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________________ तृतीय प्रतिपत्ति : वनखण्ड-वर्णन] [३५१ तरुणपत्तपल्लवकोमलुज्जलचलंतकिसलयसुकुमालसोहियवरंकुरग्गसिहरा, णिच्चं कुसुमिआ णिच्चं मउलिया णिच्चं लवइया निच्चं थवइया, णिच्चंगोच्छिया निच्चं जमलिया पिच्चं जुयलिया निच्चं विणमिया निच्चं पणमिआ निच्चं कुसुमिय-मउलिय-लवइय-थवइय-गुलइय-गोच्छियजमलिय-जुगलियविणमियपणमियसुविभत्तपडिमंजरिवडंसगधरा सुय-बरहिण-मयणसलागाकोइल-कोरग-भिंगारग-कोडलग-जीवंजीवग-णंदिमुह-कबिल-पिंगलक्ख-कारंडवचक्कवाग-कलहंस-सारसाणेगसउणगणमिहुण विचारिय सदुन्नइय-महुरसनाइय-सुरम्मा संपिंडियदप्पियभमर-महुयरीपहकरा परिलीयमाणमत्तछप्पय-कुसुमासवलोल-महुरगुमगुमायंतगुंजंतदेसभागा अब्भितरपुप्फफला बाहिरपत्तछन्ना णीरोगा अकंटगा साउफला णिद्धफला णाणाविहगुच्छगुम्ममंडवगसोहिया विचित्तसुहकेउबहुला वावी-पुक्खरिणि-दीहिया सुनिवेसिय रम्यजालघरगा पिंडिमं,सुहसुरहिमणोहरं महया गंधद्धणि णिच्चं मुंचमाणा सुहसेउकेउ बहुला....।] अणेगसगड-रह-जाण-जुग्ग (सिविय-संदमाणिय) परिमोयणे सुरम्मे पासाईए सण्हे लण्हे घटे मढे नीरए निप्पंके निम्मले निक्कंकडच्छाए सप्पभेसमिरीए सउज्जोए पासाईए दरिसणिजे अभिरूवे पडिरूवे। तस्स णंवणसंडस्सअंतो बहुसमरमणिज्जे भूमियाए पण्णत्ते, से जहानामए आलिंगपुक्खरेइ वा मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा करतलेइ वा आयसमंडलेइ वा चंदमंडलेइ वा सूरमंडलेइ वा उरब्भचम्मेइ वा, उसभचम्मेइ वा वराहचम्मेइ वा सीहचम्मेइ वा वग्घचम्मेइ वा विगचम्मेइ वा अणेगसंकुकीलगसहस्सवितते आवड-पच्चावड सेढीपसेढीसोत्थियसोवत्थियपूसमाण-वद्धमाणमच्छंडक-मकरंडक-जारमार-फुल्लावलि-पउमपत्त-सागरतरंग-वासंतिलय-पउमलयभत्तिचित्तेहिं सच्छाएहिं समिरीएहि नानाविहपंचवण्णेहिं तणेहि य मणिहि य उवसोहिए तं जहाकिण्हेहिं जाव सुक्किलेहि। [१२६] (१) उस जगती (प्राकारकल्प) के ऊपर और पद्मवरवेदिका के बाहर एक बड़ा विशाल वनखण्ड १ कहा गया है। वह वनखण्ड कुछ कम दो योजन गोल विस्तार वाला है और उसकी परिधि जगती की परिधि के समान ही है। वह वनखण्ड खूब हरा भरा होने से तथा छायाप्रधान होने से काला है और काला ही दिखाई देता है। यावत् [उस वनखण्ड के वृक्षों के मूल बहुत दूर तक जमीन के भीतर गहरे गये हुए हैं, वे प्रशस्त कंद वाले, प्रशस्त स्कन्ध वाले, प्रशस्त छाल वाले, प्रशस्त शाखा वाले, प्रशस्त किशलय वाले, प्रशस्त पत्र वाले और प्रशस्त फूल-फल और बीज वाले हैं। वे सब पादप समस्त दिशाओं में और विदिशाओं में अपनी-अपनी शाखा-प्रशाखाओं द्वारा इस ढंग से फैले हुए हैं कि वे गोल-गोल प्रतीत होते हैं। वे मूलादि क्रम से सुन्दर, सुजात और रुचिर (सुहावने) प्रतीत होते हैं। ये वृक्ष एक-एक स्कन्ध वाले हैं। इनका गोल स्कन्ध इतना विशाल है कि पुरुष भी अपनी फैलायी हुई बाहुओं में उसे ग्रहण नहीं कर १. 'एगजाइएहिं रुक्खेहिं वणं अणेगजाइएहिं उत्तमेहिं रुक्खेहि वणसंडे'-एक सरीखे वृक्ष जहाँ हो वह वन और अनेक जाति के उत्तम वृक्ष जहाँ हों वह वनखण्ड है। -वृत्ति
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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