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________________ १५२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र एक पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक एक पल्योपम रह सकता है। हरिवर्ष-रम्यकवर्ष अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा जघन्य पल्योपमासंख्येय भाग न्यून दो पल्योपम तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण दो पल्योपम तक। जघन्य और उत्कर्ष से वहाँ इतनी ही आयु सम्भव है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त (क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से कम आयु वाले पुरुष का संहरण नहीं होता) और उत्कर्ष से देशोन पूर्वकोटि अधिक दो पल्योपम तक तद्प में रह सकता है। देवकुरु-उत्तरकुरु अकर्मभूमिक मनुष्य-पुरुष क्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से पल्योपमासंख्येय भाग न्यून तीन पल्योपम और उत्कर्ष से परिपूर्ण तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से देशोनपूर्वकोटि अधिक तीन पल्योपम तक उसी रूप में रह सकता है। ___अन्तीपक मनुष्य-पुरुष जन्म की अपेक्षा देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग तक और उत्कर्ष से परिपूर्ण पल्योपम का असंख्येय भाग तक रह सकता है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से पूर्वकोटि अधिक पल्योपमासंख्येय भाग तक उसी पुरुषपर्याय में रह सकता है। देवपुरुषों की जो स्थिति पहले बताई गई है, वही उनकी संचिट्ठणा (कायस्थिति) भी है। शंका की जा सकती है कि अनेक भव-भावों की अपेक्षा से कायस्थिति होती है वह एक ही भव में कैसे हो सकती है ? यह दोष नहीं है क्योंकि यहाँ केवल उतनी ही विवक्षा है कि देवपुरुष देव पुरुषत्व को छोड़े बिना कितने काल तक रह सकता है। देव मर कर अनन्तर भव में देव नहीं होता अतः यह अतिदेश किया गया है कि जो देवों की भवस्थिति है वही उनकी संचिट्ठणा है। अन्तरद्वार ५५. पुरिसस्स णं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। तिरिक्खजोणियपुरिसाणं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो। एवं जाव खहयरतिरिक्खजोणियपुरिसाणं। मणुस्सपुरिसाणं भंते ! केवइयं कालं अंतरं होइ ? गोयमा! खेत्तं पडुच्च जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।धम्मचरणं पडुच्च जहन्नेणं एक्कं समयं उक्कोसेणं अणंतकालं अणंताओ उस्सप्पिणी-ओसप्पिणीओ जाव अवड्ड पोग्गलपरियटें देसूणं। कम्मभूमगाणं जाव विदेहो जाव धम्मचरणे एक्को समओ सेसं जहित्थीणं जाव अंतरदीवगाणं। देवपुरिसाणं जहन्नेणंअंतोमुहुत्तं उक्कोसेणंवणस्सइकालो।भवणवासिदेवपुरिसाणं ताव जाव सहस्सारो, जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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