SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 230
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वितीय प्रतिपत्ति : नवविध अल्पबहुत्व] [१८१ अनुभवयोग्य कर्मदलिकों की रचना होती है-कर्मदलिक उदय में आने लगते हैं। नपुंसकवेद की बंधस्थिति सम्बन्धी प्रश्न के पश्चात् गौतम स्वामी ने नपुंसकवेद का वेदन किस प्रकार का होता है, यह प्रश्न पूछा । इसके उत्तर में प्रभु ने फरमाया कि हे आयुष्मन् श्रमण गौतम ! नपुंसकवेद का वेदन महानगर के दाह के समान होता है। जैसे किसी महानगर में फैली हुई आग की ज्वालाएँ चिरकाल तक धधकती रहती हैं तथा उत्कृष्ट होती हैं, उसी प्रकार नपुंसक की कामाग्नि चिरकाल तक धधकती रहती है और अतितीव्र होती है। वह आदि, मध्य और अन्त तक सब अवस्थाओं में उत्कृष्ट बनी रहती है। इस प्रकार नपुंसक सम्बन्धी प्रकरण पूरा हुआ। नवविध अल्पबहुत्व ६२.[१] एतेसिंणं भंते ! इत्थीणं पुरिसाणं नपुंसकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा, बहुया वा, तुल्ला वा, विसेसाहिया वा ? __ गोयमा ! सव्वत्थोवा पुरिसा, इत्थीओ संखिजगुणाओ, णपुंसगा अणंतगुणा। [२] एएसिं १ णं भंते ! तिरिक्खजोणि-इत्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियणपुंसकाण यकयरेकयरहितोअप्पा वाबहुयावातुल्लावाविसेसाहियावा? ___ गोयमा ! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणियपुरिसा, तिरिक्खजोणि-इत्थीओ असंखेज्जगुणाओ, तिरिक्खजोणियनपुंसमा अणंतगुणा। __ [३] एतेसिं णं भंते ! मणुस्सित्थीणं, मणुस्सपुरिसाणं, मणुस्सनपुंसकाण य कयरे कयरहितो अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वत्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ संखेज्जगुणाओ, मणुस्सनपुंसका असंखेज्जगुंणा। [४] एतेसिंणं भंते ! देवित्थीणं देवपुरिसाणं णेरइयणपुसंकाण य कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? ____गोयमा ! सव्वत्थोवा णेरइयणपुंसका, देवपुरिसा असंखेज्जगुणा देवित्थीओ संखेजगुणाओ। [५] एतेसिं णं भंते ! तिरिक्खजोणित्थीणं तिरिक्खजोणियपुरिसाणं तिरिक्खजोणियनपुंसगाणं, मणुस्सित्थीणं, मणुस्सपुरिसाणं, मणुस्सनपुंसगाणं, देविस्थीणं, देवपुरिसाणं णेरइयणपुंसकाण य कयरे कयरेहितो, अप्पा वा बहुआ वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा? गोयमा ! सव्वात्थोवा मणुस्सपुरिसा, मणुस्सित्थीओ, संखेज्जगुणाओ, मणुस्सणसगा १. 'एयासिंणं' ऐसा पाठ वृत्तिकार ने माना है।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy