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________________ तृतीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड-वर्णन] का शब्द है ? गान्धार स्वर की सात मूर्छनाएँ होती हैंनंदी य खुट्टिमा पूरिमा या चोत्थी असुद्धगन्धारा । उत्तरगन्धारा वि हवइ सा पंचमी मुच्छा ॥ १॥ सुहुमुत्तर आयामा छट्ठी सा नियमसो उ बोद्धाव्वा ॥ २॥ [३६१ नन्दी, क्षुद्रा, पूर्णा, अशुद्धगान्धारा, उत्तरगान्धारा, सूक्ष्मोत्तर - आयामा और उत्तरमन्दा- ये सात मूर्छनाएँ हैं। ये मूर्छनाएँ इसलिए सार्थक हैं कि ये गाने वाले को और सुनने वाले को अन्य-अन्य से विशिष्ट होकर मूर्छित जैसा कर देती हैं । कहा है अन्नन्नसरविसेसं उप्पायंतस्स मुच्छणा भणिया । कन्ता वि मुच्छिओ इव कुणए मुच्छंव सो वेति ॥ गान्धारस्वर के अन्तर्गत मूर्च्छनाओं के बीच में उत्तरमन्दा नाम की मूर्छना जब अति प्रकर्ष को प्राप्त जाती है तब वह श्रोताजनों को मूर्छित-सा बना देती है। इतना ही नहीं किन्तु स्वरविशेषों को करता हुआ गायक भी मूर्छित के समान हो जाता है । ऐसी उत्तरमन्दा मूर्च्छना से युक्त वीणा का जैसा शब्द निकलता है क्या वैसा शब्द उन तृणों और मणियों का है ? ऐसा श्री गौतमस्वामी के कहने पर भगवान् कहते हैं - नहीं इस स्वर से भी अधिक इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और मनोहर उन तृणों और मणियों का शब्द होता है । पुन: श्री गौतमस्वामी तीसरा उपमान कहते हैं- भगवान् ! जैसा किन्नरों, किंपुरुषों, महोरगों या गन्धर्वों का, जो भद्रशालवन, नन्दनवन, सोमनसवन, पण्डकवन में स्थित हों अथवा हिमवान्पर्वत या मलयपर्वत या मन्दरपर्वत की गुफा में बैठे हों, एक स्थान पर एकत्रित हुए हों, एक दूसरे के समक्ष बैठे हों, इस ढंग से बैठे हों कि किसी को दूसरे की रगड़ से बाधा न हो, स्वयं को भी किसी अपने ही अंग से बाधा न पहुँच रही हो, हर्ष जिनके शरीर पर खेल रहा हो, जो आनन्द के साथ क्रीड़ा करने में रत हों, गीत में जिनकी रति हो, नाट्यादि द्वारा जिनका मन हर्षित हो रहा हो - (ऐसे गन्धर्वों का ) आठ प्रकार के गेय से तथा आगे उल्लिखित गेय के गुणों से सहित और दोषों से रहित ताल एवं लय से युक्त गीतों के गाने से जो स्वर निकलता है क्या वैसा उन तृण और मणियों का शब्द होता है ? गेय आठ प्रकार के हैं - १ गद्य-जो स्वर संचार से गाया जाता हैं, २ पद्य - जो छन्दादिरूप हो, ३ कथ्य - कथात्मक गीत, ४ पदबद्ध - जो एकाक्षरादि रूप हो यथा - 'ते', ५ पादबद्ध - श्लोक का चतुर्थ भाग रूप हो, ६ उत्क्षिप्त—जो पहले आरम्भ किया हुआ हो, ७ प्रवर्तक - प्रथम आरम्भ से ऊपर आक्षेपपूर्वक होने वाला, ८ मन्दाक - मध्यभाग में सकल मूर्च्छानादि गुणोपेत तथा मन्द मन्द स्वर से संचरित हो । वह आठ प्रकार का गेय रोचितावसान वाला हो, अर्थात् जिस गीत का अन्त रुचिकर ढंग से शनै:
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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