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________________ प्रथम प्रतिपत्ति : देवों का वर्णन]] [१०९ शरीरद्वार-देवों के तीन शरीर होते हैं-वैक्रिय, तैजस और कार्मण। अवगाहनाद्वार-भवधारणीय अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट सात हाथ प्रमाण है। उत्तरवैक्रियिकी जघन्य से अंगुल का संख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से एक लाख योजन। संहननद्वार-छहों संहननों में से एक भी संहनन नहीं होता, क्योंकि अस्थियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं और देवों के शरीर में न अस्थि है, न शिरा है और न स्नायु है। अतएव वे असंहननी किन्तु जो पुद्गल इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ, मन को संतुष्ट करने वाले नरम और कमनीय होते हैं, वे पुद्गल उनके शरीररूप में एकत्रित हो जाते हैं-परिणत हो जाते हैं। संस्थानद्वार-भवधारणीय संस्थान तो समचौरस संस्थान है और उत्तरवैक्रिय नाना प्रकार का होता है, क्योंकि वे इच्छानुसार आकार बना सकते हैं। . कषाय-चारों कषाय होते हैं। संज्ञा-चारों संज्ञाएँ होती हैं। लेश्या-छहों लेश्याएं होती हैं। इन्द्रिय-पांचों इन्द्रियां होती हैं। समुद्घात-पांच समुद्घात होते हैं-वेदना, कषाय, मारणांतिक, वैक्रिय और तैजस समुद्घात। संजीद्वार-ये संज्ञी भी होते हैं और अंसज्ञी भी होते हैं। जो गर्भव्युत्क्रान्तिक मर कर देव होते हैं वे संज्ञी हैं और जो सम्मूर्छिमों से आकर उत्पन्न होते हैं वे असंज्ञी कहलाते हैं। वेदद्वार-ये स्त्रीवेदी और पुंवेदी होते हैं। नपुंसकवेद वाले नहीं होते। पर्याप्तिद्वार, दृष्टिद्वार और दर्शनद्वार-नैरयिकों की तरह । ज्ञानद्वार-ये ज्ञानी भी हैं और अज्ञानी भी हैं। जो ज्ञानी हैं वे नियम से तीन ज्ञान वाले हैं-मति, श्रुत, और अवधि। जो अज्ञानी हैं उनमें कोई दो अज्ञान वाले है और कोई तीन अज्ञान वाले हैं। जो तीन अज्ञान वाले हैं वे मति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान, और विभंगज्ञान वाले होते हैं। जो दो अज्ञान वाले हैं वेमति-अज्ञान, श्रुत-अज्ञान वाले हैं। जो असंज्ञियों से आकर उत्पन्न होते हैं, उनकी अपेक्षा से दो अज्ञान होते हैं। यह भजना का तात्पर्य है। उपयोग और आहारद्वार-नैरयिकवत् जानना चाहिए। अर्थात् साकार और अनाकार दोनों तरह से उपयोग होते हैं। छहों दिशाओं से आहार ग्रहण करते हैं। उपपातद्वार-संज्ञीपंचेन्द्रिय, असंज्ञीपंचेन्द्रिय तिर्यंच और गर्भज मनुष्यों से आकर उत्पन्न होते हैं,
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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