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________________ ४०६] [जीवाजीवाभिगमसूत्र तदनन्तर पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हुए विजयदेव को इस प्रकार का अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प उत्पन्न हुआ-मेरे लिए पूर्व में क्या श्रेयस्कर है, पश्चात क्या श्रेयस्कर है, मुझे पहले क्या करना चाहिए, मुझे पश्चात् क्या करना चाहिए, मेरे लिए पहले और बाद में क्या हितकारी, सुखकारी, कल्याणकारी, निःश्रेयस्कारी और परलोक में साथ जाने वाला होगा। वह इस प्रकार चिन्तन करता है। तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिक पर्षदा के देव विजयदेव के उस प्रकार के अध्यवसाय, चिन्तन, प्रार्थित और मनोगत संकल्प को उत्पन्न हुआ जानकर जिस ओर विजयदेव था उस ओर वे आते हैं और आकर विजयदेव को हाथ जोड़कर, मस्तक पर अंजलि लगाकर जय-विजय से बधाते हैं। बधाकर वे इस प्रकार बोले-हे देवानुप्रिय ! आपकी विजया राजधानी के सिद्धायतन में जिनोत्सेधप्रमाण एक सौ आठ जिन प्रतिमाएँ रखी हुई हैं और सुधर्मासभा के माणवक चैत्यस्तम्भ पर वज्रमय गोल मंजूषाओं में बहुत सी जिन अस्थियाँ रखी हुई हैं, जो आप देवानुप्रिय के और बहुत से विजया राजधानी के रहने वाले देवों और देवियों के लिए अर्चनीय, वन्दनीय, पूजनीय, सत्कारणीय, सम्माननीय हैं, जो कल्याणरूप, मंगलरूप, देवरूप, चैत्यरूप हैं तथा पर्युपासना करने योग्य हैं। यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी श्रेयस्कर हैं, पश्चात् भी श्रेयस्कर हैं; यह आप देवानुप्रिय के लिए पूर्व में भी करणीय हैं और पश्चात् भी करणीय हैं; यह आप देवानुप्रिय के लिए पहले और बाद में हितकारी यावत् साथ में चलने वाला होगा, ऐसा कहकर वे जोर-जोर से जलजयकार शब्द का प्रयोग करते हैं। १४१. [२] तए णं से विजए देवे तेसिं सामाणियपरिसोववण्णगाणं देवाणं अंतिए एयमढेसोच्चाणिसम्म हट्टतुटुजाव हियए देवसयणिज्जाओअब्भुढेइ अब्भुद्वित्ता, दिव्वं देवदूसजुयलं परिहेइ, परिहेइत्ता देवसयणिज्जाओ पच्चोरुहइ, पच्चोरुहित्ता उववायभाओ पुरत्थिमेणं दारेणं णिग्गच्छइ,णिग्गच्छित्ता जेणेव हरए तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ताहरयंअणुपयाहिणं करेमाणे करेमाणे पुरथिमेणं तोरणेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता पुरत्थिमेणं तिसोवाणपडिरूवएणं पच्चोरुहति, पच्चोरुहित्ता हरयं ओगाहइ, ओगाहित्ता जलावगाहणं करेइ, करित्ता जलमज्जणं करेइ, करेत्ता जलकिट्ठे करेइ, करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइभूए हरआओ पच्चुत्तरइ पच्चुत्तरित्ता जेणामेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभिसेयसभं पदाहिणं करेमाणे पुरस्थिमिल्लेणं दारेण अणुपविसइ, अणुपविसित्ता जेणेव सए सीहासणे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सीहासणवरगए पुरच्छाभिमुहे सण्णिसण्णे। [१४१] (२) उन सामानिक पर्षदा के देवों से ऐसा सुनकर वह विजयदेव हृष्ट-तुष्ट हुआ यावत् उसका हृदय विकसित हुआ। वह देवशयनीय से उठता है और उठकर देवदूष्य युगल धारण करता है, धारण करके देवशयनीय से नीचे उतरता है, उतर कर उपपातसभा से पूर्व के द्वार से बाहर निकलता है और जिधर ह्रद (सरोवर) है उधर जाता है, हृद की प्रदक्षिणा करके पूर्वदिशा के तोरण से उसमें प्रवेश करता है और पूर्वदिशा के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतरता है और जल में अवगाहन करता है। जलावगाहन करके जलमज्जन (जल में डुबकी लगाना) और जलक्रीड़ा करता है । इस प्रकार अत्यन्त पवित्र और शुचिभूत होकर
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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