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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
एत्थ य भिन्नमहत्तो पोग्गल असुहा य होई अस्साओ।
उववाओ उप्पाओ अच्छिसरीरा उ बोद्धव्वा ॥११॥ नारयउद्देसओ तइओ। से तं नेरइया॥
[९५] हे भगवन् ! इस स्त्रप्रभापृथ्वी के नैरयिक किस प्रकार के पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं ?
गौतम ! अनिष्ट यावत् अमनाम पुद्गलों के परिणमन का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार सप्तम पृथ्वी के नैरयिकों तक कहना चाहिए।
इस सप्तमपृथ्वी में प्रायः करके नरवृषभ (लौकिक दृष्टि से वड़े समझे जाने वाले और अति भोगासक्त) वासुदेव, जलचर, मांडलिक राजा और महा आरम्भ वाले गृहस्थ उत्पन्न होते हैं ॥१॥
नारकों में अन्तर्मुहूर्त, तिर्यक् और मनुष्य में चार अन्तर्मुहूर्त और देवों में पन्द्रह दिन का उत्तर विकुर्वणा का उत्कृष्ट अवस्थानकाल है॥२॥
जो पुद्गल निश्चित रूप से अनिष्ट होते हैं, उन्हीं का नैरयिक आहार (ग्रहण) करते हैं। उनके शरीर की आकृति अति निकृष्ट और हुंडसंस्थान वाली होती है ॥ ३॥
सब नैरयिकों की उत्तरविक्रिया भी अशुभ ही होती है। उनका वैक्रियशरीर असंहनन वाला और हुंडसंस्थान वाला होता है॥ ४॥
नारक जीवों का-चाहे वे किसी भी नरकपृथ्वी के हों और चाहे जैसी स्थिति वाले हों-जन्म असातावाला होता है, उनका सारा नारकीय जीवन दुःख में ही बीतता है। (सुख का लेश भी वहाँ नहीं है।) ॥५॥
(उक्त कथन का अपवाद बताते हैं-) नैरयिक जीवों में से कोई जीव उपपात (जन्म) के समय ही साता का वेदन करता है, पूर्व सांगतिक देव के निमित्त से कोई नैरयिक थोड़े समय के लिए साता का . वेदन करता है, कोई नैरयिक सम्यक्त्व-उत्पत्तिकाल में शुभ अध्यवसायों के कारण साता का वेदन करता
है अथवा कर्मानुभाव से-तीर्थंकरों के जन्म, दीक्षा, ज्ञान तथा निर्वाण कल्याणक के निमित्त से साता का वेदन करते हैं ॥६॥
सैकड़ों वेदनाओं के अवगाढ होने के कारण दुःखों से सर्वात्मना व्याप्त नैरयिक (दुःखों से छटपटाते हुए) उत्कृष्ट पांच सौ योजन तक ऊपर उछलते हैं ॥ ७॥
रात-दिन दुःखों से पचते हुए नैरयिकों को नरक में पलक मूंदने मात्र के लिए भी सुख नहीं है किन्तु दुःख ही दुःख सदा उनके साथ लगा हुआ है॥ ८॥
तैजस-कार्मण शरीर, सूक्ष्मशरीर और अपर्याप्त जीवों के शरीर जीव के द्वारा छोड़े जाते ही तत्काल हजारों खण्डों में खण्डित होकर बिखर जाते हैं ॥ ९॥
नरक में नैरयिकों को अत्यन्त शीत, अत्यन्त उष्णता, अत्यन्त भूख, अत्यन्त प्यास और अत्यन्त भय