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तृतीय प्रतिपत्ति तृतीय उद्देशक
नैरयिकों के विषय में और अधिक प्रतिपादन करने के लिए तृतीय उद्देशक का आरम्भ किया गया है। उसका आदिसूत्र इस प्रकार हैनारकों का पुद्गलपरिणाम
९५. इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए नेरइया केरिसयं पोग्गलपरिणामं पच्यणुब्भवमाणा विहरंति ? गोयमा ! अणिटुं जाव अमणाम। एवं जाव अहेसत्तमाए एवं नेयव्वं ।
एत्थ किर अतिवयंति नरवसभा केसवा जलयरा य। मंडलिया रायाणो जे य महारंभ कोडंबी॥१॥ भिन्नमुहुत्तो नरएसु होई तिरियमणुएसु चत्तारि। देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउव्वणा भणिय॥२॥ जो पोग्गला अणिट्ठा नियमा सो तेसि होइ आहारो। संठाणं तु जहण्णं नियमा हुंडं तु नायव्वं ॥३॥ असुभा विउव्वणा खलु नेरइयाणं उ होइ सव्वेसिं। वेउव्वियं सरीरं असंघयण हुंडसंठाणं ॥४॥ अस्साओ उववण्णो अस्साओ चेव चयइ निरयभवं। सव्यपुढवीसु जीवो सव्वेसु ठिइ विसेसेसुं ॥५॥ उववाएण व सायं नेरइयो देव-कम्मुणा वावि। अज्झवसाण निमित्तं अहवा कम्माणुभावेणं ॥६॥ नेरइयाणुप्पाओ उक्कोसं पंचजोयणसयाई। दुक्खेणाभिदुयाणं वेयणसय संपगाढाणं ॥७॥ अच्छिनिमीलियमेत्तं नत्थि सुहं दुक्खमेव पडिबद्धं। नरए नेरइयाणं अहोनिसं पच्चमाणाणं ॥८॥ तेयाकम्मसरीरी सुहमसरीरा य जे अपग्जत्ता। जीवेण मुक्कमेत्ता वच्चंति सहस्ससो भेयं ॥९॥ अतिसीयं अतिउण्हं अतिखुहा अतिभयं वा। निरये नेरइयाणं दुक्खसयाई अविस्सामं ॥१०॥