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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
___ गंडीपद-गंडी का अर्थ है-एरन । एरन के समान जिनके पांव हों वे गंडीपद हैं। ये अनेक प्रकार के हैं, यथा-हाथी, हस्तिपूतनक, मत्कुण हस्ती (बिना दाँतों का छोटे कद का हाथी), खड्गी और गेंडा।
सनखपद-जिनके पावों के नख बड़े-बड़े हों वे सनखपद है। जैसे-कुत्ता, सिंह आदि। सनखपद अनेक प्रकार के हैं, जैसे-सिंह, व्याघ्र, द्वीपिका (दीपड़ा), रीछ (भालू), तरस, पाराशर, शृगाल (सियार), विडाल (बिल्ली), श्वान, कोलश्वान, कोकन्तिक (लोमड़ी), शशक (खरगोश), चीता और चित्तलक (चिल्लक) इत्यादि।
___इन चतुष्पद स्थलचरों में पर्याप्त और अपर्याप्त के भेद तथा पूर्वोक्त २३ द्वारों की विचारणा जलचरों के समान जाननी चाहिए, केवल अन्तर इस प्रकार है-इनके शरीर की अवगाहना जघन्य अंगुल के असंख्यातवां भाग और उत्कृष्ट गव्यूतिपृथक्त्व (दो कोस से लेकर नौ कोस) की। आगम में पृथक्त्व का अर्थ दो से लेकर नौ की संख्या के लिए है। इनकी स्थिति जघन्य तो अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट चौरासी हजार वर्ष है। शेष सब वर्णन जलचरों की तरह ही है। यावत् वे चारों गतियों में जाने वाले, दो गति से आने वाले, प्रत्येकशरीरी और असंख्यात हैं।
परिसर्प स्थलचर-पेट और भुजा के बल चलने वाले परिसर्प कहलाते हैं। इनके दो भेद किये हैं-उरगपरिसर्प और भुजगपरिसर्प । उरगपरिसर्प के चार भेद हैं-अहि, अजगर, आसालिक और महोरग।
अहि-ये दो प्रकार के हैं-दर्वीकर अर्थात् फण वाले और मुकुली अर्थात् बिना फण वाले। दर्वीकर अहि अनेक प्रकार के हैं, यथा-आशीविष, दृष्टिविष, उग्रविष, भोगविष, त्वचाविष, लालाविष, उच्छ्वासविष, निःश्वासविष, कृष्णसर्प, श्वेतसर्प, काकोदर, दह्यपुष्प, (दर्भपुष्प) कोलाह, मेलिमिन्द और शेषेन्द्र इत्यादि।
मुकुली-बिना फण वाले मुकुली सर्प अनेक प्रकार के हैं, यथा-दिव्याक (दिव्य), गोनस, कषाधिक, व्यतिकुल, चित्रली, मण्डली, माली, अहि, अहिशलाका, वातपताका आदि।
अजगर-ये एक ही प्रकार के होते हैं। आसालिक-प्रज्ञापनासूत्र में आसालिक के विषय में ऐसी प्ररूपणा की गई है'भंते ! आसालिक कैसे होते हैं और कहाँ संमूर्छित (उत्पन्न ) होते हैं ?
गौतम ! ये आसालिक उर:परिसर्प मनुष्य क्षेत्र के अन्दर ढाई द्वीपों में निळघात से पन्द्रह कर्मभूमियों में और ' व्याघात की अपेक्षा पांच महाविदेह क्षेत्रों में, चक्रवर्ती के स्कंधावारों (छावनियों) में, वासुदेवों के स्कंधावारों में, बलदेवों के स्कंधावारों में, मंडलिक (छोटे) राजाओं के स्कंधावारों में, महामंडलिक (अनेक देशों के) राजाओं के स्कंधावारों में, ग्रामनिवेशों में, नगरनिवेशों में, निगम (वणिक्वसति) निवेशों में, खेट (खेड़ा) निवेशों में, कर्वट (छोटे प्राकार वाले) निवेशों में, मंडल (जिसके २॥ कोस के अन्तर में
१. सुषमसुषमादिरूपोऽतिदुःषमादिरूपः कालो व्याघातहेतुः।
-वृत्ति