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________________ २९२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र ___ हे गौतम ! जम्बूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में क्षुल्ल (चुल्ल) हिमवंत नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन जाने पर दक्षिणदिशा के एकोरुक मनुष्यों का एकोरुक नामक द्वीप कहा गया है। वह द्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौड़ाई वाला तथा नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके चारों ओर एक पद्मवरवेदिका और एक वनखंड है। वह पद्मवरवेदिका आठ योजन ऊंची, पांच सौ धनुष चौडाई वाली और एकोरुक द्वीप को सब तरफ से घेरे हुए है। उस पद्मवरवेदिका का वर्णन इस प्रकार है, यथा-उसकी नींव वज्रमय है आदि वेदिका का वर्णन राजप्रश्नीयसूत्र की तरह कहना चाहिए । विवेचन-यहाँ दक्षिण दिशा के एकोरुकमनुष्यों के एकोरुक द्वीप के विषय में कथन है। एकोरुकमनुष्य शिखरीपर्वत पर भी हैं किन्तु वे मेरुपर्वत के उत्तरदिशा में हैं। उनका व्यवच्छेद करने के लिए यहाँ 'दक्षिणदिशा के' ऐसा विशेषण दिया गया है। दक्षिणदिशा के एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप कहाँ है ? यह प्रश्न का भाव है। उत्तर में कहा गया है कि इसी जंबूद्वीप नामक द्वीप के मेरुपर्वत के दक्षिण में तथा चुल्लहिमवान नामक वर्षधर पर्वत के उत्तरपूर्व (ईशानकोण) के चरमान्त से लवणसमुद्र में तीन सौ योजन आगे जाने पर दक्षिणात्य एकोरुकमनुष्यों का एकोरुकद्वीप है। वह एकोरुकद्वीप तीन सौ योजन की लम्बाई-चौडाई वाला और नौ सौ उनपचास योजन से कुछ अधिक परिधि वाला है। उसके आसपास चारों ओर एक पद्मवरवेदिका है, उसके चारों ओर एक वनखण्ड है। वह पद्मवरवेदिका आठ योजन ऊँची, पांच सौ धनुष चौड़ी है। उसका वर्णन राजप्रश्रीय सूत्र में किये गये पद्मवरवेदिका के समान जानना चाहिए, जैसे कि उसकी नींव वज्ररत्नों की है, आदि-आदि। पद्मवरवेदिका और वनखण्ड का वर्णन आगे स्वयं सूत्रकार द्वारा कथित जंबूद्वीप की जगती के आगे की पद्मवरवेदिका और वनखण्ड के वर्णन के समान समझना चाहिए। अतएव यहाँ वह वर्णन नहीं दिया जा रहा है। ११०.साणं पउमवरवेइया एगेणं वणसंडेणं सव्वओ समंता संपरिक्खिता।सेणंवणसंडे देसूणाई दो जोयणाइं चक्कवालविक्खंभेणं वेड्यासमेणं परिक्खेवेणं पण्णत्ते। ते णं वणसंडे किण्हे किण्होभासे एवं जहा रायपसेणइएवणसंडवण्णओतहेव निरवसेसं भाणियव्वं, तणाण य वण्णगंधफासो सहो वावीओ उप्पायपव्वया पुढविसिलापट्टगा य भाणियव्या जाव एत्थ णं बहवे वाणमंतरा देवा य देवीओ य आसयंति जाव विहरंति। - [११०] वह पद्मवरवेदिका एक वनखण्ड से सब ओर से घिरी हुई है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोलाकार विस्तार वाला और वेदिका के तुल्य परिधि वाला है। वह वनखण्ड बहुत हरा-भरा और सघन होने से काला और कालीकान्ति वाला प्रतीत होता है, इस प्रकार राजप्रश्नीयसूत्र के अनुसार वनखण्ड का सब वर्णन जान लेना चाहिए। तृणों का वर्ण, गंध, स्पर्श, शब्द तथा बावडियाँ, उत्पातपर्वत, पृथ्वीशिलापट्टक आदि का भी वर्णन कहना चाहिए। यावत् वहाँ बहुत से वानव्यन्तर देव और देवियां उठते-बैठते हैं, यावत् सुखानुभव करते हुए विचरण करते हैं।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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