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तृतीय प्रतिपत्ति: पृथ्वीकायिकों के विषय में विशेष जानकारी ]
की स्थिति तक समझ लेना चाहिए। वहाँ विस्तार के साथ स्थिति का वर्णन है । अतएव यहाँ उसका उल्लेख न करते हुए वहाँ से जान लेने की सूचना की गई है। यह भवस्थिति विषयक कथन करने के पश्चात् कायस्थितिविषयक प्रश्न है कि जीव कितने समय तक जीवरूप में रहता है। कायस्थिति का अर्थ है - जीव की सामान्यरूप अथवा विशेषरूप से जो विवक्षित पर्याय है उसमें स्थित रहना । भवस्थिति में वर्तमान भव की स्थिति गृहीत होती है और कायस्थिति में जब तक जीव अपने जीवनरूप पर्याय से युक्त रहता है तब तक की स्थिति विवक्षित है। प्रकृत प्रसंग में जीव की कायस्थिति पूछी गई है । जो प्राणों को धारण करे वह जीव है । प्राण दो प्रकार के हैं - द्रव्यप्राण और भावप्राण। पांच इन्द्रियां, मन-वचन-कांय ये तीन बल, आयु और श्वासोच्छ्वास ये दस द्रव्यप्राण हैं और ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चार भावप्राण है । ' यहाँ दोनों प्रकार के प्राणों का ग्रहण है।
अतः प्रश्न का भाव यह हुआ कि जीव प्राण धारणरूप जीवत्व की अपेक्षा से कब तक रहता है ? भगवान् ने उत्तर दिया कि सर्वकाल के लिए जीवरूप में रहता है। वह संसारी अवस्था में द्रव्य-भावप्राणों को लेकर और मुक्तावस्था में भावप्राणों को लेकर जीवित रहता है, अतएव सर्वाद्धा के लिए जीव जीवरूप में रहता है। एक क्षण ऐसा नहीं है कि जीव अपनी इस जीवनावस्था से रहित हो जाय ।
अथवा 'जीव' पद से यहाँ किसी एक खास जीव का ग्रहण नहीं हुआ किन्तु जीव सामान्यं का ग्रहण हुआ है। अतएव प्राणधारण लक्षण जीवत्व मानने में भी कोई दोष नहीं है । अर्थात् जीव जीव के रूप में सदा रहेगा ही । वह सदा जिया है, जीता है और जीता रहेगा। इस प्रकार जीव को लेकर सामान्य जीव की अपेक्षा कायस्थिति कही गई है । इसी प्रकार पृथ्वीकाय आदि के विषय में भी सामान्य विवक्षा
जाननी चाहिए। पृथ्वीकाय भी पृथ्वीकायरूप में सामान्यरूप से सदैव रहेगा ही कोई भी समय ऐसा नहीं होगा जब पृथ्वीकायिक जीव नहीं रहेंगे। इसलिए उनकी कायस्थिति सर्वाद्धा कही गई है। इस प्रकार गति, इन्द्रिय, कायादि द्वारों से जिस प्रकार प्रज्ञापना के अठारहवें 'कायस्थिति' नामक पद में कायस्थिति कहीं गई है, वह सब यहाँ कह लेनी चाहिए ।' द्वार बावीस हैं —
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१. जीव, २. गति, ३. इन्द्रिय, ४. काय, ५. योग, ६. वेद, ७. कषाय, ८. लेश्या, ९. सम्यक्त्व, १०. ज्ञान, ११. दर्शन, १२. संयत, १३. उपयोग, १४. आहार, १५. भाषक, १६. परित्त, १७. पर्याप्त, १८. सूक्ष्म, १९. संज्ञी, २० भवसिद्धिक, २१ अस्तिकाय और २२. चरम ।
इस प्रकार पृथ्वीका की तरह अप्, तेजस्, वायु, वनस्पति और त्रसकाय सम्बन्धी सूत्र भी समझ लेने चाहिए।
१. पंचेन्द्रियाणि त्रिविधं बलं च, उच्छ्वास- निःश्वासमथान्यदायुः ।
प्राणा दशैते भगवद्भिरुक्तास्तेषां वियोजीकरणं तु हिंसा ॥ १ ॥ 'ज्ञानादयस्तु भावप्राणा, मुक्तोऽपि जीवति स तेहिं । '
२. जीव गइंदिय काए जोए वेए कसाय लेस्सा य ।
सम्मत्त नाणदंसण संजय उवओग आहारे ॥ १ ॥ भासग परित्तपज्जत्त सुहुमसण्णी भवत्थि चरिमे य । एएसिं तु पयाणं कायठिई होइ नायव्वा ॥ २ ॥