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________________ प्रथम प्रतिपत्ति : स्थलचरों का वर्णन] [८७ ग्राम न हो)निवेशों में, द्रोणमुख (प्रायः जल निर्गम प्रवेश वाला स्थान) निवेशों में, पत्तन और पट्टन निवेशों में-जब इनका विनाश होने वाला होता है तब इन पूर्वोक्त स्थानों में आसालिक संमूर्छिम रूप से उत्पन्न होता है। यह जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग जितनी अवगाहना (उत्पत्ति के समय) और उत्कृष्ट बारह योजन की अवगाहना और उसके अनुरूप ही लम्बाई-चौड़ाई वाला होता है। यह पूर्वोक्त स्कंधावारों आदि की भूमि को फाड़ कर बाहर निकलता है। यह असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और अज्ञानी होता है और अन्तर्मुहूर्त की आयु भोग कर मर जाता हैं। यह आसालिक गर्भज नहीं होता, यह संमूर्छिम ही होता है। यह मनुष्यक्षेत्र से बाहर नहीं होता। यह आसालिक का वर्णन हुआ। महोरग-प्रज्ञापनासूत्र में महोरग का वर्णन इस प्रकार है__ महोरग अनेक प्रकार के कहे गये हैं, यथा-कोई महोरग एक अंगुल के भी होते हैं, कोई अंगुलपृथक्त्व के कई वितस्ति (बेंत-बारह अंगुल) के होते हैं, कई वितस्तिपृथक्त्व के होते हैं, कई एक रत्नि (हाथ) के होते हैं, कई रत्निपृथक्त्व (दो हाथ से नौ हाथ तक) के होते हैं, कई कुक्षि (दो हाथ) प्रमाण होते हैं, कई कुक्षिपृथक्त्व के होते हैं, कई धनुष (चार हाथ) प्रमाण होते हैं, कई धनुषपृथक्त्व के होते हैं, कई गव्यूति.. (कोस या दो हजार धनुष) प्रमाण होते हैं, कई गव्यूतिपृथक्त्व प्रमाण के होते हैं, कई योजन (चार कोस) के होते हैं, कई योजनपृथक्त्व होते हैं। (कोई सौ योजन के, कोई दो सौ से नौ सौ योजन के होते हैं और कई हजार योजन के भी होते हैं।)* ये स्थल में उत्पन्न होते हैं परन्तु जल में भी स्थल की तरह चलते हैं और स्थल में भी चलते हैं। वे यहाँ नहीं होते, मनुष्यक्षेत्र के बाहर के द्वीप-समुद्रों में होते हैं। समुद्रों में भी पर्वत, देवनगरी आदि स्थलों में उत्पन्न होते हैं, जल में नहीं। इस प्रकार के अन्य भी दस अंगुल आदि की अवगाहना वाले महोरग होते हैं। यह अवगाहना उत्सेधांगुल के मान से है। शरीर का माप उत्सेधांगुल से ही होता है। ' इस प्रकार अहि, अजगर आदि उर:परिसर्प स्थलचर संमूर्छिम पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक जीव संक्षेप से दो प्रकार के हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त इत्यादि कथन तथा २३ द्वारों की विचारणा जलचरों की भांति जानना चाहिए। अवगाहना और स्थिति द्वार में अन्तर है। इनकी अवगाहना जघन्य से अंगुल का असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट से योजनपृथक्त्व होती है। स्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तिरेपन हजार वर्ष की होती है। शेष पूर्ववत् यावत् ये चार गति में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात होते भुजगपरिसर्प-प्रज्ञापनासूत्र में भुजगपरिसर्प के भेद इस प्रकार बताये गये हैं-गोह, नकुल, सरट (गिरगिट) शल्य, सरंठ, सार, खार, गृहकोकिला (घरोली-छिपकली), विषम्भरा (वंसुभरा), मूषक, मंगूस (गिलहरी), १. पत्तनं शकटैगम्यं, घोटकैनौभिरेव च। नौभिरेव तु यद् गम्यं पट्टनं तत्प्रचक्षते॥ -वृत्ति • कोष्ठक में दिया हुआ अंश गर्भज महोरग की अपेक्षा समझना चाहिए।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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