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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
शनैः होता हो तथा जो सप्तस्वरों से युक्त हो। गेय के सात स्वर इस प्रकार हैं
सज्जे रिसह गन्धारे मज्झिमे पंचमे सरे।
धेवए चेव नेसाए सरा सत्त वियाहिया॥ षड्ज, ऋषभ, गन्धार, मध्यम, पंचम, धैवत और नैषाद, ये सात स्वर हैं। ये सात स्वर पुरुष के या स्त्री के नाभिदेश से निकलते हैं, जैसा कि कहा है-'सप्तसरा नाभिओ'।
अष्टरस-संप्रयुक्त-वह गेय श्रृंगार आदि आठ रसों से युक्त हो। षड्दोष-विप्रयुक्त-वह गेय छह दोषों से रहित हो। वे छह दोष इस प्रकार हैं
भीयं दुयमुप्पित्थमुत्तालं च कमसो मुणेयव्वं ।
कागस्सरमणुणासं छद्दोसा होति गेयस्स॥ भीत, द्रुत, उप्पिच्छ, (आकुलतायुक्त), उत्ताल, काकस्वर और अनुनास (नाक से गाना) ये गेय के छह दोष हैं।
एकादशगुणालंकार-पूर्वो के अन्तर्गत स्वरप्राभूत में गेय के ग्यारह गुणों का विस्तार से वर्णन है। वर्तमान में पूर्व विच्छिन्न हैं अतएव आंशिक रूप में पूर्वो से विनिर्गत जो भरत, विशाखिल आदि गेय शास्त्र हैं, उनसे इनका ज्ञान करना चाहिए। अष्टगुणोपेत-गेय के आठ गुण इस प्रकार हैं
पुण्णं रत्तं च अलंकियं च वत्तं तहेव अविघुटं।
महुरं समं सुललियं अट्ठगुणा होति गेयस्स॥ १ पूर्ण-जो स्वर कलाओं से परिपूर्ण हो, २ रक्त-राग से अनुरक्त होकर जो गाया जाए, ३ अलंकृतपरिवेष रूप स्वर से जो गाया जाय, ४ व्यक्त-जिसमें अक्षर और स्वर स्पष्ट रूप से गाये जायें, ५ अविघुष्टजो विस्वर और आक्रोश युक्त न हो, ६ मधुर-जो मधुर स्वर से गाया जाय, ७ सम-जो ताल, वंश, स्वर आदि से मेल खाता हुआ गाया जाय, ८ सुललित-जो श्रेष्ठ घोलना प्रकार से श्रोत्रेन्द्रिय को सुखद लगे, इस प्रकार गाया जाय। ये गेय के आठ गुण हैं।
गुंजंत वंसकुहरम्-जो बांसुरी में तीन सुरीली आवाज से गाया गया हो, ऐसा गेय। रत्त-राग से अनुरक्त गेय।
त्रिस्थानकरणशुद्ध-जो गेय उर, कंठ और सिर इन तीन स्थानों से शुद्ध हो। अर्थात् उर और कंठ श्लेष्मवर्जित हो और सिर अव्याकुलित हो। इस तरह गाया गया गेय त्रिस्थानकरणशुद्ध होता है।
सकुहरगुजंतवंसतंतीसुसंपउत्त-जिस गान में एक तरफ तो बांसुरी बजाई जा रहा हो और दूसरी ओर तन्त्री (वीणा) बजाई चा रही हो, इनके स्वर से जो गान अविरुद्ध हो अर्थात् इनके स्वरों से मिलता हुआ गाया जा रहा हो।