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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
तिर्यक्लोक के प्रसंग में द्वीपसमुद्र-वक्तव्यता
१२३. कहि णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता? केवइया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता ? केमहालया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता ? किंसंठिया णं भंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता ? किमाकारभावपडोयाराणंभंते ! दीवसमुद्दा पण्णत्ता? गोयमा! जंबुद्दीवाइया दीवालवणाइया समुद्दा संठाणओ एकविहविहाणा वित्थारओ अणेगविधविहाणा दुगुणा दुगुणे पडुप्पाएमाणा पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा पवित्थरमाणाओभासमाणा वीचिया बहुउप्पलपउमकुमुदणलिणसुभगसोगंधियपोंडरीयमहापोंडरीयसतपत्तसहस्सपत्त पप्फुल्लकेसरोवचिया पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयंपत्तेयंवणखंडपरिक्खित्ता अस्सिं तिरियलोए असंखेज्जा दीवसमुद्दा सयंभूरमणपज्जवसाणा पण्णत्ता समणाउसो !
_ [१२३] हे भगवन्! द्वीप समुद्र कहाँ अवस्थित हैं ? भगवन् ! द्वीप समुद्र कितने हैं ? भगवन् ! वे द्वीपसमुद्र कितने बड़े हैं ? भगवन् ! उनका आकार कैसा है ? भंते ! उनका आकारभाव प्रत्यवतार (स्वरूप)
कैसा हैं ?
गौतम ! जम्बूद्वीप से आरम्भ होने वाले द्वीप है और लवणसमुद्र से आरम्भ होने वाले समुद्र हैं। वे द्वीप और समुद्र (वृत्ताकार होने से) एकरूप हैं। विस्तार की अपेक्षा से नाना प्रकार के हैं अर्थात् दूने दूने विस्तार वाले हैं, प्रकटित तरंगों वाले हैं, बहुत सारे उत्पल पद्म, कुमुद, नलिन, सुभग, सौगन्धिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक शतपत्र, सहस्रपत्र कमलों के विकसित पराग से सुशोभित हैं। ये प्रत्येक पद्मवरवेदिका से घिरे हुए हैं, प्रत्येक के आसपास चारों ओर वनखण्ड हैं। हे आयुष्मन् श्रमण ! इस तिर्यक्लोक में स्वयंभूरमण समुद्रपर्यन्त असंख्यात द्वीपसमुद्र कहे गये हैं।
विवेचन-ज्योतिष्क देव तिर्यक्लोक में हैं, अतएव तिर्यक्लोक से सम्बन्धित द्वीपों और समुद्रों की वक्तव्यता इस सूत्र में कही गई है। श्री गौतमस्वामी ने प्रश्न किया कि द्वीप और समुद्र कहाँ स्थित हैं ? वे कितने हैं ? कितने बड़े हैं ? उनका आकार कैसा है और उनका आकार भाव प्रत्यवतार अर्थात् स्वरूप किस प्रकार का है ? इस तरह अवस्थिति, संख्या, प्रमाण संस्थान और स्वरूप को लेकर द्वीप-समुद्रों की पृच्छा की गई है। भगवान् ने इन प्रश्नों का उत्तर देने के पूर्व द्वीप-समुद्रों की आदि बताई है। आदि के विषय में प्रश्न न होने पर भी आगे उपयोगी होने से पहले आदि बताई है। साथ ही यह भी सूचित किया है कि गुणवान शिष्य को उसके द्वारा न पूछे जाने पर भी तत्त्वकथन करना चाहिए। प्रभु ने फरमाया कि सब द्वीपों की आदि में जम्बूद्वीप है और सब समुद्रों की आदि में लवणसमुद्र है। सब द्वीप और समुद्र वृत्त (गोलाकार) होने से एक प्रकार के संस्थान वाले हैं परन्तु विस्तार की भिन्नता के कारण वे अनेक प्रकार के हैं। जम्बूद्वीप एक लाख योजन विस्तार वाला है। उसको घेरे हुए दो लाख योजन का लवणसमुद्र है, उसको घेरे हुए चार लाख योजन का धातकीखण्ड द्वीप है। इस प्रकार आगे आगे द्वीप और समुद्र दुगुने-दुगुने विस्तार वाले हैं। अर्थात् ये द्वीप और समुद्र दूने दूने विस्तार वाले होते जाते हैं। ये द्वीप और समुद्र दृश्यमान जलतरंगों से तरंगित हैं। यह विशेषण समुद्रों पर तो स्पष्टतया संगत है ही किन्तु द्वीपों पर भी संगत है क्योंकि द्वीपों