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तृतीय प्रतिपत्ति :अविशुद्ध-विशुद्ध लेश्या वाले अनगार का कथन]
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देव को, देवी को और अनगार को जानता-देखता है क्या ?
हाँ , गौतम ! जानता-देखता है। जैसे अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए छह आलापक कहे हैं वैसे छह आलापक विशुद्धलेश्या वाले अनगार के लिए भी कहने चाहिए यावत्
हे भगवन् ! विशुद्धलेश्या वाला अनगार समवहत-असमवहत आत्मा द्वारा विशुद्ध लेश्यावाले देव, देवी और अनगार को जानता-देखता है क्या ?
हाँ, गौतम ! जानता-देखता है।
विवेचन-पूर्व सूत्र में स्थिति तथा निर्लेपना आदि का कथन किया गया । उस कथन को विशुद्धलेश्या वाला अनगार सम्यक् रूप से समझता है तथा अविशुद्धलेश्या वाला उसे सम्यक् रूप से नहीं समझता है। इस सम्बन्ध में यहाँ शुद्धलेश्या वाले और अशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर ज्ञान-दर्शनविषयक प्रश्न किये गये हैं। अविशुद्धलेश्या से तात्पर्य कृष्ण-नील-कापोत लेश्या से है। असमवहत का अर्थ वेदनादि समुद्घात से रहित और समवहत का अर्थ है वेदनादि समुद्घात से युक्त। समवहत-असमवहत का मतलब है वेदनादि समुद्घात से न तो पूर्णतया युक्त और न सर्वथा विहीन।
अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के विषय में छह आलापक इस प्रकार कहे गये हैं(१) असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (२) असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (३) समवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (४) समवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना, (५) समवहत-असमवहत होकर अविशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना। (६) समवहत-असमवहत होकर विशुद्धलेश्या वाले देवादि को जानना।
उक्त छहों आलापकों में अविशुद्धलेश्या वाले अनगार के जानने-देखने का निषेध किया गया है। क्योंकि अविशुद्धलेश्या होने से वह अनगार किसी वस्तु को सम्यक् रूप मे नहीं जानता है और नहीं देखता
विशुद्धलेश्या वाले अनगार को लेकर भी पूर्वोक्त रीति से छह आलापक कहने चाहिए और उन सब में देवादि को जानना-देखना कहना चाहिए। विशुद्धलेश्या वाला अनगार पदार्थों को सम्यक् रूप से जानता और देखता है। विशुद्धलेश्या वाला होने से यथावस्थित ज्ञान-दर्शन होता है अन्यथा नहीं।
मूल टीकाकार ने कहा है कि विशुद्धलेश्या वाला शोभन या अशोभन वस्तु को यथार्थ रूप में जानता है। समुद्घात भी उसका प्रतिबन्धक नहीं होता। उसका समुद्घात भी अत्यन्त अशोभन नहीं होता।'
तात्पर्य यह है कि अविशुद्धलेश्या वाला पदार्थों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं जानता और नहीं देखता
१. शोभनमशोभनं वा वस्तु यथावद् विशुद्धलेश्यो जानाति । समुद्घातोऽपि तस्याप्रतिबन्धक एव। -मूलटीकायाम्