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________________ ८८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र पयोलातिक, क्षीरविडालिका आदि अन्य इसी प्रकार के भुजगपरिसर्प तिर्यंच। यह भुजपरिसर्प संक्षेप में दो प्रकार के है-पर्याप्त और अपर्याप्त । शेष वर्णन पूर्ववत् समझना। तेवीस द्वारों की विचारणा में जलचरों की तरह कथन करना चाहिए, केवल अवगाहनाद्वार और स्थितिद्वार में अन्तर जानना चाहिए। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से धनुषपृथक्त्व है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट बयालीस हजार वर्ष की है। शेष पूर्ववत् यावत् ये जीव चार गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। खेचर-खेचर के ४ प्रकार हैं-चर्मपक्षी, रोमपक्षी, समुद्गकपक्षी, और विततपक्षी। प्रज्ञापना में इनके भेद इस प्रकार कहे हैं चर्मपक्षी-अनेक प्रकार के हैं-वग्गुली (चिमगादड़), जलौका, अडिल्ल, भारंडपक्षी जीवंजीव, समुद्रवायस, कर्णत्रिक और पक्षीविडाली आदि। जिनके पंख चर्ममय हों वे चर्मपक्षी हैं। रोमपक्षी-जिनके पंख रोममय हों वे रोमपक्षी हैं। इनके भेद प्रज्ञापनासूत्र में इस प्रकार कहे हैं ढंक, कंक, कुरल, वायस, चक्रवाक, हंस, कलहंस, राजहंस, (लाल चोंच एवं पंख वाले हंस) पादहंस, आड, सेडी, वक, बलाका, (वकपंक्ति), पारिप्लव, क्रोंच, सारस, मेसर, मसूर, मयूर, शतवत्स (सप्तहस्त), गहर, पौण्डरीक, काक, कामजुंक, बंजुलक, तीतर, वर्तक (बतक), लावक, कपोत, कपिंजल, पारावत, चिटक, चास, कुक्कुट, शुक, वर्हि (मोरविशेष) मदनशलाका (मैना), कोकिल, सेह और वरिल्लक आदि। समुद्गकपक्षी-उड़ते हुए भी जिनके पंख पेटी की तरह स्थित रहते हैं वे समुद्गकपक्षी हैं। ये एक ही प्रकार के हैं। ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते। बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते है। विततपक्षी-जिनके पंख सदा फैले हुए होते हैं वे विततपक्षी हैं । ये एक ही प्रकार के हैं। ये मनुष्य क्षेत्र में नहीं होते, बाहर के द्वीपों समुद्रों में होते हैं। ___ ये खेचर संमूर्छिम तिर्यंच पंचेन्द्रिय पर्याप्त, अपर्याप्त के भेद से दो प्रकार के हैं, इत्यादि वर्णन पूर्ववत् । शरीर अवगाहना आदि द्वारों की विचारणा जलचरों की तरह करनी चाहिए। जो अन्तर है वह अवगाहना और स्थितिद्वारों में है। इनकी उत्कृष्ट अवगाहना धनुषपृथक्त्व है और स्थिति बहत्तर हजार वर्ष की है। ये जीव चार गति वाले, दो आगति वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं। यहाँ स्थिति और अवगाहना को बताने वाली दो संग्रहणी गाथाएँ भी किन्ही प्रतियों में हैं। वे इस प्रकार हैं जोयणसहस्स गाउयपुहुत्त तत्तो य जोयणपुहत्तं। दोण्हं पि धणुपुहत्तं समुच्छिम वियगपक्खीणं॥१॥ संमुच्छ पुवकोडी चउरासीई भवे सहस्साइं। तेवण्णा बायाला बावत्तरिमेव पक्खीणं॥२॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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