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________________ १८०] [जीवाजीवाभिगमसूत्र नपुंसकवेद की बंधस्थिति और प्रकार ६१. णपुंसकवेदस्स णं भंते ! कम्मस्स केवइयं कालं बंधठिई पण्णत्ता? गोयमा ! जहन्नेणं सागरोवमस्स दोण्णि सत्तभागा, पलिओवमस्स असंखेज्जइभागेणं ऊणगा, उक्कोसेणंबीसं सांगरोवमकोडाकोडीओ, दोण्णि यवाससहस्साइं अबाधा,अबाहूणिया कम्मठिई कम्मणिसेगो। णपुंसक वेदे णं भंते ! किंपगारे पण्णत्ते ? गोयमा ! महाणगरदाहसमाणे पण्णत्ते समणाउसो! से त्तं णपुंसका। [६१] हे भगवन् ! नपुंसकवेद कर्म की कितने काल की स्थिति कही है ? गौतम ! जघन्य से सागरोपम के / (दो सातिया भाग) भाग में पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम और उत्कृष्ट से बीस कोडाकोडी सागरोपम की बंधस्थिति कही गई है। दो हजार वर्ष का अबाधाकाल है। अबाधाकाल से हीन स्थिति का कर्मनिषेक है अर्थात् अनुभवयोग्य कर्मदलिक की रचना है। भगवन् ! नपुंसक वेद किस प्रकार का है ? हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! महानगर के दाह के समान (सब अवस्थाओं में धधकती कामाग्नि के समान) कहा गया है। विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में नपुंसकवेद की बंधस्थिति कही गई है। स्थिति दो प्रकार की होती है१.बंधस्थिति और २. अनुभवयोग्य (उदयावलिका में आने योग्य) स्थिति। नपुंसकवेद की बंधस्थिति जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग से न्यून एक सागरोपम का / भाग प्रमाण है। उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है। यहाँ जघन्यस्थिति प्राप्त करने की जो विधि पूर्व में कही है, वह ध्यान में रखनी चाहिए। वह इस प्रकार है कि जिस प्रकृति की जो उत्कृष्ट स्थिति है, इसमें मिथ्यात्व की उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोडाकोडी सागरोपम का भाग देने पर जो राशि प्राप्त होती है, उसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर उस प्रकृति की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। यहाँ नपुंसकवेद की उत्कृष्ट स्थिति बीस कोडाकोडी सागरोपम की है, उसमें सत्तर कोडाकोडी का भाग देने पर (शून्यं शून्येन पातयेत्-शून्य को शून्य से काटने पर) / सागरोपम लब्धांक होता है। इसमें पल्योपम का असंख्यातवां भाग कम करने पर नपुंसकवेद की जघन्य स्थिति प्राप्त होती है। नपुंसकवेद का अबाधाकाल दो हजार वर्ष का है। अबाधाकाल प्राप्त करने का नियम यह है कि जिस कर्मप्रकृति की उत्कृष्टस्थिति जितने कोडाकोडी सागरोपम की है, उतने सौ वर्ष की उसकी अबाधा होती है। बीस कोडाकोडी सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले नपुंसकवेद की अबाधा बीस सौ वर्ष अर्थात् दो हजार वर्ष की हुई। बंधस्थिति में से अबाधा कम करने पर जो स्थिति बनती है वही जीव को अपना फल देती है अर्थात् उदय में आती है। इसलिए अबाधाकाल से हीन शेष स्थिति का कर्मनिषेक होता है अर्थात्
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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