप्रकाशन समिति, ब्यावर अर्थसहयोगी सदस्यों की शुभ नामावली महास्तम्भ १. श्री सेठ मोहनमलजी चोरड़िया, मद्रास २. श्री गुलाबचन्दजी मांगीलालजी सुराणा, सिकन्दराबाद ३. श्री पुखराजजी शिशोदिया, ब्यावर ४. श्री सायरमलजी जेठमलजी चोरड़िया, बैंगलोर ५. श्री प्रेमराजजी भंवरलालजी श्रीश्रीमाल, दुर्ग ६. श्री एस. किशनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ७. श्री कंवरलालजी बैताला, गोहाटी ८. श्री सेठ खींवराजजी चोरड़िया मद्रास ९. श्री गुमानमलजी चोरड़िया, मद्रास १०. श्री एस. बादलचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ११. श्री जे. दुलीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १२. श्री एस. रतनचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १३. श्री जे. अन्नराजजी चोरड़िया, मद्रास १४. श्री एस. सायरचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १५. श्री आर. शान्तिलालजी उत्तमचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १६. श्री सिरेमलजी हीराचन्दजी चोरड़िया, मद्रास १७. श्री जे. हुक्मीचन्दजी चोरड़िया, मद्रास स्तम्भ सदस्य १. श्री अगरचन्दजी फतेचन्दजी पारख, जोधपुर २. श्री जसराजजी गणेशमलजी संचेती, जोधपुर ३. श्री तिलोकचंदजी सागरमलजी संचेती, मद्रास ४. श्री पूसालालजी किस्तूरचंदजी सुराणा, कटंगी ५. श्री आर. प्रसन्नचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ६. श्री दीपचन्दजी चोरड़िया, मद्रास ७. श्री मूलचन्दजी चोरड़िया, कटंगी ८. श्री वर्द्धमान इण्डस्ट्रीज, कानपुर ९. श्री मांगीलालजी मिश्रीलालजी संचेती, दुर्ग संरक्षक १. श्री बिरदीचंदजी प्रकाशचंदजी तलेसरा, पाली २. श्री ज्ञानराजजी केवलचन्दजी मूथा, पाली ३. श्री प्रेमराजजी जतनराजजी मेहता, मेड़ता सिटी ४. श्री श. जड़ावमलजी माणकचन्दजी बेताला, बागलकोट ५. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री मोहनलालजी नेमीचन्दजी ललवाणी, चांगाटोला ७. श्री दीपचंदजी चन्दनमलजी चोरड़िया, मद्रास ८. श्री पन्नालालजी भागचन्दजी बोथरा, चांगाटोला ९. श्रीमती सिरेकुँवर बाई धर्मपत्नी स्व. श्री सुगनचन्दजी झामड़, मदुरान्तकम् १०. श्री बस्तीमलजी मोहनलालजी बोहरा (KGF) जाड़न ११. श्री थानचन्दजी मेहता, जोधपुर १२. श्री भैरूदानजी लाभचन्दजी सुराणा, नागौर १३. श्री खूबचन्दजी गादिया, ब्यावर १४. श्री मिश्रीलालजी धनराजजी विनायकिया, ब्यावर १५. श्री इन्द्रचन्दजी बैद, राजनांदगांव १६. श्री रावतमलजी भीकमचन्दजी पगारिया, . बालाघाट १७. श्री गणेशमलजी धर्मीचन्दजी कांकरिया, टंगला १८. श्री सुगनचन्द्रजी बोकड़िया, इन्दौर १९. श्री हरकचन्दजी सागरमलजी बेताला, इन्दौर २०. श्री रघुनाथमलजी लिखमीचन्दजी लोढ़ा, चांगाटोला २१. श्री सिद्धकरणजी शिखरचन्दजी बैद, चांगाटोला Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य- सूची / २२. श्री सागरमलजी नोरतमलजी पींचा, मद्रास २३. श्री मोहनराजजी मुकनचन्दजी बालिया, अहमदाबाद २४. श्री केशरीमलजी जंवरीलालजी तलेसरा, पाली २५. श्री रतनचन्दजी उत्तमचन्दजी मोदी, ब्यावर २६. श्री धर्मीचन्दजी भागचन्दजी बोहरा, झुंठा २७. श्री छोगामलजी हेमराजजी लोढ़ा डोंडीलोहारा २८. श्री गुणचंदजी दलीचंदजी कटारिया, बेल्लारी २९. श्री मूलचन्दजी सुजानमलजी संचेती, जोधपुर ३०. श्री सी. अमरचन्दजी बोथरा, मद्रास ३१. श्री भंवरलालजी मूलचन्दजी सुराणा, मद्रास ३२. श्री बादलचंदजी जुगराजजी मेहता, इन्दौर ३३. श्री लालचंदजी मोहनलालजी कोठारी, गोठन ३४. श्री हीरालालजी पन्नालालजी चौपड़ा, अजमेर ३५. श्री मोहनलालजी पारसमलजी पगारिया, बैंगलोर ३६. श्री भंवरीमलजी चोरड़िया, मद्रास ३७. श्री भंवरलालजी गोठी, मद्रास ३८. श्री जालमचंदजी रिखबचंदजी बाफना, आगरा ३९. श्री घेवरचंदजी पुखराजजी भुरट, गोहाटी ४०. श्री जबरचन्दजी गेलड़ा, मद्रास ४१. श्री जड़ावमलजी सुगनचन्दजी, मद्रास ४२. श्री पुखराजजी विजयराजजी, मद्रास ४३. श्री चेनमलजी सुराणा ट्रस्ट, मद्रास ४४. श्री लूणकरणजी रिखबचंदजी लोढ़ा, मद्रास ४५. श्री सूरजमलजी सज्जनराजजी महेता, कोप्पल सहयोगी सदस्य १. श्री देवकरणजी श्रीचन्दजी डोसी, मेड़तासिटी २. श्रीमती छगनीबाई विनायकिया, ब्यावर ३. श्री पूनमचन्दजी नाहटा, जोधपुर ४. श्री भंवरलालजी विजयराजजी कांकरिया, चिल्लीपुरम् ५. श्री भंवरलालजी चौपड़ा, ब्यावर ६. श्री विजयराजजी रतनलालजी चतर, ब्यावर ७. श्री बी. गजराजजी बोकडिया, सेलम ८. श्री फूलचन्दजी गौतमचन्दजी कांठेड, पाली ९. श्री के. पुखराजजी बाफणा, मद्रास १०. श्री रूपराजजी जोधराजजी मूथा, दिल्ली ११. श्री मोहनलालजी मंगलचंदजी पगारिया, रायपुर १२. श्री नथमलजी मोहनलालजी लूणिया, चण्डावल १३. श्री भंवरलालजी गौतमचन्दजी पगारिया, कुशालपुरा १४. श्री उत्तमचंदजी मांगीलालजी, जोधपुर १५. श्री मूलचन्दजी पारख, जोधपुर १६. श्री सुमेरमलजी मेड़तिया, जोधपुर १७. श्री गणेशमलजी नेमीचन्दजी टांटिया, जोधपुर १८. श्री उदयराजजी पुखराजजी संचेती, जोधपुर १९. श्री बादरमलजी पुखराजजी बंट, कानपुर २०. श्रीमती सुन्दरबाई गोठी धर्मपत्नी श्री ताराचंदजी गोठी, जोधपुर २१. श्री रायचन्दजी मोहनलालजी, जोधपुर २२. श्री घेवरचन्दजी रूपराजजी, जोधपुर २३. श्री भंवरलालजी माणकचंदजी सुराणा, मद्रास २४. श्री जंवरीलालजी अमरचन्दजी कोठारी, ब्यावर २५. श्री माणकचंदजी किशनलालजी, मेड़तासिटी २६. श्री मोहनलालजी गुलाबचन्दजी चतर, ब्यावर २७. श्री जसराजजी जंवरीलालजी धारीवाल, २८. श्री मोहनलालजी चम्पालालजी गोठी, जोधपुर २९. श्री नेमीचंदजी डाकलिया मेहता, जोधपुर ३०. श्री ताराचंदजी केवलचंदजी कर्णावट, जोधपुर ३१. श्री आसूमल एण्ड कं., जोधपुर ३२. श्री पुखराजजी लोढा, जोधपुर ३३. श्रीमती सुगनीबाई धर्मपत्नी श्री मिश्रीलालजी सांड, जोधपुर Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सदस्य-सूची/ ३४. श्री बच्छराजजी सुराणा, जोधपुर ६३. श्री चन्दनमलजी प्रेमचंदजी मोदी, भिलाई ३५. श्री हरकचन्दजी मेहता, जोधपुर ६४. श्री भीवराजजी बाघमार, कुचेरा ३६. श्री देवराजजी लाभचंदजी मेड़तिया, जोधपुर ६५. श्री तिलोकचंदजी प्रेमप्रकाशजी, अजमेर ३७. श्री कनकराजजी मदनराजजी गोलिया, जोधपुर ६६. श्री विजयलालजी प्रेमचंदजी गुलेच्छा ३८. श्री घेवरचन्दजी पारसमलजी टांटिया, जोधपुर राजनांदगाँव ३९. श्री मांगीलालजी चोरड़िया, कुचेरा ६७. श्री रावतमलजी छाजेड़, भिलाई ४०. श्री सरदारमलजी सुराणा, भिलाई ६८. श्री भंवरलालजी इंगरमलजी कांकरिया, ४१. श्री ओकचंदजी हेमराजजी सोनी, दुर्ग । भिलाई ४२. श्री सूरजकरणजी सुराणा, मद्रास ६९. श्री हीरालालजी हस्तीमलजी देशलहरा, ४३. श्री घीसूलालजी लालचंदजी पारख, दुर्ग भिलाई ४४. श्री पुखराजजी बोहरा,(जैन ट्रान्सपोर्ट कं.) _ ६०. श्री वर्धमान स्थानकवासी जैन श्रावकसंघ, दल्ली-राजहरा जोधपुर ७१. श्री चम्पालालजी बुद्धराजजी बाफणा, ब्यावर ४५. श्री चम्पालालजी सकलेचा, जालना ७२. श्री गंगारामजी इन्द्रचंदजी बोहरा, कुचेरा ४६. श्री प्रेमराजजी मीठालालजी कामदार, बैंगलोर ७३. श्री फतेहराजजी नेमीचंदजी कर्णावट, ४७. श्री भंवरलालजी मूथा एण्ड सन्स, जयपुर । कलकत्ता ४८. श्री लालचंदजी मोतीलालजी गादिया, बैंगलोर ७४. श्री बालचंदजी थानचन्दजी भुरट, कलकत्ता ४९. श्री भंवरलालजी नवरत्नमलजी सांखला, ७५. श्री सम्पतराजजी कटारिया, जोधपुर मेटूपलियम ७६. श्री जवरीलालजी शांतिलालजी सुराणा, बोलारम ५०. श्री पुखराजजी छल्लाणी, करणगुल्ली ७७. श्री कानमलजी कोठारी, दादिया ५१. श्री आसकरणजी जसराजजी पारख, दुर्ग . ७५. श्री पन्नालालजी मोतीलालजी सुराणा, पाली ५२. श्री गणेशमलजी हेमराजजी सोनी, भिलाई ७९. श्री माणकचंदजी रतनलालजी मुणोत, टंगला ५३. श्री अमृतराजजी जसवन्तराजजी मेहता, ८०. श्री चिम्मनसिंहजी मोहनसिंहजी लोढा, ब्यावर मेड़तासिटी ८१. श्री रिद्धकरणजी रावतमलजी भुरट, गौहाटी ५४. श्री घेवरचंदजी किशोरमलजी पारख, जोधपुर ८२. श्री पारसमलजी महावीरचंदजी बाफना, गोठन ५५ श्री मांगीलालजी रेखचंदजी पारख, जोधपुर ८३. श्री फकीरचंदजी कमलचंदजी श्रीश्रीमाल, ५६. श्री मुन्नीलालजी मूलचंदजी गुलेच्छा, जोधपुर कुचेरा ५७. श्री रतनलालजी लखपतराजजी, जोधपुर . ८४. श्री मांगीलालजी मदनलालजी चोरडिया. ५८. श्री जीवराजजी पारसमलजी कोठारी, मेड़ता- भैरूंदा सिटी ८५. श्री सोहनलालजी लूणकरणजी सुराणा, कुचेरा ५९. श्री भंवरलालजी रिखबचंदजी नाहटा, नागौर ८६. श्री घीसूलालजी, पारसमलजी, जंवरीलालजी ६०. श्री मांगीलालजी प्रकाशचन्दजी रूणवाल, ____ कोठारी, गोठन मैसूर ८७. श्री सरदारमलजी एण्ड कम्पनी, जोधपुर ६१. श्री पुखराजजी बोहरा, पीपलिया कलां ८८. श्री चम्पालालजी हीरालालजी बागरेचा, ६२. श्री हरकचंदजी जुगराजजी बाफना, बैंगलोर जोधपुर Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८९. श्री पुखराजजी कटारिया, जोधपुर ११२. श्री चांदमलजी धनराजजी मोदी, अजमेर ९०. श्री इन्द्रचन्दजी मुकनचन्दजी, इन्दौर ११३. श्री रामप्रसन्न ज्ञानप्रसार केन्द्र, चन्द्रपुर ९१. श्री भंवरलालजी बाफणा, इन्दौर ११४. श्री भूरमलजी दुलीचंदजी बोकड़िया, मेड़ता९२. श्री जेठमलजी मोदी, इन्दौर सिटी ९३. श्री बालचन्दजी अमरचन्दजी मोदी, ब्यावर ११५. श्री मोहनलालजी धारीवाल, पाली ९४. श्री कुन्दनमलजी पारसमलजी भंडारी, बैंगलोर ११६. श्रीमती रामकुंवरबाई धर्मपत्नी श्री चांदमलजी ९५. श्रीमती कमलाकंवर ललवाणी धर्मपत्नी स्व. लोढा, बम्बई श्री पारसमलजी ललवाणी, गोठन ११७. श्री माँगीलालजी उत्तमचंदजी बाफणा, बैंगलोर ९६. श्री अखेचन्दजी लूणकरणजी भण्डारी, ११८. श्री सांचालालजी बाफणा, औरंगाबाद कलकत्ता ११९. श्री भीखमचन्दजी माणकचन्दजी खाबिया, ९७. श्री सुगनचन्दजी संचेती, राजनांदगांव (कुडालोर)मद्रास ९८. श्री प्रकाशचंदजी जैन, नागौर १२०. श्रीमती अनोपकुंवर धर्मपत्नी श्री चम्पालालजी ९९. श्री कुशालचंदजी रिखबचन्दजी सराणा, संघवी, कुचेरा बोलारम १२१. श्री सोहनलालजी सोजतिया, थांवला १००. श्री लक्ष्मीचंदजी अशोककुमारजी श्रीश्रीमाल, १२२. श्री चम्पालालजी भण्डारी, कलकत्ता कुचेरा १२३. श्री भीखमचन्दजी गणेशमलजी चौधरी, १०१. श्री गूदड़मलजी चम्पालालजी, गोठन धूलिया १०२. श्री तेजराजजी कोठारी, मांगलियावास १२४. श्री पुखराजजी किशनलालजी तातेड़, १०३. श्री सम्पतराजजी चोरड़िया, मद्रास सिकन्दराबाद १०४. श्री अमरचंदजी छाजेड़, पादु बड़ी १२५. श्री मिश्रीलालजी सज्जनलालजी कटारिया, १०५. श्री जुगराजजी धनराजजी बरमेचा, मद्रास सिकन्दराबाद १०६. श्री पुखराजजी नाहरमलजी ललवाणी, मद्रास १२६. श्री वर्द्धमान स्थानकवासी जैन श्रावक संघ, १०७. श्रीमती कंचनदेवी व निर्मला देवी, मद्रास बगड़ीनगर १०८. श्री दुलेराजजी भंवरलालजी कोठारी, कुशाल- १२७. श्री पुखराजजी पारसमलजी ललवाणी, पुरा बिलाड़ा १०९. श्री भंवरलालजी मांगीलालजी बेताला, डेह १२८. श्री टी. पारसमलजी चोरड़िया, मद्रास ११०. श्री जीवराजजी भंवरलालजी चोरड़िया, भैरूंदा १२९. श्री मोतीलालजी आसूलालजी बोहरा एण्ड १११. श्री मांगीलालजी शांतिलालजी रूणवाल, कं., बैंगलोर हरसोलाव १३०. श्री सम्पतराजजी सुराणा, मनमाड़ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवाचार्य श्री मिश्रीमलजी म.सा. 'मधुकर' मुनि का (जीवन परिचय जन्म तिथि वि.सं. 1970 मार्गशीर्ष शुक्ला चतुर्दशी जन्म-स्थान तिंवरी नगर, जिला-जोधपुर (राज.) माता श्रीमती तुलसीबाई पिता श्री जमनालालजी धाड़ीवाल दीक्षा तिथि वैशाख शुक्ला 10 वि.सं. 1980 दीक्षा-स्थान भिणाय ग्राम, जिला-अजमेर दीक्षागुरु श्री जोरावरमलजी म.सा. शिक्षागुरु (गुरुभ्राता) श्री हजारीमलजी म.सा. आचार्य परम्परा पूज्य आचार्य श्री जयमल्लजी म.सा. आचार्य पद जय गच्छ-वि.सं.२००४ श्रमण संघ की एकता हेतु आचार्य पद का त्याग वि.सं. 2009 उपाध्याय पद वि.सं. 2033 नागौर (वर्षावास) युवाचार्य पद की घोषणा श्रावण शुक्ला 1 वि.स. 2036 दिनांक 25 जुलाई 1979 (हैदराबाद) युवाचार्य पद-चादर महोत्सव वि.सं. 2037 चैत्र शुक्ला 10 दिनांक 23-3-80, जोधपुर स्वर्गवास वि.सं. 2040 मिगसर वद 7 दिनांक 26-11-1983, नासिक (महाराष्ट्र) आपका व्यक्तित्व एवं ज्ञान : 1. गौरवपूर्ण भव्य तेजस्वी ललाट, चमकदार बड़ी आँखें, मुख पर स्मित की खिलती आभा और स्नेह तथा सौजन्य वर्षाति कोमल वाणी, आध्यात्मिक तेज का निखार, गुरुजनों के प्रति अगाध श्रद्धा, विद्या के साथ विनय, अधिकार के साथ विवेक और अनुशासित श्रमण थे। 2. प्राकृत, संस्कृत, व्याकरण, प्राकृत व्याकरण, जैन आगम, न्याय दर्शन आदि का प्रौढ़ ज्ञान मुनिश्री को प्राप्त था। आप उच्चकोटि के प्रवचनकार, उपन्यासकार, कथाकार एवं व्याख्याकार थे। आपके प्रकाशित साहित्य की नामावली प्रवचन संग्रह : 1. अन्तर की ओर, भाग 1 व 2,2. साधना के सूत्र, 3. पर्युषण पर्व प्रवचन, 4. अनेकान्त दर्शन, 5. जैन-कर्मसिद्धान्त, 6. जैनतत्त्व-दर्शन, 7. जैन संस्कृत-एक विश्लेषण, 8. गृहस्थधर्म, 9. अपरिग्रह दर्शन, 10. अहिंसा दर्शन, 11. तप एक विश्लेषण, 12. आध्यात्म-विकास की भूमिका। कथा साहित्य : जैन कथा माला, भाग 1 से 51 तक उपन्यास : १.पिंजरे का पंछी, 2. अहिंसा की विजय, 3. तलाश, 4. छाया, 5. आन पर बलिदान। अन्य पुस्तकें :1. आगम परिचय, 2. जैनधर्म की हजार शिक्षाएँ, 3. जियो तो ऐसे जियो। विशेष : आगम बत्तीसी के संयोजक व प्रधान सम्पादक। शिष्य : आपके एक शिष्य हैं-१. मुनि श्री विनयकुमारजी 'भीम'