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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन] [४९ कंकर आदि ३ बालुका-रेत ४ उपल-टांकी आदि उपकरण तेज करने का (सान बढ़ाने का) पाषाण ५ शिलाघड़ने योग्य बड़ा पाषाण ६ लवण-नमक आदि ७ ऊस-खारवाली मिट्टी जिससे जमीन ऊसर हो जाती है ८ लोहा ९ तांबा १० रांगा ११ सीसा १२ चाँदी १३ सोना १४ वज्र-हीरा १५ हरताल १६ हिंगुल १७ मनःशिला १८ सासग-पारा १९ अंजन २० प्रवाल-विद्रुम २१ अभ्रपटल-अभ्रक-भोडल २२ अभ्रबालुका-अभ्रक मिली हुई रेत और (नाना प्रकार की मणियों के १८ प्रकार जैसे कि) २३ गोमेजक २४ रुचक २५ अंक २६ स्फटिक २७ लोहिताक्ष २८ मरकत २९ भुजमोचक ३० मसारगल्ल ३१ इन्द्रनील ३२ चन्दन ३३ गैरिक ३४ हंसगर्भ ३५ पुलक ३६ सौगंधिक ३७ चन्द्रप्रभ ३८ वैडूर्य ३९ जलकान्त और ४० सूर्यकान्त। उक्त रीति से मुख्यतया खर बादर पृथ्वीकाय के ४० भेद बताने के पश्चात् 'जे यावण्णे तहप्पगारा' कहकर अन्य भी पद्मराग आदि का सूचन कर दिया गया है। ये बादर पृथ्वीकायिक संक्षेप में दो प्रकार के कहे गये हैं-पर्याप्त और अपर्याप्त । जिन जीवों ने स्वयोग्य पर्याप्तियाँ पूरी नहीं की हैं उनके वर्णादि विशेष स्पष्ट नहीं होते हैं अतएव उनका काले आदि विशेष वर्णों से कथन नहीं हो सकता। शरीर आदि पर्याप्तियाँ पूर्ण होने पर ही बादर जीवों में वर्णादि प्रकट होते हैं। ये अपर्याप्त जीव उच्छ्वास पर्याप्ति पूर्ण करने के पूर्व ही मर जाते हैं अतः इन अपर्याप्तों के विशेष वर्णादि का कथन नहीं किया जा सकता । सामान्य विवक्षा में तो शरीरपर्याप्ति पूर्ण होते ही वर्णादि होते ही हैं। अतएव अपर्याप्तों में विशेष वर्णादि न होने का कथन किया गया है। सामान्य वर्णादि तो होते ही हैं। इन बादर पृथ्वीकायिकों में जो पर्याप्त जीव हैं, उनमें वर्णभेद से, गंधभेद से, रसभेद से और स्पर्शभेद से हजारों प्रकार हो जाते हैं। जैसे कि-वर्ण के ५, गंध के २, रस के ५ और स्पर्श के ८ । एक-एक काले आदि वर्ण के तारतम्य से अनेक अवान्तर भेद भी हो जाते हैं। जैसे भंवरा कोयला, कज्जल आदि काले हैं किन्तु इन सबकी कालिमा में न्यूनाधिकता है, इसी तरह नील आदि वर्गों में भी समझना चाहिए। इसी तरह गंध, रस और स्पर्श को लेकर भी भेद समझ लेने चाहिए। इसी तरह वर्गों के परस्पर संयोग से भी धूसर, कर्बुर, आदि अनेक भेद हो जाते हैं। इसी तरह गन्धादि के संयोग से भी कई भेद हो जाते हैं। इसलिए कहा गया है कि वर्णादि की अपेक्षा हजारों भेद हो जाते हैं। इन बादर पृथ्वीकायिकों की संख्यात लाख योनियाँ हैं। एक-एक वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श में पृथ्वीकायिकों की संवृतयोनि तीन प्रकार की हैं-सचित्त, अचित्त और मिश्र। इनमें से प्रत्येक के शीत, उष्ण, शीतोष्ण के भेद से तीन-तीन प्रकार हैं। शीतादि के भी तारतम्य से अनेक भेद हैं। केवल एक विशिष्ट वर्ण वाले संख्यात होते हुए भी स्वस्थान में व्यक्तिभेद होते हुए भी योनि-जाति को लेकर एक ही योनि गिनी जाति है। ऐसी संख्यात लाख योनियां पृथ्वीकाय में हैं। सूक्ष्म और बादर सब पृथ्वीकायों की सात लाख योनिया कही गई हैं। ये बादर पृथ्वीकायिक जीव एक पर्याप्तक की निश्रा में असंख्यात अपर्याप्त उत्पन्न होते हैं। जहाँ एक पर्याप्त है वहाँ उसकी निश्रा में नियम से असंख्येय अपर्याप्त होते हैं।
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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