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प्रथम प्रतिपत्ति: जीवाभिगमका स्वरूप और प्रकार ]
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जब पचासी से लगाकर छियानवै पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब तीन समय तक ऐसा होता है बाद में अवश्य अन्तर पड़ता है।
जब सत्तानवें से लगाकर एक सौ दो पर्यन्त निरन्तर सिद्ध होते हैं तब दो समय तक ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता है।
जब एक सौ तीन से लेकर एक सौ आठ निरन्तर सिद्ध होते हैं तब एक समय तक ही ऐसा होता है। बाद में अन्तर पड़ता ही है।
इस प्रकार एक समय में उत्कृष्टतः एक सौ आठ सिद्ध हो सकते हैं। यह अनेकसिद्धों का कथन हुआ। इसके साथ ही अनन्तरसिद्धों का कथन सम्पूर्ण हुआ।
परम्परसिद्ध-परम्परसिद्ध अनेक प्रकार के कहे गये हैं। यथा-प्रथमसमयसिद्ध, द्वितीयसमयसिद्ध, तृतीयसमयसिद्ध यावत् असंख्यातसमयसिद्ध और अनन्तसमयसिद्ध।
जिनको सिद्ध हुए एक समय हुआ वे तो अनन्तरसिद्ध होते हैं अर्थात् सिद्धत्व के प्रथम समय में वर्तमानसिद्ध अनन्तरसिद्ध कहलाते हैं। अतः सिद्धत्व के द्वितीय आदि समय में स्थित परम्परसिद्ध होते हैं। मूल पाठ में जो पढमसमयसिद्ध' पाठ है वह परम्परसिद्धत्व का प्रथम समय अर्थात् सिद्धत्व का द्वितीय समय जानना चाहिए। अर्थात् जिन्हें सिद्ध हुए दो समय हुए वे प्रथमसमय परम्परसिद्ध हैं। जिन्हें सिद्ध हुए तीन समय हुए वे द्वितीयसमयसिद्ध परम्परसिद्ध जानने चाहिए। इसी तरह आगे भी जान लेना चाहिए।
यह परम्परसिद्ध असंसारसमापनक जीवाभिगम का कथन हुआ। संसारसमापन्नक जीवाभिगम
८. से किं तं संसारसमापनकजीवाभिगमे ? संसारसमावण्णएसु णं जीवेसु इमाओ णव पडिवत्तीओ एवमाहिजंति, तं जहा१. एगे एवमांहसु-दुविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। २. एगे एवमाहंसु-तिविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ३. एगे एवमाहंसु-चउव्विहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ४. एगे एवमाहंसु-पंचविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। ५-१०. एतेण अभिलावेणं जाव दसविहा संसारसमावण्णगा जीवा पण्णत्ता। [८] संसारप्राप्त जीवाभिगम क्या है ? संसारप्राप्त जीवों के सम्बन्ध में ये नौ प्रतिपत्तियाँ (कथन) इस प्रकार कही गई हैं१. कोई ऐसा कहते है कि संसारप्राप्त जीव दो प्रकार के कहे गये हैं। २. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारवर्ती जीव तीन प्रकार के कहे गये हैं। ३. कोई ऐसा कहते हैं कि संसारप्राप्त जीव चार प्रकार के कहे गये हैं।