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________________ प्रथम प्रतिपत्ति का कथन] [२१ १२. से किं सुहमपुढविकाइया ? सुहुमपुढविकाइया दुविहा पण्णत्ता, तं जहा-पजत्तगा य अपज्जत्तगा य। [१२] सूक्ष्मपृथ्वीकायिक क्या हैं ? सूक्ष्मपृथ्वीकायिक दो प्रकार के कहे गये हैंजैसे कि-पर्याप्तक और अपर्याप्तक। विवेचन-पृथ्वीकायिक जीव दो प्रकार के कहे गये हैं-१. सूक्ष्म पृथ्वीकायिक और २. बादर पृथ्वीकायिक। सूक्ष्म पृथ्वीकायिक से तात्पर्य सूक्ष्मनामकर्म के उदय से है, न कि बेर और आँवले की तरह आपेक्षिक सूक्ष्मता या स्थूलता से। सूक्ष्म नामकर्म के उदय से जिन जीवों का शरीर चर्मचक्षुओं से नहीं देखा जा सकता है, वे सूक्ष्म जीव हैं। ये सूक्ष्म जीव चतुर्दश रज्जुप्रमाण सम्पूर्ण लोक में सर्वत्र व्याप्त हैं । इस लोक में कोई ऐसा स्थान नहीं है जहाँ सूक्ष्म जीव न हों। जैसे काजल की कुप्पी में काजल ठसाठस भरा रहता है अथवा जैसे गंधी की पेटी में सुगंध सर्वत्र व्याप्त रहती है इसी तरह सूक्ष्म जीव सारे लोक में ठसाठस भरे हुए हैं-सर्वत्र व्याप्त हैं । ये सूक्ष्म जीव किसी से प्रतिघात नहीं पाते। पर्वत की कठोर चट्टान से भी आरपार हो जाते हैं। ये सूक्ष्म जीव किसी के मारने से मरते नहीं, छेदने से छिदते नहीं भेदने से भिदते नहीं। विश्व की किसी भी वस्तु से उनका घात-प्रतिघात नहीं होता। ऐसे सूक्ष्मनामकर्म के उदय वाले ये सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीव सारे लोक में व्याप्त हैं।' बादर पृथ्वीकाय-बादरनामकर्म के उदय से जिन पृथ्वीकायिक जीवों का शरीर (अनेकों के मिलने पर) चर्मचक्षुओं से ग्राह्य हो सकता है, जिसमें घात-प्रतिघात होता हो, जो मारने से मरते हों, छेदने से छिदते हों, भेदने से भिदते हों, वे बादर पृथ्वीकायिक जीव हैं। ये लोक के प्रतिनियत क्षेत्र में ही होते हैं, सर्वत्र नहीं। मूल में आये हुए 'दोनों चकार सूक्ष्म और बादर के स्वगत अनेक भेद-प्रभेद के सूचक हैं।' सूक्ष्म पृथ्वीकायिक के भेद-सूक्ष्म पृथ्वीकायिक जीवों के सम्बन्ध में बताया गया है कि वे दो प्रकार के हैं, यथा-१. पर्याप्तक और २. अपर्याप्तक। पर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियाँ पूरी कर.ली हों वे पर्याप्तक हैं। अपर्याप्तक-जिन जीवों ने अपनी पर्याप्तियाँ पूरी नहीं की हैं या पूरी करने वाले नहीं हैं वे अपर्याप्तक हैं। पर्याप्तक और अपर्याप्तक के स्वरूप को समझने के लिए पर्याप्तियों को समझना आवश्यक है। पर्याप्ति का स्वरूप इस प्रकार है १. "सुहमा सव्वलोगम्मि'। -उत्तराध्ययन
SR No.003454
Book TitleAgam 14 Upang 03 Jivabhigam Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Rajendramuni, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages498
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_jivajivabhigam
File Size11 MB
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