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तृतीय प्रतिपत्ति :दुमादि वर्णन]
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___ उस एगोरुकद्वीप मे स्थान-स्थान पर बहुत से तिलक, लवक, न्यग्रोध यावत् राजवृक्ष नंदिवृक्ष हैं जो दर्भ और कांस से रहित हैं यावत् श्री से अतीव शोभायमान हैं।
उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत सी पद्मलताएँ यावत् श्यामलताएँ हैं जो नित्य कुसुमित रहती हैं-आदि लता का वर्णन औपपातिकसूत्र के अनुसार कहना चाहिए यावत् वे अत्यन्त प्रसन्नता उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं।
उस एकोरुकद्वीप में जगह-जगह बहुत से सेरिकागुल्म यावात् महाजातिगुल्म हैं। (जिनका स्कंध तो छोटा हो किन्तु शाखाएँ बड़ी-बड़ी हों और पत्र-पुष्पादि से लदे रहते हैं उन्हें गुल्म कहते हैं।) वे गुल्म पांच वर्गों के फूलों से नित्य कुसुमित रहते हैं। उनकी शाखाएँ पवन से हिलती रहती हैं जिससे उनके फूल एकोरुकद्वीप के भूमिभाग को आच्छादित करते रहते हैं। (ऐसा प्रतीत होता है मानो ये एकोरुकद्वीप के बहुसमरमणीय भूमिभाग पर फूलों की वर्षा कर रहे हों।)
एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर बहुत सी वनराजियाँ हैं । वे वनराजियाँ अत्यन्त हरी-भरी होने से काली प्रतीत होती हैं, काली ही उनकी कान्ति है यावत् वे रम्य हैं और महामेघ के समुदायरूप प्रतीत होती हैं यावत् वे बहुत ही मोहक और तृप्तिकारक सुगंध छोड़ती हैं और वे अत्यन्त प्रसन्नता पैदा करने वाली दर्शनीय, अभिरूप और प्रतिरूप हैं। (वनों की पंक्तियों को वनराजि कहते हैं।) मत्तांग कल्पवृक्ष का वर्णन
__ [३] एगोरुयदीवे तत्थ तत्थ वहवे मत्तंगा णाम दुमगणा पण्णत्ता समणाउसो ! जहा से चंदप्पभमणि सिलागवरसीधुपवरवारुणि सुजातफलपत्तपुष्फचोयणिज्जाससारबहुदव्वजुत्तिसंभारकाल संधियासवा महुमेरगरिट्ठाभदुद्धजातीपसन्नमेल्लगसयाउ खजूरमुहियासारकाविसायण सुपक्कखोयरसवरसुरावण्णरसगंधफरिसजुत्तबलवीरियपरिणामा मज्जविहित्थबहुप्पगारातदेवं ते मत्तंगया वि दुमगणा अणेगबहुविविधवीससा परिणयाए मजविहीए उववेया फलेहिं पुण्णा विसटेंति कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव चिट्ठति ॥१॥
[१११] (३) हे आयुष्मन् श्रमण ! उस एकोरुकद्वीप में स्थान-स्थान पर मत्तांग नामक कल्पवृक्ष हैं। जैसे चन्द्रप्रभा, मणि-श्लाका श्रेष्ठ सीधु, प्रवरवारुणी, जातिवंत फल-पत्र-पुष्प सुगंधित द्रव्यों से निकाले हुए सारभूत रस और नाना द्रव्यों से युक्त एवं उचित काल में संयोजित करके बनाये हुए आसव, मधु, मेरक, रिष्टाभ, दुग्धतुल्यस्वाद वाली प्रसन्न, मेल्लक, शतायु, खजूर और मृद्विका (दाख) के रस, कपिश (धूम) वर्ण का गुड़ का रस, सुपक्व क्षोद (काष्ठादि चूर्णों का) रस, वरसुरा आदि विविध मद्य प्रकारों में जैसे वर्ण, रस, गंध और स्पर्श तथा बलवीर्य पैदा करने वाले परिणमन होते हैं, वैसे ही वे मत्तांग वृक्ष नाना प्रकार के विविध स्वाभाविक परिणाण वाली मद्यविधि से युक्त और फलों से परिपूर्ण हैं एवं विकसित हैं। वे कुश और कांस से रहित मूल वाले तथा शोभा से अतीव-अतीव शोभायमान हैं॥१॥