________________
प्रथम प्रतिपत्ति ः मनुष्यों का प्रतिपादन]
[९९
उनका छहों दिशाओं से (पुद्गल ग्रहण रूप) आहार होता है।
वे सातवें नरक को छोड़कर शेष सब नरकों से आकर उत्पन्न होते हैं, असंख्यात वर्षायु को छोड़कर शेष सब तिर्यंचों से भी उत्पन्न होते हैं, अकर्मभूमिज, अन्तीपज और असंख्यात वर्षायु वालों को छोड़कर शेष मनुष्यों से भी उत्पन्न होते हैं और सब देवों से आकर भी उत्पन्न होते हैं।
उनकी जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट तीन पल्योपम की होती हैं। ये दोनों प्रकार के समवहत-असमवहत मरण से मरते हैं ।
ये यहाँ से मर कर नैरयिकों में यावत् अनुत्तरोपपातिक देवों में भी उत्पन्न होते हैं और कोई सिद्ध होते हैं यावत् सब दुःखों का अन्त करते हैं।
भगवन् ! ये जीव कितनी गति वाले और कितनी आगति वाले कहे गये हैं ?
गौतम ! पांच गति और चार आगति वाले हैं। ये प्रत्येकशरीरी और संख्यात हैं। आयुष्मन् श्रमण! यह मनुष्यों का कथन हुआ।
विवेचन-मनुष्य सम्बन्धी प्रश्न किये जाने पर सूत्रकार कहते हैं कि मनुष्य दो प्रकार के हैंसम्मूर्छिम मनुष्य और गर्भज मनुष्य । सम्मूर्छिम मनुष्यों के विषय में प्रश्न किया गया है कि यो कहाँ सम्मूर्छित होते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रज्ञापनासूत्र का निर्देश किया गया है। अर्थात् प्रज्ञापनासूत्र के अनसार इसका उत्तर जानना चाहिए। प्रज्ञापनासत्र में इस विषय में ऐसा उल्लेख किया गया है
"पैंतालीस लाख योजन के लम्बे चौड़े मनुष्यक्षेत्र में जिसमें अढाई द्वीप-समुद्र हैं, पन्द्रह कर्मभूमियां, तीस अकर्मभूमियां और छप्पन अन्तर्वीप हैं-गर्भव्युत्क्रान्तिक मनुष्यं के ही १ उच्चार (मल) में, २ प्रस्रवण (मूत्र) में, ३ कफ में, ४ सिंघाण-नासिका के मल में, ५ वमन में, ६ पित्त में, ७ मवाद में, ८ खून में, ९ वीर्य में, १० सूखे हुए वीर्य के पुद्गलों के पुनः गीला होने में, ११ मृत जीव के कलेवरों में, १२ स्त्रीपुरुष के संयोग में, १३ गांव-नगर की गटरों में और १४ सब प्रकार के अशुचि स्थानों में ये सम्मूर्छिम मनुष्य उत्पन्न होते हैं। अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण इनकी अवगाहना होती है। ये असंज्ञी, मिथ्यादृष्टि और सब पर्याप्तियों से अपर्याप्त रह कर अन्तर्मुहूर्त मात्र की आयु पूरी कर मर जाते हैं।"
इन सम्मूर्छिम मनुष्यों में शरीरादि द्वारों की वक्तव्यता इस प्रकार जाननी चाहिएशरीरद्वार-इनके तीन शरीर होते हैं-औदारिक, तैजस और कार्मण। अवगाहनाद्वार-इनकी अवगाहना जघन्य और उत्कृष्ट अंगुल के असंख्यातवें भाग-प्रमाण है। संहनन, संस्थान, कषाय, लेश्याद्वार द्वीन्द्रियों की तरह जानना। इन्द्रियद्वार-इनके पांचों इन्द्रियां होती हैं। संज्ञीद्वार और वेदद्वार द्वीन्द्रिय की तरह जानना। पर्याप्तिद्वार-पांच अपर्याप्तियां होती हैं। ये लब्धिअपर्याप्तक होते हैं।