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________________ १०८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नगर और आवासों में-विविध जगहों पर रहने के कारण ये देव व्यन्तर कहलाते हैं। व्यन्तरों के भवन रत्नप्रभापृथ्वी के प्रथम रत्नकाण्ड में ऊपर नीचे सौ-सौ योजन छोड़कर शेष आठ सौ योजन प्रमाण मध्य भाग में हैं। इनके नगर तिर्यग्लोक में भी हैं और इनके आवास तीनों लोकों में हैं। अथवा जो वनों के विविध पर्वतान्तरों, कंदरान्तरों आदि आश्रयों में रहते हैं वे वाणव्यन्तर देव हैं। वाणव्यन्तरों के आठ भेद हैं-किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच। इनमें प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। ज्योतिष्क-जो जगत् को द्योतित-प्रकाशित करते हैं वे ज्योतिष्क कहलाते हैं अर्थात् विमान। जो ज्योतिष् विमानों में रहते हैं वे ज्योतिष्क देव हैं । अथवा जो अपने अपने मुकुटों में रहे हुए चन्द्रसूर्यादि मण्डलों के चिन्हों से प्रकाशमान हैं वे ज्योतिष्क देव हैं । इनके पांच भेद हैं-चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और तारा। इनके भी दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । वैमानिक-जो ऊर्ध्वलोक के विमानों में रहते हैं वे वैमानिक हैं। ये दो प्रकार के हैं-कल्पोपन्न और कल्पातीत । कल्पोपन्न का अर्थ हैं-जहाँ कल्प-आचार-मर्यादा हो अर्थात् जहाँ इन्द्र, सामानिक, त्रायास्त्रिंश आदि की मर्यादा और व्यवहार हो, वे कल्पोपन्न हैं। जहाँ उक्त व्यवहार या मर्यादा न हो वे कल्पातीत हैं। कल्पोपन के बारह भेद हैं-१ सौधर्म, २ ईशान, ३ सानत्कुमार, ४ माहेन्द्र, ५ ब्रह्मलोक, ६ लान्तक, ७ महाशुक्र, ८ सहस्रार, ९ आनत, १० प्राणत, ११ आरण और १२ अच्युत। इनके प्रत्येक के दो-दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। कल्पातीत देव दो प्रकार के हैं-ग्रैवेयक और अनुत्तरोपपातिक। ग्रैवेयक देव नौ प्रकार के हैं-१ अधस्तन-अधस्तन, २ अधस्तन-मध्यम, ३ अधस्तन-उपरिम, ४ मध्यम-अधस्तन,५ मध्यम-मध्यम,६ मध्यमउपरिम, ७ उपरिम-अध्स्तन, ८ उपरिम-मध्यम और ९ उपरिम-उपरिम। इनके भी पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद से दो भेद हैं। अनुत्तरोपपातिक देवों के ५ भेद हैं-१ विजय, २ वैजयंत, ३ जयंत ४ अपराजित और सर्वार्थसिद्ध। इनके भी प्रत्येक को दो भेद हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त। देवों में जो पर्याप्त, अपर्याप्त का भेद बताया है उसमें अपर्याप्तत्व अपर्याप्तनामकर्म के उदय से नहीं समझना चाहिए। किन्तु उत्पत्तिकाल में ही अपर्याप्तत्व समझना चाहिए। सिद्धान्त में कहा है-नारक, देव, गर्भज तिर्यंच, मनुष्य और असंख्यात वर्ष की आयु वाले उत्पत्ति के समय ही अपर्याप्त होते हैं।' देवों की शरीरादि २३ द्वारों की अपेक्षा निम्न प्रकार की वक्तव्यता है १ नारयदेवातिरियमणुय गन्भजा जे असंखवासाऊ। एए 3 अपज्जत्ता, उववाए चेव बोद्धव्वा॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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