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प्राथमिक उपोद्घात
जगत् हितंकर, विश्ववंद्य देवाधिदेव तीर्थंकर परमात्मा ने जगज्जीवों को संसार-सागर से पार करने, उन्हें सांसारिक आधि-व्याधि-उपाधियों से उबारने के लिए एवं अनादिकालीन कर्मबन्धनों से छुटकारा दिलाकर मुक्ति के अनिर्वचनीय सुख-सुधा का पान कराने हेतु प्रवचन का प्ररूपण किया है। यह प्रवचन संसार के प्राणियों को भवोदधि से तारने वाला होने से 'तीर्थ' कहलाता है। प्रवचन तीर्थ है और तीर्थ प्रवचन है। प्रवचनरूप तीर्थ की रचना करने के कारण भगवान् अरिहंत तीर्थंकर कहलाते हैं। प्रवचन द्वादशांग गणिपिटक रूप है। प्रवाह की अपेक्षा से प्रवचन अनादि अनन्त होने पर भी विवक्षित तीर्थंकर की अपेक्षा वह आदिमान् है। अतः 'नमस्तीर्थाय' कहकर तीर्थंकर परमात्मा भी अनादि अनन्त तीर्थ को नमस्कार करते हैं। द्वादशांग गणिपिटक में उपयोगयुक्त रहने के कारण चतुर्विध श्रमणसंघ भी तीर्थ या प्रवचन कहा जाता है।
तीर्थंकर प्ररूपित यह प्रवचन द्वादशांगरूप है। तीर्थंकर परमात्मा अर्थरूप से इसका निरूपण करते हैं और विशिष्ट मति वाले गणधर सूत्ररूप में उसे ग्रथित करते हैं।'
___ सर्वज्ञ सर्वदर्शी तीर्थंकर परमात्मा द्वारा उपदिष्ट और विशिष्टमतिसम्पन्न चार ज्ञान, चौदह पूर्वो के धारक गणधरों द्वारा गुम्फित यह द्वादशांगी श्रुत-पुरुष की अंगरूप है। जो इस द्वादशांगी से अविरुद्ध और श्रुतस्थविरों द्वारा रचित हो वह श्रुत-पुरुष के उपांगरूप है। इस अपेक्षा से श्रुतसाहित्य अंगप्रविष्ट और अनंगप्रविष्ट के रूप से दो प्रकार का हो जाता है।
___जो गणधरों द्वारा रचित हो, जो प्रश्न किये जाने पर उत्तररूप हो, जो सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में नियत हो वह श्रुत अंगप्रविष्टश्रुत है। आचारांग से लगाकर दृष्टिवाद पर्यन्त बारह अंग, अंगप्रविष्ट श्रुत हैं।
जो श्रुतस्थविरों द्वारा रचित हो, जो अप्रश्नपूर्वक मुक्तव्याकरण रूप हो तथा जो सर्व तीर्थंकरों के तीर्थ में अनियत रूप हो वह अनंगप्रविष्टश्रुत है। जैसे औपपातिक आदि बारह उपांग और मूल, छेदसूत्र आदि।
प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र तृतीय उपांग है। स्थानांग नामक तीसरे अंग का यह उपांग है। यह श्रुतस्थविरों द्वारा संदृब्ध (रचित) है। अंगबाह्यश्रुत कालिक और उत्कालिक के भेद से दो प्रकार के हैं। जो
१. जगजीवरक्खणदयट्ठयाए भगवया पावयणं कहियं। -प्रश्रव्याकरण २. प्रगतं जीवादिपदार्थव्यापकं, प्रधानं, प्रशस्तं, आदौ वा वचनं प्रवचनम् द्वादशांगं गणिपिटकम् ।
-विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १ टीका गणिपिटकोपयोगानन्यत्वाद् वा चतुर्विधश्रीश्रमणसंघोऽपि प्रवचनमुच्यते ।। -विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १ टीका अत्थं भासइ अरहा सुत्तं गंथंति गणहरा निउणं। गणधर थेरकयं वा आएसा मुक्कवागरणओ वा। धुव-चलविसेसओ वा अंगाणंगेस नाणतं ॥
-विशेषावश्यकभाष्य,गाथा ५५०