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________________ १३८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र कोई स्त्री मरकर स्त्रीपर्याय से च्युत होकर पुरुषवेद या नपुंसकवेद का अन्तर्मुहूर्त काल तक अनुभव करके वहाँ से मरकर पुनः स्त्रीरूप में उत्पन्न हो, इस अपेक्षा से जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्तकाल का होता है। उत्कर्ष से वनस्पतिकाल का अन्तर होता है।असंख्येय पुद्गलपरावर्त का वनस्पतिकाल होता हैं। इस अनन्तकाल में काल की अपेक्षा अनन्त उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी बीत जाती हैं, क्षेत्र से अनन्त लोक और असंख्येय पुद्गलपरावर्त निकल जाते हैं। ये पुद्गलपरावर्त आवालिका के अन्दर जितने समय होते हैं उसका असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं। ' इतने लम्बे काल तक स्त्रीत्व का व्यवछेद हो जाता है और फिर स्त्रीत्व की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार औधिक तिर्यंचस्त्रियों का, जलचर थलचर खेचर स्त्रियों का और औधिक मनुष्यस्त्रियों ‘का अन्तर जानना चाहिए। कर्मभूमिक मनुष्यस्त्रियों का अन्तर कर्मभूमिक्षेत्र की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् वनस्पतिकाल प्रमाण जानना चाहिए। धर्माचरण की अपेक्षा जघन्य एक समय और उत्कर्ष से अनन्तकाल अर्थात् देशोन अपार्द्ध पुद्गलपरावर्त जितना अन्तर है। इससे अधिक चरणलब्धि का प्रतिपातकाल नहीं है। दर्शनलब्धि के प्रतिपात का काल सम्पूर्ण अपार्थ पुद्गलपरावर्त होने का स्थान-स्थान पर निषेध हुआ है। इसी तरह भरत-ऐरवत मनुष्यस्त्रियों का और पूर्वविदेह पश्चिमविदेह की स्त्रियों का अन्तर क्षेत्र और धर्माचरण की अपेक्षा से समझना चाहिए। अकर्मभूमि की मनुष्यस्त्रियों का अन्तर जन्म की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजरा वर्ष है। इसका स्पष्टीकरण इस तरह है-कोई अकर्मभूमि की स्त्री मर कर जघन्य स्थिति के देवों में उत्पन्न हुई। वहाँ दस हजार वर्ष की आयु पाल कर उसके क्षय होने पर वहाँ से च्यवकर कर्मभूमि में मनुष्यपुरुष या मनुष्यस्त्री के रूप में उत्पन्न हुई (क्योंकि देवलोक से कोई सीधा अकर्मभूमि में पैदा नहीं होता), अन्तर्मुहूर्त काल में मरकर फिर अकर्मभूमि की स्त्री रूप में उत्पन्न हुई, इस अपेक्षा से अन्तर्मुहूर्त अधिक दस हजार वर्ष का जघन्य अन्तर होता है। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल है। संहरण की अपेक्षा जघन्य से अन्तर्मुहूर्त का अन्तर इस अपेक्षा से है कि कोई अकर्मभूमिज स्त्री को कर्मभूमि में संहृत कर अन्तर्मुहूर्त बाद ही बुद्धिपरिवर्तन होने से पुनः उसी स्थान पर रख दे। उत्कर्ष से अन्तर वनस्पतिकाल प्रमाण है। इतने लम्बे काल में कर्मभूमि में उत्पत्ति की तरह संहरण भी निश्चय से होता ही है। कोई अकर्मभूमि की स्त्री कर्मभूमि में संहृत की गई। वह अपनी आयु के क्षय के अनन्तर अनन्तकाल तक वनस्पति आदि में भटक कर पुनः अकर्मभूमि में उत्पन्न हुई। वहाँ से किसी ने उसका संहरण किया तो यथोक्त संहरण का उत्कृष्ट कालमान हुआ। इसी प्रकार हैमवत हैरण्यवत हरिवर्ष रम्यकवर्ष देवकुरु उत्तरकुरु और अन्तर्वीपों की मनुष्यस्त्रियों का भी जन्म से और संहरण की अपेक्षा से जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर कहना चाहिए। देवस्त्रियों का अन्तर १. 'अणंताओ उस्सप्पिणी ओसप्पिणी कालओ, खेत्तओ अणंता लोगा, असंखेज्जा पोग्गलपरियट्टा,' एवं वनस्पतिकालः।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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