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[जीवाजीवाभिगमसूत्र
४. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव पाँच प्रकार के कहे गये हैं।
५-१०. ऐसा ही कथन तब तक कहना चाहिए यावत् कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव दस प्रकार के कहे गये हैं।
विवेचन-प्रस्तुत सूत्र में संसारवर्ती जीवों के विषय में प्रश्नोत्तर किये गये हैं। प्रश्न किया गया हैं कि संसारवर्ती जीव का स्वरूप क्या है ? संसारवर्ती जीव के भेदों को बताकर उक्त प्रश्न का उत्तर दिया गया है। भेदों के कथन से वस्तु का स्वरूप ज्ञात हो ही जाता है। संसारवर्ती जीवों के प्रकार के सम्बन्ध में यहाँ नौ प्रतिपत्तियाँ बताई गई हैं। प्रत्तिपत्ति का अर्थ है-प्रतिपादन, कथन । ' इस सम्बन्ध में नौ प्रकार के प्रतिपादन हैं। जैसे कि कोई आचार्य संसारवर्ती जीवों के दो प्रकार कहते हैं, कोई आचार्य उनके तीन प्रकार कहते हैं। इसी क्रम से कोई आचार्य संसारवर्ती जीवों के दस प्रकार कहते हैं। दो से लगाकर दस प्रकार के संसारी जीव हैं-यह नौ प्रकार के कथन या प्रतिपादन हुए। यहाँ यह ध्यान रखना चाहिए कि ये नौ ही प्रकार के कथन परस्पर भिन्न होते हुए भी विरोधी नहीं हैं। जो आचार्य संसारवर्ती जीवों को दो प्रकार का कहते हैं, वे ही आचार्य अन्य विवक्षा से संसारवर्ती जीव के तीन प्रकार भी कहते हैं, अन्य विवक्षा से चार प्रकार भी कहते हैं यावत् अन्य विवक्षा से दस प्रकार भी कहते हैं। विवक्षा के भेद से कथनों में भेद होता है परन्तु उनमें विरोध नहीं होता। जो जीव दो प्रकार के हैं वे ही दूसरी अपेक्षा से तीन प्रकार के हैं, अन्य अपेक्षा से चार, पाँच, छह, सात, आठ नौ और दस प्रकार के हैं। अतएव इन नौ प्रकार की प्रतिपत्तियों में कोई विरोध नहीं है। अपेक्षा के भेद से सभी सम्यग् और सही हैं।
वृत्तिकार ने 'प्रतिपत्ति' शब्द के सन्दर्भ में यह भी कहा है कि प्रतिपत्ति केवल शब्दरूप ही नहीं है अपितु शब्द के माध्यम से अर्थ में प्रवृत्ति कराने वाली है। शब्दाद्वैतवादी मानते हैं कि 'शब्दमात्रं विश्वम्'। सब संसार शब्दरूप ही है, ऐसा मानने से केवल शब्द ही सिद्ध होगा, विश्व नहीं। अतः उक्त मान्यता सत्य से परे है। सही बात यह है कि शब्द के माध्यम से अर्थ का कथन किया जाता है, तभी प्रतिपत्ति (ज्ञान) हो सकती है।
स्याद्वाद या अपेक्षावाद जैन सिद्धान्त का प्राण है। अतएव नय-निक्षेप की अपेक्षाओं को ध्यान में रख कर वस्तुतत्त्व को समझना चाहिए।
वस्तु अनन्तधर्मात्मक है। वह एकान्त एकरूप नहीं है। यदि वस्तु को सर्वथा एकरूप ही माना जायगा तो विश्व की विचित्रता संगत नहीं होगी। प्रथम प्रतिपत्ति का कथन
९. तत्थ णं जे एवमाहंसु 'दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता' ते एवमाहंसु तं
१. प्रतिपत्तयः प्रतिपादनानि संवित्तयः इति यावत्। -मलय. वृत्ति २. प्रतिपत्तय इति परमार्थतोऽनुयोगद्वाराणि, इति प्रतिपत्तव्यम्।