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ततीय प्रतिपत्ति: वनखण्ड की बावड़ियों आदि का वर्णन]
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तालसुसंप्रयुक्त-हाथ की तालियों से मेल खाता हुआ गाया जा रहा हो।
तालसमं लयसंप्रयुक्त ग्रहसुसंप्रयुक्त-ताल, लय तथा वीणादि के स्वर से मेल खाता हुआ गाया जाने वाले गेय।
मणोहरं-मन को हरने वाला गेय। मृदुरिभितपदसंचार-मृदु स्वर से युक्त, तंत्री आदि से ग्रहण किये गये स्वर से युक्त पदसंचार वाले गेय। सुरई-श्रोताओं को आनन्द देने वाला गेय।। सुनतिं-अंगों के सुन्दर हावभाव से युक्त गेय। वरचारुरूपं-विशिष्ट सुन्दर रूप वाला गेय।
उक्त विशेषणों से युक्त गेय को जब पूर्वोक्त व्यन्तर, किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गन्धर्व प्रमुदित होकर गाते हैं तब उनसे जो शब्द निकलता है, ऐसा मनोहर शब्द उन तृणों और मणियों का है क्या ? ऐसा श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया। इसके उत्तर में भगवान् ने फरमाया कि हाँ-गौतम ! उन तृणों और मणियों का इतना सुन्दर शब्द होता है। - सूत्र में आये हुए भद्रशाल आदि वनों का स्पष्टीकरण इस प्रकार है। भद्रशाल आदि चार वन सुमेरु पर्वत पर हैं। इनमें भद्रशालवन मेरु पर्वत की नीचे की भूमि पर है, नन्दनवन मेरु की प्रथम मेखला पर है, दूसरी मेखला पर सोमनसवन है और चूलिका के पार्श्वभाग में चारों तरफ पण्डकवन है। महाहिमवान् हेमवत क्षेत्र की उत्तर दिशा में है। यह उसकी सीमा करने वाला होने से वर्षधर पर्वत कहलाता है। वनखण्ड की वावड़ियों आदि का वर्णन
१२७.(१)तस्स णं वणसंडस्स तत्थ तत्थ देसे तहिं तहिं बहवे खुड्डा खुड्डियाओ वावीओ पुक्खरिणीओ गुंजालियाओ दीहियाओसराओ सरपंतियाओसरसरपंतीओ बिलपंतीओ अच्छाओ सहाओ रययामयकूलाओ समतीराओ वइरामयपासाणाओ, तवणिज्जमयतलाओ वेरुलियमणिफालियपडल पच्चोयडाओणवणीयतलाओ सुवण्ण-सुज्झरयय-मणिवालुयाओ सुहोयाराओ सुउत्ताराओ, णाणामणितित्थसुबद्धाओ चउक्कोणाओ समतीराओ, आणुपुव्वसुजायवप्पगंभीरसीयलजलाओ संछन्नपत्तभिसमुणालाओ बहुउप्पल-कुमुय-णलिणसुभग-सोगंधिय-पोंडरीय-सयपत्त-सहस्सपत्तफुल्लकेसरी-बइयाओ छप्पयपरिभुज्जमाणकमलाओ अच्छविमलसलिलपुण्णाओ परिहत्थ भमंतमच्छकच्छभ अणेगसउणमिहुणपरिचरियाओ पत्तेयं पत्तेयं वणसंडपरिक्खित्ताओ अप्पेगइयाओ आसवोदाओ अप्पेगइयाओ वारुणोदाओ अप्पेगइयाओ खीरोदाओ अप्पेगइयाओ घओदाओ अप्पेगइयाओ खोदोदाओ अप्पेगइयाओ अमयरससमरसोदाओ, अप्पेगइयाओ पगइएउदग (अमय) रसेणं पण्णत्ताओ, पासाइयाओ दरिसणिज्जाओ अभिरूवाओ पडिरूवाओ।
[१२७] (१) उस वनखण्ड के मध्य में उस-उस भाग में उस उस स्थान पर बहुत सी छोटी