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________________ शीतोष्ण वेदना, मानवलोक की उष्णता से नारकीय उष्णता की तुलना, नैरयिकों के अनिष्ट पुद्गलपरिणमन का वर्णन किया गया है। तदनन्तर नारकों की स्थिति, उद्वर्तना और व्युत्क्रान्ति (उत्पत्ति) का वर्णन है। नारक उद्देशक का उपसंहार करते हुए कहा गया है-नारक जीव अत्यन्त अनिष्ट एवं अशुभ पुद्गल परिणाण का अनुभव करते हैं। उनकी वेदना, लेश्या, नाम, गोत्र, अरति, भय, शोक, भूख-प्यास, व्याधि, उच्छ्वास, अनुताप, क्रोध, मान, माया, लोभ, आहार, भय, मैथुन-परिग्रहादि संज्ञा ये सब अशुभ एवं अनिष्ट होते हैं। प्रायः महारम्भ महापरिग्रह वाले वासुदेव, माण्डलिक राजा, चक्रवर्ती. तन्दुल मस्त्यादि जलचर कालसौकरिक आदि कौटुम्बिक (महारंभ-महापरिग्रह एवं क्रूर परिणामों से) नरकगति में जाते हैं। नरक में नारकियों को अक्षिनिमीलन मात्र के लिए भी सुख नहीं है। वहाँ दुःख ही दुःख है। वहीं अति शीत, अति उष्ण, अति तृष्णा, अति क्षुधा और अति भय है । नारक जीवों को निरन्तर असाता का ही अनुभव करना पड़ता है। .. तिर्यञ्चाधिकार तिर्यग्योनिक जीवों के एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रियादि पांच प्रकार बताये हैं। एकेन्द्रिय के पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु वनस्पति रूप से पांच प्रकार कहे है। इसी प्रकार द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीवों के भेद-प्रभेद बताये गये हैं। पंचेन्द्रिय जलचर, स्थलचर और खेचर के दो-दो भेद सम्मूर्छिम और गर्भव्युत्क्रान्तिक के रूप में कहे हैं। खेचर आदि पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक के तीन प्रकार का योनिसंग्रह कहा है-अंडज, पोतज और संमूर्छिम। अंडज और पोतज तीनों वेद वाले होते हैं। संमूर्छिम नपुंसक ही होते हैं । इन जीवों का लेश्या, दृष्टि, ज्ञान-अज्ञान, योग, उपयोग, आगति, गति, स्थिति समुद्घात आदि द्वारो से वर्णन किया गया है। तदनन्तर जाति, कुलकोडी का कथन किया गया है। द्वितीय उद्देशक में छह प्रकार के संसारवर्ती जीव कहे हैं-पृथ्वीकाय यावत् त्रसकाय। इनके भेद-प्रभेद किये हैं। इनकी स्थिति, संचिट्ठणा और निर्लेपना का कथन है। प्रसंगोपात्त विशुद्ध अविशुद्ध लेश्या वाले अनगार के विशुद्ध-अविशुद्ध लेश्या वाले देव-देवी को जानने संबंधी प्रश्नोत्तर हैं। मनुष्याधिकार ___ मनुष्य दो प्रकार के हैं-संमूर्छिम मनुष्य और गर्भव्युत्क्रांतिक मनुष्य। सम्मूर्छिम मनुष्य क्षेत्र के चौदह अशुचि स्थानों में उत्पन्न होते हैं। उनकी स्थिति अन्तर्मुहूर्त मात्र होती है। गर्भज मनुष्य तीन प्रकार के हैंकर्मभूमक, अकर्मभूमक और अन्तर्वीपक। अन्तीपक-हिमवान पर्वत की चारों विदिशाओं में तीन-तीन सौ योजन लवणसमुद्र के भीतर जाने पर चार अन्तर्वीप हैं । इसी प्रकार लवणसमुद्र के भीतर चार सौ, पांच सौ, छह सौ, सात सौ, आठ सौ और नौ सौ योजन आगे जाने पर भी चारों विविशाओं में चार-चार अन्तर्वीप हैं । इस प्रकार चुल्ल हिमवान के ७४४-२८ अन्तर्वीप हैं। इन अन्तर्वीपों में रहने वाले मनुष्य अन्तर्वीपक कहलाते हैं। इन अन्तर्वीपकों के २८ नाम हैं-१. एकोरुक, २. आभाविक, ३. वैषाणिक, ४. नांगोलिक, ५. हयकर्ण, ६. गजकर्ण, ७. गोकर्ण, ८. शष्कुलकर्ण, ९. आदर्शमुख, १०. मेण्ढमुख, ११. अयोमुख, १२. गोमुख, १३. अश्वमुख, १४. हस्तिमुख, १५. सिंहमुख, १६. [२९]
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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