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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
जब कोई पुरुष उपशमश्रेणी पर चढ़ कर पुरुषवेद को उपशान्त कर देता है और एक समय के बाद ही मर कर वह देव-पुरुष में ही नियम से उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से एक समय का अन्तर कहा गया है।
यहाँ कोई शंका करता है कि स्त्री और नपुंसक भी श्रेणी पर चढ़ते हैं तो उनका अन्तर एक समय का क्यों नहीं कहा? इसका उत्तर है कि श्रेणी पर आरूढ़ स्त्री या नपुंसक वेद का उपशमन करने के अनन्तर मर कर तथाविध शुभ अध्यवसाय से मर कर नियम से देव पुरुषों में ही उत्पन्न होते हैं, देव स्त्रियों या नपुंसकों में नहीं। अतः उनका अन्तर एक समय नहीं होता।
उत्कर्ष से पुरुष का अन्तर वनस्पतिकाल कहा गया है। वनस्पतिकाल को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि 'काल से अनन्त उत्सर्पिणियां और अनन्त अवसर्पिणियां उसमें बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक के प्रदेशों का अपहार हो जाता है और असंख्येय पुद्गलपरावर्त बीत जाते हैं । वे पुद्गलपरावर्त आवलिका के समयों के असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं।'
सामान्य से पुरुष का अन्तर बताने के पश्चात् तिर्यक् पुरुष आदि विशेषणों-भेदों की अपेक्षा अन्तर का कथन किया गया है।
तिर्यक्योनि पुरुषों का अन्तर जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट वनस्पतिकाल है। इस प्रकार जैसा तिर्यंच स्त्रियों का अन्तर बताया गया है, वही अन्तर तिर्यक् पुरुषों का भी समझना चाहिए। जलचर, स्थलचर, खेचर पुरुषों का भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर क्रमशः अन्तर्मुहूर्त और वनस्पतिकाल जानना चाहिए।
मनुष्य स्त्रियों का जो अन्तर पूर्व में कहा गया है, वही मनुष्य पुरुषों का भी अन्तर समझना चाहिए। वह इस प्रकार है
सामान्यतः मनुष्य-पुरुष का क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य से एक समय (क्योंकि चारित्र स्वीकार करने के पश्चात् गिरकर पुनः एक समय में चारित्रपरिणाम हो सकते हैं), उत्कर्ष से देशोन अपार्धपुद्गलपरावर्त है।
इसी प्रकार भरत, ऐरवत, पूर्वविदेह, अपरविदेह कर्मभूमि के मनुष्य का जन्म को लेकर, तथा चारित्र को लेकर जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए।
___सामान्य से अकर्मभूमिक मनुष्य पुरुष का जन्म को लेकर अन्तर जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष हैं, क्योंकि वह मर कर जघन्य स्थिति के देवों में उत्पन्न होकर वहाँ से च्यव कर कर्मभूमि में स्त्री या पुरुष के रूप में पैदा होकर पुनः अकर्मभूमि मनुष्य के रूप में उत्पन्न हो सकता है। बीच में कर्मभूमि में पैदा होकर मरने का कथन इसलिए किया गया है कि देवभव से च्यवकर कोई जीव सीधा अकर्मभूमियों में मनुष्य या तिर्यक् संज्ञी पंचेन्द्रिय के रूप में उत्पन्न नहीं होता। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर है।
१. 'अर्णताओ उस्सप्पिणीओ ओसप्पिणीओ कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा, ते णं पुग्गलपरियट्टा आवलियाए
असंखेज्जइ भागो।' इति