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द्वितीय प्रतिपत्ति: अन्तरद्वार ]
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आणतदेवपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होई ?
गोयमा ! जहन्त्रेण वासपुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव गेवेज्जदेवपुरिसस्स वि । अणुत्तरोववाइयदेवपुरिसस्स जहन्त्रेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं संखेज्जाइं सागरोवमाई साइरेगाई । [ ५५ ] भंते ! पुरुष का अन्तर कितना कहा गया है ? (अर्थात् पुरुष, पुरुष - पर्याय छोड़ने के बाद फिर कितने काल पश्चात् पुरुष होता है ? )
गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल के बाद पुरुष पुनः पुरुष होता है ।
भगवन् ! तिर्यक्योनिक पुरुषों का अन्तर कितना कहा गया है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है। इसी प्रकार खेचर तिर्यक्योनिक पर्यन्त के विषय में जानना चाहिए।
भगवन् ! मनुष्य पुरुषों का अन्तर कितने काल का है ?
गौतम ! क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल का अन्तर है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय और उत्कृष्ट से अनन्त काल अर्थात् इस अवधि में अनन्त उत्सर्पिणियांअवसर्पिणियां बीत जाती हैं यावत् वह देशोन अर्धपुद्गल परावर्तकाल होता है।
कर्मभूमि के मनुष्य का यावत् विदेह के मनुष्यों का अन्तर यावत् धर्माचरण की अपेक्षा एक समय इत्यादि जो मनुष्यस्त्रियों के लिए कहा गया है वही यहाँ कहना चाहिए । अन्तद्वीपों के अन्तर तक उसी प्रकार कहना चाहिए ।
देवपुरुषों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। यही कथन भवनवासी देवपुरुष से लगा कर सहस्रार देवलोक तक के देव पुरुषों के विषय में समझना चाहिए ।
भगवन् ! आनत देवपुरुषों का अन्तर कितने काल का कहा गया है ?
गौतम ! जघन्य से वर्षपृथक्त्व (आठ वर्ष) और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है । इसी प्रकार ग्रैवयेक देवपुरुषों का भी अन्तर जानना चाहिए।
अनुत्तरोपपातिक देवपुरुषों का अन्तर जघन्य से वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट संख्यात सागरोपम से कुछ अधिक का होता है ।
विवेचन - पूर्व सूत्र में उसी पर्याय में निरन्तर रहने का कालमान बताया गया था। इस सूत्र में जीव अपनी वर्तमान पर्याय को छोड़ने के बाद पुनः उस पर्याय को जितने समय बाद पुनः प्राप्त करता है, यह कहा है उसको अन्तर कहा जाता है। यहाँ तिर्यंच, मनुष्य और देव पुरुषों के अन्तर की विवक्षा है।
सामान्य रूप से पुरुष, पुरुषपर्याय छोड़ने के पश्चात् कितने काल के बाद पुनः पुरुषपर्याय प्राप्त करता है, ऐसा गौतमस्वामी द्वारा प्रश्न किये जाने पर भगवान् कहते हैं कि गौतम ! जघन्य से एक समय और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है । इसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है