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प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ]
[३५ कारण हो वह तैजस्शरीर है। जैसे कृषक खेत के क्यारों में अलग-अलग पानी पहुंचाता है इसी तरह यह शरीर ग्रहण किये हुए आहार को रसादि में परिणत कर अवयव-अवयव में पहुंचाता है। विशिष्ट तप से प्राप्त लब्धिविशेष से किसी किसी पुरुष को तेजोलेश्या निकालने की लब्धि प्राप्त हो जाती है, उसका हेतु भी तैजस्शरीर है। यह सभी संसारी जीवों के होता है।
कार्मणशरीर-आत्मप्रदेशों के साथ क्षीर-नीर की तरह मिले हुए कर्मपरमाणु ही शरीर रूप में परिणत होकर २ कार्मणशरीर कहलाते हैं। कर्म-समूह ही कार्मणशरीर है। यह अन्य सब शरीरों का मूल हैं। कार्मण के होने पर ही शेष शरीर होते हैं। कार्मण के उच्छेद होते ही सब शरीरों का उच्छेद हो जाता
जीव जब अन्य गति में जाता है तब तैजस् सहित कार्मणशरीर ही उसके साथ होता है। सूक्ष्म होने के कारण यह तैजस्-कार्मण शरीर गत्यन्तर में जाता-आता दृष्टिगोचर नहीं होता। इस विषय में अन्यतीर्थिक भी सहमत हैं। उन्होंने कहा है कि गत्यन्तर २ मे जाता-आता हुआ यह शरीर सूक्ष्म होने से दृष्टिगोचर नहीं होता। दृष्टिगोचर न होने से उसका अभाव नहीं मानना चाहिए।
. उक्त पांच शरीरों में से सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं-औंदारिक, तैजस् और कार्मण। वैक्रिय और आहारक उनके नहीं होते। क्योंकि ये दोनों लब्धियाँ हैं और भवस्वभाव से ही वे जीव इन लब्धियों से वंचित होते हैं।
२. अवगाहनाद्वार-शरीर की ऊँचाई को अवगाहना कहते हैं। यह दो प्रकार की होती है-जघन्य और उत्कृष्ट । सूक्ष्मपृथ्वीकायिक जीवों की अवगाहना जघन्य अंगुल का असंख्यातवाँ भाग है और उत्कृष्ट भी अंगुल का असंख्यातवाँ भाग ही है, परन्तु जघन्य पद से उत्कृष्ट पद में अपेक्षा कृत अधिक अवगाहना जाननी चाहिए।
३. संहननद्वार-हड्डियों की रचनाविशेष को संहनन कहते हैं। वे छह हैं-वज्रऋषभनाराच, ऋषभनाराच, नाराच, अर्धनाराच, कीलिका और सेवार्त।
वऋषभनाराच-वज्र का अर्थ कीलिका है। ऋषभ का अर्थ परिवेष्टनपट्ट है और नाराच का अर्थ दोनों तरफ मर्कटबन्ध होना है। तात्पर्य यह हुआ कि दो हड्डियाँ दोनों ओर से मर्कटबन्ध से जुड़ी हों, ऊपर से तीसरी हड्डीरूप पट्टे से वेष्टित हों और ऊपर से तीनों अस्थियों को भेदता हुआ कीलक हो। इस प्रकार की मजबूत हड्डियों की रचना को वज्रऋषभनाराचसंहनन कहते हैं।
१. सव्वस्स उम्हासिद्धं रसाइ आहारपाकजणगं च ।
तेजगलद्धिनिमित्तं च तेयगं होइ नायव्यं । २. कम्मविकारो कम्मट्ठविह विचित्तकम्मनिष्फन्न।
सव्वेसिं सरीराणां कारणभूयं मुणेयव्वं ॥ ... ३. अन्तरा भवदेहोऽपि सूक्ष्मत्वानोपलभ्यते।
निष्क्रामन् प्रविशन् वाऽपि नाभावोऽनीक्षणादपि॥