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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
सूक्ष्म अप्कायिक जीव सारे लोक में व्याप्त हैं और बादर अप्कायिक जीव घनोदधि आदि स्थानों में हैं। सूक्ष्म अप्कायिक जीवों के सम्बन्ध में पूर्वोक्त २३ द्वार सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के समान ही समझना चाहिए। केवल संस्थानद्वार में अन्तर है। सूक्ष्म पृथ्वीकायिकों का संस्थान मसूर की चक्राकार दाल के समान बताया गया है जबकि सूक्ष्म अप्कायिक जीवों का संस्थान बुदबुद के समान है।
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बादर अप्कायिक जीव - बादर अप्कायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि ओस, बर्फ आदि, इनका विशेष वर्णन प्रज्ञापनासूत्र के अनुसार जानना चाहिए। वह अधिकार इस प्रकार है'बादर अप्कायिक जीव अनेक प्रकार के कहे गये हैं, जैसे कि ओस, हिम (जमा हुआ पानीबर्फ) महिका (गर्भमास में सूक्ष्म वर्षा - धूंअर) करक (ओला) हरतुन (भूमि को फोड़कर अंकुरित होने वाला तृणादि पर रहा हुआ जलबिन्दु), शुद्धोदक (आकाश से गिरा हुआ या नदी आदि का पानी) शीतोदक (ठंडा कुए आदि का पानी) उष्णोदक (गरम सोता का पानी) क्षारोदक (खारा पानी) खट्टोदक (कुछ खट्टा पानी) आम्लोदक (अधिक कांजी-सा खट्टा पानी) लवणोदक (लवणसमुद्र का पानी) वारुणोदक (वरुणसमुद्र का मदिरा जैसे स्वाद वाला पानी) क्षीरोदक (क्षीरसमुद्र का पानी) घृतोदक (घृतवरसमुद्र का पानी) क्षोदोदक (इक्षुरससमुद्र का पानी) और रसोदक (पुष्करवरसमुद्र का पानी) इत्यादि, और भी इसी प्रकार के पानी हैं। वे सब बादर अप्कायिक समझने चाहिए। वे बादर अप्कायिक दो प्रकार के हैं - पर्याप्त और अपर्याप्त । इनमें जो अपर्याप्त जीव हैं, उनके वर्ण, गंध, रस, स्पर्श आदि अप्रकट होने से काले आदि विशेष वर्ण, गंध, रस, स्पर्श वाले नहीं कहे जाते हैं किन्तु सामान्यतया शरीर होने से वर्णादि अप्रकट रूप से होते ही हैं। जो जीव पर्याप्त हैं उनमें वर्ण से, गंध से, रस से और स्पर्श से नाना प्रकार हैं। वर्णादि के भेद से और तरतमता से उनके हजारों प्रकार हो जाते हैं। उनकी सब मिलाकर सात लाख योनियाँ हैं। एक पर्याप्त जीव की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त जीव उत्पन्न होते हैं । जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ नियम से असंख्यात अपर्याप्त जीव हैं ।
बादर अप्कायिक जीवों के सम्बन्ध में २३ द्वारों को लेकर विचारणा बादर पृथ्वीकायिकों के समान जानना चाहिए । जो अन्तर है वह इस प्रकार है
संस्थानद्वार में अप्कायिक जीवों का संस्थान बुदबुद के आकार का जानना चाहिए। स्थितिद्वार में जघन्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त, उत्कृष्ट सात हजार वर्ष जानना चाहिए ।
शेष सब वक्तव्यता बादर पृथ्वीकायिकों की तरह ही समझना चाहिए यावत् हे आयुष्मन् श्रमण ! वे अप्कायिक जीव प्रत्येकशरीरी और असंख्यात लोकाकाश प्रमाण कहे गये हैं । यह अप्कायिकों का अधिकार हुआ ।
वनस्पतिकायिक जीवों का अधिकार
१. आचारांगनिर्युक्ति तथा उत्तराध्ययन अ. ३६ गाथा २६ में बादर अप्काय के पांच भेद ही बताये हैं - १. शुद्धोदक, २. ओस, ३. हिम, ४. महिका और ५. हरतनु ।