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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : सुधर्मा सभा का वर्णन] [३९५ तेसिं णं चेइयरुक्खाणं उप्पिं बहवे अट्ठ मंगलगा झया छत्ताइछत्ता। [१३७] (३) उन मणिपीठिकाओं के ऊपर अलग-अलग चैत्यवृक्ष कहे गये हैं, वे चैत्यवृक्ष आठ योजन ऊँचे हैं, आधा योजन जमीन में हैं, दो योजन ऊँचा उनका स्कन्ध (धड़, तना) है, आधा योजन उस स्कन्ध का विस्तार है, मध्यभाग में ऊर्ध्व विनिर्गत शाखा (विडिमा) छह योजन ऊँची है, उस विडिमा का विस्तार अर्धयोजन का है, सब मिलाकर वे चैत्यवृक्ष आठ योजन से कुछ अधिक ऊँचे हैं। उन चैत्यवृक्षों का वर्णन इस प्रकार कहा है-उनके मूल वज्ररत्न के हैं, उनकी ऊर्ध्व विनिर्गत शाखाएँ रजत की हैं और सुप्रतिष्ठित हैं, उनका कन्द रिष्टरत्नमय है, उनका स्कंध वैडूर्यरत्न का है और रुचिर है, उनकी मूलभूत विशाल शाखाएँ शुद्ध और श्रेष्ठ स्वर्ण की हैं, उनकी विविध शाखा-प्रशाखाएँ नाना मणिरत्नों की हैं, उनके पत्ते वैडूर्यरत्न के हैं, उनके पत्तों के वृन्त तपनीय स्वर्ण के हैं। जम्बूनद जाति के स्वर्ण के समान लाल, मृदु, सुकुमार प्रवाल (पत्र के पूर्व की स्थिति) और पल्लव तथा प्रथम उगने वाले अंकुरों को धारण करने वाले हैं (अथवा उनके शिखर तथाविध प्रवाल-पल्लव-अंकुरों से सुशोभित हैं), उन चैत्य॒वक्षों की शाखाएँ विचित्र मणिरत्नों के सुगन्धित फूल और फलों के भार से झूकी हुई हैं। वे चैत्यवृक्ष सुन्दर छाया वाले, सुन्दर कान्ति वाले, किरणों से युक्त और उद्योत करने वाले हैं। अमृतरस के समान उनकों फलों का रस है। वे नेत्र और मन को अत्यन्त तृप्ति देने वाले हैं, प्रासादीय हैं, दर्शनीय हैं, अभिरूप हैं और प्रतिरूप हैं। वे चैत्यवृक्ष अन्य बहुत से तिलक, लवंग, छत्रोपग, शिरीष, सप्तपर्ण, दधिपर्ण, लोध्र, धव, चन्दन, नीप, कुटज, कदम्ब, पनस, ताल, तमाल, प्रियाल, प्रियंगु, पारापत, राजवृक्ष और नन्दिवृक्षों से सब ओर से घिरे हुए हैं। वे तिलक यावत् नन्दिवृक्ष मूलवाले हैं, कन्दवाले हैं इत्यादि वृक्षों का वर्णन करना चाहिए यावत् वे सुरम्य हैं। वे तिलकवृक्ष यावत् नन्दिवृक्ष अन्य बहुत-सी पद्मलताओं यावत् श्यामलताओं से घिरे हुए हैं। वे पद्मलताएँ यावत् श्यामलताएँ नित्य कुसुमित रहती हैं। यावत् वे प्रतिरूप हैं। उन चैत्यवृक्षों के ऊपर बहुत से आठ-आठ मंगल, ध्वजाएँ और छत्रों पर छत्र हैं। १३७. (४) तेसिं णं चेइयरुक्खाणं पुरओ तिदिसिं तओ मणिपेढियाओ पण्णत्ताओ; ताओ णं मणिपेढियाओ जोयणं आयामविक्खंभेणं अद्धजोयणं बाहल्लेणं सव्वमणिमईओ अच्छाओ जाव पडिरूवाओ। तासिंणं मणिपेढियाणं उप्पिं पत्तेयं पत्तेयं महिंदझये पण्णत्ते। तेणं महिंदण्झया अद्धट्ठमाई जोयणाई उ8 उच्चत्तेणं अद्धकोसं उव्वेहेणं अद्धकोसं विक्खंभेणं वइरामयवट्टलट्ठसंठियसुसिलिट्ठपरिघट्ठमट्टपुरइट्ठिया अणेगवरपंचवण्णकुडभीसहस्सपरिमंडियाभिरामा वाउद्धयविजयवेजयंतीपडागा छत्ताइछत्तकलिया तुंगा गगनतलमभिलंघमाणसिहरा पासादीया जाव पडिरूवा। तेसिंणं महिंदज्झयाणं उप्पिं अट्ठमंगलगा झया छत्ताइछत्ता।तेसिंणं महिंदज्झयाणं पुरओ तिदिसिं तओ णंदाओ पुक्खरणीओ पण्णत्ताओ। ताओ णं पुक्खरणीओ अद्धरतेरस जोयणाई १. क्वचित् ‘विसिट्ठा' इत्यपि दृश्यते।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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