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तृतीय प्रतिपत्ति: नारकों का पुद्गलपरिणाम ]
और सैकड़ों दुःख निरन्तर (बिना रुके हुए लगातार) बने रहते हैं ॥ १० ॥
इन गाथाओं में विकुर्वणा का अवस्थानकाल, अनिष्ट पुद्गलों का परिणमन, अशुभ विकुर्वणा, नित्य असाता, उपपात काल में क्षणिक साता, ऊपर छटपटाते हुए उछलना, अक्षिनिमेष के लिए भी साता न होना, वैक्रियशरीर का बिखरना तथा नारकों को होने वाली सैकड़ों प्रकार की वेदनाओं का उल्लेख किया गया है॥ ११॥
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तृतीय नारक उद्देशक पूरा हुआ। नैरयिकों का वर्णन समाप्त हुआ ।
विवेचन- - इस सूत्र एवं गाथाओं मे नैरयिक जीवों के आहारादि पुद्गलों के परिणाम के विषय में उल्लेख किया गया है। नारक जीव जिन पुद्गलों को ग्रहण करते हैं उनका परिणमन अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, और अमनाम रूप में ही होता है। रत्नप्रभा से लेकर तमस्तमः प्रभा तक के नैरयिकों द्वारा गृहीत पुद्गलों का परिणमन अशुभ रूप में ही होता है ।
इसी प्रकार वेदना, लेश्या, नाम, गोत्र, अरति, भय, शोक, भूख, प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, अनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ, अहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, मैथुनसंज्ञा, परिग्रहसंज्ञा सम्बन्धी सूत्र भी कहने चाहिए । अर्थात् इन 'बीस का परिणमन भी नारकियों के लिए अशुभ होता है अर्थात् अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ और अमनाम रूप होता है ।
यहाँ परिग्रह संज्ञा परिणाम की वक्तव्यता में चरमसूत्र सप्तम पृथ्वी विषयक है और इसके आगे प्रथम गाथा कही गई है अतएव गाथा में आये हुए 'एत्थ' पद से सप्तम पृथ्वी का ग्रहण करना चाहिए। इस सप्तम पृथ्वी में प्राय: कैसे जीव जाते हैं, उसका उल्लेख प्रथम गाथा में किया गया है।
जो नरवृषभ वासुदेव - जो बाह्य भौतिक दृष्टि से बहुत महिमा वाले, बल वाले, समृद्धि वाले, कामभोगादि में अत्यन्त आसक्त होते हैं, वे बहुत युद्ध आदि संहाररूप प्रवृत्तियों में तथा परिग्रह एव भोगादि में आसक्त होने के कारण प्रायः यहाँ सप्तमपृथ्वी में उत्पन्न होते हैं । इसी तरह तन्दुलमत्स्य जैसे भावहिंसा और क्रूर अध्यवसाय वाले, वसु आदि माण्डलिक राजा तथा सुभूम जैसे चक्रवर्ती तथा महारम्भ करने वाले कालसोकरिक सरीखे गृहस्थ प्राय: इस सप्तम पृथ्वी में उत्पन्न होते हैं। गाथा में आया हुआ 'अतिवयंति' शब्द 'प्रायः' का सूचक है। (१)
दूसरी गाथा में नैरयिकों की तथा प्रसंगवश अन्य की भी विकुर्वणा का उत्कृष्ट काल बताया हैनारकों की उत्कृष्ट विकुर्वणा अन्तर्मुहूर्त काल तक रहती है । तिर्यंच और मनुष्यों की विकुर्वणा उत्कृष्ट चार अन्तर्मुहूर्त रहती है तथा देवों की विकुर्वणा उत्कृष्ट पन्द्रह दिन (अर्धमास) तक रहती है । (२)
१. संग्रहणी गाथाएँ - पोग्गलपरिणामे वेयणा य लेसा य नाम गोए य ।
अरई भए यसोगे, खुहा पिवासा य वाही य ॥ १॥ उसासे अणुतावे कोहे माणे य मायलोभे य । चत्तारि य सण्णाओ नेरइयाणं तु परिणामा ॥ २ ॥