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________________ [जीवाजीवाभिगमसूत्र श्रुत अस्वाध्याय को टालकर दिन-रात के चारों प्रहर में पढ़े जा सकते हैं वे उत्कालिक हैं, यथा दशवैकालिक आदि और जो दिन और रात्रि के प्रथम और अन्तिम प्रहर में ही पढ़े जाते हैं वे कालिकश्रुत हैं, यथा उत्तराध्ययन आदि। प्रस्तुत जीवाजीवाभिगमसूत्र उत्कालिकसूत्र है।' जीवाजीवाभिगम-अध्ययन एक प्रवृत्ति है और कण्टकशाखा मर्दन की तरह निरर्थक प्रवृत्ति बुद्धिमानों की नहीं होती। अतएव ग्रन्थ के आरम्भ में प्रयोजन, अभिधेय और सम्बन्ध के साथ मंगल अवश्य ही बताया जाना चाहिए। १. प्रयोजन-प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) अनन्तरप्रयोजन और (२) परम्परप्रयोजन। पुनः प्रयोजन दो प्रकार का है-(१) कर्तृगतप्रयोजन और (२) श्रोतृगतप्रयोजन। कर्तगतप्रयोजन-प्रस्तुत जीवाजीवाभिगम अध्ययन द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से कर्तृरहित है, क्योंकि वह शाश्वत है, नित्य है। आगम में कहा है-'यह द्वादशांग गणिपिटक पूर्वकाल में नहीं था, ऐसा नहीं; वर्तमान में नहीं है, ऐसा भी नहीं; भविष्य में नहीं होगा, ऐसा भी नहीं। यह ध्रुव है नित्य है, शाश्वत है। नित्य वस्तु का कोई कर्ता नहीं होता। पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा इसके कर्ता अर्थापेक्षया अर्हन्त हैं और सूत्रापेक्षया गणधर हैं। अर्थरूप आगम तो नित्य है किन्तु सूत्ररूप आगम अनित्य है। अतः सूत्रकार का अनन्तर प्रयोजन जीवों पर अनुग्रह करना है और परम्पर प्रयोजन अपवर्गप्राप्ति है। यहाँ पर शंका की जा सकती है कि अर्थरूप आगम के प्रणेता श्री अर्हन्त भगवान् का अर्थप्रतिपादन का क्या प्रयोजन है ? वे तो कृतकृत्य हो चुके हैं; उनमें प्रयोजनवत्ता कैसे घटित हो सकती है ? इसका समाधान यह है कि यद्यपि तीर्थंकर परमात्मा कृतकृत्य हो चुके हैं, अतएव उनमें प्रयोजनवत्ता घटित नहीं होती तदपि वे तीर्थंकर नामकर्म के उदय से अर्थ प्रतिपादन में प्रवृत्त होते हैं। जैसा कि कहा गया है-'तीर्थंकर नामकर्म का वेदन कैसे होता है ? अग्लान भाव से धर्मदेशना देने से तीर्थंकर नामकर्म का वेदन होता है।' श्रोतृगतप्रयोजन-श्रोता का अनन्तर प्रयोजन विवक्षित अध्ययन के अर्थ को जानना है और उसका परम्पर-प्रयोजन निःश्रेयस् पद की प्राप्ति है। विवक्षित अर्थ को समझने के पश्चात् संयम में श्रोता की प्रवृत्ति होगी और संयम-प्रवृत्ति से सकल कर्मों का क्षय करके वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है। १. उक्कालियं अणेगविहं पण्णत्तं तं जहा-दसवेयालियं, कप्पिया, कप्पियं, चुल्लकप्पसुयं महाकप्पसुयं, उववाइयं रायपसेणियं जीवाभिगमो ..........। -नंदीसूत्र । प्रेक्षावतां प्रवृत्त्यर्थ फलादि त्रितयं स्फुटम् । मंगलञ्चैव शास्त्रादौ वाच्यमिष्टार्थसिद्धये ॥ -जीवा. मलयगिरि टीका एवं दुवालसंगं गणिपिडगं न कया वि नासी, न कयाइ वि न भवइ, न कया वि न भविस्सइ। ध्रुवं णिच्चं सासयं। -नंदीसूत्र ४. तं च कहं वेइज्जइ ? अगिलाए धम्मदेसणाए। -आवश्यकनियुक्ति
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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