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से है । अन्यथा उत्तरवैक्रिय तो लाखयोजन प्रमाण भी होता है ।
अथवा उदार अर्थात् स्थूल पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। जो शरीर सड़न - गलन स्वभाव वाला है, जिसका छेदन-भेदन किया जा सकता है, जिसमें त्वचा, रक्त, मांस, अस्थि आदि हों, वह औदारिक शरीर है।
[जीवाजीवाभिगमसूत्र
वैक्रियशरीर- जो शरीर विविध रूपों में परिवर्तित किया जा सकता है, वह वैक्रियशरीर है। जो एक होकर अनेक हो जाता हो, अनेक होकर एक हो जाता हो, छोटे से बड़ा, बड़े से छोटा हो जाता हो, खेचर से भूचर और भूचर से खेचर, दृश्य से अदृश्य और अदृश्य से दृश्य हो सकता है, वह वैक्रियशरीर है । यह शरीर दो प्रकार का है- औपपातिक और लब्धिप्रत्ययिक ।
देवों और नारकों को जन्म से जो शरीर प्राप्त होता है वह औपपातिक वैक्रियशरीर है तथा किन्हीं विशिष्ट मनुष्य - तिर्यञ्चों को लब्धि के प्रभाव से विविध रूप बनाने की शक्ति प्राप्त होती है वह लब्धिजन्य वैक्रियशरीर है। बादर वायुकायिक जीवों में भी कृत्रिम लब्धिजन्य वैक्रियशरीर माना गया है। इस शरीर की रचना में रक्त, मांस, अस्थि आदि नहीं होते । सडन - गलन धर्म भी नहीं होते । औदारिक की अपेक्षा इसके प्रदेश प्रमाण में असंख्यातगुण अधिक होते हैं किन्तु सूक्ष्म होते हैं ।
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आहारकशरीर - चौदह पूर्वधारी मुनि तीर्थंकर की ऋद्धि-महिमा दर्शन के लिए तथा अन्य इसी प्रकार के प्रयोजन होने पर विशिष्ट लब्धि द्वारा जिस शरीर की रचना करते हैं, वह आहारक है। विशिष्ट प्रयोजन बताते हुए कहा गया है कि -२ प्राणिदया, ऋद्धिदर्शन, सूक्ष्मपदार्थों की जानकारी के लिए और संशय के निवारण के लिए चतुर्दशपूर्वधारी मुनि अपनी लब्धिविशेष से एक हस्तप्रमाण सूक्ष्मशरीर बनाकर तीर्थंकर भगवान् के पास भेजते हैं। यह सूक्ष्मशरीर अत्यन्त शुभ स्वच्छ स्फटिकशिला की तरह शुभ्र पुद्गलों से रचा जाता है। इस शरीर की रचना कर चौदह पूर्वधारी मुनि महाविदेह आदि क्षेत्र में विचरते हुए तीर्थंकर भगवान् के पास भेजते हैं । यदि तीर्थंकर भगवान् वहाँ से अन्यत्र विचरण कर गये हों तो उस एक हस्तप्रमाण से मुंड हस्तप्रमाण पुतला निकलता है जो तीर्थंकर भगवान् जहाँ होते हैं वहाँ पहुँच जाता है । वहाँ से प्रश्नादि का समाधान लेकर एक हस्तप्रमाण शरीर में प्रवेश करता है और वह एक हस्तप्रमाण शरीर चौदह पूर्वधारी मुनि के शरीर में प्रविष्ट हो जाता है। इससे चौदह पूर्वधारी का प्रयोजन पूरा हो जाता है। एक अन्तर्मुहूर्त काल में यह सब प्रक्रिया हो जाती है। इस प्रकार की शरीर रचना आहारकशरीर है। यह आहारकशरीर लोक में कदाचित् सर्वथा नहीं भी होता है। इसके अभाव का काल जघन्य एक समय और उत्कृष्ट छह मास है।
तैजस्शरीर – जो शरीर तेजोमय होने से खाये हुए आहार आदि के परिपाक का हेतु और दीप्ति का
१. आह्रियते निर्वत्त्यते इत्याहारकम् ।
२. कज्जम्मि समुप्पन्ने सुयकेवलिणा विसिट्ठलद्धीए ।
जं एत्थ आहारेज्जइ भांति आहारगं तं तु ॥