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________________ .. ४१८] [जीवाजीवाभिगमसूत्र [१४२] (१) तब वह विजयदेव शानदार इन्द्राभिषेक से अभिषिक्त हो जाने पर सिंहासन से उठता है और उठकर अभिषेकसभा के पूर्व दिशा के द्वार से बाहर निकलता है और अलंकारसभा की ओर जाता है और अलंकारसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व दिशा के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। प्रवेश कर जिस ओर सिंहासन था उस ओर आकर उस श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ओर मुख करके बैठा। ____ तदनन्तर उस विजयदेव की सामानिकपर्षदा के देवों ने आभियोगिक देवों को बुलाया और ऐसा कहा-'हे देवानुप्रियो ! शीघ्र ही विजयदेव का आलंकारिक भाण्ड (सिंगारदान) लाओ।' वे आभियोगिक देव आलंकारिक भाण्ड लाते हैं। तब विजयदेव ने सर्वप्रथम रोएदार सुकोमल दिव्य सुगन्धित गंधकाषायिक (तौलिये) से अपने शरीर को पोंछा। शरीर पोंछ कर सरस गोशीर्ष चन्दन से शरीर पर लेप लगाया। लेप लगाने के पश्चात् श्वास की वायु से उड़ जाय ऐसा, नेत्रों को हरण करने वाला, सुन्दर रंग और मृदु स्पर्श युक्त, घोड़े की लाला (लार) से अधिक मृदु और सफेद, जिसके किनारों पर सोने के तार खचित हैं, आकाश और स्फटिकरत्न की तरह स्वच्छ, अक्षत ऐसे दिव्य देवदूष्य-युगल को धारण किया। तदनन्तर हार पहना, और एकावली, मुक्तावली, कनकावली और रत्नावली हार पहने, कडे, त्रुटित (भुजबंद), अंगद (बाहु का आभरण) केयूर दसों अंगुलियों में अंगूठियाँ, कटिसूत्र (करधनी-कंदोरा), त्रि-अस्थिसूत्र (आभरण विशेष) मुरवी, कंठमुरवी, प्रालंब (शरीर प्रमाण स्वर्णाभूषण) कुण्डल, चूडामणि और नाना प्रकार के बहुत रत्नों से जड़ा हुआ मुकुट धारण किया। ग्रन्थिम, वेष्टिम, पूरिम, और संघातिम-इस प्रकार चार तरह की मालाओं से कल्पवृक्ष की तरह स्वयं को अलंकृत और विभूषित किया। फिर दर्दर मलय चन्दन की सुगंधित गंध से अपने शरीर को सुगंधित किया और दिव्य सुमनरत्न (फूलों की माला) को धारण किया। तदनन्तर वह विजयदेव केशालंकार, वस्त्रालंकार, माल्यालंकार और आभरणालंकार-ऐसे चार अलंकारों से अलंकृत होकर और परिपूर्ण अलंकारों से सज्जित होकर सिंहासन से उठा और आलंकारिक सभा के पूर्व के द्वार से निकलकर जिस ओर व्यवसायसभा है, उस ओर आया। व्यवसायसभा की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रविष्ट हुआ और जहाँ सिंहासन था उस ओर जाकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्वाभिमुख होकर बैठा। तदनन्तर. उस विजयदेव के आभियोगिक देव पुस्तकरत्न लाकर उसे अर्पित करते हैं। तब वह विजयदेव उस पुस्तकरत्न को ग्रहण करता है, पुस्तकरत्न को अपनी गोद में लेता है, पुस्तकरत्न को खोलता है और पुस्तकरत्न का वाचन करता है। पुस्तकरत्न का वाचन करके उसके धार्मिक मर्म को ग्रहण करता है (उसमें अंकित धर्मानुगत व्यवसाय को करने की इच्छ करता है)। तदनन्तर पुस्तकरत्न को वहाँ रखकर सिंहासन से उठता है और व्यवसायसभा के पूर्ववर्ती द्वार से बाहर निकल कर जहाँ नन्दापुष्करिणी है, वहाँ आता है। नंदापुष्करिणी की प्रदक्षिणा करके पूर्व के द्वार से उसमें प्रवेश करता है। पूर्व के त्रिसोपानप्रतिरूपक से नीचे उतर कर हाथ-पांव धोता है और एक बड़ी श्वेत चांदी की मत्त हाथी के मुख की आकृति की विमलजल से भरी हुई झारी को ग्रहण करता है और वहाँ के उत्पल कमल यावत् शतपत्र-सहस्रपत्र कमलों को लेता है और नंदापुष्करिणी से बाहर निकल कर जिस ओर सिद्धायतन है उस ओर जाने का संकल्प किया (उधर जाने लगा।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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