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________________ प्रथम प्रतिपत्ति: संसारसमापनक जीवाभिगम ] [१९ - जहा-तसा चेव थावरा चेव॥ [९] जो दो प्रकार के संसारसमापनक जीवों का कथन करते हैं, वे कहते हैं कि त्रस और स्थावर के भेद से वे दो प्रकार के हैं। १०. से किं तं थावरा? थावरा तिविहा पण्णत्ता, तं जहा१. पुढविकाइया २. आउक्काइया ३. वणस्सइकाइया। [१०] स्थावर किसे कहते हैं ? स्थावर तीन प्रकार के कहे गये हैंयथा-१. पृथ्वीकायिक २. अप्कायिक और ३. वनस्पतिकायिक। विवेचन-संसारसमापन्न जीवों के भेद बताने वाली नौ प्रतिपत्तियों में से प्रथम प्रतिपत्ति का निरूपण करते हुए इस सूत्र में कहा गया है कि संसारवर्ती जीव दो प्रकार के हैं-त्रस और स्थावर। इन दो भेदों में समस्त संसारी जीवों का अन्तर्भाव हो जाता है। त्रस-'वसन्तीति त्रसाः' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जो एक स्थान से दूसरे स्थान पर आ-जा सकते हैं, वे जीव त्रस कहलाते हैं। गर्मी से तप्त होने पर जो जीव उस स्थान से चल कर छाया वाले स्थान पर आते हैं अथवा शीत से घबरा कर धूप में जाते हैं, वे चल-फिर सकने वाले जीव त्रस हैं। सनामकर्म के उदय वाले जीव त्रस कहलाते हैं, इस अपेक्षा से द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय जीव त्रस के अन्तर्गत आते हैं। __यहाँ यह उल्लेखनीय है कि आगम में तेजस्काय और वायुकाय को भी त्रस के अन्तर्गत माना गया है। इसी जीवाभिगमसूत्र में आगे कहा गया है कि-त्रस तीन प्रकार के हैं-तेजस्काय, वायुकाय और औदारिक वस प्राणी। तत्त्वार्थसूत्र में भी 'तेजोवायुद्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः' कहा गया है। अन्यत्र उन्हें स्थावर कहा गया है। इन दोनों प्रकार के कथनों की संगति इस प्रकार जाननी चाहिए त्रस जीवों के सम्बन्ध में दो प्रकार की विवक्षाएँ हैं। प्रथम विवक्षा में जो जीव अभिसन्धिपूर्वकसमझपूर्वक इधर से उधर गमनागमन कर सकते हैं और जिनके त्रसनामकर्म का उदय है वे त्रस जीव लब्धित्रस कहे जाते हैं और इस विवक्षा से द्वीन्द्रियादि जीव त्रस की कोटि में आते हैं, तेज और वायु नहीं। दूसरी विवक्षा में जो जीव अभिसन्धिपूर्वक अथवा अनभिसन्धिपूर्वक भी ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, वे त्रस कहलाते हैं। इस व्याख्या और विवक्षा के अनुसार तेजस् और वायु ऊर्ध्व या तिर्यक् गति करते हैं, इसलिये वे त्रस हैं। ऐसे त्रस जीवों को गतित्रस कहा गया है। तात्पर्य यह है कि जब केवल गति की -जीवाभि. सूत्र १६ १. तसा तिविहा पण्णत्ता तं जहा-तेउकाइया, वाउकाइया ओराला तसा पाणा। २. तत्त्वार्थ. अ. २, सू. १४
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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