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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: पृथ्वीकाय का वर्णन ] 1 सम्पन्न थे। वे प्रश्न किये जाने पर संख्यातीत भवों को बता सकते थे । ' ऐसे विशिष्ट ज्ञानी भगवान् गौतम साधारण से भी साधारण प्रश्न क्यों पूछते हैं ? [३३ इस जिज्ञासा को लेकर तीन प्रकार के समाधान प्रस्तुत किये गये हैं । प्रथम समाधान यह है कि श्री गौतम गणधर सब कुछ जानते थे और वे अपने विनेयजनों को सब प्रतिपादन भी करते थे । परन्तु उसकी यथार्थता का शिष्यों के मन में विश्वास पैदा करने के लिए वे भगवान् से प्रश्न करके उनके श्रीमुख से उत्तर दिलवाते थे । दूसरा समाधान यह है कि द्वादशांगी में तथा अन्य श्रुतसाहित्य में गणधरों के प्रश्न तथा भगवान् के उत्तर रूप बहुत सारा भाग हैं, अतएव सूत्रकार ने इसी रूप में सूत्र की रचना की है। तीसरा समाधान यह है कि चौदह पूर्वधर होने पर भी आखिर तो श्री गौतम छद्मस्थ थे और छद्मस्थ स्वल्प भी अनाभोग (अनुपयोग) हो सकता है। इसलिए भगवान् से पूछकर उस पर यथार्थता की छाप लगाने के लिए भी उनका प्रश्न करना संगत ही है । भगवान् गौतम ने प्रश्न पूछा कि हे परमकल्याणयोगिन् ! सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के कितने शरीर होते हैं ? प्रभु महावीर ने लोकप्रसिद्ध महागोत्र 'गौतम' सम्बोधन से सम्बोधित कर गौतम स्वामी के मन में प्रमोद और आह्लाद भाव पैदा करते हुए उत्तर दिया । यह मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि जिज्ञासु के असाधारण गुणों का कथन करने से उस व्यक्ति में विशिष्ट प्रेरणा जागृत होती हैं, जिससे वह विषय को भलीभाँति समझ सकता है। १. शरीरद्वार - भगवान् ने कहा कि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के तीन शरीर होते हैं — औदारिक, तैजस् और कार्मण । सामान्यरूप से शरीर पाँच हैं - १. औदारिक, २. वैक्रिय, ३. आहारक, ४. तैजस् और ५. कार्मण । औदारिक - उदार अर्थात् प्रधान - श्रेष्ठ पुद्गलों से बना हुआ शरीर औदारिक है। यह तीर्थंकर और गणधरों के शरीर की अपेक्षा समझना चाहिए। तीर्थंकर एवं गणधरों के शरीर की तुलना में अनुत्तर विमानवासी देवों के शरीर अनन्तगुणहीन हैं। 1 अथवा उदार का अर्थ बृहत् (बड़ा) है। शेष शरीरों की अपेक्षा बड़ा होने से औदारिक है । औदारिक शरीर का प्रमाण कुछ अधिक हजार योजन है । यह वृहत्तर (जन्मजात ) भवधारणीय वैक्रिय शरीर की अपेक्षा १. संखातीते विभवे साहइ जं वा परो उ पुच्छेज्जा । न य णं अणाइसेसी वियाणइ एस छउमत्थो ॥ २. नहि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । ज्ञानावरणीयं हि ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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