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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
भृतांग कल्पवृक्ष का वर्णन
[४] एक्कोरुएदीवे तत्थ तत्थ बहवे भियंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा सेवारगघडकरगकलसकक्करिपायकंचणि-उदंक-वद्धणि-सुपतिट्ठगपारीचसकभिंगारकरोडिसरग थरग पत्ती थाल मल्लग चवलिय दगवारक विचित्रवट्टक मणिवट्टक सुत्तिचारुपीणया कंचणमणिरयणभत्तिचित्ता भायणविहिए बहुप्पगारा तहेव ते भियंगा वि दुमगणा अणेग बहुगविविहवीससा परिणमाए भायणविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसङ्गृति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिटुंति॥२॥
[१११] (४) हे आयुष्मन् श्रमण! उस एकोरुक द्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत से भृत्तांग नाम के कल्पवृक्ष हैं। जैसे वारक (मंगलघट), घट, करक, कलश, कर्करी (गगरी), पादकंचनिका, (पांव धोने की सोने की पात्री), उदंक (उलचना), वद्धणि (लोटा), सुप्रतिष्ठक (फूल रखने का पात्र), पारी, (घी-तेल का पात्र), चषक (पानपात्र-गिलास आदि), भिंगारक, (झारी), करोटि (कटोरा), शरक, थरक (पात्र विशेष), पात्री, थाली, जल भरने का घडा, विचित्र वर्तक (भोजनकाल में घृतादि रखने के पात्रविशेष), मणियों के वर्तक, शुक्ति (चन्दनादि घिसकर रखने का छोटा पात्र) आदि बर्तन जो सोने, मणिरत्नों के बने होते हैं तथा जिन पर विचित्र प्रकार की चित्रकारी की हुई होती है वैसे ही ये भृत्तांग कल्पवृक्ष भाजनविधि में नाना प्रकार के विस्रसापरिणत भाजनों से युक्त होते हैं, फलों से परिपूर्ण और विकसित होते हैं। ये कुश-कास से रहित मूल वाले यावत् शोभा से अतीव शोभायमान होते हैं ॥ २॥ त्रुटितांग कल्पवृक्ष
[५] एगोरुयदीवेणंदीवे तत्थ तत्थ बहवे तुडियांगणामदुमगणापण्णत्ता समणाउसो! जहा से आलिंग-मुयंग-पणव-पडह-दद्दरग-करडिडिडिम-भंभाहोरंभ-कण्णियास्वरमुहि-मुगुंदसंखिय-परिलीवच्चग परिवाइणिवंसावेणु-वीणा सुघोस-विवंचि महति कच्छभिरगसरातलताल कंसताल सुसंपत्ता आतोज्ज विहिणिउणगंधव्वसमयकुसलेहि फंदिया तिट्ठाणसुद्धा तहेव ते तुडियंगा वि दुमगणा अणेग बहुविविध वीससापरिणामाए ततविततघणसुसिराए चउविहाए आतोज्जविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसटुंति कुस-विकुसविसुद्धरुक्खमूलाजाव चिट्ठन्ति॥३॥
- [१११] (५) हे आयुष्मन् श्रमण ! एकोरुकद्वीप में जहाँ-तहाँ बहुत सारे त्रुटितांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे मुरज, मृदंग, प्रणव (छोटा ढोल), पटह (ढोल), दर्दरक (काष्ट की चौकी पर रख कर बजाया जाने वाला तथा गोधादि के चमड़े से मढा हुआ वाद्य), करटी, डिंडिम, भंभा-ढक्का, होरंभ (महाढक्का), क्वणित (वीणाविशेष), खरमुखी (काहला), मुकुंद (मृदंगविशेष), शंखिका (छोटा शंख), परिली-वच्चक (घास के तृणों को गूंथकर बनाये जाने वाले वाद्यविशेष), परिवादनी (सात तार वाली वीणा), वंश (बांसुरी), वीणा-सुघोषा-विपंची-महती-कच्छपी (ये सब वीणाओं के प्रकार हैं), रिगसका (घिसकर बजाये जाने वाला वाद्य), तलताल (हाथ से बजाई जाने वाली ताली), कांस्यताल (कांसी का वाद्य जो ताल देकर बजाया जाता है) आदि वादिंत्र जो सम्यक् प्रकार से बजाये जाते हैं, वाद्यकला में निपुण एवं गंधर्वशास्त्र में कुशल व्यक्तियों द्वारा जो स्पन्दित किये जाते हैं-बजाये जाते हैं, जो आदि-मध्य-अवसान रूप तीन स्थानों से शुद्ध