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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : दीपशिखा व ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष] [२९७ हैं, वैसे ही ये त्रुटितांग कल्पवृक्ष नाना प्रकार के स्वाभाविक परिणाम से परिणत होकर तत-वितत-घन और शुषिर रूप चार प्रकार की वाद्यविधि से युक्त होते हैं। ये फलादि से लदे होते हैं, विकसित होते हैं। ये वृक्ष कुश-विकुश से रहित मूल वाले यावत् श्री से अत्यन्त शोभायमान होते हैं ॥ ३॥ दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष [६] एगोरुयदीवेणंदीवेतत्थ तत्थ बहवेदीवसिहाणामदुमगणा पण्णत्ता,समणाउसो! जहा से संझाविरागसमए नवणिहिपइणो दीविया चक्कवालविंदे पभूय वट्टिपलित्तणेहे धणि उज्जालियतिमिरमदद्दए कणगनिकर कुसुमित पालि जातय वणप्पगासे कंचनमणिरयण विमल महरिह तवणिज्जुज्जल विचित्तदंडाहिं दीवियाहिं सहसा पजलियउसवियणिद्ध तेयदिप्पंतविमलगहगण समप्पहाहिं वितिमिरकरसूरपसरियउल्लोय चिल्लयाहिं जालुज्जल पहसियाभिरामेहिं सोभेमाणा तहेव ते दीवसिहा वि दुमगणाअणेगबहुविविह वीससा परिणामाए उज्जोयविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसद्वृति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥४॥ [१११] (६) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुक द्वीप में यहाँ-वहाँ बहुत से दीपशिखा नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे यहाँ संध्या से उपरान्त समय में नवनिधिपति चक्रवर्ती के यहाँ दीपिकाएं होती हैं जिनका प्रकाशमण्डल सब ओर फैला होता है तथा जिनमें बहुत सारी बत्तियाँ और भरपूर तेल भरा होता है, जो अपने घने प्रकाश से अन्धकार का मर्दन करती हैं, जिनका प्रकाश कनकनिका (स्वर्णसमूह) जैसे प्रकाश वाले कुसुमों से युक्त पारिजात (देववृक्ष) के वन के प्रकाश जैसा होता है सोना मणिरत्न से बने हुए, विमल, बहुमूल्य या महोत्सवों पर स्थापित करने योग्य, तपनीय-स्वर्ण के समान उज्ज्वल और विचित्र जिनके दण्ड हैं, जिन दण्डों पर एक साथ प्रज्वलित, बत्ती को उकेर कर अधिक प्रकाश वाली किये जाने से जिनका तेज खूब प्रदीप्त हो रहा है तथा जो निर्मल ग्रहगणों की तरह प्रभासित हैं तथा जो अन्धकार को दूर करने वाले सूर्य की फैली हुई प्रभा जैसी चमकीली हैं, जो अपनी उज्ज्वल ज्वाला (प्रभा) से मानो हँस रही हैं-ऐसी वे दीपिकाएँ शोभित होती हैं वैसे ही वे दीपशिखा नामक वृक्ष भी अनेक और विविध प्रकार के विस्रसा परिणाम वाली उद्योतविधि से (प्रकाशों से) युक्त हैं। वे फलों से पूर्ण हैं, विकसित हैं, कुशविकुश से विशुद्ध उनके मूल हैं यावत् वे श्री से अतीव अतीव शोभायमान हैं ॥ ४॥ ज्योतिशिखा नामक कल्पवृक्ष [७] एगोरुयदीवेणं दीवे तत्थ तत्थ बहवे जोतिसिहा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो! जहा से अच्चिरुग्गय सरयसूरमंडल घडत उक्कासहस्सदिप्पंत विज्जुग्जालहुयवहनिलूमजलियनिद्धंत धोय तत्त तवणिज्ज किंसुयासोयजवाकुसुमविमुउलिय पुंज मणिरयणकिरण जच्चहिंगुलय निगररूवाइरेकरूवा तहेव ते जोतिसिहा वि दुमगणा अणेग बहुविविह वीससा परिणयाए उज्जोयविहीए उववेया सुहलेस्सा मंदलेस्सा मंदायवलेस्सा कूडाय इव ठाणठिया अन्न १. जोइसिया-इति पाठान्तरम
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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