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तृतीय प्रतिपत्ति: द्वितीय उद्देशक ]
विवेचन - पृथ्वियां कितनी हैं ? यह प्रश्न पहले किया जा चुका है और उसका उत्तर भी पूर्व में दिया जा चुका है कि पृथ्वियाँ सात हैं, यथा - रत्नप्रभा से लगाकर अधः सप्तम पृथ्वी तक । फिर यह प्रश्न दुबारा क्यों किया गया है, यह शंका सहज होती है। इसका समाधान करते हुए पूर्वाचार्यों ने कहा है कि ' 'जो पूर्ववर्णित विषय पुनः कहा जाता है वह किसी विशेष कारण को लेकर होता है। यह विशेष कारण प्रतिषेध या अनुज्ञारूप भी हो सकता है और पूर्व विषय में विशेषता प्रतिपादन रूप भी हो सकता।' यहाँ दुबारा किया यह प्रश्न और पूर्ववर्णित विषय में अधिक और विशेष जानकारी देने के अभिप्राय से समझना चाहिए ।
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यहाँ विशेष प्रश्न यह है कि नरकावासों की स्थिति नरक - पृथ्वियों के कितने भाग में है तथा उन नरकावासों का आकार कैसा है तथा वहाँ के नारक जीव कैसी वेदना भोगते हैं ?
इन प्रश्नों के संदर्भ में प्रभु ने फरमाया कि एक लाख अस्सी हजार योजन प्रमाण बाहल्य (मोटाई) वाली रत्नप्रभापृथ्वी के ऊपरी भाग से एक हजार योजन की दूरी पार करने पर और अन्तभाग का एक हजार योजन प्रमाण भाग छोड़कर मध्य के एक लाख अठहत्तर हजार योजन प्रमाण क्षेत्र में तीस लाख नरकावास कहे गये हैं। यह कथन जैसे मैं कर रहा हूँ वैसा ही अतीत काल के तीर्थंकरों ने भी किया है । सब तीर्थंकरों के वचनों में अत्रिसंवादिता और एकरूपता होती है ।
ये नरकावास मध्य में गोल हैं और बाहर से चतुष्कोण हैं। पीठ के ऊपर वर्तमान जो मध्यभाग है उसको लेकर गोलाकृति कही गई है तथा सकलपीठादि की अपेक्षा से तो आवलिका प्रविष्ट नरकावास तिकोण, चतुष्कोण संस्थान वाले कहे गये हैं और जो पुष्पावकीर्ण नरकावास हैं वे अनेक प्रकार के हैं -सूत्र में आये हुए 'जाव असुभा' पद से २ टिप्पण में दिये पाठ का संग्रह हुआ है, जिसका अर्थ इस प्रकार है
अहेखुरप्पसंठाणा - ये नरकावास नीचे के भाग से क्षुरा (उस्तरा ) के समान तीक्षण आकार के हैं। इसका अर्थ यह है कि इन नरकावासों का भूमितल चिकना या मुलायम नहीं है किन्तु कंकरों से युक्त है, जिनके स्पर्शमात्र से नारकियों के पांव कट जाते हैं - छिल जाते हैं और वे वेदना का अनुभव करते हैं ।
णिच्चधयार तमसा-उन नरकावासों में सदा गाढ अन्धकार बना रहता है। तीर्थंकरादि के जन्मादि प्रसंगों के अतिरिक्त वहाँ प्रकाश का सर्वथा अभाव होने से जात्यन्ध की भांति मेघाच्छन्न अर्धरात्रि के अन्धकार से भी अतिघना अन्धकार वहाँ सदाकाल व्याप्त रहता है, क्योंकि वहाँ प्रकाश करने वाले सूर्यादि हैं ही नहीं । इसी को विशेष स्पष्ट करने के लिए आगे और विशेषण दिया है
ववगयगहचंदसूरनक्खत्तजोइसपहा -उन नरकावासों में ग्रह-चन्द्र-सूर्य-नक्षत्र - तारा आदि ज्योतिष्कों
का पथ संचार रास्ता नहीं है अर्थात् ये प्रकाश करने वाले तत्त्व वहाँ नहीं हैं ।
१. पुव्वभणियं पि जं पुण भण्णइ तत्थ कारणमत्थि ।
पडिसेहो य अणुण्णा कारणविसेसोवलंभो वा ॥
२. 'अहे खुरप्पसंठाणसंठिया, णिच्चंधयारतमसा, ववगयगह चंद-सूर - नक्खत्तजोइसपहा, मेयवसापूयरुहिरमंसचिक्खिल्ललित्ताणुलेवणतला, असुहबीभच्छा, परमदुब्भिगंधा काऊअगणिवण्णाभा कक्खडफासा दुरहियासा असुहा नरएसु वेयणा । '