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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
विवक्षा है तब तेजस और वायु को त्रस में गिना गया है। परन्तु जब स्थावर नामकर्म के उदय की विवक्षा है तब उन्हें स्थावर में गिना गया है। तेज और वायु के त्रसनामकर्म का उदय नहीं, स्थावरनामकर्म का उदय है। अतएव विवक्षाभेद से दोनों प्रकार के कथनों की संगति समझना चाहिए।
स्थावर-'तिष्ठन्तीत्येवंशीलाः स्थावराः'। उष्णादि से अभितप्त होने पर भी जो उस स्थान को छोड़ने में असमर्थ हैं, वहीं स्थित रहते हैं; ऐसे जीव स्थावर कहलाते हैं। यहाँ स्थावर जीवों के तीन भेद बताये१. पृथ्वीकाय २. अप्काय और ३ वनस्पतिकाय।
सामान्यतया स्थावर के पांच भेद गिने जाते हैं। तेजस् और वायु को भी स्थावरनामकर्म के उदय से स्थावर माना जाता है। परन्तु यहाँ गतित्रस की विवक्षा होने से तेजस्, वायु की गणना त्रस में करने से स्थावर जीवों के तीन ही भेद बताये हैं। तत्त्वार्थसूत्र में भी ऐसा की कहा गया है-'पृथिव्यम्बुवनस्पतयः स्थावराः'।
१. पृथ्वीकाय-पृथ्वी ही जिन जीवों का काया-शरीर है, वे पृथ्वीकायिक हैं। जो लोग पृथ्वी को . एक देवता रूप मानते हैं, इस कथन से उनका निरसन हो जाता है। पृथ्वी एकजीवरूप न होकर-असंख्य जीवों का समुदाय रूप है। जैसा कि आगम में कहा है-पृथ्वी सचित्त कही गई है, उसमें पृथक् पृथक् अनेक जीव हैं।
२. अप्काय-जल ही जिन जीवों का शरीर है, वे अप्कायिक जीव हैं। ३. वनस्पतिकाय-वनस्पति जिनका शरीर है, वे वनस्पतिकायिक जीव हैं।
पृथ्वी सबका आधार होने से उसे प्रथम ग्रहण किया है। पृथ्वी के आधार पर पानी रहा हुआ है अतएव पृथ्वी के बाद जल का ग्रहण किया गया है।
'जत्थ जलं तत्थ वणं' के अनुसार जहाँ जहाँ जल है वहाँ वहाँ वनस्पति है, इस सैद्धान्तिक तत्त्व के प्रतिपादन हेतु जल के बाद वनस्पति का ग्रहण हुआ है। इस प्रकार पृथ्वी, पानी और वनस्पतिकायिकों के क्रम का निरूपण किया गया है। पृथ्वीकाय का वर्णन
११. से किं पुढविकाइया? पुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहासुहुमपुढविकाइया य बायरपुढविकाइया य। [११] पृथ्वीकायिक का स्वरूप क्या है ? पृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैं-जैसे कि-सूक्ष्मपृथ्वीकायिक और बादरपृथ्वीकायिक।
१. तत्तवार्थसूत्र अध्याय २, सूत्र १३ २. पुढवी चित्तमंतमक्खाया, अणेग जीवा, पुढो सत्ता अन्नत्थ सत्थपरिणएणं।
-दशकै