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________________ ३५२] [जीवाजीवाभिगमसूत्र सकते। इन वृक्षों के पत्ते छिद्ररहित हैं, अविरल हैं-इस तरह सटे हुए हैं कि अन्तराल में छेद नहीं दिखाई देता। इनके पत्ते वायु से नीचे नहीं गिरते हैं, इनके पत्तों में ईति रोग नहीं होता । इन वृक्षों के जो पत्ते पुराने पड़ जाते हैं या सफेद हो जाते हैं वे हवा से गिरा दिये जाते हैं और अन्यत्र डाल दिये जाते हैं। नये और हरेक दीप्तिमान पत्तों के झुरमुट से होनेवाले अन्धकार के कारण इनका मध्यभाग दिखाई न पड़ने से ये रमणीयदर्शनीय लगते हैं। इनके अग्रशिखर निरन्तर निकलने वाले पल्लवों और कोमल-उज्ज्वल तथा कम्पित किशलयों से सुशोभित हैं। ये वृक्ष सदा कुसुमित रहते हैं, नित्य मुकुलित रहते हैं, नित्य पल्लवित रहते हैं, नित्य स्तबकित रहते हैं, नित्य गुल्मित रहते है, नित्य गुच्छित रहते हैं, नित्य यमलित रहते हैं, नित्य युगलित रहते हैं, नित्य विनमित रहते हैं, एवं नित्य प्रणमित रहते हैं। इस प्रकार नित्य कुसुमित यावत् प्रणमित बने हुए वे वृक्ष सुविभक्त प्रतिमंजरी रूप अवतंसक को धारण किये रहते हैं। इन वृक्षों के ऊपर शुक के जोडे, मयूरों के जोड़े, मदनशलाका-मैना के जोड़े, कोकिल के जोड़े, चक्रवाक के जोड़े, कलहंस के जोड़े, सारस के जोड़े इत्यादि अनेक पक्षियों के जोड़े बैठे-बैठे बहुत दूर तक सुने जाने वाले उन्नत शब्दों को करते रहते हैं-चहचहाते रहते हैं, इससे इन वृक्षों की सुन्दरता में विशेषतः आ जाती है। मधु का संचय करने वाले उन्मत्त भ्रमरों और भ्रमरियों का समुदाय उन पर मंडराता रहता है। अन्य स्थानों से आ-आकर मधुपान से उन्मत्त भंवरे पुष्पपराग के पान में मस्त बनकर मधुर-मधुर गुंजारव से इन वृक्षों को गुंजाते रहते हैं। इन वृक्षों के पुष्प और फल इन्हीं के भीतर छिपे रहते हैं। ये वृक्ष बाहर से पत्रों और पुष्पों से आच्छादित रहते हैं। ये वृक्ष सब प्रकार के रोगों से रहित हैं, कांटों से रहित हैं। इनके फल स्वादिष्ट होते हैं और स्निग्धस्पर्श वाले होते हैं। ये वृक्ष प्रत्यासन्न नाना प्रकार के गुच्छों से गुल्मों से लतामण्डपों से सुशोभित हैं। इन पर अनेक प्रकार की ध्वजाएँ फहराती रहती हैं। इन वृक्षों को सींचने के लिए चौकोर बावड़ियों में, गोल पुष्करिणियों में, लम्बी दीर्घिकाओं में सुन्दर जालगृह बने हुए हैं। ये वृक्ष ऐसी विशिष्ट मनोहर सुगंध को छोड़ते रहते हैं कि उससे तृप्ति ही नहीं होती। इन वृक्षों की क्यारियां शुभ हैं और उन पर जो ध्वजाएँ हैं वे भी अनेक रूप वाली हैं।] अनेक गाड़ियाँ, रथ, यान, युग्य (गोल्लदेश प्रसिद्ध जम्पान), शिविका और स्यन्दमानिकाएँ उनके नीचे (छाया अधिक होने से) छोड़ी जाती हैं। वह वनखण्ड सुरम्य है, प्रसन्नता पैदा करने वाला है, श्लक्ष्ण है, स्निग्ध है, घृष्ट है, मृष्ट है, नीरज है, निष्पंक है, निर्मल है, निरुपहत कान्ति वाला है, प्रभा वाला है, किरणों वाला है, उद्योत करने वाला है, प्रासादिक है, दर्शनीय है, अभिरूप है और प्रतिरूप है। उस वनखण्ड के अन्दर अत्यन्त सम और रमणीय भूमिभाग है। वह भूमिभाग मुरुज (वाद्यविशेष) के मढे हुए चमड़े के समान समतल है, मृदंग के मढे हुए चमड़े के समान समतल है, पानी से भरे सरोवर के तल के समान, हथेली के समान, दर्पणतल के समान, चन्द्रमण्डल के समान, सूर्यमण्डल के समान, उरभ्र (घेटा) के चमड़े के समान, बैल के चमड़े के समान, वराह (सूअर) के चर्म के समान, सिंह के चर्म के समान, व्याघ्रचर्म के समान, भेड़िये के चर्म के समान और चीते के चमड़े के समान समतल है। इन सब पशुओं का चमड़ा जब शंकु प्रमाण हजारों कीलों से ताड़ित होता है-खींचा जाता है तब वह बिल्कुल समतल
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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