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________________ ४२४ ] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पडिसुणंति, पडिसुणित्ता विजयाए रायहाणीए सिंघाडगेसु य जाव अच्चणियं करेत्ता जेणेव विजए देवे तेणेव उवागच्छंति, उवागच्छित्ता एयमाणत्तियं पच्चप्पिणंति। तए णं से विजए देवे तेसिंणं आभिओगियाणं देवाणं अंतिए एयमटुं सोच्चा णिसम्म हट्ठतुटुचित्तमाणंदिए जाव हयहियए जेणेव नंदापुक्खरिणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता पुरथिमिल्लेणं तोरणेणं जाव हत्थपायं पक्खालेइ, पक्खालित्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए णंदापुक्खरिणीओ पच्चुत्तरइ, पच्चुत्तरित्त जेणेव सभा सुहम्मा तेणेव पहारेत्थ गमणाए। तए णं विजए देवे चउहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव सोलसहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहिं सव्विडीए जाव णिग्योसणादियरवेणंजेणेव सभा सुहम्मा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सभं सुहम्मं पुरथिमिल्लेणंदारेणं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव मणिपेढिया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरच्छिमाभिमुहे सण्णिसण्णे। [१४२] (४) तब वह विजयदेव अपने चार हजार सामानिक देवों आदि अपने समस्त परिवार के साथ, यावत् सब प्रकार की ऋद्धि के साथ वाद्यों की ध्वनि के बीच सुधर्मासभा की ओर आता है और उसकी प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। प्रवेश करने पर जिन-अस्थियों को देखते ही प्रणाम करता है और जहाँ मणिपीठिका है, जहाँ माणवक चैत्यस्तंभ है और जहाँ वज्ररत्न की गोल वर्तुल मंजूषाएँ हैं, वहाँ आता है और लोमहस्तक लेकर उन गोल-वर्तुलाकार मंजूषाओं का प्रमार्जन करता हैं और उनको खोलता है, उनमें रखी हुई जिन-अस्थियों का लोमहस्तक से प्रमार्जन कर सुगन्धित गंधोदक से इक्कीस बार उनको धोता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, प्रधान और श्रेष्ठ गंधों और मालाओं से पूजता है और धूप देता है। तदनन्तर उनको उन गोल वर्तुलाकार मंजूषाओं में रख देता है। इसके बाद माणवक चैत्यस्तंभ का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, दिव्य उदकधारा से सिंचन करता है, सरस गोशीर्ष चन्दन का लेप करता है, फूल चढ़ाता है, यावत् लम्बी लटकती हुई फूलमालाएँ रखता है। कचग्राहग्रहीत और करतल से विमुक्त हुए बिखरे पांच वर्गों के फूलों से पुष्पोपचार करता है, धूप देता है। इसके बाद सुधर्मासभा के मध्यभाग में जहाँ सिंहासन है वहाँ आकर सिंहासन का प्रमार्जन आदि पूर्ववत् अर्चना करता है। इसके बाद जहाँ मणिपीठिका और देवशयनीय है वहाँ आकर पूर्ववत् पूजा करता है। इसी प्रकार क्षुल्लक महेन्द्रध्वज की पूजा करता है। इसके बाद जहाँ चौपालक नामक प्रहरणकोष [शस्त्रागार] है वहाँ आकर शस्त्रों का लोमहस्तक से प्रमार्जन करता है, उदकधारा से सिंचन कर, चन्दन का लेप लगाकर, पुष्पादि चढ़ाकर धूप देता है। इसके पश्चात् सुधर्मासभा के दक्षिण द्वार पर आकर पूर्ववत् पूजा करता है, फिर दक्षिण द्रार से निकलता है। इससे आगे सारी वक्तव्यता सिद्धायतन की तरह कहना चाहिए यावत् पूर्वदिशा की नंदापुष्करिणी की अर्चना करता है। सब सभाओं की पूजा का कथन सुधर्मासभा की तरह जानना चाहिए। अन्तर यह है कि उपपातसभा में देवशयनीय की पूजा का कथन करता चाहिए और शेष सभाओं में सिंहासनों की पूजा का कथन करना चाहिए। ह्रद की पूजा का कथन नंदापुष्करिणी की तरह करना चाहिए। व्यवसायसभा में पुस्तकरत्न का लोमहस्तक से प्रमार्जन, दिव्य उदकधारा से सिंचन, सरस गोशीर्ष चन्दन से अनुलिपन, प्रधान
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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