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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
स्थावरकाय वाला जितने समय तक स्थावर के रूप में जन्म लेता रहता हैं, वह सब काल उसकी कायस्थिति समझनी चाहिए।
स्थावर जीव की कायस्थिति कितनी हैं ? इसका अर्थ यह है कि स्थावर जीव कितने समय तक स्थावर के रूप में लगातार जन्म लेता रहता है ।
इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनन्त काल तक स्थावर स्थावर के रूप में जन्म-मरण करता रहता हैं । इस अनन्तकाल को काल और क्षेत्र की अपेक्षा से स्पष्ट किया गया है। काल से अनन्त उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी काल तक स्थावर स्थावर के रूप में रह सकता हैं। क्षेत्र की अपेक्षा से इस अनन्तता को इस प्रकार समझाया गया है कि अनन्त लोकों में जितने आकाश-प्रदेश हैं उन्हें प्रतिसमय एक-एक का अपहार करने से जितना समय लगता है वह समय अनन्त अवसर्पिणी-उत्सर्पिणीमय है। इसी अनन्तता को पुद्गलपरावर्त के मान से बताते हुए कहा गया है कि असंख्येय पुद्गलपराव? (क्षेत्रपुद्गलपरावर्तों) में जितनी उत्सर्पिणियां-अवसर्पिणियां होती हैं, उतनी अनन्त अवसर्पिमीउत्सर्पिणी तक स्थावर के रूप में रह सकता है। पुद्गलपरावर्तों की असंख्येयता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त जानने चाहिए।
इतना कालमान वनस्पतिकाय की अपेक्षा से समझना चाहिए. पथ्वीकाय-अपकाय की अपेक्षा से नहीं। क्योंकि पृथ्वीकाय अप्काय की उत्कृष्ट कायस्थिति असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी प्रमाण है । प्रज्ञापनासूत्र में यह बात स्पष्ट की गई हैं। यह वनस्पतिकायस्थिति काल सांव्यवहारिक जीवों की अपेक्षा से समझना चाहिए। असांव्यवहारिक जीवों की कायस्थिति को अनादि समझना चाहिए। जैसा कि विशेषणवती ग्रन्थ में कहा गया है-'ऐसे अनंत जीव हैं जिन्होंने त्रसत्व को पाया ही नहीं हैं। जो निगोद में रहते हैं वे जीव अनन्तानन्त हैं।" कतिपय असंव्यवहार राशि वाले जीवों की कायस्थिति अनादि-अनन्त है। अर्थात वे अव्यवहार राशि से निकल कर कभी व्यवहार राशि में आवेंगे ही नहीं। कतिपय असंव्यवहारराशि वाले जीव ऐसे हैं जिनकी कायस्थिति अनादि किन्त अन्त वाली है अर्थात वे व्यवहारराशि में आ सकते हैं। जैसाकि जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण ने विशेषणवती में कहा है कि 'संव्यवहारराशि से जितने जीव सिद्ध होते हैं, अनादि वनस्पतिराशि से उतने ही जीव व्यवहारराशि में आ जाते हैं।' २
त्रसजीव त्रसरूप में कितने समय तक रह सकते हैं, इसका उत्तर दिया गया है कि जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्येय काल तक। उस असंख्येय काल को काल और क्षेत्र से स्पष्ट किया गया है। काल से असंख्येय उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी तक और क्षेत्र से असंख्यात लोकों में जितने आकाशप्रदेश हैं उनका
-विशेषणवती
१. अत्थि अणंता जीवा, जेहिं न पत्तो तसाइपरिणाणो।
तेवि अणंताणता निगोयवासं अणुवसंति॥ २. सिझंति जत्तिया किर इह संववहारजीवरासिमझाओ।
इंति अणाइवणस्सइरासीओ तत्तिया तंमि॥
-विशेषणवती