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________________ २८४] [जीवाजीवाभिगमसूत्र निर्लेप सम्बन्धी कथन १०१-२. पडप्पन्नपुढविकाइया णं भंते ! केवइकालस्स णिल्लेवा सिया ? गोयमा ! जहण्णपदे असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीहि उक्कोसपए असंखेज्जाहिं उस्सप्पिणी ओसप्पिणीहिं , जहन्नपदओ उक्कोसपए असंखेज्जगुणो, एव जाव पडुप्पन्नवाउक्काइया। पडुप्पन्नवणप्फइकाइया णं भंते ! केवइकालस्स पिल्लेवा सिया ? गोयमा ! पडुप्पन्नवणप्फइकाइया जहण्णपदे अपदा उक्कोसपदे अपदा, पडुप्पन्नवणप्फइकाइया णं णत्थि निल्लेवणा। पडुप्पन्नतसकाइयाणं पुच्छा, जहण्णपदे सागरोवमसयपुहुत्तस्स, उक्कोसपए सागरोवमसयपुहुत्तस्स, जहण्णपदा उक्कोसपए विसेसाहिया। [१०१-२] भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) पृथ्वीकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य से असंख्यात उरर्पिणी-अवसर्पिणी काल में और उत्कृष्ट से भी असंख्यात उत्सर्पिणीअवसर्पिणी काल में निर्लेप (खाली) हो सकते हैं। यहाँ जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में असंख्यातगुण अधिकता जाननी चाहिए। इसी प्रकार अभिनव वायुकायिक तक की वक्तव्यता जाननी चाहिए भगवन् ! अभिनव (तत्काल उत्पद्यमान) वनस्पतिकायिक जीव कितने समय में निर्लेप हो सकते गौतम ! प्रत्युत्पन्नवनस्पतिकायिकों के लिए जघन्य और उत्कृष्ट, दोनों पदों में ऐसा नहीं कहा जा सकता कि ये इतने समय में निर्लेप हो सकते हैं। इन जीवों की निर्लेपना नहीं हो सकती। (क्योंकि ये अनन्तानन्त हैं।) भगवन् ! प्रत्युत्पन्नत्रसयकायिक जीव कितने काल में निर्लेप हो सकते हैं ? गौतम ! जघन्य पद में सागरोपम शतपृथक्त्व और उत्कृष्ट पद में भी सागरोपम शतपृथक्त्व काल में निर्लेप हो सकते हैं। जघन्यपद से उत्कृष्ट में विशेषाधिकता समझनी चाहिए। _ विवेचन-निर्लेपता का अर्थ है-यदि प्रतिसमय एक-एक जीव का अपहार किया जाय तो कितने समय में वे जीव सबके सब अपहृत हो जायें अर्थात् वह आधारस्थान उन जीवों से खाली हो जाय। प्रत्युत्पन्न अर्थात् अभिनव उत्पद्यमान पृथ्वीकायिक जीवों का यदि प्रतिसमय एक-एक के मान से अपहार किया जाय तो कितने समय में वे सबके सब अपहत हो सकेंगे, यह प्रश्न का आशय है। इसके उत्तर में कहा गया है कि जघन्य से अर्थात् जब एक समय में कम से कम उत्पन्न होते हैं, उस अपेक्षा से यदि प्रत्येक समय में एक-एक जीव अपहृत किया जावे तो उनके पूरे अपहरण होने में असंख्यात उत्सर्पिणियां और असंख्यात
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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