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प्रथम प्रतिपत्ति: भवस्थिति का प्रतिपादन]
सेतं दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता ।
दुविहपडिवत्ती समत्ता ।
[४३] भगवन् ! स्थावर की कालस्थिति (भवस्थिति) कितने समय की कही गई है ? गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बावीस हजार वर्ष की है। भगवन् ! त्रस की भवस्थिति कितने समय की कही है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही है ?
भंते ! स्थावर जीव स्थावर के रूप में कितने काल तक रह सकता है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से अनंतकाल तक - अनन्त उत्सर्पिणी अवसर्पिणियों तक। क्षेत्र से अनन्त लोक, असंख्येय पुद्गलपरावर्त तक । आवलिका के असंख्यातवें भाग में जितने समय होते हैं उतने पुद्गलपरावर्त तक स्थावर स्थावररूप में रह सकता है।
भंते ! त्रस जीव त्रस के रूप में कितने काल तक रह सकता है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से असंख्यात उत्सर्पिणी- अवसर्पिणियों तक । क्षेत्र से असंख्यात लोक ।
भगवन् ! स्थावर का अन्तर कितना हैं ?
गौतम ! जितना उनका संचिट्ठाणकाल है अर्थात् असंख्येय उत्सर्पिणी- अवसर्पिणीकाल से; क्षेत्र से असंख्येय लोक ।
भगवन् ! त्रस का अन्तर कितना है ?
गौतम ! जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से वनस्पतिकाल ।
भगवन् ! इन त्रसों और स्थावरों में कौन किससे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक हैं ?
गौतम ! सबसे थोड़े त्रस हैं। स्थावर जीव उनसे अनन्तगुण हैं ।
यह दो प्रकार के संसारी जीवों की प्ररूपणा हुई ।
यह द्विविध प्रतिपत्ति नामक प्रथम प्रतिपत्ति पूर्ण हुई ।
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विवेचन - इस सूत्र में त्रस और स्थावर जीवों की भवस्थिति, कायस्थिति, प्रतिपादित किया हैं ।
अल्पबहुत्व
स्थावर जीवों की भवस्थिति जघन्य से अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से बावीस हजार वर्ष की कही है। यह स्थिति पृथ्वीकाय को लेकर समझना चाहिए, क्योंकि अन्य स्थावरकाय की उत्कृष्ट भवस्थिति इतनी संभव नहीं है।
अन्तर और
त्रसकाय की जघन्य भवस्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट से तेतीस सागरोपम की कही हैं। यह देवों और नारकों की अपेक्षा से समझना चाहिए । अन्य त्रसों की इतनी उत्कृष्ट भवस्थिति नहीं होती । कायस्थिति का अर्थ है - पुनः पुनः उसी काय में जन्म लेने पर उन भवों की कालगणना । जैसे