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________________ व्याघ्रमुख, १७. अश्वकर्ण, १८. सिंहकर्ण, १९. अकर्ण, २०. कर्णप्रावरण, २१. उल्कामुख, २२. मेघमुख, २३. विद्युद्दन्त, २४. विद्युज्जिह्वा २५. घनदन्त, २६. लष्टदन्त, २७. गूढदन्त और २८. शुद्धदन्त । इसी प्रकार शिखरी पर्वत की लवणसमुद्रगत दाढाओं पर भी २८ अन्तर्वीप हैं। दोनों ओर के मिलाकर ५६ अन्तर्वीप हो जाते हैं। एकोरुक द्वीप का आयाम-विष्कंभ तीन सौ योजन और परिधि नौ सौ उनपचास योजन है। वह एक पद्मवरवेदिका और एक वनखण्ड से चारों ओर से घिरा हुआ है। इस द्वीप का भूमिभाग बहुत समतल और रमणीय है। वहाँ बहुत सारे द्रुम, वृक्ष, वन, लता, गुल्म आदि हैं जो नित्य कुसुमित रहते हैं। वहाँ बहुत सी हरी भरी वनराजियां हैं। वहाँ दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं जिनसे वहाँ के निवासियों का जीवन-निर्वाह होता है। (१) मत्तांग नामक कल्पवृक्ष से उन्हें विविध पेयपदार्थों की प्राप्ति होती है। (२) भृत्तांग नामक कल्पवृक्ष से बर्तनों की पूर्ति होती है। (३) त्रुटितांग कल्पवृक्ष से वाद्यों की पूर्ति (४) दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष से प्रकाश की पूर्ति होती है। (५) ज्योति-अंग नामक कल्पवक्ष से सर्य की तरह प्रकाश और सहावनी धप प्राप्त होती है। (६) चित्रांग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के चित्र एवं विविध मालाएँ प्रदान करते हैं। (७) चित्तरसा नामक कल्पवृक्ष विविध रसयुक्त भोजन प्रदान करते हैं। (८) मण्यंग नामक कल्पवृक्ष विविध प्रकार के मणिमय आभूषण प्रदान करते हैं। (९) गेहागार नाम के कल्पवृक्ष विविध प्रकार के आवास प्रदान करते हैं और (१०) अणिग्न नाम के कल्पवृक्ष उन्हें विविध प्रकार के वस्त्र प्रदान करते हैं। एकोरुक द्वीप के मनुष्य और स्त्रियां सुन्दर अंगोपांग युक्त, प्रमाणोपेत अवयव वाले, चन्द्र के समान सौम्य और अत्यन्त भोग-श्री से सम्पन्न होते हैं। नख से लेकर शिख तक के उनके अंगोपांगों का साहित्यिक और सरस वर्णन किया गया है। ये प्रकृति से भद्रिक होते हैं। चतुर्थ भक्त अन्तर से आहार की इच्छा होती है। ये मनुष्य आठ सौ धनुष ऊंचे होते हैं, ६४ पृष्ठकरंडक (पांसलियां) होते हैं। उनपचास दिन तक अपत्य-पालना करते हैं। उनकी स्थिति जघन्य देशोन पल्योपम का असंख्येय भाग और उत्कृष्ट पल्योपम का असंख्येय भाग प्रमाण हैं । जब उनकी छह मास आयु शेष रहती है तब युगलिक-स्त्री सन्तान को जन्म देती है। ये युगलिक स्त्री-पुरुष सुखपूर्वक आयुष्य पूर्ण करके अन्यतर देवलोक में उत्पन्न होते हैं। एकोरुक द्वीप में गृह, ग्राम, नगर, असि, मसि, कृषि आदि कर्म, हिरण्य-सुवर्ण आदि धातु, राजा और सामाजिक व्यवस्था, दास्यकर्म वैरभाव, मित्रादि, नटादि के नृत्य, वाहन, धान्य, डांस-मच्छर, युद्ध, रोग, अतिवृष्टि, लोहे आदि धातु की खान, क्रय विक्रय आदि का अभाव होता है। वह भोगभूमि है। इसी तरह सब अन्तर्वीपों का वर्णन समझना चाहिए। कर्मभूमिज मनुष्य कर्मभूमियों में और अकर्मभूमिज मनुष्य अकर्मभूमि में पैदा होते हैं। कर्मभूमि वह है जहाँ मोक्षमार्म के उपदेष्टा तीर्थंकर उत्पन्न होते हैं, जहाँ असि (शस्त्र) मषि (लेखन-व्यापार आदि) और कृषि कर्म करके मनुष्य अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। ऐसी कर्मभूमियां पन्द्रह हैं-५भरत, ५ एरवत और ५ महाविदेह । ( ये भरत आदि एक एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्ध द्वीप में हैं। ) यहाँ के मनुष्य अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों का क्षय करके मोक्ष प्राप्त कर सकते हैं । ये अपने अपने पुण्य-पाप के अनुसार चारों गतियों में उत्पन्न हो सकते हैं। ___ जहाँ असि-मसि-कृषि नहीं है किन्तु कल्पवृक्षों द्वारा जीवननिर्वाह है वह अकर्मभूमि है। अकर्मभूमियां ३० हैं-पांच हैमवत, पांच हैरण्यवत, पांच हरिवास, पांच, रम्यकवास, पांच देवकुरु और पांच उत्तरकुरु । इनमें से एक-एक जम्बूद्वीप में, दो-दो धातकीखण्ड में और दो-दो पुष्करार्धद्वीप में हैं। ३० अकर्मभूमि और ५६ अन्तर्वीप [३०]
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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